Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
॥ अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥
॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ॥
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
Websiet : www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org
www.kobatirth.org
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद
राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
श्री
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक : १
महावीर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249
जैन
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
अमृतं
आराधना
तु
केन्द्र कोबा
विद्या
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
卐
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
जैवाचार्य-जेनवर्थ दिवाकर-पूज्य श्री-घासीलालजी महाराजरिन्थिया बनमारावयामासम हिन्दी - गुर्जर भाषाऽनुवादसहितम्
श्री- ज्ञाताधर्मकयानसूत्रम्
SHREE GNATADHARAMA KATHANGA SOOTRAM
(द्वितीयो भाग)
संस्कृत-मान-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी महाराजः
दिल्लीनिवासी-लालाजी-किशनचंदजी-सा.जौहरी - प्रदल-यसाहाय्येन अ०मा० ० त्या जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठिश्रीशान्तिलाल-मदासभाई-महोदया
मु० राजकोट
हंसमा-काद्धि बीर-संभत्
इति १२००
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विक्रम-संसद
मूल्यम्-रु. २५-००
For Private And Personal Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
#ককককককককককককককককককককককককককককক
ർർർർർർർർർർർർർർർർർർ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज विरचितया अनगारधर्मामृतवर्षिण्याख्यया व्याख्यया समलङ्कतं
हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम्श्री-ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् SHREE GNĀTĀDHARMA KATHANGA SOOTRAM
द्वितीयो भागः
नियोजकः . संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः
प्रकाशकः दिल्लीनिवासि - लालाजी -किशनचंदजी - सा.जौहरी-प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ. भा० श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठिश्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः
मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्तिः धीर-संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन प्रति १२०० २४८९ २०२०
Οφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφ.
१९६३
मूल्यम्-रू० २५-०-०
appppppopoppppppppps
For Private And Personal Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
મળવાનું ઠેકાણું : श्री म. सा. ३. स्थानवासी बन सोद्धार समिति, है. गरेडिया वा रोड, श्रीन व पासे, सास, (सौराष्ट्र).
Published by : Shri Akhil Bharat s. s. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kava Road, RAJKOT, (Saurashtra), w. Ry, India.
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥
हरिगीतच्छन्दः
करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥
भूख्यः
३. २५%300
પ્રથમ આવૃત્તિ ઃ પ્રત ૧૨૦૦
વીર સંવત્ : ૨૪૮૯ વિક્રમ સંવતઃ ૨૦૧૯ इसवीसन १८१3
मुद्र४: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટિંગ પ્રેસ, Elkin :: समाज
For Private And Personal Use Only
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दिल्ली निवासी श्रीमान् लालाजी किशनचंदजी सां, जौहरीजी के वंश का संक्षिप्त जीवन
परिचय
भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली में श्री नेमीचंदजी चौरड़िया का जन्म हुआ । आप बहुत होनहार व्यवसायी और धर्मप्रेमी थे । आप बत्तीस शास्त्र के ज्ञाता थे आप जैन एवं वैदिक साहित्य के भी ज्ञाता थे । आपके पास अनेक 1 प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के अतिरिक्त धार्मिक साहित्य का विशाल भंडार था । अल्प वय में ही आप स्वर्गारोहण कर गये । आपके सब से छोटे पुत्र श्री कपूरचंदजी चौरडिया भी आप ही की भांति निर्भीक उत्साही कर्मशील एवं धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा रखने वाले थे। बीमारी की अवस्था में भी आपने सामायिक जो कि आप का नित्य नियम था, कभी नहीं छोडा । मृत्यु के अंतिम दिन तक आपने सामायिक व्रत की आराधना की थी । लाला कपूरचंदजी ने अपने व्यापार को बहुत बढाया था । दिल्ली के गणमान्य व्यक्तियों में आपका नाम था । अनेक वर्षों तक आप समाज के प्रेसीडेन्ट रहे । आपके नेतृत्व में दिल्ली श्री संघ ने बहुत उन्नति की ।
आपके सुपुत्र श्री किशनचंदजी चौरडिया भी आप ही की भांति उद्योगी, विवेकवान एवं श्रद्धालु श्रावक हैं । प्रतिदिन सामायिक, व हर सप्ताह आयंबिल अथवा उपवास का तप करते हैं और अनेक प्रकार के धार्मिक नियम पालते हैं । धार्मिक प्रवृत्तियों में सदा दिलचस्पी से भाग लेते हैं। स्थानीय संघ की कार्यकारिणी के आप सदस्य हैं ।
काला किशनचंदजीकी धर्मपत्नी श्रीमती नगीना देवी चौरडिया प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्त्री एवं अनेक धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं से संबंध रखनेवाली हैं और बड़ी श्राविका हैं, आपका धार्मिक ज्ञान बहुत गंभीर है। आप विचक्षण बुद्धिवाली एवं साहित्यप्रेमी हैं । आपके निजी पुस्तकालय में अनेक अमूल्य हस्तलिखित ग्रंथों के अतिरिक्त लगभग पांच हजार पुस्तकों का संग्रह है। शास्त्रों का स्वाध्याय करना आपका दैनिक नियम है । अनेक महासतीजी महाराज भी आपके धार्मिक ज्ञान का लाभ उठाते हैं ।
श्रीमती नगीना देवी के पिता लाला धन्नोमल सुजंती दिल्ली के प्रसिद्ध रईसों में से थे। किंतु धर्म के प्रति निष्ठा एवं समाज सेवाकी लगन आपमें कूट २
For Private And Personal Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कर भरी हुई थी । अनेक दीक्षाएँ आपने कराई । तन, मन, धन से साधुसतियों की सेवा करने में आपको अपूर्व आनंद मिलता था । आपका स्वर्गवास जल्दी ही हो गया था।
स्व. लाला धनोमलजी की धर्मपत्नी एवं श्रीमती नगीनादेवीजी की माता श्री फूलमतीजी महाराज साहब को जैनदीक्षा अंगीकार किये हुए ३१ वर्ष हो गये हैं। आप वयोवृद्ध, सरलस्वभावी, घोरसंयमी (कठिन संयम पालने वाले) हैं, मानो चौथे आरे की बानगी ही हो । अनेक वर्षों से आप दिल्ली में स्थवि. रवास किये हुए हैं। आपके सदुपदेश से दिल्ली के अनेक व्यक्ति अपनी शास्त्रो. दारसमिति के सदस्य बने हैं।
श्रीमती नगीना देवीकी भांति उनकी पुत्री सुश्री विजयकुमारी बड़ी निर्भीक प्रत्युत्पन्नमति, एवं धार्मिक रुचि वाली हैं। आपके सुपुत्र सरलस्वभाव विनयशील श्री महताबचंद भी बड़े धर्मनिष्ठ, समाजसेवी, विनयवान एवं मुशिक्षित नवयुवक हैं।
श्रीमती नगीनादेवीके दो पुत्रियाँ और भी हैं। एक-सुश्री विनयकुमारी, जिसका विवाह जोधपुरनिवासी श्रीमान् हुक्मचंदजी साहब जैन एडवोकेटके सुपुत्र श्री जिनेन्द्रकुमारजी जैन एडवोकेट से हुआ है। चि० अनिलकुमार जैन, जिनका चित्र इस पुस्तक में है-इन्हीं के सुपुत्र हैं। श्री अनिलकुमार अपनी समिति के सदस्य हैं । दूसरी पुत्री सुश्री विमलकुमारी का विवाह दिल्लीनिवासी प्रसिद कांग्रेसी कार्यकर्ता स्व. श्री मुकुन्दलालजी जौहरी " कोमीनारा" ( यह उपनाम प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें दिया था) के सुपुत्र श्री हुक्मचंदजी जौहरीके साथ हुआ है । श्रीमती विमलकुमारी भी अपनी समितिकी सदस्या हैं।
परंपरा से ही चौरडिया परिवार धार्मिक प्रवृत्तियों में रुचि रखनेवाला रहा . है और चुस्तस्थानकवासी हैं । तन मन व धन से समाज व धर्म की खूब सेवा करता आया है, यही सदा से इस परिवार का कर्तव्य रहा है ।
॥ॐ शांतिः॥
For Private And Personal Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के दूसरा भाग की विषयानुक्रमणिका
अनुक्रमांक
विषय
अध्ययन-५
१९ पांचवे अध्ययन की अवतरणिका
२ द्वारावति नगरी का वर्णन
३ नंदनवन - उद्यानका वर्णन
४ कृष्णवासुदेवका वर्णन
५ स्थापत्यापुत्र गाथापतिका वर्णन
६ अरिष्टनेमीअर्हतप्रभुका समवसरण ७ समवसरण में कृष्णका आगमन आदिका वर्णन ८ स्थापत्यापुत्र गाथापतिके निष्क्रमणका वर्णन
९ शैलराजका वर्णन
१० सुदर्शन सेठका वर्णन
११ शुकपरिव्राजक के दीक्षाग्रहणका वर्णन १२ स्थापत्यापुत्र के निर्वाणका निरूपण १३ शैलकराजके चरित्रका वर्णन
छट्ठा अध्ययन
१४ महावीरस्वामीका समवसरण १५ इन्द्रभूतिका जीवके विषयमें प्रश्न
सातवां अध्ययन
१६ धन्य सार्थवाह के चरित्रका वर्णन
अठवां अध्ययन
१७ आठवे अध्ययनका अवतरण १८ बलराज के चरित्रका वर्णन १९ बलराज के दीक्षाग्रहणका वर्णन
२० महाबल आदिछह राजाओंके = चरित्रका वर्णन
२१ प्रभावतीदेवीके दोहदका वर्णन
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२२ तीर्थकरके जन्मनिमित्त दिशाकुमारि आदिका उत्सव करनेका
वर्णन
२२ मोहग्रहके निर्माणका वर्णन
For Private And Personal Use Only
पृष्ठ
२-७
७-८
९-१०
११-१२
१४-१६
१७-२३
२४-५८
५८-६२
६३-१११
११२-११५
११६-११७
११८-१६७
१६८-१६९
१७०-१७७
१७८-२३४
२३५
२३६-२४०
२४०-२४२
२४३-२८२
२८३-२८८
२८९-२९२ २९३-२९६
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२४ मणिनिर्मितपुत्तलिकानिर्माण आदिका वर्णन २५ कोसलाधिपति के स्वरूपका वर्णन २६ अङ्गराजके चारित्रका वर्णन . २७ अङ्गराज चरित्रमें तालपिशाचका वर्णन २८ अङ्गराजके चरित्रमें अरहनक श्रावक के चरित्रका वर्णन २९ अङ्गराजके चरित्रका वर्णन ३० कुणालाधिपति रुक्मी राजाकेचरित्रका वर्णन ३१ काशिराज " शंख" राजाकेचरित्रका वर्णन ३२ अदीनशत्रु राजके चारित्रका वर्णन ३३ जितशत्र राजाके चरित्रका वर्णन ३४ छहराजाओं के युद्धका वर्णन ३५ कुंभकराज के युद्धका वर्णन ३६ मिथिलानगरीके निरोधका वर्णन ३७ सुवर्ण निर्मितपुत्तलिका का वर्णन ३८ छओं राजाओंके जातिस्मरणहोनाआदिका वर्णन ३९ मल्लीभगवानके दीक्षावसरका निरूपण ४० मल्लीभगवान् के दीक्षोत्सवका वर्णन ४१ जितश आदि छहो राजाओके दीक्षाग्रहणादिका वर्णन
नवा अध्ययन ४२ माकंदीदारक के चरित्रका वर्णन
..दशवां अध्ययन ४३ जीवोंके वृद्धि और हानिकानिरूपण
ग्यारहवां अध्ययन ४४ जीवोंके आराधक और विराधकत्वहोनेका कथन
बारहवां अध्ययन ४५ खातोदकके विषयमें सुबुद्धिका दृष्टांत
तेरहवां अध्ययन ४६ तेरह अध्ययनके संबन्धका निरूपण १५ नन्दमणिकारभवका निरूपण
२९७-३०० ३००-३२० ३२१-३३४ ३३४-३५० ३५०-३७२ ३७२-३८५ ३८५-३९६ ४९७-४१० ४१०-४३५ ४३५-४५७ ४५७-४६५ ४६६-४७१ ४७१-४८० ४८०-४९१ ४९१-५०१ ५०२-५१५ ५१५-५३९ ५४०-५५२
५५३-६५५
६५६-६६७
६६८-६७८
६७९-७२७
७२८-७३० ७२१-७८८
समा
For Private And Personal Use Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आद्यमुरब्बी श्री
0.Tripril
Talyat
Viral
बीचमें बैठे हुए
लालाजो किशनलालजी सा. जौहरी खडे हुए इनके सुपुत्र
चि. महेतावचन्दजी सा. जैन छोटे-अनिलकुमार जैन (दोयत्ता )
For Private And Personal Use Only
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ
/
(સ્વ.) શે!શ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઇ વીરાણી રાજકોટ.
શેશ્રી શાંતિલાલ મગળદાસભાઈ
અમદાવાદ.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
શ્રી વિનેાદકુમાર વીરાણી દીક્ષા લીધા પહેલાં શાસ્ત્રઅભ્યાસ
શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી રાજકાય.
For Private And Personal Use Only
(સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવનલાલ (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર
ખાસી.
અમદાવાદ.
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
આધમુરબ્બીશ્રીઓ
જો
કે
,
શ્રી વૃજલાલ દુલભજી પારેખ
રાજકોટ.
કેકારી હરગોવિંદભાઈ ચંદ
રાજકોટ,
શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી લાલચંદજી સા, લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા.
.
. ૧
કરી છે
(સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ
અમદાવાદ,
સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા.
બાલિયા પાલી મારવાડ,
For Private And Personal Use Only
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
આધમુરબ્બીશ્રીએ
(સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચદ કાલીદાસ ફ્રિ (સ્વ.) શેઠ રગજીભાઈ માહનલાલ શાહુ
ભાણવડ.
અમદાવાદ
૧ વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઇ શ્રીમાન મૂલચંદ્રજી જવાહીરલાલજી મરાયા બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રીલાલજી અરડિયા ૩. ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ્ર અઢિયા
શ્રી સિંગભાઈ પાચાલાલભા
અમદાવાદ.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
સ્વ. શેશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ
For Private And Personal Use Only
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- શ્રી અખિલ ભારત કવેતામ્બર સ્થાનક્વાસી
જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ.
ગરેડીયાવા રેડ રાજકેટ.
张带张张##带带带带带带带带带带带带张
દાતાઓની નામાવલી
张张张张张恭恭恭带带张张张张张张张张张张张张精
શરૂઆત તા. ૧૮-૧૦-૪૪થી તા. ૩૧-૧૦-૨ સુધીમાં
દાખલ થયેલ મેમ્બરનાં મુબારક નામે.
લાઈફ મેનું ગામવાર કકાવારી લિસ્ટ.
(નાનો ભેટની રકમ આપનારનું, તથા રૂ. ૨૫૦થી ઓછી રકમ ભરનારનું નામ આ યાદીમાં સામેલ કરેલ નથી)
છે એક એક એકoફકક ઐકદરૅક કરી
For Private And Personal Use Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
નામ
ગ્રામ
આઘમુરબ્બીશ્રીઓ-૨૩
(ઓછામાં ઓછી રૂા. ૫૦૦૦ ની રકમ આપનાર) નંબર
ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ જાણીતા મીલમાલીક અમદાવાદ ૧૫૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચંદ કાળીદાસભાઈ વારીયા હ. શેઠ
લાલચંદભાઈ, નગીનભાઈ, વૃજલાલભાઈ તથા ૧૯લભદાસભાઈ
ભાણવડ ૬૦૦૦ ૩ કોઠારી જેચંદ અજરામર હા. હરગોવિંદભાઈ જેચંદભાઈ રાજકેટ પ૨૫૧ ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવણભાઈ
બારસી ૫૦૦૧ ૫ સ્વ. પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સમરણાર્થે
હા. શ્રી ભેગીલાલ છગનલાલભાઈ ભાવસાર અમદાવાદ ૫૨ ૧૧ સ્વ. શેઠ દિનેશભાઈના સ્મરણાર્થે
હા. શેઠ કાંતિલાલ મણલાલ જેશીંગભાઈ અમદાવાદ ૫૦૦૦ ૭ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ હ. શેઠ
ચીમનલાલભાઈ શાંતિલાલભાઈ તથા પ્રમુખભાઈ અમદાવાદ ૬૦૦૧ ૮ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણ અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦
સ્મારક ટ્રસ્ટ હા. શેઠ શામજી વેલજી વીરાણી ૯ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણ અને શ્રી કડવીબાઈ વિરાણી
સ્મારક ટ્રસ્ટ હા. માતુશ્રી કડવીબાઈ વીરાણી રાજકેટ ૫૦૦ ૧૦ શેઠ પાચાલાલ પીતાંબરદાસ
અમદાવાદ પર૫૧ ૧૧ શાહ રંગજીભાઈ મેહનલાલ
અમદાવાદ ૫૦૦૧ ૧૨ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણ અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી
સ્મારક ટ્રસ્ટ હ. શેઠ દુર્લભજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણું રાજકેટ ૫૦૦૦ ૧૩ શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી
સ્મારક ટ્રસ્ટ હ. શ્રીમતિ મણકુવરબેન દુર્લભજી વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦ ૧૪ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી
સ્મારક ટ્રસ્ટ હા શ્રી છોટાલાલ શામજી વીરાણી રાજકેટ ૫૦૦૦ ૧૫ ૨૧. માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હ. ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ અને કુટુંબીજને.
અમદાવાદ ૫૦૦૦
For Private And Personal Use Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૧૬ શેઠ મીશ્રીલાલજી જેવ'તરાજજી લુણીયા ચડાવલવાળા અમદાવાદ ૫૫૦૨
૧૭ શેઠ રામજીભાઈ શામજી વીરાણી અને સમરતબેન રામજી વીરાણી ટ્રસ્ટ
૧૮ એક જૈન ગૃહસ્થ
૧૯ શેઠ મુળચંદજી જવાહીરલાલજી ખરડીયા ૨૦ શેઠ મુકુદચંદજી ખાલીયાના સ્મરણાથે
હા. શેઠ મહનલાલજી ખાલીયા ( પાલીવાળા ) અમદાવાદ ૨૧ મા, બ્ર. શ્રી વિનાદમુનિના સ્મરણાર્થે હા. શ્રી શામજી
વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી સ્મારક ટ્રસ્ટ રાજકોટ ૫૦૦૦ ૨૨ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ
વીરાણી સ્મારક ટ્રસ્ટ હા, શ્રી કેશવલાલ વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦ ૨૩ શ્રીમતિ મણીખાઇ વૃજલાલ પારેખ ચેરીટેબલ
ટ્રસ્ટ ક્રૂડ હા. પારેખ વૃજલાલ દુર્લભજી રાજકાટ પ૨પ૧ નેાટઃ-ઘાટકોપરવાળા શેઠ માણેકલાલ એ. મહેતા તરફતી અમદાવાદમાં પાલડી બસ સ્ટેન્ડ પાસે પ્લાટ ન. ૨૫૦ વાળી ૬૯૮ ચા. વાર જમીન સમિતિને ભેટ મળેલ છે. અને જેનું રજીસ્ટર તા, ૨૩-૩-૬૦ ના રાજ થઈ ગયેલ છે.
નામ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
મુરબ્બીશ્રીઓ–૨૮
( ઓછામાં ઓછી રૂા. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર )
ગામ
નખર
૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વમાન કોઠારી હા. કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ કાઠારી
૨ દોશી પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૩ મ્હેતા ગુલામચંદ પાનાચ
૪ મ્હેતા માણેકલાલ અમુલખરાય
૫ સ*ઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાબચંદ ૬ લલ્લુભાઈ ગારધનદાસ ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ હા. શેઠ વાડીલાલ લલ્લુભાઈ
૭ નામદાર ઠાકાર સાહેબ લખધીરસિંહજી બહાદુર
રાજકોટ ૫૦૦૧
અમદાવાદ ૫૪૨૫
અમદાવાદ
૫૦૦૧
For Private And Personal Use Only
૫૦૦૧
રૂપિયા
જેતપુર ૩૬૦૫ રાજકોટ
૩૫૦૪
રાજકેટ ૩૨૮ાાા
ઘાટકેાપર ૩૨૫૦
જામનગર ૩૧૦૧
અમદાવાદ ૨૫૦૦
મારખી ૨૦૦૦
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૮ શેઠ લહેરચંદ કુંવરજી હા. શેઠ ન્યાલચંદ હેરચ
૯ શાહે છગનલાલ પ્રેમચંદ વસા હા. માહનભાઈ તથા માંતીલાલભાઈ
૧૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ ચદ્રકાન્ત વીકમર્ચ'દ ૧૧ મ્હેતા સામ તુલસીદાસ તથા તેમના ધર્મપત્ની અ. સૌ. મણીગૌરી મગનલાલ
૧૨ શ્વેતા યેાપટલાલ માવજીભાઇ
૧૩ દોશી કપુરચ' અમરશી હા. દલપતરામભાઈ ૧૪ મગડીયા જગજીવનદાસ રતનશી
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૬ શ્રીમતિ આશાબેન હુંસરાજ સુરાણા ૨૭ શાહ શાંતિલાલ માણેકલાલ ૨૮ શ્રીયુત વીકુમાર C/o મહેતામચં જૈન
સિદ્ધપુર ૨૦૦૦
મુંબઇ ૨૦૦૦ મેરખી ૧૯૬૩
૧૫ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ
૧૬ શ્રીમાન ચંદ્રસિ'હજી સાહેબ મ્હેતા ( રેલ્વે મેનેજર ) કલકત્તા
For Private And Personal Use Only
રતલામ २०००
જામજોધપુર ૧૫૦૨ જામજોધપુર ૧૦૦૨
દામનગર
૧૦૦૨
પરમ દર ૧૦૦૧
૧૦૦૧
મારખી ૧૦૦૧ ખંભાત
૧૦૦૧
૧૭ શ્વેતા સામચં નેણસીભાઇ ( કરાંચીવાળા )
૧૮ શાહ હરીલાલ અનેાચ દ
૧૯ માદી કેશવલાલ હરિશ્ચંદ્ર
૨૦ કોઠારી છબીલદાસ હરખચંદ
:૨૧ કાઠારી રંગીલદાસ હરખચંદ
ભાવનગર ૧૦૦૦
૧૦૦૩
ફર શાહુ પ્રેમચંદ માણેકચંદ તથા અ. સૌ. સમરતબેન અમદાવાદ ૨૩ શેઠ કરમશી જેઠાભાઈ સામૈયા હા. અ. સૌ. સાકરબેન મુંબઈ ૧૦૦૦
સુરેન્દ્રનગર ૧૦૦૧
૨૪ શેઠ પોપટલાલ ચત્રભુજ કાઢારી ૨૫ શ્રી સ્થા. જૈન લીંખડી સંપ્રદાયના ક્ષમાગુણુ નિષિ પૂજ્ય શ્રી લાધાજી સ્વામીના શિષ્ય પ્રખર પંડિત રત્ન શ્રી ઉત્તમચંદજી મહારાજના સ્મરણાર્થે પૂજ્ય લાધાજી સ્વામી પુસ્તકાલય તરફથી હા. શેઠ જેશીંગભાઈ પેાચાલાલ
અમદાવાદ ૧૦૦૧
મુંબઇ
૧૦૦૧
અમદાવાદ ૧૦૦૦
મુંબઇ ૧૦૦૧
અમદાવાદ ૧૦૦૧
દિલ્હી ૧૦૧
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
સહાયક મેમ્બર--૧૩૨
નંબર
નામ
(ઓછામાં ઓછી . ૫૦૦ ની રકમ આપનાર)
ગામ રૂપિયા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. ઝુંઝાભાઈ વેલશીભાઈ વઢવાણ શહેર ૭૫૦ ૨ શેઠ નરોત્તમદાસ ઓઘડભાઇ
જોરાવરનગર ૭૦૦ 8 શેઠ રતનશી હીરજીભાઈ હા. ગોરધનભાઈ ' જામજોધપુર પપપ ૪ બાટવીયા ગીરધર પરમાણંદ હા. અમીચંદભાઈ ખાખીજાળીયા પરછ મોરબીવાળા સંઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા
તેમનાં ધર્મપત્ની એ. સી. મણીબાઈ તરફથી હા. મુળથઇ દેવચંદ સંઘવી
મલાડ, પ૧ ૬ વેરા મણીલાલ પિપટલાલ
અમદાવાદ પર ૭ ગોસલીયા હરીલાલ લાલચંદ તથા ચંપાબેન ગોસલીયા , . પાર ૮ શાહ મનહરલાલ પ્રાણજીવનદાસ
મુંબઈ પ૧ ૯ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુષોત્તમદાસ
અમદાવાદ પળ ૧૦ શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ
૫૧ ૧૧ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાંચીવાળા)
લીંબડી ૫૦૧ ૧૨ કામદાર તારાચંદ પોપટલાલ ધોરાજીવાળા
રાજકેટ ૫૦૧ ૧૩ મહેતા મેહનલાલ કપુરચંદ
૫૦૦ ૧૪ શેઠ ગોવિંદભાઈ પોપટભાઈ
રાજકોટ ૫૦૦ ૧૫ શેઠ રામજી શામજી વીરાણું
રાજકોટ ૫૦૧ ૧૬ વ. પિતાશ્રી નંદાજીના સ્મરણાર્થે હા, વેણીચંદ શાંતિલાલ
(જાંબુવાળા) મેઘનગર ૫૧ ૧૭ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ ઠાકરશી કરશનજી થાનગઢ ૫૦૦ ૧૮ શેઠ તારાચંદ પુખરાજજી
ઔરંગાબાદ ૫૦૦ ૧૯ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ ૨૦ મહેતા મુળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા ૭૫૦ ૨૧ શેઠ હરખચંદ પુરુષોત્તમ હા. ઈન્દુકુમાર
ચોરવાડ ૫૦૦ રૂર શેઠ કેસરીમલજી વસ્તીમલજી ગુગલીયા
- મલાડ પ૧ ૨૩ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. બાટવીયા અમીચંદ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીયા ૫૧ થઇ શ્રી ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ મુલચંદભાઈ ગુલાબચંદભાઈ
નાગરદાસભાઈ જમનાદાસભાઈ મુંબઈ ૫૧
,
૫૦૦
For Private And Personal Use Only
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૧૦
* ૫૦૧
છે પS
૨૫ શેઠ મણીલાલ મોહનલાલ ડગલી હા. મુળજીભાઈ મણીલાલભાઈ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૬ રવ. કાંતિલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ બાલચંદ સાકરચંદ , ૨૭ કામદાર-રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા) ૨૮ શાહ જયંતીલાલ અમૃતલાલ
શીવ ૫૦૧ ૨૯ વેરા મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ ૩૦ શેઠ ગુલાબચંદ ભુદરભાઈ તથા કસ્તુરબેન હા. ભાઈ અનેપચંદ ખારોડ ૫૦૧ ૩૧ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મહેતા
ધ્રાફા પ૭૧ ૩૨ શ્રા સ્થા. જૈન સંઘ
ધ્રાફા ૫૦૧ ૩૩ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ
રાજકેટ ૫૦૧ ૩૪ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી તથા અ.સૌ. નંદકુંવરબેન જામનગર ૧૦૩ ૩૫ શેઠ દેવચંદ અમરશી (બેન ધીરજકુંવરની દીક્ષા પ્રસંગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૬ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ (બેન ધીરજકુંવરની દીક્ષા પ્રસંગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૭ વકીલ વાડીલાલ નેમચંદ શાહ
વીરમગામ ૫૦૧ ૩૮ મહેતા શાન્તિલાલ મણલાલ હા. કમળાબેન મહેતા અમદાવાદ ૨૫૬ ૩૯ શ્રીયુત લાલચંદજી તથા અ. સૌ. ધીસાબેન
૫૦૧ ૪૦ શેઠ મેહનરાજજી મુકુનચંદજી બાલીયા
૫૦૧ ૪૧ સ્વ. શેઠ ઉકાભાઈ ત્રીભવનદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં - ધર્મપત્ની લક્ષ્મીબાઈ ગીરધર તરફથી હા. મરઘાબેન તથા મંગુબેન
અમદાવાદ ૫૦૧ ૪૨ પારેખ જયંતીલાલ મનસુખલાલ રાજકોટવાળા હ. વિનુભાઈ ,, ૫૦૧ ૪૩ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ
વાંકાનેર ૫૦૧ ૪૪ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ
બોટાદ ૫૦૧ ૪૫ શેઠ ગુદામલજી શેષમલજી જેવર (બાર) પિપળગાંવ ૫૦૧ ૪૬ સ્વ. તુરખીયા લહેરચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં - ધર્મપત્ની જીવતીબાઈ તરફથી હા. ભાઈ જયંતીલાલ તથા પુનમચંદભાઈ
વડેદરા ૫૦૧ ૪૭ શાહ અચલદાસ શુકનરાજજી હા. શુકનરાજજી અમદાવાદ ૫૦૧ ૪૮ ભાવસાર ખેડીદાસ ગણેશભાઈ
ધંધુકા ૫૦૧ ૪૯ અ. સૌ. હીરાબેન માણેકલાલ મહેતા
ઘાટકોપર ૫૦૧ ૫૦ મહેતા શાંતિલાલ મગનલાલ તથા અ.સૌ. પદમાવતી શાંતિલાલ મહેતા
અમદાવાદ ૫૦૦ ૫૧ શેઠ હીરાચંદજી વનેચંદજી કટારીયા
હુબલી ૫૦૧
For Private And Personal Use Only
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
પર શેઠ છેટુભાઈ હરગોવિંદદાસ કટેરીવાળા
મુંબઈ ૫૦૧ ૫૩ પારેખ રતિલાલ નાનચંદ મોરબીવાળા તરફથી તેમના - પિતાશ્રી નાનચંદ ગોવિંદજીના સ્મરણાર્થે તથા તેમનાં
ધર્મપત્ની અ.સૌ. વસંત બહેનના અટાઈપ નિમિત્તે - હ. ભુપતલાલ રતિલાલ
અમદાવાદ ૫૫૨ ૫૪ સ્વ. શાહ ત્રીભોવનદાસ મગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની - શીવકુંવરબાઈ તરફથી હા. રતીલાલ ત્રીવનદાસ શાહ અમદાવાદ ૫૧૧ ૫૫ શ્રીમાન નાથાલાલ માણેકચંદ પારેખ
(માટુંગ) ૫૦૧ ૫૬ શ્રી લીંબડી સંપ્રદાયના ગચ્છાધિપતિ પૂ આચાર્ય
મહારાજ શ્રી લાધાજી સ્વામીના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ જેશીંગભાઈ પિચાલાલ (મહારાજ શ્રી છેટાલાલજી સદાનંદીના ઉપદેશથી)
અમદાવાદ ૫૦૧ પ૭ સ્વ. શ્રી વિનયમુર્તિ શ્રી લક્ષ્મીચંદજી મહારાજના
મરણાર્થે હ. શેઠ જેશીંગભાઈ પાચાલાલ (મહારાજશ્રી છેટાલાલજી સદાનંદીના ઉપદેશથી).
અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૮ બા. બ. પ્રભાવતીબેન કેશવલાલ ઉજજેનવાળા તરફથી * તેમની દીક્ષા પ્રસંગે.
વીરમગામ ૫૫૧ પ શોઠ શ્રીયુત હરજીવનદાસ રાયચંદ હા છબીલદાસ હરજીવન અમદાવાદ ૫૧ ૬૦ શેઠ પિોપટલાલ હંસરાજ તથા દિવાળીબેનના સ્મરણાર્થે * હા. શેઠ બાબુલાલ પિપટલાલ
અમદાવાદ ૫૮ ૨ ૬૧ અ. સૌ લીલાવતીબેન ઈશ્વરલાલ
અમદાવાદ ૫૦૨ ૬૨ હેમાણી પ્રભુદાસ ભાણજી
કલકત્તા ૫૫૧ ૧૩ શેઠ લક્ષમણુદાસ સજરામ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૬૪ શ્રી સ્થા. જૈન મોટા સંઘ
રાજકોટ ૫૦૧ ૬૫ શેઠ ચાંદમલ બીરધીચંદ
નાસિક સીટી ૫૦૧ ૬૬ ઝવેરી માણેકચંદજી પન્નાલાલ છજલાણું હ. ધનવંતીબેન તથા કિરણબેન
દિહી ૫૦૧ ૬૭ શેઠ હંસરાજજી પૂર્ણમલજી કાંકરીયા
ગેળાવ ૫૦૧ ૬૮ શ્રી . સ્થા જૈન સભા
કલકત્તા ૫૧ ૨૯ શેઠ તેજસિંહજી ફતલાલ છાજેડ
ઉદેપુર ૫૦૧ ૭૦ શેઠ રતનચંદ લહમીચંદ
મુંબઈ ૫૦૦
For Private And Personal Use Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
હં૧ શાહ ઉમરશી ભીમશીભાઇ ( સ્વ. પિતાશ્રી ભીમશીભાઇ
તથા માતુશ્રી પાલાષાઈ તથા ધર્મ પત્ની પાનબાઇના સ્મરણાર્થે, મલાડ પપર
૭૨ શાહે શામલાલભાઇ અમરસીભાઈ
૭૩ મહેતા ચન્દ્રકાન્ત નૌતમલાલ
૭૪ શેઠે ભીખચંદ્ર લાલચ
૭૫ મેન મહુનીબેન મહેતા ૭૬ શ્રીમતી માંઘીબેન નવલચ'દ શાંહ હા. માતીબેન
૭૭ શ્રીમતી વિમલાજી સૂરજમલ મહેતા ૭૮ ઉદાણી નિહાલચ'દ્ર હા¥મચંદ્ર વકીલ બી. એ. એલ. એલ. મી. ૯ સ્વ કાઠારી મગનલાલજી કુન્દેનમલજીના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મ પત્ની રાજકુવરબેન ૮૦ શેઠ મેાહનલ લજી મછાલાલજી હા રમણીકલાલ (પૂ. મુનિશ્રી ફતેચંદ મ. ના શિષ્ય પ. મુનિશ્રી કનૈયાલાલજી મ. ના ઉપદેશથી )
૮૧ શેઠ કનૈયાલાલજી સેાહનલાલજી કાવેડિયા
૮ર શેઠ પ્રતાપમલજી કપુરચંદજી સાંઢેરાવાળા ( પૂજ્ય તેચંદજી મ. ના શિષ્ય મિશ્રીલાલજી મ. ના શિષ્ય ચાંદમલજી મ. ના ઉપદેશથી )
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૮૩ શ્રીમાન લાલાજી રાશનલાલજી સમન્દરલાલજી ૮૪ શ્રીમાન ભૂરમલજી દલીચંદજી સાંકરિયા ( પૂ. સ. શ્રી સ્વામીદાસજીના સપ્રદાય પૂ. મ. શ્રી કુંતેચ’દ્રજી મ. ના શિષ્ય પૂ. મુનિશ્રી કનૈયાલાલજી મ. ના ઉપદેશથી ૮૫ સ્વ. ગૌરીશકર કાળીદાસ દેસાઇના સ્મરણાર્થે હા, ભૂપતલાલ ગૌરીશ કર
લીમડી ( સૌરાષ્ટ્ર
For Private And Personal Use Only
અમદાવાદ ૫૦૨
મુંઈ ૨૦૧ પીપલગામ ૫૦૧
મુંન્નઇ ૫૦૧
૫૦૧
૮૬ શેઠ શ્રી નરભેરામભાઈ હંસરાજભાઇ કમાણી ૮૭ સ્વ. મહાસતીજી શ્રી ધનદેવીજી મ સા. ના સ્મરણાર્થે સ્વ. ભૂખચંદજી સ`ખલાલનાં ધર્મપત્ની શ્રીમતી જયદેવી તરફથી ( મહાસતીજી શ્રી સુદર્શનામતીજી તથા કુલમતીજીના ઉપદેશથી )
ખેલગામ
રાજકોટ
સતારા
૫૦૧
૫૦૧
૭૫૧
જયપુર ૫૦૧ ધારી ૫૦૧
અમદાવાદ ૫૦૧
અાત
૫૦૧
સાંઢસવ ૫૦
ઇંઢાર પ૧ જમશેદપુર ૫૦૧
વિલી પ
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૮૮ શ્રીમાન લાલાજી કપુરચંદજીના બોઘરાના ધર્મપત્ની
શ્રીમતી વસંતદેવી હા. લાલા રાજમલજી હેમચંદજી તરફથી (મહાસતી શ્રી સુદર્શનામતિજી તથા ફૂલમતિજી મહાદેવીના ઉપદેશથી)
દિલ્હી પ૦૧ ૮૯ સ્વ. મહાસતીજી શ્રી દ્રૌપતાદેવીજી મ. સા. ના સ્મરણાર્થે
શ્રી એસ. એસ. જૈન મહિલા સંઘ તરફથી (અનેક ગુણાલંકૃત
મહાસતીજી શ્રી મેહનદેવજી મ. સા. ની પ્રેરણાથી) દિલ્હી ૫૦૧ ૯૦ રવ. લક્ષમીચંદજીના મરણાર્થે નગિનાદેવી સુજતીના તરફથી હા. સંઘવી હેમંતકુમાર જૈન
દિલ્હી ૫૦૧ ૯૧ સ્વ. પિતાશ્રી લાલા ઝવેરી ઘનેમલજી સુજતીના સ્મરણાર્થે હ. શ્રીમતી નગીનાદેવી
દિલ્હી ૫૦૧ ૯૨ લાલાજી કસ્તુરચન્દજી ખુશાલચન્દજી સંચેતી હા. જ્ઞાનચંદ્રજી અલવર ૫૦૧ ૯૩. સ્વ પૂજ્ય પિતાશ્રી દુર્લભજી સેમચંદ દફતરી હા. ગૌરીશંકર દુર્લભજી દફતરી
મુંબઈ પ૦૦ ૯૪ શેઠ સેમચંદ જેઠાલાલ ઘેલાણી હા. ચુનીલાલભાઈ જેડીયાવાળા
મુંબઈ ૫૦૬ ૫ શેઠ ફેજલમલજી સુલતાનસિંહજી બેરદીયા અમદાવાદ ૫૦૧ ૯૬ શેઠ છગનલાલ શામજી વીરાણ તથા
શ્રીમતી વૃજકુંવરબેન છગનલાલ વીરાણી ટ્રસ્ટ ફંડ તરફથી શેઠ છગનલાલભાઈના સ્મરણાર્થે
રાજકોટ ૫૦૧ ૯૭ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ હા. પ્રમુખ બંસીલાલ કટારીયા
હિંગઘાટ ૫૦૧ ૯૮ લાલાજી રામલાલજી રેશનલાલજી (અનેક ગુણાલંકૃત મહાસતીજી મોહનદેવીને ઉપદેશથી )
દિલ્હી ૫૦૧ ૯ સ્વ. મહેતા મંગળજી મણીલાલના સ્મરણાર્થે
હા. તેમના ધર્મપત્ની ગુણવંતીબેન મહેતા પાંડચેરી ૫૫૧ ૧૦૦ બાટવીયા વનેચંદ અમીચંદ (મહાવીર ટેક્ષટાઈલ સ્ટેર્સ) બેંગલર ૫૫૩ ૧૦૧ શ્રીયુત તારાચંદ ગેલડા ટ્રસ્ટ ૧૦૨ શેઠ ગુલરાજજી પુનમચંદજી મહેતા
કિસનગઢ ૫૫૧ ૧૨ શેઠ અગરમલજી ત્રીકમચંદજી
ઈંદેર સીટી પપ૧
મદ્રાસ ૫૦૧
For Private And Personal Use Only
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
to
૧૦૪ કાનુગા ધીંગડમલ્લજી મુલતાનમલજી કવાડ ગઢસીંયાણાવાળા
૧૦૫ લાલાજી નવરતનચંદજી ચારડીયાનાં ધમ પત્ની શ્રીમતી રાજકુમારીમેન
૧૦૬ શેઠ ચીમનલાલ રૂષભચંદ
૧૦૭ શેઠ કાનજી ભીમાણી ટ્રસ્ટ
૧૦૮ શેઠ ગીરધરલાલ હંસરાજ કામાણી
૧૦૯ અનેક ગુણાલંકૃત મહાસતી માહનદેવીજીના ઉપદેશથી સ્ત્રધર્મી ખંધુઓ તરફથી
૧૧૦ સ્વ. વિનચ‘ધ્રુજી પારેખના સ્મરણાથે લાલા પૂણુચ ૪જી રતનચંદજી પારેખની વતી હ. શ્રીમતી પ્રેમાદેવી ( શાંત સ્વભાવી મહાસતીજી ફુલકુંવરબાઇના ઉપદેશથી )
૧૧૬ પૂ. દાદાજી સ્વ. કપુરચંદજી તથા દાદીજી કેસરબેન ચારડીયાના સ્મરણાર્થે હા. લાલા ફુલચંદજી અને શ્રીમતી નીમલકુંવરી ઝવેરીની વતી શ્રીમતી નગીનાદેવી ( મહાસતીજી કુલમતીજીના ઉપદેશથી )
૧૧૭ શેઠ નગીનદાસ છેટાલાલ
૧૧૮ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ ગણેશમલ ગુલાષચંદ
૧૧૯ શ્રી સ્થા. જૈન સઘ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૧૨૦ શ્રી સરાક જૈન વિદ્યાલય
૧૨૧ ગાંધી ભુરાલાલ નાનચંદૅ
૧૨૨ શ્રીમાન હિંમતસિંહજી સાહેબ ગલુડીયા એડીસનલ કમિશ્નર અજમેર ડીવીઝનવાળાના ધર્મપત્ની અ. સૌ. માણેક વરએન તરફથી હા. ખુશાલસિંહજી ગલુંડીયા
For Private And Personal Use Only
અમદાવાદ ૫૦૧
દિલ્હી ૫૦૧
૧૧૧ શ્રીમતી ખદામખાઇ મીશ્રીલાલજી લુણિયા ચંડાવલવાળા અમદાવાદ ૨૦૧
૧૧૨ શેઠ ભરતકુમાર મણીલાલ દલાલ
પા
૫૦૧
૧૧૩ શાહ હરખચંદ અમરચંદ ૧૧૪ શાહ જગજીવનદાસ વન્દ્રાવનદાસ ૧૧૫ શેઠ હુ‘સરાજ લક્ષ્મીચંદ કામાણી જૈનભુવન
૫૦૧
૫૦૧
દિલ્હી ૫૦૧
અમદાવાદ ૫૦૧
કલકત્તા ૫૦૧
૫૦૧
,,
દિલ્હી ૫૦૧
""
""
""
કલકત્તા
લ્હિી પ૰૧
અમદાવાદ ૫૦૧
અવારા ૫૦૧
ભદ્રેસર ૫૦૧
કુમારડી ૫૦૧
મુંબઇ ૨૦૧
જયપુર ૧૧
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
૧૨૩ શેઠ ઝુમરલાલજી સીરાયા ૧૨૪ શેઠ મનસુખલાલ ત્રીભાવનદાસ ૧૨૫ શ્રી દશા શ્રીમાળી સ્થા. જૈન સંધ
૧૨૬ શ્રી જૈન રત્નું પુસ્તકાલય ૧૨૭ શેઠ અજીતમલ કનૈયાલાલ
www. kobatirth.org
૧૨૮ શેઠ વસ્તીમલજી જોરાવરમલજી ભુરટ ૧૨૯ શેઠ ચાંદમલજી હરખચ'દજી કોઠારી હા. ખમામેન મુળચંદજી ૧૭૦ ખાટવીયા ગુલામચંદ લીલાધર ૧૩૧ બેન લક્ષ્મીબાઈ પુત્ર મલ મહેતા ૧૩૨ શ્રીવીર વધમાન પુસ્તકાલય
હા. શેઠ હીરાલાલજી ગણેશલાલજી
૫૮૨-લાઇફ મેમ્બરો
અમદાવાદ તથા પરાં
નખર
નામ
૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચ'ઢ
૨
શેઠ છેોટાલાલ વખતચ'દ હા. ફકીરચંદભાઇ
3 શાહ કાંતિલાલ ત્રીભાવનદાસ
શાહ પાટલાલ માહનલાલ
૪
'પ' શેઠ પ્રેમચંદ સાંકરચ
શાહ રતીલાલ વાડીલાલ છ શેઠ લાલભાઈ મગળદાસ
. સ્વ. અમૃતલાલ વમાનના સ્મરણાર્થે, હા, કાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેસાઈ
શાહે નટવરલાલ ચંદુલાલ
૧૦ શાહ નરસિંહદાસ ત્રીભાવનદાસ
૧૧
શાહ ખીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ ગેાપાણી ૧૨ શ્રી શાહપુર દરિયાપુરી આઠકાટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટ કર્તા શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરુષાત્તમદાસ
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ઉદેપુર ૫૧
કાઇમ્બતુર ૫૦૧ જમશેદપુર ૫૦૧ જોધપુર ૫૦૧
અમદાવાદ ૫૦૦
હુબલી ૨૦૧
અમદાવાદ ૫૦૧ ખાખીજાળીયા ૫૦૨ પાલનપુર ૫૦૧
કુંવારીયા ૨૦૧
રૂપિયા
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૦
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
મ
૨૫૧
૩૦૧
રા
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૧૨
૧૩ આ છીપાપોળ દરીયાપુરી આઠકાટી સ્થા. જૈન સંધ
હા. શેઠ ચંદુલાલ અચરતલાલ
૧૪ શાહ ચીનુભાઈ ખાલાભાઈ C/o શાહે ખાલાભાઇ મહાસુખલાલ ૧૫ શાહે ભાઈલાલ ઉજમશી
૧૬ શ્રી સુખલાલ ડી. શેઠ હા. ડૉ. કુ. સરસ્વતીબેન શેઠ
૧૭ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ કાંતિલાલ જીવણલાલ
૧૮ મેાઢી નાથાલાલ મહાદેવદાસ
૧૯ શાહ માહનલાલ ત્રીકમલાલ
૨૪ શેઠ ચીનુભાઈ સાકરચંદ ૨૫ શાહ વજીવનદાસ ઉમેચ'દ ૨૬ શાહ રજનીકાન્ત કસ્તુરચંદ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫૧
૨૦ શ્રી અકાટી સ્થા. જૈન સઘ હા. શેઠ પાચાલાલ પિતાંબરદાસ ૨૧ દેસાઈ અમૃતલાલ વધુ માનના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈલાલ અમૃતલાલ ૨૫૧
૨૫૧
૨૨ શાહ નવનીતરાય અમુલખરાય ૨૩ શાહ મણીલાલ આશારામ
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૨
૨૭ સંધવી જીવણલાલ છગનલાલ
૨૮ શાહે શાંતિલાલ મેાહનલાલ ધ્રાંગધ્રાવાળા
૨૯ અ. સૌ. મેન રતનબેન નાદેચા હા. શેઠ કુલજી ચ'પાલાલજી
૩૦ શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા
૩૧ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠ કાટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. ભાવસાર ભાગીલાલ છગનલાલ
૩૨ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી પુનમિયા સાદડીવાળા
૩૩ સ્વ. પિત્તાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂજ્ય ચાચાજી હુજારીમલજી ખરડીયાના સ્મરણાર્થે હા. મુળચંદ જવાહરલાલજી ખરડીયા
૩૪ સ્વ. ભાવસાર અખાભાઇ (મંગળદાસ ) પાનાચંદના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્ની પુરીબેન
૩૫ સ્વ. પિતાશ્રી રવજીભાઇ તથા સ્વ. માતુશ્રી મુળીમાઈના સ્મરણાર્થે હા. કકલભાઈ કોઠારી
૩૬ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ
૩૭ શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા. પાતીએન
૩૮ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ રાજસીતાપુરવાળા
For Private And Personal Use Only
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
પા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૧૩
૩૯ શ્રી સાખરમતી સ્થા. જૈન સઘ હા. શેઠ મણીલાલભાઇ
૪૦ ભાવસાર ટાલાલ છગનલાલ
૨૫૦
૨૫૧
૪૧ ભાવસાર શકરાભાઈ છગનલાલ
૨૫૧
૪૨ અ. સૌ. એન જીવીબેન રતિલાલ હા. ભાવસાર રતિલાલ હરગોવિંદદાસ ૨૫૧
૨૫૧
૪૩ ભાવસાર લાગીલાલ જમનાદાસ પાટણવાળા
૪૪ સંઘવી આલુભાઈ કમળશી તથા તેમનાં ધમ પત્નીએ અ. સૌ.
ચપામેન તરફથી તથા વસ'તબેન તરફથી
૪૫ અ. સૌ. વિદ્યાબેન વનેચંદ્ર દેસાઇ વિષતપ તથા અક્રાઇ પ્રસ‘ગે
હા. ભુપેન્દ્રકુમાર વનેચંદ દેસાઇ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૪૧૭
૫૧
૩પ૧
૨૫૧
૪૮ અ. સૌ. 'કુબેન ( ભાવસાર ભાગીલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્ની ) ૩૦૯ ૪૯ અ. સૌ. સવિતાબેન ( જય'તીલાલ ભાગીલાલનાં ધર્મ પત્ની ) ૫૦ અ. સૌ. સુનંદાબેન ( રમણલાલ ભાગીલાલનાં ધર્મ પત્ની ) ૫૧ શેઠ હીરાજી રૂગનાથજીના સ્મરણાથે હા. વાગમલજી રૂગનાથજી પર શેઠ મણીલાલ મેઘાભાઈ
૫૧
૩૦૧
૨૫૧
૩૦૧
૪૬ શાહ નટવરલાલ ગાકળદાસ
૪૭ અ. સૌ. સરસ્વતીબેન મણીલાલ છગનલાલ
૫૩ પટવા સુમેરમલજી અનેાપચંદજી જોધપુરવાળા ૫૪ સ્વ. માણેકલાલ વનમાળીદાસ શેઠના સ્મરણુાથે
હા. રમણુલાલ માણેકલાલ
૫૫ સ્વ. શાહુ ધનરાજજી ખેમરાજજીના સ્મરણાર્થે હા. કનૈયાલાલ ધનરાજજી
૫૬ શ્રી સારગપુર ૬. આ. કેા. સ્થા. જૈન સુધ
હા. શાહે રમણલાલ ભગુભાઈ
૫૭ દોશી હરજીવનદાસ જીવરાજ તથા લક્ષ્મીમાઇ લહેરચંદના સ્મરણાર્થે હા. દોશી મનહરલાલ કરશનદાસ મુળીવાળા
૫૮ શાહ પુનમચંદ ફતેચંદ
૫૯ શ્રીયુત ચતુરભાઈ નંદલાલ
૬૦ શ્રીયુત અમૃતલાલ ઇશ્વરલાલ મહેતા
૬૧ શાહ જાદવજી મેહનલાલ તથા શાહ ચીમનલાલ અમુલખભાઈ
૬૨ અ. સૌ. બેન લાભુબેન મગનલાલ
હા. શાહે અમૃતલાલ ધનજીભાઈ વઢવાણુ શહેરવાળા
For Private And Personal Use Only
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
૨૫૧
૫૧
પા
પર૧
૨૫૧
૨૧
૩૦૧
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫
૩અ. સૌ. બેન કાન્તાબેન ગોરધનદાસ (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૨૫ ૬૪ દોશી કુલચંદ સુખલાલભાઈ બેટાદવાળાના સ્મરણાર્થે
હા. દોશી છબીલદાસ કુલચંદભાઈ ૨૫૧ ૬પ લાલાજી રામકુંવરજી જૈન
૨૫૧ જ શેઠ છેટાલાલ ગુલાબચંદ પાલનપુરવાળા
૨૫ ૬૭ શાહ ધીરજલાલ મોતીલાલ ૬૮ સંઘવી સુર્યકાન્ત ચુનીલાલના સ્મરણાર્થે
હ. સંઘવી જીવણલાલ ચુનીલાલ ફિ૯ ભાવસાર મોહનલાલ અમુલખરાય
૨૫૧ ૭૦ મહેતા મુળચંદ મગનલાલ ૭૧ વૈદ્ય નરસિંહદાસ સાકરચંદના ધર્મપત્ની રેવાબાઈના સ્મરણાર્થે
- હા. હરીલાલ નરસિંહદાસ ૨૫૧ ૭૨ શાહ કુલચંદભાઈ મુલચંદ હા. હસમુખભાઈ ફુલચંદભાઈ ૭૩ શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી જવાહરલાલજી બરડીયા
૨૫૧ ૭૪ શાહ લલ્લુભાઈ મગનભાઈ ચુડાવાળા હ. જશવંતલાલ લલ્લુભાઈ ૩૦૧
૫ કુમારી પુછપાબેન હીરાલાલ (ચાંદ મુનિના ઉપદેશથી) હર શાહ મણીલાલ ઠાકરશી હ. કમળાબેન મણીલાલ લખતરવાળા
(ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) હ૭ કુમારી નલીનીબેન જયંતીલાલ ૭૮ સ્વ. ઉમેદરામ ત્રિભુવનદાસનાં ધર્મપત્ની કાશીબાઈના સ્મરણાર્થે - હા. શાંતિલાલ ઉમેદરામ (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૭૯ સ્વ ભાવસાર મેહનલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્ની દીવાબાઈનાં - મરણાર્થે હ. રતીલાલ માણેકલાલ (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૮૦ મહેતા દેવીચંદજી ખુબચંદજી ધેકા ગઢસીયાણાવાળાના સ્મરણાર્થે હ. મહેતા ચુનીલાલ હરમાનચંદ
૨૫૧ ૮૧ ઘાસીલાલ મોહનલાલ કોઠારી કે. લક્ષ્મી પુસ્તક ભંડાર ૨૫૧ ૯૨ સ્વ. શેઠ નાથાલાલ રતનાભાઈ મારફતીયાના સ્મરણાર્થે પુનાબેન
તરફથી હ. કરશનભાઈ (ચાંદમુનિના ઉપદેશથી) ૮૩ શાહ મણલાલ છગનલાલ ૮૪ ભાવસાર જયંતીલાલ ભોગીલાલ
૨૧૧ ૬૫ ભાવસાર રમણલાલ ભોગીલાલ
ર૫
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫
For Private And Personal Use Only
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૧૫
૮૬ ભાવસાર કનુભાઈ સાકરચ'દ
૮૭ શેઠ ભેરૂમલજી સાહેબ જોધપુરવાળા
૮૮ સ્વ. એનાણી વમાન રામજીભાઇ કુંદણીવાળાના સ્મરણાર્થે હુ. શાંતિલાલ વમાન
૮૯ સ્વ. કચરાભાઈ લહેરભાઇના સ્મરણાર્થે હ. શાંતિભાઇ કચરાભાઇ
૯૦ એક સ્વધર્મી બન્ધુ હું. શાહુ રીખભદાસજી જયંતીલાલજી ૯૧ અ. સૌ, સરસ્વતીબેન મણીલાલ ચતુરભાઈ શાહ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( સદાન'દી છેટાલાલ મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી ) ૯૨ ચીમનલાલ મણીલાલ શાહ (દરીયાપુરી સપ્રદાયના પૂ. તપસ્વી મહારાજશ્રી માણેકચ`દ્રજીના શિષ્ય મુનિશ્રી મગનલાલજી. મહારાજશ્રીના સ્મરણાર્થે )
૯૩ મેન જેકુવર વ્રજલાલ પારેખ
૯૪ શેઠ પુનઃમચંદજી જવાહીરલાલજી ખરડીયા ૯૫ અ. સૌ. લીલાવતી ધીરજલાલ મહેતા
ઠે ડા. ધીરજલાલ ત્રીકમલાલ મહેતા
૯૬ શેઠ રાજમલજી ઘાસીલાલજી કાઠારી કેાશીથલવાળા । ૯૭ શેઠ ચુનીલાલ ભગવાનજી ઠે. રતીલાલ ચુનીલાલ
૮ ભાગ્યવતી અરવીંદકુમાર ઠે. અરવીંદકુમાર સકરાભાઈ ભાવસાર હ્યુ . સૌ. ચ'ચળબેન મનસુખલાલ
હા. મનસુખલાલ જેઠાલાલ રૂપેરા ૧૦૦ સ્વ. આસીખાઈ તથા વસતીમલજી ભેામાજીના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ મીશ્રીમલજી દેવચંદ્રુજી આસવાલ કેવાળા
૧૦૧ સ્વ. શેઠ કીશનમલજી માંડાતના સ્મરણાર્થે હા. શીરેમલજી કીશનમલજી સાજતવાલા
For Private And Personal Use Only
૧૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
પ૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
૨૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫
૨૫૨
૨૫૧
૧૦૨ સ્વ. શેઠ વકતારમલજીના સ્મરણાર્થે
હા. શેઠ ઘીસાલાલજી મુક્તરાજજી શીયારીયા ( જોધપુરવાલા ) ૨૫૧ ૧૦૩ શાહ મહાસુખલાલ ભાઇલાલ ( સદાની પડિત મુનિશ્રી છેટાજ્ઞાલજી મહારાજના ઉપદેશથી )
૧૦૪ . સૌ. કાન્તાબેન કાળીદાસ હૈ. કુમાર બુકબાઇન્ડીંગ વર્કસ ૧૦૫ સ્વ. હિંમતલાલ મગનલાલના સ્મરણાર્થે
તેમના સુપુત્રા મેસસ દ્વારકાદાસ એન્ડ બ્રધર્સ તરફથી
૨૫૧
૫૧
૩૫૧
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫૧
૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
-
૩૦૧
૨૫૧
૧૦૬ અ. સી. કાન્તાબેનના સ્મરણાર્થે
હા. ભાવસાર નાગરદાસ હરજીવનદાસ ૧૦૭ શ્રી ઉમેદચંદ ઠાકરશી ઠે. યુ. ટી. પાણી એન્ડ સન્સ ૧૦૮ પૂ. માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હા. ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ ૧૦૯ શાહ શાંતીલાલ મેહનલાલ ૧૧૦ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર હા, પ્રભુદાસ મહેતા ૧૧૧ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર હા. શાહ ભુરાલાલ કાળીદાસ ૧૧૨ સ્વ. પિતાશ્રી મોતીલાલજીના સ્મરણાર્થે
હ. મહેતા રણજીતલાલજી મેતીલાલજી ઉદેપુરવાળા ૧૧૩ શેઠ પરસેતમદાસ અમરસીનાં ધર્મપત્ની સ્વ. કુસુમબેનના - સ્મરણાર્થે તથા અ. સૌ સવીતાબેનના મા ખમણના નિમિત્ત
હા. શેઠ સેમચંદ પરસેતમદાસ (પિર્ટ સુદાનવાળા) ૧૧૪ શ્રીમાન જોરાવરમલજી ધર્મચંદ્રજી ડુંગરવાલ
રાજાજી, કાકેરડાવાળા (મુનિશ્રી માંગીલાલજીના ઉપદેશથી) ૧૧૫ ડે. ધનજીભાઈ પરસોતમદાસ ૧૧૬ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર ૧૧૭ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર ૧૧૮ સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર ૧૧૯ શેઠ ગેરિલાલજી યુગનલાલજી ઉદેપુરવાળા ૧૨૦ શેઠ કનૈયાલાલજી સુરાણુ પીપલાદાવાળા ૧૨૧ કામદાર વાડીલાલ રતીલાલ (સાબરમતી) ૧૨૨ કુમારી ચંપાબેન ભેગીલાલ ભાવસાર ૧૨૩ કુમારી ઉષાબેન જયંતીલાલ ભાવસાર ૧૨૪ કુમારી ચંદ્રાબેન જયંતીલાલ ભાવસાર ૧૨૫ કુમારી જયશ્રી રમણલાલ ભાવસાર ૧૨૬ શાહ ડાહ્યાભાઈ અંબાલાલ ૧૨૭ બરડીયા ચાંદમલજી જવાહરલાલજી ૧૨૮ શ્રી વિજયદાન સુરેશ્વરજી જ્ઞાનમંદીર પૌષધશાળા ૧૨૯ શેઠ પાનાચંદ ઝવેરચંદ સારંગપુર ઉપાશ્રય ટ્રસ્ટ
હ, વકીલ બાબુભાઈ હીંમતલાલ
૨૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧
૩૫૧
૨૫૧ ૨૫૨ ૨૫૨
૨૮૦
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૩૫૧ ૨૫૧
૩૫૧
૩૫
For Private And Personal Use Only
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
અમલનેર ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. ગાંડાલાલ ભીખાલાલ
અજમેર ૧શેઠ ભુરાલાલ મેહનલાલ ડુંગરવાલા
અલવર ૧ શ્રીમતી ચંપાદેવી છે. બુદ્ધામલજી રતનમલજી સચેતી ૨ શેઠ ચાંદમલજી મહાવીર પ્રસાદ પાલાવત શ્રીયુત રૂષભકુમાર સુમતિકુમાર જૈન
આસનસેલ ૧ બાવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની મણીબાઈ તરફથી હા. રસિકલાલ, અનિલકાંત, તથા ધિને છમય
આટકેટ ૧ મહેતા ચુનીલાલ નારણજી
આણંદ ૧ શેઠ રમણીકલાલ એ. કપાસી હા. મનસુખલાલભાઈ
આકેલા ૧ શેઠ કંચનલાલ રાઘવજી અજમેરા છે. મેસર્સ અજમેર શ્રી એન્ડ મુ. (પૂ. સદાનંદી મુનિશ્રી છેટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી) ર૫
ઇગતપુરી ૧ શઠ પનાલાલ લખીચંદ જૈન
ઈન્દોર ૧. અ. સૌ બેન દયાબેન મેહનલાલ દેસાઈ જેતપુરવાળા
(અ.સૌ. બેન વિદ્યાબેનના વષીતપ નિમિત્તે)
હા. અરવિંદકુમાર તથા જીતેન્દ્રકુમાર ૨ શ્રીયુત ભાઈલાલ છગનલાલ તુરખીયા
ઉદયપુર ૧ શેઠ રણજીતલાલજી મોતીલાલજી હિંગડ ૨ શ્રીમતી હિનીબાઈ કે રણછતલાલ મોતીલાલજી હિંગડ
૨૫૧
For Private And Personal Use Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫૧
૨પ
૨૫૬
5 અ. સી. બેન ચન્દ્રાવતી તે શ્રીમાન બહાતલાલજી નાહરનાં
ધર્મપત્ની હા. શેઠ રણજીતલાલ મોતીલાલ હિંગડ૨૫૧ ૪ શેઠ છગનલાલજી બાગ્રેચા પ શેઠ મગનલાલજી બાગ્રેચા
૨૫૧ ૬ સ્વ. શેઠ કાળુલાલજી લોઢાના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ દાલતસિંહજી લેઢા
૨૫t ૭ સ્વ. શેઠ પ્રતાપમલજી સાખલાના સ્મરણાર્થે હા. પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા
૨૫૧ -૮ શેઠ ભીમરાજજી થાવરચંદજી બાફણા
૯ શ્રીયુત સાહેબ લાલજી મહેતા ૧૮ શેઠ પન્નાલાલજી ગણેશલાલજી હીંગડ
૨૫૧ ૧૧ શેઠ દીપચંદજી પન્નાલાલજી લેઢા
૨૫૧ ૧૨ શેઠ કસ્તુરચંદજી નારૂમલજી
- ૨૫ ૧૩ શ્રી. યુ. એલ. કોઠારી ૧૪ બાબુ પરશુરામ છગનલાલજી શેઠ
૨૫૦ ૧૫ શેઠ કનૈયાલાલ કારૂલાલજી જૈન
૨૫. ૬ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ આમડ
ઉપલેટા ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ ૨ સ્વ બેન સંતોકબેન કચરા હા. ઓતમચંદભાઈ છોટાલાલભાઈ
- તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા) ૨૫૧ ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા. પ્રતાપભાઈ ૪ દેશી વિદ્વેલજી હરખચંદ ૫ ધાણી મુળશંકર હરજીવનભાઈના સ્મરણાર્થે હા. તેમના પુત્ર
જયંતીલાલ તથા રમણીકલાલ
૩૦૧
૩૫૧
૨૫૧
૨૫૧
ઉમરગાંવ રોડ ૧ શાહ મોહનલાલ પિપટલાલ પાનેલીવાળા
એડન કેમ્પ
- ૨૫૧
૧ મહેતા પ્રેમચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે
હા. રાયચંદભાઈ, પિપટલાલભાઈ તથા રસીકલાલભાઈ ૨૫
For Private And Personal Use Only
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨ શાહે જગજીવનદાસ પુરતમદાસ ૩ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણું
કલકત્તા ૧ શ્રી કલકત્તા જેન વે. સ્થા. (ગુજરાતી) સંઘ
કલોલ ૧ શેઠ મોહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે
હ. શેઠ આત્મારામ મોહનલાલ ૨ ડે. મયાચંદ મગનલાલ શેઠ હા. ડે. રતનચંદ મયાચંદ કે સ્વ. નાથાલાલ ઉમેદચંદના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ ૪ શેઠ મણીલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે
હા. મારફતીયા ચંદુલાલ મણીલાલ ૫ સ્વ. શ્રીયુત વાડીલાલ પરસેતમદાસના સ્મરણાર્થે
હા. ઘેલાભાઈ તથા આત્મારામભાઈ , ૬ શાહ નાગરદાસ કેશવલાલ ૭ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા, શેઠ આત્મારામભાઈ મેહનલાલભાઈ
૨૫૧
૨૫
૨૫૧
કડી
૨૫૧
૧ શ્રી સ્થા. દરિયાપુરી જૈન સંઘ
હા. ભાવસાર દામોદરદાસભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ ૨ પાર્વતીબેન કે. જેસીંગભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ
કરજણ ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ મીયાગામ કરજણ
કઠોર ૧ સ્થા. જૈન સંઘ જેસીંગભાઈ પિચલાલ તરફથી (માધવસિંહજી મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી) હા. ઠાકરભાઈ રાયચંદ્ર
કત્રાસગઢ ૧ી છે. સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેડ દેવચંદ અમુલખભાઈ
કલ્યાણ ૧ સંધવી ઠાકરશીભાઈ સંઘજીના સ્મરણાર્થે
હા. શાહ હીંમતલાલ હરખચંદ
૨૫૧
For Private And Personal Use Only
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
કાનપુર ૧ શાહ રમણીકલાલ પ્રેમચંદ
કુંદણ-(આટકેટ) ૧ દેશી રતીલાલ ટોકરશી
કોલકી પટેલ ગેવિંદલાલ ભગવાનજી, પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી (.તેમના સ્વ. સુત્ર રામજીભાઈના સ્મરણાર્થે).
કમ્પાલા ૧ સ્વ. શેઠ નાનચંદ મેતીચંદ ધ્રાફાવાળાના સ્મરણાર્થે
હ. તેમના સુપુત્ર જમનાદાસ નાનચંદ શેઠ ૨ શ્રીમતી હીરાબેન, રતીલાલ નાનચંદ શેઠ ધ્રાફાવાળ
કુશળગઢ ૧ શેઠ ચંપાલાલજી દેવચંદજી
કેલ્હાપુર વકીલ મણીલાલ ખેંગારભાઈ હા. હરીલાલભાઈ
ખારાધેડા ૧. વ. પિતાશ્રી હરજીવનદાસ લાલચંદ શાહ તથા સવ. અ. સૌ. બેન જમકુબાઈ તથા લીલાબાઈના
સ્મરણાર્થે હા. નરસિંહદાસ હરજીવનદાસ ૨ વ. શેઠ ઓઘડલાલ લક્ષ્મીચંદના સ્મરણાર્થે હા, ભાઈચદ
ખીચન ૧ શેઠ કિસનલાલ પૃથ્વીરાજ માલ
ખુરદારેડ ૧ શેઠ ગીરધારીલાલજી સીતારામજ ખેંડપવાળા ૨ શેઠ નરસિંહદાસ શાંતિલાલજી લેરલાલણ
(મુનિશ્રી ચાંદમલજીના ઉપદેશથી).
વડલાઈ ૨૫૧
For Private And Personal Use Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ખંભાત,
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૧ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ ૨ શેઠ ત્રીવનદાસ મંગળદાસ ૩શ્રી. સ્થા. જૈન સંગ ૪ શાહ ચંદુલાલ હરીલાલ ૫ શાહ સાંકળચંદ મોહનલાલ ૬ શાહ શકરાભાઈ દેવચંદ ૭-શાહ સુખલાલ દલિતચ ૮ ગાંધી બાપુલાલ મોહનલાલ બેન લલિતા માણેકલાલ
ગાંધીધામ, ૧ શાહ મોરારજી નાગજી એન્ડ કંપની
- ૨૫ ૨૫૧
ગુંદાલા,
૧ શાહ માલશી ઘેલાભાઈ
ગુલાબપુરા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન વર્ધમાન સંઘ
હ. માંગીલાલજી ઉકારમલજી નેપવાળા ૨ શ્રી એસવાલ પંચાયત હ. ગુલાબચંદજી ચેરડીયા
ગેલ
૨૫૧ ૨૫
૧ સ્વ. ભાખડા વચ્છરાજ તુલસીદાસનાં ધર્મપતિ કમલબાઈ
તરફથી હા. માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળીયા લીલાધર દામોહર તરફથી તેમના ધર્મપત્ની અ. સી.
લીલાવતી સાકરચંદ કેકારીના બીજા વર્ષીતપની ખુશાલીમાં ૩૦૧ કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા. હરીલાલ જુઠાલાલ કામદાર
૩૦૧ ૪ સ્વ. કેહરીકૃપાશંકર માણેકચંદના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્ની પ્રભાકુંવરબેન.
૨૫૧ કોઠારી ગુલાબચંદ રાયચંદ રંગુનવાળા
For Private And Personal Use Only
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
. ૩૦૧
૬ જસાણી રૂગનાથભાઈ નાનજી હા. નીલાચુલભાઈ
૨૫૧ છ માસ્તર હકમીચંદ દીપચંદ શેઠ
- ૨૫૧ ગંદીયા ૧ થા. જનસંઘહ. શાહ પ્રેમચંદ છોટાલાલ (શેઠ પોપટલાલભાઈ તરફથી) ૨૫૦
ગોધરા ૧. શાહ ત્રીવનદાસ છગનલાલ ૨ સવ પ્રેમચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા. શાહ ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ૩૦૧
. ઘટકણ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ
૨૫૧ ઘોલવડ (થાણા) 1 મહેતા ગુલાબચંદ ગંભીરમલજી
ઘોડનદી ૧ શેઠ ચંદ્રભાણુ શેભાચંદ ગાદીયા
ચુડા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. રતીલાલ મગનલાલ ગાંધી
ચેટીલા ૧ શાહ વનેચંદ જેઠાલાલ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘને ભેટ
ચારભુજારાડ ૧ શેઠ માંગીલાલજી હીરાચંદજી બાબેલ
જમશેદપુર ૧ જોશી ઝવેરચંદ વલમજી
જલેસર (બાલાસર) ૧ સંઘવી નાનચંદ પિપટભાઈ થાનગઢવાળા
જયપુર ૧ શ્રીમાન શેઠ શીમલજી નવલખાનાં ધર્મપત્ની અ.સૌ. પ્રેમલતાદેવી ૨૫
જસવંતગઢ સીમા સુરક્ષાલજી નેમચંદલેસર
૨૫૧
પS
For Private And Personal Use Only
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
૧ શેઠ વસનજી નારણજી
૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. મહેતા રણછેાડદાસ પરમાણુ ૩. સધવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ
૧ શાહ ોટાલાલ કેશવજી ૨ વારા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ ૩. સાહેબ પી. પી. શેઠ ૪ શાહ રગીલદાસ પેપટલાલ
Ra
જામખંભાળીયા
૧ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ
'
www. kobatirth.org
૩ કાશી માણેકચંદ ભવાન
૪ પટેલ લાલજી જુડાભાઈ
૫ શેઠ માવનજી જેઠાભાઇ
? શેઠ વૃજલાલ ચુનીલાલ
જામનગર
જીનારદેવ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. મહેતા પેાપટલાલ માવજીભાઈ ૨ શાહુ ત્રીભાવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા
જુનાગઢ
૧ શેઠ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા. હરીલાલભાઇ ( હાટીના માળીયાવાળા ) ૨૫૧
જામજોધપુર
જેતપુર
૧ કોઠારી ડાલરકુમાર વેણીદ્યાલ
૨. અ. સૌ. એન સુરજકુંવર વેણીલાલ કાડારી
૩ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા. નરભેરામભાઇ ( જસાપુરવાળા )
૪ ઢાશી ટાલાલ વનેચંદ
જેતલસર
૧ શાહ લક્ષ્મીચંદ કપુરચંદ
૨ કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની ખકમેન તરફથી હા, શાંતિલાલભાઈ ગેાંડલવાળા..
For Private And Personal Use Only
૨૫૬
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૫૧ 139
૨૫૦
૨૫૧
૩૫૧
૩૭
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
પા
૩૫૧,
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫
૨૫૧
૧ શઠ નવરતમલજી ધનવંતસિંહજી
૨૫૦ ૨ શેઠ હસ્તીમલજી મનરૂપમલજી સામસુખા
૨૫ શેઠ પુખરાજજી પદમારાજજી ભંડારી
૨૫૫ ૪ શેઠ વસ્તીમલ આનંદમલજી સામસુખા
જોરાવરનગર ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ ચંપકલાલ ધનજીભાઈ
ઝરીયા ૧ ટી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ કનૈયાલાલ બી. મોદી
ડેડાયા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ
૨૫૦ ઢસા ૧ સાગમ સ્થા. જૈન સંધ હા. એક સદગૃહસ્થ તરફથી
૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. બગડિયા નરભેરામ જેઠાલાલ (ઢસા જંકશન) ૨૫
તાસગાંવ ૧, ચુનીલાલજી દુગડના મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની ઢબાઈ તરફથી હા. શેઠ રામચંદજી
થાનગઢ
૨૫૧
૨૫૧
૩૧
૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી. ૨ શઠ જેઠાલાલ ત્રીભોવનદાસ
શાહ ધારશીભાઈ પાશવીરભાઈ હા. સુખલાલભાઈ ૪ હંસાબેન અરવીંદ હા. ભાઈ રવીચંદ માણેકચં
દહાણુડ ૧ શાહ હરજીવનદાસ ઓઘડ ખંધાર (કરાંચીવાળા)
દાહોદ ૧ શેઠ માણેકલાલભાઈ ખેંગારજી
૧ લાલાજી પૂર્ણચંદજી જન (સેન્ટલ બંકવાળા)
For Private And Personal Use Only
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨ શ્રીયુત કિશનચંદજી મહેતાબચંદજી ચારડીયા
હા. શ્રીમતી નગીનાદેવી તથા શ્રીયુત મહેતાબચંદ જૈન - ૬ અ. સ. સજજનબેન ઈંદિરમલજી પારેખ
૫૧ ૪ લાલાજી મીઠનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ ૫ લાલાજી ગુલશનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ
' થ૦૧ ૬ બેન વિજયાકુમારી જૈન કે. મહેતાબચંદ જૈન
(વયેવૃદ્ધ સરલ સ્વભાવી ફુલમતીજી મહાસતીજીની પ્રેરણાથી) ઉપર ૭ શ્રીમાન લાલાજી રતનચંદજી જૈન છે. આઈ. સી. હોઝીયરી પર ટ સ્વ. શ્રી લાલાશ્રીચંદજી ડુંગરીયાના મરણાર્થે રાજસ્થાને સ્થાયાયિકારી
હુકમચંદજી જૈનના સુપુત્ર જીતેન્દ્રકુમાર વકીલના સુપુત્ર અનિલકુમાર તરફથી ભેટ હ. વિનયકુમારી ૯ સ્વ. લાલાજી ચંપાલાલજી ચેરડીયાના સ્મરણાર્થે લાભચંદજી.
તથા હીરાલાલજી તરફથી હા. શાંતાદેવી ૧૦ એક સદ્દગૃહસ્થ તરફથી હા. મહેતાબચંદજી જૈન
૩૧ ૧૧ એક સ્વધર્મ બંધુ તરફથી હા. વિજયાકુમારીબેન
૩૦૧ ૧૨ બાબુ નિરંજનસિહજી જૈન
૨૫૧ ધ્રાફા ૧ શેઠ મણીલાલ જેચંદભાઈ
ધાર
૩૫૧
૩૫૧
૨પ
૨૫
૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી
ધ્રાંગધ્રા ૧ ભાવ દીક્ષિત અ. સી. રૂપાળીબેન હિંમતલાલ સંઘવીની તપશ્ચર્યાથે * સંઘવી ચીમનલાલ પુરસોતમદાસ સંઘવી તરફથી ૨ સંઘવી નરસિંહદાસ વખતચંદ ૩ શ્રી સ્થા. જૈન મોટા સંઘ હા. મંગળજી જીવરાજ ૪ ઠકકર નારણદાસ હરગોવિંદદાસ ૫ કોઠારી કપુરચંદ મંગળજી
૦૧
૨૫૧, ૨૫૧
૨૫૧
ધોરાજી
૩૫૧
૧ મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ સ ા. સૌ. બચીબેન બાબુભાઈ
For Private And Personal Use Only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫૦
૨૫)
૨
8 ધી નવસૌરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ પ્રા. લીમીટેડ
૨૫ ૪ સ્વ. રાયચંદ પાનાચંદના મરણાર્થે હા. ચીમનલાલ રાયચંદ શાહ ૩૦૧ ૫ ગાંધી પોપટલાલ જેચંદભાઈ ૬ દેસાઈ છગનલાલ ડાહ્યાભાઈ લાઠવાળાનાં ધર્મપત્ની દિવાળીબેન તરફથી હા. કુમારી હસુમતી
૨૫૧ ૭ એક સદ્દગૃહસ્થ હા મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ
૨૫૧ ૮ શેઠ દલપતરામ વસનજી મહેતા ૯ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાન કચરાભાઈના તથા ચિ. હંસાના સમરણાર્થે
હા. પટેલ દલીચંદ ભગવાનજી ૧૦ મહેતા હેમચંદ કાળીદાસ જામખંભાળીયાવાળા
૨૫૧ ધંધુકા ૧ શેઠ પોપટલાલ ધારશીભાઈ
' ૨૫ ૨ સ્વ. ગુલાબચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હા. વેરા પિપટલાલ નાનચંદ ૨૫ ૩ શ્રી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ વસાણી
૨૫૧ ધુલીયા ૧ શ્રી અમોલ જન જ્ઞાનાલય હ. શેઠ કનૈયાલાલ છાજેડ
નડીયાદ ૧ શાહ મોહનલાલ ભુરાભાઈ
નારાયણ ગામ ૧ શેઠ મોતીલાલજી હીરાચંદજી ચારડીયા બોરીવાળા
- નંદુરબાર ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ
નાગાર ૧ શ્રીપાલભાઈ એન્ડ કું. સાગરમલજી લુકડ ડેરવાળા તરફથી
નાગપુર ૧ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ
પાલનપુર ૧ લોકાગચ્છ સ્થા. જૈન પુસ્તકાલય હા. કેશવલાલ છ. શાહ ૨૫૧
૨૫૫
૨૫૧
૨૫૧
ર
For Private And Personal Use Only
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૩૦૧
૨
- ૨૫૧
પાણસણું ૧ સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ છોટાલાલ પુંજાભાઈ
૨૫ પાલેજ ૧ સ્વ. મનસુખલાલ મોહનલાલ સંઘવીના સ્મરણાર્થે હા, ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ
પ્રાંતીજ ૧ સ્થા. જૈન સંઘ હા. શ્રીયુત અંબાલાલ મહાસુખરામ
૨૫૦ પૂના ૧ શેઠ ઉત્તમચંદજી કેવળચંદજી ધોકા
ફાલના ૧ મહેતા પુખરાજજી હસ્તીમલજી સાદડીવાલા ૨ મહેતા કુંદનમલજી અમરચંદજી સાદડીવાલા
બગસરા ૧ શેઠ પિપટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હા. માનસંધ પ્રેમચંદ શાહ
૨૫ ૨ વ. માતુશ્રી જબકબાઈના સ્મરણાર્થે હા. દેસાઈ વૃજલાલ કાળીદાસ
બરવાળા-ઘેલાશા ૧. સ્વ. મેહનલાલ નરસિંહદાસના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્ની સુરજબેન મોરારજી
૨પ૧ મદનાવર ૧ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ હા. મિશ્રીલાલ જેન વકીલ રપ
બાલોતરા ૧ શાહ જેઠમલજી હસ્તીમલજી ભગવાનદાસજી ભણસારી
૨૫૧
બીદડા
૧ શાહે કાનજી શામજીભાઈ
ર૫
For Private And Personal Use Only
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫Y
૨૫૧
બીજનેર ભેરૂદાનજી શેઠીયા
બેરાજા ૧ શેઠ ગાંગજી કેશવજી (જ્ઞાનભંડાર માટે)
બેલારી ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ હજારમલજી હસ્તીમલજી રાંકા
બેરમો ૧ શ્રી બેર સ્થા. જૈન સંઘ હ. મહેતા નવલચંદ હાકેમચંદ
બેંગલોર 4 શેઠ કિશનલાલજી કુલચંદજી સાહેબ ૨ અજમેરા છોટાલાલ માનસિંગ
બોટાદ ૧ સ્વ. વસાણી હરગોવિંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે | હા. તેમના ધર્મપત્ની છબલબેન
બેડેલી
૨૫
૧ શાહ પ્રવીણચન્દ્ર નરસિંહદાસ સાણંદવાળા ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ
ભાણવડ
ઉપર
૨૫
૨૫૧
A શેઠ ચંદુભાઈ માણેકચંદભાઈ ૨ સંઘવી માણેકચંદ માધવજી 8 શેઠ લાલજી માણેકચંદ લાલપુરવાળા જ શેઠ રામજી જીણાભાઈ ૫ શેઠ પદમશી ભીમજી ફેફરીયા ૯ ફેફરીયા ગાંડાલાલ કાનજીભાઈ હા. અ.સૌ. શાંતાબેન વસનજી ૭ સ્વ. મહેતા પૂનમચંદ ભવાનના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં
ધર્મપત્ની દિવાળીબેન ભીલાધર (ગુંદાવાળા)
૨૫
૨૫૧
૨૫
For Private And Personal Use Only
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ભાવનગર સવ. કુંવરજી બાવાભાઈના મરણાર્થે હા. શાહ લહેરચંદ કંવરજી બે
ભાદરણું ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. પટેલ ધુલાભાઈ ઝવેરભાઈ
૧૫ ભીલવાડા ૧ શ્રી શાંતિ જૈન પુસ્તકાલય હા. ચાંદમલજી મામલજી સંઘવી ૨ શેઠ ભીમરાજજી મીશ્રીલાલજી
ભીમ ૧ ચંપકલાલજી જૈન પુસ્તકાલય હા. શેઠ ગામલજી માંગીલાલજી
ભુસાવળ ૧ શેઠ રાજમલજી નંદલાલજી ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ
ભે જાય ૧ જ્ઞાન મંદિરના સેક્રેટરી શાહ કુંવરજી જીવરાજ
મદ્રાસ ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચંદજી મહેતા ૨ મહેતા મણલાલ ભાઈચંદ ૩ મહેતા સુરજમલ ભાઈચંદ ૪ મહેતા બાપાલાલ ભાઈચંદ
મનફરા ૧ સ્થા. છેકેટી સ્થા. જૈન સંઘ
મોર ૧ શાહ શેરમલજી દેવીચંદજી જશવંતગઢવાળા - હા. પૂનમચંદજી શેરમલજી બેલ્યા.
માનકુવા ૧ સ્વ. મહેતા કુંવરજી નાથાલાલતા સ્મરણાર્થે હા. તેમના ધર્મપત્ની
કુંવરબાઇ હરખચંદ ( માનવા સ્થા. જૈન સંઘ માટે )
For Private And Personal Use Only
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫
૨૫
૨૫૦
૨૫
માંડવી ૧ ટી સ્થા. છકેટી જન સંઘ હા. મહેતા ચુનીલાલ વેલજી ર૭૭
માંડવા ૧ શ્રી માંડવા સ્થા. જૈન સંઘ છે. સૌ. કંચનગૌરી રતીલાલ ગોસલીયા (ગઢડાવાળા)
માલેગાંવ ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. ફતલાલ માલ જૈન
માંગરેલ ૧ શાહ ત્રીવનદાસ નાનજી
૨૫૦ ૨ દેશી ગીરધરલાલ જેઠાલાલ
મુંબઈ તથા પરાંઓ ૧ શાહ શ્રી પિતાશ્રી કુંદનમલજી મેતીલાલજી મુથાના સમરણાર્થે
હા. શેઠ મોતીલાલજી જુબરમલજી (અહમદનગરવાળા) ૨ વર્ધમાન સ્થા. જૈન સંઘ હ. કામદાર રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) ૨૫૧
અ. સી. કમળાબેન કામદાર હ. કામદાર રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) ૨૫૧ ૪ સ્વ. માતુશ્રી કડવીબાઈના સ્મરણાર્થે હ. તેમના પૌત્ર હકમીચંદ તારાચંદ દેશી (અંધેરી).
૨૫૧ ૫ શાહ હરજીવન કેશવજી
૨૫૧ ૯ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અસૌ. કાન્તાબેન રમણીકલાલ ૨૫૧ ૭ સંઘવી હિંમતલાલ હરજીવનદાસ
૨૫૧ ૮ વેરા પાનાચંદ સંઘજીના સ્મરણાર્થે હ. ત્રંબકલાલ પાનાચંદ એન્ડ બ્રધર્સ
૨૫૧ ૯ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા ૧૦ સ્વ. જટાશંકર દેવજીભાઈ દોશીના સ્મરણાર્થે
હ. રણછોડદાસ (બાબુલાલ) જટાશંકર દેશી ૧૧ ઘેલાણી વલભજી નરભેરામ હ. નરસીંહદાસ વલભજી
૨૫૧ ૧૨ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ ૧૩ ત્રીભોવનદાસ માનસિંગભાઈ દેઢિીવાળાના સ્મરણાર્થે
હ. શાહ હરખચંદ ત્રીજોવનદાસ - ૧૪ ખેતાણું મણીલાલ કેશવજી (વડિયાવાળા) ઘાટકોપર
૨૫
૩૦૧
૨૫૧
૨૫૧
For Private And Personal Use Only
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૩૦૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૧૫ સ્વ. પિતાશ્રી શામળજી કલ્યાણજી ગોંડલવાળાના સમરણાર્થે - હા. વૃજલાલ શામળજી બાવીસી ૧૬ શાહ રવિચંદ સુખલાલભાઈ (દાદર).
