Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 729
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपणम् १७३ इत्यर्थः दावद्रवा वृक्षा — जुन्ना' जीर्णाः चिरकालीनाः ‘झोडा' झोड:-शटनं, तद् योगाद् वृक्षा अपि झोडाः शटितमूलस्कन्धा इत्यर्थः, 'परिसडियपंडपत्तपुप्फफला' परिशटितपाण्डु पत्रपुष्यफलाः-परिशटितानि-शीर्णानि-अतएव पाण्डूनि= ईषत्पीतानि पत्राणि पुष्पाणि फलानि च येषां ते तथोक्ताः, ' सुकारुक्खओविव निलायमाणा' शुष्कक्षा इव म्लायन्तः २-शोभारहितास्तिष्ठन्ति । भगवानाह'एवामेव ' एवमेव अनेनैव प्रकारेण ' समणाउसो' हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं निग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा यावत्पद्रजितः सन् बहूनां श्रमणानां बहीनां श्रमणीनां बहूनांश्रकाणां बहीनां श्राविकानां कर्कशकठोर वचनाद्युपसर्गान् ‘सम्म' सम्यक पश्चिम दिशा संपन्धी मंद सुगंध शीतल समीर चलने लगता तो उस समय जो पत्र पुष्प आदि से युक्त हुए दावद्रव वृक्ष थे वे ज्यों के त्यों अधिक शोभा संपन्न, बने रहकर हरे भरे ही दिखलाई देते रहते। परन्तु उनमें जो दाव द्रव वृक्ष जीर्ण थे पुराने थे, शीण-सडे हुए थे जिनका मूल और स्कंध दोंनो खोखले हो गये थे और जिनके पीला सफेद होकर पत्र पुष्प एवं फल परिशटित हो झड़-चुके थे वे शुष्क वृक्षो के समान म्लान-शोभा रहित ही बने रहते ( एषामेव समणा उसो ! जो अम्मं निग्गंथो वा निग्गंधी वा पत्र्याइए समाणे यहग अण्णउत्थियाणं बडूण गिहत्थाणं सम्मं सहइ बहूण-समणाण ४ नो सम्म सहइ एसण मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्त) इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणों ! जो हमारा निर्गन्ध साधु जन अथवा साध्वी जन दीक्षित होता हुआ अनेक श्रमग जनों के अनेक श्रमणियों के, श्रावको के और श्रा विकाओं के कर्कश, कठोर वचनादि रूप उपसर्गों को मध्यस्थ भाव થયેલાં દાવદ્રવ વૃક્ષે જે સ્થિતિમાં જ સવિશેષ શોભા યુક્ત થઈને લીલાંછમ દેખાતાં હતાં. પણ તેમાં જે દાવદ્રવ વૃક્ષો જીર્ણ હતાં-જૂનાં હતાં-શીર્ણસડી ગયેલાં હતા, જેના મૂળ અને થડને ભાગ ખોખલે થઈ ગયું હતું અને જેઓના પીળા અને સફેદ થઈને પાંદડાઓ, પુષ્પ અને ફળ પરિશટિત થઈને ખરી પડયાં હતાં. તે તે સુકાઈ ગયેલા વૃક્ષોની જેમ પ્લાન-શોભા રહિત થઈને ઊભાં હતાં. ( एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंथी वा पन्नाइए समाणे बहूगं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म सहइ बहूणं समणाणं ४ नो सम्म सहइ एसणे मए पुरिसे देमाराहए पन्नत्ते) । આ પ્રમાણે જ હું આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ સાધુજન અથવા સાધ્વીજન દીક્ષિત થઈને ઘણા શ્રમણ અને ઘણી શ્રમણીએ, ઘણા શ્રાવકો અને ઘણી શ્રાવિક.-ગાના કર્કશ, કઠેર વચને વગેરે ઉપસર્ગોને મધ્યસ્થ For Private And Personal Use Only

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