Book Title: Ratnastok Mnjusha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 35
________________ की हीनता से उसमें अशुभ भाव उत्पन्न हो जाये और भावों से साधुपने को छोड़कर असंयम में चला जाये। असंयम में एक समय ही रहे और पुनः भावों की शुभता हो जाने से संयम में (साधुपने में) आ जाये। साधुपने में एक समय रहे और मरण को प्राप्त हो जाय। इस अपेक्षा से धर्मदेव का जघन्य संचिट्ठणकाल परिणामों की अपेक्षा एक समय का माना गया है। (3) अन्तर द्वार संबंधी नरदेव अर्थात् चक्रवर्ती की पदवी पूरे संसार अवस्थान काल में दो बार से अधिक प्राप्त नहीं होती है। नरदेव के लिए यह नियम है कि वह यदि मरकर पहली नारकी तथा भवनपति आदि देवों में जाता है तो कम से कम एक सागरोपम की स्थिति पाता है। वहाँ से निकलकर अगले भव में चक्ररत्नादि की साधना कर चक्रवर्ती पद को प्राप्त करता है, इस अपेक्षा से नरदेव का जघन्य अन्तर एक सागरोपम झाझेरी (कुछ अधिक) माना है। 'नरदेव' भवी तथा शुक्लपक्षी ही बनते हैं। अत: उनका उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्धपुद्गल परावर्तन काल से अधिक नहीं होता है क्योंकि वे देशोन अर्धपुद्गल परावर्तन काल में तो अवश्य ही मोक्ष में चले जाते हैं। ॐ धर्मदेव का जघन्य अन्तर पल्योपम पृथक्त्व अर्थात् 2 से 9 पल्योपम का बतलाया है, क्योंकि धर्मदेव (साधु) आराधकपने में काल करे तो जघन्य पहले देवलोक में जाते हैं। यद्यपि पहले 30

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