૩૫૧ ૧૭ સ્વ. આશારામ ગીરધરલાલના સ્મરણાર્થે હા. શાંતિલાલ
આશારામ વતી જશવંતલાલ શાંતિલાલ ૧૮ ગાંધી કાંતીલાલ માણેકચંદ ૧૯ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કુાં. (કાંદીવલી)
૨૫ ૨૦ અ.સૌ. લાછુબેન હા. રવજીભાઈ શામજી ૨૧ સ્વ. માતુશ્રી માણેકબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ વલભદાસ નાનજી ૩૦૧ ૨૨ એક સદ્દગૃહસ્થ હા. શેઠ સુંદરલાલ માણેકલાલ
૨૫૧ ૨૩ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેંગારભાઈ
૨૫૦. ૨૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા ૨૫ સ્વ. માતુશ્રી ગોમતીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ પોપટલાલ પાનાચંદ રૂપા ૨૬ કેટેચા જયંતીલાલ રણછોડદાસ સૌભાગ્યચંદ જુનાગઢવાળા ૨૭ વેરા ઠાકરશી જસરાજ
૨૫૧ ૨૮ કોઠારી સુખલાલજી પુનમચંદજી
(ખારવાડ) ૨૫૧ ૨૯ અ.સૌ. બેન કુંદનગૌરી મનહરલાલ સંઘવી
છે ૨૫મી ૩૦ કઠારી રમણીકલાલ કસ્તુરચંદભાઈ ૩૧ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે " હા. દલીચંદ અમૃતલાલ દેસાઈ
૨૫૧ ૩૨ સ્વ. ત્રીવનદાસ વ્રજપાળ વીછીયાવાળાના સ્મરણાર્થે
હા. હરગોવિંદદાસ ત્રીવનદાસ અજમેરા ૩૩ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચંદ
૨પ૧ ૩૪ શેઠ સરદારમલજી દેવીચંદજી કાવડીયા (સાદડીવાલા) ૩૫ શેઠ નેમચંદ સ્વરૂપચંદ ખંભાતવાળા હા. ભાઈ જેઠાલાલ નેમચંદ ૨૫૧ ૩૬ શાહ કરશીભાઈ હરજીભાઈ
૩૦૧ ૩૭ દડિયા અમૃતલાલ મોતીચંદ
(ઘાટકોપર) ૨૫૧ ૩૮ દેશી ચત્રભુજ સુંદરજી
છે ૪૧ એક દેશી જુગલકિશોર ચત્રભુજ
- " . "
૨૫૧
૨૫૧
For Private And Personal Use Only
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫૧
૨૫૧
૪૦ દેશી પ્રવિણચંદ્ર ચત્રભુજ
(ઘાટકોપર) ૩૮ Yર શેઠ મનુભાઈ માણેકચંદ હા. ઝાટકીયા નરભેરામ મોરારજી ) ૨૫૧ પર શાહ કાંતીલાલ મગનલાલ
, ૨૫ ૪૩ શેઠ મલાલ ગુલાબચંદ
ઘાટકોપર ૨૫૧ ૪૪ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ
૨૫૧ ૪૫ શાહ શીવજી માણેકભાઈ
૨૫૧ ૪ મેસર્સ સવાણી ટ્રાન્સપોર્ટ કુ. હા. શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૨૫ ૪૭ શાહ નગીનદાસ કલ્યાણજી (વેરાવળવાળા)
૨૫૧ ૪૮ મહેતા રતીલાલ ભાઈચંદ
२५१ ૪૯ શાહ પ્રેમજી હીરજી ગાલા ૫૦ બેન કેશરબાઈ ચંદુલાલ જેશીંગભાઈ શાહ ૫૧ પારેખ ચીમનલાલ લાલચંદ સાયલાવાળાના ધર્મપત્ની અ. સી.
ચંચળબાઈના સ્મરણાર્થે હા. સારાભાઈ ચીમનલાલ ૨૫૬ ૧ ધી મરીના મેડન હાઈસ્કુલ ટ્રસ્ટ ફંડ હા શાહ મણીલાલ ઠાકરશી ૨૫ જ મહેતા માટર સ્ટે હા. અનોપચંદ ડી. મહેતા
૨૧ ૪ શેઠ રસીકલાલ પ્રભાશંકર મોરબીવાળા તરફથી તેમનાં - માતુશ્રી મણીબેનના સ્મરણાર્થે ૫૫ શ્રીયુત જસવંતલાલ ચુનીલાલ વેરા
૨૫૦ પ૬ શાહ કુંવરજી હંસરાજ
૨૫૧ પ૭ દડીયા જેસીંગલાલ ત્રીકમજી
૨૫૧ ૫૮ મેદી અભેચંદ સુરચંદ રાજકેટવાળા હા. સાલાલ અભેચંદ ૨૫૧ પ૯ શાહ જેઠાલાલ ડામરશી ધ્રાંગધ્રાવાળા હા. શાહ વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૯૦ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાનજી હીરાચંદ જસાણીના સ્મરણાર્થે
હા. લહમીચંદભાઈ તથા કેશવલાલભાઈ ૧૧ સવ. પિતાશ્રી શાહ અંબાલાલ પુરુષોત્તમદાસના સ્મરણાર્થે હા શાહ બાપાલાલ અંબાલાલ
૨૫૧ દર સ્વ. કસ્તુરચંદ અમરશીના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્ની ઝવેરબેન
" મગનલાલ વતી જયંતીલાલ કસ્તુરચંદ મશ્કરીયા (ચુડાવાળા) રાપર ૩ શેઠ ડુંગરશી હંસરાજ વીસરીયા
૨૫ જ શાહ રતનશી મણશીની કુ. પ શેઠ શીલાલ ગુલાબચંદ મેવાવાળા ( શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ
ર
For Private And Personal Use Only
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫
૩૩ ૬૭ સ્વ. પિતાશ્રી વીરચંદ જેસીંગ, શેઠ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે હા. કેશવલાલ વીરચંદ
૨૫૧ ૬૮ ચંદુલાલ કાનજી મહેતા « શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન સંઘ
- હા. કેશરીમલજી અનેપચંદજી ગુગલીયા (મલાડ) સ્પા ૭૦ સ્વ. પિતાશ્રી મનુભાઈ માનાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ કાનજી પતુભાઈ
' ' ૨૫૧ ૭૧ અ. સ. પાનબાઈ હા. શેઠ પદમશી નરસિંહભાઈ. ૭૨ સ્વ. નાગશીભાઈ સેજપાલના સ્મરણાર્થે રામજી નાગશી , ૩૦૧ ૭૩ સ્વ. બેડા વણારશી ત્રીભવનદાસ સરસઈવાળાના મરણાર્થે
હા. જગજીવન વણારશી ગોડા ૭૪ સ્વ. કાનજી મુળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈના
૧૬ ઉપવાસના પારણા પ્રસંગે હા. જયંતિલાલ કાનજી ,, ૭૫ શાહ પ્રેમજી માલશી ગંગર ૭૬ શાહ વેલશી જેસીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમનાં ધર્મપત્ની
સ્વ નાનબાઈના સ્મરણાર્થે ૭૭ સ્વ. પિતાશ્રી રાયશી વેલશીના સ્મરણાર્થે - હ. શાહ દામજી રાયશીભાઈ ૭૮ શાહ વરજાંગભાઈ શીવજીભાઈ ૭૯ શાહ ખીમજી મુળજી પુજા ૮ અ. સૌ. સમતાબેન શાંતિલાલ હ. શાંતિલાલ ઉજમશી શાહ ૨૫૧ ૮૧ સ્વ કેશવલાલ વછરાજ કઠારીના સ્મરણાર્થે સુરજબેન તરફથી હા, તનસુખલાલભાઈ
1. ૨૫ ૮૨ સ્વ. પિતાશ્રી હંસરાજ હીરાના મરણાર્થે હા. દેવશી હંસરાજ કચ્છ બીદડાવાળા
, ૨૫૧ ૮૩ ઘેલાણી પ્રભુલાલ ત્રિીકમજી
(બોરીવલી) ર૩ર૮૪ શેઠ ચંબકલાલ કસ્તુરચંદ લીમડી અજરામર શાસ્ત્રભંડારને ભેટ (માટુંગા) ૨૫૧ ૮૫ અ.સૌ. બેન રંજન ગૌરી ઠે. શાહ ચંદુલાલ લક્ષ્મીચંદ , ૨૫૧ ૮૬ શાહ નટવરલાલ દીપચંદ તરફથી તેમનાં ધર્મપત્ની
અ. સી. સુશીલાબેનના વર્ષીતપની ખુશાલીમાં '), રપ૧ ૮૭ દેશી ભીખાલાલ વૃજલાલ પાળીયાદવાળા ૮૮ શાહ પાળજી માનસંગ
'
૩૦૧
ઇ
૨૫૧.
છે
.
૨
.
* * ૨૧.
For Private And Personal Use Only
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫૧
૮૯ દેશી કુલચંદ માણેકચંદ
મોગા રહે હત શેઠ ચંપકલાલ ચુનીલાલ દાદભાવાળા
| ૨૫૧ જ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સંધ હ. શાહ રવિચંદ સુખલાલ
(દાદર) ૨ હર શાંતીલાલ ડુંગરશી અદાણી
૨૫૧ ૯૩ શાહ કરશન લધુભાઈ ૪ કિસનલાલ સી. મહેતા
( શીવ) ૨૫૧ હેપ માતુશ્રી જીવીબાઈના સ્મરણાર્થે
હ, શામજી શીવજી કચ્છ ગુંદાળાવાળા (ગેરેગાંવ) ૨૨૧ ૯૬ વ. શાહ રાયશી કચરાભાઈના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની
નેણબાઈની વતી હ. જેઠાલાલ રાયશી | મુંબઈ ૨૫૧ હ૭ સુશીલાબેન શકરાભાઈ નવીનચંદ્ર વસંતલાલ શાહ (વલેપાર્લ') ૨૫૧ ૯૮ બેન ચંદનબેન અમૃતલાલ વરિયા ૯ સ્વ. કાળીદાસ જેઠાલાલ શાહના સ્મરણાર્થે હ સુમનલાલ કાળીદાસ ( કાનપુરવાળા)
૩૦૧ ૧૦૦ શાહ ત્રીભવન ગેપાળજી તથા અ.સૌ. બેન કસુંબા *. ત્રીવન (થાનગઢવાળા)
(શીવ) ૨૫૧ ૧ અ. સી. શાંતાબેન (દીનુભાઈ ભેગીલાલના ધર્મપત્ની) (દાદર) પર ૧૦૨ ભાવસાર દીનુભાઈ ભેગીલાલ
૨૫૧ મુળી - જેઠ ઉજમશી વીરપાળ હ. શેઠ કેશવલાલ ઉજમશી
મોરબી ૧ ઉશી એણકદ સુંદરજી
મોમ્બાસા ૧ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી. મહેતા
૨૫ ૨: શાહ દેવરાજ પિથરાજ
૨૫૦ મહેસાણા ૧ શાહ પામશી સુરચંદના સ્મરણાર્થે હ. શીવલાલ પદમશી
૪૦૧
For Private And Personal Use Only
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૩૫
યાદગીરી
૧ શેઠ ખાદરમલજી સુરજમલજી–એ'કસ
રતલામ
૧ અનેક ભક્તજના તરફથી છે. શ્રીમાન કેશરીમલજી ડક ( શ્રી કેવળચંદ મુનિશ્રીના ઉપદેશથી )
રાણપુર
૧ શ્રીમતી માતુશ્રી સમરતખાઇના સ્મરણાર્થે હૈ. ડૉ. નરાત્તમદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા ૨ સ્વ. પિતાશ્રી લહેરાભાઇ ખીમજીના સ્મરણાર્થે હ. શેઠ કાળીદાસ લહેરાભાઈ વસાણી
રાણાવાસ
૧ શેઠ જવાનમલજી નેમીચંદજી હા. ખાખુ રીખમચંદ્રજી
રાયચુર
૧ સ્વ. માતુશ્રી માંધીમાઈના સ્મરણાર્થ
હૈ. શાહ શીવલાલ ગુલાબચંદ વઢવાણુવાળા ૨ કાળુરામજી ચાંદમલજી સંચેતી
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
રાજકાટ
૧ વાડીલાલ ડાઈંગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્ક સ
૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચ' ચીત્તલીયા
ૐ શેઠ મનુભાઈ મુળચંદ ( એન્જીનીયર સાહેમ ) ૪ શેઠ શાંતિલાલ પ્રેમચંદ તેમનાં ધર્મપત્નીના વર્ષીતપ-પ્રસંગે
૫ શેઠ પ્રજારામ વીઠ્ઠલજી
૬ એન સર્યુંખાળા નૌતમલાલ જસાણી ( વર્ષીતપની ખુશાલી ) ૭ સાદી સૌભાગ્યચંદ્રમાતીચંદ્ર
૮ ખટ્ટાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમનાં ધ`પત્ની અ. સૌ. સમરતબેનના વર્ષીતપ નિમિત્ત
કાશી માતીચંદ્ર ધારશીભાઇ
For Private And Personal Use Only
- ૨૫૦
૫૧
૨૫૧
મ
મૂળ
૨૫૧
શ્યા
૪૦૦
૫૧
રા
રા
૨૫૧
૨૫૧
રા
૨૫૧
રા
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫૧
૩૫૧
૩૫૧
૨૫
૧ઠ કામદાર ચંદુલાલ જીવરાજ (ધ્રાંગધ્રાવાળા)
૨૫૦ ૧૧ હેમા ઘેલાભાઈ સવચંદ
૨૫૧ ૧૨ દફતરી પ્રભુલાલ ન્યાલચંદ
૨૫૧ '૧૩ સ્વ. મહેતા દેવચંદ પુરૂષોત્તમના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની
- હેમકુંવરબાઈ તરફથી હ. યંતીલાલ દેવચંદ મહેતા ૨૫૧ ૧૪ પારેખ શીવલાલ ઝુંઝાભાઈ મોમ્બાસાવાળા હ. અ. સી. કંચનબેન ૨૫૨
રાપર ૧ પૂજ્ય વાલજીભાઈ ન્યાલચંદભાઈ
રામપુરા ૧ શેઠ તેજમલજી મહરલાલજી બેંકર
રાવટી ૧ શેઠ મીયાચંદજી જુહરમલજી કટારિયા
લખતર ૧ શાહ રાયચંદ ઠાકરશીના સમરણાર્થે હ. શાંતિલાલ રાયચંદ શાહ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસના સ્મરણાર્થે
૨૫૧ હ. ત્રીવનદાસ હરજીવનદાસ
૨૫૧ ૩ શાહ તલકશી હીરાચંદના સ્મરણાર્થે - હ. ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી
૨૫૧ ૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ
૨૫૧ ૫ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈના સ્મરણાર્થે હ. શાંતિલાલ જાદવજી ૨૫૧ ૬ દેશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની સમરતબેન તરફથી હ. જયંતીલાલ ઠાકરશી
લાલપુર ૧ નેમચંદ સવજી મેદી હ. ભાઈ મગનલાલ
૨૫૧ ૨ શેઠ મુલચંદ પોપટલાલ તથા જેસીંગભાઈ
૨૫૧ લાકડીયા ૧ શ્રી. લાકડીયા સ્થા. જૈન સંઘ હ. શાહ રતનસી કરમણ
લીંબડી (સૌરાષ્ટ્ર) ૧ શાહ ચકુભાઈ ગુલાબચંદ
૨૫
૨૫૧
For Private And Personal Use Only
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
લીંબડી (પંચમહાલ)
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૩૫૧
૨૫
૧ શાહ કુંવરજી ગુલાબચંદ ૨ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલાબચંદ ૩ શેઠ વીરચંદ પન્નાલાલજી કરણાવટ ૪ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શાહ શાંતિલાલ ગુલાબચંદ
(
લોનાવાલા ૧ શેઠ ધનરાજછ મુલચંદજી સુથા
- લુધીયાના ૧ બાબુ રાજેન્દ્રકુમાર જેન દીલ્હીવાળા
વઢવાણ શહેર ૧ શેઠ દીલીપકુમાર સવાઈલાલ કે. શાહ સવાઈલાલ ત્રંબકલાલ ૨ કામદાર મગનલાલ ગોકલદાસ હ. રતીલાલ મગનલાલ ૩ સંઘવી મુળચંદ બેચરભાઈ હ. જીવણલાલ ગફલદાસ ૪ શેઠ કાંતિલાલ નાગરદાસ ૫ વોરા ચત્રભુજ મગનલાલ ૬ સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ ૭ શાહ દેવશીભાઈ દેવકરણ ૮ વોરા ડોસાભાઈ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ
હ. વેરા નાનચંદ શીવલાલ ૯ વેરા ધનજીભાઈ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ - હા. વેરા પાનાચંદ ગોબરદાસ ૧૦ દેશી વીરચંદ સુરચંદ હા. દેશી નાનચંદ ઉજમશી ૧૧ સ્વ. વેરા મણલાલ મગનલાલ હ. વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ ૧૨ શાહ વાડીલાલ દેવજીભાઈ ૧૩ કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલનાં ધર્મપત્ની
અ. સૌ. કમળાબેન રંગુનવાલા ૧૪ શ્રી વૃજલાલ સુખલાલ
વડેદરા ૧ કામદાર કેશવલાલ હિમતરામ પ્રોફેસર
૨૨૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
For Private And Personal Use Only
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨ વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહ
૨૫૧ ૩ સ્વ. પિતાશ્રી ફકીરચંદ પુજાભાઈના મરણાર્થે હા. શાહ રમણલાલ ફકીરચંદ
વડિયા શેઠ ભવાનભાઈ કાળાભાઈ પંચમીયા
વલસાડ ૧ શાહ ખીમચંદ મુલજીભાઈ
૨૫૧ વણી ૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્ની સ્વ. ચંચળબેન તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હ. મનહરલાલ નાનાલાલ મહેતા ૨
વટામણ ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. પટેલ ડાહ્યાભાઈ હકુભાઈ
વડગાંવ ૧ શેઠ માણેકચંદજી રાજમલજી બાફણ
વાંકાનેર ૧ખંડેરીયા કાંતીલાલ ત્રંબકલાલ ૨ દફતરી ચુનીલાલ પિપટલાલ મરબીવાળા હા. પ્રાણલાલ ચુનીલાલ દફતરી
વીંછીયા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. અજમેરા રાયચંદ વ્રજપાળ
વિરમગામ ક માસ્તર વીઠલભાઈ મોદી
૨૫૧ ૨ શાહ નાગરદાસ માણેકચંદ
૨૫૧ ૧૩ શાહ મણલાલ જીવણલાલ શાહપુરવાળા
૨૫૧ જ શાહ અમુલખ નાગરદાસનાં ધર્મપત્ની અ. સી. એને લીલાવતીના " વષિતપ નિમિત્તે હ. શાહ કાંતિલાલ નાગરદાસ
૩૦૦ ૫ સ્વ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના સ્મરણાર્થે
હા. ચુનીલાલ નાનચંદ
For Private And Personal Use Only
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૫૧
૨૧
૬ વ. શેઠ મણીલાલ લક્ષમીચંદ ખારાઘડાવાળાના મરણાર્થે તેમનાં પુત્ર તરફથી હ. ખીમચંદભાઈ
સ્પ ૭ વ. શેઠ હરિલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. અનુભાઈ ૨૫૧ ૮ સંઘવી જેચંદભાઈ નારણદાસ ૯ સ્વ. શાહ વેલશીભાઈ સાકરચંદ કત્રાસગઢવાળાના સ્મરણાર્થે હ. ચીમનલાલભાઈ
૨૫૧ ૧૦ પારેખ મણીલાલ ટોકરશી લાતીવાળા (મેડીબેનના મરણાર્થે) ૨૫૧ ૧૧ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના પુત્ર વાડીલાલભાઈનાં ધર્મપત્ની
અ. સૌ. નારંગીબેનના વર્ષિતપ નિમિત્તે હ. શાંતિલાલ નારણદાસ ૨૫૧ ૧૨ સ્વ. છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની
કમળાબેન તરફથી હ. મંજુલાકુમારી ૧૩ શ્રી સ્થા. જૈન શ્રાવિકા સંઘ હ. રંભાબેન વાડીલાલ " હ. કે. હિમતલાલ સુખલાલ
૨૫૧ ૧૫ શાહ મુળચંદ કાનજીભાઈ હ. શાહ નાગરદાસ ઓઘડભાઈ ૨૫૧ ૧૬ શેઠ મોહનલાલ પિતાંબરદાસ હ. ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલ ૨૫૧ ૧૭ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈના વર્ષિતપ નિમિત્તે
- હ. નથુભાઈ નાનચંદ શાહ ૧૮ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ ૧૯ સ્વ. મણીયાર પરસોતમદાસ સુંદરજીના સ્મરણાર્થે
હ. સાકરચંદ પરસોતમદાસ શાહ ૨૦ સ્વ. મોહનદાસ ધુલાભાઈના સ્મરણાર્થે હ. તેમનાં ધર્મપત્ની
નાથીબાઈ તરફથી હ. શંકરલાલ તથા શાંતિલાલ ૨૫૧
વિજયનગર
૧ શ્રી વર્ધમાન પે સ્થા. જૈન શ્રાવક સંઘ
હ. છેટુમલ અજીતસિંહ
૨૫૧
વેરાવળ
૨૫૧ ૨૫૧
૧ શાહ કેશવલાલ જેચંદભાઈ ૨ શાહ ખીમચંદ સૌભાગ્યચંદ ૩ સ્વ. શેઠ મદનજી જેચંદભાઈના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની
લાડકુંવરબાઈ તરફથી હ. ધીરજલાલ મદનજી .
૨૫
For Private And Personal Use Only
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૪૦
૪ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શાહ શોભેચંદ કરશનજી ૫ શાહ હરકિશનદાસ ફુલચંદ કાનપુરવાળા
૨૫
૨૫૧
૨૫૧
૨૫ા
૨૫૧
૧ શ્રી સરા સ્થા. જૈન સંઘ હ. દેશી પાનાચંદ સોમચંદ
સાણંદ ૧ શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હ. શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ
૩૦૧ ૨ અ. સૌ. ચંપાબેન હા. દેશી જીવરાજ લાલચંદ ૩ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ
૨૫૧ ૪ શાહ સાકરચંદ કાનજીભાઈ ૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સંઘવી લીંબડીવાળાના મરણાર્થે - હા, વાડીલાલ મેહનલાલ કોઠારી ૬ પારેખ નેમચંદ મોતીચંદ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે . હા. પારેખ ભીખાલાલ નેમચંદ
૨૫૧ ૭ સંઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા જયંતીલાલ નારણદાસ ૨૫૧ ૮ શાહ કસ્તુરચંદ હ. હરજીવનદાસ
૨૫૧ શેઠ મેહનલાલ માણેકચંદ ગાંધી ચુડાવાળા તરફથી તેમનાં ધર્મપત્ની મંછાબેન લલ્લુભાઈના સ્મરણાર્થે
૩૦૧. ૧૦ સંઘવી કાન્તીલાલ હરખચંદ
૩૦૧ ૧૧ શાહ ભીખાલાલ નાગરદાસ
૨૫૧ સાલબની
'
૧ દેશી ચુનીલાલ લચંદ
૨૫૦
સાદડી
૧ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પુનમીયા
૨૫૧
સાસવર્ડ
૧ ચંદનમલજી મુળાનાં ધર્મપત્ની અ.સૌ. રંગુબાઈ સુથા તરફથી
હા. અમરચંદજી મુથા
૨૫૧
For Private And Personal Use Only
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
હક
૨૫૧ ૨૫. ૨૫૧
સિંગાપુર ૧dશી વનેચંદ વછરાજ
સુરત ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ રતિલાલ લલુભાઈ ૨ શ્રી કલ્યાણચંદ માણેકચંદ હડાલાવાળા ૩ શ્રી હતી પણ છઠી સ્થા. જૈન સંઘ છે. બાજુલા રાહલ
સુરેન્દ્રનગર ૧ શેહ ચાંપશીભાઈ સુખલાલ ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદ 8 સ્વ. કેશવલાલ મુળજીભાઈનાં ધર્મપત્ની અમરતબાઈના સ્મરણાર્થે
- હા. ભાઈલાલ કેશવલાલ શાહ ૪ શાહ ન્યાલચંદ હરખચંદ ૫ શાહ વાડીલાલ હરખચંદ ૬ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ
૨૫૧
૨૫૧
સુવઈ
૨૫૧
૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાની જૈન મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા. જૈન સંઘ જ્ઞાન ભંડારને ભેટ ૨૫
સેવાલીયા ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હા. એજીનીયર સાહેબ અમૃતલાલ જેઠાલાલ
૨૫૧ સંજેલી ૧ શાહ લુણાજી ગુલાબચંદભાઈ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હૈ. શાહ પ્રેમચંદ દલીચંદ
સોજત ૧ અ, સી, ઈસાબેન, લાલચંદ મહેતા (ફતેહનગર સંઘને શેટ) પ.
હારીજ ૧ શાહ અમૂલખ મુળજીભાઈ હા. પ્રકાશચંદ્ર અમુલખભાઈ ૨ સ્વ. બેન ચંદ્રકાંતાના સ્મરણાર્થે હા. શાહ અમુલખ મુળજીભાઈ ૩૦૧
૨૫
૩૦૧
For Private And Personal Use Only
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
હાટીના માળીવા
૧-દોઢ ગેપાલજી મીઠાભાઈ
૧૬ શ્રીમતી માનદગૌરી ભગવાનદાસના સ્મરાય
હા. તેમનાં નાનાબેન અ. સૌ. મજુલાબેન ભગવાનદાસ
તા. ૧-૧-૧ર થી તા. ૧૫-૩-૬૩ સુધીનાં નવાં મેમ્બરા
આધ મુરબ્બીશ્રી
શ. ૫૦૦૧ શેઠ મહેતાબચંદ જૈન
મુરબ્બીશ્રી
ા ૧૦૦ શેઠ ત્રીભાવનદાસ જગજીવનદાસ , ૧૦૦૧ શેઠ મહેતાબચંદ ચારડીયા તથા વિજયાકુમારી બહેન
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
કાટ તા. ૧૫-૩-$Z
તા. ૧૫-૩-૬૩ સુધીના મેમ્બરાની સ ંખ્યા
૨૪
૩૦
આધ સુરીશ્રી મુરબ્બીશ્રી સહાયક મેમ્બરા
૧૩૨
૧૯૪
લાઇફ મેમ્બરશ
પા
બીજા કલાસના જુના મેમ્બરા
૧૧
સમિતી વતી સૌ દાતાઓના આભાર માનું છું.
For Private And Personal Use Only
va
૫૧
દિલ્હી
મુંબઈ
દિલ્હી
હી. સેવક,
સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ સી.
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
શ્રી અખિલ ભારત સ્વ. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતી
રાજકેટ.
શાસ્ત્રોની કી માહિતી.
ગયા સત્તરમા વાર્ષિક રિપોર્ટમાં બતાવેલ ૨૧ શાસ્ત્ર પ્રસિદ્ધ થયાં પછી નીચે મુજબ વધુ કામકાજ થયેલ છે.
૧. હાલમાં ભગવતી ભાગ બીજે, સમવાયંગ સૂત્ર તથા પ્રશ્ન વ્યાકરણ એમ
ત્રણ સૂત્રે પ્રસિદ્ધ થયાં છે. ૨. ભગવતી ભાગ ૩ જે બહાર પડવાની તૈયારીમાં છે. ૩. ભગવતી ભાગ ૪ થે તથા પ મ હાલમાં છપાય છે. ૪. જ્ઞાતા સુત્ર ભાગ ૧ , ૨ તથા જે છપાય છે. ૫. કુલ્લે લગભગ ૩૦ સૂત્રે પૂજ્ય ગુરુદેવે લખીને પૂરાં કરેલાં છે. તેમાનાં
છપાયા વગરનાં જે સૂત્રે બાકી છે તેનું અનુવાદનું તેમજ સશેષનનું કેટલુંક કામ ચાલુ છે. અને કેટલુંક બાકી છે.
૬. નિશીય સૂત્ર, સૂર્ય પન્નતી તથા ચંદ્ર પન્નતી સૂત્ર એ બાકી રહેલાં ત્રણ
સૂત્રે લખવાનું કામ અત્યારે ચાલે છે. આવા આગમ શાસ્ત્રોના મહદ્ કાર્યમાં જ્ઞાનદાનના શોખીને, દાનવીરે બનતી મદદ મેકલાવે તેમ વિનંતિ કરવામાં આવે છે.
For Private And Personal Use Only
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
સમિતિને મત કરવા તથા મેાર થવાના
નિયમ
૧. રૂા. ૫૦૦) પાંચ હજાર એક ભરનાર સંગ્રહસ્થ આદ્યમુરબ્બીશ્રી તરીકે
દાખલ થઈ શકે છે. તેમના નામથી એક સૂત્ર પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવે છે. તેમ જ તેઓશ્રીનું જીવનચરિત્ર અને ફેટે શાસ્ત્રમાં છપાય છે. તેમને બબે કેપી દરેક શાસ્ત્રની મળે છે.
૨. રૂા૧૦૦૧) એક હજાર એક ભરનાર વ્યક્તિ મુરી તરીકે ગણાય છે.
અત્યારે ફક્ત ૮૦ આવા મેમ્બર દાખલ કરવાને ગઈ કમીટીએ કરાવી કરેલ છે, પાછળથી મેમ્બરે દાખલ કરી શકાય તેમ નથી. રૂ. ૧૦૦૧) ભરનારને રૂ. ૧૨૦૦૧ ની કિંમત ઉપરના શાસ્ત્રો ભેટ મળે છે. માટે જેમને દાખલ થવું હોય તેમણે ઢીલ ન કરવી.
૩. ૨૫) વાળા તથા પy વાળા મેમ્બરે હવે લેવાનું બંધ છે
૪. દાખલ થયેલા મેમ્બરની ફીમાંથી, શાસ્ત્રો ભેજ આપતાં સમિતિને જે
નુકશાની વેઠવી પડે છે તે બધા પૂરી કરવા માટે મેરે પાસેથી તેમજ અન્ય વ્યક્તિ તરફથી પાંચ વર્ષ સુધી ભેટની રકમ મેળવવામાં આવે છે. જે રકમ ઓંછામાં ઓછી રૂ. ૨ની હેવી જોઈએ, અને તે રકમ પાંચ વર્ષ સુધી દર વર્ષે હસાથી મેકલી શકાય છે..
સાકરચંદ ભાયચંદ શેઠ
રાજકોટ તા. ૧૫-૩-૬૩
યશળતારો
મત્રી -
For Private And Personal Use Only
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रीवीतरागाय नमः जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-ति-विरचितया
अनगारधर्मामृतवर्षिण्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं श्री-ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम्
(द्वितीयो भागः) ॥ अथ शैलकाख्यं पञ्चमाध्ययनम् ॥ अभिहित कूर्मकाख्यं चतुर्थमध्ययनं तत्रागुप्तेन्द्रियस्य नरकादिप्राप्तिः गुप्तेन्द्रियस्य तु निर्वाणादि प्राप्तिर्भवतीत्युक्तम् । इह पश्चमाध्ययने तु-पूर्वमप्रतिसंलीनेन्द्रियोऽपि यः पश्चात् संलीनेन्द्रियो भवति स आराधको भवतीत्युच्यते, इत्येवं पूण सहास्य सम्बन्धः । जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं पृच्छति-'जइ णं भंते !' इ०
पाँचवाँ अध्ययन प्रारम्भ । कूर्मक (कच्छप ) नामका चतुर्थ अध्ययन कह दिया गया है। उस में अगुप्तेन्द्रियवाले साधु भाध्वी आदि के नरकादि की प्राप्ति तथा गुप्तेन्द्रियवाले साधु साध्वी आदि के लिये निर्वाण आदि की प्राप्ति होती है यह कहा गया है। अब इस पंचम अध्ययन में यह कहा जायगा की जो पहिले अप्रतिसंलीन इन्द्रियवाला ( अगुप्तइन्द्रिय ) होता है और बाद में फिर नही संलीनइन्द्रियवाला ( गुप्तइन्द्रियवाला ) बन जाता है तो वह आराधक होता है इस तरह पूर्व अध्ययन के साथ इसका संबन्ध है । जंबू स्वामी सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि
-पायभु अध्ययन-प्रारल.म (आय) नामे याथु मध्ययन पुरु 25 आयु छे, ते अध्यયનમાં અમેન્દ્રિયવાળા સાધુ સાધ્વી વગેરે ને નરક વગેરેની પ્રાપ્તિ તેમજ ગુપ્તેન્દ્રિય વાળા સાધુ સાધ્વીઓને નિર્વાણ વગેરેની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ વાત કહેવામાં આવી છે. પાંચમા અધ્યયન માં એ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે કે જે પહેલાં અપ્રતિ સંલીન ઈન્દ્રિયવાળો (અગુપ્તેન્દ્રિયો હોય છે, અને ત્યારબાદ તે સંલીન ઈન્દ્રિય વાળે (ગુતેન્દ્રિયવાળ) થઈ જાય છે ત્યારે તે આરાધક હોય છે, આ રીતે ચેથા અધ્યયનને સંબંધ છે. જંબૂ સ્વામી, सुधा स्वामीने प्रश्न ४२ छ-'जयाण भते ! त्यादि ।
For Private And Personal Use Only
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्रे मूलम्-जह णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं - उत्थस्स गायज्झयणस्स अयमहे पन्नत्ते, पंचमस्स णं भंते णायज्झयणस्स के अटे पण्णते ? ॥ सू० १॥
टीका-'जय गं' इत्यादि । यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण चतुर्थस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयम्-उक्तरूपः, अर्थः प्रज्ञप्तः, पञ्चमस्य खलु भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः इति । सर्व सुगमम् ॥१॥
श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनमाह
मूलम्--एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समयेणं बारवई नामं नयरी होत्था, पाईणपडीणायया उद्दीणदाहिणवित्थिन्ना नवजोयणवित्थिन्ना दुवालसजोयणायामा धणवइमइनिम्मिया धामीयर पवरपागारणाणामणिपंचवन्नकविसीसगसोहिया अलयापुरिसंकासा पमुइयपकीलिया पच्चक्खं देवलोयभूया ॥सू०२॥ ___टीका-'एवं खलु' इत्यादि । एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन
'जइणं भंते !' इत्यादि। टीकार्थ-(जहणं भंते ! ) हे भदंत ! यदि (समणेणं भगवया महा. वीरेणं) श्रमण भगवान महावीर ने ( चउत्थस्स णायज्मयणस्स अयमढे पन्नते) चतुर्थ ज्ञाताध्ययन का यह उक्त रूप अर्थे प्रज्ञप्त (प्ररूपित) किया है तो-(पंचमस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते) पंचम ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? “१” ।
एवं खलु जंबू !' इत्यादि। - टीकार्थ-(एवं खलु जंबू) हे जंबू ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार
A -(जइण' भते ।) 3 महन्त ! (समणेणं भगवया महावीरेणं) श्रममावान महावीरे ( चउत्थस्स णायज्झयणरस अयमढे पन्नसे) यथाज्ञाताध्ययन पूर्वरित म नि३पित यो छ, त्यारे (पंचमस्स णं भंते ! णोयज्झ यणस्स के अट्टे पण्णत्ते) पांयमा अध्ययननी । म मतान्या छ ? । “सू.१॥ .. एवं खलु जंबू, ? त्या ॥
साथ-(एव खलु जंयू !) यू ! तमा॥ प्रशने या प्रमाणे
For Private And Personal Use Only
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ द्वारापतीनगरिवर्णनम् समये 'वारवई' द्वारावतीनाम द्वारकाऽपरनाम्नी नगर्यासीत् , सा कीशी इत्याह-पाईणपडीणायया' प्राची प्रतीच्यायता प्राचीतः प्रतीच्यामायता पूर्वस्या दिशः समारभ्य पश्चिमायां दिशि दीर्घत्यर्थः । 'उदीणदाहिणवित्थिन्ना' उदगदक्षिणविस्तीर्णा उत्तरस्यां दिशः समारभ्य दक्षिणस्यां दिशि विस्तीर्णा, 'नवजोयणविस्थिन्ना ' नवयोजनविस्तोर्णा, 'दुवालसजोयणायामा' द्वादशयोजनायामा द्वादशयोजनदोर्घा, 'धणवइमइनिम्मिया' धनपतिमतिनिर्मिता धनपतिः कुबेरस्तस्य मत्या बुद्धया निर्मिता, 'चामीयर-पवर-पागार-णाणामणि-पंचवन - कवि - सीसग - सोहिया' चामीकरप्रवरमाकारनानामणिपञ्चवर्णकपिशीर्षक शोभिता,चामीकरस्य प्रवरः प्राकारस्तस्य यानि नानामणिपश्चवर्णकपिशीर्षकानि तैः शोभिता, सुवर्णमयप्रकृष्टप्राकारस्य यानि चन्द्रकान्तादिविविधमणिमयानि पञ्चवर्णानि कपिशीर्षकाणि ' कंगुरा' इति भाषाप्रसिद्धानि, तैः शोभिता 'अळ्यापुरिहै-(तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवईनामं नयरी होत्था ) उस समय
और उस काल में द्वारावती नामकी नगरी थी ( पाईण परीणायया) यह नगरी पूर्व दिशासे पश्चिम दिशा तक लंबी थी और ( उदीणदाहिण वित्थिना ) उत्तरदिशा से लेकर दक्षिण दिशा तक विस्तर्ण थी। (नवजोयणविस्थिन्ना) नौ योजन का इसका विस्तार था (दुवालसजोयणायामा) १२ बारह योजन की यह लंबी थी । (धणवइमइ निम्मिया) धनपति- कुबेर ने इसे अपनी बुद्धि से बनाया था ( चामीयर पवर पागारणाणामणि पंचवन्न कविसीसग सोहिया) इसका जो प्राकार (दिवार) था वह सुवर्ण से निर्मित हुआ था। तथा इसके जो कंगूरे थे वे पंचवर्णवाले नाना मणियों से बनाये गये थे । अतः प्राकार और उसके कंगूरों से यह नगरी बड़ी सुहावनी लगती थी । (अलपापुरी संकासा) छ, ( तेण काले ण तेण समएणं वारवइ नाम नयरी होत्था) ते आणे अन ते समये वापती नामे नारी उती. (पाईण परीणायया ) मा नगरी पूर्वथा भासन पश्चिम दिशा सुधा भी मन (उदोण दाहिण विधिन्ना) उत्तर दिशाथी भासन क्षि हिशा सुधी पडी उती. ( नव जोयणवित्थिन्ना ) नव योन संधी नगरीमा विस्तार हता. ( दुवालसजोयणायामा ) मा२ योन समीत Giमी ती. (धणवइमइनिम्मिया) धनपति-२ मा नगरी ने पोतानी मुद्धिथी मनावी ती ( चामीयरपवरपागार - णोणामणि - पचवन्नकविसीसगसोहिया ) ते શહેરને કેટ (પ્રાકાર) સોનાથી બનાવવામાં આવેલ હતું. તેના કાંગરાઓ પાંચ રંગના અનેક મણિઓ વડે બનાવવામાં આવ્યા હતા. કોટ અને કાંગ शमाथी ते नगरीमती ती. (अलयापुरीसंकासा) पुरी (अमेरनगरी)
For Private And Personal Use Only
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्र संकासा' अलकापुरीसंकाशा = कुबेरनगरीमदृशी ‘पमुइयपक्कीलिया' प्रमुदितप्रक्रीडिता 'पमुइय' प्रमुदिताः प्रमोदयुक्ताः, ' पकीलिया' प्रक्रीडिताः विविधक्रीडनपराः लोका यत्र सा, पच्चक्खं देवलोयभूया' प्रत्यक्षं देवलोकभूता प्रत्यक्षीभूतदेवलोकवत् प्रतीयमानेत्यर्थः ॥ २ ॥ ___मूलम्-तीसे णं बारवईए नयराए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसाभाए रेवतगे नाम पव्वए होत्था, तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे णाणाविहगुच्छगुम्मलयावल्लिपरिगए हंसमिगमयूरकोंचसारसचकवायमयणसालकोइलकुलोववेए अणेगतडकडगवियरउज्झरयपवायपन्भारसिहरपउरे अच्छरगणदेवसंघचारणविज्जाहरमिहुसंविचिन्ने निच्छच्चणए दसारवरवीरतेल्लोकबलवगाणं, सोमे सुभगे पियदसणे सुरूवे पासाईए ॥ सू०३॥ .
टीका-'तीसे णं' इत्यादि । तस्याः खलु द्वारावत्या नगर्या बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे 'रेवतगे' वैतको नाम 'पव्वए' पर्वतः ‘ होत्था ' आसीत् , स अलकापुरी (कुबेर की नगरी जैसी सुन्दर होती है ठीक वैसी ही यह भी सुन्दर थी (पमुइयपक्कीलिया) इस में निवास करनेवाले जन सदा हर्षित रहते थे और विविध प्रकार की क्रीड़ाओ में तत्पर रहते थे (पच्यक्खं देवलोयभूया) इसलिये प्रत्यक्ष में यह नगरी देवलोक के समान प्रतीत होती थी। सूत्र “२"
'तीसेणं बारवईए' इत्यादि टीकार्थ-(तीसेणं बारवईए नयरीए बहिया) उस द्वारावती नगरी के बाहिर ( उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए रेवतगे नाम पन्चए होत्था ) उत्तर
वा २ डाय छ तेवीस ते नगरी ५५ सु४२ ती. (पमुइयपक्कीलिया) તેમાં રહેનારા નાગરિકે હમેશાં પ્રસન્ન રહેતા હતા, અને જાત જાતની રમત (alsil) ०५ed रडता उता. (पच्चक्खं देवलोयभूया ) तथा ! नाश प्रत्यक्ष सवा साती ती. ॥ सूत्र "२" ॥
'तीसे णं वारवईए' इत्यादि ॥
Aथ-(तीसे ण बारवईए नयरीए बहिया) वापती नगरी मार ( उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए रेवतगनामपव्वए होत्था ) उत्तर पूर्व हिशमा भेटले.
For Private And Personal Use Only
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ रैवतकपर्वतवर्णनम् कीश इत्याह-तुङ्गः अत्युन्नतः, 'गगणतलमणुलिहंतसिहरे ' गगनतलमनलिह. च्छिखरः आकाशप्रदेशमनुस्पृशति शृङ्गं यस्येत्यर्थः ‘णाणाविहगुच्छगुम्मलयावल्लिपरिगए' नानाविधगुच्छगुल्मलतावल्लोपरिगत: नानाविधागुच्छादयः परिगताः सर्वतः समुद्भूता यत्र सः, गुच्छगुल्मलतावल्लीशब्दाः पूर्वं व्याख्याताः, ' हंसमिगमयूरकोंचसारसचक्कवायमयणसालकोइलकुलोववेए हंसमृगमयूरक्रोश्चसारसचक्रवाकमदनसालकोकिलकुलोपपेतः हंसादि-कोपिलान्तानां कुलैः वृन्दैः उपपेतः =युक्तः । अत्र-मदनशाला=सारिकाविशेषः, अन्ये प्रसिद्धाः । 'अणेगतडकडगविवरउज्झरयपवायपन्भारसिहरपउरे ' अनेकतटकटक विवरोज्झरकप्रपातमाग्भारशिखरप्रचुरः, अने के तटाः कटकामेखलाश्च यत्र स तथा, विवराणि = कन्दराश्च, उज्झरकाः निर्झराः पर्वतात् पतनशीला जलप्रवाहाच, प्रपाता:तटरहितनिराधारस्थानानि च, अथवा प्रपाता=गर्ताश्च, प्रारभाराः ईपदवनताः पर्वतभागाच, शिपौरस्त्य दिग्विभाग में-ईशान कोण में-रैवतक नाम का एक पर्वत था (तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे ) यह बहुत ऊँचा था। इस की चोटी आकाश तल को छूती थी (णाणविहगुच्छगुम्मलयावल्लिपरिगए ) नाना प्रकार के गुच्छों से, गुल्मों से. लताओं से और बल्लियों से यह सर्व प्रकार से युक्त था। इन गुच्छादि शब्दो का अर्थ पहिले लिखा जा चुका है। ( हंसमिगमयूरकोंचसारस चक्कवायमयणसालकोइल्ल कुलोववेए ) हम, मृग, मयूर, कोच, सारस, चक्रवाक सारिका-मेना
और कोयल इन के समूहों से यह उपेत -युक्त था। (अणेग तडक डगविवरउज्झरयपवायपन्भारसिहरपउरे) अनेक तटों से अनेक कटकों ( मेखला ) से, अनेक कंदराओं से, अनेक उज्झरको से, निर्झरनों से-पर्वतों से गिरते हुए जल प्रवाहों से, अनेक प्रपोतों से-तटरहित निराधारस्थानों से अथवा गर्तों से कुछ कुछ झुके हुए अनेक पर्वत
3 शान मां रैवत नामे पत तो. ( तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे) तर यो त. तना शिम। माशने २५शता उता. (णाणाविहगुच्छ गुम्मलयावल्लिपरिगए ) अने: onतना शुरछी, शुभी, ता. मने पली! થી તે ઢંકાએલે હતો. ગુચ્છ વગેરે શબ્દોના અર્થો પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં मा०यां छे. (हंसभिगमयूरकोंचसारसचक्कवायमयणसालकोइल्लकुलोववेए) स, હરણા, મોર, ક્રોંચ, સારસ, ચકવાક સેના અને કેલેના સમૂહથી તે યુક્ત हतो. ( अणेगतडकडगविवरउज्झरयपवायपब्भारसिहरपउरे) मने तो मेमसा
। (४८) भने ४४२॥ी, भने १२४।-(७२।।) पत। ५२यी નીચે વહેતા પાણીના પ્રવાહો, અનેક પ્રપાતે-તટ વગરના નિરાધાર સ્થાને
For Private And Personal Use Only
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पाताधर्मकथासूत्र खराणि-शृङ्गाणि पर्वतोपरितनप्रदेशाश्व, प्रचुराणि-अधिकानि यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः । ' अच्छर-गण-देव संघ-चारण-विज्जाहर मिहुण-संविचिन्ने' अप्सरोगण-देवसंघ-चारण-विद्याधरमिथुन-संविचीर्णः-अप्सरसां गणाच, देवसं. घाश्च, चारणाः गगनगमनलब्धिमन्तो मुनिविशेषाः, विद्याधराणां मिथुनानि च तैः संविचीर्णः आसे वितः, 'निच्चच्छणए दसारवरवीरपुरिसतेलोकबलबगाणं' नित्य क्षणकः दशाहवरवीरपुरुषत्रैलोक्यवलवतां, दशार्हाः समुद्रविजयादयः दश, तेषु मध्ये वरास्त एव वीरा धीरपुरुषाः ते चामी-रैलोक्यादपि बलवन्तः, अतुलबलनेमिनाथ युक्तत्वात् तेषां - नित्यक्षणका नित्योत्सवस्थानम् , तेषां सर्वे उत्सवा स्तत्र भवन्तीति भावः । दशदशार्हाणां नामानि यथा
"समुद्दविजयो अक्खोभो थिमिओ सागरी हिमवं ।
अयलो धरणो पूरणो अभिचंदो वसुदेवोत्ति " ॥१॥ इति ॥ भागों से तथा अनेक शिखरों से यह प्रचुर था अर्थात् ये तट, कटक आदि इस में अधिक थे। (अच्छरगणदेवसंघचारणविज्जाहरमिहुसंविचिन्ने ) अप्सराओं के गणों से, देवसंघों से गगन में गमन करने की लब्धि युक्त मुनि विशेषों से, और विद्याधरों के मिथुनों से यह सदा सेवित रहता था । (निच्चचच्छणए दसारवरवीरपुरिसते लोकबलवगाणं ) समुद्र विजयादिक दश दशाों के बीच में उत्तम धीरवीर पुरुषों का जो की अतुल बलधारी नेमिनाथ से युक्त होने के कारण तीन लोक से भी बलवान थे यह नित्योत्सव का स्थान था। उन के समस्त उत्सव यहीं होते रहते थे। दश दशा) के नाम इस प्रकार हैं- १, समुद्र विजय २, अक्षोभ ३, स्तिमित ४, सागर અથવા ગર્તે થેડા આગળના ભાગથી નમતા અનેક પર્વત ભાગે તેમજ ઘણાં શિખરોથી તે પ્રચુરરૂપથી યુક્ત હતા. એટલે કે તટ, કટક વગેરે તે પર્વતમાં ५०४ प्रभामा उता. ( अच्छरगण देवसंघचारणविजाहरमिहणसंविचिन्ने ) अस
એના ગણેથી, દેવસંઘેથી ગગન માગે ગમન કરતા મુનિ વિશેષેથી, भने विद्याधना युरोथी ते ५ स! सेवित २३ ता. ( निच्चचच्छणए दसारवरवीरपुरिसतेल्लोकबलवगाण ) समुद्र विभय पोरे ४० शामा ઉત્તમ ધીર વીર પુરુષેન-કે જેઓ અતુલ બળશાળી નેમિનાથથી યુક્ત હોવાને કારણે ત્રણે લોકથી બળવાન હતા–આ નિત્યોત્સવ માટેનું સ્થાન હતું તેમના બધા ઉત્સવો અહીં જ થતા હતા દશ દશાહના નામે આ પ્રમાણે છેસમુદ્રવિજ્ય, ૨ અક્ષોભ ૩ તિમિત, ૪ સાગર, ૫ હિમવાન, ૬ અચલ,
For Private And Personal Use Only
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका १० ५ नंदनवनोचानवर्णनम् - पुनरसौं पर्वतः ? कीरशः १ इत्याह-' सोम्मे ' सौम्या मनोहरः, सुभगः= भानन्दजऽकः प्रियदर्शनः दृष्टिसुखदः, मुरूपः शोभनाकृतिकः, प्रासादोयःअत्र-प्रासादीय इत्यनन्तरं दर्शनीयः, अभिरूपः, प्रतिरूप इति त्रयाणां पदानां संग्रहः मासादीयः दर्शकजनमनोमोदजनकः, दर्शनीयः नयनानन्दजनकत्वेन पुनः पुनः प्रेक्षणीयः अभिरूपा-मुन्दराकृतिकः । यद्वा-अभि-प्रतिक्षणं नवं नवमिवरूपं यस्य सोऽभिरूपः । प्रतिरूपः-प्रतिविशिष्टम् असाधारणं रूपं यस्य स प्रतिरूपः, उत्कृष्टरूपवानित्यर्थः ॥ सू० ३॥
मूलम्-तस्स णं रेवयगस्स अदूरसामंते एत्थ णं नंदणवणे नामं उजाणे होत्था, सम्बोउयपुप्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणवगप्पगासे पासाईए ४, तस्स णं उजाणस्स बहुमझदेसभाए सुरप्पिए नामं जक्खाययणे होत्था दिवे वन्नओ ॥ सू०४ ॥ ५, हिमवान ६ अचल, ७ धरण, ८ पूरण ९, अभिचंद, १० वसुदेव ! (सोम्मे ) यह पर्वत बड़ा मनोहर था (सुभगे, पियदंसणे, सुरूवे, पासाईए) सुभग था-आनन्दजनक था, प्रिय दर्शन था दृष्टि को सुखप्रद था, सुरूप था- शोभन आकृति से संपन था, प्रासादीय था, दर्शनीय था, अभिरूप था प्रतिरूप था । दर्शकजन के मन को मोदित करनेवाला होने से प्रासादीय, नयनों को आनन्दजनक होने से दर्शनीय, सुन्दर आकृतिवाला होने से अभिरूप अथवा इसको रूप हर एक क्षण में नवीन नवीन जैसा प्रतीत होता था इसलिये अभिरूप और असाधारणरूप संपन्न होने के कारण प्रतिरूप था। सूत्र "३-"
७ धा२६, ८ ५२९, अभियंह, १० पसुष, ( सोम्मे ) मा पर्वत मत्यात २भाय sal. ( सुभगे, पियिदसणे, सुरूवे, पासाइए ) सुना हो, પ્રિયદર્શી હતે. એટલે કે આંખને ગમે એ હેતે સુરૂપ હતું, પ્રાસાદીય હત, દર્શનીય હતે અભિરૂપ હતા, પ્રતિરૂપ હતો. જેનારાઓના મનને પ્રસ ન કરનાર હોવાથી પ્રાસાદીય, આંખને આનન્દ આપનાર હોવાથી દર્શનીય, સુંદર આકારવાળો હેવાથી અભિરૂપ અથવા તે તેનું રૂપ દરેક ક્ષણે નવું નવું લાગતું હતું તેથી તે અભિરૂપ હતું, અસાધારણ રૂપ સંપન્ન હોવાને કારણે તે પ્રતિ રૂપ હતું. એ સૂત્ર ૩
For Private And Personal Use Only
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
জানাখনা ___ टीका-' तस्स थे ' इत्यादि । तस्य खलु रैवतकस्य अदूरसामंते अत्र खलु नन्दनवनं नामोद्यानमासीत् तत् कीदृशमित्याह-'सयोउयपुष्फफलसमिद्धे' सर्वत् कपुष्पफलसमृद्धम् सर्वेषाम् ऋतूनां पुष्पैः फलैश्च समृद्धं = समन्वितम् , ' रम्मे' रम्यं-रमणीयं नंदनवनप्रकाशं' नन्दनवनतुल्यम् , प्रासादीयम् ४, तस्य खलूपानस्य — बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे 'सुरप्पिए नामं' सुरप्रियं नाम, 'जक्खाययणे' यक्षायतनम् ' होत्था' आसीत् तत् कीदृशमित्याह-'दिवे' दिव्यं रम्यं, वर्णका वर्णनग्रन्थोऽन्यत्राभिहितः। अन्यत् सुगमम् ।। सू०४ ॥ ... मूलम्-तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे
' तस्मणं रेवयगस्स'-इत्यादि। टीकार्थ-(तस्म णं रेवयगस्म) उस रैवतक पर्वतके (अदूरसामंते) न बहुत दूर और न पास किन्तु उचित स्थान पर ( एस्थणं नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था ) यहाँ एक नंदन वन नाम का उद्यान था ( सव्वो उय पुप्फफलसमिद्धे ) यह समस्त ऋतुओं संबन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध रहता था। ( रम्मे गंदणवणप्पगासे ) नंदनवन के जैसा था। (पासाइए ४) दर्शक जन के मन को प्रमोदित करने वाला था। सुभग प्रियदर्शन आदि और भी विशेषण इसमें लगा लेना चाहिये यही बात " पासाईए " के साथ रहे हुए यह ४ पद सूचित करता है । ( तस्स गं उजाणस्स बहुमज्झदेसभाए सुरप्पिए नामं जक्खाययणे होत्था दिव्वे वनओ) उस उद्यान के ठीक बीचो बीच के स्थान में सुरप्रिय नाम का यक्षायतन था। यह दिव्य था। इसका और वर्णन दूसरी जगह किया हुआ है। सूत्र '४" (तस्सण रेवयगस्स ) त्याहि ।
-( तस्स ण रेवयगस्स ) रैवत थी ( अदूर सामंते) सत्यत इ२ ५५५ नहि तभी अत्यंत न ५ नउवाय तम ( एत्थणं नंदणवणे नाम उज्जा होत्था ) त्यां ननवन' नामे से धान तु; (सव्वोउय पुष्फफल समिद्धे) ते मधी ऋतुमाना थे। मन माथी समृद्ध (रम्मे गंदणवणप्पगासे) नवनवन तु. ( पासाइए ) शीना भनने डपित ४२नार
तु. (पासाइए ४) ५४नी मा यार ना मां31 भूस्यो छे ते मेम सूयवे છે કે સુભગ પ્રિયદર્શન વગેરે બીજા પણ વિશેષ અહીં સમજવા જોઈએ. (तस्स ण उज्जाणस्स बहुमज्झदे सभाए सुरप्पिए नामं जक्खाययण होत्था दिव्वे અનો) તે ઉદ્યાનની બરાબર વચ્ચે સુરપ્રિય નામે યક્ષનું આયતન હતું. તે દિવ્ય तु, तेनुं पान अन्यत्र ४२वामां आव्युहै. ॥ सू."४" ॥
For Private And Personal Use Only
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० ५ रुष्णवासुदेववर्णनम् राया परिवसइ, से णं तत्थ समुहविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं रायसहस्साणं, पज्जुन्नपामोक्खाणं अध्धुटाणं कुमारकोडणिं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुदंतसा. हस्सोणं, वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए वीरसाहस्सणिं, महासेनपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीणं, रुप्पिणीपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीणं,रुप्पिणीपामोक्खाणं बत्तीसाए महिलासाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहणिं, अन्नेसिं च बहूणं इसरतलवर जाव सत्थवाहपभिईणं वेय गिरिसायरपेरंतस्स दाहिणड्डभरहस्स य बारवईए नयरीए आहेवच्चं जाव पालेमाणे विहरइ ॥सू--५॥
टीका-' तत्थ णं' इत्यादि । तत्र तस्यां खलु द्वाराबत्यां नगयों कण्हे नाम ' कृष्णो नाम वासुदेवः राजा त्रिखण्डाधिपतिः परिवसति । स खलु तत्र 'समुद्दविजयपामोक्खाणं ' समुद्रविजयप्रमुखानां दशानां 'दसाराणं ' दशाहाणां बलदेवप्रमुखानां 'पंचण्ह' पश्चानां महावीराणाम्। उग्रसेनप्रमुखानां षोडशानां
'तत्थ णं वारवईए नयरीए' इत्यादि टीकार्थ-(तत्थ गं वारवईए नयरीए) उस द्वारावती नगरी में (कण्हे नाम वासुदेवे राया परिवसइ) कृष्ण वासुदेव नामके तीन खंड के अधिपति राजा रहते थे ( सेणं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसोराणं) वे वहां समुद्र विजय आदि दश दशाहों का (बलदेव पामोक्खाणं
' तत्थणं वारवईए नयरीए ' इत्यादि ।
A1 ( तत्थण वारवईए नयरीए) ते बाराती नगरीमा (कण्हे नाम बासुदेवे राया परिवसइ पृष्य पासुन नामे त्रये उना अधिपति २ion रखेता sal. (से ण तत्थ समुदविजयपामोक्खाणं दसह साराण') त्यां समुद्र विय कोरे शानि। ( बलदेवपामोक्खाण पंचण्ह महावीराण) म.
शा २
For Private And Personal Use Only
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०
शांताधर्मकथाव
1
राजसहस्राणां = षोड्शसहस्त्रप्रमितानां राज्ञाम् । मधुम्नममुखानाम् अर्धचतुर्थानां कुमारकोटीनां = सार्वत्रिकोटिसंख्यकानां यादवकुमाराणाम् । शाम्बप्रमुखानां षष्ठया दुर्दान्तसाहस्रीणां पष्टिसहस्रसंख्यकानां शाम्बादीनां दुर्दान्तानाम् । वीरसेन प्रमुखानामेकविंशत्या वीरसाहस्रीणां = एकविंशतिसहस्रप्रमाणानां वीरसेनादीनां वीराणाम् । महासेनप्रमुखानां षट्पञ्चाशतो बलवत् साहस्रीणां = षट्पश्चाशत् सहस्रममितानां महासेनादीनां बलवताम् । रुक्मिणीममुखानां द्वात्रिंशतो महिला साहस्रीणां = रुक्मिण्यादीनां द्वात्रिंशत्सहस्रम मितानां महिलानाम्। अनङ्गसेनाप्रमुखानामनेकासां गणिकासाहस्रीणाम् = अनङ्ग सेनादीनामनेक सहस्र संख्या समितानां गणिकानाम् अन्येषां च बहूनां राजेश्वरत लवर माडम्बिककौटुम्बिक श्रेष्ठि सेनापतीनां, यावत् सार्थवाहमभृतीनां वैताढ्य गिरिसागरपर्यन्तस्य च दक्षिणार्धभरतस्य च, द्वारावत्याः द्वारकायाः नगर्याश्च, आधिपत्यं यावत् - अत्र यावच्छन्दापंच महावीराणं) बलदेव प्रमुख पांच महावीरोंका उग्रसेन प्रमुख १६ सोलह हजार राजाओं का प्रद्युम्न प्रमुख ३||, साढे तीन करोड़ यादव कुमारों का ( संघ पामोक्खाणं सट्ठीए दुद्दत साहस्सीणं) ६० साठ हजार दुर्दान्त शाम्ब आदिकों का ( वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसोए वीरसाहस्सी) २१ इक्कीस हजार वीरसेन प्रमुख वीरोंका (महासेना पामोक्खाणं छप्पनाए बलवग साहस्सीणं) ५६ छप्पन हजार बलिष्ठ महासेन आदिकों का (रूप्पिणी पामोक्खाणं बत्तीसाए महिला साहस्सीणं) ३२ बत्तीस हजार रूक्मिणी प्रमुख महिलाओं का ( अणंगसेणापामोक्खाणं अणगाणं गणिया साहस्सीणं ) अनंगसेना प्रमुख अनेक हजार गणिकाओं का निवास था । ( अन्नेसिंच बहूणं इसर तलवर जाव सत्थवाहपभिईणंबेयडु गिरिसायरपेरंतस्स य दाहिणड्डूभरहस् य बारवइए नयरीए દેવ પ્રમુખ પાંચ મહાવીરાના, ઉગ્રસેન પ્રમુખ સોળ હજાર રાજાઓને, પ્રધુમ્ન પ્રમુખ સાડા ત્રણ કરોડ यादव कुमारीनो ( संबपामोक्खाण' सट्ठीए दुइ तसाहस्सीण ) सा इन्भर दुर्दान्तसांग वगेरे नो ( वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए वीरसाहस्तीर्ण) मेडवीश हुन्नर वीरसेन प्रभु वीरेनो (महासेन पामोक्वाणं छप्पन्नाए बलवग साइरसीणं) छप्पन डेन्जर जजवान महासेन वगेरेना ( रुपिणी पामोक्खाणं बत्तीसार महिला साहस्त्रीणं) मंत्रीस डेन्जर रुम्भणी प्रमुख भहिसागोनो ( अन 'गसेणापामोरवाण' अणेगाणं गणियासहास्सीणं ) अने अत ंगसेना प्रमुख हुन्नरे। गणियोनो निवास डते. ( अन्नेसिंच, बहूणं इसर तलवर जाव सत्यवाइपभिईर्ण वेयगिरिखायरपेर तस्स य दाहिणड्डे भरहस् य बारवइए
For Private And Personal Use Only
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रवर्णनम् दयं पाठोऽनुसन्धेय:-' पोरेवच्चं ' पालयन् विहरति = आस्तेस्म । पौरपत्यं पुरवासिनामग्रेसरत्वं, 'सामित्तं' स्वामित्वं, ‘भत्तित्तं ' भर्तृत्वं, महत्तरगत्तं' महत्तरकत्वं, 'आणाईसरसेणावच्चं' आज्ञेश्वर सैनापत्यं 'करेमाणे' कुर्वन् इति ॥५॥
मूलम्-तत्थ णं बारवईए नयरीए थावच्चा णामं गाहावइणी परिवसइ, अड्डा जाव अपरिभूया, तीसेणं थावच्चाए गाहावइए पुत्ते थावच्चापुत्ते णामं सत्थवाहदारए होत्था सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे, तएणं सा थावच्चागाहावइणी तं दारयं सातिरेगअट्ठवासजाययं जाणित्ता सोहमंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेइ, जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इन्भकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणिं गेलावेइ बत्तीसओ दाओ जाव बत्तीसाए इब्भकुलबालियाहिं सद्धिं विपुले सद्दफरिसरसरूववन्ने गंधे जाव भुंजमाणे विहरइ ॥ ६॥ ..
टीका-'तत्थणं इत्यादि । तत्र-तस्यां खलु द्वारावत्यां नगयों 'थापच्चाआहेवच्चं जाव पालेमाणे विहरइ ) अन्य और भी अनेक राजेश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठीसेनापतियों का यावत् सार्थवाह आदिकों का, वैताढय गिरिएवं सागर पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत का तथा द्वारका नगरी का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वमित्व, भर्तृत्व महत्तरकत्व, आज्ञेश्वर सेनापत्य करते हुए रहते थे अर्थात् द्वारका नगरीमें कृष्ण वासुदेव राज्य करते थे। सूत्र "५"
__'तत्थ वारवईए नयरीए' इत्यादि । टीका-(तत्थर्ण बारवईए नयरीए ) उस द्वारका नगरी में (थावचा. नयरीए आहेवच्च जाव पालेमाणं विहरइ ) भने भीn yey | रामेश्वरे, તલવર, માંડલિકે, કૌટુંબિકે શ્રેષ્ઠી સેનાપતિઓ સાર્થવાહ વગેરે ઉપર વૈતાઢય ગિરિ અને સમુદ્ર સુધીના દક્ષિણ ભારતનું, નગરીનું આધિપત્ય પૌરપત્ય, ભત્વ મહત્તરકત્વ આશ્વર સેનાપતિત્વ કરતા રહેતા હતા. એટલેકે દ્વારકા નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવ રાજ્ય કરતા હતા. એ સૂત્ર ૫.
