Book Title: Ratnastok Mnjusha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 89
________________ 14. जिस पुरुष ने अपने को धनवान् इज्जतवान् अधिकारी बनाया, उस उपकारी से ईर्ष्या करे, बुराई करे, हल्का बताने की चेष्टा करे, उपकार का बदला अपकार से देवे । 15. भरणपोषण करने वाले राजादि के धन में लुब्ध होकर राजा का तथा ज्ञानदाता गुरु का हनन करे । 16. राजा, नगर-सेठ तथा मुखिया ( बहुत यश वाले), इन तीनों में से किसी का हनन करे । 17. बहुत-से मनुष्यों का आधारभूत जो मनुष्य है, उसका हनन करे । 18. जो संयम लेने को तैयार हुआ है, उसकी संयम से रुचि हटावे तथा संयम लिये हुए को धर्म से भ्रष्ट करे । 19. तीर्थङ्कर के अवर्णवाद बोले । 20. तीर्थङ्कर प्ररूपित न्याय मार्ग का द्वेषी बन कर उस मार्ग की निन्दा करे तथा उस मार्ग से लोगों का मन दूर हटावें । 21. आचार्य, उपाध्याय तथा सूत्र विनय के सिखाने वाले पुरुषों की निन्दा करे, उपहास करे । 84

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