(तत्थणं वारवईए नयरीए इत्यादि। At-(तत्थण बारवईए नयरीए) ले बा नगीमा (थापच्चा गाम गाहा
For Private And Personal Use Only
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाजस्त्र णाम ' स्थापत्या नाम ' गाहावइणी' गाथापत्नी परिवसति । सा कीदृशीत्याहआढया-धनधान्यादि परिपूर्णा, यावत् अपरिभूताः अन्यैः पराभवितुमशक्या, तस्याः खलु स्थापत्यायाः गाथापत्न्याः पुत्रः 'थावच्चापुत्ते णाम ' स्थापत्यापुत्रो नाम सार्थवाहदारकोऽभूत् । स कीदृश इत्याह-सुकुमारपाणिपादः यावत् सुरूपः अत्र यावच्छन्दकरणादयंपाठोऽनुसन्धेय:--' अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरे, लक्खण बंजणगुणोववेए, माणुम्माणपमाणपडि पुण्ण मुजायसव्यंगसुंदरंगे, ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे इति एतानि पदानि मागेत्र व्याख्यातानि ततः खलु सा स्थापत्या गाथापत्नी तं दारकं 'सातिरेगअट्ठवास जाययं । सातिरेकाष्टवर्षणाम गाहावहणी परिवसइ) स्थापत्य नामकी गाथा पत्नी रहती थी। ( अडाजाव अपरिभूया ) यह धन धान्य आदि से परिपूर्ण यावत् अपरिभूत अन्य व्यक्तियों द्वारा परीभषित अशक्य थी। (तीसेणं थाव. चाए गाहावइणीए पुत्ते थावच्चा पुत्ते णामं सत्यवाहदारए होत्था ) उस स्थापत्य गाथापत्नी का पुत्र था जिप्त का नाम स्थापत्य पुत्र था। वह सार्थवाहदारक कहलाता था । (सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे) इसके हाथपैर सुकुमार थे । यावत् यह अच्छे रूपाले थे। यहां यावत् शब्द से " अहीणपडिपुण्णपंचिदियसरीरे, लक्खणवंजणगुणोववेए, माणुम्माणपमाण पडिपुण्णसुजायसव्यंग सुंदरंगे ससि सोमाकारे कंते, पियदसणे "इस पाठ का संग्रह हुआ है । इनपदों का अर्थ इहिले कहा जा चुका है ( तएणं साधावच्चा गाहायहगी तं दारयं सातिरेग अट्ठः चासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहिकरणदिवसगक्खत्तनुहुतंसि)
पदणी परिवसइ) स्थापत्य नामे मे माथापत्नी २७ती ती. (अजाव अपरिभूया) તે ધનધાન્ય વગેરેથી પરિપૂર્ણ તેમજ બીજી કઈ વ્યક્તિથી પરાભૂત ન થાય એવી
ती. (तीसेण थावच्चाए गाहावणोए पुत थावच्चापुत्ते णाम सत्थवाहदारए होत्था) સ્થાપત્ય ગાથાપત્નીને એક પુત્ર હતું તેનું નામ સ્થાપત્ય પુત્ર હતું. તે સાર્થવાહ ४.२४ नाम ५५ ५ये। डतो. (सुकुलमाल गणिगए जाा सुरूवे) तेना ७.५ ५५ सुमारे ७ ते ३यामो हतो, मी (यावत् ) 5थी (अहिणपडिपुण्ण) पंचि. दिय सरीरे लक्खणवंजणगुणोववेए माणुम्माणपमाण पडिपुण्णसुजायसव्वग सुदरंगे ससितोनाकारे ते. रेयस ) मा ५.51 स य छे. म! सान 4 . पडसा २५४ ४२वामां मान्य छे. (तएणं सा थावच्चागाहावणो त दारय साति. रेग अवासजायय जाणिसा मोहणंसि तिहिकरणदिवसणखत्तमुहुरासि ) स्थापत्य
For Private And Personal Use Only
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधर्मामृतवर्षिण टीका अं० ५ प्रभु समवसरणम् जातकं, किंचिदधिकाण्टवर्षजातं ज्ञात्वा शोभने तिथिकरणदिवसनक्षत्रमुहूर्ते ' कलायरियस्स ' कलाचार्यस्य समीपे उपनयति यावत् सर्वाः कलाः शिक्षयति मेघकुमारवद् द्वासप्ततिकला अनेन शिक्षिता इत्याशयः । भोगसमर्थ यौवनवयः समागमेन विषयभोगयोग्यताऽपन्नं ज्ञात्वा द्वात्रिंशता 'इन्भकुल बालियाणं ' इभ्य कुलबालिकानाम् महाधनाढ्यसार्थवाहानां द्वात्रिंशत्संख्यकन्यानाम् एकदिवसेन एकस्मिन्नेव दिने पाणिग्राहयति पाणिग्रहणं कारयति । द्वात्रिंशद्दायः द्वात्रिंशद् हिर
कोट्यः द्वात्रिंशत् सुवर्णकोटचः इत्यादिरूपो मेघकुमारवद्दायोऽवगन्तव्यः । यावत् तदनन्तरं स्थापत्यापुत्रः द्वात्रिंशता इभ्यकुलबालिकाभिः सार्धं विपुलान् शब्दस्पर्श रसरूपवर्णगन्धान् विषयान् यावद् भुञ्जानः अनुभवन् विहरति = आस्तेस्म ॥ ०६ ॥
इस के उस स्थापत्य गोधा पत्नीने उस अपने पुत्र को आठवर्ष से कुछ अधिक जब जाना तब शुभ तिथि करण दिवस नक्षत्र एवं मुहूर्त्त में ( कलायरियरस) कलाचार्य के पास ( उवणे३) भेजदिया (जाव भोग समत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इन्भकुलबालियाणं एग दिवसेणं पाणिं गेहावेह) यावत् मेघकुमार की तरह उस स्थापत्य पुत्र ने ७२ बहत्तर कलाओं को सीखलिया । यौवनवय के समागमन से विषय भोग की योग्यता विशिष्टइसे जानकर बाद में उस स्थापत्यागाथापत्नीने उसका वैवाहित संस्कार एकही दिनमें ३२ महाघनाढ्य सार्थवाहों की कन्याओं के साथ करवा दिया। (बत्तीसं ओदाओ जाव बत्तीसाए इम्भकुलपालियाहि सद्धिं विपुले सफरिसरूवगंधे जाव भुंजमाणे विहरइ) ३२बत्तीस हिरण्य कोटि ३२ बत्तीस सुवर्ण कोटि इत्यादि रूपदहेज इसे मेघकुमार की तरह मिला। इसके बाद स्थापत्य पुत्र ने ३२ उन इभ्यकुल बालिकाओं के साथ
ગાથા પત્નીએ પેાતાના પુત્રને આઠવર્ષ થી ચેાડા માટે થયેલા જાણીને શુભ तिथि, पुरणु, द्विवस, नक्षत्र भने मुडूतंभां ( कलायरियस्स) सायार्यनी पासे (उत्रणेइ ) भोडल्या. ( जाब भोगसमत्थ जाणित्ता वसीसाए इब्भकुलबालियाणं एगदिवसेण पाणि गेव्हा वेइ ) मेघकुमारनी प्रेम ते स्थापत्य पुत्रे પશુ મેત્તેર કલાઓ શીખીલીધી. જયારે તે યુવાવસ્થા સંપન્ન થઈને વિષયાપભાગને લાયક થયા ત્યારે ગાથાપત્નીએ એકજ વિસમાં તેનું લગ્ન બત્રીસ भडाघनाढ्य सार्थवाहोनी अन्यामोनी साथै उरावडाव्यं ( बत्तीस ओदाओ जाव antare souकुलवालियाहि सर्दि त्रिपुले सफरिस गंधे जाव भुंज माणे बिहरह) मत्रीस हिरएस टि मंत्री सुर्य अविगेरे ढडे भेत्र भारनी જેમજ તેને પણ મળી. ત્યાર પછી સ્થાપત્ય પુત્ર બત્રીસ ઈલ્મકુળ બળાઓની
For Private And Personal Use Only
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथासूत्र मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमी सो चेव वण्णओ दसघणुस्सेहे नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासे अट्ठारसहि समणलाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे चत्तालीसाए अजियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे पुवाणुपुर्दिवं चरमाणे जाव जेणेव बारवई नयरी जेणेव रेवयगपवए जेणेव नंदन. वणे उजाणे जेणेव सुरप्पियस्त जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिम्हित्ता संयमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह परिसा निग्गया धम्मो कहिओ ॥ ७ ॥ ___टीका-'तेणं कालेग' इत्यादि । तस्मिन् काले.तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्ट नेमिाविंशतितमस्तीर्थकरः समवस्त इति भावः, स एव वर्गकः = अन्यतीर्थकराणां यो वर्णकः ‘आइगरे तित्थगरे' इत्यादि रूपः कथितः स एवारिष्टनेमि भगवतोऽपि वर्णको बोध्य इत्यर्थः, नवरं-' दसधणुस्सेहे ' दशधनुरुत्सेधः दशविपुल शब्द रूप गंधरस और स्पर्श पांचों इन्द्रियों के विषयों को यावत् भोगते हुए अपना समय आनन्द के साथ व्यतीत करदिया।सूत्र'६"
तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि । टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय में (अरिहा. अरिदुनेमी) उस द्वारावती नगरो में बावीसवें तीर्थकर अहंत नेमीनाथ भगवान् आये (सो चेव वण्गओ) अन्यतीर्थंकरों का जैसा “आइगरे तिस्थगरे" इत्यादिरूप से वर्णन किया गया है उसी प्रकार का वर्णन
સાથે પુષ્કળ શબ્દ, સ્પર્શ, રૂપ વર્ણ અને ગંધ રૂપ પાંચે ઈન્દ્રિના વિષયે २ सोमवता पोताना वमत सुमेथी यसा२ ४२१। श्यो. ॥ सूत्र "" ॥
तेणं कालेणं तेणं समएण त्या Aथ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते आणे भने ते समय (अरिहा अरिद्वानेमी તે દ્વારકા નગરીમાં બાવીસમાં તીર્થંકર અહંત નેમીનાથ ભગવાન પધાર્યા (सो चेव वण्णओ) “आइगरे तित्थगरे” ना ३५मा म भीतीनु વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે જ અરિષ્ટનેમિ પ્રભુનું વર્ણન પણ જાણી
For Private And Personal Use Only
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अलमारपीभूतपषिणी टीका म०५ प्रभुसमवसरणम् धनुः परिमित उत्सेध उच्छायो यस्य सः, पुनः कथं भूतोऽसावित्याह-'नील पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासे ' नीलोत्पलगवलगुलिकातसीकुसुमप्रकाशः नीलोत्पलं = नीलकमलं, गवलं माहिषं शृङ्ग. गुलिका-नीली, यद्वा-गवलगुलिका
माहिषशृङ्गस्य त्वरमागेऽपसारिते सति तदन्तरालवर्तिनी गुलिका 'अतसी' अलसी नाम्नापसिद्धो धान्यविशेषस्तस्य कुसुम-पुष्पं, तेषां प्रकाश इव प्रकाशो वर्णो यस्य स तथा, अष्टादशभिः श्रमणसाहस्रीभिः अष्टादशसहस्रपरिमितैः श्रमणैः मुनिमिः साध संपरितः चत्वारिंशता आर्यिकासाहस्रीभिः चत्वारिंशत्सहस्रपरिमिताभिरार्यिकाभिः साध्वीभिः साध संपरिसृतः, पूर्वानुपूर्वी-पूानुपूया तीर्थंकरपरंपरया चरन-विहरन् यावत् यत्रैव द्वारावती नगरी वर्तते यजैव रैवतकपर्वतः पौव नन्दनवनं नामोधानमस्ति, यत्रैव सुरपियस्य यक्षस्य यक्षायतनं, यत्रैव, इन अरिष्टनेमि प्रभुका भी जानना चाहिये । परन्तु उनके वर्णन की अपेक्षा इनके वर्णन में इतनी विशेषता है कि ये (दसधणुस्सेहे,नीलुप्पलगवलगलियअयसिकुसुमप्पगासे) इनके शरीर की ऊँचाई दश धनुष की थी। शरीर का वर्ण नीलकममल के गवल-माहिष केशृंग के अन्दरभाग जैसा गुलिका-नील के जैसा अथवा गवल तुलिका-स्वरभाग के दूर करने पर तदन्तरालवर्तिनी महिष शृंग की गुलिका के-अलसी के पुष्प के वर्ण के समान था। (अट्ठारसहिं समणसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिघुडे पत्तालीसाए अजिया साहस्सीहिं सद्धि संपरिबुडे पुन्वाणुपुविचरमाणे जाव जेणेव धारवई नयरी जेणेव रेवयगपव्वए जेणेव नंदनवणे उजाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव स्वागच्छइ) ये अहंनअरिष्टनेमि प्रभु १८अढारह हजार श्रमणों के साथ और ४०चालीस हजार आर्यिकाओं के साथ २ पुर्वानुपूर्वी से-तीर्थकर લેવું જોઈએ. ફક્ત અરિષ્ટનેમિ ભગવાન ની વિષે આટલું વિશેષ સમજવું જોઈએ ४-( सधणुस्सेहे नीलुप्पलगवलगुलियअयासि कुसुमपप्पगासे) तेभनु शरीर દશ ધનુષ જેટલું ઊંચું હતું. તેમના શરીરને રંગ નીલ કમળ ગવલમહિષના શીંગડાના મધ્યભાગ જે, ગુલિકા–નીલ જે, અથવાતે ગવલ ગુલિકા-ઉપર ની ચામડીને ઉપાડી લીધા પછી તેની અંદરના મહિષના શીંગડાની ગુલિકા मन • मसान ५०पना २ वो तो. (अद्वारसहिं समणसाहस्सीहि सदि संपग्वुिडे चत्तालीसाए अज्जिया साहस्सीहिं सद्धि संपरिवुडे पुवाणुपुर्वि घरमाणे जाव जेणेव वारवई नयरी जेणेव रेवयगपवए जेणेव नंदनवणे उज्जाणे जेणेव सुरप्पियस जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ ) मत અરિષ્ટનેમિ પ્રભુ અઢાર હજાર શ્રમણની સાથે અને ચાલીસ હજાર આર્થિકા
For Private And Personal Use Only
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
१६
शाताधर्मकथासू
अशोकवरपादपः = अशोकनामा महावृक्षः, तत्रेत्रोपागच्छति, उपागस्य ' अहापडिख्वं ' यथाप्रतिरूपं = मुनिजनकल्पानुसारम् अवग्रहं = स्थित्यथं वसतेराज्ञां अवगृह्य = गृहीत्वा संयमेन तपसा चात्मानं भावयन् वासयन् विहरति = आस्तेस्म । तदा वनपालकः समागत्य कृष्णाय वासुदेवाय वर्धापनिका प्रदत्ता । परिषनिर्गता = द्वारावती नगरी निवासिनां जनानां परिषत् समूहः निर्गता अरिष्टनेमिर्भगवन् समागतइति श्रुत्वा तं वन्दितुं द्वारावतीनगरीतो निःसृतेत्यर्थः । सा परिषद् भगवन्तं वन्दिस्वा धर्मं श्रोतुं भगवतः पुरोऽवस्थिता धर्मः कथितः अरिष्टनेमिना भगवता धर्मकथा कथिता ॥ सु-७ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
परंपरा के अनुसार- विहार करते हुए यावत् जहां वह द्वारावती नगरी थी उसमें जहां रैवतक पर्वत था-नंदवन नामका उद्यान था । उसमें भी जहां सुरप्रिययक्ष का यक्षायतन था ओर उस में भी जहाँ अशोक का उत्तम वृक्ष था, वहां पधारे ( उवागच्छित्ता अहापड़िरूवं उग्गहं ओगिव्हिसा संयमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह) आकर के उन्हों ने मुनिजन के कल्पानुसार वनपाल से वमति की आज्ञा प्राप्त की और प्राप्त कर वे वहां तप और संयम से आत्मा को भावित करते हुए विराजमान हो गये उस समय धनपालकने आकर के कृष्ण वासुदेवको बधाई दी । ( परिसा निग्गया धम्मो कहिओ) द्वारावतीनगरी के समस्त जनों का समूह - ( अरिष्टनेमि भगवान आये हुए है) ऐसा सुनकर उनको वंदना करने के लिये द्वारावती नगरी से निकले ।
એની સાથે પૂર્વાનુ ાથી-એટલે કે તીથ કર પરપરા ને અનુસરતાં વિહાર કરતાં જ્યાં તે દ્વારવતી નગરી હતી, જ્યાં રૈવતક પર્વત હતા, જ્યાં નનવન નામે ઉદ્યાન હતું, અને તેમાં જ્યાં સુરપ્રિય યક્ષનું યક્ષાયતન હતું અને તેમાં पन्यु क्यां मशोऽनुं श्रेष्ठ वृक्ष हेतुं त्यां पधार्या. ( उवागच्छित्ता अहारडिरूवं उहं ओगिता संयमेण तत्रसा अपवणं भवेमाणे विरइ ) त्यां पधारीने મુનિ જનાચિત પ્રણાલિકા મુજબ વનપાલક પાસેથી આજ્ઞા મેળવી અને આજ્ઞા મેળવીને ત્યાં તપ અને સયમથી પેતાના આત્માને ભાવિત કરતાં બિરાજ્યા. તે વખતે વનપાલકે કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે જઇને તેમને શુભ સમાચાર આપ્યા ( परिसा निग्गाया धम्मो कहिओ ) द्वारावती नगरीन अधा नागरी असे "अरि ષ્ટનેમિ ભગવાન અત્રે પધાર્યા છે” એવું સાંભળીને તેમની વંદના કરવામાટે નગરીની બહાર નીકળ્યા. બધા નાગરિકા ભગવાનને વંદન કરીને ધકથા
For Private And Personal Use Only
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ समवसरणे कृष्णगमनादिनिरूपणम् १७ __मूलम्-तएणं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लद्धडे समाणे कोडंबियपुरिसे सद्दावेद, सहावित्ता एवं वयासोखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरमहुरसहं कोमुदीयं भेरि तालेह, तएणं ते कोडुंबिय पुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव मत्थए अंजलिं कटु-एवं सामी ! तहत्ति जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता जेणेव सहा सुहम्मा जेणेव कोमुदिया भेरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियं गंभीरं महरसई कोमुदियं भेरिं तालेति । तओ णिद्धमहुरगंभीरपडिसुएणं पिव सारएइणं बलाहएणं पिव अणुरसियं भेरीए ॥सू०८॥
टीका--'तएणं' इत्यादि । ततः तदनन्तरं, खलु स कृष्णो वासुदेवोऽनया भगवानरिष्टनेमिः समागत इत्येवं रूपया कथया = वनपालकथितया कथया 'ठे' लब्धार्थः लब्धः प्राप्तः, भगवदागमनरूपोऽर्थों येन स तथा, सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति आयति, शब्दयित्वा, एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवा. भगवान को वंदना कर वे सब धर्म सुनने की अभिलाषा से भगवान के सामने बैठ गये । प्रभुने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। "सूत्र"७"
तएणं से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्ण वासुदेव ने (इमीसे कहाए लट्टे समाणे) वनपाल के मुख से अरिष्ट नेमि प्रभुका आगमन रूप अर्थ विदित कर (कौडुषियपुरिसे सहावेइ) कौटुम्बिक સાંભળવાની ઈચ્છાથી તેમની સામે બેસી ગયા. પ્રભુએ પણ તેમને ઉપદેશ पायी. ॥ सूत्र "७" ॥ .. तएण से कण्हे वासुदेवे त्याहि ॥
ANथ-(तएण) त्या२ माह ( से कण्हे वासुदेवे ) Yug वासुहेवे (इमीसे कहाए लद्धट्रे समाणे) नाना भांथी भरिटनम प्रभुनी पराभानी पात
For Private And Personal Use Only
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शांताधर्मकथा दीत-भो देवानुपियाः 'खिप्पामेव ' हिममे शीघ्रमेव सुधर्मायां सभायांगत्वा 'मेघोघरसियं' मेघौघरसिता मेघौघानां मेघसमूहाना रसितमिव रसितं ध्वनिरिव ध्वनिर्यस्यारतां गम्भीरां सान्द्रां 'महुरसई ' मधुरशब्दां 'कोमुइयं ' कौमुदिको उत्सवसूचनासमये वादनीया कौमुदिका नाग्नी श्रीकृष्णवासुदेवस्य मेरी तां, मेरि दुन्दुभि 'तालेह' ताडयत वादयत । ततः तदनन्तरं खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तो हृष्टाः यावत् हर्षवंशविसर्पद् हृदया मरतकेडञ्जलिं कृत्वा एवं स्वामिन् तथेति ' यावत् 'हे स्वामिन् एवमेव तथाऽस्तु' इत्युक्त्या प्रतिश्प्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति। प्रतिश्रुत्य आज्ञां स्वीकृत्य कृष्णस्य वासुदेवरयान्तिकात् समीपात् 'पडिनिखमंति' प्रतिनिष्क्रामन्ति=निःसरन्ति । पतिपुरुषोंको बुलाया (सदावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा( खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया सभाए सुहम्माए ) भो देवानुप्रियो । तुम लोग शीध्र ही सुधर्मा नाम की सभा मे जाकर (मेघोघरंसियं गंभीरमहुरसई कोमुदीयं भेरि तालेह) मेघोके समूह जैसी सान्द्र मधुर शब्दवाली कौमुदिक नामकी भेरी को कि जो उत्सव की सूचना के समय बजाई जाती है बजाओ। (तएणं ते कौटुंबियपुरिसा कण्हेणं वासु. देवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव मत्थए अंजलिं कड्ड एवं सामी ! तहत्ति जाव पडिस्सुणेति) कृष्णवासुदेव की इस प्रकार आज्ञा सुनकर वे कौटुम्बिक पुरूष अधिक हर्षित एवं संतुष्ट हुए और मस्तक पर अंजलि रखकर हे स्वभिन् ! जैसी आपकी आज्ञा है हम वैसा ही करेंगे ऐसा कहकर उन्होंने उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली (पडिसुणित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति ) आज्ञा स्वीकार कर समजान (कौडुबियपुरिसे सहावेइ) डोमि पुरुषाने माराव्या. (सहावित्ता
एवं वयासी) मालावीर तमो यु-(खिप्पमिव भो देवाणुप्पिया ! सभाए महम्माए ) वानुप्रियो ! सत्वरे तमे सुघर्भा नामनी सलाम ने ( मेघोष रंसिंय गंभीरमहुरसह कोमुदीय भेरि तालेह ) भेसभडना व સાન્દ્ર મધુર શબ્દવાળી તેમજ ઉત્સવના વખતે વગાડવામાં આવતી કૌમુહિક नामन मेशने ॥31 ( तएणं वे कौंडुबिय पुरिसा कण्हेणं वासुदेवे णं एवं वुत्तासमाणा हट्ठ जाव मत्थए अंजलि कहूँ एवं सामी ! तहत्ति जोव पडिसणेति) કૃષ્ણ વાસુદેવની આવી આજ્ઞા સાંભળીને કૌટુંબિક પુરુષ ખૂબજ હર્ષિત અને સંતુષ્ટ થયા, તથા મસ્તકે અંજલિ રાખીને કહેવા લાગ્યા,–“હે સ્વામિન ! આપની જેવી આજ્ઞા છે, તે પ્રમાણે જ અમે કરીશું આમ કહીને તેઓએ તેમની भाना स्वीसीधी. “पडिसुणिचा कण्हस्स वासुदेवस्म अंतयाओ पडिनिक्ख
For Private And Personal Use Only
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनंगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०५ समवरणे कृष्णगमनादिनिरूपणम् । निष्क्राम्य यौव सुधर्मासभा, यौव कौमुदिका भेरी, विद्यते तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य ता मेघौघरसितांगम्भीरां मधुरशब्दां कौमुदिकां भेरी ताडयन्तिबादयन्ति । ततः = तदनन्तरं निद्धमहुरगंभीरपडिसुएणंपिव' स्निग्धमधुरगम्भीर प्रतिश्रुतेनैव-स्निग्धं हृदयहर्षजनकं मधुरं गम्भीरं प्रतिश्रुतं प्रतिध्वनिर्यस्य स तथा, तेनेव केन ? 'सारइएणं ' शारदिकेन शरत्कालसमुद्भूतेन 'वलाहएणं पिव' बलाहकेनेव-मेघेनेव · अणुरसियं' अनुरसितम्-अनुगर्जितं भेर्या, शारदिकमेघगर्जितवद् भेरीध्वनि त इत्यर्थः ।। सू०८ ॥
मूलम्-तएणं तीसे कोमुइयाए भेरियाए तालियाए समाणीए बारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिनाए दुवालसजोयणायामाए सिंघाडगतियचउक्कचच्चरकंदरदरी विवरकुहरगिरिसिहर नगरगोउरपासायदुवारभवणदेउलपडिसुयसयसहस्स संकुलं करेमाणे बारवई नयरिं सभितर बाहिरियं सव्वओ समंता से फिर वे कृष्ण वासुदेव के पास से चलदिये । (पडिनिक्खमित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कोमुदिया भेरी-तेणेव उवागच्छंति ) चलकर वे उस सुधर्मा सभा में जहां वह कोमुदिक नामकी भेरी रखी हुई थी वहां गये (उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियं गंभीरंमहुरसइंकोमुदियं भेरि तालेंति ) वहां जाकर उन्होंने उस मेघो के समूह जैसी सान्द्र गंभीर मधुर शब्द वाली कौमुदिक भेरीको बजाया (तओ णिद्धमहुरगंभीर पडिसुएणं पिव सारइणं बलाहएणं पिव अणुरसियं भेरीए ) बजते ही उस भेरी की ध्वनी शरत्कालीन मेघ की गर्जना के समान हुई। ॥सू-८॥ मंति" माज्ञा आयो मा तेसो नी पासेथी महा२ नीच्या.” “ पडिकिक्ख मित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कोमुदिया भेरी तेणेव उवागच्छति " मन ત્યાંથી તેઓ સુધમ સભામાં જ્યાં કૌમુદક નામની ભેરી મૂકેલી હતી ત્યાં गया. “ उबागच्छित्ता तं मेघोषरसिय गंभीर महुरसई कोमुदिय भेरि ताले ति" ત્યાં જઈને તેમણે મેઘસમૂહના જેવી સાન્દ્ર ગંભીર અને મધુર શબ્દવાળી
मुशि मेरीन usी "तओ णिद्धमहुरगंभीरपडिसुएणं पिव सारइणं बलाहएण पिव अणुरनिय भेरीए " ते रीमाथी २२६ *तुना मेवनी म भार सान्न ધ્વનિ રોમેર પ્રસરી ગયે. સૂ૮
For Private And Personal Use Only
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथासूत्रे सद्दे विप्पसरित्था । तएणं बारवईए नयरएि नवजोयणवित्थिन्नाए बारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दसदसारा जाव गणिया सहस्साई कोमुदियाए भेरीए सई सोच्चा णिसम्म हतुट्ठ० जाव ण्हाया आविद्ध वग्धारियमल्लदामकलावा अहतवत्थचंदणोकिन्नगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रहसीया संदमाणीगया अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता कण्हस्स वासुदेवस्त अंतियं पाउन्भवित्था ।
तएणं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दसदसारे जाव अंतियं पाउब्भमाणे पासइ, पासित्ता हतुट जाव कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरंगिणी सेणं सजेह, विजयं च गंधहत्थिं उवट्ठवेह । ते वि तहत्ति उवट्ठवेंति, जाव पज्जुवासंति ॥सू०९॥
टीका-'तएणं तीसे ' इत्यादि । ततः:खलु तस्यां कौमुदिकायां भेयीं ताडितायां सत्यां द्वारावत्या नगर्या नवयोजनविस्तीर्णाया द्वादशयोजनायामायाः 'सिंघाडगतियचउक्कचच्चर कंदरदरी विवरकुहरगिरिसिहरनगरगोउर पासाय दुवार
'तएणं तीसे कोमुइयाए' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (तीसे को मुइयाए) उस कौमुदी (भेरियाए तालियाए समाणीयाए) भेरी के बजने पर (वारवहए नयरीए नवजोजन वित्थिनाए) द्वारावती नगरी के कि जो नव ९ योजन विस्तीर्ण (चौडी) तथा (दुवालसजोयणायामाए)१२ बारह योजन लंबी थी-(सिंघाडगतिय चउक्क चच्चरकंदरदरीविवरकुहरगिरिसिहरनगरगोउरपासायदुवारभ
" त एणं तीसे कोमुइयाए" त्या ॥
Astथ-"तएणं" त्या२ मा “ तीसे कोमुइयाए " त भुट्टी “ भेरियाए ताछियाए समाणीए" देशन “ वारवइए नयरीए नवजोजन विस्थिन्नाए " न योन विस्तार पाही तमा “ दुवालमजोयणाए " मा२ योn eivil "सिंघाडगतियवउक्कचच्चरकंदरदरी विवरकुहरगिरिखिहरनगरगोउरपासायदुवारभवण
For Private And Personal Use Only
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म०५ समवसरणे कृष्णगमनादिनिरूपणम् २१ भवणदेउलपडिसुयसयसहस्ससंकुलं' श्रृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरकन्दरादरीविवरकुहरगिरिशिखरनगरगोपुरमासाद्वारभवनदेवकुलपतिश्रुतशतसहस्रसंकुलां शृङ्गाटकादि देवकुलान्ताः शब्दाः प्रसिद्धाः, तेषु प्रतिश्रुतानां प्रतिध्वनीनां यानि शतसहस्राणि तैः संकुला = परिपूर्णा तां तथाविधां कुर्वन् द्वारावती नगरी 'सभितरवाहिरियं ' साभ्यन्तरवाह्या सर्वतः-समन्तात् स शब्दा=भेरी शब्दः 'विप्पसरित्था ' विप्रास-विशेषेण प्रसृतः ।
ततः खलु द्वारावत्यां नगयों नवयोजनविस्तीर्णायां द्वादशयोजनयामायां समुद्रविजयममुखाः दशदशाहो-यावत् गणिकासहस्राणि अत्र यावच्छब्दादयमर्थोऽवगम्यते--बलदेवप्रमुखा पञ्च महावीराः, उग्रसेनादयः षोडशसहस्रपमिता राजानः सार्वत्रिकोटिसंख्यका यादवकुमाराः, षष्टिसहस्रसंख्यकाः शाम्बादयो दुर्दान्ताः, वीरसेनप्रमुखा एकविंशति सहस्रपमितावीराः, महाबलसेनादयः षट्पञ्चाशत् सहस्रममाणा बलवन्तः, तथा-रुक्मिणीप्रमुखा द्वात्रिंशत्सहस्रपरिमितामहिला अनङ्गसेनादयोऽनेकसहस्रसंख्यका वाराङ्गनाश्चेति । कौमुदीकायामेर्याः शब्दं श्रुत्वा षण देउलपडिसुयसयसहस्ससंकुलं करे माणे बारवइं नयरिं सभितरबाहिरियं सव्वओ संमंता से सद्दे विप्पसरित्था) शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, कंदरा, दरी, विवर, कुहर, गिरीशिखर, नगर, गोपुर, प्रसादद्वार, भवन, देवकुल, इन सब स्थानों में लाखों प्रति ध्वनियां उठी उन लाखों प्रतिध्वनियों से उस द्वारावती नगरी को भीतर बाहिर सब प्रकार से सब तरफ से परिपूर्ण करता हुआ वह भेरी का शब्द बहुत जल्दी इधर उधर फैल गया। (तएणं वारबईए नयरीए नव जोयणवित्थिनाए बारसजोयणायामाए समुहविजयपामोक्खा दसदसारा जाव गणियासहस्साई कोमुदियाए भेरीए सई सोच्चा निसम्म हट्ट तुट्ट जावण्हाया) इस के बाद ९ नव योजन चौड़ी और १२ बारह योजन लंबी उस द्वारावती नगरी में समुद्रविजय आदि दश दशाहों देउलपडिसुयसयसहस्ससंकुल करेमाणे बारवई नयरिं सभितरबाहिरियौं सम्पओ समता से सद्दे विप्पसरित्था " द्वारावती नसरीना ४. त्रि, यत, य१२, ४४२१, हरी वि१२, ९२, RINA२, नगर, गापुर, प्रासाह તાર, ભવન દેવકુળ આ બધાં સ્થાન માં લાખે પડઘા પડયા. ભરીને વનિ સેંકડે પડઘાઓથી દ્વારાવતી નગરીની અંદર બહાર ચેમેર પૂર્ણ રૂપે प्रसशनमधे व्यास ७ गया. “तएण वारबईए नयरीए नव जोयणवित्थिन्नाए वारसजोयणायामाए समुहवीजयपामोक्खो दसदसारी जाव गणियासहस्साई कोम. दियाए भेरीए सई स्रोच्चा निसम्म हद तुद जाव हाया" त्यार माह न યજન પહોળી અને બાર ચાજન લાંબી દ્વારાવતી નગરીમાં સમુદ્ર વિજય
For Private And Personal Use Only
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
से
माताधर्मकथा निशम्य-हृदयेऽवधार्य हृष्टास्तुष्टा यावत् स्नाताः ' आविद्धवाग्धारियमल्लदामक लावा' आविद्धवग्धारियमाल्यदामकलापा आविद्धः परिधृतः 'वघारियमल्लदा. मकलावा ' प्रलम्बित पुष्पमाल्यमुक्तादि हाराणां कलापो येस्तै प्रलम्बितपुष्पमालामुक्तादि हारधारिण इत्यर्थः । 'वग्धारिय' इति देशीशब्दः प्रलम्बितार्थकः । अहतवत्थचंदणोकिन्नगायसरीरा ' अहतवस्त्रचन्दनोक्लिन्नगात्रशरीरा-अहतवस्त्राणि चन्दनोक्लिन्नगात्राणि येषु तानि तथाभूतानि शरीराणि येषां ते तेषां शरीराणि नूतनवसनयुक्तानि चन्दनानुलिप्तावयवकानि आसन्नित्यर्थः । नूतनवसनचन्दनानुले. पधारिण इति यावत् । अप्येकके-अप्येके केचन हयगताः अश्वारूढाः एवं=एके ने यावत् गणिका साहस्र ने भेरी के शब्द को सुनकर और उसे हृदय में अवधारित कर बहुत ही अधिक हर्ष से एवं संतोष से युक्त हो स्नान किया-स्नान कर (आविद्धवग्धारियदामकलावा ) उन्हों ने लंबी २ पुष्प मालाओ से युक्त मुक्तादि हारो को पहिरा " वग्धारिय" शब्द प्रलम्बित अर्थ का वाचक देशीय शब्द है। (अहतवत्थ चंदणोकिनगायसरीरा) नवीन २ वस्त्रों से एवं चंदन के लेप से शरीर को सज्जित किया। " जाव गणियासहस्साई" में जो (यावत् ) पद आया है-वह इस बात को कहता है कि समुद्र विजय आदि दश दशाहों के साथ (बलदेव प्रमुख, पांचमहावीरों ने उग्रसेन आदि १६सोलह हजार राजा
ओंने, ३॥ सढे तीन करोड यदव कुमारोंने,६०साठ हजार दुर्दान्त शाम्बा. दिकोंना २१इक्कीस हजार वीरसेन प्रमुख वीरों ने,५६छप्पन हजार बलवंत महासे नोदिकोने तथा रुक्मिणी प्रमुख ३२ पत्तीस हजार महिलाओंने વગેરે દશ દશાહએ અને ગણિકા સાહસ્રોએ ભરીને અવાજ સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં અવધારિત કરીને બહુજ હર્ષ તેમજ સંતોષ યુક્ત થઈને સ્નાન ज्यु, स्नान शन " आविद्धवग्धारियदामकलावा " तभणे inी भी પુષ્પમાળાઓ વાળા મોતી વગેરેના હારે ધારણ કર્યા વાગ્ધારિય શબ્દ પ્રલमित (टती) अथ सूयबना२ ३शीय ५४ छ. " अहतवत्थ चंदणोकिन्नसरीरा" नai ki पसी तमस यंहनना बेपाथी पाताना शरीरने तमो आयु. " जाव गणियासहस्साई" भार “ यावत् " ७४ छ, તે એમ સૂચવે છે કે સમુદ્રવિજ્ય વગેરે દશ દશોંની સાથે બળદેવ પ્રમુખ પાંચમહાવીરાએ, ઉગ્રસેન વગેરે સેળ હજાર રાજાઓએ સાડા ત્રણ કરોડ યાદવ કુમારએ, છ હજાર દુર્દાત શાંબાદિકેએ એકવીસ હજાર વીરસેન પ્રમુખ વીરેએ, છપ્પન હજાર બળવાન મહાસેન વગેરેએ તેમજ રુકિમણી પ્રસંગ * બત્રીસ હજાર મહિલાઓએ પણ તેમની જેમ હર્ષિત અને સંતુષ્ટ થઈને નાન
For Private And Personal Use Only
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतषिणो रीका भ०५ समवसरणे कृष्णगमनादिनिरूपणम् २३ केचिद् गजगताः गजारूढाः, रहसीयासंदमाणीगया' रथशिषिकास्यन्दमानीगताः केचिद् रथारूढाः, केचित् ‘संदमाणीगया' स्यन्दमानीगताः स्यन्दमानी-पालखीनाम्ना प्रसिद्धो वाहनविशेषः, तामारूढाः, अप्येक के-केचित् पादविहारचारेण 'पुरिसवग्गुरापरिखित्ता' पुरुषवा गुरापरिक्षिताः पुरुषवन्देन युक्ताः संभूय कृष्णस्य. वासुदेवस्यान्ति के प्रादुर्बभूवुः समागताः। ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः समुद्रविजयप्रमुखान् दशदशाहान् यावत् अन्तिकं प्रादुर्भवतः समागतान पश्यति, दृष्ट्वा हतुष्टोऽतिशयेन प्रमुदितः कृष्णवासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषान शब्दयति शब्दयित्वा चैवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत-भो देवानुपियाः! क्षिप्रमेव शीघ्रमेव, चतुरङ्गिणी भी उनके जैसा ही हर्षित एवं संतुष्ट हो सब कुछ किया। (अप्पेगइया हय गया एवं गयगया रहसिया संदमाणीगया) इनमें कितनेक घोडों पर बैठकर कितनेक हाथियोंपर बैठकर, कितनेक रथोंपर बैठकर कितनेका शिषिका, स्यन्दमनी-पालखी-पर बैठकर ( अप्पेगड्यापायविहरचारेणं पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता) कितनेक अनेक पुरुषो से युक्त होकर पाद विहार चारीगण-पैदल ही (कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउन्भवित्था) कृष्ण वासुदेव के पास प्रादुर्भूत हुए-आ गये । (तएणं से कण्हे वासुदेवे समुहविजयपामोक्खे दस दसार जाव अंतियं पाउन्भमाणे पासह) इस तरह जब उन कृष्ण वादेवने समुद्रविजय आदि दश दशाहों को यावत् अपने पास में प्रादुर्भूत हुआ देखा तो (पासित्ता) देखकर (हह तुह जाव कोडंपियपुरिसे सद्दावेइ) हर्षित हो यावत् कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया (सदावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा કર્યું, અને સ્નાન પછી પિતાના શરીરને વસ્ત્રો, લેપ તેમજ હારી વગેરેથી थी शभार्या अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रहस्रीया संदमणीगया" આમાંથી કેટલાક ઘડાઓ ઉપર સવાર થઈને કેટલાક હાથીઓ ઉપર બેસીને ३८६॥ २थामा मेसीन ३८॥ CAMI, पासीमा मेसीने “अप्पेगइया पायविहरचारेण पुरिसवग्गुरा परिक्खिता" मा भने माणुसोनी साथे परे यासीन “कण्हस्स वासुदेवस्स अंतिय पाउभवित्था" ] वासुदेवनी पासे ४२ था. " तएण से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दसदसार जोव तिय पाउन्भमाणे पासइ " ॥ रीते वासुदृ३ समुद्रविनय कोरे शशा वगैरे ते चोतानी पासे उपस्थित थयेसा नया अन " पासित्ता" नधन "हठ्ठतुटु जाव कोडुबियपुरिसे सहावेह" पित थ/छे औ५४ पुरुषाने माया "सद्दाविता एव वयासी" मावीन तभ) मा प्रभा ४ढुं. “ खिप्पा
For Private And Personal Use Only
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
साताधर्मकथा गजाश्वरथपदातियुक्तां सेना सज्जयत, विजयं = विजयनामानं च गन्धहरितनम् ' उवटवेह ' उपस्थापयरमप्टनादिना सुसजीकृश्य समानयत । तेऽपि-कौटुम्बिन पुरुषा अपि, कृष्णवासुदेवाज्ञां श्रुत्वा ' तथाऽस्तु ' इत्युक्त्वा तथैवोपस्थापयन्ति-आनयन्ति, यावत् पर्युपासते ॥ सू० ९॥
मूलम्-थावच्चापुत्ते वि णिग्गए जहा मेहे तहेव धम्मं सोचा णिसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ, जहा मेहरस तहा चंव णिवेयणा, जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहहिं आघवणाहि य पन्नवणाहिय सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा ४ ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्तस्स निक्खमणमणुमन्नित्था । . तएणं सा थावच्चा आसणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टित्तामहत्थं महग्धं महरियं रायरिहं पाहुडं गंण्हइ, गिणिहत्ता मित्त जाव संपरिवुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवरपडिदुवार(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया। चाउरंगिणी सेणं सज्जेह) भो देवानुप्रियों। तुम लोग शीध्र ही चतुरंगिणी सेना को सज्जित करो (विजयं च गंधहत्धि उवट्ठवेह) और विजय नाम के गंध हस्ती को वेष भूषा से मंडित कर उपस्थित करो (ते वि तहत्तिउवट्ठवेंति ) उन कौटुम्पिकपुरुषों ने भी कृष्ण वासुदेव की ओज्ञा सुन (तथास्तु ) ऐसा कहकर वैसा ही किया यावत् उनकी पर्युपासना की ॥ सू-९॥ मेव भो देवाणुप्पिया ! चउर गिणी सेणं सज्जेह " पानुप्रिया! तमे सत्वरे यतुनिल सेना तैयार ४२। “ विजय च गंधहन्थि उवद्ववेह" मने विजय नाम 1 डायीन सुंदर वेषमा Aart N२ उपस्थित ४१. " ते वि तहति उपद्वति जाव पज्जुवासंति " टुमि पुरुषाये ४० पासुहेवनी माज्ञा સાંભળીને (તથાતું) આમ કહીને તેમની આજ્ઞા મુજબ કર્યું અને તેમની પણું પાસના કરી છે સૂત્ર ૯
For Private And Personal Use Only
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
मारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ०५ स्थापत्यपुननिकमणम् २५ देसभाए तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता पडिहारदेसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता करयल० वद्धावित्ता तं महत्थं महग्धं महरियं रायरिहं पाहुर्ड उवणेइ, उवणिता एवं वयासी ॥१०॥
टीका-थावच्चापुत्ते वि' इत्यादि । अथ स्थापत्यापुत्रोऽपि निर्गतः = भगवन्तमरिष्टनेमि वंदितुं स्वगृहानिःसृत इत्यर्थः । यथा मेघः मेघकुमारः, तथैव धर्म श्रुत्वा निशम्य, यत्रैव स्वजननी स्थापत्या गाथापत्नी वर्तते, तशैवोपागच्छति उयोगत्य पादग्रहणं करोति मातुश्चरणयोः पततिस्मेत्यर्थः। यथा मेघस्य-मेघकुमारस्य प्रव्रज्यार्थ निवेदना प्रार्थनाऽभूत् तथैव स्थापत्यापुत्रस्य निवेदना मातुरन्तिकेऽभवदित्यर्थः ।
'थावच्चापुत्ते वि णिग्गए' इत्यादि ॥ : टीकार्थ-(थावच्चापुत्ते विणिग्गए) स्थापत्यापुत्र भी भगवान अरि
नेमि प्रभुके वंदना करने के लिये अपने घरसे निकला (जहा मेहे तहेव पम्म सोच्था णिसम्म जेणेव थावच्चा गाहावाणी तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ, जहामेहस्स सहा चेव णिवेयणा ) जिस प्रकार मेघकुमार ने धर्म को श्रमण किया था उसी प्रकार स्थापत्या पुत्र ने प्रभु अरिष्टनेमी भगवानके पास धर्मोपदेश सुना और सुनकर जहां अपनी माता स्थापत्या गाथापत्नी थी वहां गया । जाकर उसने उसके दोनो चरण पकड लिये-उसके दोनो चरणों में वह गिर गयासोर जिस प्रकार प्रवृज्या के लिये मेघ कुमार ने प्रार्थना की थी उसी
" थावच्चापुत्ते वि णिग्गए" या॥ टी-"थावच्चापुत्त विणिग्गए" स्थापत्या पुत्र ५९ मगवान मरिष्टनेमिन ४न ४२१भाटे पाताने घRथी नीvो.. "जहा मेहे तहेव धम्म सोच्चा णिसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तेणेब उवागच्छइ ज्वागच्छित्ता पायग्गहण करेइ, जहामेहस्स तहाचेव णिवेयणा" भेघ सुमारे २म धमनु श्रवण ४युतमा स्थापत्य પુત્રે પણ પ્રભુને અરિષ્ટનેમિ ભગવાનની પાસેથી ધમને ઉપદેશ સાંભળે. અને સાંભળ્યા પછી ત્યાં તેની માતા સ્થાપત્ય ગાથા હતી ત્યાં ગયે જઈને તેણે માતાના બંને પગ પકડી લીધા તે તેના પગમાં આળેટી ગયો અને જેમ મેઘકમારે Aત્રજ્યા માટે પિતાના માતાપિતાને વિનંતી કરી હતી તેમજ તેણે પણ કરી.
For Private And Personal Use Only
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
२६
ज्ञाताधर्मव थाइसमे
,
यदा स्थापत्या गाथापत्नी स्वपुत्रं 'नो संचाएइ ' नो शक्नोति अस्य ' आघवितए ' इत्यादिना सम्बन्धः । विषयानुलोमाभिः = विषयानुकूलाभिःवग्भिव, तथाहि - विषयभोग एव मनुष्यलोके सारांशस्तदर्थमेव सर्वे जनाः प्रवर्तन्ते उक्तश्च -
___
" यदि रामा यदि च रमा, यदि तनयो विनयधीगुणोपेतः । तनये तनयोत्पत्तिः, सुरखरनगरे किमाधिवयम् ॥ १ ॥ " तथा - विषयप्रतिकूलाभिः विषयाः = कामभोगास्तत्प्रतिकूला स्तत्प्रतिषेधेन सद्भाविनस्तपः संयमास्तत्सम्बन्धिनीभिः लक्षणया विषयप्रतिकूलसम्बन्धिरूपोऽर्थः प्रतिबोध्यते । तपः संयमादिकं खलु वालुका कबलवन्निरास्वादम् असिधारोपरिगमनमिव सिक्थकदन्तै लेहमयचणकचर्वणमित्रकरेण दीप्ताग्निशिखाग्रहणमिव मेरुगिरितोलनमिव सुदुष्करं भुजाभ्यां समुद्रतरणमिवातिदुष्करमित्येवं तपः संयमभयोद्वेगकारिणीभिर्वाग्भिरित्यर्थः । बहीभिराख्यापनाभिः = बहुविधैराख्यानेः सामान्यतः कथनैश्च, प्रज्ञापनाभिः = विशेषतः कथनैश्च संज्ञापनाभिः संबोधनाभिः प्रकार से इसने भि कि ( जाहे णो संचाए विसयाणुलोमाहि य पडीक - लाहि य बहूहिं आघवणाहिं य पनवणाहिं य सन्नवणाहिय विन्नवणाहि य आधवित्तएवा ४ ) स्थापत्या गाथापत्नी ने उसे विषयानुकूल तथा विषयों के प्रतिकूल आदि वचनों द्वारा खूब २ समझाया - परन्तु वह उन विषयानुकूल विषय प्रतिकूल अनेक विध आख्यानो द्वारा - सामान्य कथनों द्वारा - प्रज्ञापनाओ द्वारा विशेष कथनों द्वारा संज्ञापनाओं द्वारा - संबोधन पूर्वक कथनों द्वारा विज्ञापनाओं द्वारा तुम ही इस वृद्धावस्था में मेरे लिये आधार भूत हो इत्यादिरूप प्रेमसहित दीन वचनों द्वारा उसे सामान्यरूप से समझाने के लिये विशेष रूप से समझाने के लिये, विज्ञापित करने के लिये संज्ञापित करने के लिये समर्थ नही हुई
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
" जा णो संचाes बिसयाणुलोभाहि य पडिकूलाहिय, बहूहिं आयवणाहिंय पन्न वाहिय सन्नवाह य विन्नवणाहिय आधवित्तए वा ४ स्थापत्य गाथा पत्नीको પોતાના પુત્ર વિષયાનુકૂળ તેમજ વિષયાને પ્રતિકૂળ એવી ઘણી વાતા કહીને ખૂબ સમજાવ્યા, પણ તે વિષયાનુકૂળ વિષયપ્રતિકૂળ અનેક આખ્યાના વડે, સામાન્ય उथना वडे, प्रज्ञापनायो वडे, विशेष अथनो वडे, संज्ञापनाओ। वडे, सशोधन પૂર્વક કથન વડે, વિજ્ઞાપનાએ વડે, ( તમેજ આ ઘડપણમાં મારા આધાર છે. ) વગેરે પ્રેમયુક્તદીન વચના વડે પેાતાના પુત્રને તે સામાન્ય રૂપથી સમજાવવા માટે, વિશેષ રૂપથી સમજાવવાને માટે, વિજ્ઞાપિત કરવાને માટે સંજ્ઞાપિત કરવા માટે સમર્થ થઈ શકી નહિ. એટલે કે આખ્યાન વગેરે ચાર જાતના
For Private And Personal Use Only
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
---
-
-
-
-
-
-
गीतपिगी टीका ० ५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम् ७ संबोध्य कथनैश्च, विज्ञापनाभिः त्वमेव ममास्यां वृद्धावस्थायामाधारोऽसि अवलम्बनमसीत्यादि रूपेण सप्रेमदीनवचनेन पुनः पुनर्विज्ञप्तिपूर्वककथनैः, अत्र-विषया. जुकूलाभिराख्यानादिरूपाभिश्चतुर्विधाभिर्वाग्भिस्तथा विषयपतिकूलाभिराख्यानादिरूपाभिश्चतुर्विधाभिर्वाग्भिरिति भावः । ' आघवित्तए वा' ओख्यातुं वा, प्रज्ञापयितुं वा, विज्ञापयितुं वा संज्ञापयितुं वा। यदा स्थापत्या स्वपुत्रमाख्यानादिभिः पतिबोधयितुं प्रव्रज्यातो निवर्तयितुं न शक्नोति स्मेति संक्षिप्तार्थः । तदा सा 'अकामिया चेव' अकामिकैव-अनिच्छावत्येव स्थापत्यापुत्रस्य-स्थापत्यापुत्रनाम्नः स्वतनयस्य निक्खमणमणुमन्नित्था' निष्क्रमणमन्वमन्यत = अनिच्छया प्रव्रज्याग्रहणार्थमाज्ञां प्रदत्तवतीत्यर्थः । ___ ततः तदनन्तरं खलु सा स्थापत्यागाथापत्नी आसनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्यु. स्थाय, ' महत्थं' महार्थ-महापयोजनकं, 'महग्यं ' महाघबहुमूल्यकं, 'महरिहं' महाई-महतां श्रेष्ठपुरुषाणां योग्यं, 'रायरिहं ' राजाई-राज्ञां योग्य, 'पाहुडं' माभृतम-उपहारं ' भेट ' इति भाषा प्रसिद्ध गृह्णाति, गृहीला मित्र-यावत् संपरिवृता-अत्र यावच्छब्देन-ज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनैरित्यस्य संग्रहः यत्रैव अर्थात् आख्यान आदि चतुर्विधवचनों द्वारा जो कि विषयानुकूलता तथा विषयप्रतिकूलता के प्रदर्शक थे जब वह स्थापत्या गाथापत्नी उसे समझाने एवं प्रव्रज्या से निवर्तित करने के लिये असमर्थ हुई (तहे अकामित्ता चेव थावच्चापुत्तस्स निक्खमणमणुमनित्था) तब उसने विना इच्छा के ही स्थापत्यापुत्र को प्रवृज्या गृहण करनेकी आज्ञा दे दी (तएणं सा थावच्चा आसणाओ अब्भुढेह) बाद में वह स्थापत्या अपने आसन से स्थान से- उठी- (अन्भुद्वित्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुणं गेण्हइ ) उठकर उसने महार्थसाधक, श्रेष्ठ पुरुषों के, तथा राजा
ओं के योग्य बहुत कीमती- उपहार लिया-(गिण्हित्ता) लेकर वह (मित्तजाव संपरिखुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स) मित्र आदि परिजनों વચને દ્વારા કે જેઓ વિષયને અનુકૂળ તેમજ વિષયને પ્રતિકૂળ હતા સ્થાપ. ત્ય પત્ની સમજાવીને પ્રત્રજ્યા લેતા પિતાના પુત્રને અટકાવવામાં સમર્થ થઈ शही नल "तहे अमित्ता चेव थावच्चा पुत्तस्स निक्खमणमणुमन्नित्था " त्यारे તેણે ઈચ્છા ન હોવા છતાં પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવાની તેને આજ્ઞા આપી. त्यारे स्थापत्य पछी पोताना भासनेथी भी 25 (अब्भुद्वित्ता महत्थं महम्ध महरिहं रायरिह पाहुणं गेहइ) ली ४२ मडा सा, उत्तम ५३वाने तमा माने याव्य म भिती मेट सीधी (गिण्डित्ता) ते (मित्त जाब संपरिबुडा जेणेव काहस्स वासुदेवस्स) मित्र को परिवना आये
For Private And Personal Use Only
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथासूत्र कृष्णवासुदेवस्य ' भवणवरपडिदुवारदेसभाए' भवनवरपतिद्वारदेशभागः भवनवरस्य प्रधानप्रासादस्य प्रतिद्वारं बृहद् द्वारान्तरालवतिलघुद्वारं तस्य देशमागोऽस्ति, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सा प्रतीहारदेशितेन द्वारपालपदर्शितेन मार्गेण यौव कृष्णवासुदेवस्तौवोपागच्छति, उपागत्य सा करतलपरिगृहीतदशनखा मस्तके अञ्जलिं कृला जयेन विजयेन च वर्धापति, वर्धापयित्वा तन्महार्थ महाघ महाई राजाई प्राभृतम् उपनयति-कृष्णवासुदेवस्याभिमुखे स्थापयति, उपनीय = उपहारं कृष्णवासुदेवस्याग्रे निधाय, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् = उक्तवती । सू० १०॥ से युक्त होकर जहां कृष्ण वासुदेव के ( भवणवरपडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छइ ) प्रधान प्रासाद का बडे दरवाजे अन्दर लघुद्वार का देश भाग था वहां गई (उवागच्छित्ता पडिहारदेसिएणं मग्गेणं जेणेव . कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ ) वहां जाकर द्वारपाल द्वारा प्रदर्शित मार्ग से होकर वह जहां कृष्ण वासुदेव थे वहां गई ( उवागच्छिप्ता करयल बद्धावेइ ) वहां जाकर उसने दोनों हाथो को अंजलि रूप में जोड़कर और उस मस्तक पर रख कर जय विजय शब्दों का उच्चारण करते हुए उन्हें वधाई दी (वद्धावित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुई उवणेइ ) वधाई देकर उसने फिर महार्थसाधक महाध महतो योग्य एवं राजाओं के लायक उस भेट को राजाके समक्ष रख दिया। (उवणित्ता एवं वयासी) रख कर फिर उनसे ऐसा कहा- सूत्र “१०" ४० पासुवा (भषणवरपडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छइ ) ज्या प्रधान મહેલ ના મુખ્ય દરવાજાની અંદરના લઘુદ્વારને દેશ ભાગ હતું ત્યાં ગઈ ( उवागच्छित्ता, पडिहारदेखिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागछह) ત્યાં જઈને તે દ્વારપાલવડે બતાવવામાં આવેલા માર્ગથી જ્યાં કૃષ્ણ વાસુદેવ
ता त्या 5. ( उवागच्छित्ता करयल• वडावेइ) त्याने तेथे पोताना હાથોને અંજલીના આકારે બનાવીને તેમને જ વિજય શબ્દો બોલતા કૃષ્ણ वासुदेवने याव्या. (वद्वावित्ता त महत्थ महग्य महरिहं रायरिह पाहूडं उवणेइ) વધાવ્યા પછી સ્થાપત્યાએ મહાર્યસાધક મહાર્થ–મેટા માણસને ગ્યभने माने य त टन तेमनी सामे भूी. (उणिता एवं पयासी) “હીને તેણે તેમને કહ્યું. સૂ-૧૦
For Private And Personal Use Only
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मैगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० ५ स्थापत्यात्रनिष्क्रमणमं
मूलम् - एवं खलु देवाणुपिया ! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं दारए इट्ठे जाव सेणं संसारभयउव्विग्गे इच्छइ, अरहओ अरिनेमिस्स जाव पव्वइत्तए, अहण्णं निक्खमणसक्कारं करेमि, इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्तमउडचामराओ य विदिन्नाओ, तरणं कण्हे वासुदेवे थावच्चा गोहावइणी एवं वयासी
अच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिए सुनिव्वुया वीसत्था, अहण्णं सयमेव थावच्चापुत्तस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि, तपणं से कहे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हस्थिरयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासीमाणं तुमे देवाणुपिया ! मुंडे भवित्ता पव्वयाहि, भुंजाहिणं देवाप्पिया ! विउले माणुस्सए कामभोए मम बाहुच्छायापरिग्गहिए, केवलं देवाणुप्पियस्स अहं णो संचाएमि वाउकायं उवरिमेणं गच्छमाणं निवारित्तए, अण्णे णं देवाणुप्पियस्स जे किंचिवि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएति तं सव्वं निवारोमि ॥११॥ टीका- --' एवं खलु ' इत्यादि । एवम् = अमुना प्रकारेण, खलु निश्चये हे देवानुप्रिय ! ममैकः = एक एव पुत्रः स्थात्यापुत्रो नाम दारकः अङ्गजातः, इष्टः
'एस खलु देवाणुपिया' इत्यादि ।
टीकार्थ - (देवाणुपिया) हे देवानुप्रिय ! (एवं खलु) मैं आप के पास इसलिये आई हूँ - कि ( मम एगे पुते थावच्चा पुत्ते नामं दारए) मेरा
( एस खलु देवाणुप्पिया इत्यादि ) ।
डी अर्थ - ( देवाणुपिया ! ) डे हेवानुप्रिय ! ( एवं खलु ) हु, आपनी पासे कोटा भाऊ भावी छु- (मम एगे पुत्ते भावच्या पुते नाम दारए) भारी स्था
For Private And Personal Use Only
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
40
श्राताधर्मकथासूत्रे
-
वल्लभः यावत् = अत्र यावच्छदेनायं पाठोऽनुसन्धेयः कान्तः कमनीयः प्रियः = प्रीतिकारकः, मनोज्ञः = हृदयावस्थितः, उदुम्बरपुष्पदर्शनमिव दुर्लभः वर्तते, स मम पुत्रः खलु संसारभयोद्विग्नः सन् इच्छति अर्हतोऽरिष्टनेमेः समीपे यावत् प्रव्रजितुम् । अहं खलु निष्क्रमणसत्कारं दीक्षोत्सवं करोमि, हे देवानुमिय ! हे स्वामिन ! अहमिच्छामि खलु स्थापत्यापुत्रस्य निष्क्रामतः = दीक्षाग्रहणं कुर्वतः छत्रचामराणि छत्रचामरमुकुटादीनि वितीर्णानि भवद्भिः प्रदत्तानि भवन्तु इति, अहमेतदर्थं भवतां समोपे समागता यत् वह छत्रचामरादीनि भवन्तो वितरन्तु इति भावः ।
ततः खलु कृष्णवासुदेवः स्थापत्यागाथापत्नीमेवमवादीत् । हे देवानुभिये ! स्वं खलु सुनिर्वृता = स्वस्था, विस्वस्था = विशेषतः स्वस्था, सुधीरा, आस्स्व तिष्ठ एक ही अङ्गजात स्थापत्य पुत्र नाम का पुत्र है । वह ( इट्ठे जाव सेणं संसारभasoori ) मुझे बल्लभ हैं । यावत् शब्द से इस पाठ का यहां संग्रह हुआ है- वह बहुत अधिक कमनीय है प्रीतिकारक है, मनोज्ञ है, मेरे हृदय में स्थान किये हुए है । और उदम्बर पुष्प के दर्शन के समान दुर्लभ है । वह मेरा पुत्र संसारभय से उद्विग्न होकर ( इच्छह अरहओ अरिट्ठनेमिस्स जाव पव्वतए) अहत अरिष्ट नेमि प्रभु के पास दीक्षित होना चाहता है ( अहण्णं निक्खमणसत्रकारं करेमि, इच्छामिण देवाणुपिया ! थावच्चापुस्तस्स निक्खममाणस्स छतम उचामराओ य विदिनाओ ) सो मैं उसका दीक्षोत्सव करना चाहती हूँ । इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैं आपसे यह चाहती हूँ कि आप मुझे उस निमित्त - निष्क्रमण स्थापत्य पुत्र की दीक्षोत्सव के निमित्त छत्र, चामर और मुकुट आदि दे देवें। (तएणं कण्हे वासुदेवे थावच्चा
For Private And Personal Use Only
"
पत्यापुत्र नाभे भेडनो पुत्र छे. ते ( इट्ठे जान सेणं संसार भय उब्बिग्गे) भने प्रिय छे. अहीं ( यावत् ) शब्थी भायानो संग्रह थयो छे ते उभनीय (रिछत्रायोग्य ) छे, प्रीतिभर छे, भनोज्ञ छे, भारा हृदयभां ते સ્થાન પામેલા છે. તેમજ ઉમરડાના પુષ્પના ક્રેનની જેમ તે દુર્લભ છે. તે सौंसारना लयथी व्याहून था ( इच्छछ अरहओ अरिट्ठनेमिस्स जाव पव्त्रइत्तए ). अर्हत गरिष्टनेमि प्रभुथी दीक्षित थवा थाडे छे. ( अहंण्ण निक्खमण सकार करेमि इच्छामिण देवाणुपिया ! यावच्चापुत्तस्स निकलममाणस्स छत मउडचामराओ य विदिन्नओ) हु° तेनेो दीक्षाना उत्सव उजवा छु छु. भेटला भाटे डे દેવાનુંપ્રિય ! આપ મને તે ઉત્સવ નિમિત્ત નિષ્ક્રમણ-સ્થાપત્યાપુત્રના દીક્ષોત્સવ भाद छत्र शाभराने भुमुद वगेरे आयो. ( तरणं कण्हे वासुदेवे भावचा
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नगारधामृतवाणी टीका भ० ५ स्थापत्यापु निमणम् ॥ इति सम्बन्धः । अहं खलु स्वयमेव स्थापत्यापुत्रस्य निष्क्रमण सत्कारं करिष्यामि । ततः खलु स कृष्णवासुदेवश्चतुरभिण्या सेनया सह विजयं-विजयनामानं गन्धहस्तिरत्नं यस्य गन्धं समाघ्राय पलायन्ते गजाः परे । दुरूढः-समारूढः सन् यौंव स्थापत्याया गाथापत्न्या भवनं वर्तते तऋषोपागच्छति, उपागत्य च स्थापत्यापुत्रम् एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादी-देवानुप्रिय ! त्वं मुण्डो भूत्वा मा खल्ल प्रव्रज, दीक्षाग्रहणं मा कुरु इति संबन्धः। हे देवानुप्रिय ! त्वं खलु विपुलान् बहुतरान् मानुष्यान् मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान् = शब्दादिविषयानुभवाम् गाहावाणी एवं घयासी) स्थापत्या गाथापत्नी की इस बात को सुनने के बाद कृष्णवासुदेव ने स्थापत्यागायापत्नी से इस प्रकार कहा(अच्छा ही णं तुमं देवाणुप्पिए ! सुनिघुया वीसस्था, अहण्णं सयमेव पाचच्चापुत्तस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि ) हे देवानुप्रिये ! तुम इस विषय में निश्चिन्त होकर- स्वस्थ और विस्वस्थ होकर-बैठो, मैं स्वयं स्थापत्या पुत्र का निष्क्रमण सत्कार करूँगा। (तएणं से कण्हे पासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हत्थिरयणं दुरुढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छद) ऐसा कहने के बाद में कृष्ण वासुदेव चतुरंगिणी सेना के साथ विजय नामके हस्ति रस्न पर आरूढ हो कर जहां स्थापत्यागाथापत्नी का भवन था वहां गये । (उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी) जाकर उन्होंने स्थापत्या पुत्र से इस प्रकार कहा- (माणं तुमें देवाणुप्पिया! मुंडे भवित्ता पन्वयाहि ) हे देवानुप्रिय ! तुम मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण मत करो गाहावइणी एवं वयासी) स्थापत्या पत्नी सापातने सालजीन ४ापासुदेव स्थापत्याआथापना ( अच्छा ही ण तुमं देवाणुप्पिए ! सुनिव्वुयो वीसत्था अहण्ण सयमेव थावच्चापुत्तस्स निक्खमणसक्कार करिस्सामि ) દેવાનુપ્રિયે! તમે આ વિષે નિશ્ચિત, સ્વસ્થ અને વિસ્વસ્થ રહે હું જાતે स्थापत्यापुत्रा निभy Sत्सव ४३रीश. (तएण से कण्हे वासुदेवे चाउरगिणीए सेणाए विजय हात्थिरयण दुरूढे समाणे जेणेव थावरचाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ) त्या२ ५छी वासुदेव यतुगी सेनानी साथै विन्यनामना ઉત્તમ હાથી ઉપર સવાર થઈ તે જ્યાં સ્થાપત્યગાથાપનીનું ભવન હતું ત્યાં गया. ( उवागाच्छित्ता थावच्चापुत्त एवं वयाखी) त्यांने तेभए स्थापत्या. पुत्रने या प्रमाणे ४थु-(माणं तुमें देवाणुप्पिया ! भवित्ता पव्वयाहि) हेवानु प्रिय ! भुडित थ २ तमे दी थी॥२नलि. (मुंजाहि ण देवाणुप्पिया !
For Private And Personal Use Only
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शासाधर्मकथा मम वाहुच्छाया परिगृहीतः बाहुच्छायां समाश्रितः सन् ' भुजाहि ' भुत्व, भासेक्स्व पुनः पुनर्विषयास्वादसुखेन विहरन् गृहे तिष्ठेत्यर्थः । केवलं तव देवा. नुप्रियस्याहं नो शवनोमि वायुकायमुपरितो गच्छन्तं निवारयितुम् , वायुरपशव्यतिरेकेण प्रतिकूलतया तव शरीरस्य स्पर्शने कोऽपि समर्थों नास्तीति भावः । अन्यः खलु देवानुप्रियस्य यत् किंचिदपि आचार्धा वा ईषत् पीडां वा व्याबाधां वा विशेअपीडां वा उत्पादयति, तत्सर्व निवारयिष्यामीत्यर्थः । मम राज्ये तव किमपि दुःखं नो भविष्यति, साहाय्यं ते करिष्यामि, अलं परमकष्टसाध्येन दीक्षा प्रहणेनेति भावः ॥ सू-१२॥ (भुंजाहि गं देवाणुप्पिया! विउले माणुस्सए कामभीए मम बाहुच्छाया परिग्गहिए ) हे देवानुप्रिय ! मेरी बाहच्छाया में रहते हुए तुम तो विपुल मनुष्य भव सम्बन्धी काम भोगो को भोगो। ( केवलं देवाणुप्पि यस्स अहं णो संचाएमि वायुकायं उवरिमेणं गच्छमाणं निवारित्तए) हे देवानुप्रिय ! प्रतिकूल होकर तुम्हारे शरीर को मेरी छत्रच्छाया में रहते हुए कोई स्पर्श तक भी नहीं कर सकता है परन्तु वायुकाप को तुम्हारे ऊपर से जाते हुए मुझ में रोकने की शक्ति नहीं है। अर्थात् वायु के सिवाय और किमी प्राणी में ऐसी शक्ति नहीं है जो मेरी छत्रच्छाया में रहे हुए तुम्हें विरुद्ध बन कर स्पर्श तक भी कर सके । ( अण्णे णं देवाणुप्पियस्स जे किंचि वि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएति तं सव्वं निवारेमि) वायुकाय के सिवाय यदि कोई दूसरी व्यक्ति देवानुप्रिय तुम्हारे लिये थोड़ी सी भी किसी भी प्रकार की पीड़ा या विशेष पीड़ा उत्पन्न करेगा तो वह सब में निवारित करता रहूँगा। विउले माणुस्सए कामभोए मम बाहुच्छाया परिगहिए) पानुप्रिय ! भारी माहुरछाया मा २डता तमे मनुष्यसपना पु०४ मा मागवा. (केवलं देवाणुप्पियस्स अहणो संचाएमि वायुकाय उवरिमेण गच्छमाणं निवारित्तए) હે દેવાનુપ્રિય! મારી છત્ર છાયામાં રહેતા તમને પ્રતિકૂળ થઈને કઈ સ્પર્શવાની પણ હિમ્મત કરશે નહિ. ફક્ત વાયુકાયને કે જે તમારી ઉપર થઈને પસાર થાય છે–રેકવાની તાકાત મારામાં નથી. એટલે કે પવન સિવાય બીજ કોઈ પણ પ્રાણી ની એવી હિમ્મત નથી કે મારી છત્ર છાયામાં રહેતા, પ્રતિ g॥ यई ने तमा। २५ ५५५ ४२री . ( अण्णे ण देवाणुप्पियस्स जे किं चि विआवाह वावाबाह वा उप्पाएति त सव्व निवारेमि) वायुयना सिवाय मी0 વ્યક્તિ તમને થેડી કે વધારે પીડા આપશે તે તેને હું મટાડીશ. મારા
For Private And Personal Use Only
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
___
www.kobatirth.org
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम्
मूलम्-तएणं से थावच्चापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जइ णं तुमं देवाणुप्पिया! मम जीवियंतकरणं मच्चु एज्जमाणं निवारेसि जरं वा सरीररूवविणासिणि सरीरं वा अइवयमाणं निवारेसि, तएणं अहं तब बाहुच्छाया परिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरामि ॥ सू० १३॥
टीका-'तएणं से थावच्चापुत्ते' इत्यादि । ततः खलु स स्थापत्यापुत्रः कृष्णवासुदेवेनैव मुक्तः सन् कृष्णं वासुदेवमेवमवादोत्-हे देवानुप्रिय ! यदि खलु त्वं मम " जीवियंतकरणं " जीवितान्तकरणं जीवनविनाशकारकं, ‘मच्छु' मृत्यु-मरणदुःखं, 'एज्जमाणं' एजमानन्-आगच्छन्तं, निवारयसि, 'जरं वा' कारण इस का यह है कि मेरे राज्य में तुम्हें कुछ भी कष्ट नहीं होगा। मैं सदा तुम्हारी सहायता करता रहूँगा। क्यों व्यर्थ में परम कष्ट साध्य दीक्षा ग्रहण करते हो- छोड़ो इसे । सूत्र " ११"
'तएणं से थावच्चापुत्ते कण्हे णं' इत्यादि ॥ ____टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से थावच्चापुत्ते कण्हे णं वासुदेवेणं) कुष्णवासुदेव के द्वारा इस प्रकार कहे गये उस स्थापत्यपुत्र ने (कण्हं वासदेव एवं वयासी) कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा-(जाणं तुम देवाणुप्पियो मम जीवियंतकरणमच्चु एजमाणं निवारेसि जरं वा सरीरस्वविणासिणि सरीरंवा अइवलमाणं निवारेसि) हे देवानुप्रिय ? यदि आपमेरे जीवन का अन्तकरने वाली आते हुए मृत्यु को मुझ से दूर રાજ્યમાં રહેતા તમને કઈ પણ જાતની તકલીફ થશે નહિ હંમેશા હું તમારી મદદ માટે પડખે ઉભેજું શું કામ વ્યર્થ કષ્ટ સાધ્ય-કઠણ-દીક્ષા ગ્રહણ કરવા તૈયાર થયા છે છોડી આ લપને ! સૂત્ર “૧૧ ”
( तएणं से थावच्चापुत्ते कण्हेणं इत्यादि )। Atथ-(त एण) त्या२ पछी (से थावच्चापुत्ते कण्हेण वासुदेवेण) वासुदेव १३॥ रीते ४उपासा स्थापत्या पुत्रे, (कण्ह वासुदेव एवं वयासी) ४०. पासुहेपने मा प्रमाणे ५धु-( जइण तुम देवाणुप्पिया मम जीवियतकरणमन्नू एज्जमाण निवारेसि जर वा सरीररूवविणासिणि सरीर वा अइवयमाणं निवारेसि) देवानुप्रिय ! न त भा२। न न ना ४२॥२ मृत्यु ते
For Private And Personal Use Only
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
জানাঘমকথা जरां वा=वृद्धावस्था वा शरीररूपविनाशिनी, शरीरं वा (वर्तमानशरीरं) 'अइवयमाणं' अतिपतन्तम्-आत्मनः सकाशात् सर्वथा वियुज्यमानं निवारयसि ततस्तदा खलु अहं तव बाहुच्छाया-परिगृहीतः भुजबलमाश्रितः सन् विपुलान् मानुष्यान कामभोगान् भुञ्जानो विहरामि-गृहे वत्स्यामीत्यर्थः ।
संसाराऽऽसक्तस्य जरामरणादि दुःखक्षयो न भवतीति संसारस्वरूपमिह संक्षेपेण निरूप्यते-आत्मकल्याणार्थी जनः खल्वेवं विभावयति___ एतत् खलु संसारसुखं तुच्छम् , अस्मिन् संसारे कर्मवशवर्तिनः पाणिनः केवलं मरणाय जायन्ते, म्रियन्तेऽपि जननायैव, यावन्तः कामभोगास्ते क्षणभ रा कर सकते हों तथा शरीर के स्वरूप को विनाश करनेवाली आती हुई जरावस्था को निवारण कर सकते होवें या नियमतः आत्मा के साथ सर्वथा वियुज्यमान इस शरीर को आप रोक सकते होवें (तएणं अहं तव पाहुच्छाया परिग्गहिए विउले माणुस्सए कमभोगे भुंजमाणे विहरामि) तो मैं आपकी भुजच्छाया का सहारालेकर विपुल मनुष्यभवसम्बन्धी कामभोगों को भोगता हुआ घर में रह सकता हूँ ! संसार में आसक्त हुए प्राणी के जरी मरण आदि के दुःखो का क्षय नहीं होता है इसलिये संसार का स्वरूप संक्षेप से यहाँ निरूपित कियाजाता है जो आत्मकल्याण के अर्थी मोक्षाभिलाषी जन होते हैं वे इस प्रकार से विचार करते हैं-यह सांसारिक सुख तुच्छ है। इस संसार में कर्मवशवर्ती हुए प्राणी केवल मरण प्राप्त करने के लिये ही जन्मते हैं और जन्म धारण करने के लिये ही मरते है। जितने भी कामभोग મારાથી દૂર કરી શકે છે, તેમજ શરીરના સ્વરૂપને નષ્ટ કરનાર ઘડપણને મટાડી શકે છે, આત્માથી વિયેગ પામતા આ શરીરને તમે વિયુક્ત થવા न हो (तएण अहं तव बाहुच्छाया परिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुजमाणे विहरामि) ते दुतमारी मामानी छायामा २डी पु०४॥ मनुष्य ભવના કામભેગે ભેગવતાં ઘરમાં જ રહી શકું તેમ છું. સંસારમા આસ ક્તિ રાખનાર પ્રાણુને જરા (ઘડપણ) મરણ વગેરે દુઃખ ને ક્ષય થતા નથી તેથી અહીં ટૂંકમાં સંસારના સ્વરૂપ વિષે ચર્ચા કરવામાં આવે છે. જે આત્મ કલ્યાણ ને જંખનાર મોક્ષાભિલાષી જન હોય છે, તે આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે આ સંસારનું સુખ નગણ્ય છે. આ સંસારમાં કર્મ વશ થઈને જીવ નારા પ્રાણીઓ ફક્ત મરણ પ્રાપ્ત કરવામાટે જ જન્મ પામે છે, અને જન્મ મેળવવા માટે જ મૃત્યુને ભેટે છે. સંસાર ના જેટલા કામ ભોગે છે તે
For Private And Personal Use Only
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्र निष्क्रमणम्
३५
आस्रवरूपा विपदां पदानि सन्ति । लोकवर्तिनः सर्वेऽपि पदार्थाः सिकताकणवत् परस्परमसंबद्धाः तेषां भोगोऽपि जीवस्य बन्धनाय पुनः पुनर्मोहजननाय भवति । मोहः खलु महागर्तस्तत्राज्ञानिनो जीवा निरर्थकमेव निपतन्ति । एतस्मिन् सुखाभासे संसारे ममकः सम्बन्धः | अज्ञानरजन्यां विवेकदृष्टौ मोहहृतायां सत्यां पञ्चेन्द्रियत्रयोविंशति विषय तदीय शतद्वयाधिकचत्वारिंशद्विकाररूपास्तस्करा आत्मगुणरूपाणि धनान्यपहरन्ति । यथा पथिकेभ्यो न रोचते निर्जला भूमिस्तथा ममेदं संसारसुखं प्रमोदाय न प्रभवति । यथा वा - शैलशिखरावस्थितपादपानां मूलानि वायुर्विशीर्णयति, तथोन्मूलयति भोगोऽपि जीवानां मनांसि यथा हैं - वे सब क्षणभंगुर हैं तथा इसकेद्वारा ही जीव नवीन कर्मों का आस्रव करता है - इसलिये ये आस्रवरूप हैं - विपदाओ के स्थानभूत हैं । इस लोक में जितने भी पदार्थ हैं वे सब बालु के कण के समान परस्पर में असंबद्ध हैं । इनका भोग भी जीव के लिये नवीन नवीन कर्मों का बंधदाता होता है और बार २ मोहका जनक होता है । मोह एक बड़ा भारी गर्त (खड्डा ) है । इसमें आत्मज्ञान से रहितहुए प्राणी निरर्थक ही गिरते रहते हैं । इस असारसंसार में मेरा किस से क्या नाता है । अज्ञान रात्रि में विवेकदृष्टि के मोहाच्छादित होने पर पांचो इन्द्रियों के २३, विषय और इन विषयों के भी २४०, विकार रूप तस्कर (चौर) आत्म गुण रूप धन का अपहरण करते रहते हैं। जिस तरह पथिक जनों के लिये निर्जल भूमि नहीं रुचती है उसी प्रकार मुझे यह संसार सुख नहीं रुचता है । अथवा जैसे पर्वत की चोटी पर रहे हुए वृक्षों की जड़ों
સર્વેક્ષણ ભંગુર છે, તેમજ એમના વડે જ જીવ કના આસ્રવ (કનું આત્મામાં દાખલ થવું) કરે છે. એટલા માટે આ બધા આસ્રવરૂપ છે અને વિપત્તિઓનું સ્થાન છે. આ જગતમાં જેટલાં પદાર્થો છે તેએ સવે રેતીના કણાની જેમ પર સ્પર અસંબદ્ધ છે. એમના ઉપભોગ પણ નવા નવા કર્મોના બંધનમાં પ્રાણીને સાવનાર છે. તે વારવાર મેાહજનક હાય છે. મેાહ (અજ્ઞાન) જાતે એક મેાટા ખાટા (ગ) છે. આત્મજ્ઞાન વગરના પ્રાણીઓ વ્યર્થ આમાં પડચા કરે છે. આ નિઃસાર જગતમાં મારા કેાની સાથે કેવા સંબધ છે ? અજ્ઞાત રાત્રિમા જ્યારે વિવેકની દૃષ્ટિ અજ્ઞાનથી ઢંકાઈ જાય છે ત્યારે પાંચ ઈન્દ્રિયાના ત્રેવીશ વિષયે અને
આ વિષયેાના પણુ બસેા ચાલીશ વિકાર રૂપી ચાર ( તસ્કર ) આત્મગુણુ રૂપી ધન ને ચારતા રહે છે. જેમ મુસાફરોને નિર્જળ પ્રદેશ ગમતા નથી તેમ જ મને પણ આ સ ́સાર સુખ સારું લાગતું નથી. જેમ પતા પર રહેલાં વૃક્ષના શિખા મૂળ પવન વિશીષ્ણુ ( છિન્નવિચ્છિન્ન ) કરી નાખે છે તેમજ સંસાર
For Private And Personal Use Only
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे पुरातनास्तरवः स्वकोटरस्थानलेन दह्यमाना अन्ते निपतन्ति तद्वदिह जीवाः कषायानलेन परितप्ता अशान्ता अन्ते नरकादौ निपतन्ति । अहमपि संसारदावानलेन परितप्तान्तःकरणः क्वापि बिषयमुखे शान्ति न पश्यामि । संपति मामकीनमन्तःकरणं जन्मजरामरणदुःखपाषाणैः परिपूर्ण वर्तते, तस्मात् साश्रुमुक्तकण्ठं च रोदनं कर्तुकामोऽपि न रोदिभि, इमे हि स्वजना रुदन्तं मामवलोक्य रोदिष्यन्ति । तस्मादसारेऽस्मिन् संसारे प्रव्रज्यैव मम शरणम् । अपरं चैवमसौ मृत्युजरास्वभावं विभावयतिको वायु विशीर्ण कर देती है उसी तरह सांसारिक भोग भी जीवोंके मन को विशीर्ण करदिया करता है अपने कोटर में अवस्थित अग्नि से जैसे पुराने वृक्ष जलकर अन्त में जमीन पर गिर पड़ते हैं उसी तरह इस संसार में कषायरूपअग्निसे परितप्त होकर अशान्त हुए ये जीव भी अन्त में नरकादि दुर्गतियों में जाकर गिरजाते हैं । मैं भी संसार दावानल से परितप्त अन्तःकरण होकर किसी भी वैषयिकसुख में शान्ति नहीं देख रहा हूँ। इस समय मेरा अन्तःकरण जन्म जरा
और मरण के दुःख रूप पाषाणों से परिपूर्ण बना हुआ है । अतः में चाहता हूँ कि मैं गला फाड २ कर खूब जोर २ से रोऊँ परन्तु नही रो सकता हूँ। कारण ये मेरे पीछे लगे हुए जो जन हैं वे मुझे रोता देखकर रोने लग जावेंगे । इस लिये सार विहीन इस संसार में कोई शर ण भूत मेरे लिये है तो वह एक प्रव्रज्या ही है । मृत्यु और जरोके स्वभाव को यह आत्म कल्याणार्थी इस प्रकार से विचारता है
ના ભોગે પણ જેના મનને વિશીર્ણ (જીર્ણ) કરી નાખે છે. પિતાની બલમાં સળગતે અગ્નિ જેમ જુનાં વૃક્ષને બાળીને છેવટે જમીન દસ્ત કરી નાખે છે, તેમજ આ સંસારમાં કષાય રૂપ અગ્નિમાં સંતપ્ત થઈને અશા ન થયેલા છે પણ અને નરક વગેરે દુર્ગતિઓમાં જઈને પડે છે. સંસાર દાવાનળથી સંતપ્ત થયેલું મારું મન કોઈ પણ વિષય સુખમાં શાંતિ જેતુ નથી. અત્યારે મારૂ મન જન્મ જરા (ઘડપણ) અને મરણના દુઃખ રૂપી પથ્થરોથી પરિપૂર્ણ થઈ ગયું છે. એથી મને તે એમ થાય છે કે હું મોટેથી બૂમ પાડી પાડીને ખૂબ. રડું પણ મારાથી રડાતું પણ નથી કેમકે મારા વજને મને રડતે જોઈને પોતે પણ રડવા માંડશે. એટલે નિઃસાર જગતમાં મારે કઈ આધાર છે તે તે પ્રવજ્યા જ કહી શકાય મૃત્યુ અને ઘડપણની ભયંકરતા વિષે વિચાર તે સ્થાપત્યા પુત્ર કહે છે. “ લાકડામાં ઊધઈ
For Private And Personal Use Only
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
readfort ीका २०५ स्थापत्यापुत्र निष्क्रमणम्
काष्ठं घुण इव मृत्युः शरीरमुत्खनति । मृत्युतक्षाः श्वासोच्छ्वासक्कचेन शरीरवृक्षं छिनत्ति । मृत्युः खलु रागद्वेषविषज्वालाव्याकुलतया तृषार्त इवाऽऽयुजलं पिबति । यथा तैलयन्त्रं तिलान् निष्पीडयति, तथा मृत्युः प्राणिनां शरीराणि निष्पीड्य नाशयति । स लोकत्रयवर्तिनः प्राणिनः क्षोभयति । मृत्योपरागमनं मागेव पण्मासतः सुराणामपि कल्पतरुपुष्परचितमालां मुकुलयति, चेतांसि तेषां शोकसागरे निमज्जयति । मूर्छान्धकारं पश्यन् मृत्युरूप उलूको धावन् समायाति ।
हिमानी कमलवनानि जरा पञ्चेन्द्रियाणि विकृतानि कुर्वती शिथिलयति । सा भक्षितविषवत् त्वरितमेव शरीरं संहरति । भार्याऽपि जरावस्थं पुरुषम् -' अयकाष्टको घुन की तरह मृत्यु मेरे शरीर को धुना रही है। मृत्युरूपी बढई श्वासोच्छ्वासरूप आरे से इस शरीररूप वृक्ष को रात दिन कोट रहा है। यह मृत्यु रागद्वेषरूप विषकी ज्वाला से व्याकुल जैसी बना हुआ तृषार्त की तरह आयुरूपीज़ल को पी रहा है जैसे तैल यंत्र - कोल्फ - तिलों कोपेल डालता है उसी प्रकार मृत्यु प्राणियोंके शरीर को निष्पीडित कर डालता है । ऐसा तीन लोक में कोई भी प्राणि नही है जो इस मृत्यु से क्षुभित न हो रहा हो। मृत्युके आगमन के छहमास के पहिले से देवताओं की भी कल्पवृक्षों के पुष्पों की रचित माला कुम्हला जाती है उनका मन शोक सागर में इस कारण से डूब जाता है। मूर्च्छारूपी अंधकार को देखकर मृत्युरूपी उलूक दौड़ता हुआ आ जाता है। हिम संतति (हिम समूह ) जिसतरह कमल वनो को विकृतकर शिथिलकर देती है उसी तरह जरावस्था भी पंचेन्द्रियों को विकृत कर शिथिल कर ની જેમ મૃત્યું મારા શરીરને નષ્ટ કરી રહ્યાં છે. મૃત્યુ રૂપી સુથાર શ્વાસેશ્ર્વાસ રૂપી કરવત વડે શરીર રૂપી વૃક્ષને રાત દિવસ કાપી રહ્યો છે. આ મૃત્યુ રાગદ્વેષ રૂપી વિષેની જવાળા થી વ્યાકુળ થઈને તરસ્યાની પેઠે આયુષ્ય જળને પી રહ્યુ છે. જેમ ઘણી તાને પીલી નાખે છે તેમજ મૃત્યુ પ્રાણીઓના શરીરને નિષ્પ્રાણ બનાવીને નષ્ટ કરીનાખે છે. ત્રણે લેકમાં એવું કાઈ પ્રાણી મને દેખાતું નથી કે જે મૃત્યુથી ક્ષેાભ પામતું ન હોય. મૃત્યુના છ મહિના પૂર્વે દેવાની પણ કલ્પ વૃક્ષના પુષ્પોની માળાએ ચીમળાઈ જાય છે. તેમનુ મન શેક સાગરમાં ડૂબી જાય છે. મૂર્છા રૂપી અંધારાને જોઇને મૃત્યુ રૂપી ઘુવડ દોડતા આવે છે. ઝાકળા જેમ કમળ વનોને નષ્ટ કરી નાખે છે, શિથિલ ખનાવીદે છે તેમજ ઘડપણ પાંચ ઇન્દ્રિયાને વિકૃત કરીને
For Private And Personal Use Only
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३८
शाताधर्मकथासूत्रे मुष्ट्र' इति मन्यते, पुत्रादयोऽपि नाद्रियन्ते । जराज्याला-श्वासकासधूमैर्जीव व्याकुलयन्ती यस्मिन् शरीरे प्रज्वलति, तद् भस्मसाद् करोति । जरा खलु सर्वापदामास्पदं प्रबलानलशिखेव सकलसुखमनोरथ विनाशिनी। अलमधिकेन मृत्युजरादि संसारस्वभावचिन्तनेन । मृत्युजरानलप्रतप्तस्य मम निष्क्रमणमेव शरणं भविष्यति, यतः
संसारमहारण्ये मनुष्यदेहः खलु समाधिरूपस्य कल्पतरोः क्षेत्रम् । तच्च विशिष्ट पुण्यपुञ्जरूपहलेन कृष्टम् । निष्क्रमणं तस्य वृक्षस्य बीजम् । वैराग्यजलाभिषेकेण डालता है। भक्षित विष की तरह तुरत ही शरीर को नष्ट कर देती है भार्या भी जरावस्थापन्नपुरुष को " यह उष्ट्र है " ऐसा मानने लगती है। पुत्रादिक उसका अपमान करने लगजाते है । वे इसका जरा भी सन्मान नही करते। यह जरारूपी ज्वाला श्वास कासरूपी धूम से जीव को व्याकुल करती हुई जिस शरीर मे प्रज्वलित होजाती है उसे भस्मसात ही कर डालती है। यह जरावस्था समस्त आपत्तियो का एक स्थान है। प्रबल अग्नि की ज्वाला के समान समस्त सुखों के मनोरथों को नाश करने वाली है। मृत्यु, जरा, आदि रूप संसार के स्वाभाव के चिन्तवन से अब बस रहो । मृत्यु तथा जरा रूप वह्नि की शिखा से प्रतप्त हुए मुझे तो अब निष्क्रमण (दीक्षा) ही एक शरण भूत होगा। कारण संसाररूप इस गहनवन में यह मनुष्य देह समाधि रूप कल्पवृक्ष का क्षेत्र है । यह विशिष्ट पुण्य पुंजरूप हल से जोता गया है। निष्क्रमण ( दीक्षा ) उस वृक्ष का बीज है वैराग्यरूा जल के सिंचन से શિથિલ કરી નાખે છે. ખાધેલા વિષની જેમ તે શરીરને જલદી નષ્ટ કરે છે. પત્ની પણ ઘરડા પુરુષને “આ ઉંટ છે” એમ માને છે. પુત્ર વગેરે પણ તેમને તિરસ્કારે છે. તેઓ ડુપણ તેમનું સન્માન કરતા નથી. આ ઘડપણની જવાળા શ્વાસ, કાસરૂપી ધુમાડાથી જીવને વ્યાકુળ કરીને જે શરીરમાં સળગી ઉઠે છે તેને ભસ્મીભૂત કરી નાખે છે. ઘડપણ બધી આફતોનું એકમાત્ર સ્થાન છે. વિકરાળ અગ્નિની જવાળાઓની પેઠે બધાં સુખ તેમજ મનેરને મૃત્યુ નાશ કરનાર છે. મૃત્યુ, ઘડપણ વગેરે ના સ્વભાવ વાળા આ જ ગત વિષે મારે હવે કંઈ વિચાર કરે નથી. મૃત્યુ તેમજ ઘડપણ રૂપી અગ્નિની જવાળાઓથી સંતપ્ત થયેલા મારામાટેતે હવે નિષ્કમણ એટલે કે દીક્ષા ગ્રહણ કરવી-જ શરણ ભૂત થશે કેમકે સંસારરૂપી ભયંકર વનમાં આ મનુષ્ય શરીર સમાધિ રૂપી કલ્પવૃક્ષનું ક્ષેત્ર છે. આ વિશિષ્ટ પ્રકારના ઉત્તમ પુરૂચી હળથી ખેડવામાં भाव्यु छ. निभाय ( दीक्षा) ते वृक्षतुं ( ४६५वृक्षन) मा छे. ३२॥३५॥
For Private And Personal Use Only
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम् ३९ समाधिरूपः कल्पतरुरुत्पद्यते च । वैराग्यजलाऽऽगमनमार्गरूपानालिका तत्र सद्भावना । ज्ञानदर्शनरूपाणि तत्र पुष्पाणि, स्वर्गापवर्गरूपाणि फलानि । देवलोके यत् सुखं, यच्च सिद्धावस्थां प्राप्तस्थानन्तसुखं, तदेव तत्फलरसः, इति ॥ सू०१२ ॥ ___ मूलम् -तएणं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्तेसमाणे थावच्चापुत्तं एवं वयासी-एएणं देवाणुप्पिया ! दुरतिकामणिज्जा णो खलु सका सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए जन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं, तएणं से थावच्चापुत्ते कण्हं वासुदेवं एवं वयासो-जइणं एए दुरतिकमणिज्जा णो खलु सका जाव नन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं तंइच्छामिणं देवाणुप्पिया! अन्नाणमिच्छत्तं अविरइकसायसंचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए ॥ सू० १३ ॥ ____टीका-'तएणं से कण्हे ' इत्यादि । ततः तदनन्तरं खलु स कृष्णवासु. देवः स्थापत्यापुरेणैवमुक्तः सन् स्थापत्यापुत्रम् एवं वक्ष्माणमकारेण अवादीत्समाधि रूप कल्पतरू उत्पन्न होता है और बढता है । वैराग्यरूप जल के आने के लिये मार्गरूप नाली के समान वहां सद्भावना है। ज्ञान रूप वहाँ पुष्प हैं। स्वर्ग एवं अपवर्ग ( मोक्ष रूप इसके फल है देवलोक में जो सुख है तथा सिद्धावस्था प्राप्त जीव को जो अनन्त सुख है वही सब इसके फलों का रस है ॥ सू० १२ ॥
'तएणं से कण्हे वासुदेवे' इत्यादि । ____टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद ( से कण्हे वासुदेवे उन कृष्ण वासुदेव ने ( थावच्चापुत्तेणं एवं बुत्ते समाणे ) स्थापत्या पुत्र के इस प्रकार कहने पर ( एवं वयासी) उससे ऐसा कहा-(एएणं देवाणुप्पिया ! જળના સિંચનથી સમાધિરૂપી કલ્પતરુ ઉત્પન્ન થાય છે અને વધે છે વૈરાગ્યરૂપી પાણીને લાવવા માટે સદ્ભાવનાઓ રૂપી નાળી છે. જ્ઞાન દર્શન જ ત્યાં પુષ્પ છે. દેવલોકમાંનું સુખ તેમજ સિદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત જીવને જે અન ત સુખ છે તેજ આ બધા ફળને રસ છે ! સૂત્ર ૧૨ ૫ (तएण से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ॥)
अर्थ-(तएण) त्या२ पछी (से कण्हे वासुदेवे) ] पासुहेव (थावच्चा पुत्तेण' एव'वुत्ते समाणे ) स्थापत्या पुत्रनी २ पात सलमीन ( एवं वयासी)
For Private And Personal Use Only
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४०
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे हे देवानुप्रिय ! एते मृत्युजरादयः खलु दुरतिक्रमणीयाः दुःपरिहरणीया, दुनिवारा इत्यर्थः । एयमेवार्थ स्पष्टीकुर्वन्नाह-' णो खलु सक्का' इत्यादि । नो खलु शक्याः सुबलि केन अनन्तबलवता देवेन-तीर्थकरेणापि, यद्वा-महाबलवता केनापि देवेन, दानवेन वा निवारयितुं निवर्तयितुं नो खलुः शक्याः, मृत्युजरादय इत्यन्वयः । देवो वा दानवो वा मृत्युजरादीन् रिपून वारयितुं समर्थो नास्तीत्यर्थः । नान्यत्रात्मनः कर्मक्षयेण आत्मसंचितसकलकर्मक्षयं विनाऽन्योपायेन मृत्युजरादि परिहारो नैव भविष्यतीति भावः ।
ततः खलु स स्थापत्यापुत्रः कृष्णवासुदेवमेवमवादीत्-यदि खलु एते दुरतिक्रमणीया नो खलु शक्या:-यावत्-यावत्करणादत्र-''सुबलिकेन देवेन दानदुरतिकमणिन्जा णो खलु सका सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए णन्नत्थं अप्पणो कम्मक्खएणं) हे देवानुप्रिय ! ये मृत्यु जरा आदि दुरतिक्रमणीय हैं दुःपरिहरणीय हैं। इसका निवारण करना संसारावस्था जीव के लिये सर्वथा अशक्य है। इसी अर्थ को सूत्रकार स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि सुबलिक अनन्त बल के स्वामी तीर्थंकर देव भी अथवा महाबलवान कोई भी देव या दानव इन मृत्यु जरा
आदि कों को निवारण करने के लिये सामर्थ्य शाली नहीं हो सके हैं। केवल आत्म संचित सकल कर्मों का क्षय ही एक ऐसा उपाय है जो इनका निवारण कर सकता है। इनके सिवाय और कोई दूसरा उपाय नहीं है । ( तएणं से थावच्चापुत्ते कण्हं वासुदेवं एवं वयासी ) कृष्ण वासुदेव की इस बात को सुनकर स्थापत्यापुत्र ने तब उन से इस प्रकार कहा- ( जहणं एए दुरतिक्कमणिजा णो खलु सक्का जाव नतेम ४j (एए ण देवाणुप्पिया ! दुरतिक्कमणिज्जा णो खलु सक्का सुबलिएणा वि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए जन्नत्थ अपणो कम्मक्खएण) હે દેવાનુપ્રિય ! આ મૃત્યુ વગેરે દુરતીકમણીય છે. સંસારમાં રહેતા પ્રાણીને માટે તેનું નિવારણ અશક્ય છે. “સૂત્રકાર અહીં એજ અર્થને સ્પષ્ટ કરતાં કહે છે કે સુબલિક એટલે કે અનન્ત બળશાળી તીર્થંકર દેવ અથવા તે મહાબળવાન કેઈ દેવ કે દાનવ પણ આ મૃત્યુ ઘડપણ વગેરે ને દૂર કરવાનું સામશ્ય ધરાવી શકયા નથી. ફકત આત્મ સંચિત સકળ કમેને ક્ષયજ એક માત્ર ઉપાય છે કે જે આ મૃત્યુ, ઘડપણુ વગેરેનું નિવારણ કરી શકે. એના સિવાય भी 5 S4यसभने माता नथी (तएण से थावच्यापुत्ते कई वासुदेव एवं बयासी) ४५ पासुहेवनी म पात सजीन स्थापत्या पुत्रे मन मा प्रमाणे युं (जइण' एए दुरतिक्कमणिज्जा णो खलु सक्का जाव नन्नत्थ
For Private And Personal Use Only
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवषिणो टीका अ०५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम् ॥ वेन वा निवारयितुम् ' इति पूर्वक्तिपाठस्य संग्रहः । अन्यत्रात्मनः कर्मक्षयेण, तद्-तस्मात् , हे देवानुप्रिय ! ' अन्नाणमिच्छत्त अविरइ-कसायसंचियम्स' अज्ञानमिथ्यात्वाविरतिकपायसश्चितस्य अज्ञानम्-ज्ञानावरणीयोदयजनितात्मपरिणामरूपं संशयविपर्ययादिलक्षणं मिथ्याज्ञानं, मिथ्यात्वं मिथ्यात्वमोहनीयोदयजनितात्मपरिणामरूपं तत्वार्थाश्रद्धानं कुदेवादिषु सुदेवादिबुद्धिर्वा, अविरतिः विरतेविपरीताऽविरतिः, अनिवृत्तिः हिंसादि पापस्थानेभ्यो परिणामाभावः, सावध प्रवृत्तिरित्यर्थः । कषायाः क्रोधमानादयः, तैः संचितस्य युक्तस्य आत्मनः कर्मक्षयं ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मणां नाशं कर्तुमिच्छामि खलु इत्यन्वयः ॥ मू०१३ ।। प्रस्थ अप्पणो कम्मक्खएणं तं इच्छाभिणं देवाणुप्पियो ! अन्नाणमिच्छत्त अविरइकसाय संचियस्म अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए ) यदि ये जन्म जरा आदि दुरतिक्रमणीय हैं इन्हें दूर करने के लिये सुबलिक देव दानव भी समर्थ नहीं हैं केवल कर्म क्षय ही इनकी निवृत्ति का उपाय हैजब ऐसी बात है तो हे देवानुप्रिय ! मैं ज्ञानावरणीय के उदय से जनित आत्म परिणामरूप अज्ञान से-संशय विपर्यय आदि रूप मिथ्या ज्ञान से-मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से जनित तत्त्वार्थ अश्रद्धो न रूप आत्मपरिणाम से-अथवा कुदेव आदि मे सुदेव आदि की विपरीताभि निवेश रूप बुद्धि से हिंसादिक पापस्थानो से अनिवृत्ति रूप परिणाम से सावध कार्यों में प्रवृत्ति से क्रोध मान आदि रूप कषायों से संचित किये गये इन ज्ञानावरणीय आदि रूप आठ प्रकार के कर्मों को क्षय करने की इच्छा कर रहा हूँ। सूत्र " १३ " अपणो कम्मक्खएण त इच्छामि ॥ देवाणुप्पिया ! अन्नाणमिच्छत्त अविरइ कसाय संचियस्स अत्तणो कम्मक्खय करित्तए) ने मे म ४२ (घ५) वगैरे દરતી કમણીય છે, એમનોથી મુક્તિ મેળવવાની સુબલિક દેવ દાનવ પણ સામર્થ્ય ધરાવતા નથી. ફક્ત કર્મ-ક્ષય જ એમની નિવૃત્તિને ઉપાય છે, ત્યારે હે દેવાનુપ્રિય! હું જ્ઞાનાવરણયના ઉદયથી જનિત આત્મપરિણામરૂપ અજ્ઞાનથી સંશય વિપર્યય વગેરેના મિથ્યા જ્ઞાનથી, મિથ્યાત્વ મોહનીયના ઉદયથી જનિત તત્વાર્થ અશ્રદ્ધાન રૂ૫ આત્મ પરિણામથી, અથવા તે કુદેવ વગેરેમાં સુદેવ વગેરેની વિપરીતાભિનિવેશરૂપ બુદ્ધિથી, હિંસા વગેરે પાપનાં સ્થાનેથી, અનિ.
તિરૂપ પરિણામથી, સાવદ્ય કામમાં પ્રવૃત્તિથી ક્રોધ, માન વગેરે કષાયોથી સંચિત કરવામાં આવેલા જ્ઞાનાવરણીય વગેરે ના આઠ પ્રકારના કર્મોને क्षय या छु. ॥ सूत्र १३ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मूलम् - तणं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासीगच्छहणं देवाप्पिया! वारवइए नयरएि सिंघाडगतियग चउर जाव हरिथखंधवरगया महया महया सदेणं उग्घोसेमाणा २ उग्घोसणं करेह
-
एवं खलु देवानुष्पिया ! थावच्चापुत्ते संसारभउठिवग्गे भीए जम्मणमरणाणं इच्छइ अरहतो अरिट्ठनेमिस्स अंतिए मुंडे भविता पव्वइत्तए तं जो खलु देवाणुप्पिया राया वा जुवराया वा देवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलवरे वा कोडुंबिय माडंबिय इब्भसेहि-- सेणावइसत्थवाहे वा थावच्चापुत्तं पव्वयंतमणुपव्वयंति तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणइ, पच्छातुरस्सविय से मित्तनाइ । नियगसंबंधि परिजणस्स जोगखेमं वहमाणं पडिवहति तिकट्टु घोसणं घोसेह जाव घोसंति ॥सू०१४॥
टीका- ' तरणं से कहे ' इत्यादि । ततः खलु स कृष्णवासुदेवः स्थापत्या पुत्रेणैवमुक्तः सन् कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति = आह्वयति, शब्दयित्वा = आहूय, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - हे देवानुप्रियाः । यूयं गच्छत द्वारवत्या नगर्या तएण से कहे वासुदेवे ' इत्यादि ।
'
टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद ( से कण्हे वासुदेवे ) वे कृष्ण वासुदेव जब ( थावच्चा पुत्तणं ) स्थापत्या पुत्र के द्वारा ( एवं बुत्ते समाणे ) इस प्रकार कहने पर उन्हों ने ( कोडुंबिय पुरिसे सहावेह) कौटुम्बिक पुरूषों को बुलाया (सद्दावित्ता एवं वयासी) और बुलाकर उनसे ऐसा कहा
(तरण से कण्हे वासुदेवे ) हत्याहि
For Private And Personal Use Only
टीडार्थ – (तएण ) त्यारमा ( से कण्हे वासुदेवे ) ते सॄष्णु वासुदेवने न्यारे ( भावच्चापुत्त्रेण ) स्थापत्या पुत्रे ( एवं वुत्ते समोणे ) भारीते अह्युं त्यारे àng (sigfaa għà açıàş) Aglais yṣùia Malo, (acifaat,
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम् शहाटकत्रिक चतुष्कचत्वरेषु यावत्-महापथेषु-राजमार्गेषु ' हथिकंधवरगया' हस्तिस्कन्धवरगता गजस्कन्धारूढाः महता महता शब्देन उद्घोषयन्तः २ ब्रुवन्तः उद्घोषणं कुरुत । तदुद्घोषणस्वरूपमाह-' एवं खलु ' इत्यादि ।
एवं खलु हे देवानुपियाः ! अयं स्थापत्यापुत्रः संसारभयोद्विग्नः भीतो जन्ममरणेभ्यः अर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तिके मुण्डो भूत्वा प्रबजितुमिच्छति, तद् तस्मात् कारणात् हे देवानुपियाः ! यः कश्चित् खलु-राजा वा युवराजो वा देवी राशी वा राजकुमारो वा ईश्वरो वा तलवरो वा कौटुम्बिकमाडम्बिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापति(गच्छह णं देवाणुप्पिया वारवइए नयरी ए सिंघाडग तियग चउक्कचच्चरजावहत्थिखंधवरगयो महया महयो सद्देणं उग्घोसेमाणा२ उग्घोसणं करेह ) हे देवानुप्रियो । तुम जाओ और द्वारावती नगरी के शृंगाटक, त्रिक,चतुष्क, चत्वर यावत्-आदि-महापथोंमें-राजमार्गों में- हाथी के स्कन्ध पर चढे हुए तुम सब लोग बडे जोर २ बोलते हुए ऐसी घोषणा करो (एवं खलु देवानुप्पिया। थावच्चा पुत्ते संसारभउव्विग्गे भीए जम्ममरणा णं इच्छइ अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए) हे देवानुप्रियों ! सुनो-यह स्थापत्यापुत्र संसार के भय से उद्विग्न तथा जन्ममरण से भयभीत होकर अहंत अरिष्टनेमिप्रभु के पास मुंडित बन दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा कर रहा हैं-(तं जो खलु देवाणुप्पिया राया वा जुवराया वा देवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलवरे वा कोडुंबिय माडंपिय इन्भसेडिसेणावइ सत्थवाहे व थावच्चापुत्ते पचयतमणुपन्वयति तस्सणं कण्हे वासुदेवे अणुजागइ ) सो हे देवानुप्रियो ! जो कोई राजा, एवं वयासी ) भने मतावाने तेमने धु-( गच्छह ण देवाणुप्पिया ! वारवइए नयरीए सिंघाडगतियगचउक्कचच्चर जाव हथिखधवरगया महया महयो सहेण उग्घोसेमाणा २ उग्घोसण करेह ) पानुप्रियो ! तभेन। मने बारवती નગરીના શૃંગાટક ત્રિક ચતુષ્ક, ચવર વગેરે મહાપથમાં, રાજમાર્ગોમાં હાથી 5५२ सवार येता तमे मा भोटर साहे भाम घोषित ४।-(एवं खलु देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्ते संसारभउचिग्गे भीए जम्भमरणाणं इच्छइ अरहओ अरिद्रनेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता पवईत्तए) , पानुप्रियो सालो मा સ્થાપત્યા પુત્ર સંસારભયથી વ્યાકુળ તેમજ જન્મ અને મૃત્યુથી ભયગ્રસ્ત થઈને અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુની પાસે મુંડિત થઈને દીક્ષા ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા राजे छ (तं जो खलु देवांणुप्पि या ! रोया वा जुवरा या वा देवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलवरेवा कोडुबिय माडबिय इन्भसेट्रिसेणावइसत्थवाहेवा थावस्थापुतं पञ्चायतमणुपव्वयति तस्स ण कण्हे वासुदेवे अणुजाणइ ) तो
For Private And Personal Use Only
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे सार्थवाहा स्थापत्यापुनं प्रव्रजन्तमनुप्रव्रजति स्थापत्यापुत्रेश सह यः कोऽपि निष्क्रमणं कर्तुमिच्छति तस्मै खलु कृष्णवासुदेवः ‘अणुजाणइ ' अनुजानाति, आज्ञा ददाति । ' पच्छाउरस्सविय' पश्चादातुरस्यापि च-पश्चात् आतुरस्य-द्रव्याद्यमावाद् दुःखितस्य तस्य-तत्सम्बन्धिनः मित्रज्ञातिनिजकसम्बन्धिपरिजनस्य 'जोगखेमं ' योगक्षेमं अलब्धलाभो योगः लब्धपरिरक्षण क्षेमं तयोः समाहारद्वन्द्वः योगक्षेमं वर्तमान प्रतिवहति ये प्रव्रज्यायां प्रवृत्ता भविष्यन्ति, तत्सम्बन्धिमित्रादीनां यत् खलु योगक्षेमरूपकार्य कर्तव्यतया वर्तते, तत् सर्व कृष्णवासुदेवः संपादयिष्यतीत्यर्थः । इति कृत्वा इत्येवं विज्ञापनं मनसि निधाय घोषणां वार्तारूपां, घोषयत ययेयं वार्ता द्वारावतीनगरो निवासिनां सर्वेषां कर्णगता भवेत् , युवराज, देवी, राज्ञी, राजकुमार ईश्वर, तलघर, कौडम्बिक, माण्डविक, इभ्यश्रेष्ठी, सेनापति अथवा सार्थवाह स्थापत्यापुत्र के साथ दीक्षा लेना चाहते हो उसलिये कृष्णवासुदेवे आज्ञा प्रदान करते हैं (पच्छातुरस्स विय से मित्तनाईनियगसंबंधिपरिजणस्स जोगखेमं वट्टमाणं पडिवहति त्ति कटूटुघोसणं घोसेह जाव घोसंति ) जो दीक्षा लेनेवाले के कुटुंबी जन किसी भी प्रकार से दुःखी होंगे तो उनके संबंधी मित्र, ज्ञाति, निजक, संबंधी परिजन के योग क्षेम को भी कृष्ण वासुदेव करेंगे तात्पर्य इसका यह है कि जो जन प्रव्रज्या में प्रवृत्त होंगे उनके सम्बन्धी मित्रादिको का जो कर्तव्यतया योग-अलब्ध का लाभ, क्षेमलब्ध का परिरक्षण रूप कार्य होगा वह सब कृष्ण वासुदेव संपादित करेगा “ इस प्रकार की इस घोषणा को हे देवानुप्रियों ! तुम अपने चित्त में अच्छी तरह धारण कर जिस प्रकार यह बात द्वारावती नगरी દેવાનુપ્રિયે ? જે કંઈ રાજા, યુવરાજ, દેવી, રાજકુમાર, ઈશ્વર, તલવર કૌટુંબિક, મારુંબિકઈભ્ય, શ્રેષ્ઠી, સેનાપતિ કે સાર્થવાહ સ્થાપત્યા પુત્રની સાથે દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ચાહે છે તેમના માટે કૃષ્ણ વાસુદેવ દીક્ષા સ્વીકારવાનિ આજ્ઞા પ્રદાન ४२ छे. ( पच्छातुरस्स वि य से मित्तनाई नियगसंबंधिारिजणस जोगखेम वहमाण पडिवहति त्ति कटु घोसण घोसेह जाव घोसति ) दीक्षालनार भी। જે તેમની દીક્ષાબાદ ગમેતે પ્રકારે દુખી હશે તે તેમના સંબંધી, મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક સંબંધી પરિજનનું ચોગક્ષેમ પણ કૃષ્ણ વાસુદેવ કરશે અને ભાવાર્થ એ પ્રમાણે છે કે જે માણસે પ્રવજયા પ્રહણ કરશે તેમના સંબંધી મિત્ર વગેરેનું જે કર્તવ્યથાયોગ-અલખ્યને લાભ, ક્ષેમ-લખ્યનું પરિરક્ષણરૂપ કાર્ય થશે-તે બધું કૃષ્ણ વાસુદેવ પુરું કરશે. હે દેવાનુપ્રિયે ? આ છેષણને તમે સારી પેઠે ચિત્તમાં ધારણ કરે જેથી દ્વારાવતી નગરીના દરેકે દરેક માણસ
For Private And Personal Use Only
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्र निष्क्रमणम् तथोच्चैः स्वरेण दुन्दुभ्यादिवाद्यैः सह भाषणं कुरुतेत्यर्थः । यावद् घोषयन्ति । कृष्णवासुदेवस्यादेशानुसारेण आदेशकारिणः पुरुषाः द्वारावत्यां नगर्या घोषणां कृतवन्त इत्यर्थः ॥ मु० १४ ॥
मूलम् - तणं थावच्चापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं निक्खमणाभिमुहं हायं सव्वालंकारविभूसिय पत्तेयं २ पुरिससहस्स वाहिणीसु सिबियासु दुरूढं समाणं मित्तणाइपरिवुडं थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउन्भूयं, तएणं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्समंतियं पाउन्भवमाणं पासइ, पासित्ता कोडुंबिय पुरिसे सहावे, सदावित्ता एवं वयासी
जहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ तहेव सेयानीएहिं (कल से हिं) पहावेइ, महावित्ता जाव अरहतो अरिट्ठनेमिस्स छत्ताइच्छत्तं पडागातिपडागं पासइ, पासित्ता विज्जाहरचारणे जाव पासित्ता सिबियाओ पच्चोरुहइ ॥ सू० १५ ॥
,
-
टीका – 'तपणं ' इत्यादि । स्थापत्यापुत्रस्य अनुरागेण = स्नेहेन पुरुषसहस्रं निष्क्रमणाभिमुखं स्नातं सर्वालङ्कारविभूषितं प्रत्येकं प्रत्येकं पुरुषसहस्रवाहिनीषु के समस्त मनुष्यों के कर्णे गोचर हो सके इस तरह से बडे २ जोर से दुंदुभि आदि बाजों के साथ करो । इस तरह कृष्णवासुदेव की इस आज्ञा को उन आदेश कारीपुरूषों ने प्रमाणभूत मान कर उसे द्वारावती नगरी में घोषित करके सुना दिया। सूत्र “ १४ ' तरणं थावच्चा पुत्तस्स ' इत्यादि ।
39
टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद (थावच्चापुत्तस्स अणुराएणं) स्थापत्य पुत्र के अनुराग से ( पुरिससहस्से ) १ हजार पुरुष (निक्खमणाभि સુધી આ વાત સારી રીતે પહેાંચી શકે તમે મેાટેથી દુદુભિ વગેરે વાજા એ વગાડો અને આ વાતની ઘેાષણા કરી કૃષ્ણ વાસુદેવની આજ્ઞાને કૌટુંબિક પુરુષાએ સપ્રમાણુ માનીને દ્વારાવતી નગરીમાં તેની ઘેાષણા કરી. ॥ સૂત્ર ૧૪ ॥
( तण थावच्चापुत्तस्स इत्यादि )
टीडार्थ - (तएण ) त्यारमा ( थावच्चापुत्तस्स अणुराएण ) स्थापत्यापुत्र प्रत्ये विशेष प्रेम होवाने अरगे (पुरिस सहस्स) मे उन्नर पुरुषो ( निक्ख
For Private And Personal Use Only
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
1
शिविकास दुरूढं समारूढं सत् मित्रज्ञातिपरिवृतं स्थापत्यापुत्रस्य अन्तिके समीपे प्रादुर्भूतम् उपस्थितम् । ततः खलु स कृष्णवासुदेवोऽन्तिके 'पाउन्भवमाणं' प्रादुर्भवत् पुरुषसहस्रं पश्यति, दृष्ट्वा कौटुम्बिक पुरुषान् आदेशकारिणः पुरुषान शब्दयति, शब्दयित्वा एवं = त्रक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् यथा मेघस्य निष्क्रमणाभिषेकः, तथैव 'सेयापीए हिं' श्वेतपीतैः जलपूर्णरूप्य सुवर्णमयैः कलशैः कृष्णवासुदेवः दीक्षोत्सुकं पुरुषसहस्रसहितं - स्थापत्या पुत्रं स्नपयति, स्नपयित्वा यावद्द्यलङ्कारविभूषितं कृत्वा पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकामारो कृष्णवासुदेवः द्वारावतीनगरी मध्यभागेन गत्वा - अर्हतोऽरिष्टनेमेः छत्रोपरिन्छ छत्रत्रयं पताकातिपताकां = पताको परिपताकां पुरुष वृन्दैः सह पश्चति । 'विज्नाहरवारणे' विद्याधरचारणात् विद्याधरान् = मुहं) निष्क्रमण के सन्मुख हो गये अर्थात् दीक्षित होने के लिए तैयार हो गये ( व्हायं ) उन्होंनेस्नात करके ( सव्वालंकर विभूसियं ) सब प्रकार के अलंकारो से अपने २ शरीर को विभूषित किया (पत्तेयं २पुरिसहस्वाहिणी सिबियास दुरूढं समाणं मित्तणाइपरिवुड ) बाद में मित्रादि परिजनों से युक्त हुआ प्रत्येक व्यक्ति उन मेंसे १ हजार पुरुषों को वहन करनेवाली शिबिकापर आरूढ होकर ( थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउन्भूयं ) स्थापत्या पुत्र के पास आया । ( तएण से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्समंनियं पाउदभवमाणं पासइ ) जब कृष्ण वासुदेव ने पुरुष सहस्रको स्थापत्यापुत्र के पास आया हुआ देखा तो (पासित्ता कोडुंबिय पुरिसे सहावेइ) देखकर उन्होंने कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया (सद्दावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा - ( जहा मेहस्स निक्मणाभिसेओ तहेव सेया पीएहिं पहावे, हा वित्ता जाव अरहओ अरिट्टनेमिस्स छत्ता इच्छन्तं पडागाइपडागं पासइ - पासिता मणाभिमुह ) निष्टुभाशु ( दीक्षा ) भाटे तैयार था गया. ( हायं ) तेथे। नहाया, ( सव्वा करविभूसिय) सधी लतनां धरेलांगोथी तेभने पोतानां शरीर शगुणार्थी (पत्तेय २ पुरिससहस्वाहिणी सित्रियासु दुरूद' समाण मित्तणाई परिवुड ) त्यार माह मित्र वगेरे पनि साथे तेथेामांथी हरे, दीक्षार्थी
डलर पुरुषो वहन उरे मेवी पाहाणी उपर सवार थने ( थावच्च । पुत्तस्स अत्तियां पाउडभूय' ) स्थापल्या पुत्रनी पासे भन्यो, (तएण से कहे वासुदेवे पुरिसहस्समंतिय पाउन्भवमाण' पासइ) कृष्णुवासुदेवे न्यारे मेम्डर पुरुषाने स्थापत्यापुत्रने त्यां वेद्या लेया ( पाक्षित कोडु बिय पुरिसे सहावेइ ) तेभाणे छोटुभिङ पुरुषाने मोलाव्या. ( सहा वित्त ए बयासी) गोसावीने तेमने B. ( जदा मेहस्व निक्खमणाभिसे ओ तत्र सेयापीएहिं ण्हावेइ हावित्ता जब अरहओ अgिने मिस्स छत्ताइच्छत पडागाइपडागं पाइ पासिता विज्जा
For Private And Personal Use Only
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम् चारणश्रमणान् यावत्-अत्र 'जंभए य देवे ओवयमाणे' इत्यादि पाठोऽनुसन्धेयः, जुम्भकदेवांश्च गगनादवतरतः पश्यति, दृष्ट्वा शिविकातः ' पच्चोरुहइ ' प्रत्यवरोहति अवतरति ।। १५॥ ___मूलम्-तएणं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरिहा अरिहनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेसं सव्वं तं चेव आभरण० तएणं से थावच्चागाहावइणा हंसल. क्खणेणं पडगसाडएणं आभरणमल्लालंकारे पडिच्छइ, हारवारि धारछिन्नमुत्तावलिप्पगासातिं अंसूणि विणिम्मुंचमाणी २ एवं वयासीविजाहरचारणे जाव पासित्ता सिवियाओ पच्चोरुहइ) जिस प्रकार मेघ कुमार का निष्क्रमणाभिषेक ( दीक्षाका उत्सव ) हुआ था उसी प्रकार जलपूर्ण श्वेतपीतकलशो द्वारा - रूप्यसुवर्णके घटों द्वारा कृष्णवासुदेव ने दीक्षा के उत्सुक - हजार पुरुष सहित स्थापत्यापुत्र का अभिषेक किया। अभिषेक कर के फिर उन्होने उसे सर्व प्रकारके अलंकारोंसे विभूषित किया। विभूषित करके फिरवे उसे पुरुष सहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ़ कराकर द्वारावती नगरी के ठीक बीचो बिच से होकर लेचले। चलते २ जब उन्हों ने अहंत अरिष्टनेमिप्रभु के छत्रोपरिछत्र-तीन छत्रों को और पताको परिपताकाको पुरुषवृन्दों के साथ देखा-तथो विद्याधरों को चारण श्रमणों को आकाश से उतरते हुए मुंभक देवों को देखातो देख कर वे शिविका से नीचे उतरे ॥ सू० १५ ॥ हरचारणे जाव पासित्ता सिवियाओ पच्चोरुहइ ) म मधपारने नि08મણાભિષેક થયે તેમજ જળથી પરિપૂર્ણ સફેદ પીળા કળશ વડે તેમજ ચાંદી સેનાના ઘડાઓ વડે કૃષ્ણ વાસુદેવે દીક્ષાર્થ સ્થાપત્યા પુત્ર તેમજ તેની સાથેના એક હજાર પુરુષને અભિષેક કર્યો. અભિષેક પછી તેમણે તેને બધાં ઘરેણાઓ થી શણગાર્યો. શણગાર્યા બાદ તે પુરુષ સહસ્ત્ર વાહિની પાલખી ઉપર સ્થાપત્યા પુત્રને બેસાડીને દ્વારાવતી નગરીની બરાબર વચ્ચે ના માર્ગે થઈને ચાલ્યા. જતાં જતાં જ્યારે તેઓએ અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુના છત્ર ઉપર છત્ર આમ ત્રણ ઉપરા ઉપરી છત્ર, પતાકાની ઉપર પતાકાઓને તેમજ પુરુષ સમાજને જે અને વિદ્યાધરોને ચારણ શ્રમણોને આકાશમાંથી નીચે ઉતરતા, તે જ જભકદેને જોયા ત્યારે જોઈને તેઓ પાલખી ઉપરથી નીચે ઉતરી પડયા ૧૫
For Private And Personal Use Only
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
«
www. kobatirth.org
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
जइयव्वं जाया ! घडियव्वं जाया ! परिक्कमियव्वं जाया ! अस्सि चणं अट्ठे णोपमाएयव्वं जामेवदिसिं पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया || सू० १६ ॥
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
6
तएण से कहे ' इत्यादि ।
9
टीका - ततः खलु स कृष्णवासुदेवः स्थापत्यापुत्रं पुरतः ' काउं कृत्वा यत्र अन् अरिष्टनेमिः, तत्रैवोपागच्छति अवमुञ्चति । उपागत्य शेषं सर्वं तदेव शेषं = आदक्षिणप्रदक्षिणादिकं सर्वं चरितं यत् खलु मेघकुमारस्य तदेवात्र वाच्यम् । स्थापत्य पुत्रोऽर्हतोऽरिष्टनेमेः समीपादीशान कोण दिग्भागे स्वयमेव ' आभरणम लालंकारे ' आभरणमाल्यालङ्कारान् ' ओमुयइ ' अवमुञ्चति अवतारयति । ततः खलु सा स्थापत्यागाथापत्नी हंसलक्षणेन हंसस्त्ररूपेण शुक्लवर्णेन 'पडगसाडए 'पटशाटकेन पृथुलवस्त्रेण आभरणमाल्यालङ्कारान् प्रतीच्छति प्रतिगृह्णाति ।
तएण से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद ( से कण्हे वासुदेवे ) वे कृष्णवासुदेवे (थावच्चा पुत्तं ) स्थापत्या पुत्र को (पुरओकाउ ) आगे करके ( जेणेव अरिहा अट्टिनेमि तेणेव उवागच्छइ ) जहां अहंत अरिष्टनेमि प्रभु थे वहां गये (उवागच्छन्ता सेसं सव्वं तं चेव आभरण०) वहां जाकर उन्हों ने प्रभु की आदक्षिण प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दना की। मेघकुमार ने दीक्षा अंगीकार करते समय जो कुछ किया वह सब वहां स्थापत्या पुत्र ने भी किया बाद में स्थापत्या पुत्रने अरिष्टनेमि प्रभु के पास से ईशानकोण में जाकर स्वयं ही अपने माला और अलंकारों को उत्तारा (तएणं से) इस समय वहाँ उपस्थित रही हुई उसकी माता गाथा पत्नी ने हंस के जैसी शुक्लवर्णवाली अपनी पटशाटिका में उनअवता
( तएण से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ) ॥
टीडअर्थ – (तरण') त्यारमाह (से कण्हे वासुदेवे) कृष्णुवासुदेव (थानचा पुत स्थापत्या पुत्रने ( पुरओ काउ ) भागण शमीने ( जेणेत्र अरिहा अठ्ठिनेमी तेणेत्र उवागच्छइ ) नयां अत अरिष्टनेमि प्रभु हता त्यां गया. ( उवागच्छित्ता सेस सव्व ं तचेत्र आभरण० ) त्यां भ्छने ते अलुनी मादक्षिण अहક્ષિણની સાથે વંદના કરી મેઘકુમારે દીક્ષા વખતે જે કંઇ કર્યુ હતુ તે મધુ સ્થાપત્યાપુત્રે પણુ કર્યું”. ત્યાર બાદ સ્થાપત્યાપુત્ર અરિષ્ટનેમી પ્રભુની પાસેથી ईशान आशुभां ने लते भाषा अने घरेलओ उतार्या, ( तएण से ) ते વખતે તેની માતા સ્થાપત્યાગાથાપત્ની ત્યાં હતી. તેમણે 'સ જેવી સ્વચ્છ સફેદ
४
For Private And Personal Use Only
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
L
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ0 ५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम् 'हारवारिधारछिन्नमुत्तावलिप्पगासाई' हारवारिधाराछिन्नमुक्तावली प्रकाशानि ' अणि ' अश्रूणि - विणिम्मचमाणी २, विनिर्मुश्चन्ती २ मुक्ताहारजलधारा वि. कीर्णमुक्तावत्स्वच्छाश्रुविन्दन पुनः पुनर्निपातयन्तीत्यर्थः, एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण अवादीत्-यतितव्यं जात ' हे पुत्र ! संयमाराधनार्थ यत्नं कुरु, घटितव्यं जात ! हे वत्स ! संयमे संलग्नोभव, पराक्रमितव्यं जात ! हे अङ्ग ! संयमपतिकूलान् आलस्यादीन वारयितुं कायादिबलं प्रदर्शय, स्मश्च अर्थे ' णो पभाएयव्वं ' नो प्रमादितव्यम्=प्रमादस्य वशे कदापि मा भूः, इत्युक्त्वा = इति कथयित्वा, स्थापत्यापुत्रस्य माता स्थापत्या गाथापत्नी यस्यादृशः सकाशात् प्रादुर्भूता-आयाता तस्यामेवदिशि प्रतिगता ।। मू० १६।। रित माला अलंकारों को लेकर रखलिया। रखते समय वह (हार वारिधार छिन्न मुत्तावलिप्पगासाइं अंमूणि विणिम्मुंचमाणी २ एवं वयासी) हारवारिधारा और छिन्नमुक्तावली के समान आंसुओं को षार २ बहाती जाती थी। इसी स्थितिमें बनी हुई उम स्थापत्या गाथा पत्नी ने फिर अपने पुत्र से इस प्रकार कहा-(जइयव्वं जाया ! घडियन्वं जाया! परिकमियव्वं जाया ! अम्सिचणं अढे णो पमाएयव्वं जामेव दिसिंपाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया) हे पुत्र । संयम की आराधना के लिये तुम प्रयत्न शील रहना। हे पुत्र! तुम संयम में संलग्न रहना। हे पुत्र संयम के प्रतिकूल आलस्य आदिकों को निवारण करने के लिये अपने शारीरिक आदि बल को प्रस्फुरित करते रहना । इस संयम रूप अर्थमें हे बेटा? तुम कभी भी एकक्षण भी प्रमादके वशवर्ती मत होना। ऐसा कहकर वह माता स्थापत्यागोथा पत्नी जिस दिशा से आई थी उसी दिशा में वापिस चली गई ॥ सू० १६ ॥ સાડીમાં તે ઉતારેલી માળા અને ઘરેણાઓ વગેરે લઈ લીધાં માળા એને ઘરેણાં सासामा भूती मते (हारवारिधारचिन्नमुत्तावलिप्पगालाई अंसूणि विणिम्मुंच माणी २ एवं वयासी ) तेनी मांगोमांथी : नीsoni मासुमा २ पानी ધારા અને છિન્ન મુક્તવળીની જેમ સતત ટપકી રહ્યા હતાં. આમ આંસુભીની मामाथी स्थापत्यागाथा पत्नी पोताना पुत्रने सामी-जइयव्वं जाया! घरि यव्वं जाया! परिक्कमियन जाया अस्सि च ण अट्टे णो पमाएयव्वं जामेव दिसि पाउभूया तामेव दिसि पडिगया ) पुत्र! संयमनी साधना भाटे तमे સદા સાવધ રહેજે હેવત્સ! સંયમની સાધના માટે પ્રતિકૂળ આળસ્ય વગેરેના નિવારણ માટે પિતાના શારીરિક બળ પ્રફુરિત કરતા રહે જે આ સંયમની સાધનામાં તમે કોઈ પણ વખતે પ્રમાદ કરતા નહિ. આ પ્રમાણે સંધીને સ્થાપત્યાપત્ની ત્યાંથી પિતાને ઘેર પાછી વળી. સૂત્ર છે ૧૬ છે
ज्ञा ७
For Private And Personal Use Only
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथासूत्रे मूकम्त एणं से थावच्चापुने पुरिससहस्सेहिं सद्धिं सयमेव पंचमुट्रियं लोयं करेइ जाव पवइए । तएणं से थावच्चापुत्ते अणगारे जाते इरियासमिए भासासमिए जाप विहरइ, तएणं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिहनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं चउदसपुवाइं अहिजइ, अहिजित्ता बहुहिं जाव चउत्थेणं विहरति ।।
तएणं अरिहा अरिट्ठनेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्ससीसत्ताए दलयइ, तएणं से थावच्चापुत्ते अन्नया कयाइं अरहं अस्टिनेमि वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते तुब्भेहिं अब्भणुनाउ समाणे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिआ ! तएणं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं तेणं उरालेणं उग्गेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ सू० १७ ॥
'तएणं से यावच्चापुत्ते ' इत्यादि। टीका-ततः तदनन्तरं खलु स स्थापत्यापुत्रः पुरुषसहस्रेण साधू स्वयमेव "तएणं से थावच्चा पुत्ते' इत्यादि ।
टोकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से थावच्चा पुत्ते) उस स्थापत्या पुत्रने पुरिससहस्सेहिं सद्धिं सयमेव पंचमुट्टियं करेइ ) उन एक हजार दीक्षित पुरुषों के साथ अपने केशोंका पंचमुष्ठी लोंच किया-(जाव पव्वहए) यावत्
(तरण से थावच्चा पुत्ते ) त्या
tथ-(तएण') त्या२मा (से थावच्चापुत्ते) स्थापत्या पुत्र (पुरिखसहस्सेहि मद्धि सयमेव पंचमुट्ठिय लोय करेइ ) Elan पामेसा मे तर पुरुषानी साथै पाताना वागर्नु पाय भुडी बुंथन यु. (जाव पव्वइए) मनेर
For Private And Personal Use Only
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अगर मृतfर्षण ढोका अ० ५ स्थापत्यापुत्र निष्क्रमणम्
५१
,
पचमुष्टिकं लोचं करोति कृत्वा च यावत् प्रव्रजितः सहस्रपुरुषे सह स्थापत्यापुत्रो दरिष्टनेमेः समीपे चत्वारिमहाव्रतानि उच्चारितवान् । ततस्तदनन्तरं स स्थापत्या पुत्रः * अणगारे ' अनगारः द्रव्यतो भावतश्च मुनिर्जातः, स कीदृश इत्याह- 'इरियासमिए ' ईर्यासमितः ईर्यासमितिः यतनापूर्वकं गमनं तया समन्वितः, यथा कथमप्यन्यजीवविराधना न स्यात्तथोपयोगपूर्वकगमनवानित्यर्थः, 'भासासमिए ' भाषासमितः भाषासमितियुक्तः यावत् विहरति = यावच्छब्देन ' एषणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, उच्चारपासवण खेल जल्लसिंघाणपारिट्ठा वणिया समिए " इत्यादि वाच्यम् । एषणासमितः = एषणासमितियुक्तः निर्दोषभिक्षाग्रहणशीलः, आदानभाण्डामत्र निक्षेपणा समितः = भाण्डामात्राद्युपकरणानाम् आदाने ग्रहणे निक्षेपणायां स्थापने च या समितिस्तया युक्तः, उच्चारस्रवण
,
मजित होकर उसने सहस्र पुरुषों के साथ अरिष्टनेमि प्रभुके समीप फिर पंचमहाव्रतों का उच्चारण किया। इस तरह वे स्थापस्यापुत्र अब द्रव्य और भाव दोनों रूपसे अनगारा वस्थापन बन गये । यही बात (लएणं से थाव
पुत्ते अणगारे जाए ) इन पदों द्वारा व्यक्त की गई है । ( ईरियासमिए, भासासमिए जाव विहरद्द ) वे यतना पूर्वक चलने लगे ईय समिति से युक्त बन गये - जिस तरह किसी भी अन्य जीव की विराधना न हो इस तरह उपयोग पूर्वक चलने लगे भाषा समिति आदि समिति से युक्त हो गये। यहां यावत् शब्द से एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, उच्चारपास वणखेल्ल जल्लसिंघाणपरिद्वावणीया समिए " इन अवशिष्ट समितियों आदि का ग्रहण हुआ है। निर्दोष भिक्षा लेना एषणा समिति है। भाण्डामात्रादि उपकरणों के आदान में ग्रहण में और निक्षेपण में उपयोग पूर्वक प्रवृति करना પ્રશ્નજિત થઇ ને તેણે એક હજાર પુરુષોની સાથે અરિષ્ટનેમિ પ્રભુની સામે ૫'ચ મહાત્રતાનું ઉચ્ચારણ કર્યુ. આ રીતે તે સ્થાપત્યા પુત્ર દ્રવ્ય અને ભાવની अपेक्षाये मनगार अवस्थापन थ गया. या वात (तरण से धावच्चापुते अणगारे जाए) मा यहो वडे प्रस्ट उरवामां भावी हे तेथे देवा मयुगार थय। ते नीथेना सूत्रथी सतावे छे (ईरिया समिए, भासा समिए, जाव विहरइ ) ઇયોસમિતિથી યુક્ત થઈ ગયા. એટલે કેઈપણ જીવને વિરાધના (કષ્ટ) થાયનહિ એવી રીતે જતનથી ચાલવા લાગ્યા. તે ભાષાસમિતિ વગેરે સમિતિથી યુકત થઇ ગયા.
"
यावत् शब्थी ( एसणासमिए, आयाण भौंडामत्तनिक खेववणासमिए, उच्चार पाचवणं खेल्लजल्लसि धाणपरिद्वावणीया समिए) मा समिति। वगेरेनुं श्रशु થયું છે. નિર્દોષ ભિક્ષા સ્વીકારવી ‘એષણા-સમિતિ’ છે ભડામત્રાદિ ઉપકરાના આદાન એટલે ગ્રહણમાં અને નિક્ષેપણુ મૂકવામાં ઉપયેગ પૂર્ણાંક-પ્રવૃત્તિ થવી તે
For Private And Personal Use Only
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
झाताधर्मकथाङ्गसूत्रे श्लेष्मजल्लशिवाणपरिष्ठापनिकासमितः उच्चारादीनां परिष्ठापनिकासमितः = उत्सर्जने शास्त्रोक्तविधिप्रवृत्तिः, तया युक्त इत्यर्थः । स मनः समितः वचः समितः कायसमितः, मनोगुप्तः वचनगुप्तः कायगुप्तः गुप्तेन्द्रियः इन्द्रियाणामसत्मवृत्तिनिवर्तनात् गुप्तब्रह्मचर्यः अक्रोधः अमानः अमायः अलोभ अतएव शान्तः, प्रशान्तः प्रशशमावसम्पन्नः, उपशान्तः, कपायकारणवर्जितः परिनिर्धतः, योगत्रयसन्तापइसका नाम भाण्डामत्रानिक्षेपणा समिति है तथा उभयकाल प्रतिलेखना करना उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, जल्ल शिवाण इनके परिष्ठावन करने में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्रवृत्ति करना यह उच्चार प्रस्रवण श्लेष्म जल्ल शिंघाण परिष्ठापनिका समिति है। इसी तरह वे स्थापत्यानगार मनः समिति से, वचन समिति से कायसमिति से मनोगुप्ति से वचन गुप्ति से कायगुप्ति से युक्त हो गये तथा इन्द्रियों की असत् विषयो में प्रवृत्ति के निवर्तन से, गुप्तेिन्द्रिय हो गये । मन, वचन और काय से पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले होने से गुप्त ब्रह्मचारी हो गये क्रोध कषाय से सर्वथा रहित होने से अक्रोध मानकषाय के अभाव से अमान, मायाकषाय के अभाव से अमाय, लोभकषाय के अभाव होने से अलोभ परिणति वाले बन गये । इसी लिये वे शान्त प्रशान्त प्रशम भाव संपन्न, उपशान्त- कषायों के कारणों ભાડામત્રાનિક્ષેપણા સમિતિ છે, તેમજ બંને કાળમાં પ્રતિ લેખના કરવી આ ચેથી સમિતિ છે ઉચ્ચાર, પ્રસવણ શ્લેષ્મ, જલ, શિંઘાણ એમનું પરિષ્ઠાવન કરવામાં શાસ્ત્રમાં કહ્યા મુજબ પ્રવૃત્તિ કરવી આ ઉચ્ચાર પ્રસવણ શ્લેષ્મ જલ શિંઘાણ પરિછાપનિક સમિતિ છે. આ સમિતિથી પણ તેઓ યુક્ત હતા આ રીતે સ્થાપત્યા નગાર મનઃ સમિતિથી, વચન સમિતિથી, કાય સમિતિથી, મને ગુસથી કાયગુણિથી યુકત થયા. તે ઈન્દ્રિયની અસત વિષયમાં પ્રવૃત્તિના નિવર્તનથી ગુપ્તેન્દ્રિય થયા. તે મન વચન અને કાય (શરીર) થી પૂર્ણ બ્રહાચર્યનું પાલન કરનાર હવા બદલ ગુમ-બ્રહ્મચારી થયા. તે સંપૂર્ણ રીતે ક્રોધ–કષાય વગર હવા બદલ અક્રોધ માન કષાયના અભાવથી અમાન, માયા કષાયના અભાવથી અમાય, લેભ-કષાયના અભાવથી અલભ પરિણતિવાળા થયા. અટલા માટે જ તે શાંત, પ્રશાંત પ્રશમભાવ સંપન્ન, તેમજ ઉપશાંત કપાયે ના કારણથી વર્જિત થયા-પરિનિવૃત થયા-મન, વચન અને કાયાએ ત્રણ યોગના
For Private And Personal Use Only
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
,
अनगारधर्मामृतवर्षिणीटी० अ० ५ स्थापत्यापुत्र निष्क्रमणम्
रहित अनास्रवः, हिंसादिवर्जितः, अममः, ममत्वरहितः, अकिचनः द्रव्यभावपरिsaर्जितः निग्रन्थः, स्नेहरहितः, निरुपलेपः- द्रव्यभावलेपवर्जितः, कांस्यपात्रमित्र मुक्ततोयः तोयरूपस्नेहरहितलात् शङ्खइत्र नीरञ्जनः रागसम्बन्धरहितत्वात्, जीवइवामतिहतगतिः सर्वदेशविदारित्वात् जात्यकनकमिव जातरूपः निरतिचारसंयमत्वात् गगनमिव निरालम्बनः देशग्रामकुलाद्यालम्बनरहितत्वात्, आदर्शफलक इव प्रकटस्वभावः दर्पणवत् स्वच्छस्वभावत्वात्, वायुरि वा प्रतिबद्धः क्षेत्रा दिषु प्रतिबन्धरहितत्वात् शारदसलिल भित्रशुद्धहृदयः = शरदृतु जलवन्निर्मलहृदयः
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
1
से वर्जित हुए - परिनिर्वृत हो गये- मनवचनकाय के सन्ताप से रहित बन गये । अनास्रव - हिंसादि पापों से रहित हो गये, ममता भाव से रहित हो गये, अकिंचन हो गये, द्रव्य और भावरूप परिग्रह से मुक्त बन गये । स्नेह रहित हो गये निरुपलेप हो गये द्रव्य भाव लेप से रहित हो गये । तोय जलरूप स्नेह से रहित होने के कारण कांस्य पात्र की तरह वे मुक्ततोय बन गये । राग के संबन्ध से रहित होने के कारण वे शंख की तरह निर्मल हो गये । सर्व देश में बिहारी होने के कारण वे जीव की तरह अप्रतिबंध विहारी बन गये । निरतिचार संयम के पालक होने के कारण वे शुद्धसुवर्ण की तरह वे जातरूप हो गये । देश, ग्राम आदि के आलंबन से रहित होने के कारण वे गगन की तरह निरालम्ब हो गये । दर्पण की तरह स्वच्छ स्वभाव से युक्त होने के कारण वे प्रकट स्वभाव हो गये । क्षेत्रादिकों में प्रतिबन्ध रहित
6
સંતાપથી રહિત થયા અનાસ્રવ—હિસા વગેરે પાપકાર્યોથી રહિત થયા, મમતા ભાવથી રહિત થયા, અકિંચન થયા, તેમજ દ્રવ્ય ને ભાત્રના પરિગ્રહથી મુક્ત થયા, स्नेहरहित थया, निरुपडीप थया, द्रव्य ने भाव सेपथी रहित थया, तोय (पाणी) રૂપ સ્નેહ વગર હેાવાને કારણે તે કાંસ્યપાત્રની જેમ મુક્ત તેાય · થયા. રાગના સંબધ થી રહિત હાવા બદલ તે શંખની જેમ નિર્મળ થયા. સદેશેામાં વિહાર કરનાર હાવાથી તે જીવની જેમ અપ્રતિહત ગતિવાળા ( જેની ગતિ કયાંય રોકાય નહિ કે એવા ) થયા. નિરતિચાર સ'મય ને પાળનારા હાવાથી તે શુદ્ધ સાનાની જેમ જાત રૂપ થયા, દેશ, ગામ વગેરે ના આલ અન થી રહિત હાવા બદલ તે આકાશની પેઠે નિરાલંબ થયાં, અરીસાની જેમ નિર્મળ વભાવના હાવાથી તે ‘ પ્રકટ સ્વભાવ વાળા થયા, ક્ષેત્ર વગેરેમાં પ્રતિમ ધ વગરના હાવાથી તે પવનની જેમ અપ્રતિબદ્ધ વિહારી થયા, કષાયા
,
For Private And Personal Use Only
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे कषायोपशमितत्वात्, पुष्करपत्रमिवनिरुपलेपः भोगाभिलाषरूपलेशवर्जितत्वात् , कूर्मइव गुप्तेन्द्रियः वशीकृतेन्द्रियत्वात् , खङ्गिविषाणमिव एकजातः खडूगी= वन्य जन्तुविशेषः 'गेंडा' इतिभाषाप्रसिद्धः तस्य विषाणं शुङ्गं तद्वदेकजातः स्वास्मावलम्बितत्वात् , विहगइव विप्रमुक्तः पक्षिवत् संनिधिवजितत्वात् , भारण्डपक्षीव अअप्रमत्तः=भारण्डपक्षिणो हि एकोदराः पृथग्ग्रीवा अन्योन्यफलभक्षिणो जीवद्वयरूपा भवन्ति, ते च सर्वदा चकितचित्तास्तिष्ठन्ति, तद्वत् प्रमादरहितत्वात् कुञ्जरइव शूरः कर्मशत्रु पराजेतुं दृढोत्साहवत्त्वात् , चन्द्रइव सौम्यलेश्यः शुभपरिणामवत्त्वात् , होने के कारण वे वायु की तरह अप्रतिबद्ध विहारी यन गये। कषायों के उपशमित हो जाने से शरत् काल के जल के समान वे निर्मल हृदय से युक्त हो गये। भोगाभिलाष रूप लेप से रहित होने के कारण वे पुष्कर (कमल) पत्र की तरह निरूपलेप हो गये । कच्छप की तरह वे अपनी इन्द्रियों को गुप्त करने वाले होने से गुप्तेन्द्रिय बन गये । केवल अपनी आत्मा के ही अवलम्बन करने वाले होने से वे गेंडाहाथी के विषाण की तरह एक जात हो गये । संनिधि से वर्जित होने के कारण पक्षी की तरह वे विप्रमुक्त हो गये। भारण्ड पक्षी की तरह वे अप्रमत्त रहने लगे। ये भारण्ड पक्षी एक उद्रवाले होते हैं, ग्रीवा इसकी पृथक होती हैं, अन्योन्य फल भक्षी होते हैं-दो जीव होते हैं । ये सर्वदा चकित चित्त रहा करते है। कर्मरूप शत्रु को पराजित करने के लिये दृढ उत्साह संपन्न होने के कारण ये कुंजर (हाथी) की तरह शूर बन गये । शुभपरिणामों से युक्त होने के कारण ये चन्द्रमण्डल की तरह सौम्य लेश्या ના ઉપશમનથી શરદ ઋતુના પાણીની જેમ તે સ્વચ્છ હૃદયવાળા થયા, ભેગ વિલાસ રૂપ લેપથી રહિત હેવાથી પુષ્કર કમળપત્ર ની જેમ નિરુપલેપ થયા કાચબાની જેમ તે પિતાની ઇન્દ્રિયને ગુપ્ત કરનાર હોવાથી ગુપ્તેન્દ્રિય થયા. કેવળ પિતાના આત્માને જ અવલંબ આપનાર હોવાથી તે ગેંડા હાથીને વિષાણ (શીંગડા) ની જેમ એક જાત થયા. સંનિધિ વગર હોવાથી પક્ષી ની જેમ તે વિપ્રમુક્ત થયા. ભારંડપક્ષીની જેમ તે અપ્રમત્ત (મદ વગર) રહેવા લાગ્યા, આ ભાખંડ પક્ષી એક પેટ વાળાં હોય છે. તેમની ડેક પૃથફ હોય છે. અન્યન્ય ફળ ભક્ષી હોય છે-તેમજ બે જીવ હોય છે. તે હમેશાં ચકિતચિત્ત રહે છે. તે સ્થાપત્યા પુત્ર કર્મના શત્રુને પરાજિત કરવા માટે દઢ ઉત્સાહ સંપન્ન હોવાથી કુંજર (હાથી) ની જેમ શૂર થયા. શુભ પરિણામેથી યુક્ત હોવાથી તે ચંદ્રમંડળ ની જેમ સૌમ્ય લેણ્યા વાળા થયા. બીજા જીવોને
For Private And Personal Use Only
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रनिष्क्रमणम् सूर्यइव दीप्ततेजाः परेषां क्षोभकत्वात् , सागर इव गम्भीरः उदारहृदयत्वात् , मन्दरहवाप्रकम्पः परीषहोत्सर्गरविचलितत्वात् , वृषभइव जातस्थामा गृहीतभारपार. गत्वात् , सिंह इव दुर्धर्षः उपसर्गमृगैः पराजेतुमशक्यत्वात् , वसुन्धरेव सर्वस्पर्शविसहः शीतोष्णादिसर्वसहत्वात् , सुहुताशन इव तेजसा ज्वलन तेजोलेश्यादिलब्धिमत्त्वात् , तस्य स्थापत्यापुत्रानगारस्य न कुत्रापि प्रतिवन्धो भवति । प्रतिन्बधो द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्विधः, तत्र द्रव्यतः-सचित्ताचित्तमिश्रेषु, क्षेत्रतो ग्रामन गराऽरण्यादिषु, कालतः-समयावलिकादिषु, भावतः क्रोधभयहास्यादिषु । स से युक्त हो गये। दूसरे जीवों को क्षोभ करने वाले तेज से सम्पन्न होने के कारण ये सूर्य की तरह दीप्त तेजवाले बन गये ! उदार होने से सागर की तरह इन का हृदय गंभीर हो गया। परीषह और उप सर्गों से अविचलित होने के कारण ये सुमेरुकी तरह अप्रकंप बन गये। गृहीत भार को पार लगाने के कारण वृषभ की तरह ये विशिष्ट शक्ति शाली हो गये। उपसर्ग रूपी मृगों से पराजेतुं अशक्य होने के कारण ये सिंह की तरह दुर्धर्ष बन गये । शीत उष्ण आदि सब सहन करने के कारण ये वसुंधरा (पृथिवि) की तरह सर्व स्पर्शसह बन गये। तेओ लेश्यादि लब्धि संपन्न होने के कारण ये जाज्वल्यमान हुताशन (मग्नि ) की तरह विशिष्ट तेजसे चमकने लगे इन स्थापत्या पुत्र मुनिका कहीं पर भी प्रतिबन्ध नहीं था। यह प्रतिबन्ध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का कहा गया है । द्रव्य की अपेक्षा सचित्त, अचित्त तथा मिश्र वस्तुओं में, क्षेत्र की अपेक्षा ग्राम, ક્ષોભ પમાડનાર તેજથી યુક્ત હોવાથી તે સૂર્યની પેઠે દીપ્ત તેજ વાળા થયા. ઉદાર હતા તેથી સાગરની જેમ તેમનું હૈયું ગંભીર થઈ ગયું. પરીષહે અને ઉપસર્ગોના આકરા પ્રહારોથી પણ તે વિચલિત થતા નહિ તેથી સુમેરુ પર્વત ની જેમ તે અપ્રકંપ થયા. સ્વીકારેલા કર્તવ્યના ભારને છેક સુધી પાર લઈ જવા માટે તે બળદ ની જેમ સવિશેષ શક્તિ શાળી થયા. ઉપસર્ગ રૂપી હરણે થી પરાજિત ન થવાથી તે સિંહની પેઠે દુધર્ષ થયા. ઠંડી, ગરમી વગેરે બધું સહન કરવાથી તે વસુંધરા (પૃથિવી) ની જેમ સર્વ સ્પર્શ થયા. તે વેશ્યા વગેરેની સિદ્ધિ યુક્ત હેવાથી તે સળગતા અગ્નિ ની જેમ સવિશેષ તેજથી પ્રકાશિત થયા. સ્થાપત્યા પુત્ર પ્રતિબંધ રહિત થયાં આ પ્રતિબંધ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાએ ચાર પ્રકારનું છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સચિત્ત, અચિત્ત તેમજ મિશ્ર વસ્તુઓમાં, ક્ષેત્રની દ્રષ્ટિએ ગામ, નગર, અરણ્ય (વન)
For Private And Personal Use Only
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे समतृणमणिलोष्टकाञ्चनः, समसुखदुःखः, इहलोकपरलोकाऽप्रतिबद्धः, जीवितमरणकाङ्क्षा वर्जितः, संसारपारगामी कर्मनिर्यातनार्थमभ्युत्थितः, एवं च खलु मोक्षमार्गे विहरति । ततः खलु स स्थापत्यापुत्रोऽर्हतोऽरिष्टनेमेस्तथारूपाणां स्थविराणान्तिके सामायिकादीनि चतुर्दशपूर्वाणि अधीते, अधीत्य च बहुभिर्यावच्चतुर्थेन-चतुर्थभक्तादिनोऽऽत्मानं भावयन् विहरति । नगर, अरण्य आदिको में काल की अपेक्षा समय आवलिकआदिकों में भाव की अपेक्षा क्रोध, भय, तथा हास्यादिकों में, उन स्थापत्या पुत्र को किसी भी प्रकार का प्रतिवन्ध नहीं था। उन की दृष्टि में तृण, मणि, लोष्ट और कांचन समान थे। सुख और दुःख समान थे । इह लोक और परलोक से वे अप्रतिबद्ध थे। जीविताशंसा और मरणा शंसा से वे रहित बन चुके थे। संसार से रहित हो चुके थे कर्मों के नाश करने में ही उनका पुरुषार्थ लगा हुआ था। इस तरह वे समिति
आदि कों से समित हो कर मुक्ति के मार्ग में सावधान होकर विचरण करने लगे। (तएणं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिट्टनेमिस्स तहा रूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई चोद्दसपुन्वाइं अहिजइ ) धीरे २ उन स्थापत्यापुत्र अनगार ने अहंत अरिट्टनेमि प्रभु के तथारूप स्थविरो के पास सामयिक आदि चौदह पूर्वी का अध्ययन भी कर लिया ( अहिजित्ता बहहिं जाव चउत्थेणं विहरइ) उनका अध्ययन करके फिर उन्होंने चतुर्थ भक्तादि तपस्या से अपने को भावित किया વગેરેમાં, કાળની અપેક્ષાએ સમય આવલિકા વગેરેમાં, ભાવની દષ્ટિએ ક્રોધ, ભય તેમજ હાસ્ય વગેરેમાં તે સ્થાપિતા પુત્રને કોઈપણ જાતને પ્રતિબંધ હતે નહિ तेना भाटे ते! तृण, माशु, खोट ( भाटीनु ) मने यन (सानु) આ બધાં સરખાં જ હતાં. સુખ દુખ બંને સરખાં હતાં. ઈહ લેક અને પરલેકથી તે અપ્રતિબદ્ધ ( સ્વતંત્ર) હતા. છવિતાશંસા તેમજ મરણશંસાથી તે રહિત થયા. સંસારના વિષથી રાહત થઈને કર્મોના વિનાશમાંજ તેઓ પુરુષાર્થ સંલગ્ન હતા. આ પ્રમાણે તે સ્થાપત્યા પુત્ર સમિતિ વગેરેથી સમિત थान भुतिमाम सावधान छन विय२६५ ४२वा साया. (तएण से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिदनेमिस्स तहरूवाण येराण अतिए सामाइयमाइयाइ चोइस पुवाई अहिज्जइ ) धीमे धीमे स्थापत्या-पुत्र मानारे अरिष्टनाभि प्रसनी પાસે થી તેમજ તથા સ્થવિરોની પાસેથી સામયિક વગેરે ચૌદપૂનું અધ્યयन ५५ यु. (अनिजित्ता बहूहिजाब चउत्थेण विहरइ) अध्ययन या माह સ્થાપત્યા પુત્રે ચતુર્થ ભક્ત વગેરે તપસ્યાથી પિતાના આત્માને ભાવિત કર્યો
For Private And Personal Use Only
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
'मममारधर्मामृतकर्षिपी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रनिष्कमणम्
ततः खलु अहवरिष्टनेमिः स्यापत्यापुत्रस्थानगारस्य तं सहागतं 'इन्भाइयं' इभ्यादिकम् इभ्यश्रेष्ठिसेनापतिप्रभृतिकम् अनगारसहस्रं शिष्यतया ददाति । स्थापत्यापुत्रेण सह ये सहस्रपुरुषा दीक्षा गृहीतवन्तस्ते सर्वे तस्यैव शिष्याः कृता इति भावः । ततः खलु स स्थापत्यापुत्रोऽनगारोऽन्यदा कदाचित् अर्हन्तमरिष्टनेमि वन्दते वाचा रतौति, नमस्यति, कापेन प्रणमति वन्दिया नमस्कारं च कृत्वा एवं स्वक्ष्यमामप्रकारेणवादी___ इच्छामि खलु भदन्त ! हे भगवन् युष्माभिः ' अब्भणुकाए' अभ्यनुज्ञात: सन आज्ञां प्राप्य सहस्रणानगारेण साधं बहिः द्वारावती नगरीतो बहिनिःमृत्य जनपदविहारं देशे ग्रामानुग्रामविचरणं, विह =कर्तुम् , भवदाझ्या देशे विहार कर्तु मिच्छामीत्यर्थः । हे देवानुपिय यथासुख-विहरेत्यर्थः । पावत् शब्द से उक्त अर्थ लिया गया है । (तएणं अरिहा अरिष्टनेमि धावच्चापुत्तस्स अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्साए दलया) इसके बाद अहंत अरिष्टनेमि प्रभु ने उन अनगार स्थापत्यापुत्र के लिये उनके साथ आये हुए उस, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति आदि अनगार सहस्त्र को शिष्यरूप से दे दिया। (तएणं से थावच्चापुते अभया कयाइं अरहं अरिष्टनेमि वंदइ नमसइ) इसके बाद उन स्थापत्यापुत्र ने किसी समय अर्हत अरिष्टनेमि को वंदना की और उन्हें नमस्कार किया- ( वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी) बन्दना नमस्कार करके फिर उन्हों से उन्होंने ऐसा कहा- (इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहिं अम्भणुनाये समाणे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं पहिया जणवयविहारं विहरित्तए) भदंत ! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं इन हजार अनगारों को साथ लेकर द्वारावती नगरी से बाहिर जनपद विहार करना चाहता है।
यावत' wथी 61 मथनी सह थयेछे. (तएण अरिहो अस्ट्रिनेमि थावच्चापुत्तस्स अणगारस त इब्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयइ ) ત્યાર પછી અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુએ અનગાર સ્થાપત્યા પુત્રને તેમની સાથે આવેલા અને પ્રત્રજ્યા ગ્રહણ કરેલા ઇભ્ય, શ્રેષ્ઠી સેનાપતિ વગેરે અનગાર સહસ્ત્ર न शिष्य ३पे माया (तएण से थावच्चापुत्ते अन्नया कयाई अरह अग्नेिमि वंदइ नमसइ) त्या२ मा स्थापत्या पुत्रे ७ मत म मरिष्टनेमि प्रभुने वन मा नभ२४१२ ४ा. (वदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी)न सन न.२४.२ ४ीन भाग भने विनती ४०-(इच्छामि गं भंते ! तुम्मेहि अब्भणुनाये समाणे सहस्सेण' अणगारेण सद्धि बहिया जणवयविहार विहरिसए) હે ભદંત ! તમારી આજ્ઞા થાય તેવું એક હજાર અનગાર ની સાથે કરાવતી
ज्ञा०८
For Private And Personal Use Only
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाजस्त्र ततः खलु स स्थापत्यापुत्रोऽनगारसहस्रेण साध तेनोदारेण प्रधानेन-पड्जीवनिकायरक्षणपरत्वात् , उग्रेण-तीत्रेण परीषहोपसर्ग सहिष्णुत्वात् , प्रयत्नेन= यतनाप्रधानत्वात् बहिर्जनपदविहारं विहरति ॥ १७ ॥
मूलम्-तणं कालणं तेणं स्मएणं सेलगपुरे नामं नगरं हात्था, सुभूमिभागे उज्जाणे, सेलए राया, पउमावइ देवी, मंडुए कुमारे जुवराया। तस्स णं सेलगरस पंथगपामोवखा पंचमंतिसया होत्था, उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाए पारिणामियाए उववेया रज्जधुरं चिंतयंति, थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे राया जिगतो धम्मकहा, धम्म सोच्चा जहाणं देवाणुपियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरन्नं जाव
( अहासुहं देवाणुप्पिया! तएणं से थावच्चा पुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं तेणं उरालेणं उग्गेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बहिया जणवयविहारं विहरइ) प्रभु ने उनसे कहा-यथासुखं देवानुप्रिय ! प्रभु की इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर वे स्थापत्यापुत्र षट्जीवनिकाय की रक्षा करने में तत्पर होने के कारण उदार, परीषह और उपसर्गों को सहन करने के कारण उग्र, यतना प्रधान होने के कारण प्रयत्न और भगवान् की आज्ञा को प्रधान रूप से अंगीकार करने के कारण प्रगृहीत ऐसे १एक हजार शिष्यों को सोथ लेकर वहां से बाहिर देशों में विहार किया। सूत्र “१७" नगरीजी महार यह विडा२ ४२१। न्याई छु. ( अहासुहे देवाणुप्पिया ! तएण से थावच्च अणगारसंहस्सेणं सद्धिं तेण उराले ण उग्गेण पयत्तण पग्गहिएण बहिया जणवयविहार विहरइ ) प्रभुमे तेने यु-पानुप्रिय सुमेथी विहार કરે. આ રીતે સ્થાપત્યા પુત્રે આજ્ઞા મેળવીને જીવનિકાયના રક્ષણમાં સદા તૈયાર હેવાથી ઉદાર, પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરવાથી ઉગ્ર, યતના પ્રધાન હોવાથી, પ્રયત્ન અને ભગવાનની આજ્ઞા પ્રધાન રૂપથી સ્વીકારવાથી પ્રગૃહીત એવા એક હજાર શિષ્યની સાથે ત્યાં થી બહારના દેશમાં વિહાર કર્યો. સૂ-૧૭
For Private And Personal Use Only
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
मंमगारधर्मामृतवषिणो टीका अ०५ शैलकराजवर्णनम् पव्वइया, तहाणं अहं नो संचाएमि पवइत्ताए, अहन्नं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव समणोवासए जाव अहिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्महि अप्पाणं भावेमाणे विहरामि।पंथगपामोक्खा पंचमंतिसया समणोवाप्सया जाया, थावच्चापुत्ते बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥सू०१८॥ - 'तेणं कालेणं' इत्यादि। - टीका-तस्मिन् काले तस्मिन् समये शैलकपुरं नाम नगरमासीत् । नगराद् बहिः सुभूमिभागं नामोद्यानम् । तस्मिन् नगरे शैलको नाम राजाऽभूत् । पद्मावतीदेवी-पमावतीनाम्नीदेवी पट्टराज्ञो । मण्डूककुमारो युवरानोऽभवत् । तस्य खलु शैलकस्य राज्ञः पान्थकप्रमुखाः पञ्चशतानि मन्त्रिणः अमात्याः आसन् , कीदृशास्ते मन्त्रिण इत्याह-' उप्पत्तियाए' औत्पत्तिक्या शास्त्राभ्यासादि निमित्तं विनैव सद्भाविनी तथाविधक्षयोपशमनन्या मति रौत्पत्तिकी तया, 'वैणइयाए ' वैनयिक्या-विनय
तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में (सेलगपुरे नामं नगरं होत्था ) शैलक पुर नाम का नगर था ( सुभूमि भागे उजाणे सेलए राया पउभावइ देवी मुंडए कुमोरे जुवराया) उस में सुभूमि भाग नाम का उद्यान था । शैलक पुर राजा का नाम शैलक था। उसकी पट्टरानी का नाम पद्मावती था। मंडूक नाम का इसका युवराज कुमार था। (तस्स णं सेलगस्स पंथगपामोक्खा पंच मंतिसयहोत्था ) इस शैलक राजा के पथिक प्रमुख पांचसौ मंत्री थे। (उप्पत्तियाए वेणइयाए,कम्मियाए,परिणामियोए, उववेया रजधुरं चिंत
तेण कालेणं तेणं समएणं इत्यादि ।
A -(तेण कालेण वेण समएण) ते आणे भने ते अभये (सेलापुरे नाम नगरं होत्था) शैक्ष४ पु२ ना ना२ तु. ( सुभूमिमागे उज्जणे से लए राया पउमावह देवी मुंडए कुमारे जुवराया) त्या सुभूमि सा नाभे धान હતું શૈલક પુરના રાજાનું નામ શૈલક હતું. પદ્માવતી તેની પટરાણી હતી. भ, नाम ते सतना यु१२।०४ तो. (तस्त्र ण' से उगस्स पथग पामोक्खा पंचमत्तिमय होत्था ) क्षेस ने पांथ प्रभुम पांयसे। भत्रीमा ता. (सम्पत्तियाए वेगइयाए. कस्मियाप परिणामियाए अवेया रज्जपुर विवयंति) मा
For Private And Personal Use Only
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाret
लब्धबुद्ध्या, 'कम्मयाए' कर्मजया - लेखनादि कर्माभ्यासतः समुत्पन्नया बुद्धया, 'पारिणामियाए' पारिणामिक्या दीर्घ कालेऽनुभवतया वयः परिणामजन्ययाबुद्धया ' उववेया ' उपपेताः बुद्धिचतुष्टयेन युक्ताः, 'रज्जवुरं ' राज्यधुरं राज्यरक्षणवर्धन कार्यभारं चिन्तयन्ति = चिन्तयन्तः सन्ति ।
.
अथ स्थापत्यापुत्रोऽनगारो ग्रामाद् ग्रामान्तरं विहरन् शैलकपुरे शैलकपुरममरे ' समोसढ़े ' समवस्मृतः, 'राया णिग्गओ' राजा - शैलकन्नृपः ' णिग्गओ ' निर्गतः स्थापत्यापुत्रानगारस्यागमनं श्रुत्वा तं वन्दितुं निःसृतः । निर्गत्य स्था पत्यापुत्रानगारं वन्दित्वा यथोचितस्थान आसोनःस्थापत्यापुत्रमनगरं पर्युपासते । लक्षणधर्मकथा - स्थापत्या पुत्रानगारेण कथिता । अथ शैलको नाम राजा धर्मं श्रुत्वा वदति हे भदन्त ! यथा खलु देवानुप्रियाणामन्तिके बहवः उग्राः उग्रवंश्याः भोगा भोगवंशीया राजानो यावत् हिरण्यादिकं त्यक्त्वा यंति) ये समस्त मंत्री औत्पत्ति की वैनयिकी कार्मिकी और पारिणामि की इस प्रकार चार तरह की बुद्धि से राज्य के रक्षण का उस के संघधन का कार्य किया करते थे। (धावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे ) बिहार करते २ स्थापत्या पुत्र शैलक पुर नगर में आये । (राया णिग्गओ धम्मका) स्थापत्यापुत्र अनगार का आगमन सुनकर उनको वंदन करनेके लिये शैलक राजा अपने नगर से निकले । निकलकर वे स्थापत्या पुत्र अनगार के पास पहुँचे - वहां जाकर उन्होने उनके संविधि वन्दना की - नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर फिर वे यथोचित स्थान पर बैठ गये । स्थापत्यापुत्र अनगार ने श्रुतचारित्र लक्षणवाली धर्म कथा कही (धम्मं सोच्चा जहाणं देवाणुप्पियाणं अंते बहवे उग्गा भोगा जाव चहा हिरन्नं जाव पव्वत्ता, तहा अहं णो संचारमि पव्वइए ) धर्मका
બધા મંત્રીએ ઔપત્તિકી, વૈનયિકી, કાલ્મિકી અને પરિણામિકી આ રીતે ચાર लतनी युद्धिथी राज्यनुं रक्षणु तेभन संवर्धननु आभ उरता हता. थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे) विहार उस्ता उस्तां स्थापत्या पुत्र शैलगपुरभां घ्याव्या. ( रायानिओ धम्मका ) स्थापत्या पुत्र अनगारनं आगमन सोलजीने शैल रान्न પેાતાના નગરથી નીકળ્યા અને સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારની પાસે પહેાંચ્યા. ત્યાં પહેાંચીને તેમણે તેમને વિધિપૂર્વક વંદન અને નમસ્કાર કર્યાં. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેએ ઉચિતસ્થાને બેસી ગયા. સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારે શ્રૃત્રચારિત્ર सक्षणुवाजी धर्मस्थानो उपदेश व्याप्यो ( घम्म सोच्या जहाणं देवाणुपिया णं असे बहवे उग्गा भोगा जाव चइता हिरन्न जाव पव्वइचा, तहा अहं णो · संचामि पouse ) धर्मश्था सांलजीने शैलः शब्लये स्थापत्या मनभारने
For Private And Personal Use Only
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
net का मं० ५ शैलकराजवर्णनम्
यावत् प्रव्रजिता भवन्ति, तथा खलु अहं नो शक्नोमि प्रव्रजितुम्, राज्यादिकं परित्यज्य प्रव्रज्यां ग्रहीतुमसमर्थोऽस्मीत्यर्थः । अहं खलु देवानुप्रियाणामन्तिके पञ्चाणुत्रतिकं यावत् श्रमणोपासकः अत्र यावच्छब्देन सप्त शिक्षाप्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्म देशविरतिरूपं प्रतिपत्तुं स्वीकर्तुमिच्छामि तदा स्थापत्यापुत्रोऽ बादीत हे देवानुप्रिय ! यथासुखं भवेत् तथा कुरु इत्येवमभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणो
-
उपदेश सुनकर शैलक राजा ने स्थापत्या अनगार से निवेदन किया- कि हे भदन्त ? जिसतरह आप देवानुप्रिय के पास इन अनेक उग्रवंशीय भोगवंशीय राजाओने यावत् हिरण्य आदिका परित्यागकर यावत् दीक्षा धारण करली है उस तरह मैं दीक्षा धरण करने के लिये समर्थ नही हूँ-रज्यादिक का परित्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिये मैं असमर्थ हूँ ( अहन्नं देवाणुपियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयंजाव समणो वासए जाव अहिगयजीवाजीवे जाव अहा परिग्ाहिएहिं तवोकम्मे हिं अप्पाणं भावेमाणे विहरह) में केवल देवानुप्रिय के पास पांचअणुव्रतो को धारण कर श्रमणोपासक बनने की इच्छा करता हूँ। यहां यावत् शब्द से सात शिक्षा व्रतो का ग्रहण हुआ है। इस श्रावक का धर्मजोबारह अणुव्रत रूप है और जिसे देश विरत कहते है मैं उसे स्वीकार करनेकी इच्छा करता हूँ ऐसी अपनो इच्छा शैलक राजा ने स्थापत्या अनगार के पास अभिव्यक्त की। शैलक राजा की इच्छा जानकर स्थापत्या अनगार ने उन से कहा हे देवानुप्रिय ! यथासुखं- अर्थात् जिस में तुम्हें सुख मालूम पडे वैसा तुम करो - इस प्रकार स्थापत्या अनगार
વિનંતિ કરી– હે ભદત ! આપ દેવાનુપ્રિયની પાસેથી જેમ આ અનેક ઉગ્ર વંશીય ભાગવંશીય રાજાએ એ દ્રવ્ય-વગેરે મધુ ત્યાગીને ભાગવતી દીક્ષા સ્વીકારી છે તેમ હું દીક્ષ. સ્વીકારી શકું તેમ નથી, રાજ્ય વગેરે ત્યજીને अत्रन्या श्रद्धेषु ४२वा भाटे हुं असमर्थ छु . ( अहन्न' देवाणुवियाणं अतिए पंचणुव्वइयं जाव समणोवासए जाव अहिगयजीवाजीवे जाब अहा परिगहिएहि तवोकम्मेहि अप्पानं भावेमाणे विहरइ ) डु इत हेवानुप्रियनी पासेथी પાંચ અણુવ્રતાને સ્વીકાંરીને શ્રમણેાપાસક થવા ચાહુ છું, અડ્ડી' યાવત્ શબ્દથી સાત શિક્ષા તેનું ગ્રહણ થયું છે. ખાર વ્રતરૂપ જે શ્રાવકધમ છે તેને સ્વીકારવા ચાહું છું આ રીતે શૈલક રાજાએ પેાતાની ઇચ્છા સ્થાપત્યાપુત્રની સામે પ્રકટ કરો. શૈલકરાજાની મા જાતનીઈચ્છા જાણીને સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારે તેમને કહ્યું——હૈ દેવાનુપ્રિય ! ચથાસુખ એટલે કે જેમાં તમને
For Private And Personal Use Only
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२
fararai कथाpes
पासको जातः । श्रमणोपासकानां धर्मः सविस्तरमुपासकदशाङ्ग सूत्रस्यागारधर्म संजीवनी टीकायां वर्णितस्तत एत्र विज्ञेयः । यावत् ' अहिगयजीवाजीवे ' अधिगत जीवाजीवः, जीवाजीवस्वरूपाविज्ञः यावत् यथा परिगृही तैस्तपः कर्मभिरात्मानं भावयन् विहरति । पान्थकप्रमुखाः पच्चशत मन्त्रिणः श्रमणोपासका जाता द्वादशत्रतधारिणः श्रावका अभूवन् । स्थापत्यापुत्रः बहिः = शैलकपुर नाम्नो नगराद् बहिर्जन पदविहारं विहरति = करोति स्म ॥ १८ ॥
1
द्वारा अभ्यनुज्ञात होकर शैलक राजा ने १२ बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म स्वीकार कर लिया- वे श्रमणोपासक बन गये । श्रमणोपासकों के धर्म का विस्तार पूर्वक वर्णन हमने उपासकदशांग सूत्र की अगार धर्मसंजीवनी नाम की टीका में किया है। सो वहां से जान लेना चाहिये । जीव और अजीव का क्या स्वरूप है इस बात को भी वे जानने वाले बन गये । अनेक प्रकार की तपश्चर्या भो वे करने लगे । इस तरह यथा परिगृहीत) तप कर्मों द्वारा वे अपने आपको भावित करते हुए रहने लगे । ( पंथगपामोक्खा पंचमंतिसया समणोवासया जायाथावच्चापुसे बहिया जणवयविहारं विहरह) राजा के जो पांथक प्रमुख पांचसौ मंत्री थे- वे भी श्रमणोपासक बन गये- १२ व्रत धारी हो गये - स्थापस्यापुत्र अनगार उस शैलकपुर नगर से बाहर जनपद में विहार कर गये ! सूत्र " १८"
સુખ થાય તેમ કરો. આ પ્રમાણે સ્થાપત્યા અનગારથી આજ્ઞાપિત થયેલા શૈલક રાજાએ ખાર પ્રકારના ગૃહસ્થ ધર્મો સ્વીકાર્યો, અને તેઓ શ્રમણેાપાસક થયા. શ્રમણેાપાસકાના ધર્મોનું સવિસ્તર વન અનેે ઉપાકદશાંગસૂત્રની અગાર ધમ સજીવની નામની ટીકામાં કર્યુ છે. જિજ્ઞાસુ જન તેમાંથી જાણી શકે છે. જીવ અને અજીવના સ્વરૂપ વિષેનું જ્ઞાન પણ ીલક રાજાને થઈ ગયું. અનેક જાતની તપસ્યા તે કરવા લાગ્યા. આ રીતે યથાપરિગૃહીત તપ: કર્મો વડે પેાતાની જાતને ભાવિત કરતા રહેવા साग्या. ( पंथगपामोक्खा पंचमंतिया खमणोवासया जाया थात्रव्त्रापुते बहिया जणत्रयविहार विहारइ ) रामनाथ प्रभु यांयसेो मंत्री હતા તેઓ પણ શ્રમણેાપાસક તેમજ ખાર વ્રત ધારી થઈ ગયા. ત્યાર બાદ સ્થાપત્યા પુત્ર અનગાર શૈલકપુર નગરથી બહાર ખીજા જનપદોમાં વિહાર કરવા માટે નીકળી પડ્યા, ॥ સૂત્ર ૧૮ ૫
For Private And Personal Use Only
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ५ सुदर्शनभेष्टीवर्णनम्
- मूलम्-तेणे कालेणं तेणं समएणं सोगंधिया नाम नयरी होत्था, वनओ, नीलासोए उजाणे वन्नओ, तत्थ णं सोगंधियाए नयर्सए सुदंसणे नामं नयरसेट्टी परिवसइ, अड़े जाव अपरिभूए।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए नामं परिव्वायए होत्था, रिउन्वेयजजुटवेयसामवेयअथवणवेयसट्रितंतकुसले संखसमए लद्धहे पंचजमपंचनियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिव्वायगधम्मं दाणधम्मं च सोयधम्मं च तिस्थाभिसेयं च आघवे माणे पन्नवेमाणे धाउरत्तवत्थपवरपरिहिए, तिदंडकुंडियछत्त. छल्लुयंकुसपवित्तयकेसरीहत्थगए परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिबुडे जेणेव सोगंधियानयरी जेणेव परिव्वाय गावसहसि भंडगनिखेवं करेइ, करिता संखसमणेणं अप्पाणं भावमाणे विहरह।
तएणं सोगंधियाए णयरीए सिंघाडगतिगचउकचच्चरेस बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ । एवं खलु सुए परिव्वा. यए इह हव्वमागए जाव विहरइ, परिसा निग्गया सुदंसणो निग्गए, तएणं से सुए परिवायए तीसे परिसाए सुंदसणस्स य अन्नेसि च बहणं संखाणंधम्नं परिकहेइ-एवं खलु सुदंसणा अम्हं सोयमूलए धम्मं पन्नत्ते, सेऽविय सोए दुविहे पन्नत्ते तं जहा-दव्वसाए य, उदएणं मट्टियाए य, भावसोए दवेहि य मंतहि य, जन्नं अम्हं देवाणुप्पिया किंचि असुइ भवामी, तं सव्वं सज्जो पुढ़वीए आलिप्पइ, तओ पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जइ, तओ तं असुई सुई भवइ, एवं खलु जीवा
For Private And Personal Use Only
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हालाधर्मकथा जलाभिसेय पूयप्पाणे अविश्ण सगं गच्छंति, तएणं से सुदं. सणे सुयरस आतिए धम्मं सोरचा हट्रे सुयस्स अंतिए सायमूलयं धम्मं गिण्हइ, गण्हिका परिवायए विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वस्थपरिग्गहणं परिलाभमाणे जाव विहरह । तएणं से सुए परिवायगे सोगंधियाओ नयरीओ निगच्छइ, निगच्छित्ता बहिया जणवय विहारंविहरइ ॥ सू० १९ ॥
" तेणं कालेणं " इत्यादि।
टीका-तस्मिन् काले तस्मिन् समये सौगन्धिका नाम नगरी आसीत् वर्णकः सौगन्धिकानगर्या वर्णनं औपपातिकसूत्रोक्त चम्पानगरीव वाच्यम्. नीलाशोकमुद्यान-नीलाशोकनामकमुपवनं तत्रासीत् । वर्णकः-अस्योद्यानस्य वर्णन पूर्ववद् बोध्यम् । तत्र खलु सौगन्धिकायां नगर्या सुदर्शनो नाम नगर श्रेष्ठी प्रतिवसति। 'तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यदि॥ __टीकार्थ-(तेण कालेणं तेणं समएण) उस काल और उस समय में (सोगंधिया नाम नगरी होत्था) सौगंधिका नाम की नगरी थी( वन्नओ) इस नगरी का वर्णन औपपातिक सूत्र में जिस प्रकर चंपानगरी का वर्णन किया गया है उसी तरह का जानना चहिये । ( नीलासोए उज्जाणे ) इस नगरी मे उद्यान था जिसका नाम नीलाशोक था। ( वन्नओ ) पूर्वकी तरह इस उद्यान का वर्णन जान लेना चाहिये । (तत्थ णं सोगंधियाए नयरीए सुदंसणे नामं नयरसेवी परीवसइ अड्डे जाव अपरिभूए) उस सौगंधिका नगरी मे सुदर्शन नाम
तेण कालेणं वेणं समएणं इत्यादि ।
Aथ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते आणे भने ते सभये (सोगंधिया नाम नगरी होत्था ) सौगxिt नामे नगरी हती. ( वन्नओ) मोपपाति સૂત્રમાં જે પ્રમાણે ચંપાનગરીનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે જ અહીં ५ नमी से नये, (नीलामोए उज्जाणे) मा नारीमi 3 Gधान त रेनु नाम नीसा उतुं. (वन्नओ) पक्षांनी भ म Gधाननु पर्थन ५५ तशी वे न स. (तत्थणं सोगंधियाए नयरीए सुदसणे नाम नयरसेदी परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए) ते सौगघिरा नगरीमा सुशन नामे नगर
For Private And Personal Use Only
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणा टीका अ० ५ सुदर्शन श्रेष्ठवर्णनम्
स कीदृश इत्याह- आढ्यः विभवशाली, यावत् अपरिभूतः = केनापि पराभ वितुमशक्यः ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये शुको नाम परिब्राजक आसीत् । सकीदृश इत्याद "रिउब्वे यज जुटी यसामवे यअथन्त्रण वे यस हितं त कुसले" ऋग्वेद यजुर्वेदसामवेदाथवेद षष्टितन्त्र - कुशलः सर्ववेदसर्व तन्त्र निपुण इत्यर्थः, 'संखसमये लद्धट्टे' सांख्यसमये aar: सांख्यशास्त्राभिमतसकलत स्वार्थाभिज्ञः पञ्चयमपञ्च नियमयुक्त, तत्र=अहिंसा सत्यास्तेदब्रह्मचर्यापरिग्रहाः पञ्श्चयमाः, शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरमणि
का नगर सेठ रहता था । यह विशेष विभूतिशाली था और अपरिभूत था - कोई भी व्यक्ति इसका तिरस्कार ( अपमान) नही कर सकता था । ( तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए णामं परिव्वायर होत्या) उसी काल और उसी समय में शुक नाम का परिव्राजक था (रिउब्वेय, जजुब्वेय, सामवेय, अथव्वणवेय, सद्वितंतकुसले, संख समए लद्धडे पंचजम पंच नियमजुत्त सोयमूलगं दसप्पयारपरिव्वायगधम्मं दाषधम्मंच सोयधम्मं
तित्याभिसेच आवयमाणे पण्णवेमाणे धाउर सवत्थपवरपरिहिए ) यह ऋन्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद षष्टितंत्र इनमें कुशल थानिपुण था । सांख्य सिद्धान्त प्रतिवादित सकल तत्वों के अर्थका ज्ञाता था । पंचम और पंचनियम से युक्त तथा शौच मूलक दश प्रकारके परिव्राजक धर्मका दान रूपश्रम का शौच रूप धर्मका तीर्थाभिषेकका उपदेश देता था उसका प्रचार करता था । अहिंसा, सत्यअस्तेय ब्रह्मचर्य और परिग्रह ये पांच यम हैं। शौच सन्तोष तप स्वाध्याय, ईश्वरप्रणि
શેઠ રહેતા હતા. તે ખૂબજ અશ્વયં સપન્ન અને અભૂિત હતા. કોઈ પણ व्यक्ति तेभनो तिरस्कार न उरी शती हुती. ( तेणं कालेण वेण समएण सुए णाम' परिव्वायए होत्था ) ते ठाणे अने ते समये शो शुरु नामे परित्रा ४४ तो. (रिउब्वेय, जजुव्वेय, सामवेय, अथव्वणवेय, सट्ठितंतकुले, संख समय लट्ठे पंचजमव चनियमजुत्त सोयमूलगं दसपयारपरिव्वायगधम्मं
धम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणे पण्णवेमाणे घाउरत्तवत्थपवरपरिहिए ) ते ऋनेह, यन्नुवेध, साभवेह, अथवेह तेभन षष्ठितश्रमां કુશળ હતા, નિપુણ હતા. સાંખ્યસિદ્ધાન્તમાં કહેલા બધા તત્ત્વાના તે જાણુનાર હતા. તે પાંચ મ તેમજ પાંચ નિયમ થી યુક્ત હતા. તે શૌચમૂલક દશ જાતના પરિવ્રાજક ધના, દાનરૂપ ધર્માંના શૌચરૂપ ધર્મના તીર્થાભિષેક (તી સ્નાન) ને ઉપદેશ આપતા હતા. અને પેાતાના ધર્મના પ્રચાર કરતા હતા. અહિંસા, સત્ય અસ્તેય, બ્રહ્મચય અને પરિગ્રહ એ પાંચ
"
યમ છે
"
शा० ९
For Private And Personal Use Only
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्रे धानानि पञ्चनियमाः तैर्युक्तम् शौचमूलके दशप्रकारं यमनियमसंमेलनेन दशविधं परिव्राजकधमै दानधर्म-दानरूपं धर्म च शौचधर्म-मृद्वारिजनितं शौचरूपं धर्मं च ती. याभिषेक गङ्गादि तीर्थोदकस्नानंच आख्यापयन् प्रख्यापयन्त यन् प्रज्ञापयन् घोषयन्' धाउरत्तवत्थपवरपरिहिए' धातुरक्तवस्त्रप्रवरपरिहितःगरिकधातुरक्तवस्त्र पवरपरिधानः, गैरिकरक्तवस्त्रधारीत्यर्थ, 'तिदंड-कुंडिय - छत्त - छन्नालयं - कुस-पवित्तय-केसरी हत्थगए' त्रिदण्ड-कुण्डिका-छत्र-षड्ना-लकाङ्कुश-पविप्रक-केसरी हस्तगतः, त्रिदण्डादीनि सप्त हस्तगतानि यस्य स तथा, तत्र त्रिदण्डं मनोवाक्कायदण्डत्रयपरिज्ञानाथै दण्डत्रयं, कुण्डिका कमण्डलुः, छत्रं, प्रसिद्ध, पड़नालक = त्रिकाष्ठिका, अकुशः - प्रसिद्धः-वृक्षपल्लवछेदनार्थ, पवित्रक ताम्रमयमङ्गुलीयकं, केसरी = चीवरखण्डं, परिव्राजकसहस्रेण साध संपरिकृतः धान ये पांच नियम हैं। मिट्टी और पानी से शुद्ध करना इसका नाम शौच है। गंगा आदि तीर्थ के जल में स्नान करना इसका नाम तीर्थाभिषेक है। इन बातों को आख्या न-कथन करता हुआ प्रख्यापन प्ररूपणा करता हुआ यह शुक जिन वस्त्रों को पहिरता था वे गैरिक धातु से रंगे हुए थे। अर्थात् गैरिक धातु से रंगे हुए वस्त्रों को ही यह पहिरता था। (तिदंडकुंडिय, छत्त छलुयंकुसपवित्तयकेसरीहत्थगए परिव्वायगसहस्से णं सद्धिं संपरिबुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवाग इ.) मन, वचन और काय इन तीन दंडों के परिज्ञान के लिये यह दण्ड त्रय का धारी था। कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्टिका, अंकुश, ताम्रमय अंगुलीयक, (अंगूठी) और चीवर खंड ये सब उस के हाथ में थे । १ एक हजार साधु मंडल से यह परिवृत था । सो जहां वह सौगंधिका नगरी थी और उस में भी जहां परिव्राजकों का શૌચ. સંતેષ, તપ, સ્વાધ્યાય, ઈશ્વરપ્રણિધાન એ પાંચ નિયમે છે. માટી અને પાણીથી શુદ્ધ કરવું તે શૌચ કહેવાય છે. ગંગા વગેરે તીર્થ જળમાં નાહવું તે તીથોભિષેક કહેવાય છે. આ યમ નિયમનું આખ્યા વચન તેમજ પ્રરૂપણ કરતે તે શુક પરિવ્રાજક ઐરિક (ગે ) વસ્ત્રો પહેરતે હતે. એટલે
र थी । सोते परत। डतो. (तिदंड कुंडिय, छत्त, छलुय कुसप वित्तयकेसरीहत्थगए परिवायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिबुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छइ ) भन, क्यन मने आय मा ત્રણ દંડેના પરિજ્ઞાન માટે તે દંડત્રય (ત્રણદંડ) ધારણ કરતા હતે. કમંડળ છત્ર, ત્રિકાષ્ટિકા, અંકુશ તાંબાની વીટી અને ચીવરખંડ આ બધાં તેના હાથ માં હતાં. એક હજાર સાધુઓ તેની સાથે હતા. તે ફરતે ફરતે ક્યાં
For Private And Personal Use Only
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम्
॥ यत्रैव सौगन्धिका नगरी यत्रैव परिव्राजकावसथः, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य परिव्राजकावसथे भाण्डकनिक्षेपं करोति = त्रिदण्डादीन्युपकरणानि स्थापयति, कृत्वा.सांख्यसमयेन सांख्यसिद्धान्तानुसाराचारेण आत्मानं भावयन् विहरति ।
ततः खलु सौगन्धिकायां नगर्या शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरेषु यावद् राजपथेषु बहुजनोऽन्योन्यस्य परस्परम्-एवमाख्याति - कथयति, एवं खलु शुको नाम परिव्राजक इह अस्यां सौगन्धिकायां नगर्या हव्यमागतः समागतः यावदास्मानं भावयन् विहरति । परिपनिर्माता । मुदर्शनोऽपि निर्गतः। ततः खल्ल स आश्रम था वहां आया। ( उवागच्छित्ता परिचायगावसहंसि मंडलनिक्खेवं करेइ, करित्ता संख समणेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरह) आकर उसने उस परिव्राजकाश्रम में अपने भांडों को रख दिया।
और रख कर सांख्य सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति चालू रखता हुआ ठहर गया। (तएणं सोगंधियाए नयरीए सिंघाडगतिगचउक्क चच्चरेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ) इसके बाद उस सौंगंधि का नगरी में श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर यावत् राजमार्ग में अनेक जन परस्पर में इस प्रकार बात चीत करने लगे ( एवं खलु सुए परिव्वायए इह हव्वमागए जाव विहरह) बंधुओ! शुक नाम का परिव्राजक इस अपनी सौगंधिको नगरी में अभी २ आया है। - वह सांख्य सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति रखता हुआ परिव्राजका श्रम में ठहरा हुआ है। इस बात से परिचित होकर (परिसा निग्गया, सुदंसणो, निग्गए, तएणं से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स સૌધિકાનગરી હતી અને જ્યાં પરિવ્રાજકોને આશ્રમ હતું ત્યાં આવ્યું. (उवागच्छित्ता परिवायगावसह सि भंडगनिक्खेव करेइ, करिता सख सभरेण अपाण' भावेमाणे विहरइ) त परिवाना पाश्रममा पायाने तेने પિતાની બધી વસ્તુઓ મૂકી દીધી અને ત્યાં સાંખ્યસિદ્ધાન્તને અનુસરીને घाताना यमनी प्रया२ ४२॥ २२॥ य (तएण सोगंधियाए नयरीए सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमोइक्खइ) त्या२४ सोग ધિકા નગરીમાં શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક ચતૂર અને રાજમાર્ગમાં ઘણા માણસે
मा शत पात। ४२वा साध्या-(एवं खलु सुए परिव्वायए इह हव्वमागए जाव विहरह) भित्र ! मा म नगरीमा शुॐ नामे में परिवार હમણાં જ આવે છે. સાંખ્ય સિદ્ધાંત અનુસાર તે પિતાની પ્રવૃત્તિઓ આચર तो परिक्षा माश्रममा २७॥ छ. म पातनी ong etin (परिमा
For Private And Personal Use Only
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६८
शाताधर्मकथाङ्गको शुकः परिव्राजकस्तस्याः परिपदः सुदर्शनस्य च अन्येषां च बहूनां जनानां पुरस्तात् सांख्यानां सांख्यमतानुयायिना धर्म परिकथयति-हे सुदर्शन ! एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण खलु अस्माकं शौचमूलको धर्मः प्रज्ञप्तः, तदपि च शौचं द्विविधं प्राप्त तद्यथा-द्रव्यशौचं च, भावशौचं च। द्रव्यशौचं च उदकेन-जलेन मृत्तिकया च भवति । भावशौचं 'दब्भे हि य' दर्भेश्व, ' मंते हि य ' मन्त्रैश्च भवति । हे देवानुप्रिय ! यत् खलु अस्माकं किंचित् करचरणकमण्डल प्रभृति अशुद्धं भवति तत् सर्व ' सज्जो पुढ़वीए ' सद्यः पृथिव्या शुद्रनवीनमृत्तिकया, आलिप्यते अनु. लिप्त क्रियते, ततः पश्चात् शुद्धन-पवित्रेण, वारिणा जलेन प्रक्षाल्यते ततस्तदशुद्धं उपहतं वस्तु शुद्धं भवति । एवं खलु जीवाः 'जलाभिसेयपूयप्पाणो' जलाय अन्नेसिंच बहूणं संखाणं धम्म परिकहेइ ) नगर निवासी परिषद उसके पास जाने के लिये अपने २ घर से निकली। सुदर्शन भी निकला इसके बाद उस शुक परिव्राजक ने उस आगत परिषद् को सुदर्शन सेठ को तथा और भी एकत्रित हुए अनेक मनुष्यों को सांख्यों के धर्म का उपदेश दिया । उसमें उस ने इस प्रकार कहा · ( एवं खलु सुंदसणा अम्हं सोयमूले धम्मे पण्णत्ते ) हे सुदर्शन हमारा धर्म शौच मूलक प्रज्ञप्त हुआ है (से वि य सोए दुविहे पण्णत्ते) वह शौच भी दो प्रकार का कहा हुआ है- (दवसोए य भावसोए य) १ द्रव्य शौच २ भाव शौच । (व्वमोएय उदएणं मट्टियाए य) जल और मिट्टी से द्रव्य शौच होता है । (भावसोए दम्भेहिं य मंते हिं य) भावशौच दर्भ और मंत्रों से होता है । ( जन्नं अम्हं देवाणुप्पिया ! किंचि असुइ भवइ तं सव्वं निग्गवा, सुदसणो निग्गए तएण से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदसणस्स य अन्नेसिं च बहूण संखाण धम्म परिकहेइ) नागरीमानी परिष४ तेना पासे જવા પિત પિતાને ઘેરથી નિકળી. સુદર્શન પણ પિતના ઘેરથી ત્યાં જવા માટે બહાર નીકળે. ત્યાર પછી શુક પરિવાજ કે ઉપસ્થિત થયેલી નગરીકે ની પરિષદ સુદર્શન તેમજ બીજા એકઠા થયેલા માણસોની સામે સાંખ્યધર્મ न पहेश साध्या. अपहेश मापता शु परिका मा प्रभारी ४थु ( एवं खलु सुदसणा अम्ह सोयमूले धम्मे पण्ण ) सुशन ! अभारे। शौयभूत प्रज्ञा यो छे. (सेविय सोए दुविहे पण्णत्ते) शौयना मे ५४२ छे. (दव्वसोए य भावसोए य) १, द्रव्य शोय, २, ला शीय. (व्वसोए य उदएण' महियाए य) या भने भारीकी द्रव्य शीय थाय छे. (भावसोए दमोह य मंतेहिं य ) साशीय दल भने मात्रा५३ थाय छे. (जन्न अन्हें
For Private And Personal Use Only
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवषिणी टीका ०५ सुदर्शनश्रेष्ठौ रणनम् भिषेक पूतात्मानः जलेनाभिषेकः स्नानं, तेन पूतः शुद्ध आत्मा येषां ते, पाणिनः · अविग्धेणं ' अविघ्नेन प्रतिवन्धरहितेन 'सगं' स्वर्ग गच्छन्ति । ततः खलु स सुदर्शनः शुकस्य शुकनाम्नः परिव्राजकस्य अन्तिके-समीपे धर्मशौचमूलकं शुकोक्तधर्म, श्रुत्वा ' हटे . हृष्टः प्रमुदितः सन् शुकस्यान्तिके शौचमूलकं धर्म गृह्णाति । सांख्यमतं स्वीकुरुतेस्म शुक परिव्राजकस्य पर्युपासको जातः, शुकमेव धर्माचार्यत्वेन मन्यतेस्म, धर्म गृहीत्वा स मुदर्शनः परिव्राजकान् प्रतिदि. वसं विपुलेन निस्तीर्णेन अशनपानखाद्यस्वायेन चतुर्विधाऽऽहारेण, तथा वस्त्र सजो पुढवीए आसिप्पड़, तओ पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जा) हे देवानुप्रिय ! जो भी हमारा कोई कर चरण, कमण्डलु आदिअशुचि हो जाती है उसे पहिले शुद्ध नवीन मृत्तिका से हम मांज लेते हैं और बाद में पवित्र जल से धो लेते हैं- (तओतं असुई सुई भवइ, एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणे अविग्घेणं सग्गं गच्छंति ) इस तरह वह अशुचि पदार्थ शुचि-पवित्र हो जाता है । इसी प्रकार जीव भी जलाभिषेक से जलस्नान से पवित्रात्मा बन कर बहुत जल्दी विना किसी रुकावट के स्वर्ग को पहुँच जाते हैं । (तएणं से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्मं सोच्चा हटे सुयस्स अंतिए सोयमूलयं धम्मं गिण्हइ ) इस प्रकार वे सुदर्शन शुक के पास धर्म का श्रवण कर बहुत अधिक हर्षित हुए । बाद में उन्होंने शुक से शौच मूलक धर्म अंगीकार कर लिया। (गेण्हित्ता परिव्वायए विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपरिग्गहेणं परिलाभेमाणे जाव विहरइ ) शौचमूलक धर्म देवाणुप्पिया ? किं चि असुइ भवइ त सव्व सज्जो पुढवीए आसिप्पइ, तओ पच्छा सुध्धेण वारिणा पक्खालिज्जा ) 3 हेवानुप्रिय ! अभा२। ७.५, ५१ भ. ડળ વગેરે અપવિત્ર થઈ જાય છે તે પહેલાં તેને નવીન માટીથી અમે ઉટકી, से छी.मे. अन त्या२ पछी शुद्ध पाणी थी साई 31 मे छीये. ( तओ र असुई सुई भवद एवं खलु जीवा जलाभिसेय पूयप्पाणे अविग्घेण सग्गं गच्छति ) से प्रभमपवित्र पहा पवित्र य छे. माशते १ પણ પાણીથી સ્નાન કરી પવિત્રાત્મા થઈને સત્વરે કઈ પણ જાતના અટ14 है मुश्ती १५२ २ पांयी तय छे. (तएण' से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्म सोचा ह सुयस्स अतिए सोयमूलय धम्म गिण्हइ ) म रीते તે સુદર્શન નગર શેઠ શુકની પાસેથી ધર્મનુ શ્રમણ કરીને ખૂબજ હર્ષ પામ્યા मन ना पाथी तभो शीय भू ध स्वीयो ( गेमिहत्ता परिव्वायए विपुलेग असणपाणखाइमसाइमेण वत्वपरिगाहेण परिलाभे माणे जाव विह
For Private And Personal Use Only
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७
. हाताधर्मकथासूत्र प्रतिग्रहेण प्रतिलाभयन् सत्कारयन् संमानयन् यावद् विहरति-विचरति । ततस्तदनन्तरं खलु स शुकः परिव्राजकः सौगन्धिकाया नगर्या निर्गच्छति, निर्गत्य च बहिर्जनपदविहारं विहरति-करोतिस्म ॥ १९॥
मूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं थावच्चापुत्तस्स समोसरणं, परिसा निग्गया सुदंसणो वि णिग्गओ, थावच्चापुत्तं वंदह नमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-तुम्हाणं किं मूलए धम्मे पन्नत्ते ? तएणं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं वयासी-सुदंसणा अम्हाणं विणयमूले धम्मे पन्नत्ते सेवि य विणए दुविहे पन्नत्ते तं जहा-अगारविणए अणगार विणए य,तत्थ णं जे से अगारविणए से णं चत्तारि अणुव्वयाई सत्त सिक्खावयाई, एकारस उवासगपडिमाओ। तत्थणं जे से अणगारविणए से णं चत्तारि महाव्वयाई, तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओवेरमण सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं सव्वाओ अंगीकार करके उन्होंने फिर अशन पान, खाद्य और स्वायरूप चारों प्रकार के आहार से और वस्त्र के प्रदान से उस शुक परिव्राजक को लाभान्वित किया सत्कारित किया, सन्मानित किया। (तएणं से सुए परिवायगे सोगंधियाओ नयरीओ निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता पहिया जणवयविहारं विहरह) इसके बाद वह शुक परिव्राजक सौगंधिका नगरी से निकला और निकल कर बाहर अन्य देशों की ओर विहार कर गया। "सू-१९" ૩) શૌચ મૂલક ધર્મ સ્વીકારીને તેમણે શુક પરિબજકને અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ રૂપ ચારે પ્રકારના આહાર તેમજ વસ્ત્રો અપને લાભાન્વિત કર્યો मन सन्मान यु. (तरण से सुए परिव्वायगे सोगंधियाओ नयरीओ नि. च्छइ, निग्गच्छित्ता बहिया जणवपविहार विहरइ) त्या२ ५छी शुॐ परिवार સગરિકા નગરીથી બહારના બીજા દેશે તરફ વિહાર કરવા નીકળ્યા સૂ૦૧૯
For Private And Personal Use Only
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवषिणी टीका भ० ५ सुदर्शनभेष्ठीवर्णनम् भदिन्नादाणाओ वेरमणं सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं जाव मिच्छादसणसल्लाओ वेरमणं, दसविहे पचक्खाणे बारस भिक्खुपडिमाओ इच्चेएणं दुविहेणं विणयमूलएणं धम्मेणं अणुपुव्वेणं अटकम्मपगडीओ खवेत्ता लोयग्गपइट्ठाणा भवंति ॥ सू० २०॥ ( तेणं कालेणं ) इत्यादि
टीका-तस्मिन् काले तस्मिन् समये सौगन्धिकायां नगर्या यावच्चापुत्रस्य समवसरणमागमनमभूक, तदा परिषभिर्गता= सौगन्धिका नगरी निवासिनो लोकाः स्थापत्यापुत्रं वन्दितुं निर्गताः, सुदर्शनोऽपि सुदर्शनाग्ना नगरश्रेष्ठी अपि, निर्गतः, तत्रागत्य थावच्चापुत्रं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नत्वा च एवं वक्ष्य माणप्रकारेण, अवादीत्-हे भगवान् ! युष्माकं किं मूलको धर्मः प्रज्ञप्तः? ततस्त
'तेणं कालेणं तेणं समएण' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस कल और उस समय में उस सौगन्धिकानगरी में बिहार करते हुए (यावच्चापुत्सस्स समोसरणं) स्थापत्यापुत्र अनगार का आगमन हुआ। (परिसा निग्गया,सुदंसणो वि णिग्गओ) स्थापत्यापुत्रका आगमन सुनकर सौगंधिका नगरीके निवासी जन उनको वंदना करने के लिये चले सुदर्शनसेठ भी चला । (थावच्चा. पुत्तं वंदह, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी) उसने वहाँ पहुंचकर स्थापत्या पुत्र अनगारको वचन से स्तुति करने रूप वंदना की तथा काय से उन्हें नमन किया। वंदना नमस्कर करके फिर उसने उनसे इस प्रकार तेण कालेण तेण समएण इत्यादि ।
थ-(तेण कालेण तेण समएण') ते ४ाणे भने त समये ते सौ. घि नगरीमा विहा२ ४२di (थावच्चा पुत्तरस समोसरण) स्थापत्यापुत्र मनभार माया (परिसा निग्गया सुदसणो वि णिग्ग भो) स्थापत्यापुत्रने भावपानी જાણ થતા જ સૌગંધિકા નગરીના નાગરિકે તેમને વંદન કરવા નીકળી પડયા भुशशन : ५ तभने बहन ४२१। नीन्या . (थावच्चापुतं वंदइ, नमसइ बंदिता, नमंसित्ता एवं वयासी) त्यां पड़ायाने तेभ स्थापत्या पुत्र मनगार ના વચનથી સ્તુતિ કરીને વંદન કર્યા તેમજ કાયાથી નમીને તેમને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને સુદર્શન શેઠે તેમને વિનંતી કરી ( તમને
For Private And Personal Use Only
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७२
दनन्तरं खलु स्थापत्यापुत्रः सुदर्शनेनैवमुक्तः सन् सुदर्शनमेवमवादीत्
हे सुदर्शन ! अस्माकं धर्मः दुर्गतौ पततो जन्तून् धरति रक्षति शुभस्थानं प्रापयति इति धर्मः आचारः, विनयमूल:- विनयति अपनयति नाशयति संकलकेशकारकमष्टविधं कर्म यः स विनयः कर्मापन यनसमर्थचारित्रलक्षणोऽनुष्ठान विशेषः स एव मूलं कारणं यस्य स तथा, -उक्तं चकर्मणां द्वारा विनयनाद विनयो विदुषां मतः ।
अपवर्ग फलादयस्य मूलं धर्मतरोरयम् ॥ १ ॥ इति ।
,
चारित्रमाश्रित्य लब्धरिथतिक इत्यर्थः यद्वा विनयो विनीतता द्रव्यभावाभ्यां नम्रता तन्मूलकः, प्रज्ञप्तः = तीर्थकरैः प्ररूपितः । सोऽपि च नियो द्विविधः तद्यथाकहा ( तुम्हा णं किं मूलए घम्मे पनन्ते ) हे भगवान ? आपका धर्म किं मूलक प्रज्ञप्त हुआ हैं। (तएणं धविच्चापुसे सुदंसणेणं एवं बुत्ते समाजे सुदंसणं एवं वयसी) इस प्रकार सुदर्शन सेठ के द्वारा इस प्रकार पूछे गये स्थापत्या पुत्र अनगार ने उससे इस प्रकार कहा (सुदंसणा अम्हाणं fare मे पन्नन्ते) हे सुदर्शन हमारा धर्म - विनय मूलक प्रज्ञप्त हुआ है । दुर्गतिमे जाने से जो प्राणियो को बचाता है और शुभ स्थान में उन्हें पहुँचाता है उसका नाम धर्म-आचार है। सकल क्लेशोंका दाता जो 'अष्ट प्रकार का कर्म है उसे जो नाश करता है उसका नाम विनय है । ऐसा विनय चारित्र रूप अनुष्ठान विशेष है। यह विनय ही धर्म का मूल कारण कहा गया है कहा भि है जिसके द्वारा जीव झटिति कर्मों का नाश कर देता है तथा अपवर्ग रूप फल से युक्त हुए जो धर्मरूपी वृक्षका मूल है - वही विनय है । ऐसा विनय चारित्र रूप ही माना गया है * मूल धम्मे पन्नत्ते ) हे भगवान ! आपना धर्मांना भूणभूत सिद्धान्तो शु छे. ( तरणं थावच्चापुत्त सुदंसणेण एव वुक्त समाणे सुदंसणं एवं वयासी ) સુદર્શન શેઠના આ પ્રશ્નને સાંભળીને થાપાપુત્ર અનગારે જવામમાં तेभने उ ( सुदंसणा अम्हाणं विषयमुळे धम्मे पन्नत्ते ) हे सुदर्शन ! अभाग ધર્મના માધાર વિનય મૂલક છે. દુગતિમાં જતા પ્રાણીઓને જે અટકાવે છે અને શુભસ્થાનામાં તેમને લઇ જાય છે તે ધમ-આચાર કહેવાય છે. સમ સ્ત કલેશાને ઉત્પન્ન કરનાર આઠે પ્રકારના કર્મોને જે નાશ કરે છે તેનું નામ ‘ વિનય ’ છે. એવું જ વિનય ચારિત્ર રૂપ અનુષ્ઠાન વિશેષ છે આ વિનય જ ધનું મૂળ કારણ છે કહ્યુ છે કે જેના વડે જીવ જલદી કર્મોના નાશ કરે છે તેમજ અપવગ (મેાક્ષ) રૂપી વૃક્ષનું જે મૂળ છે તે ‘વિનય’ જ છે આવે विनय चारित्र ३५ ४ गाय छे ( से विय विणए दुविहे पण्णत्ते ) ते विनय
ह
For Private And Personal Use Only
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् अगारविनयोऽनगारविनयश्च । तत्र खलु यः सः अगारविनयः स खलु चतवारिअणुव्रतानि, सप्त शिक्षाव्रतानि, एकादशोपासकपतिमाः । अगारविनयविषये सविस्तर वर्णनमुपासकदशाङ्गटीकायामगारधर्मसंजीवन्यां द्रष्टव्यम् , तत्र चतुर्विंशतितमतीर्थकर श्री महावीरशासनत्वेन आनन्दगाथापतिवर्णने पञ्चाणुव्रतानि पञ्चमहाव्रतानि वर्णितानि । अत्रारिष्टनेमेाविंशतितमतिर्थकरशासनचतुर्थव्रतस्य परिग्रहविरमण(से वि य विणये दुविहे पण्णत्ते) वह विनय भी दो प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है । (तंजहा) वह इस प्रकार से-(अगारविणए अणगारविणए) १ अगार विनय-दूसरा अनगार विनय । ये दो भेद चारित्र पर विनय को लक्ष्य में रखकर किये गये है। जब विनय का अर्थ विनीतता-नम्रता होती है उस समय द्रव्य की अपेक्षा नम्रता और भाव की अपेक्षा नम्रता इस तरह भी उसके दो भेद हो जाते हैं ( तत्थ णं जे से आगारविणए सेणं चत्तारि अणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाइं एक्कारसउवासगपडि माओ) अगारविनय चार अणुव्रत सात शिक्षाव्रत तथा ११ उपासक प्रतिमा रूप है । इस विषयका विस्तृत वर्णन उपासक दांगकी टीका अगारधर्म संजीवनी में किया गया है अतः यहविषय वहां से जानलेना चाहिये । विशेष केवल इतना ही है- वहां चौवीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी का शासन होने से उपासक दशाङ्गसूत्र में आनन्दगाथापति के वर्णन में पांच अणुव्रत और पांच महाव्रत कहे गये हैं किन्तु यहां पाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि भगवान के शासन में चौथे व्रत का ना ५५ मे ५४.२ ४ामा माया छे. (त' जहा ) ते | 24t प्रमाणे छ ( अगारविणए अणगारविणए) १, भागार विनय, २, अन॥२ विनय આ બનને વિનયના પ્રકારે ચારિત્ર ગત વિનયને અનુલક્ષીને જ કરવામાં આવ્યા છે જ્યારે વિનય શબ્દનો અર્થ “વિનીતતાં (નમ્રતા) થાય છે ત્યારે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ નગ્નતા તેમજ ભાવની અપેક્ષાએ પણ નતા આ રીતે पा तेना में नेह थाय छे (तत्थ णं जे से अगारविणए से णं चत्तारि अणुव्वयाई सत्त सिक्ख वयाई, एक्कारसउपासगपडिमाओ) मा॥२ विनय पांय मा વ્રત સાત શિક્ષાવ્રત તેમજ અગિયાર ઉપાસક પ્રતિમા રૂપ છે. આ વિષે - વિસ્તર માહિતી ઉપાસક દશાંગસૂત્રની અગારધર્મ સંજીવની ટીકામાં આપે લી છે જિજ્ઞાસ જનોએ ત્યાંથી જાણી લેવું જોઈએ. વિશેષ કેવળ એટલું જ છે કે ત્યાં ચોવીસમા તીર્થંકર શ્રી મહાવીર સ્વામીનું શાસન હેવાથી આનન્ટ ગાથાપનીના વર્ણનમાં પંચ અણુવ્રત અને પાંચ મહાવ્રત કહેલાં છે. પરંતુ અહીં બાવીસમાં તીર્થકર શ્રી અરિષ્ટનેમી ભગવાનના આસનમાં ચોથાવતને
बा १०
For Private And Personal Use Only
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
७४
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
व्रतेऽन्तर्भावात् चाउज्जामो धम्मो इति वचनात् चत्वारि अणुव्रतानि चत्वारि महाव्रतानि आसन् इति विशेषः । तत्र खलु यः सोऽनगारविनयः स खलु पञ्च महाव्रतानि तद्यथा - सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणं, सर्वस्माद् मृषावादाद् विरमणं२, सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमण३, सर्वस्मात् परिग्रहाद् विरमणं । सर्वस्माद् रात्रिभोजनाद् विरमणं, यावन्मिथ्यादर्शनल्याद् विरमणं, दशविधं प्रत्याख्यानं द्वादशभिक्षुप्रतिमाः इत्येतेन द्विविधेन, विनयमूलकेन धर्मेण 'अणुपुब्वेणं' अनुपूर्व्येण क्रमेण ' अडकम्मपगडीओ ' अष्टकर्मप्रकतीः ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्म प्रकृतीः ' खवेत्ता ' क्षपयित्वा ' लोयग्गपट्टाणा ' लोकाग्रप्रतिपांचवें परिग्रहविरमणव्रत में अन्तर्भाव होने से 'चाउज्जामो धम्मो ' इस वचन से चार अणुव्रत और चार महाव्रत कहे गये हैं ।
(तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं चत्तारि महव्वयाई तं जहा ) इसी तरह जो अनगार विनय है वह चार महाव्रत रूप है जैसे (सव्वाओ पाणावायाओ वेरमणं सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं सव्वाओ अदिनादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वाओ भोयणाओ वेरमणं जाव मिच्छादंसणसल्लाओ वेरमणं) समस्त प्राणातिपात से विरमण, समस्त मृषावाद से विरमण समस्त अदत्तादान से विरमण, समस्त परिग्रह से विरमण होना इन चार प्रकार के महाव्रतरूप तथा समस्त रात्रि भोजन से विरमण यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण होना इन रूप तथा ( दसविहे पच्चक्खाणे वारस भिक्खुपडिमाओ दस विध प्रत्याख्यान रूप और १२ बारह भिक्षु प्रतिमा रूप है ( इच्चेएर्ण दुविहेणं विषयमूलएणं धम्मेणं अणुपुब्वेणं अट्ठ कम्मपगडीओ खवेत्ता
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पांथमां परिश्रड विश्भ व्रतमां अन्तलव होवाथी " चाउज्जाभो धम्मो " मे वयनथी यार आलुव्रत भने थारमहाव्रत उडयां छे. (तत्थ णं जे से अणगार विre से णं चत्तारिमहव्वयाई त जहा ) मा रीते मनगार विनय पशु यार महावत ३५ छे. भेभडे (सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं सव्त्राओ मुखावायाओ वेरमणं सव्वाओ अदिन्नदाणाओ वेरमणं सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं सव्वाओ राइ भोयणाओ वेरमणं जाव मिच्छाद सणपल्लाओ वेरमणं) सहज प्राशातिपातथी विरમવું સકળ સૃષાવાદ (અસત્યભાષણુ) થી વિરમવું, સકળ અદત્તાદાનથી વિરમવું, અને સકળ પરિગ્રહાથી વિરમવું આ ચાર જાતના મહાવ્રત રૂપ છે. રાત્રિ लोभनथी विरभवु यावत् मिथ्यादृर्शन शस्यथी विरमित थवु, (दर्सविहे पच्चक्खाणे बारसभिक्खुपडिमाओ ) दशविध अत्याध्याय भने बार प्रतिभाइय छे. ( इच्चेपणं दुविणं विजयभूलणं धम्मेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ खवेत्ता
For Private And Personal Use Only
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम्
७६ ष्ठानाः मोक्षपदावस्थिता भवन्ति । लोकाग्रे सिद्धिपदे प्रतिष्ठानं स्थितिर्येषां ते तथा सिद्धा भवन्ति ॥ २०॥
मूलम्-तएणं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी-तुब्भेणं सुदंसणा! किं मूलए धम्मे पन्नत्ते ? अम्हाणं देवाणुप्पिया ! सोयमूले धम्मे पन्नत्ते जाव सग्गं गच्छति, तएणं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी-सुदंसणा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा तएणं सुदंसणा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेत्र पक्खालिजमाणस्स अस्थि काइ सोही ? णो इणहे समटे, एवामेव सुदंसणा ! तुम्भंपि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसंल्लेणं नत्थि सोही जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही, सुदंसणा ! से जहा णामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं सज्जियाखारेणं अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता पयणं आरुहेइ आरुहित्ता उण्हं गाहेइ, गाहित्ता ततो पच्छा सुद्धेणंवारिणा धोवेज्जा से णूणं सुदंसणा ! तस्स रुधिरकयस्स वत्थस्त सज्जियाखारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धेणं वारिणा लोयग्गपइट्ठागा भवंति ) इस प्रकार विविध विनयमूलक धर्म की की आराधना से जीव क्रम २ से अष्ट विध कर्मों की प्रकृतियों को खपाकर लोकके अग्र भागमें विराजमान हो जाते हैं ।-सिद्ध पदके भोक्ताबन जाते हैं। सूत्र॥२०॥ लोयग्गपइट्टाणा भवंति ) 240 शत विनयना मने प्रो रे भनi भूग छ એવા ધર્મની આરાધના કરવાથી જીવ ધીમે ધીમે અનુક્રમે કર્મોની આઠ જાતની પ્રકૃતિઓને નાશ કરીને લેકના અગ્રભાગે સ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, તેઓ सिद्धपहने सोगवना२ थाय छ, ॥ सू-२० ॥
For Private And Personal Use Only
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र पक्खालिजमाणस्स सोही भवइ ? हंता भवइ, एवामेव सुदंसणा ! अम्हंपि पाणाइवायवेरमणेणं अत्थि सोही, जहा वा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्धेणं वारिणा पक्खालिजमाणस्स अस्थि सोही, तएणं से सुदंसणे संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामिणं भंते ! धम्म सोच्चा जाणित्तए जाव समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ ॥ सू० २१ ॥
(तएणं थावच्चा० ) इत्यादि।
टीका- ततः खलु स्थापत्यापुत्रः सुदर्शनमेवमवादीत्-तव खलु सुदर्शनः कि मूलको धर्मः प्रज्ञप्तः ? एवं स्थापत्यापुत्रेण पृष्टः सन् सुदर्शनो वदति- अम्हाणं' इत्यादि । हे देवानुप्रिय ! अस्माकं शौचमूलो धर्मः प्रज्ञप्तः,यावत् स्वर्ग गच्छन्ति अत्र यावच्छन्देन-' सेऽवि य सोए दुविहे पन्नत्ते तं महा दबसोए य भाव.
तएणं थावच्चा पुत्ते इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएणं थावच्यापुत्ते) इस प्रकार कहने के बाद स्थापत्यापुत्र अनगार ने पुनः (सुदंसणं एवं) सुदर्शन से इस प्रकार कहा-(तुम्भेणं सुदंसणा किं मूलए धम्मे पन्नत्ते हे सुदर्शन ! तुम्हारा धर्म किं मूलक प्रज्ञप्त हुआ है ( अम्हाणं देवाणुप्पिया ! सोयमूले धम्मे पन्नत्ते ) तय सुदर्शनने कहा हे देवनुप्रिय ! हमारा धर्म शौचमूलक प्रज्ञप्त हुआ है। (जाव सग्गं गच्छंति) इस सुदर्शन के कथन " में स्वर्ग जाते हैं " यहां तक का पाठ लगा लेना चाहिये-जैसे-"सोवियसोए दुविहे पन्नत्ते तंजहा
'तएणं थावचा पुत्ते' इत्यादि ।
टी -(तए थावच्चापुत्ते) (सुदसण एव') २॥ शत पहे। माता स्था५त्यापुत्र अनारे १२१, (सुदंसण एवं) सुदृशनने साधता ४-(तुब्भेणं सुदं. सणा! किं मूलए धम्भे पन्नत्ते) सुशन तमा। धमनु भूण शु प्रशस्त छ ? ( अम्हाण देवाणुप्पिया ! सोयमूले धम्मे पन्नत्ते) १५ मापता सुशन ४ह्यु
હે દેવાનુપ્રિય ! મારા ધર્મનું મૂળ શૌચ (પવિત્રતા) છે.” એટલેકે મારે ધર્મ शीय भूव छ. (जाव सग्गं गच्छंति) 'याक्तू' स्वर्गमा पहाये छ " सुनना Yथनमा मी सुधा देवू नये. म “ सो विय सोए दुविहे पन्नते त जहां
For Private And Personal Use Only
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
فيف
मंगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म०५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्ण नम् सोए य इत्यादि एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेणं ' इति पर्यन्तं वाच्यम् । ततः खलु स्थात्यापुत्रः सुदर्शनमेवमवादीत्-सुदर्शन ! तद् यथानामकः कश्चित् पुरुष एकं महद् 'रुहिरकयं ' रुधिरकृतं शोणितलिप्तं वस्त्रं रुधिरेण चैवशोणितेनैव 'धोवेज्जा' धावयेत् प्रक्षालयेत् तदा खलु सुदर्शन ! तस्य रुधिरकृतस्य वस्त्रस्य प्रक्षाल्यमानस्यास्ति-भवन्ति काचित् ' सोही ' शोधिः शुद्धिः निर्मलता, 'णो इणढे सम? ' नायमर्थः समर्थः रुधिरलिप्तं वस्त्रं रुधिरेणैव प्रक्षालितं सन् पवित्रं भवतीत्ययमर्थः समर्थो न भवति प्रामाणिकी बुद्धिमुपगन्तुं न शक्नोतीत्यर्थः । हे मुदर्शन ! एवमेव 'तुभपि' तवापि 'पाणाइवाएणं ' प्राणातिपातेन यावन्मिथ्यादर्शशल्येन नास्ति शोधिः, सुदर्शन ! अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः दवसोए य भावसोएय" इत्यादि से लेकर " एवं खलु जीवा जला. भिसेयपूयप्पाणो अविग्घेणं" (तएणं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी) इस प्रकार सुदर्शन का कथन सुनकर स्थापत्यापुत्र अनगारने उस सुदर्शन से इस प्रकार कहा-(सुदंसणा! से जहानामए केहपुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा तएणं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्त महिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स अत्थिकाइ सोही!) हे सुदर्शन ! जैसे कोई पुरुष एक बडे भारी रुधिर लिप्त बस्त्र को रुधिर से ही धोवे तो रुधिर (खून) से प्रक्षाल्यमान उस वस्त्र की शुद्धि होती है जैसे (जो इणढे समहे ) यह अर्थ समार्थित नहीं होता-रुधिर से लिप्त हुआ वस्त्र रुधिर से धोने पर साफ-शुद्ध होता है-जैसा यह अर्थ प्रामाणिक बुद्धि द्वारा मान्य नही होता है (एवामेव सुदंसणाऽ तुम्भपि पाणाहवाएणं जावमिच्छादसणसल्लेणं नस्थि सोही जहा तस्सरुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिजमाणस्स नथि सोही) दव्वसोए य भावसोए य” मडीया " एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेण" मही सुधा सुश ननू थन सभास. ( तएर्ण थावच्चा पुत्ते सुदंसणं एवं वयासी) मा रीते सुदर्शननी शीय भूख धर्मविषनी पात सामजीन स्थापत्या पुत्र मनगारे तेभने मा अहो ह्यु-(सुदसणा ! से जहा नामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा तएणं सुदंसणा? तस्स रुहिरकयस्स वथस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स अस्थिकाइ सोही) હે સુદર્શન ! કેઈ પુરુષ લેહીભીનું મોટું લૂગડું લેહીથી જ સાફ કરે છે તે सोहीथी साई ४२९ सूगईशु शुद्ध थशे ! (जो इणट्रे समटे ) म सही ભીનું લૂગડું લેહીથી સ્વચ્છ થાય જ નહિ આ વાત પ્રામાણિક બુદ્ધિથી ગમે तेने शमेत। ५ भा.य थाय नहि ( एवामेव सुदंसणा ? तुभंपि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादणसल्लेणं नस्थि सोही) ते रीते सुदर्शन ! तारी ५५
For Private And Personal Use Only
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ઉંટ
शांताधर्मकथासूत्रे
एकं महद् रुधिरकृतं वस्त्रं 'साज्जियाखारेणं 'सर्जिकाक्षारेण सज्जीनाम्ना प्रसि या क्षारमृत्तिकया ' अणुलिंपइ ' अनुलिंपति अतुलिप्य ! ' पयणं ' पचनं पाकस्थानं ' आरुहेइ ' आरोहयति रुधिरलिप्तं वस्त्रं क्षारमृत्तिकानुलिप्तं कृत्वा ककस्मिश्चिम् मृन्मयादिपात्रे निधाय तत्पात्रं चुलिकोपरिस्थापयतीत्यर्थः । आरोहा उन्हं गाहेइ' उष्णं ग्राहयति उष्णीकरोति ग्राहयित्वा ततः पश्चात् शुद्धेन वारिणा धावयेत्, हे सुदर्शन ! स नूनं तस्य रुधिरकृतस्य वस्त्रस्य सर्जिकाक्षारेण अनुद्धिप्तस्य पचनमारोहितस्योष्णं ग्राहितस्य शुद्धेन वारिणा ' पक्खालिज्जमाणस्स ' प्र
"
इसी तरह हे सुदंसण ? तुम्हारी भी प्राणातिपात से यावत् मिथ्या दर्शन शल्य से शुद्धि नहीं होती है। जैसे उस शोणितलिप्त वस्त्र की रुधिर से धोने पर शुद्धि नही होती है । ( सुदंसणा ? से जहाणामए केहपुर से एगं महं रुहिरकयवत्थं सज्जियाखारेणं अणुलिंपह, अणुर्लिपित्तापयणं आहे, आरहित्ता उन्हे गाहेइ, गाहित्ता तओ पच्छा सुद्वेणं वारिणा धोवेजा से पूणं सुदंसणा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स सज्जियाखारेणं अणुलिन्तस्स पयणं आरुहियस्स उन्हं गाहियस्स सुद्धे सुद्धेणं वारिणा पक्खलिज्जमाणस्स सोही भवइ) शुद्धि का प्रकार इस तरह है सुदर्शन ! जैसे कोई पुरुष एक महान रुधिरलिप्त वस्त्र को साजी खारसे अनुलिप्त कर कीसी मिट्टी के बर्तन में रख उसे चूलेपर रखता है- रखकर फिर उसे गर्म करता है - गर्म कर उसके बाद उसे फिर शुद्ध जल से प्रक्षालित करता है तो हे सुदर्शन | निश्चय से
પ્રાણાતિપાત થી કે યાવત્ મિથ્યાદર્શન શલ્યથી શુદ્ધિ થતી જ નથી. જેમ } बोहीथी भरडामेसा लूगडानी शुद्धि बोडी वडे ४ थती नथी. ( सुदंसणा १ से जहा णामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयवत्थं सज्जियाखारेणं अणुलिपइ, अणुर्लिपित्ता पण आरुहेइ, आरुहित्ता उन्हे गाइ, गाहित्ता तओ पच्छा सुद्धेणं वारिणा धोवेज्जा से णूणं सुदंसणा ! तस्स रुहिरकयरस वत्थस्स सज्जियाखारेणं अत्तिस पयणं आरुहियस्स ऊन्हं गाहियस्स सुद्धेणं सुद्धेणं वारिणापक्खालिज्माणस्स सोही भवइ ) डे सुदर्शन ! बोडीयी भरडायेसा लूगडानी शुद्धि આ પ્રમાણે થાય જેમ કે સૌ પહેલાં લાહીભીતિ વને માણસ સાજીખાર ના પાણીમાં એળીને માટીના વાસણમાં મૂકીને તેને ચૂલા ઉપર ચઢાવે છે અને નીચે અગ્નિ પ્રકટાવીને તેને ઊનું કરે છે અને ત્યાર બાદ લૂગડાને શુદ્ધ પાણીથી સાફ કરી નાખે છે તે તે નિશ્ચિત પણે સાજીખારમાં બાળવાથી
For Private And Personal Use Only
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणो टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्टीवर्णनम् क्षाल्यमानस्य 'सोही' शोधिर्भवति । हन्त ! भवति । एवमेव सुदर्शन ! अस्माकपि 'पाणाइवायवेरमेणं' प्राणातिपातविरमणेन यावत् मिथ्यादर्शनयल्यविरमणेनास्ति शोधिः, आत्मनः पवित्रता भवति, यथा वा तस्य रुधिरकृतस्य वस्त्रस्य यावत् शुद्धेन वारिणा प्रक्षाल्यमानस्यास्ति शोधिः । वस्त्ररूपोऽयमात्मा रुधिररूपप्राणातिपाताद्यष्टादशपापस्थानोपलिप्तः सम्यक्त्वरूपया क्षारमृत्तिकयाऽनुलेप प्राप्य शरीरभाण्डं जिनकल्पस्थविरकल्परूपपचनस्थानोपरी संस्थाप्य तपोऽग्निना परितापितः संयमरूपशुद्धजलेन प्रक्षालितः सन् निर्मलः स्वच्छदर्पणवत्प्रकाशमानो भवति नान्यथेत्यर्थः । ये तु प्राणातिपातादि परायणा जीवाः शुद्धयर्थं श्रद्वारिजनितं शौचं जलाभिषेकं च कुर्वन्तः सन्ति, तान् पति दयन्ते खलु जीवाजीवतत्वे. दिनो विद्वांसः-अहो ! प्राणातिपातादि सेवनजनित ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधर्ममलनिरन्तरलेपानुलेपसंग्रहपरायणा अपि इमे जीवाः पुनः प्राणातिपातादिभिरेवशुद्धिमिच्छन्ति अहो ! कीदृशो मोहस्य महिमा वरीवति । उस रुधिरलिप्त वस्त्र की सर्जिका खार से अनुलिप्त होने पर, पाकस्थान पर रखे जाने पर गर्म किये जने पर, और शुद्ध जल से प्रक्षालित हो जानेपर शुद्धि होती है ? (हंता भवइ) हां होती है (एवामेव सुदंसणा! अम्हं पि पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं अस्थि सोही) तो इसी तरह हे सुदर्शन ! हमारी भी प्राणातिपातविरमण से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य के विरमण से शुद्धि होती है अर्थात् आत्मा की परित्रता होती है। (जहा वा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि सोही) जैसे उस रुधिरलिप्त वस्त्र को यावत् शुद्ध जल से प्रक्षालित करने पर शुद्धि हो जाती है। (तएणं ચૂલા ઉપર ચઢાવીને ગરમ, કરવાથી તેમજ શુદ્ધ પાણીથી સાફ કરવા થી २५२७ तय छ । नड (हंता भवइ) सुशन भी " स्व२७ थ, जयछ." ( एवामेव सुदसणा ! अम्हेपि पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छा दसणेसल्लवेरमणेणं अत्थिसोही) तो मा प्रभारी प्रातिपात विरमाथी થાવત્ મિથ્યાદર્શન શલ્યના વિરમણથી શુદ્ધિ થાય છે. એટલે કે એમનાથી मात्मा पवित्र थाय छे. ( जहा वा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्धणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि सोही) रेभ सोहीलीन सू सामा२ तभा शुद्ध पाणीथी शुद्ध थ य छे. ( तएणं से सुदंसणे संबुद्धे थावच्चापुत्त वंदाइ नमसइ, वंदित्ता नमंसिता एवं वयासी) मारीत उपदेश अपामेला सुदर्शन શેઠે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગરને વિનંતી કરતાં કહ્યું “હે ભગવાન ! શ્રતચારિત્ર રૂપ ધર્મના આરાધક તમને ધન્ય છે. “આ રીતે કહીને તેમને વંદન તેમજ નમસ્કાર
For Private And Personal Use Only
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथागसूत्रे
ततः स्थापत्यापुत्रवचनश्रवणानन्तरं खलु स सुदर्शः संबुद्धः सम्यक्त्वमारुढः सन् स्थापत्यापुत्रं वन्दते श्रुतचारित्रलक्षणसद्धर्मसमाराधनेन धन्योऽसि भगवन्नित्यादिवाक्येन स्तौति-इत्यर्थः । नमस्यति स्वापकर्ष बोधयन् श्रद्धेयवचनतया गुरू भावेन विनयं प्रकटयन् कायेन प्रणमतीत्यर्थः । वन्दित्वा नत्वा एवं वक्ष्यमाणपाकारणावादी-३च्छामि खलु भदन्त ! हे भगवान् ! धर्म-विनयमूलकं भवदुक्तं श्रुतचारित्रलक्षणं श्रुत्वा ज्ञातुम् , जीवराजीवपुण्यपापासवसंबरनिर्जराबन्धमोक्षरूपाणितत्वानि सम्यक सर्वथा वेत्तुमित्यर्थः यावत्-यावत् करणादत्र धर्मश्रवणजीवाजी. वादितत्वज्ञानानन्तरं श्रावकधर्मस्वीकारेण, श्रमणोपासको जोतः, स कीदृश इत्याह -अधिगतजीवाजीवो यावत् प्रतिलाभयन् सत्कारयन् समानयन् विहरति ॥२१॥ से सुदंसणे संयुद्धे थावचा पुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी) इस प्रकार संबोधित हुए सुदर्शन सेठने स्थापत्यापुत्र अनगार की हे भगवान् श्रुतचारित्र रूप धर्म के आराधन करने वाले होने से आपको धन्य है इत्यादि बचनो द्वारा वंदना की नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर फिर उसने उनसे इस प्रकार कहा (इच्छामि णं भंते ! धम्म सोच्चा जाणित्तए जाव समणोवासए जाए-अहिगया जीवा जीवे जाव पडिलामेमाणे विहरइ ) हे भदंत ! विनय मूलक श्रुतचारित्र रूप धर्म को सुनकर मैं जीव, अजिव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष इन तत्त्वों को जानना चाहता हूँ। इस प्रकार वह धर्मश्रवण और जीवाजीवादितत्त्वों के बाद श्रावक धर्म स्वीकार कर श्रमणोपासक बन गया। श्रमणोपासक बनकर फिर उसने स्थापत्यापुत्र अनगार का आहार आदि प्रदान कर सत्कार किया-सन्मान किया। કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેમણે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારને વિનંતિ કરી -(इच्छामि णं भंते ! धम्म सोच्चा जाणित्तए जाव समणोवासए जाए अहिंगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ) मत ! विनयभूमर श्रुतयारित्र રૂપ ધર્મની વાત સાંભળીને હું હવે જીવ, પુણ્ય, પાપ, આસવ, સંવર, નિજેરા, બંધ અને મોક્ષ આ આ તને સ્પષ્ટ રૂપે સમજવાની ઈચ્છા રાખુ છું. આ પ્રમાણે સ્થાપત્યા પુત્ર અનેગાર ના મઢેથી આ બધાં જીવ અજીવ વગેરે ત વિષે સાંભળીને શેઠ શ્રાવક ધર્મ સ્વીકારીને શ્રમણોપાસક થઈ ગયા. શ્રમણોપાસક થઈને શેઠે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારને આહાર વગેરે અપીને સત્કાર કર્યો સન્માન કર્યું.
For Private And Personal Use Only
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतदषिणी टीका अ०५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम्
दष्टान्तकी योजनाइस प्रकार दार्टान्तमे करनी चहिये-वस्त्र के जैसा यह अत्मा है रुधिरके जैसे प्रोणातिपातादिक १८अठारह पापस्थान हैं। इन से यह मलीन हो रहा है । क्षार मृत्तिका जैसा सम्यक्त्व है । सो जय यह आत्मा इस सम्यक्त्व रूप क्षार मृत्तिका से अनुलिप्त हो जाता है और अपने शरीर रूप भांडको जिनकल्य तथा स्थविर कल्य रूप पचन स्थान पर स्थापित करता है तप, रूप अग्निसे अपने आपको तपाता है तब यह स्वच्छ दर्पणकी तरह प्रकाशमान होने लगता है। इस शुद्धि मार्ग के अतिरिक आत्माकी शुद्धि और किसी मार्ग से नहीं हो सकती है। जो प्राणातिपातादिकोंमें परायण बने हुए जीव शुद्धिके लिये मृत्तिका एवं जल का उपयोग करते हैं और उससे आत्माकी शुचिता मनते है गंगादि तीर्थोंमें स्नान करने से पापोंकी निवृत्त होना मानते हैं उनके प्रति जीव और अजीवके स्वरूपको जाननेवाले विद्वज्जन सदय हो कर कहते हैं की देखोतो सही यह कैसीमोह की प्रबल महिमा है जो प्राणातिपात आदि सेवन से जनित ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्ममल के निरन्तर लेपानुलेप के संग्रह करने में परायण बने हुए भी
આ ઉક્ત દષ્ટાન્ત દષ્ટાતિક રૂપે આ રીતે સમજવું જોઈએ-આ આત્મા વસ્ત્ર રૂપે છે. પ્રાણાતિપાત વગેરે અઢાર પાપસ્થાને લેહીની જેમ છે. એમનાથી આત્મા મલિન થઈ રહ્યો છે સાજીખારના રૂપમાં સમ્યકત્વ છે, જ્યારે આત્મા સમ્યકત્વ રૂપ સાજીખારથી અનુલિપ્ત થાય છે અને પિતાના શરીર રૂપી વાસણને જિનકલ્પ તેમજ સ્થાવિરકલ્પરૂપ પચન સ્થાન (ચૂલા) ઉપર મૂકે છે તપ રૂપ અગ્નિ વડે શરીર રૂપી વાસણને તપાવે છે ત્યારે તે સ્વચ્છ દર્પણ ના રૂપમાં પ્રકાશિત થાય છે. આત્માની શુદ્ધિને આ કેવળ એકજ માર્ગ છે કે જેનાથી આત્મશુદ્ધિ ચકકસ પણે સંભવિત થાય છે. એના સિવાય બીજા કોઈ ઉપાયથી આત્મશુદ્ધિ થવી અસંભવિત છે જે પ્રાણાતિપાત વગેરેમાં લીન થયેલા છે શુદ્ધિને માટે માટી અને પાણીને ઉપ
ગ કરે છે, અને તેમનાથી આત્મ શુદ્ધિ માને છે-ગંગા વગેરે તીર્થ સ્થાનમાં સ્નાન કરવાથી પાપ નષ્ટ થાય છે એમ માને છે તેમના પ્રત્યે જીવ અને અજીવના સ્વરૂપને જાણનારા વિદ્વાને સદય થઈને કહે છે-જુઓ તે ખરા, અજ્ઞાનનો આ કે પ્રબળ મહિમા છે ? કે જેઓ પ્રાણાતિપાત વગેરેના સેવનથી જનિત જ્ઞાનાવરણીય વગેરે આઠ પ્રકારના કર્મ રૂપી જળને હમેશાં લેપાનુ
For Private And Personal Use Only
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथाङ्गसूत्रे - मूलम्-तएणं तस्स सुयस्स परिवायगस्स इमीसे कहाए लद्धस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपजित्था, एवं खलु सुदंसणेणं सोयमूलं धम्मं विप्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवन्ने, तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिद्धिं वामेत्तए पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवित्तए तिकटु एवं संपेहेइ, सं. पेहिता परिवायगसहस्सेणंसद्धिं जेणेव सोगंधिया नगरो जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिवायगावसहंसि भंडनिक्खेवं करेइ, करित्ता धाउरत्तवत्थपरिहिए पवि. रलपरिव्वायगेहिं सद्धिं संपरिवुडे परिवायगावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सोगंधियाए नयरीए मज्झं मज्झेणं सुदंसणस्स गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ ।
. तएणं से सुदंसणे तं सुयं एजमाणं पासइ, पासित्ता नो अब्भुटेइ, नो पच्चुग्गच्छइ णो अढाइ नो परियाणाइ नोवंदइ तुसिणीए संचिटइ, तएणं से सुए परिव्वायए सुदंसणं अणब्भुट्रियं० पासित्ता एवं वयासी-तुमं णं सुदंसणा ! अन्नदा ममं एजमाणं पासित्ता अब्भुटेसि जाव वंदसिइयाणिसुदंसणा! तुमं ममं एजमाणं पासित्ता तं कस्त णं तुमे जाव णो वंदसि सुदंसणा ! इमेयारूवे विणयमूले धम्मे पडिवन्ने । ये जीव पुनः उन्ही प्राणातिपातादिको के सेवन से अपनी शुद्धि की कामना कर रहे हैं। सूत्र २१॥
લેપને સંગ્રહવામાં લીન થયેલા એ જીવે ફરી તેજ પાણાતિપાત વગેરેના सेवनयी पोतानी शुद्धि धरछे छे. ॥ सूत्र " २१ ” ।
For Private And Personal Use Only
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारधर्मामृतवर्षिणा टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
વર
तणं से सुदंसणे सुयेणं परिव्वायएणं एवं बुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुइ, अब्भुट्टित्ता करयल० सुयं परिव्वायगं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुपिया ! अरिहओ अरिट्ठनेमिस् अंतेवासी थावच्चापुत्ते नामं अणगारे जाव इहमागए इह चेव नीलासोए उज्जाणे विहरइ, तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ॥ सू० २२ ॥
टीका - तपणं इत्यादि - ततस्तदनन्तरं खलु तस्य शुकस्य परिव्राजकस्य 'इमी से कहाए' अस्याः कथायाः 'लद्वहस्स' लब्धार्थस्य - ज्ञातार्थस्य सतः 'अयमेयावे' अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणरूपः 'अज्झत्थिए' आध्यात्मिकः आत्मगतो विचारः, यावत् समुदपद्यत = प्रादुर्भूतः - एवं खलु सुदर्शनेन शौचमूलं धर्मे ' विष्पजहाय विमजहाय = परित्यज्य विनयमूलो धर्मः 'पडिवन्ने' प्रतिपन्नः स्वीकृतः । तत्तस्मात् श्रेयः खलु मम सुदर्शनस्य दृष्टि-दर्शनं जिनप्रवचने श्रद्धानं ' वामेत ' बमयितुं त्याजयितुं पुनरपि शौचमूलकं धर्ममाख्यातुम्, सुदर्शनस्य यद् विनयमूल
' तरणं तस्स सुयस्स ' इत्यादि ।
टीकार्थ- (तपणं) इसके बाद (तस्स सुयस्स) उस शुक परिव्राजकको जब (इमी से कहाए लट्ठस्स समाणस्स ) यह ससचार विदित हुआ सुदर्शन से श्रमणोपासक बन गया - यह खबर मिली - तब ( अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था ) उस के मन में यह प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ ( एवं खलु सुदंसणेणं सोयमूलं धम्मं विप्पजहाय विणय मूले धम्मे पडिवन्ने) सुदर्शन शौच मूलक धर्मका परित्याग कर विनयमूलक धर्म कोस्वीकार लिया है, (तं से यं खलु मम सुदंसणस्स दिवामेत्त पुणरवि सोयमूलयं धम्मे आधवित्तए) सो अब मुझे तणं तस्स सुस्स ' इत्यादि ।
6
¿ka' ( agoj ) cup onɛ ( ara gata ) ys ulkaivè quik ( galà कहाए लद्धट्टस्स समाणस्स ) या वात सांलजी सुदर्शन शेड श्रमशोपास था गयाछे, त्यारे ( अयमेव रूवे अज्झत्थिए जाव समुपज्जित्था ) तेना भनभां विचार स्र्यो- ( एवं खलु सुदंसणेण सोयमूलं धम्मं विष्पजहाय विणयमूले धम् पडवन्ने ) } सुदर्शन शेडे शौय भूल धर्मे त्यने विनय भूसा धर्म स्वीआर्यो छे ( तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिट्ठि वामेत्तए पुणरवि सोयमूलय धम्मे आवित्त ) तो वे भारे सुदर्शननी विनय भूस धर्म उपरथी श्रद्धा भटा
For Private And Personal Use Only
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२४
ज्ञाताधर्मकथासूत्र कधर्मविषयकं श्रद्धानं तदपनीय पुनरपितं शौचमूल के धर्मे स्थापयितुं ममोचितमिस्यर्थः । 'त्तिकटु' इतिकत्वा-इदं मनसि धृत्वा, एवम् उक्तप्रकारेण · संपेहेइ' संप्रेक्षते विचारयति, 'संपेहित्ता' संप्रेक्ष्य इत्येवं मनसि विचार्य, परिव्राजकसहस्रेण साधै यत्रैव सौगंधिकानगरी यत्रैव परिव्राजकावसथा परिव्राजकानामावसथ आश्रमः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य परिव्राजकावसथे भाण्डनिक्षेपम् त्रिदण्डाद्युपकरणानां स्थापनं करोति, कृत्वा धातुरक्तवस्त्रपरिहितः गैरिकरागरञ्जितवस्त्रधारी प्रविरलपरिव्राजकैः कतिपयपरिव्राजकाश्रमात् । पडिनिक्खमइ' प्रतिनिष्कामति-नि: सरति । प्रतिनिष्क्रम्य निःसृत्य सौगन्धिकाया नगर्या 'मज्झं मज्झेणं' मध्यमध्येन मध्यमध्यभागेन यत्रैव सुदर्शनस्य गृहं, यत्रैव सुदर्शनस्तत्रैवोपागच्छति । यही योग्य है कि मैं सुदर्शन की विनय मूलक धर्मकी दृष्टिको हटाकर उसे समझाकर स्थापित करूँ। (त्तिकट्ठएवं संपेहेइ ऐसा मनमें धारण कर उसने पूर्वोक्तरूप से उसे समझाने का विचार किया-(संपेहिता परिव्वायगसहस्सेण सद्धि जेणेव सोगंधिया नगरी जेणेव परिव्वायगा. वसहे तेणेव उवागच्छद) विचारकर वह फिर परिव्राजक सहस्र के साथ जहां वह सौगंधिका नगरी और उस मे भी जहां परिव्राजकाश्रम • था वहां आया। (उवागच्छित्ता परिचायगावसहंसि भंडनिक्खेवं
करेइ) आकर उसने उस परिव्राजकाश्रम में अपने भाँडोको रख दिया (करित्ता धाउरत्तवत्थपरिहिए पविरलपरिवायगेहिं सद्धिं संपरिवुडे परिवायगवसहीओ पडिनिक्खमई ) रखकर फिर वह गैरिक धातु से रंगे हुए वस्त्रों को पहिरे हुए कुछेक परिव्राजकों के साथ २ उस परिव्राजकाश्रम से बाहर निकला (पडिनिक्खमित्ता सोगंधियाए सनरी शीय भूख म प्रत्ये तेनी श्रद्धा भावी ने. (त्ति कटु एवं संपेहेइ) 0 शत मनमा विया२ ४शन तेणे पक्षांनी म तने समान। रियार ज्या (संपेहित्ता परिवायगसहस्सेणं सद्धिं जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छइ ) विया२ ४ीन ते ५२ से सस પરિવ્રાજકની સાથે જ્યાં તે સૌગધિકા નગરી અને તેમાં પણ જ્યાં પરિવ્રાજ. ४॥श्रम तो त्या मा०ये. ( उजागच्छित्ता परिव्वायगावसहसि भंडनिक्खे करेइ ) मावान तो पोतानी मधी वस्तुस। त्यो भूत्री. (करिता धाउरत्तवत्थपरिहिए पविरलपरिवायगेहिं सद्धिं संगरिबुडे परिव्वायगावसहाओ पडिनिखमई ) भी તે ગરિકધાતુથી રંગાએલાં વસ્ત્રો પહેરીને થોડા પરિવ્રાજકોને સાથે લઈને भाश्रमनी मा२ नभयो (पडिनिक्खमित्ता सोगंधियाए नयरीए मज्झ मझेणं
For Private And Personal Use Only
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
"
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अं० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
ततः खलु स सुदर्शनस्तं शुकमेजमानम् आगच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा 'नो अब्भुइ' नो अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थानं न करोतिस्म 'नो पच्चुग्गच्छद्द ' नो प्रत्युद्गच्छति अभिमुखं न गच्छति, 'नो आढाइ ' नो अद्रियते आदरं न कुरुते 'नो परियाणा ' नो परिजानाति = आगमनं नानुमोदयति नो वन्दते न स्तौति, तुसिणीए संचिgs ' तूष्णीकः संतिष्ठति ।
,
ततः खलु स शुकः परिव्राजकः सुदर्शनमनभ्युत्थितं दृष्ट्वा एवमवादीत्-त्वं खलु सुदर्शन ! अन्यदा अन्यस्मिन् समये मामेजमानं दृष्ट्वा अभ्युत्तिष्ठसि यावद्नयरीए मझं मज्झे णं जेणेव सुदंसणस्स गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ ) बाहर निकल कर सौगंधिका नगरी के ठीक बीचों बीच से होकर जहां सुदर्शन का घर और उसमें भी जहां सुदर्शन था वहां गया (तएण से सुदंसणे तं सुयं एजमाणं पासइ ) सुदर्शन ने आते हुए परिव्राजक को देखा (पासिता नो अब्भुट्ठेइ, नो पच्चुग्गच्छह, णो आढाइ णो परियाणाइ नो बंदर, तुसिणीए संचि ) परन्तु देखकर वह उठा नही उसके सामने नहीं गया, उसका आदर नहीं किया, उस के आगमन की उसने सराहना नहीं की । स्तुति भी नहीं की केवल चुपचाप बैठा रहा। ( तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं अणभुट्टियं • पासिता एवं वयासी) जब शुक ने ऐसा देखा अर्थात् सुदर्शन को नहीं उठा हुआ, सामने नहीं आया हुआ, आदि रूप से देखा तो देखकर उसने उससे इस प्रकार कहा- तुमं णं सुदंसणा ! अन्नया ममं एज्जमाणं पासित्ता अन्भुट्ठेसि जाव वंदसि इयाणि सुदंसणा ! तुमं ममं
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जेणेव सुदंसणरस गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ ) महार नीडजीने સૌગધિકા નગરીની ખરાબર વચ્ચે થઇને જ્યાં સુદર્શનનું ઘર અને તેમાં પણુ न्यां सुदृर्शन हतो त्यां गये. (तएण से सुदंसणे तं सुयं एज्जमाणं पासइ ) सुदर्शने । परिवाउने भावता लेया ( पासित्ता नो अब्भुट्ठेइ, नो पच्चु. गच्छइ, णो आढाइ, णो परियाणाइ, नो बंदर, तुसिणीए संचिट्ठइ) परतु ले ને તે ઉભા થયા નહિ, સ્વાગત માટે તેની સામે ગયા નહિ, તેને આદર આ નહિ, તેના આગમનની તેમણે સરાહના કરી નહિ, તેની સ્તુતિ પણ ऐरी नहि इश्त तेथे सुपथाय पोतानी नभ्यासे मेसी ४ २ह्या. ( तरणं से सुए परिव्वायए सुदंसणं अणन्भुट्ठियं० पासिता एवं वयासी ) शु परित्रान} शेडने सत्ार भाटे पोतानी सांभे नहीं भवतां लेने सुदंसणा ! अन्नया मम एज्जनाणं पासित्ता अब्भुट्ठे
ह्यं - (तुमं णं
जाव वदसि इयाणि
For Private And Personal Use Only
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अत्र यावच्छब्देन-पच्चुग्गच्छसि' आढासि, परिजाणासि ' इति वाच्यम् , वन्दसे, इदानीं सुदर्शन ! त्वं मामेजमानं दृष्ट्वा यावद् नो बन्दसे, अभ्युत्थानादिकं करोपीत्यर्थः तत्कस्य खलु त्वया सुदर्शन ! अयमेतद्रूषो विनयमूलधर्मः प्रतिपन्नः हे सुदर्शन ! मम धर्म परित्यज्य त्वया कस्य धर्मः स्वीकृत इत्यर्थः ।
ततः खलु स सुदर्शनः शुकेन परिबाज केनैवमुक्तः सन् आसनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय करतलपरिगृहीतं-शिर आरतं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा शुकं परित्राजकमेवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्-एवं खलु देवानुप्रियाः ? अर्हतोऽरिष्ट नेमे अन्तेवासी-शिष्यः स्थापत्यापुत्रनामाऽनगारः यावद्-पूर्वानुपूर्व्या चरन् ग्रामानुग्राम एजमाणं पासित्ता जाव णो वंदसि तं कस्स णं तुमे सुदंसणा इमेयारूवे विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ) सुदर्शन ! जब तुम किसी समय मुझे आता हुआ देखता था तो देखकर उठता था- यावत् वंदना करता था। परन्तु अब इस समय सुदर्शन ! तुम मुझे आता हुआ देखकर यावत् उठे नही तुमने मेरी वंदना नहीं की। तो हे सुदर्शन ! तुमने किसका यह इस रूप विनय मूलक धर्म स्वीकार कर लिया है । (तएणं से सुदंसणे सुकेणं परिव्वायएणं एवं धुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुटेइ, अब्भुष्ठित्ता करयल० सुयं परिव्वायगं एवं वयासि ) इस प्रकार शुक परिव्राजक के द्वारा कहा गया वह सुदर्शन अपने स्थान से उठा और उठकर उसने दोनों हाथों को अंजलि रूप में कर और उसे मस्तक पर रख उससे इस प्रकार कहो कि ( एवं खलु देवाणुप्पिया! अरिहाओ अरिहनेमिस्स अंतेवासी थावच्चा पुत्ते नामं अणगारे जाय इहमागए इह चेव नीला सोए उज्जाणे विहरइ ) हे देवानुप्रिय ! अहंत अरिष्टनेमि प्रभु के सुदंसणा ! तुम ममं एज्जमाणं पासित्ता जाव णो वंदसि तं कस्स गं तुगे सुईसणा इमेयारूवे विणयमूले धम्मे पडिकन्ने ) सुशन ! पडसा तुंगभे त्यारे भने આવતાં તે ત્યારે સ્વાગત માટે ઉભે થતા અને સામે આવીને વંદન વિગેરે કરતે હતો પણ અત્યારે મને જોઈને તું ઉભું થયે નથી તેમજ તે મને વંદન પણ ક્ય નથી. હે સુદર્શન ! તે આ કેવા પ્રકારને વિનયમૂળક ધર્મ સ્વીકાર્યો છે ? (तएणं से सुदंसणे सुकेणं परिवायए णं एवं पुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुठेइ अन्भुद्वित्ता करयल० सुयं परिव्वायगं एवं वयासी)शु परिवानी पात साजणीने सुदर्शन પિતાના સ્થાનેથી ઉભું થયે અને ઊભા થઈને બંને હાથની અંજલીને મસ્તકે भूधीनतेने ह्यु-(एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरिहाओ अस्टिनेमिरस अंतेवासी थावच्चापुत्ते नामं अणगारे जाव हिमागए इहचेव नीलासोए उज्जाणे विहरइ हेनुप्रिय !
APK
For Private And Personal Use Only
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् द्रवन् सुखं सुखेन विहरन् , इति संग्रहः । इह-सौगन्धिकानगर्यामागतोऽस्ति, इहैव अस्यामेव नगर्या बहिभांगे नीलाशोके नीलाशोकनाम्नि उद्याने विहरति, तस्यस्थापत्यापुत्रस्य खलु अन्तिके समीपे विनयमूलो धर्मः प्रतिपन्नः मया स्वीकृतः । यदा स्थापत्यापुत्र इहागतस्तदाऽहमपि वंदितुं तत्रगतस्तदा तदुपदिष्टधर्मकथां श्रुत्वा विनयमूलमाहत्तधर्म समीचीनं विज्ञाय स एव धर्मः स्वीकृतो मयेतिभावः ॥२२॥ . मूलम्-तएणं से सुए परिव्वायए सुदंसणं एवं वयासीतं गच्छामो सुदंसणा! तव धम्मारियस्त थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामो इमाइं च णं एयारूवाइं अट्ठाई हेउई पंसिणाइं कारणाई वागरणाई पुच्छामो, तं जइणं मे से इमाई अट्ठाइं जाव वागरइ, तएणं अहं वंदामि नमसामि अहमेसे इमाई अट्ठाइं जाव नो से वाकरेइ, तएणं अहं एएहिं चेव अटेहिं हेउहिं निप्पटूपसिणवागरणं करिस्सामि ॥ सू० २३ ॥ अंतेवासी स्थापत्या नाम के अनगार मुनि परंपरा के अनुसार चलते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए सुख पूर्वक इस सौगंधिका नाम की नगरी में आये और अब वे नीलाशोक नाम के उद्यान में ठहरे हुए हैं। (तस्सणं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ) उनके पास मैंने विनय मूल धर्म समीचीन समझ कर स्वीकार कर लिया है । तात्पर्य इसका यह है कि मैं भी उनको वंदना करने के लिये गया था। उन के मुख से जब मैंने धर्मकथा सुनी तब मुझे उनका सिद्धान्त निर्दोष युक्ति शास्त्र से अविरुद्ध प्रतीत हुआ अतः मैंने उनसे उनके उस धर्म को अंगीकार कर लिया है । सूत्र ॥ २२ ॥ અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુના અંતેવાસી ( શિષ્ય) સ્થાપત્યા પુત્ર નામના અનગાર મુનિ પરંપરાને અનુસરતા એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતા સૌગંધિકા नगरीमा सुमेथी माव्या. सने भा नीसा धानमा तर्या छ. (तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ) तेभनी पासे में सारी पेठे समलने વિનય મૂલક ધર્મ સ્વીકાર્યો છે. તાત્પર્ય એ છે કે હું પણ તેમને વંદન કરવા ગયે હતે તેમના શ્રીમુખથી મેં ધર્મકથા સાંભળી. મને તેમના સિદ્ધાતે નિર્દોષ તેમજ શાસ્ત્ર સમ્મત લાગ્યા. એથી મેં તેમની પાસેથી આ धम स्वीय छे. ॥ सूत्र २२ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
८८
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
6
तणं से सुए ' इत्यादि ।
टीका - ततः खलु स शुकः परिव्राजकः सुदर्शननामकं श्रेष्ठिनम् एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत् तत् तस्मान् गच्छामः खलु सुदर्शन | तत्र धर्माचार्यस्य स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके प्रादुर्भवामः । ' इमाई च' इमान् अनन्तरमेव वक्ष्यमाणतया संनिकृष्टान, च शब्दादन्यांथ खलु एवद्रूपान् = वक्ष्यमाणस्वरूपान अर्थान्= अर्यमाणत्वाद अधिगम्यमानत्वादर्थाः भावा वक्ष्यमाणयात्रा यापनीयादयस्तदन्ये हेतून् अन्वयव्यतिरेकलक्षणहेतुना ज्ञायमानत्वाद हेतुरूपास्तान् प्रश्नान=प्रश्नविषयत्वात् प्रश्नरूपास्तान्, कारणानि = कारणं तत्पाधयुक्तिरूपम्, उपपत्तिमात्रं तद्विषयत्वाद् कारणानि तानि व्याकरणानि= सप्रमाणं व्याख्यायमानत्वात् व्याकरणानि च तानि पृच्छामः । तद्= तस्माद् यदि खलु मम स स्थाप
'तएण से सुए' इत्यादि ।
टीकार्थ- (i) इसके बाद (से सुए) उसशुक (परिव्वायए) परिवा क ने (दंसणं एवं वयासी) सुदर्शन से ऐसा कहा - ( तं गच्छामो णं सुदंसणा ! तव धम्मायरियस्स थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउन्भवामो) तो हे सुदर्शन ! मैं यहाँ से अब तुम्हारे धर्मचार्य स्थापत्यापुत्र के पास जाता हूँ । (इमाई च णं एयाख्वाइं अट्ठाई हेउई पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छामो तं जड़णं मे से इमाई अट्ठाई जाव वागरह, तरणं अहं वंदामि नमसामि, अहमे से इमाई अट्ठाई जाव नो से वागरेह तएणं अहं एएहि चेव अहिं उहिं निष्पट्टपसिणं वागरणं करिस्सामि ) और इस . प्रकार के इन अर्थों को हेतुओं को, प्रश्नों को कारणों को, व्याकरणों को, उनसे पूछूंगा, यदि वे मेरे इन अर्थों का यावत् व्याकरणों प्रश्न तए णं से सुए इत्यादि '
For Private And Personal Use Only
टीअर्थ (तएणं ) त्यार माह ( से सुए ) शु ( परिव्वायए) परिवा० ( सुदंस णं एवं वयासी) सुदर्शनने आ प्रमाणे उधुं - ( तं गच्छामो णं सुदंसणा ! तब धम्मायरियस थात्रच्चापुत्तस्स अंतिय पाउब्भवामो) हे सुदर्शन ! तो हवे महीं थी हु' सीधी तारा धर्मगुरु स्थापत्यायुत्रनी पासे ४ छु ( इमाइ च एयारूबाई' अट्ठाई हेउई पसिणोई कारणाई वागरणाई पुच्छामो तं जइण' मे से इमाइ, अठ्ठाइ, जाव वागरइ तरणं अहं वंदामि, नम॑सामि, अहमेसे इमाई' अट्ठाई जाब नो से वागरेइ तरणं अहं एएहिं चेत्र अहिं उहिं निप्पदुपसिणं वागरणं करिस्सामि ) तेभनी साथै हु' अर्थो, हेतुभो, प्रश्नो, अरलो, अने व्यारो। ना विषे यर्या उरीश ने ते भारा अर्थी, हेतुभो, अश्नो
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मगरधर्मामृतवर्षिणीटी० अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
८९
त्यापुत्रः इमान् अर्थान् यावद् व्याकरोति= मम प्रश्नानां समीचीनं समाधानं करिष्यति ततस्तदनन्तरं खलु अहं वन्दे वन्दिष्ये, नमस्यामि=नमस्करिष्यामि । अथ मम स इमान् अर्थान् यावद् व्याकरणानि नो व्याकरोति=न स्पष्टीकरिष्यति, ततस्तदा खलु अहम् एतैरेव अर्धेर्हेतुभिः ' निष्पद्रपसिणयागरणं ' निःस्पष्टमश्नव्याकरणं=निः स्पष्टानि अव्याख्यातानि प्रश्नव्याकरणानि प्रश्नोतराणि येन स तथा तम्, प्रश्नोत्तरकरणासमर्थं करिष्यामि ॥ २३ ॥
मूळम् - तणं से परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्टिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उज्जाणे जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासीजत्ता ते भंते! जवणिज्जं ते अव्वाबाहं पितं, फासूयं विहारं ते ? |
तएण से थावच्चापुत्ते सुएणं परिवायगेणं एवं वृत्ते समाणे सुयं परिव्वाय गं एवं वयासी - सुया ! जत्तावि मे जवणिज्जंपि मे अव्वावापि मे फासूय विहारंपि मे, 11
तएण से सुए थावच्चापुत्तं एवं वयासी- किं भंते ! जत्ता ! ॥ सुया ! जन्नं मम णाणदंसणचरित्ततवनियमसंजममाइएहिं जोएहिं जयणा से तं जत्ता ।
से किं तं भंते ! जवणिज्जं ? |
विशेष का अच्छी तरह से समाधान कर देंगे तो मैं उन्हें नमस्कार करूँगा । यदि वे मेरे इन अर्थो से लेकर व्याकरणों तक की बातों का कोई ठीक २ स्पष्टीकरण नहीं करेंगे। तो मैं उन्हें उसी समय इन्हीं अर्थ हेतुओं द्वारा प्रश्नोत्तर करने में असमर्थ कर दूंगा ॥ सू० २३ ॥
કારણેા તેમજ વ્યાકરણેા વિષેના પ્રશ્નો નાં સારી પેઠે સમાધાન કરશે તેા હું તેમને વંદન કરીશ અને જે તે મારા અર્થી વ્યાકરણા વગેરે ના વિષે સારી રીતે સ્પષ્ટી કરણ નહિ કરી શકે તે હું તેમને તરત જ પ્રશ્નોત્તર કરવામાં અસમર્થ કરીશ ! સૂત્ર ૨૩ ।।
ज्ञा १२
For Private And Personal Use Only
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
सुया ! जवणिजे दुविहे पन्नत्त, तंजहा इंदियजवणिजे य नो इंदियजवणिजे य से किं तं इंदियजवणिजे ? |
सुया ! जन्नं ममं सोइंदिय - चक्खिदिय - घाणिदियजिविंभदिय फासिंदियाई निरुवहयाई वसे वहांति से तं इंदियजवणिजं ।
से किं तं नो इंदियजवणिज्जं ?
सुया ! जन्नं कोहमाणमायालोभा खीणा उपसंता नो उदयंति से तं नो इंदियजवणिजे ।
से किं तं भंते! अव्वाबाहं ?
सुया जन्नं मम वाइयपित्तिय सिंमिय सन्निवाइया विविहा रोगा का णो उदीरेंति से तं अव्वाबाहं ।
से किं तं भंते फासूयविहारं ? ।
सुया ! जन्नं आरामेसु वा उज्जाणेसु वा देवकुलेसु वा सभासु वा पव्वसु वा इत्थीपसुंपडगविवज्जिएसु वसहीसु पाडिहारियं पीठफलग सेजासंथारयं उग्गिव्हित्ताणं विहरामि, से तं फासूयविहारं ।
सरिसवया ते भंते! किं भक्वेया अभक्खेया ? | सुया ! सरिसवया भक्खेया वि अभवखेया वि ।
सेकेणणं भंते एवं वुच्चइ ? सरिसवया भक्खया वि अभक्खेया वि ।
सुया ! सरिसवया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा -- मित्तसरिसवया धन्नसरिसवया य, तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवया ते तिविहा
For Private And Personal Use Only
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् पन्नत्ता, तं जहा-सहजायया सहवड्डियया सहपसुकीलि यया, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खया, तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा सत्थपरिणया य असत्थ परिणया य, तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खया, तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा फासुगा य अफासुगा य, अफासुया णं सुया ! नो भक्खेया, तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पन्नत्ता, सं जहा--जाइया य अजाइया य, तत्थ णं जे ते अजाइया ते अभक्खेया. तत्थ णं जेते जाइया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-एसणिज्जा य अणेसणिजा य । तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते गं अभक्खया, तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता, लद्धा य अलद्धा य, तत्थणं जे ते अलद्धा ते अभक्खेया, तत्थ णं जे ते लद्धा ते समणाणं निग्गंथाणं भक्खया, एएणं अटेणं सुया! एवं वुच्चंति-सरिसवया भक्खया वि, अभक्खेया वि, एवं कुलत्था वि भाणियव्वा, नवरं इमं णाणत्तं-इस्थि कुलत्था य धन्नकुलत्था य इत्थि कुलत्था तिविहा पन्नत्ता तं जहा-कुलवधूयाइ य कुलमाउयाइ य कुलधूयाइ य, धन्नकुलत्था तहेव, एवं मासा वि, नवरं इमं नाणत्तं-- मासा तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-कालमासा य अत्थमासा य, धन्नमासा य, तत्थ ण जे ते कालमासा ते णं दुवालसविहा पन्नत्ता तं जहा-सावणे जाव आसाढे, ते णं अभक्खया धन्नमासा तहेव ।
For Private And Personal Use Only
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्र एगे भवं दुवे भवं अणेगे भवं अक्खए भवं अव्वए भवं अवट्ठिए भवं अणेगभूयभावभविएवि भवं ?।
सुया ! एगे वि अहं दुवेवि अहं जाव अगभूयभाव भविएवि अहं ।
से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ एगे वि अहं जाव अणेगभूयभविएवि अहं !
जण्णं सुया! दव्वट्टयाए एगे अहं नाणदंसणट्टयाए दुवेवि अहं पएसट्टयाए अक्खएवि अहं अव्वएवि अहं अवाट्ठिए वि अहं उवओगट्टयाए अणेगभूयभाव भविएवि अहं।
एत्थ णं से सुए संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ नमसइ,वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! तुभं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए, धम्मकहा भाणियव्वा ॥सू० २४॥
'तएणं से सुए' इत्यादि
टीका- ततस्तदनन्तरं स शुकः परिव्राजकसहस्रेण सुदर्शनेन श्रेष्ठिना च साधं यत्रैव नीलाशौकनामोद्यानं यत्रैव स्थापत्यापुत्र नामाऽनगार आसीत्, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्थापत्यापुत्रमेव वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्- 'जत्ता ते
'तएणं से सुए' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से सुए) वह शुक परिव्राजक (परिव्यायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्टिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उजाणे जेणेव थावच्चा पुत्तो अणगारे तेणेव उवागच्छइ ) १ एक हजार परिव्राजकों के-और सुदर्शन के साथ जहां नीलाशोक उद्यान तथा उसमें जहां
'तएणं से' सुए' त्या !'
टी' ( तएणं ) त्या२ मा ( से सुए ) शुभ परि ( परिवायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेटिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उजाणे जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छद) मे ७०२ परिमा भने सुशन शनी साथे यां નીલાશોક ઉદ્યાન હતું અને તેમાં જ્યાં સ્થાપત્યા પુત્ર અનગાર હતા ત્યાં ગયે,
For Private And Personal Use Only
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मंजगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् भंते !' हे भदन्त ! ते तव यात्रा वर्तते ? ' जवणिज्ज ते ' यापनीयं ते तव वर्तते ?, ' अब्बावाहं पि ते ' अव्याबाधमापि ते वर्तते ?, 'फासुयविहारं ते ' मासुक विहारस्ते तव वर्तते ?। ___ ततस्तदनन्तरं स स्थापत्यापुत्रः शुकेन परिव्राज केनैव मुक्तः सन् शुकं परिब्राजकमेवमयादीत्-हे शुक ! ' जत्ता वि मे' यात्राऽपि मे ममाऽस्ति, ' जवणि ज्जंपि मे' यापनीयमपि मे ममारित, ' अव्यावापि मे' अव्यावाधमपि मे मम वर्तते, 'फासुयविहारं पि मे' मासुक बिहारोऽपि मे ममाऽस्ति ।
ततस्तदनन्तरं खलु स शुकः स्थापत्यापुत्रमेवमवादीत् किं भंते ! जत्तो' का भदन्त यात्रा हे भदन्त ! का=किं स्वरूपा तव यात्रा ?। स्थापत्यापुत्र अनगार था वहां गया। (उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं बयासी) वहां जाकर उसने स्थापत्यापुत्र से ऐसा कहा-(जत्ताते भंते ! जवणिज्जं ते अव्वाराहं पि ते फायविहारं ) तो हे भदंत ! आपकी यात्रा है क्या ? आपके यापनीय है क्या? आपके अव्यायाध है क्या? आपके प्राप्तुक विहार है क्या ? (तएणं से थावच्चापुत्ते सुएणं परिवायगेणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्यायगं एवं वयासी) इस प्रकार शुक परिव्राजक से पूछे गये उन स्थापत्यापुत्र अनगार ने उसशुक परिव्राजक से ऐसा कहा-(सुया ! जत्ता वि मे, जवणिउजंपि में अव्वाबाहंपि में फासुयविहारंपि में) हे शुक हमारा यात्रा भी है, यापनीय भी है हमारा अन्यायाध भी है हमारे प्रासुक विहार भी है। (तएणं से सुए थावच्चापुत्तं एवं क्यासी) जय स्थापत्यापुत्र अनगार ने शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहा-तय उसने स्थापत्यपुत्र अनगार ( उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी) त्यां धन तेणे स्थापत्यापुत्र ने ॐधु-(जत्ता ते भंते ! जवणिज्जते अव्वाबाहं पि ते फासुयविहार) महन्त ! શું તમારી યાત્રા છે ? યાપનીય છે? આવ્યાબાધ છે? તમારે પ્રાસુક विहा२ छ ? (तएणं से थावच्चापुत्ते सुरणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणेसुयं परिवायगं एवं वयासी) शु४ परिवानी मा पात सलमान स्थापत्यापुत्र सनगारे शु४ परिवाने ४थु-(सुया ! जत्ता वि मे जवणिज्जंपि में अव्वा वाईपि में फासुयविहार पि में) 3 शुॐ ! समारी यात्रा ५५ छ, यापनीय ५ छ, मायामा ५४ छ. भने अमारे पासु विडार ५५५ . ( तएण से सुर थावच्चापुत एवं वयासी) न्यारे २.५त्या पुत्र मानारे शुभ પરિવ્રાજકને આ પ્રમાણે કહ્યું, ત્યારે સ્થાપત્યા પુત્ર અને મારે તેમને કહ્યું-( જિ.
For Private And Personal Use Only
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्म कथागसूत्रे शुकस्य प्रश्नं श्रुत्वा स्थापत्यापुत्रो वदति-'सुया' इत्यादि. । हे शुक ! 'जन्नं यत् खलु मम ‘णाणदंसणचरित्ततवनियमसंजममाइएहिं ' ज्ञानदर्शनचारित्र तपोनियमसंयमादिकेषु ज्ञानं-ज्ञानावरणीयस्य क्षयोपशमात् क्षयाद्वा प्रादुर्भूतो जीवाजीवादि तत्त्वनिर्णयलक्षणआत्मपरिणामः, दर्शन-दर्शनमोहनीयस्य क्षयोप शमात् क्षयाद्वाऽऽविर्भूतस्तत्त्व श्रद्धानरूपआत्मपरिणामः, चारित्रं चारित्रमोहनीयस्य क्षयोपशमात् क्षयाद्वा जातः स्थूलमूक्ष्ममाणातिपातादि विरमणलक्षण आत्म. से इस तरह पुनः पूछा (किं भंते जत्ता) हे भदन्त ! यात्रा शब्द का अर्थ क्या है ? (सुया जन्नं मम णाणदंसणचरित्त तवनियम संजमाइ एहिं जोएहिं जयणा से तं जत्ता) स्थापत्यापुत्र अनगार ने कहा है शुक ? ज्ञानदर्शन, चारित्र, तप, नियम, संयम, आदिकों में एवं मन वचन और काय इनके व्यापारो में जो हमारी यतनाचार पूर्वक प्रवृत्ति है वही यात्रा है-और ऐसी यात्रा हमारी आनंद के साथ हो रही है । अन्य शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा वीतराग मार्ग में नही है । ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से, अथवा क्षय से जीवअजीव आदि तत्वों के विषय में जो उनके स्वरूप आदि का निर्णय रूप आत्म परिणामउ. स्पन्न होता है वह ज्ञान है ।
दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से अथवा क्षय से, जीव के जो तत्व श्रद्धान रूप आत्म परिणाम होता है वह दर्शन हैं। भते जत्ता) 3 मह' ! यात्रा सन। म छे. (सुया जन्न मम णोण दसणवरित्ततवनियमसंजममाइएहिं जोरहिं जयणा से त जत्ता) स्था५ त्यापुत्र मानगारे यु-3 शु४ ! शान शन, यात्रि, त५, नियम, सयम, पोरे માં અને મન, વચન અને કાયાના વ્યાપારમાં જે અમારી જાન પૂર્વક આચરણ કરવાની પ્રવૃત્તિ છે, તેજ યાત્રા છે, અને એ યાત્રા અમારી સુખેથી પસાર થઈ રહી છે, શત્રુંજય વગેરે તીર્થોની યાત્રા વીતરાગ માર્ગને અનુસરનારાઓ માટે નથી. જ્ઞાનાવરણય કર્મના પશમથી અથવા ક્ષયથી જીવ અજીવ વગેરે વિષયમાં જે તેમના સ્વરૂપ વગેરેના નિર્ણય રૂ૫ આત્મ પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે તે જ્ઞાન છે.
દર્શન મેહનીય કર્મના ક્ષયે પશમથી અથવા ક્ષયથી જીવતા જે તત્વ શ્રદ્ધાન રૂપ આત્મપરિણામ હોય છે તે દર્શન છે.
ચારિત્ર મેહનીય કર્મના ક્ષયે પશમથી અથવા કયથી જે સ્થૂલ તેમજ સૂમ
For Private And Personal Use Only
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् परिणामः, तपः अनशनादिकं द्वादशविध , नियमः द्रव्यक्षेत्रकालभावतोऽभिग्रह प्रहहणमुत्तरगुणरूपम्., संयमः चारित्रग्रहणेनैव संयमे प्रतिबोधिते पुनःसंयम पदोपादानादुभयकालगतिलेखनरूपः, कालचतुष्टा ये स्वाध्यायादिकरणरूपश्च संयमो ग्राह्यः । आदिपदाद् ध्यानावश्यकादिः तत्र ध्यान-धर्मध्यानादि, आवश्यक पड़िध तेषु, 'जोएहि' योगेषु मनोवाक्कायव्यापारेषु, 'जयणा' यतना प्रवृत्तिः, सैषा यात्रा मम वर्तते । नान्या शत्रुजयादियात्रा वीतरागमार्गे वर्तते इत्यर्थः ।
एवमेव भगवतीसूगेऽष्टादशशतकस्य दशमोद्देशके भगवता सोमिल ब्राह्मणाय प्रोक्तम्
शुको वदति-से किं तं भंते जवणिज्ज' अथ किं तद् भदन्त ! यापनीयम् ? ।
चारित्र मोहनीय कर्म केक्षयोपशम से अथवा क्षय से जोस्थूल तथा सूक्ष्म प्राणातिपात आदि पापों सेनिवृत्ति रूप आत्मा का परिणाम होता है वह चारित्र है। तप-अनशन आदि के भेद से १२ प्रकार का है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव को लेकर उत्तर गुणरूप जो नाना प्रकार के नियम-अभिग्रह-ग्रहण से ही संयम भी ग्रहीत हो जाता है फिर भी जो यहाँ संयम का स्वतंत्र ग्रहण किया गया है वह “उभय काल में प्रतिलेखना करना और काल चतुष्टय में स्वाध्याय करना इस रूप संयम है, यह वाक्य इस अर्थ को सूचित करता है। आदि पद से "ध्यान आव श्यक" ये ग्रहीत हुए हैं। धर्म ध्यान आदि का नाम ध्यान तथा आवश्य करने योग्य कर्तव्य का नाम आवश्यक है । यह आवश्यक छ प्रकार है। इन ज्ञानादिकों में तथा योगों में जो यतना है यही यात्रा है-अन्य कोई यात्रा नही है यह यात भगवती सूत्र में भगवान ने अठारहमाँ शतक के પ્રાણાતિપાત વગેરે પાપ થી નિવૃત્તિ રૂપે આત્મા ને પરિણામ થાય છે તે ચારિત્ર છે. તપ, અનશન વગેરેના ભેદથી બાર પ્રકારનું છે.
દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની સાથે ઉત્તર ગુણ રૂપ જે અનેક જાતના નિયમ-(અભિગ્રહ) ગ્રહણથી જ સંયમનું પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે, છતાં એ અહીં જે સંયમનું સ્વતંત્ર રૂપે ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે, તે બંને વખત પ્રતિ લેખના કરવી અને કાલ ચતુષ્ટયમાં સ્વાધ્યાય કરવો તે “સંયમ ” છે, भा पायो अर्थ मी सूयवे छे, महि५६ 43 " ध्यान आवश्य" પદનું સૂચન થાય છે. ધર્મ વિશે ધ્યાન વગેરે “ધ્યાન” કહેવાય છે, તેમજ આવશ્યક રૂપે કરવા યોગ્ય કર્તવ્યનું નામ “આવશ્યક છે. આ આવશ્યકના છે પ્રકારે છે. અજ્ઞાનાદિકે વગેરેમાં તેમજ યોગમાં જે યતના છે તેજ યાત્રા છે. બીજી કોઈ પણ જાતની યાત્રા છે જ નહિ. આ વાત “ભગવતી સૂત્ર” ના અઢારમા શતકના દશમા ઉદ્દેશકમાં ભગવાને સેમિલ બ્રાહ્મણને કહી છે,
For Private And Personal Use Only
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथागरले स्थापत्यापुत्रः कथयति-हे शुक ! यापनीयं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद् यथा इन्द्रियया यनीयं नोइन्द्रिय यायनोयं च. ।
शुको बूते-अथ किं तद् इन्द्रिययापनीयम्. ? ।
स्थापत्यापुत्रः समाधत्ते-'सुया ! इत्यादि । हे शुक ! यत्-यस्मात् कारणात् खलु मम श्रोत्रेन्द्रि-चक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-जिहूवेन्द्रि-स्पर्शेन्द्रियाणि निरूपहतानि वशे वर्तन्ते, तद् इन्द्रिययानीम् इन्द्रियाणां वशीकरणं मम वर्तते. । 'तं' इतिवाक्यालङ्कारे, एवमन्यत्रापि । दशमें उद्देशक में सोमिल ब्राह्मण से कही है । (से कि त भंते जवणि. ज्ज) हे भदंत! यापनीय शब्द का क्या अर्थ है ? (सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते तं जहा-इंदियजवणिज्जे य णो इंदियजवणिज्जे य) इस प्रकार शुक परिव्राजक के पूछने पर स्थापत्यापुत्र अनगार ने उसे समझाया कि हे शुक ! यापनीय दो प्रकार का कहा हुआ है -जैसे १ इन्द्रि योपनीय २ नो इन्द्रिय यापनीय । (से किं तं इंदियजवणिज्ज) इन्द्रिय यापनीय का क्या स्वरूप है इस प्रकार शुक के पूछ ने पर स्थापत्या पुत्र ने कहो (सुया ! जन्नं ममं सोइंदिय चक्खिदिय जिभिदिय फासिदियाई निरुवहयाई वसे वटुंति, से तं इंदियजवणिज्ज ) शुक! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्रागइन्द्रिय, जिह्वाइन्द्रिय, स्पर्शनइन्द्रिय निरुपहत बन कर जो मेरे वश में हो रही हैं यहीं इन्द्रिय यापनीय हैं अर्थात् विना किसी बाधा के अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होने पर भी ये पांचो इन्द्रियां जो मेरे वश में वर्त रही हैं यही (से कि त भते जवणिज्ज) 3 महन्त ! याचनीय शहन अर्थ शुछ १ (सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते त' जहा इंदियजवणिज्जे य णो इंदिय जवणिज्जे य ) शुपरिवा४४ना प्रश्न सोमणीन स्थापत्यापुत्र मनगारे तेने સમજાવતાં કહ્યું કે-હે શુક! યાપનીયના બે પ્રકારે કહ્યાં છે. (૧) ઈન્દ્રિય યાપક नीय मन (२) नन्द्रिय य ५नीय (से किं त ईदियजवणिज्ज) धन्द्रिय યાપનીયનું સ્વરૂપ શું છે? શુક પરિવ્રાજકના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં સ્થાપત્યા પુત્રે
-(सया! जन्न मम सोई दिय चक्खिदिय जिभि दियफासिं दियाई निरुवह याई वसे वदति, से तं इंदियजवणिज्ज) 3 शु! श्रोत्रेन्द्रिय, यक्ष छन्द्रि ઘાણ ઇન્દ્રિય, જિ હા ઇન્દ્રિય, સ્પર્શ ઈન્દ્રય, નિરુપહત થઈને મારા વશમાં
તેજ ઇન્દ્રિય યાપનીય છે. એટલે કે કોઈપણ જાતના વાંધા વગર વિષયને ગ્રહણ કરવાની તાકત હોવા છતાં એ પાંચે ઈન્દ્રિયે મારે વશ થયેલી છે તેજ
For Private And Personal Use Only
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ५ सुरनिष्ठीवर्णनम्
शुकः पृच्छति-से किं' इत्यादि । अथ किं तद् नोइन्द्रिययायनीयम्. । स्थापत्यापुत्र आह-' मुया' इत्यादि. । हे शुक ! यत् यस्मात् खलु क्रोधमानमाया लोभाः क्षीणा क्षयं प्राप्ताः, उपशान्ताःउपशमं प्राप्ताःसन्तो नो उदयन्ते-नोदीयन्ते, नो इन्द्रिययापनीयं नोइन्द्रियं मनस्तस्य विकाराः कषाया इह नो इन्द्रियशन्देन गृह्यन्ते, तेषां यापनीयं वशीकरणं ममास्ति ।
शुको वदति-' से किं' इत्यादि । अथ किं तद् भदन्त अव्यावाधम् ? । स्थापत्यापुत्र आह-'सुया !' इत्यादि । हे शुक ! यत्-यस्मात् खलु मम वातिक पैत्तिकश्लैष्मिकसांनिपातिका ! वातिकाः वातप्रकोपजनिताः पत्तिकाः प्रकोपसमुद्भवाः, श्लैष्मिका कामकोपप्रभवाः, सानिपातिका वातपित्त श्लेष्मणां समूह संनिपातः, तत्र भवाः विविधा ' रोगायंका ' रोगातङ्काः रोगाश्चातकाचेति इन्द्रिय यापनीय है । ( से किं तं नो इंदियजवणिज्जे ) भदंत ! नो इन्द्रिय यापनीय का क्या अर्थ है ? (सुया जन्नं कोह माण माया लोभा खीणा उपसंता नो उदयंति से तं नो इंदियजवणिज्जे) हे शुक जो क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें क्षयावस्थापन्न- होकर या उपशम अवस्थावाली होकर उदय में नहीं आ रहीं हैं यही नो इन्द्रिय यापनीय है। नो इन्द्रियका अर्थ मन होता है । मन के विकार ये क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चार कषायें हैं । इसलिये ये नो इन्द्रिय शब्द से गृहीत हुए हैं। यापनीय शब्द का अर्थ वश करना हैं । ये सब कषायें मेरे वश में हो रही हैं - यही नो इन्द्रिय यापनीय मेरे वर्त रहा है। (से किं भंते अव्याबाहं ) भदंत! अव्यावाध का तात्पर्य क्या है ? (सुया जन्नं मम वाइयपित्तिय सिभियसनिवाइया धन्द्रिय यापनीय छे. ( से कि त नो इंदियजवणिज्जे ) त ! न धन्द्रिय यापनीयन। म थाय छे. सुया जन्न कोहमाण मायालोमा खीण! उत्रमता नो उदयति से त' नो इंदियजवणिज्जे) 3 शु ! अध, मान, भाया, અને લેભ એ ચારે કષાય ક્ષય પામીને અથવા તો ઉપશમિત થઈને ફરી ઉદય પામતી નથી એજ ને ઈન્દ્રિય અપનીય છે. ને ઈન્દ્રિય એટલે મન, અને ક્રોધ, માન, માયા, અને લેભ એ ચારે મનનાજ વિકારે છે. એથી આ બધાને ઈન્દ્રિય શબ્દથી ગૃહીત થયાં છે. યાપનીય શબ્દને અર્થ વશ કરવું છે. આ બધા કાર્યો મારે વશ થયેલા છે. એજ નેઈન્દ્રિય યાપનીયને ईर्ता रह्यो छु ( से किं भते अब्वाया) 3 महत ! भव्यासाना श। अथ छ ? ( सुया जन्न मम वाइयपित्तियसिभियसन्निवाइया विविहा
For Private And Personal Use Only
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
१
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
द्वन्द्वः रोगा दाहज्वरादयः, आतङ्काः शीघ्रघातिनः शूलादयः नो उदीर्यते, तद् अन्य बाधं = व्यावाधानां शरीरपीड़ानामभावः मम वर्तते. 1
.
शुकः पृच्छति - 'से किं ' इत्यादि । अथ कोऽसौ भदन्त' मासुक विहारः । १ स्थापत्यापुत्रो वदति-‘सुया' इत्यादि । हे शुक 1 यत् यस्मात् खलु आरा मेषु = उपवनेषु, उद्यानेषु पुष्पप्रधानेषु राजवनेषु देवकुलेषु व्यन्तरायतनेषु, सभासु परिषत्सु ' पव्वसु ' पर्वतेषु इदमुपलक्षणं तेनाष्टादशस्थानेषु इत्यर्थः । स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितासु वसतिषु पातिहारिकं = पुन: समर्पणीयं, पीठफलकशय्यासंविविहा रोयायंका नो उदीरेंति से तं अव्वाबाहं से किं तं भंते फासुयविहारं आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु, सभामु पव्वएस, इत्थी पसुपंडग विवज्जियासु वसहीसु पाडि हारियं पीठफलग संधारयं उग्गहिता णं विहरामि सेत्तं फालयविहारं ) शुक 1 जिस कारण से वात, पित्त और कफ से जनित तथा इन तीनों के सन्निपात से जनित जो विविध प्रकार के दाहज्वर आदि रोग शीघ्र घातक शूलादिक आतंक मुझे उदित नही हो रहे हैं यही अव्यायाध मेरे वर्त रहा है । व्यावाध शब्द का अर्थ शारीरिक पीडा है- और इस का अभाव इस समय मेरे में वर्त रहा है । यही अव्यावाध का स्वरूप है । हे भदन्त ! प्रासुक बिहार का क्या स्वरूप है ? उत्तर - हे शुक! जिस कारण मैं उपवनों में पुष्प प्रधान राजकीय बनों में देवघरों मैं अर्थात् व्यन्तरायनों में परिषदों में पर्वतों में ऊपलक्षण से अठारह स्थानों में, स्त्री, पशु, पंडक नपुंसकों से विहीन वसतिओं में मठों में रोयाय का नो उदीरेंति से त अवावाह से किं तं भंते फासूयविहार आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पव्वसु इत्थी, पसुपंडगविविज्जियासु वसहीसु पाडिहारिय पीठफलगसेज्जासंधारय उग्गिहित्ताणं विरामि से तं फासूयविहार) હે શુક! વાત, પિત્ત અને કફથી જન્મતા તેમજ આ ત્રણેના સન્નિ પાતથી ઉદ્ભભવતા અનેક દાહજવર વગેરે, રાગેા શીઘ્રઘાતક શૂળ વગેરે આતક મારા શરીરમાં ઉદ્ભવતા નથી એજ અવ્યાખાધ મારામાં વર્તી રહ્યો છે. અવ્યાખાધનું સ્વરૂપ . એજ છે. શુકે સ્થાપત્યાપુત્રને બીજો પ્રશ્ન કર્યાં -હે ભદ્રંત ! પ્રારુક વિહારનું સ્વરૂપ શુ છે? તેના ઉત્તર આપતા સ્થાપત્યા પુત્ર કહે છે—હે શુક! હુ· ઉપવનમાં, પુષ્પ પ્રધાન રાજકીય વનામાં, દેવ ઘરામાં એટલે કે વ્યંતરાયતનામાં, પરિષદેìમાં પર્વતે માં-ઉપલક્ષણથી અઢાર સ્થાનામાં સ્રી, પશુ,પક, નપુ તક વગરની વસ્તીઓમા મઠામાં પ્રાતિહારિક
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम् स्तारकमवगृह्य-याचित्ला विक्षरामिविचरामि, स प्रासुकविहारः । 'त' इति वा. क्यालंकारे । शुकः पुनरप्युपहासार्थ पृच्छति-'सरिसवया' इत्यादि । हे भदन्त ! 'सरिसक्या ' ते तत्र किं भक्ष्याः, उत अभक्ष्याः किम् ? स्थापत्यापुत्रः समाधत्ते -'सुया!' इत्यादि । हे शुक ! 'सरिसवया' सरिसवयशब्दार्थाः भक्ष्या अपि, अभक्ष्या अपि, ' सरिसक्या' इति पदस्यार्थभेदाद् भक्ष्या अभक्ष्या भवन्तीति भावः । शुकः पुनराह-' से केपट्टणं' इत्यादि । भदन्त ! हे भगवन् तत् केनार्थेन एवमुच्यते-' सरिसक्या' भक्ष्या अपि, अभक्ष्या अपीति । ___ स्थापत्यापुत्रो वदति-'सुया !' इत्यादि । 'सरिसक्या' सरिसवयशब्दवोध्या अर्था द्विविधा प्रज्ञप्ताः, तद् यथा ' मित्तसरिसक्या धनसरिसवया य' प्रातिहारिक-पुनः समर्पणीय- पीठ, फलक, शय्या संस्तारक को याचित कर विचरण करता हूँ- यही मेरा प्रासुक विहार है । उपहास करने के अभिप्राय से पुनः शुक परिव्राजक पूछता है कि (सरिसवया ते भंते किं भक्खेया अभक्खेया ?) भदंत ! " सरिसवय" तुम्हारे सिद्धान्तानुसार भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं ? ( सुया सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि ) स्थापत्या पुत्र ने कहा- शुक! सरिसवय भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। (से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि) शुक ने उनसे पुनः पूछा भदंत ! आप यह किस अर्थ की अपेक्षा लेकर ऐसा कहते हैं कि सरिसवय भक्ष्य भी हैं
और अभक्ष्य भी हैं । (सुयो सरिसवया दुविहा पन्नत्ता तंजहा मित्त सरिसवया धन्नसरिसवया) स्थापत्यापुत्रने उसे समझाया कि शुक ! सरिसवय –એટલે કે યાચના કરેલી વસ્તુ કે જે પાછી અપાય જેમકે પીઠ, ફળક, શા સંસ્મારકની યાચના કરી ને વિચરું છું. એજ મારે પ્રાસુક વિહાર છે. शु४ परि४ ५. सन अलिप्रायथी ३२॥ प्रश्न ४२ छ है ( सरिसवया ते भते किं भक्खेया अभक्खेया ! ) 3 मत ! 'सरिसक्य ' तभा शा प्रमाणे लक्ष्य छ सय १ (सुया सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि) स्थापत्या પુત્રે તેના ઉત્તરમાં કહ્યું- હે શુક ! “સરિસવય” ભક્ષ્ય પણ છે અને અભક્ષ્ય ५ छ. ( सेकेणढेण भते ! एवं वुच्चइ सरिसंसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि) शु भने ५२ प्रश्न यो- महत ! तेभ 'सरिसवय' लक्ष्य तेम असक्ष्य ४या अर्थनी अपेक्षा ४डी २॥ छो. (सुया सरिसवया दुविहा पन्नत्ता त जहा मित्तमरिसक्या: धन्नसरिसवया ) स्थापत्यापुढे तेने समજાવતાં કહ્યું કે હે શુક ! “સરિસવય” શબ્દને અર્થે બે રીતે થાય છે. ૧
For Private And Personal Use Only
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१००
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मित्र वयसः, धान्यसर्षपकाश्च । ' सरिसवया ' इत्यस्य द्विविधोऽर्थः सदृशवयसः सर्षपकाचेति । तत्र सदृशवयसो मित्ररूपाः सर्षपकास्तु धान्यरूपा इति भावः । तत्र खलु ये ते मित्र सदृशवयसः = मित्ररूपाः समानवयसस्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः प्रतिबोधिताः तद् यथा - ' सहज यया ' सहजातकाः समानकालजन्मानः, " सहवडियया सह वर्धितकाः समानकाले वृद्धिं प्राप्ताः, 'सह पंसुकीलिया' सह पांसु क्रीडितकाः सहैव धूलिक्रीड़ाकारिणचेति । वे सर्वे मित्ररूपाः सदृशवयस्काः खलु श्रमणानां निर्ग्रन्यानामभक्ष्याः भोक्तुं न कल्पन्ते । तत्र खलु ये ते धान्यसर्षप
दो प्रकार से प्रज्ञप्त हुआ है -१ मित्रसरिसवय दूसरा धान्य सरिसवय - | सरिसवय शब्द की सदृशवय " और सर्षपक " इस प्रकार संस्कृत छाया होती है। जब सदृशवय - समान आयुवाले मित्रजन - ऐसा छायार्थक " सरिसवय " पद लिया जाता है-तब उस पक्ष के अनुसार सरिसवय अनक्ष्य है ऐसा अर्थ बोध होता है - तथा सर्षपक छायोर्थक जब सरिसवय पद लिया जाता है तब " सरिसवय " भक्ष्य भी है ऐसा अर्थबोध होता है । इसी विषय को अधिक और स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि - ( तत्थ णं जे तं मित्त सरिसवया तेतिविहा पनन्ता, जहा - सह जायया सह संवडियया, सहपंसुकील
या ते णं समणाणं निग्गंधाणं अभक्खेया ) इनमें जो मित्र सरिसवय हैं वे तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हुए हैं- जैसे सह जातक, सहवर्धितक, सह पांसुक्रीडितक अपने साथ जिनका जन्म हुआ हैं वे सहजातक हैं । अपने साथ २ जो वृद्धि को प्राप्त हुए हैं वे सहवर्धित हैं । तथा जो
भित्र, सरिसवय, २ धान्य, ' सरिसवय. ' शम्हनी संस्कृत छाया १, सदृशवय, અને ૨, સ`પક એ રીતે થાય છે. જ્યારે સર્વિસય ને શશવય' ( સર ખી આયુષ્ય ધરાવનારા મિત્ર જન ) આવે અથ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે ત્યારે ‘ સરિસય ’અભક્ષ્ય છે આવા અર્થ જણાય છે તેમજ · રિસય ’ પદ સપક ( સરશિયું ) અર્થાંમાં લેવાય છે ત્યારે તે ભક્ષ્ય છે આવા પણ अर्थ थाय छे. भेज वातने विशेष स्पष्ट ४२तां सूत्रार डे छे हैं ( तत्थण' जेत' मित्त सरिसवया ते तिविहा पन्नत्ता, तजहा - सहजायया, सहसंवड्ढियया, सहप सुकीलियया तेण समणाण निग्ग थाण अभक्खेया ) सभां न्यारे सरिसवय શબ્દના અર્થ મિત્ર હાય છે, ત્યારે તેના ત્રણ પ્રકાર સમજવા જોઇએ જેમકે १, सडेन्नत, २, सडवर्धित, मने 3, सडयांसुङीडित आपली साथै જન્મ લેનાર સહજાતક કહેવાય છે. આપણી સાથે મેાટા થનાર સહધિત
For Private And Personal Use Only
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०२
अनगारधर्मामृतवर्षिणो टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् कास्ते द्विविधा द्विपकाराः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा शस्त्र परिणताश्च । तत्र खलु ये ते अशस्त्रपरिणताः सचित्तास्ते श्रमणानां निर्ग्रन्थानामभक्ष्याः अखाद्याः तत्र खलु ये शस्त्रपरिणताः शस्त्रपरिणत्याऽचित्तास्ते द्विविधा प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-प्रासुकाश्च अ. मासुकाश्च । अप्रासुकाः खलु हे शुक! नो भक्ष्या अखाद्याः। तत्र खलु ये ते प्रासुकास्ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-' जाइया य अजाइया य' याचिताश्च, अयाचिताश्च । तत्र खलु-ये ते अयाचितास्ते अभक्ष्याः अखाद्या। तत्र खलु ये ते याचितास्ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा एषणीयाश्च अनेषणीयाश्च । तत्र खलु साथ २ धूलि में खेले हैं वे सह पांसु क्रीडितक हैं । ये सब श्रमण निग्रंथों को अभक्ष्य हैं । (तत्थणं जे ते धन्नसरिसक्या ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा सत्थ परिणया य असत्थ परिणया य) जो धान्य सरिसवय हैं वे दो प्रकार के हैं-जैसे १ शस्त्र परिणत २ अशस्त्र परिणत- (तत्थ णं जे ते असत्य परिणया ते समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया तत्थणं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता तं जहा फासुगाय अफासुगाय ) इन में जो अशस्त्र परिणत सचित्त- धान्यसरिसवय हैं वे श्रमण निर्ग्रन्थों को अभक्ष्य है- अखाद्य हैं । जो शस्त्र परिणत अचित्त हैं वे प्रासुक और अप्रासुक के भेद से दो प्रकार के हैं ( अफोसुयाणं सुया णो भक्खेया तत्थणं जे ते फासुया ते दुविहा पन्नत्ता तं जहा जाइयाय अजाइया य तत्थणं जे ते जाइया ते दुविहा पन्नत्ता तं जहा एसणिज्जा य अणेसणिज्जा य ) इन में जो अप्राप्सुक धान्य सरिसवय हैं वे हे शुक खाने કહેવાય છે, તેમજ જેઓ એકી સાથે માટીમાં રમતાં રમતાં મોટા થયા છે. તેઓ સહપાસુકીડિતક મિત્ર કહેવાય છે. શ્રમણ નિર્ચથો માટે આ બધા मलक्ष्य छे. (तत्थण जे ते धन्नसरिसवया ते दुविहा पण्णत्ता, त जहा सत्थ परिणयाय असत्य परिणयाय) धान्य भेटले रे मनाना ३५मा सरिसक्य (सरशिय) छेतेनले ४२ छ-१ शव परिणत, २, मशर परिणत, (तत्थण जे ते असत्यपरिणया ते समणाण णिग्गंथाण अभक्खेया तत्थणजे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पण्णतो त जहा-फासुगाय अफासुगाय ) मामा અશસ્ત્ર પવિણત-સચિત્ત ધાન્ય સરિસવય છે તે શ્રમણ નિર્ચ માટે અભ ય છે, અખાદ્ય છે. તેમજ શસ્ત્રપરિણત-ચિત્ત છે તે પ્રાસુક અને અપ્રાસક माम में प्रारना छ. (अफासुयाण सुया णो भक्खेया-तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पन्नचा तजहा जाइयाय अजाइयाय तत्थण जे ते जाइया वे दुविहा पन्नत्ता तजहा एसाणिज्जाय अणेसणिज्जाय ) मामांथा । प्रासु धान्य सरसियं (સરિસવય) છે, તે અખાદ્ય છે પ્રાસુક ધાન્ય સરસિયા (સરિસવાય) ના બે
For Private And Personal Use Only
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०२
शाताधर्मकथासूत्रे ये ते 'अणेसणिज्जा' अनेषणीयास्ते खलु अभक्ष्याः । तत्र खलु ये ते 'एसणिज्जा' एपणीयाः, ते द्विविधा प्राप्ताः-तद् यथा-लब्धाश्च अलब्धाश्च । तत्र खलु ये तेभलब्धास्ते अभक्ष्याः । तत्र खलु ये ते लब्धास्ते श्रमणानां निर्ग्रन्थानां भक्ष्याः हे शुक ! एतेनार्थेन-उक्तरूपेण अर्थेन उक्तार्थमादायेत्यर्थः, एवमुच्यते 'सरिसवया' सरिसवयशब्दवाच्या अर्था भक्ष्या अपि अभक्ष्या अपीति ।। ___एवं कुलत्या वि भाणियव्या' एवं उक्तधकारेण कुलस्था अपि भणितव्याः, ' नवेरं' विशेषः इदं नानात्वं स्त्रीकुलस्थाश्च धान्यकुलत्थाश्च । स्त्रीकुलस्था स्त्रिविधा योग्य नहीं हैं। प्रातुक धान्य सरिसवय दो प्रकार के हैं जैसे याचित
और अयाचित । इन में भी जो अयाचित हैं वे अभक्ष्य हैं- श्रमण निर्ग्रन्थों को खाने योग्य नहीं हैं। याचित एषणीय और अनेषणीय के भेद से दो प्रकार के हैं ( तत्थणं जे ते अणेसणिज्जाते णं अभक्खेया) इन में जो अनेषणीय धान्य सरिसवय हैं वे अखाद्य हैं । (तस्थणं जे ते एसगिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता लद्धाय अलद्धाय, तत्थ ण जे ते अलद्धा, ते अभक्खेया, तत्थ णं जे ते लद्धा ते समणाणं निग्गंधाणं भक्खेया) जो एषणीय सरिसवय हैं वे लब्ध और अलब्ध के भेद से दो प्रकार के हैं- अलब्ध अभक्ष्य और लब्ध श्रवण निर्ग्रन्थों को भक्ष्य हैं । ( एएणं अटेणं सुया एवं बुच्चति-सरिसक्या- भक्खेया वि अभक्खेया वि एवं कुलत्था वि भाणियव्या ) हे शुक! सरिसवय पद के इन पूर्वोक्त अर्थों को लेकर ऐसा मैं कहता हूँ कि सरिसवय भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। इसी तरह " कुलस्था" के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिये। (णवरं इमं नाणत्तं) परन्तु इस में इस तरह विशेषता પ્રકાર છે-યાચિત અને અયાચિત, આમાં અયાચિત સરિસવય અભક્ષ્ય ગણાય છે. શ્રમણ નિર્ગથે આહારમાં અયાચિત સરિસવયને પ્રયોગ કરતા નથી. ( तत्थण जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता लद्धा य अलद्धाय, तत्थण जे ते अलद्धा, ते अभक्खया, तत्थण जे ते लद्धा ते समणाण निग्गंधाण भक्खेया) એષણીય (ઈચ્છનીય) સરિસવયના લબ્ધ અને અલબ્ધ બે પ્રકારે છે નિર્ગ"
ને માટે અલબ્ધ સરિસવય (સરશિયું ) અભક્ષ્ય છે અને લબ્ધ સરિતવય लक्ष्य छे. (ए ए ण अटेण सुया एवं वुच्चंति सरिसवया भक्खेया वि अभक्खया वि एवं कुरुत्था वि भाणियव्वा) 3 शु! २॥ प्रमाणे सरिसक्य ने पूर्वरित રીતે અર્થ સ્પષ્ટ કરતાં તેને ભક્ષ્ય અને અભક્ષ્ય આમ બંને રીતે કહી શકાય या शते 'त्या' ना विष पर सम से नये. (णवरइम नाणत)
For Private And Personal Use Only
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम्
१०३
प्रज्ञप्ताः, तद्यथा कुलवधूका इतिच कुलमार का इतिच, कुल दुहितर इतिच । धान्य कुलत्थास्तथैव ।
एवं मासाः मापा अपि, नवरं विशेषः - इदं नानात्वम् मासा माषा स्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - कालमासाश्व अर्थमाषाश्च धान्यमाषाश्च । तत्र खलु ये ते कालमासास्ते खलु द्वादशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - श्रावणो यावद् आषाढ, ते खलु अभक्ष्याः | अर्थमाषा द्विविधाः - हिरण्यमाषाश्व, सुवर्णमाषाथ, ते खलु अभक्ष्याः धान्यमाषास्तथैव ॥
( हत्थी कुलत्थाय धन्न कुलत्था य ) एक स्त्री कुलस्था दूसरी धान्य कुलस्था | तात्पर्य इसका - कुलत्था की छाया कुलस्था है- इसका अर्थ स्त्री कुलस्था और धान्य कुलस्था है । कुलथी जात का अन्न विशेष जो होता है वही यह धान्य कुलत्था से ग्रहण हुआ है । (इत्थी कुलत्था तिविहा पन्नता तं जहा कुल बघुयाइ य कुल माउयाइ य, कुल धूयाइय ) इन में जो कुलत्था का वाच्यार्थ स्त्री कुलस्था है वह तीन प्रकार का हैं जैसे - १ कुलवधू २ कुलमातृ का ३ और कुल दुहिता ( लड़की ) ( धन्न कुलत्था तहेव ) धान्यकुलत्था अर्थ का निरूपण धान्य सरिसवय के समान जानना चाहिये । ( एवं मासा वि नवरं इमं नाणन्तं- मासा तिविहा पन्नता, तं जहा - कोल मासाय, अत्थ मासाय, धन्न मासाथ, तस्य णं जे ते काल मासा ते पण दुवालसविहा पन्नत्ता, तं जहा- साव जे जाव आसाढ़े ते णं अभक्खेया, अस्थमासा दुविहा हिरन्न मासा सुषण्ण मासाय तेणं अभक्खेया धन्न मासा तहेव ) इसी तरह " मासा " मानुं स्पष्टीरण मेवी रीते ( इत्थी कुलत्थाय धन्नकुलत्थाय ) से स्त्री કુલસ્થા અને ીજુ` ધાન્ય ( અનાજ ) કુલત્થા.ની છાયા કુલસ્થા થાય છે. તેના એ રીતે અર્થ સમજી શકાય છે. સ્ત્રી ને પણ કુલસ્થા કહેવાય છે અને કુલસ્થા એક જાતનું કઠોળ પણ હોય છે તેને કળથી ’ કહે છે. ( इत्थीकुलत्था तिबिहा पन्नत्ता तजहा कुलवधूयाइय कुलमाज्याइ य कुल धूया - इय ) स्त्री सस्थाना अमर छे- प्रेम - (१) हुण वधू, (२) भुज भातृा, अने (3) ण हुहिता ( हिउरी ) ( धन्नकुलत्था तहेव ) धान्यार्थवाची दुसस्था शहनुं निइयाशु धान्य सरिसवनी प्रेम समन्न्वु लेहये ( एवं मासा वि नवर इम नाणत्त मासा तिविहा पन्नता तं'जहा - काल मासाय, अत्थमाखाय, धन्नमासोय, तत्थण जे ते कालमासा तेणं दुवालसबिहा पन्नत्ता तजहा सावणे जाव आसाढे तेणं' अभक्खेया अत्यमासा दुविहा हिरन्न मासा सुवणमासीय ते अभक्खेया पन्नमासा तहेव ) या प्रमाणे ४ भास શબ્દ વિષે પશુ
6
,
6
"
For Private And Personal Use Only
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२०४
शांताधर्मकथाजसो
स्थापत्यापुत्रस्य तत्वज्ञानजिज्ञासया शुकः पृच्छति-'एगे भवं ' इत्यादि। 'एगे भवं ' एको भवान् ? अयं भावः-आत्मान एकत्वस्वीकारे श्रोत्रादि विज्ञानानामवयवानां चात्मऽनेकतोपलब्ध्या एकत्वं दूपयिष्यामीति.।
.' दुवे भवं ' द्वौ भवान्न् ? अयमाशयः- आत्मनो द्वित्वाभ्युपगमेऽहमित्येक त्वविशिष्टार्थस्य द्वित्यविरोधेन द्वित्वं दुषयिष्यामीति । 'अणेगे भवं ' अनेके भवान् ? आत्मानोऽनेकत्वस्वीकारेऽहमित्येकत्वविशिष्टार्थस्यानेकत्वविरोधेनानेकत्वं दुषयिष्यामीति भावः । ' अवखएभवं ' अक्षयो भवान ? ' अव्यएभवं' अ. व्ययो भवान् , ' अवढिए भवं' अवस्थितो भवान् , आत्मानित्य इति भवता स्वीक्रियते इतिपश्नत्रयाभिप्रायः। शब्दाभिधेय के विषय में भी जानना चाहिये । किन्तु विशेषता इस प्रकार है-मास तीन तरह के हैं-जैसे-कालमाम अर्थमाष,धान्यमाष इन में जो कालमास हैं वे १२बारह प्रकार हैं । जैसे श्रावण नाम से लेकर आषाढ मास तक। ये सब अभक्ष्य हैं । हिरण्य माषा और सुवर्णमाषा के भेद से अर्थ माष दो प्रकार हैं । ये भी अभक्ष्य हैं। धान्यमाष के विषय में धान्यसरिसव के समान प्ररूपणा जाननी चाहिये । अब स्थापत्या पुत्र अनगार से शुक परिव्राजक तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा से प्रश्न करता है कि- ( एगे भवं दुधे भयं अणेगे भवं अक्खए भवं अव्वए, भवं अवट्ठिए भवं अणेगभूयभाव भविए वि भवं ? ) आप एक कैसे हैं ? अर्थात् आत्मा में यदि एकत्व माना जावे तो श्रोत्रादि विज्ञानों एवं अवयवो की अपेक्षा जो उसमें अनेकता की उपलब्धि होती है उस से उसमें एकता नहीं बनती है । यहां " भव" आत्मा का बोधक है વિશેષાર્થો જાણવા જોઈએ. માસ” શબ્દનો અર્થ ત્રણ રીતે થાય છે. જેમ
भास, (१) मर्थ भाष, (२) धान्य भाष, (3) आण पाय मास (મહિના) ના શ્રાવણ થી માંડીને આષાઢ સુધી બાર પ્રકારે છે. આ બધા અભક્ષ્ય છે. હિરણ્યમાષ અને સુવર્ણ માષ આ બંને અર્થમાષના બે પ્રકારે છે. એ પણ અભક્ષ્ય છે. અનાજના રૂપમાં જે ધાન્ય ભાષા ( અડદ) છે તેના માટે ધાન્ય સરિસવની જેમજ નિરૂપણ સમજવું જોઈએ. શુક પરિ प्र तत्वज्ञाननी जिज्ञासाथी तभने प्रश्न २ (एगे भव दुवे भव अणेगे भव अक्खर भव' अब्बर भने अब दिए भव अणेगभूयभावमविर वि भव ?) તમે એક , એ કેવી રીતે ? એટલે કે આત્મા માં જે એકત્વ મનાય તે શ્રોત્ર વગેરે વિજ્ઞાન અને અવયવોની અપેક્ષાએ તેમાં અનેકતા ઉપલબ્ધ હોય છે તેથી. આત્મામાં એકત્વ સિદ્ધ થતું નથી. અહીં “ભવ ' શબ્દ આત્મ
For Private And Personal Use Only
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णम
'अणेगभूयभावभविए वि भवं' अनेक भूतभाव भविकोऽपि भवान् ? अनेके अंशा अवयवाभूताः अतीताः, भावा वर्तमाना भविकाः भाविनश्च यस्य स तथा, आत्मा अनित्य इति पक्षो भवता स्त्री क्रियत इत्यर्थः । अनयोनित्यानित्यक्षयोरेकतआत्मा एक है- इस सिद्धान्त को लेकर शुक स्थापत्या पुत्र अनगार से कहता है कि यह आत्मा का एकत्व पक्ष युक्ति संगत नही बैठता है कारण श्रोत्रादि इन्द्रियों से जो भिन्न २ विज्ञान उत्पन्न हुए हैं एवं जो भिन्न अवयवों की उपलब्धि होती है उस से आत्मा में एकत्व बाधित होता है ! इसी तरह यदि आत्मा में द्वित्व माना जावे तो यह भी पक्ष युक्ति युक्त प्रतीत नही होता है कारण “ अहं ' अहं " इत्याकाररूप जो आत्मा में एकत्व की प्रतीति होती है उससे एकत्व विशिष्ट अर्थ की ही प्रतीति होती है इसलिये इस प्रतीति से उस में द्वित्व (दो) का विरोध आता है। " अणेगे भवं" आत्मा को अनेक भी इसीलिये मानना युक्ति संगत प्रतीति नही होता है कि उस में फिर 'अहं' अहं' इत्याकारक एकत्व प्रतीति नहीं बन सकती है। इस प्रतीति से उस में एकत्व ( एकपन ) का ही मान होता है अनेकता के साथ इस प्रतीति का विरोध है । इसलिये यह पक्ष भी दूषित ठहरता है । 'अक्ख. ए भवं' आत्मा अक्षय है 'अव्वए भव' अव्यय है अवढिए भवं आत्मा ને માટે છે. આત્મા એક છે. આ સિદ્ધાન્તને વિષે શુક પરિવ્રાજક સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારને કહે છે કે આત્મા વિશે એકત્વપક્ષ યુક્તિ સંગત લાગતો નથી. કારણ કે શ્રોત્ર વગેરે ઇન્દ્રિય થી જે જુદી જુદી જાતનાં વિજ્ઞાને ઉ૫ ન્ન થયાં છે અને જે જુદા જુદા અવયની ઉપલબ્ધિ થાય છે તેથી આત્મા માં એકવ બાબિત થાય છે. આ રીતે જ જે આત્મામાં દ્વિત્વ માનવામાં भाव तो २! पात ५४ अथित साती नथी, भ3 'अहं' ' अह' ! રીતે જે આત્મામાં એકત્વની પ્રતીતિ થાય છે તેથી આત્મા એકત્વ વિશિષ્ટ છે એ અર્થ જ સ્પષ્ટ થાય છેઆ રીતે આત્મામાં દ્વિવ વિષે પણ વધે
नो थाय छे. 'अणेगे भव” मामाने भने ५५ भानी न ४१य भई તેમાં પછી “અહું ” “અહ” આ જાતની એકત્વની પ્રતીતિ સંભવિત થઈ શકતી નથી. એનાથી તેમાં એકત્વની પ્રતીતિ થાય છે. આ રીતે અનેકતા ની સાથે આ પ્રતીતિ નો વાંધો ઉભું થાય છે. આ પ્રમાણે આ પક્ષ પણ सहोप २४ उपाय ( अक्खए भव) माम' अक्षय छे. ( अव्वए भव') अव्यय
ज्ञा १४
For Private And Personal Use Only
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
१०६
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
"
"
रपक्षपरिग्रहोऽन्यतरं दूषयिष्यामीत्याशयः । स्थापत्यापुत्रो वदति - 'सुया' इत्यादि । हे शुक ! एकोऽप्यहम् द्वावप्यहम् यावत् - अनेक भूतभावभविकोऽप्यहम् । पुनः शुकः पृच्छति' से केणद्वेणं भंते !' इत्यादि । तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते - एकोऽप्यहं यावत् - अनेक भूतभावभविकोऽप्यहम् ?
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अवस्थित है, नित्य है ' अगभूयभावभविए वि भव' अनेक भूत, भाव और भविक पर्यायों वाला है अनित्य है भूत शब्द का अर्थ अतीत, भाव का अर्थ वर्तमान एवं भविक का अर्थ भविष्यत कालीन है अर्थात् आत्मा के भूत पर्याय रूप अंश वर्तमान पर्याय रूप अंश तथा भविष्यत काल में होने वाले पर्याय रूप अंश उस के अवयव रूप है । इससे आत्मा में अनित्यता सिद्ध होती है । इस तरह शुक ने स्थापत्या पुत्र अनगार के इन समस्त पक्षों को दूषित किया । नित्य पक्ष अनित्य पक्ष साथ विरूद्ध पड़ता है और अनित्य पक्ष नित्य पक्ष के साथ विरुद्ध पड़ता है इत्यादि । अब स्थापत्यापुत्र अनगार स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार उत्तर देते हैं । ( सुया एगे वि अहं दुवेवि अहं जाव अणेग भूयभाव भविवि अहं ) हे शुक! मैं एक भी हूँ, मैं दो भी हूँ, यावत् अनेक भूत भाव भविक पर्यायों वाला भी हूँ ( से केण द्वेणं भंते एवं वच्चह, एगे वि अहं जाव अणेगभूय भावभविए बि
छे. ( अवट्टिए भव ) आत्मा अवस्थित छे नित्य छे, ( अणेगभूयभावभविए वि भवं ) अनेङ लूत, लात्र भने लावि पर्याय वाणी हे अनित्य छे, भूत શબ્દના અર્થ ભૂતકાળ છે. ભાવ શબ્દનો અર્થ વતમાનકાળ અને ભાવિક શખ્સને અથ ભવિષ્ય કાળ થાય છે, એટલે કે આત્માના ભૃત પર્યાય અશ, વર્તમાન પર્યાય શ તેમજ ભવિષ્યમાં થનારા પર્યાય રૂપ અંશ તેના ( આત્માના ) અવયવ રૂપ છે. એથી આત્મમાં અનિત્યતા સિદ્ધ થાય છે. આ રીતે શુક પરિવ્રાજકે સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારના બધા પક્ષેાને સદેષ સિદ્ધ કર્યાં, આત્મા વિષે નિત્ય અને અનિત્ય આમ અને પદ્મા એક બીજાથી વિરૂદ્ધ છે આ પ્રમાણે જ અનિત્યપક્ષ નિત્યપક્ષ ની સાથે વિરુદ્ધ છે. સ્થપત્યાપુત્ર અનગાર સ્યાદ્વાદ सिद्धान्त मुल्य शुम्परित्राने वाण आयतां हे छे - ( सुया एगे वि अह दुवेवि अहं जाव अणेगभूयभाविभावि रवि अह ) हे शु ! हुं પણ છું, હું એ પણુ છું, અને હું અનેક ભૂત, ભાવ તેમજ ભવિક પર્યાય वाणी या छु ( से केणट्टेण भंते एवं वुच्चइ, एगे त्रि अइ जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं ) शुड़े स्थापत्यापुत्र अनगारने हे लहन्त !
For Private And Personal Use Only
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२०७
मेनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम्
अथ स्थापत्यापुत्रः स्याद्वादमवलम्ब्योत्तरं करोति 'जण्णं सुया !' इत्यादि। यत् खलु हे शुक । ' दबट्टयाए एगे अहं ' द्रव्यार्थतया एकोऽहम् । द्रव्यत्वेनामे. कोऽस्मि जीवद्रव्यस्य एकत्वात् , न तु प्रदेशाभिप्रायेण ।
'नाणदंसणट्टयाए दुवेवि अहं' ज्ञानदर्शनार्थतया द्वावप्यहम् । ज्ञानदर्शनार्थद्वयाभिप्रायेण द्विस्वभावकोऽहमस्मीत्यर्थः । द्वावप्यहमित्यनेन अनेकोऽपि भवानितिप्रश्नस्याप्युत्तरं प्रदत्तम् , उक्तरीत्या द्विस्वभावकत्वाम् श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवाना चात्मनोऽनेकत्वाच्च । यथा एको देवदत्त एकस्मिन्नेवकाले पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वादीननेकान् स्वभावान् पाप्नोति । अहं ) सो भदंत ! आप ऐसा किस अर्थ को लेकर कह रहे हैं कि मैं एक भी हूँ यावत् अनेक भूत भाव भविक पर्यायों वाला भी हूँ हे शुक! ऐसा जो मैं कह रहा हूँ सो किस अर्थ की अपेक्षा को लेकर कह रहा हूँ यह सुनो (जपणं सुया ! दवट्ठयाए एगे अहं णाणदंसणट्ठयाए, दुवेवि अहं, पए सट्टयाए, अक्खए वि अहं अधए वि अहं अवढिए वि अहं उवओगट्टयाए अगभूयभावभविए वि अहं ) मैं एक हूँ ऐसा जो मेरा कहना है वह हे शुक ! द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा है। (द्रव्याथिक नय का विषय एक अखण्ड द्रव्य होता है। अतः उस दृष्टि से मैं द्रव्य को एक होने की वजह से एक है। प्रदेशों की अपेक्षा से एक नहीं हूँ । ज्ञान, दर्शन की अपेक्षा से मैं दो रूप भी हूँ दो स्वभा. ववाला भी हूँ। आत्माका लक्षण उपयोग है । यह उपयोग ज्ञान
और दर्शन की अपेक्षा से दो प्रकार का है। इस दृष्टि से मैं एक होता हुआ भी दो रूप हूँ। इस कथन से मैं अनेक भी हूँ इस प्रश्न તમે ક્યા આધારે કહી રહ્યા છે કે હું એક પણ છું અનેક પણ છું અને હું અનેક ભૂત, ભાવ અને ભવિક પર્યાય વાળ પણ છું ? સ્થાપત્યા પુત્ર मन॥२ शु परिवार ने १५ मा५ता ४ा साया है-(जण्ण सुया ! दबट्टयाए एगे अहं णाणदसणट्टयाए, दुवेवि अह पएसयाए अक्खए वि अह अव्वए वि अहं अवढिए वि अह उव ओगट्टयाए अणेगभूयभावभविए विअह) 3 शु! " से छु" भा३' मा द्रव्याथि नयनी अपे. ક્ષાએથી છે. દ્રવ્યાર્થિક નયને વિષય એક અખંડ દ્રવ્ય હોય છે, દ્રવ્ય એક હોવાથી, આ દષ્ટિએ હું એક છું, પ્રદેશોની અપેક્ષાથી હું એક નથી જ્ઞાન દર્શનની દષ્ટિએ મારા બે રૂપ પણ છે. હું બે જાતના સ્વભાવવાળ પણ છું. આત્માનું લક્ષણ ઉપયોગ છે. જ્ઞાન અને દર્શનની દૃષ્ટિએ ઉપયોગના બે પ્રકાર થાય છે. આમ હું એક હોવાં છતાં પણ બે રૂપ વાળેછું. આથી “ હું
For Private And Personal Use Only
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१०८
www. kobatirth.org
4
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
पट्टयाए अक्खए वि अहं अव्यए वि अहं अवट्ठिए वि अहं' प्रदेशार्थतया - अक्षयोऽप्यहम् असंख्यातानामात्मप्रदेशानामे कस्यापि केनापि प्रकारेण क्षयाSभावात् । अन्ययोऽप्यहम् केनापि प्रकारेणैकस्याप्यात्मप्रदेशस्य नाशाभावात् । का भी उत्तर हो जाता है । इस तरहसे मानने पर भी वहां अहं. प्रत्यय होने में कोई बाधा नही आती है । और उत्तरीति से आत्मा में द्विव भावता आने पर उसमें श्रोत्रादि विज्ञानों की तथा अवयवो की अनेकता भी विरूद्ध नहीं पड़ सकती है । यह विरुद्धता तो आत्मा में एक स्वभावता मानने पर ही आती है। मूल में एक होने पर भी अनेक स्वभाव की मान्यता बाधित नही होती है। जैसे देवदत्त एक पदार्थ में पितृत्व, पुत्रत्व, भ्रातृत्व आदि अनेक स्वभाव एक ही काल में होते हुए प्रतीति होते हैं । एक आत्मा के असंख्यात प्रदेश शास्त्रकारों ने कहे हैं । इन में से कोई भी ऐसा प्रदेश नही है जिसका किसी भी प्रकार से क्षय हो सके अतः इस प्रदेश की अपेक्षा से मैं आत्मा अक्षय हूँ । इसी तरह एक भी आत्मा के प्रदेश का किसी भी तरह से नाश नही हो सकने के कारण मैं आत्मा अव्यय हूँ । अव्यय शब्द का जो किन्हीं २ ने ऐसा अर्थ किया है कि कितनेक प्रदेशों का व्यय नहीं होता है सो वह आगम से विरुद्ध पड़ता है कारण इस અનેક છુ' એ પ્રશ્નના ઉત્તર પણ પુષ્ટ થાય છે, આ માન્યતાથી ત્યાં અહંની પ્રતીતિમાં કોઈપણ જાતના વાંધા જણાતા નથી. અને આ રીતે આત્મામાં દ્વિત્વભાવની સ્થાપનાથી તેમાં શ્રોત્ર વગેરે વિજ્ઞાાની તેમજ અવયવેાની અનેફતામાં પણ કાઇ પણ જાતના વરાધ જણાતા નથી. આત્મામાં એક સ્વભાવતા માનવામાંજ આ વાંધા ઊભેા થાય છે. આ પ્રમાણે મૂળ રૂપે એક હાવાં છતાં પણ અનેક સ્વભાવની માન્યતા કાઇ પણ રીતે બાધિત થતી નથી. જેમકે દેવદત્ત આ એક પદાર્થમાં પિતૃત્વ પુત્રત્વ ભ્રાતૃત્વ વગેરે ઘણા સ્વભાવાની પ્રતીતિ એકજ કાળમાં થાય છે. એક આત્માના અસખ્યાત પ્રદેશેા શાસ્ત્રકારો એ કહ્યા છે. આ અસંખ્યાત પ્રદેશમાંથી કાઇ પણ એવા પ્રદેશ નથી કે જેના કાઇપણ રીતે નાશ થઇ શકે. એથી આ પ્રદેશની અપેક્ષાએ હું ‘ આત્મા ’ અક્ષયછું. આ રીતે આત્માના એક પણ પ્રદેશના ગમેતે સ ંજોગોમાં કોઇપણુ રીતે નાશ નહિ થવાથી હું ‘ આમાં અવ્યયછું. અવ્યય શબ્દના અ’ કોઇ એ એવી રીતે કર્ચી છે “ કેટલાક પ્રદેશે! ના વ્યય થતા ન હાય તે અવ્યય ' તે આ અર્થ આગમથી વિરુદ્ધ છે. કારણકે આ અને માનવાથી ૮ કેટલાક પ્રદેશાના નાશ થાય છે' આવે! અર્થ પણ નીકળે છે. ' ત્રિકાળમાં
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०९
अनगारधर्मामृतवर्षिणो टीका अ०५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम् यत्तु-अव्ययः कियतामपि च व्ययाभावादित्युक्तं, तदागमविरुद्धम्-कियतामपी त्युक्त्या कियतानां नाशोभवतीत्ययस्यापि बोधापत्तिसंभवात् । अवस्थितोऽप्यहम्-असंख्यातप्रदेशवत्वं कदाचिदपि न विनश्यति तेन मम स्वरूपमविचलं सदाऽ वस्थायीत्यर्थः । तस्मान्नित्यस्वरूपोऽप्यहमस्मीति भावः । शिष्यबुद्धिनिर्मलीकर. णार्थमेकस्मिन्नेवार्थेऽनेकपर्यायशब्दानां प्रयोगः।
'उवओगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं' अनेकभूतभावभविकोऽप्य. हम् । अनेके विषयभेदाद् बहुविधा उपयोगा भूताः अतीताः, भावाः वर्तमाना, स्तथा भविकाः=भाविनश्च यस्य स तथा, अतीतकाले बहवः-उपयोगाःश्रोत्रादिप्रकार के कथन में "कितनेक प्रदेशों का नाश होता है " ऐसा अर्थ भी हो जाता है। असंख्यात प्रदेशों से युक्त पना आत्मा में त्रिकाल में भी नष्ट नहीं होता है अतः यह असंख्यात प्रदेशों से युक्त रहने रूप जो आत्मा का स्वरूप है उससे यह आत्मा अविचल है सदा अवस्थित है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मैं नित्य स्वरूप वाला हूँ। मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ ऐसे जो ये सब पर्याय शब्द एक ही आत्मा रूप अर्थ में प्रयुक्त किये गये हैं वे शिष्य की बुद्धि को निर्मल करने के लिये प्रयुक्त हुए हैं ऐसा जानना चाहिये । “ उव ओगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं " यहां अनेक शब्द विषय भेद की अपेक्षा अनेकविध उपयोगों का वाचक हैं ये अनेकविध उपयोग जिस के पहिले हो चुके हैं तथा वर्तमान में जिस में हो रहे है और भविष्य में जिस में होंगे अर्थात् अतीतकाल में श्रोत्रादि विज्ञान रूप उपयोग जिस में उत्पन्न हुए हैं, नष्ट हुए हैं, वर्तमान काल में भी जिस में પણ આત્મામાં અસંખ્યાત પ્રદેશને યુક્ત ભાવ નષ્ટ થતો નથી. એટલા માટે અસંખ્યાત પ્રદેશોથી યુક્ત રહેનારૂં આત્માનું સ્વરૂપ છે તેનાથી આ આત્મા અવિચળ છે હંમેશાં અવસ્થિત છે. એનાથી એ સ્પષ્ટ થાય છે કે હું नित्य स्१३५ पाणी छु. हुमक्षय छुई भव्यय छु'. हु मपस्थित छु. અને આ બધા એક અર્થ વાચક પર્યાય શબ્દો આત્મા રૂપ અર્થમાં પ્રયુક્ત કરવામાં આવ્યા છે, તે શિષ્યની બુદ્ધિને નિર્મળ બનાવવા માટેજ, આમ समल सेवु नये. ( उवओगट्टयाए अणेगभूयभावभविर वि अह ) मही જે અનેક શબ્દ છે તે વિષય ભેદની અપેક્ષાથી અનેક વિધ ઉપયોગનો વાચક છે. આ અનેકવિધ ઉપયોગે જેનાં પહેલાં થઈ ગયા છે, વર્તમાન કાળમાં જેમાં થઈ રહ્યા છે અને ભવિષ્યમાં જેમાં થશે એટલે કે શ્રોત્ર વગેરે વિજ્ઞાન રૂપ જેમાં ભૂતકાળમાં ઉત્પન્ન થયા છે, વર્તમાન કાળમાં પણ જેમાં
For Private And Personal Use Only
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१.१०
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
विज्ञानरूपा उत्पन्ना विनष्टाश्च वर्तमानकालेऽपि उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, तथा भ विष्यत् काले उत्पत्स्यन्त विनशिष्यन्ति च त उपयोगा आत्मनः = कथंचिदभिन्ना स्तेनानेकभूतभावभविकोऽप्यहमस्मीत्येवमनित्यपक्षोपि मम दोषाय नास्तीत्यर्थः । यत्तु - अत्रभावाः सत्ताः परिणामा वा इति व्याख्यातं तदयुक्तम्
अतीतानां भाविनां च भावानामनेकान्वयितयाऽतीतार्थक भूतशब्दात् प्रागेव प्रयोक्तव्यस्य भावशब्दस्य तदनन्तरं प्रयोगो न संगच्छते अपि च- तन्मतेऽतीत भविकानां भावान्वयितया ततः पूर्वत्र वा सहैव प्रयोक्तव्ययोरतीतभविकशब्द
उत्पन्न होते हैं नष्ट होते हैं तथा भविष्यत् काल में जिस में उत्पन्न होंगे और नष्ट होंगे वे उपयोग आत्मा से कथंचित् अभिन्न हैं । अतः इस उपयोग की अपेक्षा मैं आत्मा अनेक भूत, भाव, भविक वाला भी हूँ इस तरह आत्मा में अनित्यता भी आ जाती है सो यह अनित्यता का पक्ष भी हमारे लिये दोषावह नही होता है। यहां पर जो किन्हीं २ ने भाव शब्द का अर्थ सत्ता या परिणाम इस रूप से किया है वह ठीक नहीं है । भाव शब्द यहां वर्तमान कालार्थ का ही वाचक है सत्ता या परिणाम का वाचक नहीं । कारण जो अतीत और भावी भाव होते हैं वे अनेकार्थान्वयी होते हैं इसलिये अतितार्थ क भूत शब्द से पहिले ही प्रयोक्तव्य भावशब्द का उस के बाद प्रयोग करना संगत प्रतीत नहीं होता ।
अपिच - सत्ता यो परिणामवादियों के मत में अतीत और भवि यत भावों को भावान्वयी होने के कारण अतीत और भविष्यत् ઉત્પન્ન થયા છે નષ્ટ થયા છે તેમજ ભવિષ્ય કાળમાં પણ જેમાં ઉત્પન્ન થશે અને નાશ પામશે તે ઉપયેગા આત્માથી કથ'ચિત અભિન્ન છે. એટલા માટે
આ ઉપયાગની અપેક્ષાએ હું ‘ આત્મા ' ઘણા ભૂત, ભાવ અને ભાવિક વાળે પણુ છું આ રીતે આત્મામાં અનિત્યતા પણ આવી જાય છે તે આ અનિત્ય ભાવના પક્ષ પણ અમારા માટે સદોષ કહી શકાય નહિ' કેટલાક ભાવ શબ્દેને! અર્થ સત્તા કે પરિણામ પણ કરે છે તે ઉચિત નથી. અહી ભાવ શબ્દ ફક્ત વર્તમાન કાળના વાચક છે. સત્તા કે પરિણામ અને વાચક નથી. કારણ કે જે અતીત અને ભાવી ભાવે હાય છે તે અનેકાર્થાન્વયી હાય છે, અથી અતીતાક ભૂત શબ્દની પહેલાં જ પ્રયુક્ત કરવામાં આવેલા ભાવ શબ્દને તેના પછી પ્રયાગ કરવેા ઉચિત લાગતા નથી. વળી સત્તા કે પિરણામ વાદીઓના મતે અતીત અને ભવિષ્ય ભાવા ભાષાન્વયી હાવા બદલ
For Private And Personal Use Only
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् यो वशब्दव्यवधानेन प्रयोगो न संगच्छते, तस्माद् भावशब्दोऽत्र वर्तमानका लार्थपर इत्येव भगवदाशयोऽवगम्यते । ____ अत्रः अस्मिन् स्थाने स्थापत्यापुत्रस्य वचनानि श्रुत्वा स शुकः संबुद्धः सम्यग्वोधं प्राप्तः सन् स्थापत्यापुत्रमनगारं वन्दते स्तौति, नमस्यति प्रणमति, वंदित्वा नत्वा चैवमवादीत् हे भदन्त । इच्छामि खलु युष्माकमन्तिके केवलिमज्ञप्तं धर्म निशामयतुं श्रोतुम् । (भूत, भविक ) ये दोनों शब्द भाव के पहिले या भाव के बाद साथ २ प्रयुक्त होने चाहिये भाव शब्द से व्यवहित होकर प्रयुक्त नहीं होने चाहिये परन्तु यहाँ तो वे दोनों शब्द भाव शब्द से व्यवहित होकर ही प्रयुक्त हुए हैं इसलिये भावशब्द यहां वर्तमान कालार्थ परक है ऐसा ही भगवान का आशय ज्ञात होता है । ( एस्थ णं से सुए संयुद्धे थावच्चा पुत्त वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता, एवं वयासी, इच्छा मिणं भंते ! तुम्भे अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्म निसामित्तए धम्मकहा भाणियन्वा) इस स्थान में स्थापत्यापुत्र अनगार के वचनों को सुनकर वह शुक परिव्राजक सम्यक् बोध को प्राप्त हो गया और उसने फिर उन स्थापत्यापुत्र अनगार को वंदना की स्तुति की उन्हे नमस्कार किया । वंदना नमस्कार कर फिर वह उनसे इस प्रकार कहने लगा हे भदंत ! मैं आप से केवलि प्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहता हूँ । शुक परिव्राजक की इस प्रकार प्रार्थना सुन कर स्थापत्या पुत्र ने उसे धर्म અતીત અને ભવિષ્ય (ભૂત, ભાવિક) આ બંને શબ્દ ભાવ પહેલાં કે ભાવ પછી સાથે સાથે પ્રયુક્ત થવા જોઈએ ભાવ શબ્દથી વ્યવહિત (યુક્ત) થઈને પ્રયુક્ત થવા ન જોઈએ પણ અહી તે તે બંને શબ્દો ભાવ શબ્દથી વ્યવહત ( યુક્ત) થઈને જ પ્રયુક્ત થયા છે. એથી અહીં ભાવ શબ્દ વર્તમાન કાળને અર્થ मतावे छे. भगवानन! मलिप्राय वा ०४९५य छे. ( एत्थण से सुए संबुद्धे थावच्चापुत्त वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामिण भंते ! तुब्भे अंतिए केवलिपन्नत्त धम्म निसामित्तए,धम्मकहा भाणियव्वा) ॥ प्रमाणे स्थापत्या પુત્ર અનગારનાં વચને સાંભળીને શુક પરિવ્રાજકને સમ્યકત્વ છે અને તેણે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારને વંદન કર્યા સ્તુતિ કરી અને તેમને નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમને કહ્યું કે હે ભદંત ! હું તમારા શ્રી મુખથી કેવલી પ્રજ્ઞસ ધર્મ ને સાંભળવાની ઈચ્છા રાખું છું. શુક પરિવ્રાજક ની આવી વિનંતી સાંભળીને સ્થાપત્યા પુત્રે તેને ધમકથા સંભળાવી સ્થા
For Private And Personal Use Only
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
११२
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे अथ स्थापत्यापुत्रो धर्मकथा कथयतिस्म । ननु कीदृशी धर्मकथा भगवतोपदिष्टेति जिज्ञासायामाह-' धम्म कहा भाणियव्या' इति । धर्मकथा भणितव्या
औपपातिकमूत्रोक्ता धर्मकथाऽत्र वाच्या सा चोपासकदशाङ्गसूत्रस्यागारधर्मसंजीवनीटीकायां मया विस्तरतो व्याख्याता ततोऽवगन्तव्या ॥ २४ ॥
मूलम्-तएणं से सुए परिवायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वयासो-इच्छामि णं भंते ! परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिबुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए, अहासुहं जाव उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए तिडंडयं जाव धाउरत्ताओ य एगंते एडेइ, एडित्ता सयमेव सिहं उप्पाडेइ, उप्पाडित्ता जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए सामाइ. यमाइयाई चउदसपुव्वाइं अहिज्जइ । तएणं थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरइ । तएणं से थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नालासोयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइय ॥ सू० २५॥ कथो सुनाई । किस प्रकार की धर्म कथा स्थापत्या पुत्र ने शुक परिव्राजक को सुनाई सो यह कथा औपपातिक सूत्र में वर्णित हुई है। वही कथा यह समझनी चाहिये। उपासकदशांगमूत्र की जो अगारधर्म सं. जीवनी टीका है उसमें मैंने इस कथा को विस्तार से व्याख्यात किया है। सूत्र ॥२४॥ પત્યા પુત્ર અનગારે જે ધર્મકથા શુક પરિવ્રાજકને કહી સંભળાવી તેનું વર્ણન “ઔપપાતિક સૂત્ર” માં કરવામાં આવ્યું છે જિજ્ઞાસુઓએ તે ત્યાંથી જાણી લેવી જોઈએ. “ઉપાસકદશાંગ સૂત્ર” ની અગારધર્મસંજીવની ટીકામાં ५९ में मा ४थार्नु सपिरत२ qणुन यु छ. ॥ सूत्र “२४ "॥
For Private And Personal Use Only
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शुकपरिवाजकदीक्षानिरूपणम्
' तरणंसे इत्यादि. 1
टीका - ततस्तदनन्तरं खलु स शुकः परिवाजकः स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य एवं वक्ष्यमाण प्राकारेणावादीत् इच्छामि खलु भदन्त ! परिवाजकसहस्रेण सा संपत देवानुमियाणामन्तिके मुण्डो भूत्वा मत्रजितम् । भवतां समीपेऽहं परित्रात्रेण सह केशोल्लुञ्चनेन मुण्डो भूत्वा दीक्षां ग्रहीतुमिच्छा मीत्यर्थः । ततः स्थापत्यापुत्रोऽवादीत् - हे देवानुप्रिय यथासुखं यावत् = ईप्सित कार्ये दीक्षाग्रहणरूपे विम्बं मा कुरु इत्येवमुक्तः सन् शुकः परिवाजकः यावत्
११३
तणं से सुए परिव्वायर इत्यादि
टीकार्थ - (ए) इसके बाद (से सुए) उस शुक (परिव्वायए) परिव्राजकने (धावच्चात्तस्स अंतिए धम्मं सोच्या ) स्थापल्यापुत्र अनगार के मुख से श्रुत चारित्र रूप धर्मका श्रवण कर ( णिसम्म ) उसे हृदय में अवधारित कर ( एवं व्यासी) उन से इस प्रकार कहा - ( इच्छामिण भंते । परिव्वापगस हस्से णं सद्धि संपरिवुडे देवाणुप्रियाणं अंतिए मुडे भविता पत) हे भदंत । मैं आप देवानुप्रिय के पास इन १ एक हजार परिव्रजको के साथ २ मुंडित होकर दीक्षित होना चाहता हूँ ( अहासुहं जाव उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए निदंडयं जाव धाउरत्ताओ य एते एडेड, एडित्ता सयमेव सिंह उप्पाडेड उप्पाडिता जेणेव धावच्चापुते तेणेव उवागच्छइ ) शुरु परिव्राजक की इस भावना को जान कर स्थापत्यापुत्र अनगार ने उससे कहा हे देवाणुप्रिय । तुम्हे जैसे सुख हो वैसा करो - इच्छित कार्य जो दीक्षा ग्रहण है उसमें तुम
For Private And Personal Use Only
(तरण से सुए परिव्यायए इत्यादि )
अर्थ - (तपण ) त्यार माह से सुए ) शुः (परिव्यायए) परिवार ( थावच्चा पुत्तम्स अतिए म सोच्चा ) स्थापत्यापुत्र अनगारना श्री भुख थी श्रुत्र शास्त्रि ३५ धर्म श्रणु उरीने ( णिसम्म ) तेने सारी पेठे हृदयमा अवधारित उरीने ( एवं वासी ) तेमने या रीते ऽधुं - ( इच्छामि ण भंते ! परिव्वायसाहस्सेसद्धिं सपरिपुडे देवाणुप्रियाणं अतिए मुडे भवित्ता पव्व इत्तए ) हे लढत ! तभारी पाथी : उन्नर परिवार अनी साथै हुँ' भुडित थाने हीक्षित थवा शाहू छु . ( अहासुह जाव उत्तर पुरत्थिमे दिसीमाए तिङ'ड' जाव धाउरताओ य एगते एडेइ एडित्ता सयमेत्र सिंह उपडे उत्पादिता जेणेव थावच्चापुत्ते तेणेव उवागच्छइ) शुरु परित्रानी हीक्षित थवानी छा સાંભળીને સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારે તેમને કહ્યું હે દેવાનુપ્રિય ! તમને જેમ ગમે તેમ કરી ઇચ્છિત કાર્યમાં એટલે કે દીક્ષાગ્રહણ કરવામાં માડુ' કરેા નાહ આ રીતે
In ७७
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
११४
ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे उत्तरपौररत्ये दिग्भागे गवा त्रिदण्डिका यावत् त्रिदण्डादीनि सप्तोपकरणानि यावत् गैरिकधातुरक्तानि वस्त्राणि चैकान्ते एकान्तपदेशे 'एडेइ ' एड़ति-त्यजति एडित्ता-त्यक्त्वा · सयमेव सिहं उप्पाडेइ ' स्वयमेव स्वहरतेनैव शिखां जटारूपात उत्पाटयति-लुश्चति । __यत्तु-दीपिकाकारेण कस्तुरचन्द्रगणिना-यतिना ‘सयमेव वसहि उप्पारे' इति स्वकपोलकल्पितं मूलं प्रदय, दीपिकायां- स्वयमेव स्वहस्ताभ्यामेव परित्राजकवसतिः त्रिदण्डिकानां निवासाई यन्मठं तामुत्पाटयतिस्म समूलं विनाशितवानित्यर्थः " इत्युक्तं, तद्समीचनम् -हस्तलिखितेषु मुद्रितेषु च प्राचीनपुस्तकेषु तदुक्तमूलपाठानवलोकनेन, सर्वत्र 'सिह' इत्येव पाठस्य दर्शनेन च उत्सूत्र प्रविलम्ब मत करो-इस प्रकार स्थापत्यापुत्र के कहने पर उस शुक परिव्राजकने ईशान कोण मे जाकर अपने त्रिदंडिका आदि सात उपकरणो को तथा गैरिक धातु से रक्त हुए वस्त्रों को एकान्त स्थान मे रख दिया उन्हें छोड दिया और छोडकरफिर अपने आप अपनी जटारूप शिखा का उत्पाटन किया। दीपिका कार कस्तूर चन्द्र जी गगिने (सयमेव वसहि उप्पाडेइ" एसा कपोलकल्पित मूल पाठ दिखा कर दीपिका में जो ऐसा लिखा है कि उसने अपने हाथो से त्रिदण्डिकों के निवास योग्य मठ को समूल उखाड डाला " यह ठीक नहीं है कारण ऐसा पाठ हस्त लिखित एवं मुद्रित हुई प्राचीन प्रतियो में देखने में नहीं आता है। वहां तो "सिहं" यही पाठ लिखा हुआ मिलता है । इस तरह से अपनी कपोलकल्पना से पाठ को कल्पित कर रखना यह उत्सूत्र प्ररूपणा है अपनी शिखा को उत्पाटित कर-लुञ्चितकर-वह शुक परिव्राजक
સ્થાપત્યા પુત્રની આજ્ઞા સાંભળીને શુક પરિવ્રાજકે ઈશાન કોણમાં જઈને પિતાના ત્રિદંડ વગેરે સાત ઉપકરણે તેમજ ગેરૂ રંગના વેસ્ત્રોને એક તરફ મૂકી દીધાં એટલે કે આ બધી વસ્તુઓને તેણે સદાને માટે ત્યાગ કરી દીધે એના પછી તેણે જટા રૂપ પોતાની શિખાનું લંચન કર્યું. દીપિકાકાર કસ્તૂર ચંદ્રજી गणिय " सयमेव वसहिं उप्पाडेद" आवो पापित भूग બતાવતાં દીપિકામાં એ પ્રમાણે લખ્યું છે કે તેણે (પરિવ્રાજકે ) પિતાના હાથેથી ત્રિદંડિકના નિવાસ (મઠ) ને સમૂળ નષ્ટ કરી નાખ્યું હતું આ વાત ઠીક કહી શકાય નહિ કેમ કે આ જાતને ૫ ઠ હસ્તલિખિત તેમજ भुद्रित (७पासी)नी प्रतामा माती नयी त प्रमiत सिंह પાઠજ લખેલે મળે છે. આવી રીતે પિતાની કપિલકપના મૂવક અસત્ય વાતેથી પાઠકોને ભ્રમમાં મૂકવાના પ્રયાસ કરવા તે ખરેખર “ ઉસૂત્રધરૂ
For Private And Personal Use Only
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारवर्ग मृतवर्षिणो टीका अ० ५ शुकपरिव्राजकदीक्षानिरूपणम् ११५ रूपणा ननितानन्तसंसारितापत्तेः । उत्पाटय यत्रैव स्थापत्यापुत्रोऽनगारस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य मुण्डोभूत्वा यावत् प्रव्रजितः दीक्षां गृहीतवान् । सामायिकादीन्येकादशाङ्गानि चतुर्दशपूर्वाणि अधीतेस्म । तदा-शुकस्य सार्थभूताः सहस्रपरिवाजका अपि दीक्षां गृहीतवन्तः । ततस्तदनन्तरं खलु स्थापत्यापुत्रोऽनगार सहस्रं तदानीं दीक्षितान् सहस्रमनगारान् शुकस्य शिष्यतया वितरति, दत्तवान् । ततः खलु स स्थापत्यापुत्रः सोगन्धिकाया नगर्याः नीलाशोकात् नीलाशोकना. मकाधानात् प्रतिनिष्कामति, निर्गच्छतिस्म, प्रतिनि क्रम्य निर्गत्य, वहिर्जनपदविहारं देशमध्ये विहारं विहरति करोतिस्म. ॥ २५ ॥ जहां स्थापत्यापुत्र अनगार विराज मान थे वहां गया-( उवागच्छित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए समाइयमाइयाई चउदसपुव्वाइं अहिज्जा) जाकर वह मुंडित हो उनके पास दीक्षित हो गया। सामायिक आदि ग्यारह अङ्गो को और चतुर्दश पूर्वोको उसने उनके पास पहा । शुक के साथ रहे हुए उन १ हजार परिव्राजकों ने भी भगवती दीक्षा धारण करली । (तएणं थावच्चा पुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरइ) स्थापत्यापुत्र अनगार ने इन १ एक हजार साधुओ को शुक परिब्राजक का शिष्य बना दिया। (तएणं से थावच्चापुत्ते सोगंधिओ नीला सोयाओ पडिनिक्खमह,पडिनिक्खमित्ता बहियो जणवयविहारं विहरह) इसके बाद स्थापत्यापुत्र अनगार उस सौगंधिका नगरी से, नीलाशोक उद्यान से निकले और निकल कर बाहर जनपदों में विहार करने लगे । सू० २५ ॥ પણુ” જ છે પિતાની શિખાનું લંચન કરીને શુક પરિવ્રાજક જ્યાં સ્થાપત્ય पुत्र मनमा२ उता त्यां गया. ( उवागच्छित्ता मुडे भवित्ता जाव पव्वइए समाइयमाइयाई चउपसपुबाई अहिनइ ) त्यां न भुलित ने તેમની પાસેથી દીક્ષા મેળવી લીધી. સામયિક વગેરે અગિયાર અંગે ને તેમજ ચતુર્દશ પૂર્વેને તેણે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગાર પાસે રહીને અભ્યાસ કર્યો. શુક ની સાથે રહેનારા એક હજાર પરિવ્રાજકે એ પણ ભાગવતી દીક્ષા स्वीरी बीधी. (तएण थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्स सीसत्ताए वियरह) સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારે તે એક હજાર સાધુઓને શુક પરિવ્રાજકના જ શિષ્ય मनाव्या. (तएण से थावच्चापुत्ते सोग धियाओ नीलासोयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहियो जणवयविहार विहरइ) त्या२ मा स्थापत्यापुत्र અનગ ૨ સૌગંધિકા નગરી અને નીલાશોક ઉદ્યાનની બહાર થઈને બીજા જન પદ (દેશ) માં વિહાર કરવા નીકળ્યા છે. સૂત્ર ૨૫ છે
For Private And Personal Use Only
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मूलम्-तएणं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं २ दुरूहइ, दुरूहित्ता मेघघणसंनिगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं जाव पाओवगमणं णुवन्ने, तएणं से थावच्चापुत्ते बहुणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउ. णित्ता मासियाए संलेहणाए सढि भत्ताई अणसणाई छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणसमुप्पाडेता तओ पच्छा सिद्ध जाव पहीणे ॥ सू० २७ ॥ . टीका -'तएणं से' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स स्थापत्यापुत्रोऽनगारहोग सार्ध संपरितृतो ग्रामानुग्रामं विहरन् यत्रैव पुण्डरीकः पुण्डरीकनामकः पर्वतस्त त्रैवोपागच्छति, उपागत्य च पुण्डरीकं पर्वतं शनैः शनै रोहति-आरोहति, दूरूह्य ' मेघघगसंनिगासं' भेघघनसंनिकाशं मेघानां घनः समूहस्तद्वत् कालवर्ण 'देवस
तएणं से थावच्चा पुत्ते इत्यादि । - टीकार्थ-(तएणं ) ईसके बाद ( से थावच्चापुत्ते ) ये स्थापत्यापुत्र अणगार सहस्सेणे सद्धिं संपरिखुडे ) हजार अनगार के साथ ग्रामानु ग्रामविहार करते हुए ( जेणेव पुंडरीए पव्वर ) जदां पुंडरीक पर्वत था(तेणेव उवागच्छइ ) वहां आये (उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं २ दुरूहइ) वहां आकर वे उस पुंडरीक पर्वत पर धीरे २ चढे ( दुरूहित्ता मेघघणसंनिगासं देवसंनिवार्य पुढविसिलापट्टयं जाव पाओव
'तपण से थावच्चापुत्ते !' त्याहि ॥ टीर्थ-(तएण) त्या२५॥४( से थावच्चापुत्ते) स्थापत्यापुत्र (अणगारसहस्सेण सद्धि सपरिवुडे ) मे १२ अगा२नी साथ मे ॥मयी भार म वि.२ ४२di (जेणेव पुंडरीए पव्वए) न्यi N४ ५'त तो (तेणेव उवागच्छइ) त्यो माया ( उवागच्छित्ता पुंडरीय पपय सणिय २ दुरूहइ ) त्यां पायान मा ७६ ५५२ धीमे धीमे या भांडया. ( दुरूहित्ता मेघघणसंनिगास देवसंनिवाय पुढविसिलापट्टयौं जाव पाओवगमण णुवन्ने ) यढीने तेभरे
For Private And Personal Use Only
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ स्थापत्यापुत्रनिर्वाणनिरूपणम् ११७ निवायं ' देवसंनिपातं निर्वाणाधुत्सवसमये यत्र देवाः समागत्य मिलन्ति, देवा नां संनिपातः संमिलनं यत्र तं 'पुढविसिलापट्टयं' पृथिवी शिलापट्टकं प्रतिलेखयित्वा यावत् 'पाओवगमणं णुवन्ने' पादपोपगमनमनुमाप्तः सहस्र शिष्यै सह पादपोपगमनसंस्तारकं कृतवान्.। ततःखलु स स्थापत्यापुत्रो बहूनिवर्षाणि सामान परियागं ' श्रामण्यपर्यायं चारित्रपर्यायं पाउणित्ता 'पालयित्वा मासिक्या संलेखनया पष्ठिभक्तानि अनशनेन छित्त्वा यावत् - केवलवरज्ञानदर्शने सति 'समुप्पाडेता' समुत्पाद्य अन्तसमये केवलज्ञानां केवलदर्शनं च संपाप्य ततः पश्चात् सकलकर्मक्षये सिद्धः मुक्ति प्राप्तः यावत् बुद्धो मुक्तः सर्वदुःख प्रहीणः जन्मजरामरणादिदुःखरहितो जातः ॥ २६ ॥ गमणं णुबन्ने) चढकर उन्हों ने मेघ समूह के समान कृष्ण वर्णवाले तथा निर्वाण आदि के उत्सव के समय जहां देव एकत्रित होते हैं ऐसे पृथिवी शिलापटक पर प्रतिलेखना कर यावत् पादपोपगमन संथारा धारण कर लिया। साथ के उन १ हजार साधुओं ने भी पादपोपगमन संथारा ले लिया। (तएणं से थावच्चापुत्ते बहुणि वासाणि सामन्न परि यागं पाउणित्ता मासियाए संदेहणाए सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेता तओ पच्छा सिद्धे जाव पहीणे ) इस तरह उन स्थपत्यापुत्र अनगार ने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करके एक मास की संलेखना से साठ भक्तों का अनशन द्वारा छेदन कर यावत् अन्त समय में केवल ज्ञान केवल दर्शन प्राप्त कर लिया। उन्हें प्राप्त कर फिर वे सकल कर्मों के क्षय होने पर सिद्ध बन गये। यहां यावत् शब्द से बुद्ध मुक्त सर्व दुःख प्रहीण जन्मजरा मरणादि दुःख रहितो जोता " इन पदों का संग्रह हुआ है ।सू०२६॥ મેઘ સમૂડ જેવી કાળી તેમજ નિર્વાણુ વગેરેના ઉત્સવના વખતે દેવે જ્યાં એકઠા થાય છે એવી શિલાપર પ્રતિલેખના કરીને પાદપપગમન સંથારો સ્વીકાર્યો. તેમની साथे से इतर साधुमासे ५५ (तएण से थावच्चापुत्ते बहूणि वासाणि सामन्नप. रियोग पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सर्द्वि भत्ताई अणसण!ए छेदित्ता जाव केवलवर नाणदंसण समुप्पाडेता तओपन्छा सिद्धे जोव पहीणे ) मा शते स्थापत्याचा અનગારે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રાવણ્ય પર્યાયનું પાલન કરીને એક મહિનાની સલેખનાથી સાઈઠ ભક્તોનું અનશન વડે છેદન કરીને છેવટે કેવળ જ્ઞાન કેવળ દર્શન મેળવ્યું. ત્યાર બાદ બધાં કર્મો ક્ષય થયાં ત્યારે તેમને સિદ્ધ પદ મળ્યું
२ यावत' श६ माव्य। छ तेथी ( वुद्धः मुकः सर्वदुःख नहीणः जन्म जरामरणादिदुःखरहितो जातः) मा ५होने। सन थय। छे ॥ सू.२६ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
साताधर्मकथाङ्गस्त्रे मूलम्-तएणं से सुए अन्नया कयाई जेणेव सेलगपुरे नयरे जेणेव सुभूमिभागे उजाणे तेणेव समोसरिए परिसा निग्गयासेलओ निग्गओ धम्म सोच्चा देवाणुप्पिया! पंथगपामोक्खाइं पंचं मंतिसयाई आपुच्छामि मंडुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारयं फव्वयामि, अहासुहं, तए णं से सेलए राया सेलागपुरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उबट्टाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे सन्निसन्ने, तएणं से सेलए राया पंथगपामोक्खे पंच मंतिसए सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुंयस्स अंतिए धम्मं णिसंते सेविय धम्मे इच्छिए पडि. च्छिए आभिरुइए अहणं देवाणुप्पिया ! संसारभयउत्विग्गे जाव पव्वयामि, तुम्भं गंदेवाणुप्पिया! किं करेह किं ववसाह किं वा ते हियइच्छंति ?, तएणं ते पंथगपामोक्खा सेलगंरायं एवं वयासी-जइणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! संसारभउठिवग्गा जाव पव्वयह अम्हाणं देवाणुप्पिया! किमन्ने आहारे वा आलंवे वा अम्हेऽवि य गं. देवाणुप्पिया ! संसारभयउठिवग्गा जाव पव्वयामो, जहा देवाणुप्पिया ! अहं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य जाव तहा णं पवतियाण वि समणाणं बहुसु जाव चक्खुभूए ।
तएणं से सेलगे पंथगपामोक्खे पंचमंतिसए एवं वयासी
For Private And Personal Use Only
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधामृनवत्रिण टीका अ० ५ शैलकराज चरित्रनिरूपणम् ११९ जइणं देवाणु तुन्भे संसार जाव पव्वयह तं गच्छह गं देवा० सएसु २ कुडंबेसु जेट्टे पुत्ते कुटुंबमज्झे ठावेत्ता पुरिससहस्स वाहिणिओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउब्भव. हत्ति, तहेव पाउन्भवति ।
तएणं से सेलए राया पंच मंतिसयाई पाउब्भवमाणाई पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्टे कोडंविय पुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मंडुयस्स कुमारस्स महत्थं जाव रायाभिसेयं उवट्ठवेह० अभिसिंचइ जाव राया यावद् विहरइ ॥ सू० २७ ॥ ____टीका-ततस्तदनन्तरं खलु स शुकोऽन्यदा-अन्यस्मिन् काले, कदाचित् कस्मिंश्चित् समये यत्रैव शैलकपुरं नाम नगरं यत्रैव सुभूमिभाग-सुभूमिभागनामकम् उद्यानं ' तेणेव समोसरिए ' तत्रैव समवसृतः समागतः । परिषनिर्गता शैलकपुर नगरनिवासिनां जनानांसंहतिः शुकनामाऽनगारं समागतं श्रुत्वा तं वन्दितुं शैलकपुरनगराद्वहिनिःसृतेत्यर्थः । शैलकोऽपि निर्गतः शैलकनामा नृपोऽपि शुरुमनगारं वन्दितुं नगराबहिनिःमृतः । निर्गस्य यत्रैव शुकोऽनगारस्तत्रैवोपागच्छति । अथ
'तएणं से सुए' इत्यादि
टीनार्थ-(नएणं) इसके बाद (से सुए)वे शुक अनगार(अन्नया कयाई) किसी एक समय (जेणेव सुभूमिभागे उजाणे तेणेव समोसरिए ) जहां शैलकपुर नाम का नगर और उम में भी जहां सुभूमिभाग नाम का उद्यान था वहां विहार करते २ आये (परिसा निग्गया सेलो निग्गओ, धम्मं सोचा जाव देवाणुप्पिया पंचगपामोक्खाई पंचमंतिस
(तएण' से सुए या
टीर्थ-- तएण) त्या२मा ( से सुए) शु४ मनगार (अन्नया कयाई) ४ से मते (जेणेव से लगपुरे नयरे जेणेव सुभूमिभागे उजाणे तेणेव समा सरिए ) च्या शैक्ष४ पु२ ना ना भने तमा ५ नयां सुभूमि मा नामे धान हेतु त्या विहा२ ४२di ४२di माव्या. (परिसा निग्गया सेल प्रो निगाओ धम्म सोच्चा जाव देवाणुप्पिया पंथगपामोक्खाई पंचमंतिसयाई आपु.
For Private And Personal Use Only
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
१२०
ज्ञाताधर्मकथाङ्ग
,
शुकनाम्नाsनगारेण धर्मकथा कथिता । परिषत् प्रतिगता । ततः शैलको राजा धर्म श्रुत्वा यावत् संबुद्धः शुकमेवमवादीत् देवानुप्रिय ! पान्थकप्रमुखाणि पञ्च मन्त्रिशतानि पञ्चशतसंख्यकान् पान्यकादीन् मन्त्रिणः आपृच्छामि मन्डूकं च कुमारं स्वपुत्रं राज्ये स्थापयामि, ततः पश्चात् देवानुमियाणामन्तिके मुण्डो भूत्वाऽगार/दनगारतां भजामि = स्वीकरोमि । शुक आह-यथासुखं प्रव्रज्याग्रहणे विलम्बो न करणीय इत्यर्थः । ततः खलु स शैलको राजा शैलकपुरं नगरमनुप्रविशति, अनुपवियं यत्रैव स्वकं निजं गृहं यत्रैव बाह्या उवद्वाणसाला ' उपस्थानशाला=सभा
+
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
याई आपुच्छामि मंडयंत्र कुमारे रज्जे ठावेमि तओ पच्छा देवाणुपियाणं अंतिए मुंडे भविता आगाराओ अणगारयं पव्वयामि ) इनका आगमन सुनकर शैलकपुर नगर निवासी जनों का समूह उनके वंदना करने के लिये नगर से बहार निकला । शैलकपुर राजा भी निकले। ये सब चलकर वहां आये जहां वे शुरू अनगार विराज मान थे। शुक अनगार ने सब को धर्म कथा सुनाई। सुनकर सबलोग वापिस चले गये । शैलक राजा धर्म का उपदेश सुनकर यावत् प्रतिबुद्ध हो गया । उसने शुक अनगार से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय । मैं पांथक प्रमुख पांच सौ मंत्रियों से पूछलेता हूँ और अपने पुत्र मंडूक कुमार को राज्य में स्थापित कर देता हूँ। बाद में मैं देवानुप्रिय आपके पास मुंडित होकर अगार अवस्था से अनगार अवस्था धारण करलूंगा । ( अहासुहं तरणं से सेलए राया सेलगपुरं नयरं अणुपविसर, अणु
च्छामि मंडुयंच कुमारे रज्जे ठावेमि तओ पच्छा देवाणुप्पियाण अतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारय पव्वयामि ) तेभनु आगमन संलजीते शैल પુરના નાગરિકેાના સમૂહો તેમની વંદના કરવા માટે મહુર નીકળ્યા. શૈલક પુરના રાજા પણ વંદન માટે મહાર જવા નીકળ્યા. તેએ બધા જ્યાં શુક પરિત્ર જકવિરાજમાન હતા ત્યાં પહોંચ્યાં. શુક પરિવ્રાજકે બધાને ધર્મસ્થા સંભળાવી. ધર્માંકથા સાંભળી ને બધા પાત પેાતાને સ્થાને જતા રહ્યા, ધમ કથા સાંભળીને શૈલક રાજા ને ખેપ થયા. તેમણે શુક અનગારને વિનતી કરતાં કહ્યું કે–“ દેવાનુપ્રિય ! હું મારા પાંચસે મંત્રીએને પૂછી લઉં છું અને મારા પુત્ર મ ુક કુમારને રાજ્યસિહાસને બેસાડી દઉં. ત્યાર પછી તમારી પાસે મંડિત થઇને હું અગાર અવસ્થા ત્યજીને અનગાર અવસ્થા ધારણ श्रीश (अहासुह ं तरणं' सेसेलए राया सेलगपुर नयर अणुपविसइ अणुपवि
For Private And Personal Use Only
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवषिणी टीका अ. ५ शैलकराजचरितनिरूपणम् १२१ स्थानं, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासने 'सन्निसन्ने' संनिषण्णः उपविष्टः।ततः खलु स शैलको राजा पान्थकप्रमुखाणि पश्चमन्त्रिशतानि पञ्चशतसंख्यकान् पान्थकादीन् मन्त्रिणःशब्दयति आवयति, शब्दयित्वा=आहूय एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-एवं खलु हे देवानुपियाः ! मया शुकस्य-शुकनाम्नोऽनगारस्यान्तिके समीपे धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणः । णिसंते' निशान्तः श्रुतः, सोऽपि च धर्मः ' इच्छिए ' इष्टः वाञ्छितः, 'पडिच्छिए ' प्रतीप्सितः ग्रहीतुमभिलपितः 'अभिरुइए ' अभिरुचिता प्रत्यात्मप्रदेशे रुचिविषयीभूतः, अहं खलु हे देवानुमियाः ! 'संसारभयउबिग्गे' ससारेभयोद्विग्नः जन्मजरामरणेष्टवियोगानिष्टसंयोगादिभयोद्विग्नः सन् यावद् प्रव्रजामिन्दीक्षां ग्रहिष्यामि । हे देवानुपियाः ! यूयं किं करिष्यथ किं व्यवसायिष्यथ कीदृशं व्यवसायमुधमं करिष्यथ, किं वा युष्माकं हृदययेप्सित इति, भवतां मनोगतोविचारः कीदृशो वर्ततो इत्यर्थः । ततः खलु ते पविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उट्ठानसाला तेणेत उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे सन्निसन्ने, तएणं से सेलए राया पंथगपामोक्खे पंचमंतिसए सद्दावेइ ) शैलक राजा के इस प्रकार के विचार सुन कर शुक अनगार ने उनसे कहा-यथा सुख-अर्थात् शुक-अनगार की इस तरह दीक्षा ग्रहण करने में अनुमति प्राप्त कर शैलक राजा वहां से शैलक पुर नगरमें आये। आकर वे जहां अपना घर और जहां अपनी बाहिर उपस्थानशाला सभास्थान-था वहां गये-वहां जाकर उन्होंने सिंहासन पर बैठकर पांचसौ पथक प्रमुख मंत्रियों को बुलाया-(सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपिया मए सुयस्स अंतिए धम्मे णिसंते से विय धम्मे इच्छिए पडिच्छिए, अभि रुइए अहं णं देवाणुपिया! संसारभय उविग्गे जाव पव्वयामि तुम्भेणं सित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवद्वानसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे सन्निसन्ने, तएण से सेलए राया पंथगपामोक्खे पंचमंतिसए सदावेइ) શૈલક રાજાના આ જાતના વિચારો સાંભળીને શુક અનગારે તેમને કહ્યું“યથાસુખ” એટલે કે તમને જેમાં સુખ મળે તે કરે. શુક પરિવ્રાજકની દીક્ષા ગ્રહણ કરવા માટેની અનુમતિ મેળવીને શૈલક રાજા ત્યાંથી શૈલકપુર નગ રમાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ સીધા પિતાના મહેલની અંદર ઉપસ્થાન શાળા એટલે કે સભાસ્થ ન હતું ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં જઈને તેમણે સિંહાસન ७५२ मेसीने पायसे पाय प्रभु मत्रीमाने मोसाव्या. ( सहावित्ता एवं वयासी एवं खलु देव गुपिया ! मए सुयस्स आतिए धम्मे णिसते से वि य धम्मे इच्छिर पडिच्छिर अभिरुइए अहण देवाणुपिया ! संसारभवउव्विग्गे जाव पब्ब
ज्ञा १६
For Private And Personal Use Only
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२३
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
,
पान्थकप्रमुखाः पान्यकादयो मन्त्रिणः शैलकं राजानमेवमदन् यदि खलु यूयं देवातुप्रियाः । संसारभयोद्विग्नाः यावत् प्रव्रजत = प्रवजिष्य, तर्हि अस्माकं हे देवानुप्रिय ! = हे राजन् ! कोऽन्य आधारः = आश्रयो वा, आलम्बः = दुःखादौ प्रपततां - धारकः वा भविष्यति, यतोऽस्माकं भवानेवशरणम् इत्यर्थः । वयमपि च खलु हे देवानुप्रिय ! संसारभयोद्विग्ना यावद् भवद्भिः सार्धमेव प्रव्रजामः = दीक्षां ग्रहीदेवापिया ! किं करेह विवसह, किं या ते हियइच्छंति ? ) बुलाकर उनसे ऐसा कहा - हे देवाणुप्रियो ? मैंने शुक अनगार के पास श्रतचारित्र रूप धर्म का उपदेश सुना है - वह मुझे बहुत अच्छा लगा है । मेरी इच्छा उसे ग्रहण करने की हो रही है हर एक आत्मप्रदेशमें वह मेरी रुचिका विषयभूत बन गया है। हे देवानुप्रियो ! मै संसार के भय से जन्म जरा मरण इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग आदि के डर से इस समय उद्विग्न हो रहा हूँ अतः मैं संयम धारण करूँगा । अतः हे देवानुप्रियो ! तुम क्या करोगे, कैसा उद्यम करोगे - आपलोगों का मनोगत विचार कैसा क्या हो रहा है ? ( तरणं ते पंथगपामोक्खा सेलगं रायं एवं वयासी) राजा की इस प्रकार वाणी सुनकर उन पांथक प्रमुख पांचसौ मंत्रियों ने उस शैलक राजा से इस प्रकार कहा - ( जइणं तुन्भे देवाशुप्पिया ! संसारभविग्गा जाव पव्वयह, अम्हाणं देवाणुप्पिया ! किमन्ने आहारे वा अलबे वा अम्हे वि य णं देवाणुपिया ! संसारभाउविग्गा जाव पव्वयामो) हे देवानुप्रिय ! यदि आप संसार भय से
यामि तुभेणं देवाणुपिया ! किं करेह किं ववसह किंवाते हियइच्छति !) मोलाची ને રાજાએ તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! મેં શુક અનગર પાસેથી શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્માંના ઉપદેશ સાંભળ્યા છે. તેનાથી હું બહુજ પ્રભાવિત થયા છું. શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્માંને સ્વીકારવાની મારી તીવ્ર ઈચ્છા છે, મારા આત્માના પ્રત્યેક ભાગમાં શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ વ્યાપ્ત થઇ ગયા છે. હે દેવાનુપ્રિયા ! હું સ'સારના ભયથી જન્મ જરા ( ઘડપણુ ) ઇષ્ટજનના વિયાગ, અનિષ્ટ સચૈાગ વગેરેની બીકથી અત્યારે વ્યાકુળ થઇ રહ્યો છું. તેથી હું સંયમ ધારણ કરીશ હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે શું કરશેા ? તમે શે ઉદ્યોગ કરશે ? આ વિષે તમારા भनभां ॐ लतना वियाशे भाववा भांड्या छे ? (तरणं ते पंथगपामोक्खा सेलगं राय एवं वयासी) रामनी वाली सांलजीने पांथ प्रभु यांयसेो मंत्रीयो शैलशनने या प्रमाये - ( जइणं तुभे देवाणुपिया ! संसारभउच्विगा जाव
यह अम्हाणं देवादिवया ! किमन्ने आहारे वा आलवेवा अम्हे वि य णं देवाणुपिया ! संसार भगा जाव पव्त्रयामो) डे हे अनुप्रिय ! तमे ले संसार लयश्री लय
For Private And Personal Use Only
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजचतनिरूपणम्
व्यामः । हे देवानुप्रिय ! हे स्वामिन्! यथाऽस्माकं बहुषु कार्येषु - राज्याधिकृतकार्येषु च कारणेषु = राज्यरक्षणोपायेषु च यावत्-तथा खलु भवद्भिः सार्धं प्रव्रजितानामपि श्रमणानां बहुषु यावत् कार्यादिषु चक्षुर्भूतः । यथाऽस्माकमधिकतेषु भवान् विश्रामस्थानं, राज्यकार्येषु भवानेव नेत्रतुल्यो नेताऽस्ति तथा चारित्रपालन कार्येपि भवानेव नेताभविष्यतीतिभावः ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
हो कर दीक्षित होना चाहते हैं तो हे देवानुप्रिय ! अब हमलोगों का और कौन आपके सिवाय दूसरा आधार हो सकेगा कौन दुःखा दिक के समय हमलोगों के लिये आलंबन देने वाला होगा, क्यों कि हमारे लिये तो आपही एक शरण भूत हैं। अतः जब आप दीक्षित होना चाहते है तो हम लोग भी संसार भय से उद्विग्न हो कर आप के साथ ही दीक्षा संयम धारण करेंगे। ( जहा देवाणुप्पिया ! अम्हं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य जाव तहाणं पव्वतियणवि समणा f. बहुसु जांव चक्खुभूए) हे देवानुप्रिय ! जीस तरह आप हमलोगों के लिये अनेक राज्याधिकृत कार्यों में अनेक कारणों में राज्य संरक्षण के उपायों में चक्षुभूत रहे हैं उसी तरह आपके साथ प्रवृजित हुए हमलोगों के चारित्र पालन कार्य में भी आप ही नेता रहेंगे । (तरणं से सेलगे पंथगपामोक्खे पंचमंतिसए एवं वयासी ) मंत्रिमंडल की इस प्रकार बात सुनकर उस शैलक राजा ने उन पथक प्रमुख पांचसौ मंत्रियों से इस प्रकार कहा:
For Private And Personal Use Only
ત્રસ્ત થઇને દીક્ષા મેળવવાની ઈચ્છા રાખેાછે તે તમારા સિવાય અમારા બીજો કાણુ આધાર થશે ? આફતના વખતે અમને આશ્રય આપનાર કેણુ થશે ? અમારે માટે તે તમે જ શરણુ રૂપ છે, એટલે જ્યારે તમે દીક્ષિત થવાની ઈચ્છા રાખો છે. ત્યારે અમે લેાકા પણ આસ’સારથી ક'ટાળી ગયા છીએ તમારી साथै अभे यागु थास दीक्षा संयम धारण अरीशु ( जहा देवाणुपिया ! अम्' वहुसु कज्जेसु य कारणेसुय जोव तहाण पव्वतियाणवि समणाण बहुसु जाव चक्खुभूए) हे देवानुप्रिय ! तभे प्रेम सहीं सभारा भाटे ઘણા રાજવહીટના કામેામાં ઘણાં કારણેામાં-રાજ્ય સરક્ષણ વિષેના ઉપા ચામાં ચતુભૂત રહ્યા છે તેથી અમારી સાથે પ્રત્રજિત થઈને પણ અમે લેક ચારિત્રપાલન કાર્ય માં પણ તમે જ અમારા નેતા થએ એવી અમારી ઇચ્છા छे, (तरणं से सेलगे पंथगपामोक्खे पंचम तिसए एवं वयासी ) मंत्रीमा આ જાતના વિચારો સાંભળીને શૈલક રાજાએ તે પાંથક પ્રમુખ પાંચસે
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
१२४
anaraser सूत्रे
ततः खलु स शैलकः पान्थकप्रमुखं पञ्चमन्त्रिशतं पञ्चशतसंख्यकान् पान्थकादीन मन्त्रिणः, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्-यदि खलु हे देवानुप्रियाः । यूयं संसारभयोद्विग्नाः यावत् प्रव्रजत प्रवजिष्यथ दीक्षां ग्रहीष्यथ, तत् तर्हि गच्छत खल हे देवानुप्रियाः ! स्वकेषु स्वकेषु कुटुम्बेषु ज्येष्ठान् पुत्रान् कुटुम्बमध्ये स्थापयित्वा पुरूषसहस्रवाहिनी : शिविकाः दुरूढाः आरूढाः सतो ममान्तिकं प्रादुभवतेति । तथैव प्रादुर्भवन्ति ते पञ्चशतानि मन्त्रिणः स्व स्व ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्ब मध्ये स्वस्थाने स्थापयित्वा शिविकामारूढाः सन्तः शैलकनृपस्य समीपे उपस्थिता अभूव नित्यर्थः ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ततः खलु स शैलक राजा पश्चमन्त्रिशतानि पञ्चशतानि मन्त्रिणः प्रादुर्भवतः = समागतान् पश्यति दृष्ट्वा हृष्टतुष्टः कौटुम्बिकपुरुषान् = आज्ञाकारिणः पुरुषान्
?
( जहणं देवाणु तुम्भे संसार जाव पव्वग्रह तं गच्छह णं देवाणु० सएस २ कुटुंबे जेट्ठे पुत्ते कुटुंबमज्झे ठावेत्ता पुरिसहस्वाहिणिओ सीहाओ दुरूढा समाणा मम अन्तियं पाउन्भवहत्ति तहेव पोउन्भवंति ) हे देवानुप्रिय ! यदि आप लोग संसार भय से उद्विग्न हैं और यावत् प्रव्रजित होना चाहते है तो जाओ और अपने २ कुडुम्बो में अपने २ स्थानों पर ज्येष्ट पुत्रों को स्थापित करके पुरुष सहस्रवाहिनी शिविकाओं पर आरूढ हो कर फिर मेरे पास आजाओ इस प्रकार राजा के कथन को सुनकर उनसबने अपने २ कुडुम्बों में अपने २ स्थान पर अपने २ ज्येष्ठ पुत्रों को स्थापित किया और बाद मे फिर वे सबके सब शैलक राजा के पास में पुरुष सहस्रवाहिनी शिविकाओं पर आरूढ़ हो कर उपस्थित हो गये । (तएणं से सेलए राया पंचमंतिसयाई पाउन्भघमणाई पास पासित्ता हट्ठतुट्ठे कोडुंबिय पुरिसे सहावेह सद्दावित्ता
For Private And Personal Use Only
,
मंत्रीमोने या प्रमाणे ऽधुं - ( जइणं देवाणु तुम्भे संसार जाव पव्त्रयह त गच्छह ण देवाणु० सएस २ कुडुबेस जेट्टे पुत्ते कुडुबमझं ठावेत्ता पुरिससहस्स बाहिणिओ सीहाओ दुरूढो समाणा मम अंतियं पाञ्चभवहन्ति तव पाउभवति) डे होवानुप्रियो ! रेअर ले तमे संसारलयथी संत्रस्त हो तो જાએ અને પોતપોતાના કુટુમ્બેમાં પોતાના સ્થાને જયેષ્ઠ પુત્રો ને મૂકીને પુરુષસહસ્રવાહિની પાલખીઓમાં બેસીને મારી પાસે આવે. આ રીતે રાજાનું કથન સાંભળીને તે બધા પોતપોતાને સ્થાને જ્યેષ્ઠ પુત્રોને મૂકીને પુરુષ सहस्रवाहिनी पास भीममां सवार था शमनी पासे भाव्या. (तएण से खेलए राया पंचमंतिसयाई पाउ भवमाणाई पासइ पासिता तुट्ठतुडे कोडुबिय
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवर्षिणो टीका अ० ५ शैलकराजचरितनिरूपणम् शब्दयति, आह्वयति । शब्दयित्वा-आहूय, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्-क्षिप्रमेव -शीघ्रमेव भो ! देवानुपियाः ! मण्डूकस्य कुमारस्य महाथ-महाप्रयोजनकं यावत्राज्याभिषेकं 'उबढवेह' उपस्थापयत कुरुत । 'अभिसिंचंति' अभिषिञ्चन्ति, ततस्ते कौटुम्बिक पुरुषाः सुवर्णरजत कलशैर्मण्डूककुमारं स्नापयित्वा सीलङ्कार विभूषितं कृत्वा, तस्य राज्याभिषेकं कुर्वन्ति स्मेत्यर्थः । यावद् मण्डूको राजा जातः विहरति आस्ते ॥ मू०२७ ॥
मूलम्-तएणं से सेलए राया मंडुयं रायं आपुच्छइ, तएणं से मंडुए राया कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सेलगपुरं नगरं आसित्त संमजिओवलितं गंधोदयसित्तं गंधवट्टिभूतं करेह य कारवेह य, एवं वयासी) इसके बाद उस शैलक राजा ने जब उन पांचसौ मंत्रियों को अपने समीप उपस्थित हुआ देखा तो देखकर वह बहुत अधिक प्रसन्न एवं संतुष्ट हुआ ओर उसी समय उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया-बुलाकर उनसे कहा (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मंडुयस्स कुमारस्स महत्थं जाव रायाभिसेयं उवट्टवेहरू, अभिसिंचइ जोव राया यावत् विहरइ) भो देवानुप्रियो ! तुम लोग शीध्र ही मंडुक कुमार का महार्थ साधक-महाप्रयोजन भूत-यावत् राज्याभिषेक करो। उन्हों ने उसका राज्याभिषेक किया अर्थात् सुवर्ण रजत के कलशों से मंडूक कुमार का अभिषेक कर और उसे समस्त अलंकारों से विभूषित कर राज्य पद में अभिषिक्त किया। इस तरह मंडूक कुमार राज्य पदासीन हो गया ॥ सूत्र २७॥
पुरिसे सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी) त्या२ मा पोताना पांयसे। मत्रीमान આવેલા જોઈને રાજા ખૂબજ પ્રસન્ન થયા અને સંતુષ્ટ થયા રાજાએ તરત જ पोताना टुमि पुरुषाने मोसा-या भने मालावीन तेमने -( खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मंडुयस्स-कुमारस्स महत्थ जाव रायाभिसेय उववेह अभिसि घहए जाव राया यावद् विहरइ) 3 हेवानुप्रियो ! तमे सपरे भडू२४ કુમરિને મહાઈ સાધક મહાપ્રયોજન ભૂત-રાજ્યાભિષેક કરે કૌટુંબિક પુરુ
એ રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે જ મંડૂક રાજકુમાર રાજ્યભિષ કર્યો એટલે કે તેઓએ સેના રૂપાના કળશથી મંડૂક કુમારને અભિષેક કર્યો. અને બધા અલં
शथी तेने शारीने राय सिडासन 6५२ साडया ॥ सूत्र “२७"॥
For Private And Personal Use Only
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२६
शाताधर्मकथासूत्रे करित्ता य कारवित्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, तएणं से मंडुए राया दोच्चंपि कोडंवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासो-खिप्पामेव भो ! सेलगस्त रन्नो महत्थं जाव निक्ख. मणाभिसेयं जहेव मेहस्त तहेव, गवरं पउमावतीदेवी अग्गकेसे पडिच्छइ । सच्चेव पडिग्गहं गहाय सीयं दुरूहति, अवसेसं तहेव जाव सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिज्जइ, अहिन्जित्ता बहहिं चउत्थ जाव विहरइ, तएणं से सुए सेलय. स्स अणगारस्स ताई पंथगपामोक्खाइं पंच अणगारसयाई सोसत्ताए वियरइ, तएणं से सुए अन्नया कयाइं सेलगपुराओ नयराओसुभूमिभागाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहि. या जणवयविहारं विहरइ, तएणं से सुए अणगारे अन्नया कयाई तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिबुडे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम विहरमाणे जेणेव पोंडरीए पव्वए जाव सिद्धे ॥ सू० २८॥
'तएणं से सेलए ' इत्यादि।
टीका-ततः स शैलको राजा मण्डूक राजानमापृच्छति, हे देवानुप्रिय ! अहं दीक्षा ग्रहीष्यामीती । तत : खलु स मण्डूको राजा कौटुम्बिकपुरुपान् आदेश कारिणः पुरुषान् शब्दयति आह्वयति, शब्दयित्या आहृय एवं वक्ष्यमाणप्रकारे___ 'तएणं से सेलए राया ' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से सेलए राया) उस शैलक राजा ने (मंडुयं रायं आपुच्छइ ) मंडूक राजा से पूछा कहा कि हे देवानुप्रिय । मैं दीक्षा संयम लूंगा (तएणं से मंडुए राया कोडुंबिय पुरिसे सहावेह)
(तएणं से सेलए राया ) त्यादि
टी -(तएण) त्या२ माह (से उएराया) शै१४ २१ मे ( मंडुय राय आपु. छइ) भ ने - देवानुप्रिय ! हुदीक्षा स्वीश. (तएण से मंडुए राया कोडुबियपुरिसे सहावेइ) त्या२ ५७ म २० मे छोटुमि
For Private And Personal Use Only
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगार धर्मामृतदिणी टीका अ० ५ लकराजचरितनिरूपणम् १२७ णावादीत् क्षिप्रमेव शीघ्रमेव भा देवानुपियाः शैलकपुरं नगरम् 'आसित्तसंम. ज्जिवलितं ' आसिक्त संमार्जितोपलिप्त-आसिक्तम् जलेनाऽऽीकृतं, संमार्जितं संमार्जन्या कचवरायपसारणेन संशुद्धः, उपलिप्तं गोमयादिना संलिप्तं, गन्धोदकसिक्तं पुनर्गन्धेोदकेन प्रसिक्तं गन्धवर्तिभूतं अगरवर्तिरूपं सुगन्धमयं यूयं कुरुत, अन्यैश्च कारयत कृत्वा च कारयित्वा च 'एयमाणत्तियं' एतामाज्ञप्तिकांएतां ममाज्ञां प्रत्यर्पयत = भवदादिष्टं कार्य सर्व संपादितमस्माभिरित्यावेदयतेत्यर्थः । ततः खलु स मण्डूको राजा 'दोच्चंपि' द्वितीयमपि द्वितीयवारमपि कौटुम्बिकपुरुषान् आदेशकारिण : पुरुषान् शब्दयति आवति. शब्दयित्वा एवमवादीत्
इसके बाद मंडुक राजा ने कौटुंबिक पुरूषो को बुलाया (सहावित्ता एवं वयासी) धुलाकर उन से ऐसा कहा (खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! सेलगपुरं नगरं आसित्त संमज्जिवलितं गंधवट्टिभूत्तं करेहय कारवेहय ) भो देवानुप्रियो ! तुम लोग शीध्र ही शैलकपुर नगर को जल से छिड़को- सिंचित करो, कच वर आदि के अपनयन से उसे साफ करो, गोमयादि से उसे लीपो गंधोदक से उसे चार २ सिक्त प्रसिक्त करो गंधवर्तिरूप करो- सुगंधमय करो, तथा दूसरों से कर वाओ । ( करित्ता कारवित्ता य एयमाणत्ति यं पच्चप्पिणह ) कर के
और करा के पीछे हमें इस आज्ञा के पालन की खबर दो हमने आप की आज्ञानुसार सय कार्य संपादित कर दिया है- ऐसा पीछे हमें समाचार दो (तएणं से मंडुए राया दोच्चपि कौटुंबियपुरिसे सद्दावेह, सदावित्ता एवं वयासी) इसके बाद मंडूक राजा ने दुवारा भी
पुरुषोन गोसाव्य (सहावित्ता एवं वयासी) मोसावीन. २॥ प्रमाणे ह्य( खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! सेलगपुर नगर आसित्तसमन्जिओवलितं गंधवद्विभूत करेय कारवेय) ३ वानुप्रियो ! तमे शेस धुरने पाया સત્વરે સિંચિત કરે કચરો વગેરે સાફ કરીને, છાણ વગેરેથી લીપ તેમજ સુવાસિત પાણીથી વારંવાર તેને સિંચિત કરે અને તેને ગંધવતિ એટલે કે ધૂપસળીની જેમ સુવાસિત બનાવે તેમજ બીજાઓથી સુવાસમય બનાવડાવો (करिता कारचित्ताय एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह) मा प्रमाणे ते ४०२ भने भीमानी पासेथी ४२११७वीन म ५३ थयानुं मभने ४५ो . (तएणं से मुंडए राया दोच्च पि कौडुचियपुरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी ) ત્યાર બાદ મંડૂક રાજાએ બીજી વખત કૌટુંબિક પુરુષને બેલાવ્યા. અને
For Private And Personal Use Only
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
क्षिप्रमेवभोः । शैलकस्य राज्ञो महार्थ = महाप्रयोजनकं मोक्षफलकं यावत् निष्क्रमणाभिषेकम् = दीक्षोत्सवम् उपत्थापयत = कुरुत, यथा मेघस्य मेघकुमारस्य प्रथमाध्ययने निष्क्रामणाभिषेको वर्णितः तथैव = तद्वदत्रापि वाच्य इत्यर्थः । मण्डूकनृपाऽऽज्ञया कौटुम्बिकपुरुषाः शैलकनृपस्य निष्क्रमणाभिषेकं मेघकुमारवत् कृतवन्त इति भावः नवरं तत्रैतावान् भेदः यत् - पद्मावती देवी पद्मावती नाम्नी राज्ञी शैलकनृपस्य स्व. भार्या, अग्रकेशान् = अग्रभूतान् केशाग्रभागरूपान् चतुरङ्गुलवर्जितान् नापितकतितान् केशान् प्रतीच्छति = वस्त्राञ्चले गृह्णाति, मेघकुमारस्य तु स्वमाता धारिणीदेवी केशान् गृह्णातिस्मेतिभावः सच्चेवा तदिव= तद्वत् = मेघकुमारवदित्यर्थः,
कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, और बुलाकर उन से ऐसा कहा ( खिप्पामेव भो सेलगस्स रन्नो महत्थं जाव निक्खमणाभिसेयं जहेव मेहस्स तहेब - णवरं परमावती देवी अग्गकेसे पडिच्छ ) तुम लोग शीघ्र ही शैलक राजा को मोक्षफल साधक यावत् निष्क्रमणाभिषेक दीक्षोरसव - मेघकुमार के दीक्षोत्सव की तरह करो । मेघकुमार का दीक्षोत्सव जैसा प्रथम अध्ययन में वर्णित किया है वैसा ही यहां पर भी समझ लेना चाहिये । इस प्रकार मंडूक राजा की आज्ञा सुनकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने शैलक राजा का दीक्षोत्सव मेघकुमार के दीक्षोत्सव की तरह अच्छी तरह से किया। उसमें और इसमें केवल इतना ही भेद रहा कि इस दीक्षोत्सव में पद्मावती देवी जो शैलक रोजा की मुख्य रानी थी उसने उसके नापित कर्तित चतुरंगलवर्जित अग्र केशों को अपने वस्त्राञ्चल में लिया और मेघकुमार के दीक्षोत्स में मेघकुमार के नापित कर्तित चतुरंगुलवर्जित केशों को उस की माता धारिणी देवी
गोसावीने तेभने धुं- ( खिप्पामेव भो सेलगस्स रन्नो महत्थं जाव निक्खमणा भिसेयं जक्षेत्र मेहस्स तहेव णवरं पाउमावती देवी अग्गकेसे पडिच्छइ ) तभे મૈકુમારના દીક્ષોત્સવની જેમ મેક્ષદાયક શૈલક રાજાનેા દીક્ષોત્સવ ચેાજો પ્રથમ અધ્યયનમાં મેઘકુમારના દીક્ષોત્સવ વિષે જેમ વર્ણન કરવામાં આવ્યુ છે તેમ જ અહીં પણુ સમજવુ' જોઇએ. આ રીતે મંડૂક રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે જ કૌટુંબિક પુરુષાએ મેઘકુમારના દીક્ષોત્સવની જેમજ સરસ રીતે દીક્ષોત્સવ ઊજવ્યે. મૈત્રકુમારના દીક્ષોત્સવમાં અને શૈલક રાજાના દીક્ષોત્સવમાં તફાવત આટલેજ સમજવો કે-મેઘરાજાના દીક્ષોત્સવ વખતે જ્યારે તેમનાં માતા ધિરણીદેવીએ ચાર આંગળ છેાડીને બાકીના બધા નાપિત વડે કપાએલા વાળા પોતાના અચળામાં લીધા હતા, અને શૈલક રાજાના દીક્ક્ષત્સવમાં તેમનાં
For Private And Personal Use Only
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतवर्षिणो रीका अ० ५ शैलकरामचरितनिरूपणम्
शलकरामधारतनिरूपणम् १२१ 'पडिग्गहं' पतद्ग्रहं पात्रं गृहीत्वा शिविका दृरोहन्ति । आरोहन्ति अम्बधान्यादयः रजोहरणपात्रादिकं शैलकराजा तन्मत्रिणोऽपि शिबिकामारोहन्तिस्मेत्यर्थः । अवशेष तथैव, यथा मेघकुमारः श्रीमरावीरस्वामिनोऽन्तिके प्रवज्यां गृहीतवान् ' तथैव शुकस्य समीपे शैलकनृपेण मनज्या गृहोता, तदा-शैलकनृपस्य मंत्रिणोऽपि पश्च. शतसंख्यकाः पान्थकप्रमुखास्तत्रैव प्रवज्यां गृहीतवन्त इत्यर्थः । यावत्-गृहीत्वाच सामायिकादीनि एकादशाङ्गान्यधीतेस्म । अधीत्य च बहुभिश्चतुर्थभक्तादिभिस्तपोभिः यावत्-आत्मानं भावयन् विहरति । तदनन्तरं स शुकः शैलकस्याऽनगारस्य तानि पान्थक प्रमुखाणि पश्चाऽगारशतानिस्तान् पान्थकप्रमुखान् पञ्चशतसंख्यकाननगारानित्यर्थः, शिष्यतया वितरति ददातिस्म। ने अपने वस्त्राचल में लिया था। (सच्चेव पडिग्गहं गहा य सीयं दुरुहंति अवसेसं तहेव, जाव सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहि. ज्जह ) शैलक राजा उसके मंत्री तथा उसकी अम्बधात्रादि ये सब के सब रजोहरण एवं पात्रादिकों को लेकर शिविका ( पालखी ) में आरूढ हो गये। जिस प्रकार मेघकुमारने श्री महावीर स्वामी के पास प्रव्रज्या ग्रहण की थी उसी प्रकार शुक अनगार के पास शैलक नृपने भी प्रव्रज्या धारण की। नृपके साथ २ उस के पथक प्रमुख पांच सौ मंत्रियोंने भी वहीं पर दीक्षा ग्रहण की यावत् दीक्षा ग्रहण करने के बाद उस शैलकराज ऋषिने सामायिक आदि ग्यारह अंगो का अध्ययन किया। ( अहिज्जित्ता बहहिं च उत्थ जाव विहरइ, तए णं से सुए सेलयस्स अणगारस्स ताई पंथगपामोक्खाइं पंच अणगारसयाई सीसत्ताए वियरइ ) अध्ययन करने के बाद उन्हों ने फिर अनेकविध चतुर्थ भक्त आदि की तपस्या की बाद में शुक अनगार ने उन शैलक अनगार के પટરાણી પદ્માવતી દેવીએ શૈલક રાજાના વાળ ચાર આંગળ છેડીને આગળના वामान पोताना खायniबीया. ( सच्चेर पडिग्गह गहाय सोय दुरुहंति अवसेस तहेव जाव सामाइयमाइयाई एक कारस अंगाई अहिजइ ) शैस। તેમના મંત્રીઓ તેમજ શૈલક ર જાની અધાત્રી વગેરે બધાં રજોહરણ અને પાત્રો વગેરે લઈને પાલખીમાં સવાર થઈ ગયાં. ભગવાન મહાવીરની પાસે જેમ મેઘકુમારે પ્રવજ્યા લીધી હતી તેમજ શુક અનગારની પાસે શૈલક રાજાએ પ્રત્રજ્યા સ્વીકારી. ૨ જાની સાથે તેમના પાંચ પાંથક પ્રમુખ મંત્રીઓ એ પણ ત્યાં જ દીક્ષા લીધી , દીક્ષા લીધા બાદ શૈલક રાજાએ સામયિક वगैरे मनियार सगोनूययन यु. ( अहि जित्ता बहूहिं चउत्थ जावविहरइ, तएणं से सुए सेलयम्स अणगारस्स ताई पथगपामोक्खाई पंच अणगारसयाई सीसत्ताए वियरई ) २५५यन पछी तेभरे मने जतन! यतुर्थ भरत वगेरेनी તપસ્યા કરી શુક અનગારે શાક અનગારને પથક પ્રમુખ પાંચસો અન
ज्ञा १७
For Private And Personal Use Only
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१३०
साताधर्मक थाङ्गस ततः खलु सशुकः शुकनामानगार; अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् 'काले शैलकपुरानगरात् सुभूमिभागादुधानात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिर्गच्छति, प्रतिनिष्क्रम्य प्रतिनिर्गत्य बहिः= बाह्ये जनपदविहारं विहरति । ततस्तदनन्तरं खलु स शुकोऽनगारोऽन्यदा कदाचित्-अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले तेन-पूर्वोक्तेन स्वशिष्येण अनगारसहस्रेण साधं संपरितृतःपूर्वानुपूा तीर्थंकरगणधरपरंपरया चरन् ग्रामानुग्रामं विहरन् यत्रैव पुण्डरीक-पुण्डरीकनाम्नाप्रसिद्धः पवतः यावत् तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पुण्डरीकं पर्वतमारुह्य पृथिवीशिलापट्टकं प्रतिलेख्य लिये पायक प्रमुख आदि ५०० सौ अनगारों को शिष्य रूप से वितरित कर दिया। (तएणं से सुए अन्नया कयाई सेलगपुराओ नयराओ सुभूमिभागाओ पडिनिक्खह, पडिनिक्खमित्ता यहिया जणवयविहारं विहरइ,) इस के बाद किसी एक समय वे शुक अनगार शैलक पुर नगर से और उस सुभूमिभाग नाम के उद्यान से निकले और निकल कर उन्हों ने वहां से बाहर जनपदों की ओर विहार कर दिया। (तएणं से सुए अणगारे अन्नया कयाइं तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपडिबुडे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणु गाम विहरमाणे जेणेव पोंडरीए पव्वए जाव सिद्धे ) ग्रामानुग्राम विहार करते २ वे किसी एक समय उस अपने शिष्य अनगार सहस्र के साथ तीर्थकर, गणधर परंपरा के अनुसार चारित्र की आराधना करते हुए जहां पुंडरीक नाम का प्रसिद्ध पर्वत था वहां आये वहां आकर उन्हों ने वहां के पृथिवी शीलापट्टक की प्रतिलेखना की प्रतिलेखना कर के फिर उन्हों ने उस आशेने शिष्य ३थे माया. (तएण से सुए अन्नया कयाई सेलगपुराओ नयराओ सुभूमिभागाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहार विहरइ ) ત્યાર બાદ કેઈ એક વખતે શુક અનગર શૈલકપુરના સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનથી मा२ नीतीने त्यांथी मान भी पहोभा विडा२ . ( तएण से सुए अणगारे अन्नया कयाई तेण अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपडिबुडे पुवाणुपुरि
चरमाणे गामाणुगाम विहरमाणे जेणेव पोंडरीए पव्वए जाव सिद्धे) शु परि. વ્રાજક એક ગામની બીજે ગામ વિહાર કરતાં કરતાં કઈ વખતે પિતાના એક હજાર અનગાર શિષ્યોની સાથે તીર્થકર, ગણાધરની પરંપરાને અનુસરતાં ચારિત્રની આરાધના કરતાં કરતાં ક્યાં પુંડરીક નામે પ્રસિદ્ધ પર્વત હતો ત્યાં ગયા. પહોંચીને તેમણે ત્યાં પૃથિવી શિલાપટ્ટકની પ્રતિલેખન કર્યા પછી તેમણે તેના ઉપર પિતાના એક હજાર શિવ્યાની સાથે પાદપિગમન
For Private And Personal Use Only
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणीटी० अ० ५ शैलकराजचरितनिरूपणम्
१३१
"
सहस्रशिष्यैः सह पादपोपगमन संस्तारकं कृतवान् ततः खलु स शुको बहूनि वर्षाणि श्रार्यायं पालयित्वा केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पाद्य सकलकर्मक्षये सति सिद्ध: - मुक्ति प्राप्त इत्यर्थ ॥ २८ ॥
मूलम् - तएर्ण तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहिं अंतेहिं य पंतेहि य तुच्छेहि यल्लूहेहिय अरसेहि य विरसेहि य सीए हिय उण्हेहि य कालातिक्कतेहि य पमाणाइकंतेहि य णिच्चं पाणभोयणेहि य पयइसुकुमालयस्स सुहोचियस्त सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया, उज्जला जाव दुरहिया सा कंडुयदाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे यावि विरइ, तरणं से सेलए तेणं रोयायकेण सुक्के जाए या होत्या, तरणं से सेलए अन्नया कयाई पुव्वाणुपुत्रि चरमाणे जाव जेणेव सुभूमिभागे जाव विहरद्द, परिसा निग्गया मंडुओ विनिग्गओ सेलयं अणगारंजाव वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमस्सित्ता पज्जुवासइ, तरणं से मंडुए राया सेलयस्स अणगारस्स सरीरयं सुक्कं भुक्कं जाव सव्वाबाहं सरोगं पासइ, पासित्ता एवं वयासी- अहं णं भंते ! तुब्भं अहापवत्तेहिं तिमिच्छएहिं अहापवत्तेणं ओसहभेसज्ञेण भत्तपाणेणं तिगिच्छं आउट्ठामि तुभे णं भंते मम जाणसालासु समोसरह फासुअं
"
पर अपने सहस्र शिष्यों के साथ २ पादपोपगमन संधारा किया । इस तरह उन शुक अनगार ने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का परिपो लन कर के अन्त समय में केवलज्ञान केवल दर्शन प्राप्तकर सकल कर्मों के क्षय होने पर मुक्ति को प्राप्तकर लिया | ।। सू०२८ ।।
સથાશ કર્યાં, આ રીતે તે શુક પત્રિાજકે ધણાં વર્ષો સુધી શ્રામણ્ય પર્યાપનું પરિપાલન કરીને છેવટે કેવળજ્ઞાન કેવળ દન મેળવીને માં ક્રમે જ્યારે नाश याभ्यां त्यारे भुक्ति भेजवी | सूत्र “ २८ " ॥
For Private And Personal Use Only
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१३२
हाताधर्मकथाङ्गसूत्रे एसणिजं पीढफलगसेज्जासंथारगं ओगिणिहत्ताणं विहरइ, तएणं से सेलए अणगारे मंडुयस्स रन्नो एयम तहत्ति पडिसुणेइ, तएणं से मंडुए सेलयं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू० २९ ॥
टीकार्थ-'तएणं तस्स' इत्यादि। ततस्तदनन्तरं खलु तस्य शैलकस्य राजर्षे स्तैः अनगारधर्मानुसारेण प्राप्तः । अंतेहि ' अन्तैः बल्लवणकादिभिः, 'पंतेहि , प्रान्तः पर्युषितैः, 'तुच्छेदिय ' तुच्छैः अल्पैश्च 'लूहेहिय' रुक्षैः अस्नि
'तएणं तस्स सेलगस्स' इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं)इसके बाद (पयइ सुकुमालयस्स सुहोचियस्स) प्रकृति सुकुमार तथा सुखोपभोग के योग्य (तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स) उस शैलक राजाऋषि के (सरीरगसि ) शरीर में ( तेहिं अंतेहिं य पंतेहिं य तुच्छे हिं य लहे हिं अरसे हिं य विरसेहि य सीएहिं य, उण्हेहिं य कालाइक्कंते हि य पमाणाइक्कते हिं य, णिच्चं पाणभोयणे हिं य ) अनगार धर्म के अनुसार प्राप्त हुए अन्त प्रान्त, तुच्छ, रूक्ष, अरस, विरस, शीत, उष्ण, तथा कालातिक्रान्त ( असमय में ) नित्य पान भोजन आहार करने से (वेयणा पाउन्भूया) वेदना प्रकट हुई । बल्ल चाक आदि का नाम अंत हैं । पर्युषित (वासो) अन का नाम प्रान्त है। अल्प आहार का नाम तुच्छ है । स्निग्धता (घृतादि) रहित आहार का
(तएण तस्स सेलगस्य इत्यादि)
साथ-(तएण) त्या२ मा४ (पयइ सुकुमालयस्स सुहोचियस्स) शरीरनी प्रति सुमार तम माराम सागा येभ्य (तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स ) २००४
पि शैव ( सरीरंगसि ) ना शरीरमा ( तेहिं अंतेहिय पतेहि य तुच्छेहि य लूहेहिं अरसेहिं य विरसे हिंय सीएहिं य उण्हे हिय कालाइक्कतेहिय पमाणाई कहिंय, णिच्चं पाणभोयणेहिंय ) मानार 4 भुमा येसा सन्य,
प्रांत, तुच्छ, २१क्ष, ५२स, विरस, शीत, SC भर असमय (मdिrid) भांश पान, सोन (माडा२) ४२वाथी (धेयणा पाउन्भूया) वहना થવા લાગી. બલ ચણક (ચણા) વગેરે “સંત” કહેવાય છે. વાસી આહાર नुनाम '५युषित' छे. 21 माडा२र्नु न तु२७ छे. स्निग्यता (घीरहित) વગર આહાર રુક્ષ કહેવાય છે. હિંગ વગેરેના વઘાર વગરના આહારને
For Private And Personal Use Only
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणो टीका अ० ५ शैलकराजचरितनिरूपणम् ३३ ग्धैश्च, 'अरसेहिय' अरसैः हिवादिव्यागार रहितैश्च, 'विरसेहिय' विरसैः पुराणत्वाद् विगतरसैश्च ' सीयेहिय' शीतैः शीतलैश्च ' उण्हेहिय ' उण्णैश्च — कालातिक्कतेहिय' कालातिक्रान्तै क्षुधापिपासा कालेष्वप्राप्तैश्च ‘पमाणाइक्कतेहिय' प्रमाणातिक्रान्तैश्च बुभुक्षापिपासाऽननुकूलैश्च बुभुक्षापिपासा यत्प्रमाणा वर्तते, तामतिकान्तैः तनिधारणाऽसमर्थैः स्वल्पलब्धैरित्यर्थः । नित्यपानभोजनश्च प्रतिदिवसमाप्तैरनपानश्च नित्यं प्रतिकूलपानभोजनं कुर्वतइति भावः । प्रकृतिसुकुमारकस्य स्वभाव कोमलस्य, सुखोचितस्य-मुखार्हस्य, लेशतोऽपि क्लेशासहस्येत्यर्थः, शरीरे वेदना व्याधिः प्रादुर्भूता-उत्पन्ना,सा वेदना कीदृशीत्याह-उज्जला-दुःखातिशयेन प्रलयाग्निवज्जाज्वल्यमाना यावत्-अत्र यावत्करणेन-विउला, पगाढा, इत्यनयोः नाम रूक्ष है । हिंग आदि के वधार से रहित हुए नीरस आहार का नाम अरस है। पुराने नीरस अन्न के बने हुए आहार का नाम विरस आहार है । बनाकर रखे हुए शीतल-ठंडे-आहार का नाम शीत है । गरम २ का नाम उष्ण है । क्षुधा पिपासा के समय में नहीं प्राप्त हुए आहार का नाम कालातिक्रान्त है । अथवा क्षुधा पिपासा के अनुसार नहीं प्राप्त हुआ आहार भी कालातिक्रान्त कहा जाता है । जितनी भूख लगी हो,जितनी प्यास लगी हो उतने आहार पानी का नही मिलना थोड़ा सा मिलना इससे शरीर में अशक्ति आदि उत्पन्न हो जाती है । अनगार अवस्था में साधु को अनुकूल आहार पानी नहीं मिलता है। अतः प्रतिकूल आ हार पानी के सेवन से शरीर में विविध प्रकार की बाधाएँ उपस्थित हो जाती है। ऐसा ही राजऋषि शैलक अनगार के लिये हुआ। उनके शरीर અરસ કહે છે જૂના થઈ ગયેલા અનાજને આહાર બનાવવામાં આવે તે “વિરસ ” નામે ઓળખાય છે બહુ વખત પહેલાં બનાવીને મૂકી રાખેલા ઠંડા થઈ ગયેલા આહારને “શીત' કહેવામાં આવે છે. એકદમ ગરમ આહારને ઉષ્ણક હે છે. ભૂખ અને તરસના વખતે અહાર ન મળે તેને કાલાતિત કહેવાય છે. અથવા ભૂખ અને તરસને ગ્ય આહાર ન મળે તેને પણ કાલાતિકાંત કહેવાય છે. ભૂખ અને તરસના પ્રમાણમાં આહાર અને પાણી મળે નહિ ઘેડા પ્રમાણમાં મળે તે એનાથી શરીરમાં શિથિલતા આવી જાય છે. અનગાર અવસ્થામાં સાધુને અનુ કૂળ આહાર પણ મળતું નથી એથી પ્રતિકૂળ આહાર પણીના સેવનથી શરીર અનેક રીતે નબળું થઈ જાય છે. રાજઋષિ અનગરની હાલત પણ આવી જ
For Private And Personal Use Only
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૪
ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे
संग्रह: । विपुला विस्तीर्णा आत्मप्रतिप्रदेशव्यापिनी, मागाढा प्रवर्धमाना तीव्रतरा अतएव - दुरध्यासा = दुःसहा | वेदनायाः परिणामं प्रदर्शयति- ' कंडुयदाह ' इत्यादि । ' कंडुयदाह पित्तज्जरपरिगयसरीरे, कण्डूकदाहपित्तज्वरपरिगतशरीरः= कण्डूकेन = कण्डूत्या, दाहेन हृदयकरचरणनयनज्वलनेन पित्तज्वरेण च परिगतं व्याप्तं शरीरं यस्य स तथा, चापि विहरती = आस्ते । ततः खलु स शैलकस्तेन रोगातङ्केन रोगेण सामान्येन व्याधिना, आतङ्केन प्रबलतरेण व्याधिना च शुष्को जातश्राप्यासीत् । ततः खलु स शैलकः 'अन्नया कयाई ' अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन्
में जो वेदना उत्पन्न हुई वह ( उज्नला जाव दुरहिया ) बहुत अधिक दु:र ःखातिशय से वर्धित थी अतः प्रलय कालीन अग्नि की तरह शरीर को जला रही थी। यहां यावत् शब्द से " विउला पगाढा इन पदो का संग्रह हुआ है । आत्मा के प्रति प्रदेश में व्याप्त होने से वह वेदना विपुल थी तथा तीव्रतर भी बहुत अधिक दिन प्रतिदिन बढने से वह प्रगाढ थी । इसलिये दुरध्यासधी बड़ी तकलीफ के साथ वह सहन करने योग्य थी । इस वेदनाजन्य शरीर में क्या २ परिणाम हुआं इस बात को सूत्रकार ( कंडुय दाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे ) इन पदों द्वारा प्रकट करते हैं वे कहते हैं कि उन राजऋषि शैलक अनगार का शरीर कंडुयन - खुजली- के दाहसे और पित्तज्वर से व्याप्त है। गया । हृदय में, हाथों में, चरणों में और नेत्रों में उनके जलन होने लग गई । पित्तज्वर से पित्त में अधिकाधिक गर्मी आ गई- इस से लिया हुआ आहार उन्हें नहीं पचता और वमन द्वारा वह बाहिर निकल जाता
For Private And Personal Use Only
ܙܕ
थांग तेमना शरीरमा ( उज्जला जाव दुरहिया ) वेहना भूमन्न थवा भांडी હતી તેથી પ્રલયના અગ્નિની જેમ તેમના શરીરમાં બળતરા થતી હતી. અહીં ' यावत्' शब्द थी ( विउला पगाढा) मा होनो संग्रह थयो छे आत्मा ના બધા પ્રદેશામાં વેદના વ્યાસ થઇ હતી તેથી તે ‘તીવ્રતર' હતી. દિવસે દિવસે વેદના વધતી જ જતી હતી તેથી તે ‘પ્રગાઢ હતી એટલા માટે જ વેદના દુરજ્યાસ એટલે કે બહુ કષ્ટથી સહ્ય હતી. વેદનાને લીધે રાજ ઋષિના शरीरनी हासत ठेवी थते सूत्र और महीं स्पष्ट उरतांडे ( कडुय दाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे ) ते शऋषि अनगारनुं शरीर उडूयन-रજવાની પીડાથી અને પિત્તના જવાંથી વ્યાપ્ત થઈ ગયું. તેમની છાતીમાં હાથેામાં, પગેામાં અને આંખે'માં મળતરા થવામાંડી પિત્તજવર થી પિત્તમાં ગરમીનું પ્રમાણ વધી જવાથી કરેલા આહારનું પાચન થતું નહિ અને તે ઊલટી થઈ ને બહાર નીકળી જતા હતા. ખાવાપીવા તરફ તેમને સાવ અણુ
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ५ शैलकराजचरितनिरूपणम् १३५ कस्मिंश्चित् काले पूर्वानुपूर्या चरन् यावत्-यत्रैव शैलकपुरं नामनगरं यत्रैव सुभूमिभागं नामोद्यानं तत्रैवोपागच्छति उागत्यच यावद् संयमेन तपसा स्वात्मानं भावयन् विहरति । परिवनिर्गता मण्डूकोऽपि निर्गतः, यत्र शैलकोऽनगारस्तत्रागत्य शैलकमनगारं यावद् चन्दते नमस्यति, वंदित्वा नत्वा स मण्डूकः पर्युपास्ते सेवते स्म ।
ततः खलु स मण्डूको राजा शैलकस्यानगारस्य शरीरं शुष्क रूक्षं यावत्-सव्यावाधं-पीडितं सरोग-रोगाक्रान्तं पश्यति दृष्टा एवमवादीत्-अहं खलु भदन्त ! खाने पीने की रुचि जाती रही। (तएणं से सेलए तेणं रोगायकेण सुक्के जाए यावि होत्था तएणं से सेलए अन्नया कयाईपुवाणुणुवि चरमाणे जाव जेणेव सुभूमिभागे जाव विहरइ) इससे वे शैलक अनगार उस रोग से-सामान्य ज्वरादि व्याधि से, आतंग से-प्रबलतर मस्तक शूलादि शीघ्रघातक व्याधि से-सूख गये-बिलकुल दुबले पतले शरीर वाले हो गये। किसी एक समय पूर्वानुपूर्वी से विहार करते हुए ये जहां शैलक पुर नगर और उसमें भी जहां सुभूमि भाग नाम का उद्यान था वहां आये । तप और संयम से अपने आत्माको भाक्ति करते हुए ये वहां ठहर गये । (परिसा निग्गया मंडुओ वि निग्गओ, से लयं अणगारे जाव वंदह, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता, पज्जुवासह ) जनता वंदना करने के लिये आई मंडूक भी आया। सबने शैलक राजऋषि को वंदना की नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके मंडूक राजा ने उन की सेवा की। (तएणं से मंडुए राया सेलयस्स अणगाअभी 25 गयो डतो. (तएण से सेलए तेण गेयाय केण सुक्के जाए यावि होत्था तएण से सेलए अन्नया कयाई पुव्वाणुपुचि चरमाणे जाब जेणेव सुभूमि भागे जाव विहरइ) तेथी शैस४ सनसार सामान्य थी मात से સખત રોગથી સૂકાઈ ગયા. સાવ દૂબળ થઈ ગયા. કેઈ વખતે પૂર્વાનુ પૂર્વ થી વિહાર કરતાં શૈલક અનગાર શૈલક પુર નગરના સુભૂમિભાગ ઊદ્યાનમાં આવ્યા, અને તપ અને સંયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતાં તેઓ त्यो ।या. (परिमा निग्गया मंडुओ वि निगाओ सेलय' अणगारे जाव वंदइ, नमंसइ वदित्ता, पज्जुत्रासइ) तेभने वन ४२१। भाट नागरीनी परिषद નગરની બહાર નીકળી. ત્યાં પોંચીને બધા નાગરિકોએ શૈલક રાજઋષિને વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને મંડૂક રાજાએ તેમની સેવા ४३१. (तएण से मंडए गया सेलयस्स भणगारस्स सरीरय सुक्क भुक्क जाव
For Private And Personal Use Only
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
साताधर्मकथासूत्र युष्माकं यथापत्तैः यथायोग्यैः रोगोपशमनसमर्थैः चिकित्सकैः वैधैः यथाप्रवृत्तेन =यथायोग्येन प्रासुकेन औषधभैषज्येन औषधम् एकद्रव्यनिर्मितं, भैषज्यंन्द्रव्य समुदायनिर्मितं तेन, भक्तपानेन निरवद्याभपानेन, चिकित्सामावर्तयामि कारयामि । हे भदन्त ! यूयं खलु मम यानशालासु रथादिशालामु समवसरत-आगच्छत तत्र सुखेन तिष्ठता प्रासुकमेषणीयं पीठफलकशय्यासंस्तारकमवगृह्य विहरति । ततः खलु स शैलकोऽनगारो मण्डूकस्य राज्ञ-एतमर्थ तथेति प्रतिशृगोति रस्स सरीरयं सुक्कं भुक्कं जाव सव्वावाहं सरोगं पासइ) इस के बाद ज्यों ही मंडूक राजा ने शैलक राजऋषि के शरीर को शुष्क रूक्ष यावत् पीडित एवं रोगाक्रान्त देखा तो ( पासित्ता एवं वयासी) देख कर उन से इस प्रकार कहा-(अहं णं भंते ! तुम्भं अहा पवत्तेहिं तिगि च्छएहिं अहापवत्तेणं ओसहभेसज्जेणं भत्तपाणेणं तिगिच्छं आउट्ठावेमि हे भदंत ! मैं आपकी यथा योग्य-रोगो पशमन करने में समर्थ-वैद्यों दोरा-उचित प्रासुक (निर्दोष) औषध और भैषज्य से तथा निरवद्य अन्न पान से चिकित्सा करवाना चाहता हूँ-इसलिये (तुब्भे णं भंते ! मम जाणसालासु समोसरह, फासुअं एसणिज्ज पीठफलगसेज्जासंथारगं
ओगिहित्ता णं विहरइ) आप मेरी रथशाला में पधारें और वहां विराजे सुख शाता से वहां ठहरे, प्रासुक एषणीय, पीठफलक शय्या संस्तारक को मुनि के कल्पानुसार याचित कर लेलें । (तएणं से सेलए अणगारे मंडुयस्स रणो एयम तह त्ति पडिसुणेइ ) इस प्रकार मंडूक राज के प्रार्थना करने पर उन शैलक अनगार ने उसकी " तहत्ति" ऐस समावई सरोगं पासइ) त्या२ मा म २ ऋषिना शरीरने १० 38 यावत पीडित तभा ।गात नेयुं तो (पासित्ता एव' वयासी ) ने तमन मा प्रमाणे ह्यु-( अहण भंते ! तुम्भं अहापवत्तेहिं तिगिच्छएहि अहापवत्ते ण ओसहभेसज्जण भत्तपाणे त तिगिच्छं आउट्रावेमि ) महत! મારી ઈચ્છા છે કે હું રેગોને મટાડનાર એગ્ય વૈદ્યોની ઉચિત પ્રાસુક ઔષધે અને ભ્રષદ્વારા તેમજ નિરવદ્ય અન્નપાન થી તમારી ચિકિત્સા ( ઈલાજ) शिवायु मेटमा भाटे (तुम्भेण भंते ! मम जाण सालासु समोसरह फासु एपणिज्ज पीढकलगसेज्जासंथारगं ओगिहित्ताण विहरइ) तमे भारी २० શાળામાં પધારે અને સુખ શાંતિ પૂર્વક ત્યાં રહે. મુનિ જનેચિત પ્રાસુક अषय, पी७५५४. या सस्ता२४ त्यांथी भी देने (तएण सेलए अणगारे मंडुयस्सरण्णो एयमठूतह त्ति पउिसुणेइ) म २४ी • प्रभार
For Private And Personal Use Only
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१३७
अनगारधामृतवर्षिण टीका अ० ५ शेलकराजचरित्रनिरूपणम् स्वीकृरूतेस्म । ततस्तदनन्तरं स मण्डूको राजा शैलकं वन्दते नमस्यति, वंदित्वा नत्वा च यस्यादिशः प्रादुर्भूतः आगतः,तामेव दिशं प्रतिगतः स्वप्रासादं संपाप्तः॥२९॥
मूलम्-तएणं से सेलए कल्लं जाव जलते सभंडमत्तोवगरणमा. याए पन्थयपामोक्खेहिं पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं सेलगपुरमगुपविसइ अणु पविसित्ता जेणेव मंडुयस्स जाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता फासुयं पीढ जाव विहरइ । तएणं से मंडुए विगिच्छए सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासीतुम्भेणं देवाणुप्पिया! सेलयस्त फासुएसणिज्जेणं जाव तेगिच्छं आउद्देह, तएणं ते तेगिच्छया मंडुएणं रन्ना एवं वुत्ता हट्ठतुट्ठा समाणा सेलयस्स अहापवत्तेहिं ओसहभेसज्जभत्तपाणेहिं तेगिच्छं आउटति, मज्जपाणयं च से उवदिसंति, तएणं तस्स सेलयस्स अहापवत्तेहिं जाव मज्जमाणेण रोगायंके उवसंते होत्था हट्रे मल्लसरीरे जाते ववगयरोगायके, तएणं से सेलए तंसि रोगायंकंसि उवसंतति समाणंसि तंसि विपुलंसि असण. पाण खाइमसाइमं, मज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झो. कह कर उस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। (तएणं से मंडए सेलयं वंदह नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए ) इसके बाद वे मंडूक राजा शैलक अनगार को वंदना नमस्कार कर जिस दिशा से प्रकट हुए थे-आये थे-उसी दिशा तरफ चले गये। अर्थात् वहां से अपने राज महल में वापिस आ गये ।।सूत्र २९॥ વિનંતિ સાંભળીને શૈલક અનગારે તેમની વિનંતિને “તહત્તિ” આમ કહીને २वीरी दीधी. (तएण से मंडुए सेलयं वदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउटभूए तामेव दि।ि पडिगए) त्या२ मा म २० शैव मन॥२ने વંદન અને નમસ્કાર કરીને જ્યાંથી આવ્યા હતા ત્યાં જતા રહ્યા એટલે કે તેઓ પિતાના રાજભવનમાં ગયા છે. સૂત્ર ૨૯
ज्ञा० १८
For Private And Personal Use Only
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१३८
शाताधर्मकथाजस्त्रे ववन्ने ओसन्ने आसन्नविहारी एवं पासत्थे, २ पासस्थविहारी कुसीले २ कुसीलविहारी पमत्ते संसत्ते उउबद्धपीढफलगसेज्जा. संथरए पमत्ते यावि विहरइ । नो संचाएइ फासुएसणिज्जं पढिं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता पहिया जणवयविहारं अब्भुज्जएण पयत्तेण, पग्गहिएण विहीरत्तए॥ सू०३०॥
टीका-'तएणं से' इत्यादि-ततस्तदनन्तरं खलु स शैलकः कल्ये-प्रभाते यावत् तेजसा ज्वलति-सूर्ये उदिते सतीत्यर्थः 'सभंडमत्तोवगरणमायाए' स भाण्डामत्रोपकरणमादाय भाण्डामत्राणि अशनपानादिपात्रादि तैः सहोपकरणं रजोहरणादिकम् आदाय गृहीत्वा, पान्थकप्रमुखैः पञ्चभिरनगारशतैः साध शैलकपुरमनुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव मण्डूकस्य यानशाला वर्तते तौवोपागच्छति, उपागत्य प्रासुकं पीठफलकशय्या संस्तारकं गृहीत्वा यावद् विहरति । ततस्तदनन्तरं खलु स मण्डूको
____ 'तएणं से सेलए' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से सेलए) वे राजऋषिशैलक अनगार (कल्लं जाव जलंते सभंडमत्तोवगरणमायाए पथय पामोक्खेहिं पंच हिं अणगारसएहिं सद्धिं सेलगपुरमणुपविसइ ) प्रातः काल जब सूर्य उदित होकर तेज से चमक ने लगा था “ सभंडमत्तोवगरणमायाए" भाण्डोपकरणको लेकर पायक प्रमुख पांच सौ अनगारों के साथ शैलकपुर नगर में प्रविष्ट हुए । ( अणुपविसित्ता जेणेव मंडुयस्स जाणसालातेणेव उवागच्छइ ) प्रविष्ट हो कर जहां मंडूक राजा की यान शाला थी वहां पहुंचे-( उवागच्छित्ता-फासुयं पीढ़ जाव विहरइ ) पहुँच कर वहां से मुनि के कल्पानुसार एषणीय पीठ फलक शय्या संस्तारक की याचना
( तएण सेलए ) त्याहि ॥
साथ-( तएण) त्या२ मा ( सेलए ) शैस मना२ ( कल्ल' जाव जलते सभडमत्तोवगरणमायाए पथयपामोक्खेहिं सद्धि सेलगपुरमणुपविसइ) सवारे सूय य पाभ्यो त्यारे (सभंडमत्तोवगरणमायाए ) भा५४२६५ લઈને પથક પ્રમુખ પાંચસો અનગારની સાથે શૈલક પુર નગરમાં પ્રવિણ થયા ( अणुपविसित्ता तेणेव मंडुयस्स जाणसाला तेणेव उवागच्छइ ) प्रवेशान तमा च्या भ४ २०तनी २५ ता त्या पक्षाच्या. ( उवागच्छित्ता फासुर्य पांढजाव विहरइ ) त्यां पांयीन शैस सनारे भुनि ४८यानुसार अषणीय, पी8 ફળક શય્યા સંસ્મારકની યાચના કરી અને તે બધી વસ્તુઓ તેમજ આજ્ઞા
For Private And Personal Use Only
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १९ राजा चिकित्सकान् वैद्यान् शब्दयति आयति.। शब्दयित्वा-आहूय, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-यूयं खलु देवानुप्रियाः ! शैलकस्य राजर्षेः 'फासु एसणिज्जेण' प्रासुकैपणीयेन यावत् औषधभेषजेन : तेगिच्छं' चिकित्सा रोगनिवारणोपायम् आवर्त यत कुरुत. । ततस्तदनन्तरं चिकित्सकाः वैद्या मण्डुकेन राज्ञवमुक्ताः हृष्टतुष्टाः प्रमुदिताः सन्तः शैल कस्य यथामवृत्तः साधुकल्प्यैः प्रासुकैषणीयरित्यर्थः, औषधभैषज्यभक्तपानैश्चिकित्सां व्याधिप्रतीकारम्. आवर्तयति
करोति ' मज्जपाणयं च, मद्यपानकंच-मद्यस्य, निद्राकारकद्रव्यविशेषस्य पानं च 'से' तस्य शैलकस्य उपदिशन्ति । कर आज्ञा लेकर ठहर गये । (तएणं से मंडुए चिगिच्छए सद्दावेइ) इसके बाद मंडुक राजा ने वैद्योंको बुलाया (सदावित्ता एवं क्यासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा (तुन्भे णं देवाणुप्पिया । सेलयस्स फासुएसणिज्जेण जाव चिगिच्छं आउटेहे ) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शैलक राज ऋषि अनगार की प्रासुक एषणीय औषध भेषज से चिकित्सा करो। (तएणं ते तेगिच्छया मडुएणं रन्ना एवं वुत्ता हट्ठ तुट्ठा समाणा सेलयस्स अहापवत्तेहिंओसहभेसज्जभत्तपाणेहिं चिगिच्छं ओउट्टे ति) इस प्रकार मंडूक राजा द्वारा कहे गये उन वैद्यों ने हर्ष एवं संतोष से युक्त होकर उन शैलक राजऋषि की यथा प्रवृत्त निर्दोष औषध भेषजों से तथा भक्त पानों से चिकित्सा करना प्रारंभ कर दिया। (मज्ज पाण च से उव. दिसति ) और निद्रा कारक द्रव्य विशेष का पीना उन्हें बतला दिया। यहां यह जो मद्य शब्द प्रयुक्त हुआ है वह मदिरा अर्थ का वाचक नहीं हैं । किन्तु निद्रा कारक पेयद्रव्य विशेष का वाचक है । क्यों कि साधु मेजवान तसा त्यां या. (तएण से मंडुर चिगिच्छए सद्द वेइ) त्यार माह भ४ २००४ वैधोने मोसाव्या. ( सहावित्ता एवं वयासी) मासावीन तमन मा प्रमाणे ४धु (तुभेण देवाणुप्पिया ! सेलयस्स फासुएसणिज्जे ण जाव तेगिच्छ आउद्देह ) कानुप्रिये ! तमे शैत २८षि मनजारनी प्रासुर अषणीय मौषध मने लेषण थी पित्सा ४२१. (तएण' ते तेगिच्छया मंडुएण रना एवं'वुत्ता हट्ठा तुट्ठा, समाणा सेलयस्स अहापवत्तेहिं ओसहभेज्जभत्तपणेहि चिगिच्छ आउट्टेति ) २मा शत भडू ना पात सनी ने बत तमा સંતર્ણ થયેલા વિદ્યા શૈલક રાજઋષિની ઉચિત ઔષધ અને ભેષજોથી તેમજ सतपानाथी वित्सिा (ele ) ४२॥ साया. (मज्जपाणयंच से उपदिसति) અને નિદ્રાવશ થઈ શકાય તેવા પદાર્થ વિશેષને પીવાની વિધિ તેમને સમवी. मी ( मज्ज) भय ५६ माये। छे ते मदिरा (हार) नाम
For Private And Personal Use Only
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथासूत्र इह मद्यशब्दो न मदिरार्थकः किंतु निद्राजनक-पानद्रव्यविशेषार्थकः । साधो चिकित्सायां पासुकैषणीयौषधानामेव प्रस्तुतत्वादिह मदिरायाः प्रसङ्गाभावात्. साधोर्मद्यपानानधिकारित्वात् आगमेहि साधोमद्यपानप्रतिषेधात् मद्यपानस्य चारित्र विध्वंसकत्वाच्च, साधोः सुरापानेन साधुत्वभङ्गापत्तेश्व, यथा दशकालिकमू
सुरं वा मेरगं वावि अन्नंवा मज्जगं रसं । ससक्खं न पिवे भिक्खू जसं सारखमप्पणो. ॥ अ०५, उ०२,गा०३६ ।
वडुई सुंडिया तस्स माया मोसं च भिक्खु गो. ।
आजसोय अनिव्वाणं सययं च असाहुया. ।। अ५ उ०२, गा०३८। जनों की चिकित्सा में प्रासुक एषणीय औषधियों का ही विधान है और यही कारण यहां चल रहा है। यहां मदिरा का तो कोई प्रकरण ही नही चल रहा है । दूसरे-साधुओं को मद्यपान का अधिकार ही नहीं है। वे उसके शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार अनधिकारी हैं । आगम में साधुओं को मद्यपान करने का निषेध किया गया है। कारण वह चारित्र का विध्वंसक होता है। जहां चारित्र नहीं वहां साधुता कैसी सुरापान से साधुता का भंग होता है यह बात आगम में स्पष्ट हैजैसे दश वैकालिक सूत्र में "सुरं वा मेरगं वावि अन्न वा मज्जगं रसं, ससक्खं न पिवे भिक्खू जसं सारक्खमप्पणो" अ०५ उ०२ गा ३६ वड़ई सुंडिया तस्स माया मोसं च भिक्खुणो अजसोय अनिव्वा
ને બતાવવા માટે નહિ પણ નિદ્રાવશ થવાય તેવા પેટા પદાર્થ વિશેષ ને સૂચવવા માટે પ્રયુક્ત થયેલ છે. કેમકે સાધુઓની ચિકિત્સામાં પ્રાસુક એષણીય ઔષધીઓજ ગ્રાહ્ય સમજાય છે અહી પ્રકરણ પણ ઔષધીઓનું જ ચાલી રહ્યું છે મદિર વિષે ની તે અહીં કંઈ વાત જ નથી બીજી વાત એ પણ છે કે સાધુઓને મદ્યપાન ને અધિકાર પણ નથી, શાસ્ત્રીય વિધિવિધાનની દષ્ટિએ તેઓ મદ્યપાનની બાબતમાં અધિકારી ગણાય છે આ ગમે તે સાધુઓને મદ્યપાન કરવાની મના કહી છે કેમકે મદ્યપાનથી ચારિત્ર નષ્ટ થાય છે. જ્યાં ચારિત્ર નથી ત્યાં સાધુતાની કલ્પના કરવી જ વ્યર્થ છે. દારૂ પીવાથી સાધુતા નાશ પામે છે આ વાત આગમમાં સ્પષ્ટ રીતે સમજાવવામાં આવી છે. દા. ત. દશ વૈકલ્પિક સૂત્ર ” માં સ્પષ્ણ પણે કહેવામાં આવ્યું छ -(सुरवा मेरगंवा वावि अन्न वा मज्जगरसं, ससक्खं न पिवेभिक्खू जस सारख मप्पणो) अ. प, उ १, गा. ३६. बड्ई सुडिया तस्स माया मोसंच
For Private And Personal Use Only
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारधर्मामृतवर्षि गी टीका अ. ५ शैलकराजषि परितनिरूपणम् १४१
'भिक्खू ' भिक्षुः 'अप्पणो ' आत्मनः स्वस्य, 'जसं' यशः संयमं ' सारक्वं' संरक्षन् 'सुरं' सुरां मदिरांवा ' मेरगं' मेरकं सरकानामधेयं मह्यं 'वावि' वाऽपि 'अन्नं वा' अन्यद्वा अन्यमपिमदिवजातं 'मज्जगं' माधकं मदजनक रसं 'ससक्व' ससाक्षि 'न पिबे' न पिवेत् साक्षिभिः कैवल्यादिभिः सहेति ससाक्षि, केवल्यादिकं साक्षीकृत्येत्यर्थः । एकान्तेऽपि न पिबेदिति भावः । ३६ ॥
तस्स ' तस्य मुरापायिनः 'भिक्खुणो' भिक्षोः साधोः ' सययं ' सततं 'मुण्डिया' मद्यपानविषयाऽऽसक्तिः, च पुनः ‘मायाकपटं 'मोसं' मृषा असत्यभाषणं, च पुनः 'अजसो ' अयशः अपकीर्तिः असंयमश्च ' अनिव्याणं' अनिर्वाणम्-अनुपशान्तिः, च पुनः ' असाहुया' असाधुता साधु पदानहत्वं वर्धते। सर्वानर्थमूलं मद्यपानमिति भावः ॥ ३८ ॥ ____ अनयोविस्तृतव्याख्या दशकालिकसूत्रस्य मत्कृताऽऽचारमणिमज्जूषातोऽव. गन्तव्या ।
वैद्यकेऽपि-बुद्धिभ्रंशकरत्वान्मधं प्रतिषिद्धमितिबोध्यते । 'शालिग्रामनिघंट, णं समयं च असाहुया" अ० ५ उ०२ गाथा ३८ इन दो गाथाओ द्वारा यह कहा गया है कि जो साधु अपने संयम रूप यश की रक्षा करना चाहता है वह मदिरा मेरक-सरका तथा और भी जो मादक द्रव्य है उनका सेवन न करे । इस के सेवन करने से सेवन करने वाले में मद्यपान विषयक आसक्ति बढती है, कपट असत्य भाषण असमभाव की वृद्धी होती है और परिणामो में शान्ति नहीं रहती है । असाधुता जगती है-पढ़ती है । मद्यपान समस्त अनर्थो का मूल कारण है। इन दोनों गाथाओं की विस्तृत व्याख्या मैंने दश वैकालि सूत्र के आचार मणि मंजूषा में की है। वहां से जान लेनी चाहिये । वैद्यक ग्रन्थ जो शालिग्राम निघंटु है उस में भी बुद्धि को ध्वंस करने वाली होने के भिक्खुणो अजसोय अनिव्वा णं समय च असाहुया ) म. ५ 8. २, गाथा 38 આ બે ગાથાઓ વડે આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે જે સાધુઓ પિતાના સંયમ રૂપ યશને રક્ષવા ચાહે છે, તે મદિર (દારૂ) મેરક (સરકો) અને બીજા પણ કેટલાક માદક પદાર્થો છે તેમનું સેવન કરે નહિ એમના સેવનથી સેવન કરનારમાં મદ્યપાન વિષેની આસક્તિ વધે છે કપટ અસત્ય વચના અને અસંયમ જેવા ભાવની પણ વૃદ્ધિ થાય છે, અને છેવટે એનાથી જીવનમાં શાંતિભંગ થાય છે. અસાધુતા (દુષ્ટતા) વધે છે. ખરેખર મદ્યપાન જગતના બધા અનર્થોનું મૂળ કારણ છે. ઉક્ત બંને ગાથાઓની સવિસ્તર વ્યાખ્યા “દશવૈકાલિપક સૂત્ર”ની આચાર મણિ મંજૂષામાં આવી છે જિજ્ઞાસુજનાએ ત્યાંથી જાણું લેવું જોઈએ. “શાલિગ્રામ નિઘંટુ નામે વૈદ્યક ગ્રંથમાં
For Private And Personal Use Only
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१४२
शाताधर्मकथाङ्गासने कथं तर्हि सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयसंरक्षकस्य साधोश्चिकित्सायां मद्यपानाधिका रः स्यात.।
आचांराग सूत्रेऽपि (श्रु०२, उ०२ ) मद्यपानस्य संकल्पेनापि साधुः प्रायश्चि तभागी भवतीति प्रतिबोधितम्. उक्त चान्यत्रापि यथा
अज्ञानाद् वारुणीं पीत्वा संस्कारेणैव शुध्यति । मतिपूर्वमनिर्देश्य प्राणान्तिकमिति स्थितिः ।। मनु० अ०११-श्लो०१४६ ।
मदिरामज्ञात्वा यदि पिबेत् तर्हि पुनरुपनयनसंस्कारेणैव शुध्यति, नान्यथेति भावः । यदि मदिरां ज्ञात्वा पिवेत् तर्हि प्राणान्तकरणेनैव शुध्यति नान्यथेति स्थितिधर्मस्य मर्यादाऽस्तीत्यर्थः ।। कारण मद्यपान निषिद्ध किया है। अतः विचार ने जैसी बात है कि साधु जो तपसंजम का संरक्षक होता है वह अपनी चिकित्सा कराने में मद्यपान का अधिकारी कैसे हो सकता है। आचाराङ्ग सूत्र में भी ( श्रु० २ उ०२) मद्यपान करने को संकल्प भी साधुओं को त्याग देना चाहिये । यदि वह ऐसा करता है तो उसे प्रायश्चित्त का भागी बनना पड़ता है। अन्य सिद्धान्त कारों ने भी " अज्ञानात् वारूणीं पीत्वा संस्कारेणैव शुद्धयति, मतिपूर्वमनिर्देश्य प्राणान्तिक मितिस्थितिः । मनुः स्मृति० अ० ११ श्लोक १४६, इस श्लोक द्वारा विषय समझाया है कि यदि कोइ अज्ञान भाव से मदिरा को पी लेना है तो वह पुन: उपनयन संस्कार से ही शुद्ध हो सकता है अन्यथा नहीं। यदि वह जानबूझ कर मदिरा का सेवन करता है तो वह अपने प्राण अर्पण कर ही शुद्ध हो પણ મદિરાને બુદ્ધિને નષ્ટ કરનારી હોવા બદલ તેને વિષેધ સૂચવ્યો છે. એટલે આવી નાની સરખી વાતો દરેક વ્યક્તિ સમજી શકે છે તે પછી રત્નત્રયના સંરક્ષક સાધુજને પિતાની ચિકિકામાં પણ મદિરા પાન કેવી રીતે કરી શકે છે? તેઓ આવું કરે તો તેમને તેનું પ્રાયશ્ચિત્ત કરવું પડે છે. બીજા ५५ ।२४।२। महिरान। निषेध ४२di छ ( अज्ञानात् , वारुणीं पीत्वा संस्कारेणैव शुद्धयति । मतिपूर्वमनिर्देश्य प्राणान्ति कमिति स्थितिः ।। मनुस्मृति अध्याय ११ श्लोक-१४६ । ) मारसो १ वामां मायुं छे । અજાણુમાં પણ મદિરાનું સેવન કરી જાય તે યજ્ઞોપવીત (જનોઈ) સંસ્કારથી તે ફરી શુદ્ધ થાય છે. અને જે તે જાણું બૂજીને મદિરાનું સેવન કરે તે પિતાના પ્રાણેને અર્પણ કરીને એટલે કે મૃત્યુને ભેટીને જ તે શુદ્ધ થઈ શકે છે, - બીજા કોઈપણુ ઉપાયથી તેની શુદ્ધિ અસંભવિત છે. ધર્મશાસ્ત્રોનું એજ વિધાન
For Private And Personal Use Only
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
=
अंगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम्
अनत्य पूर्वापरमल पाटसमालोचनतोऽरत्र मघशब्दस्य मदिरार्थकत्वं न सिध्यति. तथाहि-यथाप्रवृत्तश्चिकित्सबै यथाप्रवृत्तेनौषधभैषज्येन भक्तपानेन चिकित्सामावर्तयामीति स्वीकृत्य माडू केन शैलकानगार इत्थं प्रार्थितः-यूयं खलु मासुकमेषणीयं फीठफलकादिकमरगृह्य विहरतेति, शैलकानगारस्तथेति प्रतिश्रुत्य मण्डूकस्य यानशालायां तथैव विहरतिरम. ततोमण्डूकेन चिकित्सका आदिष्टाः-पासुकैषणीयेन यावत् चिकित्सामावर्तयतेति ततश्चिकित्सका मण्डूकस्याज्ञानुसारेण प्रासुकै षणीयरेवोपधादिभिश्चिकित्सां कुर्वतः साधोरकल्प्यं प्रवचननिषिद्धं मप्डूकेनाप्यना दिष्टं तदाज्ञाविरुद्धं मधं पाययितुं कथं प्रवृत्ताः स्युः ! कथमपि न । सकता है अन्यथा नहीं । यही धर्म की मर्यादा है। यहां पर के पूर्वी पर के मूल पाठ के समालोचन से भी मच शब्द में मदिरा अर्थ सिद्ध नहीं होता है। जब मंडूक राजा ने शैलक: राजऋषि के समक्ष यह प्रार्थमा की-कि में 'यथा प्रवृत्तेन औषध भैषज्येन भक्तपानेन चिकित्सांआधतयामि' रोगोशमन करने में समर्थ वैद्यों के द्वारा यथा योग्य निर्दोष प्रासुक औषध भैषज्य से आपकी चिकित्सा कराऊँगा आप मेरी यान शाला में प्रासुक एषणीय पीठ फलक आदि की याचना करके वहां रहें तब इस मंडूक राजा की प्रार्थना को सुनकर वे शैलक अनगार तथेति' कहकर उसे स्वीकार कर के वहां उनकी यानशाला में आथे। इनके आते ही मंडूक ने वैद्यों को घुलाकर यह आदेश दिया कि आप लोग प्रासुक एषणीय आदि औषध भेषज से इनकी चिकित्सा करें। तत्र उन वैद्यों ने मंडूक की आज्ञानुसार प्रासुक एषणीय औषध आदि से उनकी चिकित्सा करने लगे। फिर सोचने की बात है कि जब साधु છે. અહીં પૂર્વાપરના મૂળપાઠથી પણ મઘશબ્દથી મદિર વિષેને અર્થ સિદ્ધ થતું નથી. જેમકે મંડૂક રાજાએ શૈલક રાજ ઋષિની સામે વિનંતી કરતાં
धु-( यथावृत्तकैः चिकित्सकैः यथाप्रवृत्तन औषधभैषज्येन भक्तपानेन चिकित्सा भावर्तयामि ) रोगाने मटाउना२। साथ धोद्वारा हु यथायित प्रासु ઔષધ ભૈષજ્યથી તમારી ચિકિત્સા (ઇલાજ) કરાવીશ મારી શાળામાં તમે પ્રાસુક એષણીય પીઠ ફલક વગેરેની યાચના કરીને ત્યાં રોકાઓ ત્યારે મંદ્રક રાજાની વિનંતીને સ્વીકારતાં “ તથતિ' (સારૂ) કહીને તેઓ તેમની રથ શાળામાં આવ્યા. શૈલક અનગારની ચિકિત્સા માટે મંડૂકે વૈદ્યને બોલાવ્યા અને બેલાવીને એમ આજ્ઞા કરી કે તમે પ્રાસુક એષણય વગેરે ભેષજથી એમની ચિકિત્સા શરુ કરી. વૈદ્યો પણ મંડ્રક રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણેજ પ્રસુક એષણીય ઔષધ વગેરેથી તેમની ચિકિત્સા (ઈલાજ) કરવા લાગ્યા. એની સાથે સાથે
For Private And Personal Use Only
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
জানাই अग्रिममूलपाठावलोकनेन च मूलगुणनाशकं निषिद्धमद्यमिह नैव विज्ञायते, तथाहि-चतुर्विधाऽऽहारे मद्यपाने च मूञ्छितस्यापि शैलकस्य प्रमाददोषवशात् केवलं जनपदविहारानईता जाता, न तु मूलगुणनाशस्तस्याभूदिति विज्ञाय पान्थकामु. खेषु पञ्चशतानगारेषु प्रधानतया मुख्यं पान्थकमनगारं तस्य वैयावृत्त्यकरणार्थ स्दापयित्वा पान्थकवर्जितास्ते सर्वेऽनगाराबहिर्जनपदविहारं विहरन्तिस्मेति वक्ष्यते। यदि शैल केन निषिद्धमचं सेवितं स्यात् तर्हि तस्मिन् मूलगुणरहितेऽनगारधर्मात् प्रच्युते च सति पान्यकोनगारस्य तद्वैयारत्यकरणं विरुध्यते । मर्यादा के अनुसार अकल्प्य तथा प्रवचन निषिद्ध वस्तु के देने के लिये मंडूक राजा ने उन से नहीं कहा तो भला वे उसकी आज्ञा के विरुद्ध मद्य उन्हें कैसे पिलाने में समर्थ हो सकते थे। तथा आगे का मूल पाठ देख ने से भी यही बात पुष्ट होती है कि मूल गुणों का विना. शक निषिद्ध. मद्य इस मद्य शब्द का वाच्यार्थ नहीं हो सकता है । तथा हि- " चतुविध आहार एवं मद्यपान में मूच्छित बने हुए भी शैलक को प्रमाद दोष के वश से केवल जन पदों में विहार करने की ओर से ही अशक्ति आ गई है, उनके मूलगुणों का नाश नहीं हुआ है ऐसा समझ कर पांथक को छोड़ और समस्त मुनिजन वहां से बाहिरजन पदों में बिहार कर गये और पांथक को वे उनकी वयावृत्ति करने के लिये छोड़ गये। ऐसा सूत्रकार आगे कहेंगें । यदि शैलक ने निषिद्ध मद्यका सेवन किया होता तो वे मूलगुणो से भी रहित हो जाते और इस तरह अनगोर धर्म से रहित होने पर पांथक अनगोर को उनकी બીજી વાત એ પણ છે કે જ્યારે સાધુમર્યાદા મુજબ અક તેમજ પ્રવચન નિષિદ્ધ વસ્તુ ને આપવા માટે મંડૂક રાજાએ વૈદ્યોને આદેશ આપે નહિ તે વૈદ્યોની શી તાકાત કે તેઓ તેમની આજ્ઞાને ઓળંગીને શૈલક અનગારને મદ્ય પીવડાવે? તેમજ આગળના “મૂળ પાઠને ” જેવાથી પણ આવાત સિદ્ધ થાય છે કે ગુણને નષ્ટ કરનાર મદ્ય અહીં મધ-શબ્દને વાચ્યાર્થ થઈ શકે જ નહિ. જેમકે- ચાર જાતના આહાર અને મદ્ય પાનમાં મૂરóવશ થયેલા શૈલકને પ્રમાદ દોષથી ફક્ત જનપદે વિહાર કરવા માટેની અશક્તિ જ આવી ગઈ છે. તેમના મૂળગુને નાશ થયો નથી આવું સમજીને જ પાંથકને ત્યાં મૂકીને બધા મુનિઓ ત્યાંથી બીજા બહારના જન પદમાં વિહાર કરવા માટે નીકળી પડયા પથકને શૈલકની વૈયાવૃત્તિ માટેજ મુનિઓ મૂકીને ગયા હતા. આ સૂત્રકાર આ પ્રમાણે આગળ વર્ણન કરવાના જ છે. હવે જે શૈલકે આગમનિષિદ્ધ મદિદાનું સેવન કર્યું હતતો તેઓ મૂળ ગુણોથી પણ હીન થઈ જાત અને આ પ્રમાણે અનગાર ધર્મ રહિત
For Private And Personal Use Only
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितानरूपणम् १५५
किं च-मद्यपानात् पूर्वापरकाले सुखप्रसुप्तस्य शैलकस्य राजर्षेः चातुर्मासिक प्रतिक्रमितुकामेन पान्थकेन क्षमापनार्थ शिरसा तचरणसंस्पर्शे कृते सति स उत्थाय क्रोधाविष्टो जातः । ततोऽसौ पान्थकः शैलकानगारं वन्दमानः स्वशीर्षण तच्चर भयोः स्पृशन् प्रार्थयतिस्म-क्षमध्वं मेऽपराध, नैवं पुनः करिष्ये इति । मद्यशब्दस्य निषिद्धमद्यार्थकत्वेतु-मूलसूत्रे शैलकस्य राजर्षिविशेषणं नोपपद्यते,पान्थकानगारकृतं तद् वन्दनादिकं च विरुध्यते ।
किच-मद्यशब्दस्य मदिरार्थकत्वस्वीकारे शैलकस्य पश्चात्तापादये सति विशुद्धवैयावृत्ति करना भी विरुद्ध पड़ता है । किं च मद्य के पान करने से पूर्वापराह्नकाल में सुख से सुप्त हुए शैलक राजऋषि के, चातुर्मासि प्रतिक्रमण करने की इच्छा से जब क्षमापना याचनार्थ मस्तक से चरणों का स्पर्श किया तो वे जग गये और अचानक निद्रा भंग होने से उन्हें क्रोध
आ गया। पथिक ने जब उनकी यह दशा देखी तो उसने नमन करते हुए उनके चरणों को छूकर प्रार्थना की महाराज ! आप मेरे अपराध को क्षमा कीजिये आगे ऐसा अब नहीं करूंगा। यदि मद्य शब्द को निषिद्ध मद्यार्थक-मदिरार्थक-माना जावे तो मूल सूत्र में शैलक के लिये जो राजऋषि शब्द का प्रयोग किया गया है-उन्हें जो राजऋषि के विशेषण से विशेषित किया है-वह नहीं बनता है और न पांथक अनगार कृत उन के प्रति वंदना आदि कृत्य युक्ति संगत बैठते हैं। यदि यहाँ मद्य शब्द को मदिरार्थक स्वीकार कियो जावे तो उन्हें जो पश्चात्ताप के હેવા બદલ પાથક અનગારની તેમની માટેની વૈયાવૃત્તિ પણ ઉચિત ગણાત જ નહિ અને બીજું કે જ્યારે મદ્યપાન કરીને પૂર્વાપજાહ્ન કાળમાં શૈલક રાજ ઋષિ સુખેથી સૂતા હતા ત્યારે ચાતુર્માસિ પ્રાતિકમણ કરવાની ઈચ્છાથી
જ્યારે ક્ષમાપના તાટે પથકે તેમનાં ચરણોમાં પિતાના મસ્તકને સ્પર્શ કર્યો ત્યારે તેઓ જાગ્રત થઈ ગયા. અને ઓચિંતા નિદ્રાભંગ થતાં તેઓ કોધાવિષ્ટ થઈ ગયા. પથિકે તેમને ગુસ્સે થયેલા જેઈને ફરી તેમના ચરણે માં મરતક નમાવીને વિનંતી કરતાં કહ્યું કે હે ભગવાન ! મારે ગુને માફ કરો ફરીથી આવું નહિ થાય. જે મદ્ય શબ્દ મદિરાના અર્થને સૂચવનારો હોય તે મૂળસૂત્રમાં શૈલકના માટે રાજઋષિ શબ્દને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે, તેમને રાજઋષિના વિશેષણથી સંબોધવામાં આવ્યા છે તે કેવી રીતે બને ? પથક અનગારે તેમના પ્રત્યે ક્ષમાપના રૂપ વંદન વિનય વગેરે બતાવ્યું તે પણ ઉચિત કેવી રીતે કહી શકાય ? બીજું કે જે મદ્ય શબ્દને મદિરાના અર્થમાં સ્વીકારીએ તે શિક્ષક અનાર પશ્ચાત્તાપના ઉદયથી વિશુદ્ધ ચારિત્રના આરાધન
शा० १९
For Private And Personal Use Only
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
বাঘরখা चारित्राराधनार्थ कृत प्रतिज्ञस्य कृतनिश्चयस्य तदनन्तरद्वितीयेह्नि प्रभातकाले आनु. पूर्व्या ग्रामानुग्रामविहारार्थ प्रवृत्तिरपि पुनः प्रायश्चित्तग्रहणमन्तरेण नोपपद्यते । तस्मादत्र मधशब्दो नास्ति मदिरार्थकः । किं तु-'मज्जपाणयं पीए पुवावरण्डका. लसमयंसि सुहप्पसुत्ते' इत्यग्रिममूलपाठमामाण्यात् निद्राजनकपानद्रव्यविशेषार्थक एवेति निश्चीयते।
तत्त्वतः पूर्वापरमूलपाठपर्यालोचनेन 'मज्जपाणयं च से उपदिसंति' 'जावमज्जपाणेण' मज्जपाणए य मुच्छिए ' ' सुबहुं मज्जपाणयं पीए' इति पाठाः प्रक्षिप्ता एवेति सुधियो विमर्शयन्तु ।
ततस्तदनन्तरं तस्य शैलकस्य यथाप्रवृत्तैः मासुकैषणीयैर्यावत्-औषधभैषज्यैपध्याहारैश्च रोगातङ्काः उपशान्ता अभूवन् , हृष्टः प्रसन्नचित्ता, मल्लशरीर मल्लवत् उदय होने पर विशुद्ध चारित्र आराधन के लिये कृत निश्चय देखाजाता है और उसके बाद जो द्वितीय दिन प्रातःकाल में आनुपूर्व्या ग्रामा. नुग्राम विहार की उनमें प्रवृत्ति पाई जाती है वह भी नहीं घटित हो सकती है । कारण प्रायश्चित्त ग्रहण के बिना ऐसी प्रवृत्ति होती नहीं है । इसलिये यहां मद्य शब्द मदिरार्थक नहीं हैं किन्तु यह " मज्ज पाणयं पीए पुन्वावरणहकालसमयंसि सुहप्पसुत्ते" इस अग्रिम मूल पाठ की प्रमाणता से निद्राजनक पान द्रव्य विशेष अर्थवालो ही है ऐसा निश्चित होता है। तत्वतः विचार किया जावे तो पूर्वापर मूल पाठों की पर्यालोचना से " मज्जपाणयं च से उपदिसति. जाव मज्जपाणेण मज्जपाणए य मुच्छिए, मज्जपाणए मुच्छिए, सुबहु मज्जपाणयं पीए" ये सब पाठ प्रक्षिप्त ही ज्ञात होते हैं ऐसा बुद्धिमान् जन विचार करें। (तएणंतस्स सेलयस्स अहापवत्तेहिं जाव मज्जणपाणेणं रोयायंके उवसंते માટે કૃત પ્રતિજ્ઞ દેખાય છે અને ત્યાર બાદ તેઓ બીજા દિવસે સવારે જ પૂર્વપરંપરા અનુસાર એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરવાની ઈચ્છા કરે છે જે આવું હેત તેમનામાં આવી ઇચ્છા પણ પ્રકટ કેવી રીતે થાત? કેમકે પ્રાયશ્ચિત્ત વગર આવું તે કરી શકે જ નહિ. એટલા માટે અહીં મદ્ય શબ્દ मशिनो मर्थ सूयवत। नथी ५५ ( मज्जपाणय पीए पुवावरण्हकालसमयसि सुहप्पसुत्ते “ भय ५६ भूणाने मनुसक्षी त निद्रा नपान द्रव्य विशेष " अन सूयवना छे. (मजपाणयं च से उपदिसति जाव मज्जपाणेण मज्जपाणए य मुच्छिए मज्जपाणए मुच्छिए, सुबहुमज्जपाणय पीए ) पूर्वा५२नी અપેક્ષાએ મૂળપાઠ વિષે આપણે ગંભીર પણે વિચાર કરીએ તો ઉક્ત પાઠ प्रक्षिस सागरी. (तएण तस्स सेलयस्स अहापवत्तेहिं जाव मज्जणपाणेणं रोया
For Private And Personal Use Only
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १४७ पुष्टशरीरः जातः, व्यपगतरोगातङ्कः सर्वव्याधिरहितो जात इत्यर्थः । ततः खलु स शैलकस्तस्मिन् रोगातङ्के उपशान्ते सति तस्मिन् विपुले अतिशये अशनपानखाघस्वाये-चतुर्विधाऽऽहारे मद्यपानके च निद्राजनकपानद्रव्यविशेषे च मूछितः आसक्तः ग्रथितः-स्नेहरज्जुभिर्बद्धः गृद्धो-लोलुपः । अझोववन्ने ' अध्युपपन्न, सरसाहाराधधीनजीवनः। ' ओसन्नो' अक्सनः अवसन्न इवावसन्नः श्रान्ततुल्यः, आवश्यक-स्वाध्यायप्रतिलेखनध्यानादिक्रियासु शैथिल्येन श्रान्तइवमोक्षमार्गे शिहोत्था ) इस प्रकार इस शैलक राजऋषि के यथा प्रवृत्त प्रासुक एषणीय यावत्-औषध भैषज्यों से और पथ्याहार से रोगातंक उपशमित हो गये ( हटे मल्ल सरीरे जाए ववगयरोयायंके, तएणं सेलए तंसि रोगायं कंसि उवसंतंसि समाणंसि तंसि विपुलंसि असण. पाण खाइम साइमे मज्जपाणेण य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्नो, ओसन्न विहारी एवं पासत्थे २ पासत्थ विहारी कुसीले २ कुसील विहारी पमत्ते संसत्ते उउबद्धपीठफलकसेज्जासंथारए पमत्ते यावि विहरइ) वह प्रसन्न चित्त हो गया शरीर से भी मल्ल की तरह पुष्ट हो गये। इस प्रकार रोग और आतंकों से सर्वथा रहित हो गये । इस के बाद वह राजऋषि विविध प्रकार के विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार में एवं मद्यपान में आसक्त हो गये । उन में स्नेह रूपी रज्जु से बन्ध गये-गृद्ध-लोलुप-हो गये और सरस आहार के आधीन जीवन वाले बन गये । थके हुए व्यक्ति की तरह वह स्वाध्याय, यके उवसंते होत्या ) या प्रमाणे या प्रवृत्त प्रामु मेषशाय यापत मोषध જૈષોથી અને એગ્ય પથ્ય આહારથી શૈલક રાજઋષિના રોગો મટી ગયા. (हढे मल्लसरीरे जाए ववगयरोयायके, तएण से टए तंसिरोगायकंसि उवसंतसि समाणंसि तसि विपुलंसि असण०पाण खाइम साइमे मज्जपाणेणय मुच्चिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्नो, ओसन्न विहारी एवं पासत्थे २ पासस्थविहारी कुसीले २ कुसील विहारी पमत्ते संसत्ते उउवद्धपीठफलगसेज्जासंथारए पमत्ते यावि विहरइ ) ते शरीरथी पुष्ट तेमन प्रसन्न चित्त ७ गया. मारीत રેગ અને આતંકે થી તેઓએ એકદમ મુક્તિ મેળવી લીધી. ત્યારબાદ તેઓ જાત જાતનાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં આવેલા અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર પ્રકારના આહારમાં તથા મદ્યપાનમાં આસક્ત થઈ ગયા. તેઓ સ્નેહરૂપી દેરીથી બંધાઈ ગયા. વૃદ્ધ-એટલે કે લેલુપ થઈને સરસ આહારના સેવનમાં તેઓ ટેવાઈ ગયા. શ્રાન્ત વ્યક્તિની પેઠે સ્વાધ્યાય પ્રતિ
For Private And Personal Use Only
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१४८
शाताधर्मकाङ्गसूत्रे थिल इत्यर्थः । 'ओसन्नविहारी 'अबसन्नविहारी शिथिलाऽऽचारी आलस्यवशेन मन्दीभूतचरणकरण इत्यर्थः । एवं अनेन प्रकारेण 'पासत्थे ' पावस्था-साधुगुणानां पार्थे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः ज्ञानादीनां न सम्यगाराधकः । पावस्थविहारीपार्श्वस्थानां यो विहारस्तथावर्तन पार्श्वस्थविहारः सोऽस्यास्तीति पार्श्वस्थविहारी, कुशील: उत्तरगुणविराधनया संज्वलनकषायोदयेन च कुत्सिताऽऽचारः । कुशील. विहारी-कुत्सिताचारशीलः । 'पमत्ते' प्रमत्तः प्रमाद्यतिस्म-मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावात् संज्वलनकषायनिद्राविकथाऽन्यतमप्रमादयोगेन संयमाराधनेषु सीदतिस्मेति प्रमत्तः । कर्तरिक्तः । 'संसत्ते ' संसक्तः गौरवत्रयाश्रयेण संकीर्णाचारः, ऋतुबद्धपीठफलकशय्यासंस्तारके प्रमत्तश्चापि विहरति, शेषकालेऽपि कारणमन्तरेण प्रति लेखन, ध्यान आदि मोक्ष मार्ग में भी शिथिल हो गये । अवसन्न विहारी हो गये-शिथिलाचारवाले बन गये -आलस्य के वश से चरण सत्तरी और करण सत्तरी के आराधना ढीले पड गये इस प्रकार वह पार्श्वस्थ हो गये-साधु गुणों के पास में रहने वाला बने रहे-ज्ञानादिकों का सम्यक आरधन कर्ता वह नही रहे। पावस्थों के : विहार जैसा इनका वर्ताव हो गयो । उत्तर गुणों की विराधना से और संज्वलन कषाय के उदय से वह कुत्सित आचार वाले हो गये । कुशील विहारी हो गये। मोहनीय आदि कर्मों के उदय के प्रभाव से यह संज्वलन कषाय निद्रा विकथा रूप प्रमादों में से किसी एक प्रमाद के योग से संयम की आराधना करने में शिथिल परिणामी हो गये । गौरवत्रय के आश्रय से उनका आचार शिथिल हो गया। हर एक समय कारण के विना भी पीठ फलकादि का सेवन करने वाले बन गये सदा इन લેખન ધ્યાન વગેરે ક્રિયાઓમાં તેમજ મોક્ષમાર્ગમાં તેઓ શિથિલ થઈ ગયા અવસન્ન વિહારી થઈ ગયા,-શિથિલ આચરણ વાળા થઈ, અળસને લીધેચરણ સત્તરી અને કણસત્તરી રહિત થઈ ગયા આમ તેઓ પાર્થસ્થ થઈ ગયા સદગુણેમાં રચ્યાપચ્યા બનીને રહેનારા બની ગયા. જ્ઞાન વગેરેની સમ્યક્ આરાધના તેમનાથી હવે નહતી થતી પાર્વસ્થાના વિહારની જેમ તેમનું આચરણ થઈ ગયું. ઉત્તર ગુણોની વિરાધનાથી અને સંજવલન કષાયના ઉદયથી તેઓ કુત્સિત આચાર વાળા થઈ ગયા. કુશીલ વિહારી થઈ ગયા. મેહનીય વગેરે કર્મોના ઉદયને લીધે તેઓ સંજવલન કષાય નિદ્રા વિકથા રૂપ પ્રમાદેમાં થી કોઈ પણ એક પ્રમાદના વેગથી સંયમને આરાધનામાં શિથિલ થઈ ગયા. ગૌરવયના આશ્રયથી તેમને આચાર શિથિલ બની ગયા. કારણ વગર પણ તેઓ ગમે ત્યારે પીઠ ફલક વગેરે નું સેવન કરવા લાગ્યા. તેઓ હંમેશાં તેના ઉપર પડ્યા જ
For Private And Personal Use Only
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारमृती टीका भ० ५ शैलकराजऋषिचरित निरूपणम्
१४९
पीठफलकादिसेवी संजात इत्यर्थः । ' नो संचाएइ' नो शक्नोति अस्य विहर्तुमि त्यत्रान्वयः, प्रासुकैषणीयं पोठं=पीठादिकं प्रत्यर्प्य मण्डूकं च राजनमापृच्छ्च बहिर्जन पदविहारं ' अभुज्जएण ' अभ्युद्यतेन- उत्तमयुक्तेन, ' पयत्तेण ' प्रदत्तेन भगवदनुज्ञातेन प्रमादरहितेन, 'परमहिऐग ' प्रगृहीतेन तीर्थंकरैरपि स्वीकृतेन; विहर्तु = कर्तुम् । संज्वलनकषायनिद्राविकथाऽन्यतमममा दवंशगतः शैलको बहिर्जनपदविहारं कर्तुमसमर्थी जात इत्यर्थः ॥ ३० ॥
-
मूलम् तपणं तेसिं पंथयवजाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अन्नया कयाई एगयओ सहियाणं जाव पुव्वरत्तावरत्तकालसम यंसिं धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवं अम्भस्थिए जाव समुपजित्था - एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्जं जाव पव्वपर पड़ा रहने लगे (नो संचाएइ फासुएसणिज्जं पीढे पच्चपिणित्ता मंडुयं च राया अपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं - अन्भुज्जएण पयत्तेण पहिएण विहरित ) प्रासुक एषणीय पीठ आदि को प्रत्यर्पित कर ( देकर ) तथा मंडूकराज से पूछकर यह बाहर जनपदों में विहार करने के लिये समर्थ नहीं हुए। जो बिहार उत्तम योग रूप उद्यम से युक्त होकर किया जाता है अर्थात् जिसमें प्रमत्त दशा नहीं रहती हैजिसके करने की भगवान् की आज्ञा है । तथा तीर्थंकरों ने भी जिसे किया है । तात्पर्य इसका यह है कि संज्वलन कषाय, निद्रा तथा वि कथारूप प्रमादों में से किसी एक प्रमाद के वशंगत होकर वहां से विहार करने के लिये असमर्थ बन गये । सूत्र ॥ ३० ॥
रहेता हुता. (नो संचाएद फासुएसणिज्ज' पीढ पच्चपिणित्ता मंडुयं च राया अपुच्छित्ता बहिया जणत्रयविहारं अब्भुज्जएण पयत्तेण पग्गद्दिएण विहरितए) प्रासु એષણીય પીઠ ફલક વગેરે પાછાં આપી તેમજ મંડૂક રાજાને પૂછીને બહારનાં ખીજા જનપદ્મ માં વિહાર કરવા માટે પણ તેઓ સમથ થઇ શકયા નહિ. જે વિહાર ઉત્તમ ચાગ રૂપ ઉદ્યમ વડે કરવા માં આવે છે, એટલે કે જેમાં પ્રમત્ત દશા રહેતી નથી તેમજ જે વિહારને કરવાંની ભગવાને આજ્ઞા આપી છે, અને તીર્થંકરો પણ જેને કરતા આવ્યા છે. તેમાં તે અસમર્થ થઈ ગયા. તાત્પર્ય એ છે કે આ સંજવલન કષાય, નિદ્રા તેમજ વિકથા રૂપ પ્રમાદે માંથી કોઇ પણ એક પ્રમાદના વશવર્તી થઈને ત્યાંથી બહાર વિહાર કરવા સસ થઈ શકયા નદ્ધિ. !! સૂત્ર ૩૦ ।।
For Private And Personal Use Only
•
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१५०
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे इए, विउलेणं असण. ४ मज्जपाणए मुच्छिए नो संचाएइ जाव विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया! समणाणं निग्गंथाणं जाव पमत्ताणं विहरित्तए, तं सेयं खलु देवानुप्पिया ! अम्हं कल्लं सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलगसेज्जासंथारगं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठवेत्ता बहिया अब्भुज्जएणं जाव पवत्तेण, पग्गहियेण जणवयविहारं विहरित्तए, एवं संपेहेंति, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते सेलयं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ़फलगसेज्जासंथारयं पच्चप्पिणंति, पच्चप्पिणित्ता पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठावंति ठावित्ता बहिया जाव विहरंति ॥ सू०३१ ॥ ____टीका-'तएणं तेसिं' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु तेषां पान्थकवर्जानां पञ्चानामनगारशतानांपञ्चशतानगाराणाम् , अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले, एकतः सहितानाम् एकत्रसंमिलितानां यावत् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये= धर्मजागरिकांधमध्यानप्रबोधिनी कथां जाग्रतां-कुर्वताम्
_ 'तएणं तेसिं पंथयवज्जाणं ' इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद (तेसिं पंथयवज्जाणं पचण्हं अणगार सयाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं जाव पुन्वावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजिस्था) उन पांचसो, पांथक अनगार वर्ज मुनियों को किसी एक समय मध्य रात्रि में जब कि वे धर्मध्यान प्रबोधिनी कथा को एकत्र संमिलित होकर
(तएण तेसिं पथयवज्जाण) त्याहि ॥
2012-(तएण) त्या२ मा ( तेसि पथयबज्जाण पचण्ह अणगारसयाण अन्नया कयाई एगयओ सहियाण जात्र पुवावरत्तकालसमयसि धम्मजागरिय जागरमाणाण अयमेवारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था ) पांयसे. पां५४ मनગાર વજે મુનિઓને કે એક વખતે મધ્યરાત્રિમાં જ્યારે તેઓ બધા એકઠા થઇને ધર્મધ્યાન પ્રબોધિની કથા વિષે ચર્ચા કરી રહ્યા હતા ત્યારે તેઓને આ
For Private And Personal Use Only
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ४ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १५१ अयमेतद्रूपा वक्ष्यमाणप्रकारकः ' अब्भत्थिए ' अभ्यर्थितः प्रवचनसंमतः यावत्यावत् करणेन-चिंतिए, पत्थिए, मनोगए इत्येषां सङ्ग्रहः । चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः= विचारः ' समुप्पज्जित्था ' समुदपद्यत-अभवत्-एवं अमुना प्रकारेण खलु-निश्चये शैलको राजर्षिः ' चइत्ता' त्यक्त्वा, ' रज्ज' राज्यं यावत् प्रवजित= दीक्षां गृहीतवान स चेदानीं 'विउलेणं' विपुलेन अतिशयेन अशन पानखाद्यस्वाचे चतुर्विधाहारे निद्राजनकपानद्रव्यविषे च मूच्छितः आसक्तः नो शक्नोति यावद् कुत्रापि विहर्तुम्. । नो खलु कल्पते देवानुपियाः ! श्रमणानां यावत् प्रमत्तानां विहर्तुम् , हे देवानुप्रिया ! प्रमादिनो भूत्वा श्रमणानां संयममार्गे विहाँ न कल्पते, किंतु अभ्युद्यतेन इत्यर्थः । ' त सेयं ' तच्छ्रेयः तत तस्मात् श्रेयः खलु देवानुमियाः अस्माकं कल्ये प्रभाते शैलकं राजर्षिमापृच्छय कर रहे थे । इस तरह का प्रवचन संमत चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प-विचार उत्पन्न हुआ। ( एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्ज जाव पव्वइए विउलेणं असण ४ मज्जपाणे मुच्छिए नो संचाएइ जाव विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पियो । समणाणं निग्गंथाणं जाव पमत्ताणं विहरित्तए ) शैलक राजा ने राज्य का परित्याग कर भगवती दीक्षा अंगीकार की हैं-इस तरह वे राजऋषि बने हैं-परन्तु अब वे विपुल अशन पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार में तथा निद्रा कारक पान द्रव्य विशेष में आसक्त हो रहे हैं । कहीं पर भी बाहर विहार नहीं करना चाहते हैं। इस तरह हे देवानुप्रियो ! श्रमगो को प्रमत्त बनकर संयम मार्ग में विहार करना रहना-उचित नहीं है। (तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं कल्लं सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता જાતને પ્રવચન સંમત, ચિતત, પ્રાર્થિત, મને ગત સંકલ્પ વિચાર ઉદ્ભવ્યો (एवं खलु सेलए रायरिसि चइत्ता रज्जं जोव पव्वइए विउलेण ४ मज्जपाणे मुच्छि ए नो संचाएइ जाव विहरित्तए नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणःण निग्गंथाणं जाव पमत्ताण विहहित्तए:) शैल शतय यवैमा त्यने मागपती डीक्षा સ્વીકારી છે એથી તેઓ રાજઋષિ તરીકે પ્રસિદ્ધ થયા છે. પણ અત્યારે તેઓ પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય આહાર તેમજ નિદ્રાકારક પાનદ્રવ્ય વિશેષમાં આસક્ત થઈ રહ્યા છે. બીજે કંઈ વિહાર કરવાની પણ તેઓની ઈચ્છા લાગતી નથી. હે દેવાનુપ્રિયે ! આ રીતે શ્રમણોને પ્રમત્ત थन सयभभामा २हीन विडार ४२। योग्य वातुं नथी. ( त सेय खलु देवाणुप्पिया! अम्हकल्लं सेलय रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारिय पीढ
For Private And Personal Use Only
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१५२
शाताधर्भकथासूत्रे 'पाडिहारियं' प्रातिहारिक-प्रत्यर्पणीयं, पीठफलकशय्यासंस्तारकं प्रत्यय, शैलकस्यानगारस्य पान्थकमनगारं 'वेयावच्चकरं ' वैयावृत्त्यकरं-सेवाकारकं, स्थापयित्वा बहिरभ्युद्यतेन यावद्-इह यावत्करणात्-अभ्युद्यतेन-सोद्यमेन प्रदत्तेन-तीर्थकरानुज्ञापितेन, प्रग्रहीतेन तीर्थकराङ्गीकृतेन जनपदविहारं इत्यस्य संग्रहः । विहर्तुम् -कर्तुम् शैलकानगारस्य वैयावृत्यार्थ पान्थकमनगारं बहिर्विहर्तुमस्माकं श्रेय इत्यर्थ एवम्-उक्तभकारेण · संपेहेंति ' संप्रेक्षन्ते, विचारयन्ति । ' संपेहित्ता ' संप्रेक्ष्य विचार्य, कल्ये यावज्जल तिसूर्ये उदिते सति शैलकमापृच्छय प्रातिहारिक-प्रत्यपणीयं पीठफलकशय्यासंस्तारकं 'पञ्चप्पिणंति' प्रत्यर्पयन्ति प्रत्यर्प्य पान्थकमनगारं 'वेयावच्चकर' वैयावृत्यकरं, 'ठावंति' स्थापयन्ति । ठावित्ता' स्थापयित्वा बहिर्यावद्-इह यावत्करणात्-अभ्युद्यतेन प्रदत्तेन, पगृहीतेन जनपदविहारं इत्यस्य संग्रहः, विहरन्ति. । शैलकानगारस्य ये पञ्चशतसंख्यकाः पान्थकप्रमुखा अनपाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारगं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठवेत्ता पहिया अन्भुज्जएणं जाव पवत्तेण पग्गहिएण जणवयविहारं विहरित्तए ) इसलिए हे देवानुप्रियों ! हम लोगों को यही कल्याण कारक है कि प्रातः होते ही हम लोग शैलक राजऋषि से पूछकर और प्रत्यर्पणीय पीठ फलकशय्यासंस्तारक को रखकर वापिस देकर तथा शैलक राजऋषि की वैयावृत्ति करने के लिये पांथक अनगार को रखकर यहां से सोद्यम के साथ प्रदत्त तीर्थकर की दी हुई आज्ञा के अनुसार प्रगृहीत तीर्थंकर की आज्ञा को अंगीकार कर ऐसो बाहिर देशों में विहार करें। ( एवं संपेहेंति, सपेहित्ता कल्ल जाव जलते सेलयं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथा. रयं पच्चप्पिणंति, पच्चप्पिणित्ता पंथयअणगारं वेयावच्चकरं ठावंति फलगसेज्जासंथारगं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथय अणगार, वेयावच्चकर ठवेत्ता बहिया भन्भुज्जएण जाव पवत्तेण पग्गहिएण जणवयविहार विहरित्तए) सेट 3 वानुप्रिया ! आपणा माटे ४८यानी भाग मे १ રહ્યો છે કે સવારે શિક્ષક રાજષિની આજ્ઞા મેળવીને પીઠફલક, શય્યા સસ્તા રક વગેરે પાછાં આવીને શૈલક રાજઋષિની વૈયાવૃત્તિ કરવા માટે પાંચક અનગારને નીમીને ઉદ્યમપૂર્વક આપણે અહીંથી તીર્થકરની આજ્ઞા મુજબ તેમજ તીર્થકરોની આજ્ઞાનું પાલન કરતાં બહારના બીજા દેશમાં વિહાર કરવા નીકળી ५६. एवं संपेहेंति संपेहित्ता कल्ल' जाव जलंते सेलय आपुच्छित्ता, पडियारिय पीठफलासेज्जासंथारय पच्चप्पि णता पथयअणगार वेयावच्चकर ठावंति
For Private And Personal Use Only
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अमगार धर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजक षिचरितनिरूपणम्
गाराः शिष्यरूपेण सहचरा आसन् वेषु पान्थक शैलकानमारसेवायें स्थापयित्वा पान्थकवर्जास्ते सर्वेऽनगाराः पीठफलकादिक प्रत्यये बहिर्जनपदविहारं कुर्वन्ति स्मेत्यर्थः ॥ ३१ ॥
X
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मूलम् - तणं से पंथए सेलक्स्स सेज्जासंथास्य उत्तचारपासवणखेल सिंघाणमल्लओस हमे सज्जभत्तपाणणं अगिल्लाए विणणं वेयावडियं करेइ, तरणं से सेलए अन्नया कयाई कत्तिय चाउम्मासियंसि विउलं असण० आहारमाहारिए सुबहुं मज्जपाणयं पीए पुव्वावरण्हकालसमयंसि सुहृष्वसुत्ते, तएणं से पन्थए कत्तियचाउम्मासिसि, कयकाउस्सग्गे देवसिय पंडि कमणं पडिक्कते चाउम्मासियं पडिक्कंनिउंकामे सेलयं रायरिसिं खामणट्टयाए सीसेणं पाएस संघट्टेइ, तएण से सेलए प्रथएणं सीसेणं पापसु संघट्टिए समाणे आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे उइ, उहित्ता एवं वयासी-स केस णं भो एस अप्पत्थियपस्थिए जाव परिवज्जिए जेणं ममं सुहष्पसुत्तं पाएंसु संघट्टेइ ? तरणं से पंथ सेलणं एवं वृत्ते समाणे भीए तत्थे तसिय करयल क ठावित्ता बहिया जाव विहरति ) इस प्रकार उन्होंने विचार कियाविचार करके प्रातःकाल जब सूर्य अपनी प्रभा से प्रकाशित होने लगा तब उन्होंने शैलक राजऋषि से पूछकर प्रतिहारिक प्रत्यर्पणी पीठ फलग शय्या संस्तारक को वापिस दे दिया वापिस देकर फिर उन्हों ने उन की वैयावृत्ति करने के लिये पथक अनगार को रख दिया । रखकर फिर वे वहां से बाहर दूसरे देशों में विहार कर गये । सूत्र ।। ३१ ।।
For Private And Personal Use Only
STAR
ठाविता बहिया जाव विहरति ) या प्रमाणे ते विचार इयो, विचार કરીને જ્યારે સવારે સૂર્ય ઉદય પામ્યા ત્યારે શૈલક રાજઋષિની અજ્ઞામેળવીને --પ્રત્યપણીય એટલે કે પીક્લક શય્યા સસ્તારકને પાછા સાંપીને રાજઋષિની : वैयावृत्ति भाटे अनगारने त्यां नियुक्त उरीने तेथे त्यांथी मारना
ખીજા દેશેામાં વિહાર કરવા નીકળ્યા. ।। સૂત્ર ૩૧ ॥
ज्ञा २०
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्रे एवं वयासी-अहणणं भंते ! पंथए कायक उस्सग्गे देवसियं पडिकमणं पडिकते चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे
सीसेणं पाएसु संघदृमि, तं खमंतु मं देवाणुप्पिया! खमंतु मेऽ • वराहं तुम्मण्णं देवाणुप्पिया णाइभुज्जो एवं करणयाए तिकटु सेलयं अणगारं एतमद्रं सम्मं विणएणं भुज्जो २ खामेइ ।
तएणं तस्स सेलयस्स रायरिसिस्स पंथएणं एवंवुत्तस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं रज्जं च जाव
ओसन्नी जाव उउबद्धपीठफलगसेज्जासंथारगं गिण्हित्ता विहरामि, तं नो खलु कप्पइ समणाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं जाव विहरित्तए, तं सेयं खलु मे कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारयं पञ्चप्पिणित्ता पंथएणं अण. गारेणं सद्धि बहिया अब्भुजएणं जाव जणवयविहारणं विहरित्तए । एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं याव विहरइ ॥ सू० ३२॥
- टीका-तएणं से ' इत्यादि-ततस्तदनन्तरं खलु स पान्थकः शैलकस्य 'सेज्जासंथारयउच्चारपासवणखेलसिंघाणमल्लओसहभेसज्जभत्तपाणएणं' शय्यासं. स्तारकोचारप्रस्रवणखेलसिंघाणमलौषधभैष्यज्यभक्तपानेन 'अगिलाए' अग्लानः सन् . 'तएणं से पंथए इत्यादि' ॥ सूत्र ॥ ३२॥
टोकार्थ-(तएणं ) इसके बाद ( से पंथए ) वह पार्थक ( सेलयस्स) शैलक अनगार की (सेज्जासंथारयउच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणमल्ल ओसहभेसज्जभत्तपाणएणं ) शय्या संस्तारक के द्वारा उच्चार प्रसवण, खेल, जल्ल सिंघाण मल आदि की परिष्ठापना द्वारा औषध भैषज्य द्वारा, भक्त पान लाने के द्वारा ( अगिलाए ) विना कोई ग्लानभाव के
(तएणं से पंथए) त्या ॥ 2010-(तएण) त्या२ मा६ (से पथए) is (सेलयस्स) शेखर २२०/पिना । सेज्जासंथारयउच्चारपोसवण-खेल्ल-जल्ल-सिंधाणमल्ल-ओसहभेसज्जभत्तपाणएणं ) શા સંસ્મારક દ્વારા, તેમજ ઉચ્ચાર પ્રસ્ત્રવણ, ખેલ, સિંધાણ મલ વગેરે ની
For Private And Personal Use Only
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनंगारधर्मामृतवषिगी टीका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १५५ विनयेन वैयाकृत्यं सेवां करोति। ततः खलु स शैलकः अन्नया कयाई' अन्यदाकदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले 'कत्तियचाउम्मासियंसि' कार्तिकचातुर्मासिके विपुलम् अधिकम् , 'असण.' अशनपानखाद्यस्वायम् 'आहारमाहारिए आहारमाहारितः चतुर्विधाहारमविशयेन कृत्वेत्यर्थः सुबहुं मज्जपाणयं मद्यपानक-निद्राजनकपानकद्रव्यविशेष 'पीए' पीतः पीत्वेत्यर्थः। 'पूर्वापराहकालसमयंसि' पूर्वापराहकालसमये-दिवसस्य चतुर्थे पहरे मुखप्रसुप्तः मनोज्ञमणीतः भोजनातिशशयेन निद्राकारकपानकद्रव्यसेवनेन च गाढ़निद्रा प्राप्त इत्यर्थः । यत्तु समाधिना सुखेन सुप्त इत्यर्थ इत्युक्तं तन युक्तम् प्रमादसद्भावे समाधेरसम्भवात् अमर्यादितनिदाताः समाधेर्दूरवर्तित्वाच्च । ततस्तदनन्तरं स पान्थकः 'कत्तियचाउम्मासियंसि' (विणएणं) बडे विनय के साथ (वेयावडियंकरेइ) वैयावृत्ति करने लगा । (तएणं से सेलए अन्नया कयाई) एक दिन की बात है कि वे शैलक अनगार (कत्तिय चाउम्मासियंति विउलं असण आहारमाहा. रिए सुबहुं मज्जपाणथं पीए पुववरणहकालसमयसि सुहप्पसुत्ते) चर्तुमासके कार्तिक महिने में बहुत अधिक अशन, पान, खाद्य, और स्वाधरूप चतुर्विध आहार कर के और निद्राकारक पानक द्रव्य विशेष को पी करके दिवस के चतुर्थ प्रहर में सुख से सोये हुए थे। यहां पर जो कोइ २ ऐसा पाठ कहते हैं कि वे समाधि पूर्वक सुख से सोये हुए थे वह ठीक नहीं है । कारण प्रमाद के सद्भाव में समाधि का होना बनता नही है । अमर्यादित निद्रा और समाधि इनका परस्पर विरोध है ऐसी स्थिति में तो समाधि बहुत दूर रहा करती है। (तएणं से परि४५॥ ( अगिलाए) ४५५ तन मगम है । विनाना मनीन (विणएण) मा न थन (वेयावडियं करेइ) यावृत्ति ४२१॥ साव्या. (तएणं से सेलए अन्नया कयाई) मे 6स शैख राषि (कत्तियचाउम्मासियंसि विउलं असण - आहारमाहरिए सुबहुँ मज्जपाणये पीए पुव्ववरहकालसमयसि सुहप्पसुत्ते ) यातुर्मासना त भासमा भूम प्रभाव માં અશન વાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહાર કરીને અને નિદ્રા કારક આપાનક દ્રવ્ય વિશેષનું પાન કરીને સાંજના છેલા પહેરના વખતે સુખેથી સુતા હતા. અહીં “ઘણુ લેકે સમાધિ પૂર્વક સુખેથી શૈલક રાજઋષિ સૂતા હતા.” એ પ્રમાણેને પાઠ હોવાનું કહે છે તે ચગ્ય ગણાય જ નહિ કેમકે પ્રમાદઅવસ્થામાં સમાધિ થઈ શકતી નથી. અમર્યાદિત નિદ્રા અને સમાધિ આ બંને વચ્ચે વિરાધ છે. આવી સ્થિતિમાં સમાધિ થઈ શકતી જ નથી,
For Private And Personal Use Only
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गो कातिकचातुर्मासिके 'कायकाउस्सगे' कृतकायोत्सर्गः · देवसिय ' देवसिकं पतिप्रमण परिक्रान्ता-कृतवान् , चातुर्मासिकं पडिकमिउं कामे ' प्रतिक्रमितुकामः शैलकं राजर्षि 'खामणट्टयाए ' क्षमापनार्थाय शीर्षेण मस्तकेन पादयोः संघटयति स्पृशति । ततस्तदनन्तरं खलु स शैलकः शैलकराजर्षिः पान्थकेन-पान्थकानगारेण शीर्षण पादयोः संघट्टितः संस्पृष्टः सन् 'आसुरुत्ते ' आशुरुप्तः अटिविकोपयुक्तः, यावत् क्रोधानलवेगेन 'मिसिमिसेमाणे' मिसमिसन् देदीप्यमानः 'उठेइ उत्तिष्ठति, ' उहित्ता' उत्थाय एवं वक्ष्यमाणपकारेण अवादीत् ‘से' सः'केस' एषः एतादृशः कोऽस्ति खलु भोः ! 'एस' एषः ' अप्पत्थियपत्थिय ' अमार्थितमार्थका, यावत् परिवर्जितः श्री ही धी रहितः, यः खलु मा. पंथए कत्तिय चाउम्मासिंयंसि कय काउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिकंते चाउम्मासिय पडिक्कामिउकामे सेलयं रायरिसि खामणयाए सीसेणं पाए संघट्टेइ ) इसी समय पांथक अनगार ने उसी चतुर्मास के कार्तिक महीने में कायोत्सर्ग करके देवसिक प्रतिक्रमण किया। फिर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने की इच्छा से उसने शैलक राजऋषि के अपने कृत दोषो की क्षमा याचना निमित्त मस्तक से दोनों चरणों का स्पर्श किया। (तएणं से सेलए पंथएणं सीसेणं पाएसुसंघटिए समाणे
आसुरूसे जाव मिसिमिसे माणे उट्टेइ ) पांथक अनगार के मस्तक से दोनों चरणों में स्पृष्ट हुए वे शैलक राजर्षि इकदम कोप से लाल हो गये । और मिस मिसाते हुए यावत् क्रोधानल के वेग से दे दीप्यमान होते हुए-वे उठकर बैठ गये। ( उद्वित्ता एवं वयासी ) बैठकर इम प्रकार कहने लगे- (से केसणं भो एस अप्पत्थिय पत्थिए जाव परिव(तपण से पथए कत्तियचाउम्मासि यसि कयकाउस्सगो देवसिय पडिक्कमणं पदिक्कते - चाउग्मासिय पडिकामिउकामे से लय रायरिसि खामणदयाए सीसेण पोएसु संघट्टेइ ). या मते यातुर्मासना ति: भासमा पांथ सनारे કાયેત્સર્ગ કરીને દેવસિક પ્રતિક્રમણ કર્યું. ત્યાર પછી ચાતુર્માસિક પ્રતિક્રમણ કરવાની ઈચ્છાથી તેમણે પિતાના દોષેની ક્ષમાપના માટે શૈલક २.१/पिना योमा पोताना भत्तानो २५श यो. तएण से सेलए पथएणं सीसेणं पाएसु. संघट्टिएसु ' समाणे आसुरुत्ते जाव मिसमिसेमाणे उद्वेइ ) પાંચક અનગારના મસ્તકના બંને પગમાં થયેલા સ્પર્શથી શૈલક રાજઋષિ એકદમ લાલ ચેળ થઈ ગયા અને ક્રોધ ની જવાળામાં સળગતા તેઓ ही मेह। ५५ या. ( उद्वित्ता एवं वयासी) मेह! इन तमासे या प्रमाणे
For Private And Personal Use Only
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १५७ मुखप्रसुप्तं पादयोः संघट्टयति ? ततः खलु स पान्थकः शैल केनैवमुक्तः सन् भीतः =भययुक्तः त्रस्तः उद्विग्नः, त्रसितः कम्पितः करतलपरिगृहीतं शिरआवर्त मस्तकेञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-' अहणं ' अहं खलु भदन्त ! पान्थकः कृतकायोत्सर्गः 'देवसिय दैवसिकंपतिक्रमणं प्रतिक्रान्तः । हे भदन्त ! अहं खलु पान्थकनामको भवदीयशिष्यः कायोत्सर्ग कृत्वा दैनिकं प्रतिक्रमणे कृतवान् , अधुना चातुर्मासिकं क्षमापयन् देवानुपियं वन्दमानः शीर्षण पादयोः संघट्टयामि, हे देवानुपियाः तत् तस्माद् क्षमध्वं माम् , क्षमध्वं मे ममापराधं, 'तुमज्जिए ) अरे ! यह कौन ऐसा हैं जो श्री ही से रहित बुद्धिवाला हुआ यहां विना बुलाये आ गये है और (णं ममं सुहप्पसुत्तं पाएसु संघटेइ ) सुख पूर्वक सोए हुए मुझे पैरों में स्पर्श कर रहा है । (तएणं. से पथए सेल एणं एवं वुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिय करयल कटु एवं वयासी ) इस प्रकार शैलक के द्वारा कहे जाने पर वह पथिक अनगार डर गया, उद्विग्न हो गया, रोम २ उसका कप गया। उसी समय उसने दोनों हाथों की अंजलि जोड कर और उसे मस्तक पर रख कर इस प्रकार कहा-अहण्णं भंते पंथए कयकाउसग्गे देवसिय पीडिक्कमणं पडिक्कते चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणुपियं ! बंदमाणे सीसेणं पाएसु संघट्टेमि) हे भदंत ! मैं हूँ आपका शिष्य में पायक ने कायोत्सर्ग करके देवसिक प्रतिक्रमण कर लिया है । अब चातुर्मासिक दोषों की क्षमा कराने निमित्त हे देवानुप्रिय आपकी वंदना करते हुए मैं आपके चरणों का स्पर्श किया है । (नं खमंतु मं देवाणुपिया ! खमंतु मेंऽवराहं तुमण्णं ४ -( से केसणं भो एस अध्पत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए ) अरे ! 20 अय છે ? જે શ્રી હી થી રહીત મૂર્ખ બોલાવ્યા વગર જ અહીં આવતાં રહ્યો છે. (णं ममं सुहप्पसुतं पाएमु संघद्वेई) २ सुमेथी विश्राम ४२नाश भने पसमां २५श श २wो छ. (तएणं से पथए सेलएणं एवं वुत्ते समाणे भीए तत्थे तमिय करयल० कट्ट एवं वयासी ) २२*पिनी मा पात सांगीन पाय અનગાર ડરી ગયા, ઉંદ્વિગ્ન થઈ ગયા અને તેમના અણુ અણુમાં ભય વ્યાસ થઈ ગયો. તરત જ તેઓ બંને હાથની અંજલિ મસ્તકે મૂકીને આ प्रभारडा साया-( अहण्णं भंते पथए कयकाउसग्गे देवसियपडिक्कमणं पडिवक्कते चाउम्मासिय खामेमाणे देवानुप्पियं ! बदमाणे सीसेणं पाएसं संप्रट्रेमि) હિં ભેદત ! આતે હું છું આપને શિષ્ય પાંથક મેં કાયોત્સર્ગ કરીને દૈવસિક પ્રતિકમણ કરી લીધું છે ચાતુર્માસિક દેની ક્ષમાપના માટે તમારા ચરણેમાં. में भरतना २५श यो छ. (त' खमंतु म' देवाणुप्पिया! खमतु मेऽवराह
For Private And Personal Use Only
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१५८
हाताधर्मकथासूत्रे गणं' यूयं खलु । हे देवानुप्रियाः ' णाइ भुज्जो' न भूयः एवं करणाय प्रवर्तिव्ये इति कृत्वा इत्युक्त्वा शैलकमनगारमेतदर्थ सम्यगू विनयेन 'भुज्जो भुज्जो' भूयो भूयः पुनः पुनः 'खामेइ ' क्षमयति शैलकस्य राजर्षे क्रोधोपशमनार्थ पुनः पुनः स्वापराध क्षमयति स्मेत्यर्थः ।
ततः खलु तस्य शैलकस्य राजर्षेः पान्थकेनैवमुक्तस्य अयमेतद्पो वक्ष्यमाणरूपः यावत् संकल्पः समुदपद्यत अभवत्-एवम् अमुना प्रकारेण खलु निश्चये,अहंसर्व राज्यं त्यक्त्वा च यावत् दीक्षां गृहीत्वा पुनर्विपुलाशनपानादौ मूच्छितः गृद्धः अध्युपपन्नः अवसन्नः, यावत् अवसन्नविहारी, पार्श्वस्थ विहारी कुशीलः कुशीलविहारी प्रमत्तः संसक्तश्चतुर्मासापगमेऽपि ऋतुबद्धपीठफलकशय्यासंस्तारकं गृहीत्यो विहदेवाणुप्पिया ! णाइ मुज्जो एवं करणयाए त्ति कटु सेलयं अणगार एयमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो २ खामेइ) इसलिये हे देवानुप्रिय ! आप मुझे क्षमा कीजिये । अब मैं हे देवानुप्रिय ! पुनः ऐसा नहीं करूँगा। इस प्रकार कहकर उसने बार २ शैलक अनगार से अपने इस अपराध की बड़े विनय के साथ क्षमा मांगी। (तएणं तस्त सेलयस्स रायरिसिस्स पंथएणं एवं वुत्तस्स अयमेयारू वे जाव समुप्पज्जिया) इस प्रकार पांथक अनगार के कहने पर उस शैलक राजर्षि के मन में यह इस प्रकार का यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ (एवं खलु अहं रज्जं च जाव ओसनो जाव उउ यद्धपीठफलगसेज्जासंथारगं गिण्हित्ता विहरामि त नो खलु कप्पड़ समणाणं ओसन्नाणंपासत्था णं जावविहरित्तए)मैंने समस्त राज्यका परित्याग कर यावत् जिनदीक्षा धारण की है परन्तु अब मै पुनःविपुल अशन तुमण्णं देवाणुप्पिया ! णाई मुज्जो एवं करणयाए तिकटु सेलय अणगारं एयमसम्म विणएणं भुज्जो २ खामेइ) मेथी 3 वानुप्रिय ! तभ भने क्षमा કરે. હે દેવાનુપ્રિય! હવેથી મારાથી આવું કેઈપણ દિવસ થશે નહિં. આ પ્રમાણે પાંચક અનગારે શૈલક રાજઝષિની પિતાના અપરાધ બદલ વારંવાર विनम्र ५४२. क्षमा यायन। ४२१. ( तणं तस्स सेलयस्स रायरिसिस्स पथएण एवं वुत्तस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जिया) 0 प्रमाणे पांथ मनानी વાત સાંભળીને શૈલક રાજઋષિના મનમાં આ જાતને સંકલ્પ-વિચાર સ્ફર્યો है ( एवं खलु अहं रज्ज च जाव ओसन्नी जाव उउबद्धपीढफलगसेज्जा संथारंग गिमिहत्ता विहरामि तं नो खलु कप्पाइ समणाणं ओसन्नाणं पासत्थाणे जाव विहरित्तए) स४॥ २॥ वैभवने त्यास श२ मे जिनही भगवी छ, પણ અત્યારે ફરી હું પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, વાન વગેરેના સેવનમાં આસ
For Private And Personal Use Only
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
6
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलक राजऋषिचरित निरूपणम्
१५०
रामि । तद्= तस्मात् नो खलु कल्पते श्रमणानाम् अनगाराणां ' पासत्थाणं ' पार्श्वत्थानां यावत् करणेन - 'ओ सन्नाणं कुसीलाणं पमत्ताणं संसत्ताणं इत्येषां संग्रहः । अवसन्ना ' पार्श्वस्थाः कुशीलाः प्रमत्ताः संसक्ताश्च भूत्वाऽनगाराणां विहन्तुं न कल्पते इत्यर्थः ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
' तं सेयं तच्छ्रेयः तत् तस्मात् श्रेयः खलु मे मम कल्ये प्रभातकाले मण्डकं राजानमापृच्छय प्रतिहारिकं = प्रत्यर्पणीयं, पीठफलकशय्या संस्तारकं प्रत्यये पान्यकेनानगारेण सार्धं वहि: ' अब्भुज्जरण ' अभ्युद्यतेन= उत्तमसहितेन यावत्इह यावत् करणात् - ' पव्त्रत्तेण, पग्गहियेण ' इत्यनयोः संग्रहः । ' पन्त्रण ' प्रदत्तेन, तीथकरानुज्ञापितेन गुरूपदिष्टेन इत्यर्थः, 'पग्गहियेण प्रगृहीतेन, तीर्थकराङ्गीकृतेन, गुरुसकाशान्मयाङ्गीकृतेनेत्यर्थः जनपद विहारेण विहर्तुम् । नव
,
पान आदि में मूच्छित बन रहा हूँ । उन में रनेहरूपी रज्जु से बँध गया हूँ । लोलुप हो गया हूँ । सरस आहार आदि के अधीन मेरा जीवन हो गया है । स्वाध्याय प्रतिलेखन आदि आवश्यक क्रियाओ से मैं शिथिल हो रहा हूँ। मेरी चरण सत्तरी और करण सत्तरी दोनों ही आलस्य के वश से मंदीभूत हो रही हैं। इसलिये में पार्श्वस्थ हो रहा हूँ। पार्श्वस्थों के जैसा मेरा विहार बर्ताव हो गया है। कुशील- कुत्सित आचार बाला बन गया हूँ । कुशील बिहारी हो रहा हूँ । प्रमत्त दशाधीन होकर गौरवत्रय से संकीर्ण आचारवाला बना हुआ हूँ। ऋतुबद्ध पीठ फल्क शय्या संस्तारक का से वी हो रहा हूँ । अतः अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील प्रमत्त एवं संसक्त होकर अनगार रूप से रहना यह श्रेयस्कर नहीं है । ( तं सेयं खलु में कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छिन्ता पाडिहारियं पीठ
કત થઈ રહ્યો છું. સ્નેહરૂપી દોરીમાં હુ` બંધાઈ ગયેા છેં. હું લેાલુપ થઈ ગયા છું. મારૂ જીવન સરસ આહારને આધિન થઈ ગયું. છે. સ્વાધ્યાય પ્રતિલેખન વગેરે આવશ્યક ક્રિએમાં હું, શિથિલ થઈ ગયા છું. મારી ચરણુ સત્તરી અને કરણ સત્તરી અને આળસને લીધે મંદ થઇ રહી છે. એથી હું પાસ્વસ્થ થઇ રહ્યો છું. મારા વિહાર અને આચરણ પણ પાવસ્થાની જેમ જ થવા માંડયા છે. કુશીલ-એટલે કે હુ· કુત્સિત આચરણુ વાળા થઇ ગયા છું. કુશીલ—વિહારી થઈ રહ્યો છું. પ્રમત્તના જેવી દશાવાળા હું, ગૌરવત્રયથી સ...કીણુ આચાર વાળા થઇ રહ્યો છું. હું ઋતુબદ્ધ પીઠ ફલક શય્યા સ ́સ્તારક ને સેવનારા થઈ ગયા છું. એથી અવસન્ન, પાર્વસ્થ કુશીલ પ્રમત્ત અને संसक्त थाने अनगार ३ये रडेवु श्रेयस्सर नथी. ( तं सेर्य खलु में कल्लं मंडुयं राय आपुच्छिता पाडिहारियं पीठफलग सेज्जा संधारयं पञ्चपिणिता प'थएणं
For Private And Personal Use Only
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१६०
माताधर्मकथासूत्रे कल्पिविहारेण देशमध्ये विहारं कर्तुं श्रेय इत्यर्थः । एवम्-उक्तप्रकारेण, 'संप्रेक्षते स्व मनसि विचारयतिस्मेत्यर्थः । ' संपेहित्ता ' संप्रेक्ष्य विचार्य, कल्ये यावविहरति । अत्र यावच्छन्देन-' जलंतेमंडुयं राय आपुच्छित्ता, पाड़िहारियं, पीड़फलग सेज्जासंथारयं पच्चप्पिणइ, पञ्चप्पिण्णित्ता पंथएणं अनगारेण सद्धिं बहिया अन्भुज्जएणं जाव जणवयविहारेणं ' इतिपाठस्य संग्रहः ॥ ३२ ।।। फलग सेज्जा संथारय पच्चपिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धि बहिया अन्भुजएणं जाव जणवयविहारेणं विहरित्तए एवं संपेहेह, संपेहित्ता कल्लं याव विहरइ ) मेरा हिततो अब इसी में हैं कि प्रातःकाल मंदुकराजा से पूछकर प्रतिहारिका-जो ये पीठ फलग शय्या संस्तारक है उन्हे पीछे देकर पांथक अनगार के साथ उत्तम योगरूप उद्यम से युक्त-अप्रमत्तदशा विशिष्ट-तीर्थ करादि द्वारा आचरित और गुरू जन द्वारा उपदिष्ठ-ऐमा विहार यहां से कर, । अर्थात् नव कल्पित विहार से अन्य देशों में विहार करना ही मुझे अब हितकारक है । इस प्रकार का विचार शैलक अनगार ने किया। याद में वे इसी विचार के अनुसार वहां से विहार कर गये। यहां यावत् शब्द से "जलते-मंडुयं राय
आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीठफलग सेज्जासंथारयं पच्चप्पिणइ, पच्चपिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया अन्भुन्जएणं जाव जणवयः विहारेणं " इस पाठ का संग्रह हुआ है । इसका अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है । सूत्र ॥ ३२॥ अणगारेणं सद्धि बहिया अन्भुजए णं जाव जणवय विहारेणं विहरित्तए एव संपेहेइ सपेहिता कल्लं याव विहरइ) वे भा२। पोताने भाटे तो मेरा श्रेय२४१२ ગણાય કે સવારે મંડૂકરાજાને જણાવી પીઠ ફલક શા સંસ્કારકે સંપીને પાંથક અનગારની સાથે ઉત્તમ ગરૂપ ઉદ્યમથી યુક્ત-અપ્રમત્ત શાવિશિષ્ટ -અને તીર્થકર વગેરે દ્વારા આચરિત અને ગુરુ જન દ્વારા ઉપદિષ્ટ વિહાર - કરું એટલે કે નવ કલ્પિત વિહારથી બીજા દેશોમાં વિહાર કરે જ હવે અત્યારના સંજોગોમાં મારે માટે હિતાવહ છે. આરીતે શૈલક અનગારે વિચાર કર્યો. ત્યાર પછી એ વિચાર પ્રમાણે જ ત્યાંથી તેઓએ બીજે વિહાર કર્યો मही यावत्' २०४थी " जलंते मंडुयं रायं आपुच्छिता पाडिहारियं पीठफळगसेज्जा संथारयं पच्चप्पिणइं, पच्चप्पिणिता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुज्जएणं जाव जणवयविहारेणं) मा पाइने संबड थयो छ. माना अर्थ ५i १५८ ४२वामा माल्यो छे. ॥ सूत्र “३२" ॥
For Private And Personal Use Only
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
मनगारधर्मामृतवषिणोटी० अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १६१
मूलम् एवामेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे ओसन्ने जाव संथारए पमत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं ४ हीलणिज्जे संसारो भाणियवो ॥ सू० ३३ ॥ टीका-'एवामेव' इत्यादि-एवमेव अनेन प्रकारेणैव यथा शैलको राजर्षिः प्रमादी जातस्तथैव हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं निग्रंथो वा निर्ग्रन्थी वा आचर्योपा ध्यायानामन्तिके समीपे प्रवजितः गृहीतमवज्यः सन् अवसनः यावत्-संस्तारकेअत्र यावच्छब्देन-अवसम्मनिहारी, पार्श्वस्थः पार्श्वस्थविहारी, कुशीलः कुशीलविहारी प्रमत्तः संसक्तः ऋतुबद्धपीठफलकशय्या' इत्यन्तः पाठः संगृह्यते । एवं चावसन्नत्वादि विशिष्टः सन् ऋतुबद्धपीठफलकशय्यासंस्तारके प्रमत्तः-प्रमादीभूत्वा विहरति अवतिष्ठते, स खलु इह लोके चैत्र बहूनां श्रमणानां४ श्रमणीनां श्रावकाणां श्राविकाणां
'एवामेव समणाउसो' इत्यादि । टीकार्थ-( एवामेव ) जिस तरह शैलक राजऋषि प्रमादी हुवे उसी तरह (समणाउसो ) हे आयुष्मन्त श्रमणों ! ( जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गथी वा आयरियं उवज्झयाणं अंतिए पव्वइए समाणे ओसन्ने जाय संथारए पमत्ते विहरइ इह लोए चेव बहणं समणाणं ४ हीलणिज्जे संसारो भाणियचो) जो कोई हमारा निर्ग्रन्थ वा निर्ग्रन्थी जन आचार्य उपाध्याय के पास प्रवजित होता हुआ अवसन्न बन जाता है यावत् ऋतु बद्ध पीठ फलकशय्या संस्तारक में प्रमत्त होकर बैठा रहता है वह इस लोक में अनेक श्रमण,श्रमणी श्रावक,श्राविकाओं द्वारा हीलनीय होता
(एवामेव समणाउसो) त्याल
साथ-(एवामेव) रेभ शैल४२११ ऋषि प्रभा६१२२ या तेम (समणाउसो) 3 मायुमन्त श्रम ! (जो अम्ह निगगंथोवा निग्गंथीवो आयरिय उवजयाणं अंतिए पव्वइए समाणे ओसन्ने जाव संथारए पमत्त विहरइ इह लोए चेव वहूर्ण समाणाण ४ हील णिज्जे संसारो भाणियव्वो) २ सभा निय 'નિર્ચ થી જન આચાર્ય ઉપાધ્યયની પાસે પ્રવ્રજિત થઈને અવસન્ન થઈ જાય છે. યાવત્ ઋતુ બદ્ધ પીડ ફલક શય્યા સંસ્તારકમાં પ્રમત્ત થઈને બેસી રહે છે. તે આ લેકમાં ઘણાં શ્રમણ શ્રમણીઓ અને શ્રાવક શ્રાવિકાઓ દ્વારા
ज्ञा २१
For Private And Personal Use Only
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२६२
झोताधर्मकथाङ्गसूत्रे हीलनीयः निन्दनीयः खिसनीयः गर्हणीयः परिभवनीयः, भवति । परलोकेऽपिच खलु आगच्छति, प्राप्नोति बहूनि दण्डानानि 'संसारो भाणियव्यो' संसारो भणि. तव्यः । संसारे स परिभ्राम्यति. अत्र संसारपरिभ्रमणपाठो वाच्यः- यथा- 'अ गाइयं अणवदग्गं दीहमद्ध चाउरतं संसारकतारं अणुपरियटइ ' अनादिकम् अनबदाम् अनन्तं दीर्धाद्ध दीर्घकालं, दोर्धाध्वानं वा दीर्धमार्ग, चातुरन्तं चतुर्विभाग, चतुर्गतिक, संसारएव कान्तारं दुर्गममार्गः तत्, तथा अनुपर्यटति पुनःपुन
म्यतीत्यर्थः ॥३३॥ . मूलम्-तएणं ते पंथगवज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लट्ठा समाणा अन्नमन्नं सदावेंति, सदावित्ता एवं वयासी-सेलए रायरिसी पंथएणं अणगारेणं सद्धि बहिया जाव विहरइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सेलयं उवसंपज्जिताणं विहरित्तए, एवं संपेहति, संपेहित्ता सेलयं रायं उपसंपजि. ताणं विहरंति ॥ सू० ३४ ॥ है, निंदनीय होता है, खिंसनीय होता है, गर्हणीय होता है, परिभघनीय होता है तथा परलोक में भी अनेक दण्डों को पाता है । संसार में वह परिभ्रमण करता है। __ संसार परिभ्रमण संबन्धी पाठ यहां इस प्रकार से लगा लेना चाहिये। " अणाइयं अणवदग्गं दीहमद्धः चाउरंतसंमारकंतारं अणुपरिया" इसका भाव इस प्रकार है-ऐसा जीव अनादि अनंतरूप संसार कान्तार में कि जो चतुर्गतिरूप विभाग वाला है और जिसका मार्ग या काल बहुत दीर्घ है उसमें पुनः पुनः भ्रमण करता रहता है। सूत्र ॥ ३३ ॥ હીલનીય હોય છે, નિંદનીય હોય છે, ખિંસનીય હોય છે, ગર્હણીય હોય છે, પરિભવનીય હોય છે. તેમજ પરલેકમાં પણ ઘણી જાતની શિક્ષાને પાત્ર થાય છે. તે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતું જ રહે છે.
संसार परिसमा विष ५४ मडी मा प्रभारी वेन (अणाइय अणवदग्गं दीहमद्ध चाउरतसंसारकंतार अणुपरियट्टई ) मान! मा१५ मा प्रमाणे છે કે–ચતુર્ગતિ રૂપ વિભાગવાળા અનાદિ અનંત રૂપ સંસાર કાંતારમાં કે જેને માર્ગ ખૂબજ દીર્ઘ છે વારંવાર જીવ પરિભ્રમણ કરે તે જરહે છે. સૂત્ર ૩૩
For Private And Personal Use Only
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारधर्मामृतवर्षिणो टीका अ० ५ शैलकरामऋषिचरितनिरूपणम्
6
•
टीका- 'तणं' इत्यादि - ततस्तदनन्तरं पान्थकवर्जाः पञ्च अनगारशतानि=पान्थक रहिताः पञ्चशतसंख्यका अनगाराः एकोनपञ्चशतसंख्यका अनगारा इत्यर्थः । इमी से कहाए ' अस्याः कथायाः, ल्यवलोपे कर्मण्यधिकरणे चेति वार्तिकेन पञ्चमी । इमां कथामाकयेत्यर्थः । ' लट्ठा ' लब्धार्थाः प्राप्ताभिलषिताः सन्तः अन्नमन्नं ' अन्योन्यं परस्परं ' सदावेति ' शब्दयन्ति आह्वयन्ति, शब्दयित्वा= आहूय एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिषुः- शैलको राजर्षिः पान्थकेनानगारेण सादि विहरति अत्र यावच्छन्देन - अब्भुज्जएणं पवत्तेणं पडिग्गहिएणं जणत्रयविहार इति पाठस्य संग्रहः अस्य व्याख्या प्रागुक्ता । तत् = तस्मात् श्रेयः खलु हे देवानुप्रियाः अस्माकं शैलक शैलकराजर्षिम् ' उवसंपज्जित्ता उपसंघ =
१६३
' तरणं ते पंथगबज्जा ' इत्यादि ॥
टीकार्थ - (एणं इसके बाद (ते पंथगवज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लट्ठा समणा अन्नमन्नं सद्दावेंति) वे पांथक वर्ज५००) सौ भनगार अर्थात् ४९९ वे साधु जो शैलक राजऋषि के शिष्य थे जब इस कथा को सुना तो सुनकर अभिलषित अर्थ की प्राप्ति वाले बनकर उन्हों ने आपस में एक दूसरे को बुलाया - ( सद्दावित्ता एवं वयासी ) बुलाकर इस प्रकार विचार किया - ( सेलए रापरिसी पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया जाव विहरइ ) शैलक राजऋषि पांथक अनगार के साथ बाहर जनपदों में यावत् विहार कर रहे हैं ।
यहां यावत् शब्द से "अब्भुज्जएणं पवन्तेणं पडिग्गहिएणं जणवय बिहार " इस पाठ का संग्रह किया गया है । इन पदों की व्याख्या
For Private And Personal Use Only
( तरणं ते पंथगवज्जा ) इत्यादि !
टीअर्थ - (तएणं) त्यार माढ (ते पंथगवज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा अन्नमन्न' सहावेंति ) पांथने माह उस्तां जीन्न थारसो नवालु રાજઋષિ શૈલકના શિષ્યાઓએ જ્યારે આ ખધી વિગત જાણી ત્યારે ઇચ્છિત અર્થની પ્રાપ્તિની અભિલાષા રાખતા તેઓએ એક બીજાને એક સ્થાને એકઠા थवा भाटे मोसाच्या ( सदावित्ता एवं वयासो) मोसावीने भेड ग्यामेोहा थाने तेथे विचार १२वा साज्या, ( सेलए रायरिसी पंथएणं अणगारेणं सद्धि बहिया जाव विहरइ ) शैव ऋषि पांथा अनगारनी साथै महार જનપદોમાં વિહાર કરી રહ્યા છે,
zel a (aaa) 21ve à dqal ( sbyene oi qaàvi qfemहिएणं जगवयविद्दार ) आ पाईनो સંગ્રહ થયા છે,
પદ્મની
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्र उपगत्य तदाज्ञामङ्गीकृत्य विहां जनपदविहारं कर्तुमित्यार्थ । एवं अमुना प्रकारेण संप्रेक्षन्ते, परस्परं पर्यालोचन्ति, संप्रेक्ष्य पर्यालोच्य शैलक 'रायं' राजानं राजर्षिमित्यर्थः उपसंपद्य-उपेत्य तदाज्ञामादाय विहरन्तिः ।। ३४ ॥
मूलम्-तएणं सेलए पंथगपामोक्खा पंच अणगारसया बहुणि वासाणिसामन्नपरियागं पाउणित्ता जेणेव पोंडरीये पवए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जहेव थावच्चापुत्ते तहेव सिद्धा । एवामेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव विहरिस्सइ।
एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपतेणं पंचमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्ति बेमि ॥३५॥
॥ पंचमं णायज्झयणं समत्तं ॥ पहिले कर दी गई है । (तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सेलयं उव संपज्जित्ता णं विहरित्तए ) इसलिये हे देवानुप्रियो ! अब हम लोगों को यही उचित-कल्याण कारक-मार्ग है कि हम सब उन शैलक राजऋषि की आज्ञा को अंगीकार कर बाहर जनपदों में विहार करें।
( एवं संपेहेंतिं ) इस प्रकार उन्होंने विचार किया-(संपेहित्ता सेलयं रायं उपसंपजित्ताणं विहरंति ) विचार कर वे सब के सब शैलक राजा-राजऋषि के पास पहुंचे और उनकी आज्ञा लेकर विहार करने लगे । सूत्र ॥ ३४ ॥ व्यन्या पडता ४२पामा मावी. छ. ( त सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्ह सेलयं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए) मेथी 3 पानुप्रिया! अभा। माटे और હિતાવહ છે કે અમે બધા તે શૈલક રાજઋષિની આજ્ઞા મેળવીને બહાર ના જનપદેમાં વિહાર માટે નીકળીએ
(एवं संपेहेंति) मा प्रभऐ पिया२ -- ( संपेहित्ता सेलय रायं उपसंपजित्ताणं विहरति ) पिया२ शन ते १५॥ शै१४ २१/*पिनी पासे गया. અને તેમની આજ્ઞા મેળવીને વિહાર કરવા લાગ્યા. આ સૂત્ર “૩૪”
For Private And Personal Use Only
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मैनेगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अं० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम्
१६५
♦
टीका - ततस्तदनन्तरं खलु ' सेलए ' शैलकराजर्षिः 'पंथगपामोक्खा ' पान्थकप्रमुखाः, 'पंच' पञ्च, अणगारसया' अनगारशतानि बहूनि वर्षाणि ' सामन्नपरियागं ' श्रामण्यपर्याय 'पाउणित्ता' पालयित्वा यत्रैव पुण्डरीकः पुण्डरीकपर्वतस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यथैव स्थापत्यापुत्रः सिद्धस्तथैव सिद्धः | मासिकीं संलेखनां कृत्वा केवलीभूत्वा सिद्धा मुक्ता जाता इत्यर्थः ।
एवमेव शैलकराजर्षिवदेव, हे श्रमणा आयुष्मन्तः । योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा यावद् प्रमादं परित्यज्य अभ्युद्यतेन सोद्यमेन प्रदत्तेन तीर्थकरानुज्ञा
' तरणं सेलए पंथगपामोक्खा ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (एणं) इसके बाद (सेलए) वे शैलक राजऋषि और (पं-12s गपामोक्खा पंच सय अणगारसया ) पांथक प्रमुख पांचसौ अनगार (बहूणि वासाणि) अनेक वर्षों तक (सामन्नपरियागं पाउणित्ता श्रामण्यपर्याय का पालन करके ( जेणेव पोंडरीये पवए तेणेव उवागच्छंति ) जहां पुंडरीक पर्वत था वहां आये । ( उवागच्छित्ता जहेव थावच्चा पुत्ते तव सिद्धा) वहां आकर स्थापत्यापुत्र अनगार की तरह १ मास की संलेखना कर केवली होकर मुक्त हो गये । अर्थात् सिद्ध हो गये ।
( एवा मेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंधो वा निग्गंधी वा जाव विहरिस्सह ) इसी तरह शैलक राजऋषि की तरह - ( समणाउसो) हे आयुष्मंत श्रमणो ! ( जो अहं निग्गंथो वा निग्गंधी वा जाव विहरि स्सइ) जो हमारा निर्ग्रन्थ श्रमण और निर्ग्रन्थ साध्वीजन यावत् प्रमाद
( तएणं सेलए पंथगपामोक्खा ) इत्यादि
टीडार्थ - (तएणं) त्यार माह (सेलए) शैस राऋषि ने (पंथगपामोक्खा पंच अणगारसया ) पांथ प्रभु यांयसेो अनगार ( बहूणि वासाणि) धji वर्षो सुधी ( सामन्नपरियागं पाउणित्ता ) श्रीभएय पर्यायनुं पालन अरीने ( जेणेव पोंडरोये पव्त्रए तेणेत्र उवागच्छति ) ल्या पुंडरी पर्वत हतो त्यां याव्या. (उत्रागाच्छित्ता जहेवयावच्चा पुत्ते तहेव सिद्धा ) त्यां मावीने स्थापत्या પુત્ર અનગારની જેમ એક માસની સલેખના કરીને કેવળી થઈ મુક્ત થઈ ગયા. એટલે કે તેએ સિદ્ધ થયા
( एवामेत्र समणाउसो जो अम्म निग्गंयो वा निग्गंधी वा जाव विहरिसइ) या प्रमाणे शैव ऋषिनी प्रेम (समणाउसो ) हे आयुष्मंत श्रम! ! ( जो अम्' नग्गंथो वा faint वा जाव बिहरिस्सइ) ने संभारा निर्भथ श्रमशु भने નિગ્રંથ સાધ્વી જત પ્રમાદ વેગેરેને ત્યજીને સેદ્યમ પ્રદત્ત-તથ કાનુજ્ઞાપિત
For Private And Personal Use Only
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथास्त्र पितेन गुरूपदिष्टेन, प्रगृहीतेन तीर्थंकरैरङ्गीकृतेन जनपदविहारेण विहरिष्यति सो ऽनगाश्चतुर्विधसंघस्यार्चनीयो वन्दनीयोभूत्वा यावत् संसारस्यान्तं कृत्वा मोक्षगामी भविष्यति ॥
एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् संप्राप्तेन सिद्धिगति गतेन पश्चमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायम:=उक्तरूपोऽर्थः प्रज्ञप्तः कथितः । इति ब्रबीमि-अस्य व्याख्यापूर्ववत् ।
जो ओसन्नो य पासत्थो कुसीओ वि पमायो ।
संवेगा उज्जो होना सिद्धो सो शैली जहा ॥ १!! छाया-योऽवसन्नश्च पार्श्वस्थः कुशीलोऽपि प्रमादतः ।
संवेगाधतश्चेत् स्यात सिद्धोऽसौ शैल को यथा ॥ १ ॥ ३५ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितक
लापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहूछ. त्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीला:व्रतिविरचितायां ' ज्ञाताधर्मकथाङ्ग' सूत्रस्थानगारधर्मामृतव
पिण्याख्यायां व्याख्यायां पञ्चममध्ययनं संपूर्णम् ॥ का परित्याग कर सोद्यम प्रदत्त-तीर्थ करानुज्ञापित-गुरूपदिष्ट और प्रगृहीत-तीर्थंकरों द्वारा अंगीकृत किये गये ऐसे जनपद विहार से युक्त होगा वह अनगार चतुर्विध संघका अचनीय वंदनीय होकर यावत् संसार का अन्त कर मोक्ष गामी होगा।
(एवं खलु जंबू ! समणेणं भगक्या महावीरेणं जाव संपत्ते थे पंचमस्स णायन्झयणस्स अयमद्दे परागतेत्तिवेमि ) इस प्रकार हे जम्न। श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि सिद्धगति को प्राप्त कर चुके हैं इस पांच वे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप अर्थ प्रज्ञाप्त किया है। ऐसा मैं कहता हूँ " इति ब्रवीमि" इन पदों की व्याख्या पहिले की ગુરૂ પદિષ્ટ અને પ્રગૃહત તેમજ તીર્થકર દ્વારા સ્વીકૃત એવા જનપઢ વિહારથી યુક્ત થશે તે અનગાર ચતુર્વિધ સંઘને અર્ચનીવ, વંદનીય થઈને યાવત સંસારને અંત કરીને મોક્ષપદ મેળવશે.
एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाप संपत्ते ण पचमस्स णाय झयणास अयमटे पण्णत्ते त्तिवेमि) मारीत ! सिध्ध गति पामेला ભગવાન મહાવીરે આ જ્ઞ તા અધ્યયનના પાંચમા અધ્યયનને અર્થ પ્રજ્ઞપ્ત यो छ. याम तने हुछु. इतिव्रविमि" भापहीनी व्याय
For Private And Personal Use Only
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतषिणी टीका अ०५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १६७ गई व्याख्या के अनुसार ही जानना चाहिये। इस संग्रह श्लोक का अर्थ इस प्रकार है-जो प्रमाद से अवसन्न पार्श्वस्थ तथा कुशील हो जाता है वह साधु-अनगार-संवेग भाग से अपने चारित्र में उद्यम शील होकर शैलक राजऋषि की तरह सिद्ध पदका भोक्ता हो जाता है। सूत्र ॥ ३५ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाना. धर्मकथाङ्गसूत्र की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का पांचवा
अध्ययन समाप्त।। ५॥..
પહેલાં કરવા માં આવી છે. આ સંગ્રહ કને અર્થ આ પ્રમાણે છે-કે જે પ્રમાદથી અવસન્ન પાર્વસ્થ તેમજ કુશીલ થઈ જાય છે, તે સાધુ (અનગાર) સંવેગ ભાવથી પિતાના ચારિત્રમાં ઉદ્યમશીલ થઈને શૈલક રાજઋષિની જેમ સિધ પદને મેળવનાર થાય છે. આ સૂત્ર “ ૩૫” |
શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહ રાકૃત જ્ઞાતાધર્મકથાગ સૂત્રની અનગાર ધર્મામૃતવર્ષિણ વ્યાખ્યાનું પાંચમુ અધ્યયન સમાપ્ત પા
For Private And Personal Use Only
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अथ षष्ठमध्ययनं प्रारभ्यतेगतं पञ्चमाध्ययन-संपति षष्ठमारभ्यते अस्यायं पूर्वेण सहामिसम्बन्धः पञ्चमाध्ययने प्रमादवतोऽनर्थप्राप्तिः अप्रमादवतश्चगुण अत्रापि तावेव दोषगुणौ कथ्ये ते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्येदमादिमसूत्रम्. ।
मूलम् -जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्त णायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते छहस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स समणेणं जाव संपनेणं के अटे पन्नत्ते ?, एवं खल जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं परिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जेटे अंतेवासी इंदभूई अदूरसामंतेजाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ ॥सू०१॥
छठो अध्ययन का प्रारंभपांचवाँ अध्ययन सम्पूर्ण हो चुका है । अब छठा अध्ययन प्रारम्भ होता है । इस का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से संबन्ध है कि पांचवें अध्ययन में जो ऐसा कहा गया है कि प्रमाद युक्त अनगार को अनेक अनर्थो की प्राप्ति होती है तथा जो प्रमाद से रहित होते है उन्हें अनेक गुणों का लाभ होता है सो इस अध्ययन द्वारा उन्हीं दोष और गुणों का कथन किया जावेगो इसी संबंध को लेकर यह अध्ययन प्रारंभ हुआ है। इस का आदि सूत्र यह है-( जइणं भंते ! समणेणं इत्यादि ।
छ । अध्ययनन पारसપાંચમા અધ્યયન પછી આ છઠું અધ્યયન પ્રારંભ થાય છે. પાંચમા અધ્યયનમાં આ પ્રમાણે નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે કે પ્રમાદિ અનગાર ઘણા અનર્થો મેળવે છે તેમજ જે આ પ્રમાદિ હોય છે તે ઘણા ગુણે પ્રાપ્ત કરે છે. તે હવે આ અધ્યયનમાં તે ગુણે અને દેનું કથન વર્ણવવામાં આવશે. પાંચમા અધ્યયનની સાથે આ છઠ્ઠા અધ્યયનને એ જ સંબંધ છે. આ સં. બંધને વિચારવાના ઉપક્રમથી જ આ અધ્યયન શરૂ થયું છે. છઠ્ઠા અધ્યયન न पडतुं सूत्र मा छ:-जइण भते ! समणेण इत्यादि ।
For Private And Personal Use Only
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अगारममृतवर्षिणी टीका ० ६ महावीरस्वामिसमवसरणम्
१६९
टीकार्थ - ' जहणं भंते इत्यादि, यदि खलु भदन्त श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन पञ्चमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः षष्ठस्य खलु भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे समवसरणं, परिषत् निर्गता, तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य ३ ज्येष्ठ ऽन्तेवासी इन्द्रभूतिः अदूरसामन्ते जाव धर्मध्यानोपगतो विहरति ॥ सू० १ ॥
टीकार्थ - (भंते ) हे भदंत (जइणं) यदि (जाव संपत्ते समण) मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने ( पंचमस्स णायज्झयणस्स ) पांचवे : ज्ञाताध्ययन का ( अयमडे पनन्ते ) यह पूर्वोक्त अर्थ कहा है तो ( छटुस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स समणेणं जाब संपतेण के अट्ठे पन्नस्ते) उन्हीं मुक्ति प्राप्त भ्रमण भगवान् महावीर ने छठे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपित किया है।
( एवं खलु जंबू ! ) इस प्रकार जंबू स्वामी के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये सुधर्मा स्वामी उन से इस तरह कहते है कि हे जबू ! सुनो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है
( तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं परिसा निग्गया ) उस काल और उस समय में राजगृह नगर में भगवान् महावीर का आगमन हुआ । भगवान् के आगमन की बात सुनकर राजगृह नगर से परिषद उन को वंदना करने के लिये उनके समिप पहुंची (ते णं कालेणं तेणं समएणं) उकसाल और उस समय में (समणस्स जेडे अंतेवासी इं
टीडार्थ - (अंते) डे लहन्त ! ( जइण ) ले ( जाव संपत्तेणं समणेण ) भुक्ति भेजवेसा श्रमण भगवान महावीरे ( पंचमस्त्र णोयज्झयणस्त्र ) पांयभा ज्ञाताध्ययनन! (अयमट्टे पन्नत्ते) मा पूर्वोक्त अर्थ नि३चित ये छे तो (छट्ठस्स णं भंते! नायज्झयणस्स समणेण जाव संपक्षण के अट्ठे पन्नत्ते ?) भुक्ति भेजवेस श्रभणु भगवान महावीरे छठ्ठा ज्ञात ध्ययननो शो अर्थ प्र३चित उर्जा छे ? ( एव ं खलु जंबु !) ०४ स्वाभीना आ लतना प्रश्नने सलगीने भवाम भायतां सुधर्भा સ્વામી તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે જમ્મૂ! તમારા પ્રશ્ન ના ઉત્તર સાંભળે.
( तेणं काले तेण समरणं रायगिहे समोखरण परिसा निग्गया ) ते કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં ભગવાન મહાવીર પધાર્યાં. ભગવાન મહાવીર સ્વામીના આગમનની જાણ થતાં તેમને વંદન કરવા માટે રાજગૃહ नगरथी परिषद नीडजी. ( तेण कालेणं तेण समएण ) ते अजे मने ते वते ( समणस्स जेडे अंतेवासी इंदभूई अदूरसामंते जाव धम्मज्झाणोवगए
For Private And Personal Use Only
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
२७०
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मूलम् - तरणं से इंदभूई जापसङ्के० समणस्स३ एवं वयासी - कहणणं भंते! जीवा गुरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छति ? गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे एगं महं सुकं तुंबं णिच्छिडुं निरुवहयं दं भेहिं कुसेहिं वेढेइ, वेढित्ता महियालेवेणं लिंपइ लिंपित्ता उन्हे दलयइ, सुक्कं समाणं दोच्चंपि दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ वेढिता महियालेवेणं लिंपइ लिंपित्ता उन्हे सुक्कं समाणं तचंपि दन्भेहि य कुसेहि य वेढेइ वेढित्ता महियालेवेणं लिंपइ । एवं खलु एएणुवाएर्ण अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिंपेमाणे अंतरा सुक्कवेमाणे जाव अट्ठहिं महियाले हिं आलिंपइ, अत्थाहमतारम पोरिसियसि उद्गंसि पविखवेजा, से णूणं गोयमा ! से तुंबे तेसि अट्टहं मट्टियालेवाणं गुरुयत्ताए भारियन्त्ताए गुरुयभारित्ताए उपिं सलिलमाइवइत्ता अहे धरणियल इट्टाणे भवइ । एवामेव गोयमा ! जीवा वि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं अणुपुव्वेणं अटुकम्मपगडीओ समजिणंति, तासिं गुरुयत्ताए भारियत्ताए गुरुयभारिय ताए कालमासे कालं किश्च्चा धरणियलमइवइत्ता अहे नरगतल पट्टाणा भवंति एवं खलु गोयमा ! जीवा गुरुयत्तं हव्वमागच्छंति ॥ सू० २ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दभूई अदूरसामंते जाव धम्मज्झाणोवगए विहरह) श्रमण भगवान् महावीर के प्रधान अतेवासी जिनका नाम इन्द्रभूतिया उचित स्थान पर बेठे हुए धर्म ध्यान में तल्लीन थे । सूत्र- १
विरइ) श्रम लगवानना प्रधान सतवासी इन्द्रभूति उचित स्थाने मेठेला ધર્મ ધ્યાનમાં તલ્લીન હતા. ।। સૂત્ર ૧ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
धर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ६ इन्द्रभूतेः जीवविषये प्रश्नः
१७१
टीकार्थ - ततः खलु स इन्द्रभूतिः जातश्रद्धः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य एवं = त्रक्ष्यमाणप्रकारेण - अवादीत् कथं खलु भदन्त ! जीवाः 'गुरुयत्तं' गुरुकत्वंअधोगमनस्वभावकत्वं च ' लहुयत्तं ' लघुकत्वं - उर्ध्वगमनस्वभावकत्वं ' हव्वमागच्छर हव्यमागच्छन्ति = भगवान् महावीरस्वामी दृष्टान्तप्रदर्शन पुरः सरमुत्तरमाह - ' गोयमा ' इत्यादि । गौतम ! ' से ' अथ, 'जहानामए ' यथानामकः = यत्किचिन्नामकः, एकं महत् शुष्कं तुम्वं निछिद्र - छिद्रवर्जितं निरुवहवं निरुपहतं=त्रातादिकृतविकाररहितम् अविशीर्णम् अविदारितमित्यर्थः दर्भैः== डामनाम्ना प्रसिद्धैस्तृणविशेषैः कुशैः स्वनामविख्यातैस्तृणविशेषैः, वेष्टयति, वेgयित्वा मृत्तिकालेपेन ' लिंपइ' लिम्पति= लिप्तं करोति 'लिपित्ता ' लिप्त्वा 'उन्हे ' उष्णे - ' सूर्यातपे ' ददाति धारयति, शुष्कं सत् द्वितीयः मपि द्वितीय
"
'तणसे इंदभूई जाय सङ्के ' इत्यादि
टीकार्थ - (एणं) इनके बाद (से इंदभूई जाय सड्ढे०) उन इन्द्रभूति ने कि जिन्हें प्रभु के ऊपर- अपूर्व श्रद्धा है ( समणस्स३ एवं वयासी) श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार पूछा - ( कहणणं भंते ! जीवा गुरुयत्संवा लहुयत्त' वा हव्वमागच्छंति) हे भदंत जीव कैसे भारी अधोगमन करने
स्वभाव को और कैसे लघु स्वभाववाले उर्ध्व गमन करने के स्वभाव को प्राप्तकरते है ? उनके इस प्रश्नका उत्तर भगवान् दृष्टान्त पूर्वक इस प्रकार देते हैं
(गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कं तुबं निच्छि निरुवयं द०भेहिं कुसेहिं बेटेइ, वेढित्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, लिपित्ता But दल) हे गौतम! जैसे कोई पुरुष एक बडी सी निश्छिद्र, वातादि
तण से इंदभूई जाय सड्ढे' इत्यादि
टीडअर्थ - (तएण ) त्यार माह (से इंदभूई जाय सड्ढे) अलु उ५२ भूमन श्रद्धी धरावनार न्द्रभूतिखे ( समणस्स ३ एवं वयासी ) श्रम लगवान महावीरने रमा प्रमाणे प्रश्न पूछयो ( कण्णं भंते ! जीवा गुरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमा गच्छति ) डे लहन्त ! लारे अधोगमन ४२नार स्वलावने तेभन उर्ध्वगमन કરનાર લઘુ સ્વભાવને જીવ કેવી રીતે મેળવે છે ? તેમના આ પ્રશ્નનેા જવાબ ભગવાન મહાવીર સ્વામી દૃષ્ટાંતની સાથે આ પ્રમાણે આપે છે.
( गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं मह सुक्क तुवं निच्छिइट निरुवer दन्भेहिं कुसेहिं वेढेइ बेढित्ता महियालेवेण लिंपइ. डिपत्ता उन्हे वलयइ ) डे गौतम ! प्रेम अर्थ भालुस शेड भेटी निश्छि वाताद्विविर
For Private And Personal Use Only
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१७२
Naraine
,
वारमपि दर्भैश्च कुशैव वेष्टयति, वेष्टयित्वा मृत्तिकालेपेन लिम्पति । लिखा उष्णे ददाति शुष्कं सत् तृतीयमपि = तृतीयवारमपि दर्भैश्च कुशैश्च वेष्टयति, वेष्टयित्वा मृत्तिकालेपेन लिम्पति । एवं खलु 'एएणुवारणं एतेनोपायेन, अन्तरामध्ये, वेष्टयन्, अन्तरा=मध्येन लेपयन, अन्तरा = मध्ये शोषयन, यावत् अष्टभिर्मृत्तिकालेपैः आलिम्पति=समन्ताल्लिप्तं करोति, 'अत्थाहं ' अस्तावे=स्ताघं यावतिजले नासिका न ब्रुडति तावत् स्तायं गाधं, स्ताघमिति नञ्समासः तस्मिन् अगाधे Sति गम्भीरे इत्यर्थः, अथवा ' अत्थाह' अयं देशीशब्दः अगाधार्थकः, आर्षत्वात् सप्तम्यर्थे प्रथमा, 'अंतारं ' अतारे तरीतुमशक्ये, 'अपोरिसियंसि अपौरुषिके = पुरुषः प्रमाणमस्येति पौरुषिकं, न पौरुषिकमित्यपौरुषिकं तस्मिन् पुरुषप्रमाणादघिके, पुरुषैरगाये ' उदगंसि ' उदके जले 'पक्विवेज्जा ' प्रक्षिपति ।
=
कृतविकार रहित, ऐसी पूरी - ० कि जो फटी तुटीं नहिं है तुंबी को दर्भा से और कुशों से वेष्टित करता है, और वेष्टितकर फिरउसे मिट्टी के लेप से लपेट देता है - लपेट कर उसे धूप मे सुकाता है ( सुक्कं समाणं दोच्चापि दन्भेहिय कुसेहिय- वेढेइ, वेढित्ता मट्टियाले वेण लिंपइ, लिंपित्ता उहे सुक्कं समाणं तच्चपि दन्भेहिय कुसे हिय वेढेइ वेदित्ता महिया लेवेणं लिंप ) जब वह अच्छी तरह शुष्क हो जाती हैं तब दुबारा भी वह उसे दर्भ और कुशों से परि वेष्टित करता है और परिवेष्टित कर के फिर उस पर मिट्टी का लेप करता हैलेपकर पहिले की तरह फिर उसे धूप में सूखने के लिये रख देता है । सुख जाने पर उसे पुनः तृतीय बार दर्भ और कुशों से वेष्टित करता है । वेष्टित करके फिर उस पर मिट्टी का लेप करता है ( एवं. खलु एएण वाएणं अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिपेमाणे अंतरा सुक्कवेमाणे जाव अहिं महियालेवेहिं आलिंप, अत्थाहमतारमपोरिसियंसि
રહિત વગર તૂટેલી પુંખીને દાભ તેમજ કુશથી વીંટી લે છે અને ખાદ્ય માટીથી તેની આસ પાસ લેપ કરે છે અને તેને सुवे छे. ( सुक्क समाण दोच्चपि दब्मेहिय कुसेहिय वेढेइ, वेढित्ता मट्टियाले वेण लिंपई, लिपित्ता उन्हे सुक्क समाणं तच्च पि दम्भेहिय कुसेहिय वेढेइ, वेढत्ता मट्टिया लेवेण लिंपइ ) न्यारे तुंजी सारी रीते सूाहा लय त्यारे ખીજી વખત પણ તેને દાભ અને કુશથી વીંટાળીને ફરી તેના ઉપર માટીને લેપ કરે છે. લેપ કર્યા બાદ તેને તાપમાં મૂકે છે. આમ સૂકાઇ ગયા બાદ श्री वसतं हाल भने डुशथी वीटाजीने भाटीनो से पुरे छे. ( एवं खलु एणुवाणं अंतरा वेढेमाणेअंतरा लिंपेमाणे अंतरा सुक्कवेमाणे जाव अट्ठहिं मट्टियालेवेहि आलिपर अत्थाहसतारमपोरिसियसि उदगंसि पक्खिवेज्जा ) मा
For Private And Personal Use Only
ત્યાર
તાપમાં
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अटोका ०६ः जीवविवये प्रश्नः
१५३
अथ नूनं = निश्चयेन ! तत्तुभ्यं तेषामष्टानां मृत्तिकालेपानां सम्बन्धाद् ' गुरुयाए 'गुरुकतया 'भारिययाए' भारिकतया दर्भकुशमृत्तिकानां भारेण भाराक्रान्तातया, अतएव - ' गुरुयभारिययाए ' गुरुकभारिकतया उक्त हेतुद्वयस्य सद्भावेन शीघ्रनिमज्जनस्वभावता प्रदर्शिता उपरि सलिलमतिव्रज्य - अतिक्रम्य परित्यज्य अधोनीचैः धरणीतलप्रतिष्ठानं पृथ्वीतलं प्रतिष्ठानमाधारो यस्य तत् भवति भूमितलमाश्रित्य तिष्ठतीत्यर्थः ।
,
एवमेव गौतम ! जीवा अपि प्राणातिपातेन यावद् मिथ्यादर्शनशल्येन आनुपुर्या अष्टकर्मप्रकृतिः समर्जयन्ति, तासां गुरुकतया भारिकतया गुरुकमारिकउदगंसि पक्खिवेज्जा ) इस तरह के उपायसे वीच २ में वेष्टित कर बीच २ में लिंपकर बीच २ में सुका कर जब आठ बार मिट्टी के लेप से उसे वह लिप्त कर चुकता है और बाद में उसे अगाध गहरे पानी में कि जो अतार तथा पुरुष प्रमाण से अधिक है डाल देता है ' अत्थाह यह देशीय शब्द है और इसका अर्थ अगाध होता है ( से शृणं गोयमा से तुंबे तेसिं अहं मट्टियालेवाणं गुरुयात्ताए भारिमत्ताए गुरियारि यता उपि सलिलमहवत्ता अहे धरणियलपट्टणे भवह) तो निश्चय से हे गौतम! वह तुंबी उन आठ बार के मिट्टी के लेपों के संबंध से गुरु हो जाने के कारण और ८ बार के दर्भ कुशों के भार से वजन दार हो जाने के कारण जैसे शीघ्र ही ऊपर में पानी को छोड़ कर नीचे पानी के बैठ जाती है ( एवामेव गोयमा ! ) इसी तरह हे गौतम । ( जीवा वि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं अणुपुत्रेणं अट्टम्म पगडीओ समज्जिणंति ) जीव भी प्राणातिपातया
પ્રમાણે તુખીને આઠ વખત દાભ અને કુશાથી વીંટાળીને તથા આઠ વખત માટીને લેપ કરીને તાપમાં સુકવે છે ત્યાર બાદ તેને ઉંડા 6 અતાર 'तेम पुरुष प्रमाण ४२तां पधारे धेश पाणी नाजीहे छे. ( अथाह ) मा देशीय शब्द छे भने तेन! अर्थ आगाध होय ते. ( से णूणं गोयमा ! से तुबे तेसि अदृह महियाले वाणं गुरूयात्ताए भारिंयत्ताए गुरियमारियत्ताए उपिं सलिलमइ वइत्ता अहे धरणिय ठाणे भवइ ) हे गौतम! पाणीभां नामेसी ते तुजी આઠ વખત માટીના લેપથી ભારે થઇ જવાને કારણે તેમજ આઠ વખત દાભ તથા કુશના ભારથી ભારે થઇ જવાને લીધે પાણીમાં નાખતાની સાથે જ पाणी मां नीचे न्ती रहे छे अर्थात् इसी लय छे. ( एवामेत्र गोयमा ! ) मा प्रभा डे गौतम ! ( जीवा व पाणाइवारण जाव मिच्छाद सण सल्लेण अणुपुवेण अङ्कुकम्म पगडीओ समज्जिणंति ) व पशु प्राशातिपात यावत्
For Private And Personal Use Only
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथासूत्र - तया कालमासे कालं कृत्वा धरणीतलमतिबज्य अधो नरकतलप्रतिष्ठाना भवन्ति, नरकादौ पतन्तीत्यर्थः, एवं खलु गौतम ! जीवा गुरुकत्वं हव्यमागच्छंति शीघ्र प्राप्नुवन्ति, यस्मिन्समये प्राणातिपातादिकं कुर्वन्ति, तस्मिन्नेव समये गुरुत्वं प्रा: नुवन्तीति हव्य शब्दो द्योतयति ॥ मू०२ ॥
__ मूलम्-अहणं गोयमा से तुंबे तंसि पढमिल्लगंसि मट्टि. यालेवंसि तिनंसि कुहियंसि परिसडियंसि इसिं धरणियलाओ उप्पइत्ताणं चिट्टइ, तएणंतरं च णं दोच्चंपि महियालेवे जाव उप्पइत्ताणं चिटइ, एवं खलु एएणं उवाएणं तेसु असु वत् मिथ्या दर्शन शल्य से क्रम२ कर अष्टकर्मों की प्रकृतियों को उपार्जित करते रहते है । अर्थात् उन से बंधते रहते हैं-( तासि गरुयत्ताए भारियत्ताए गरुयभारिसाए कालमासे कालं किच्चा धरणियल महवइत्ता अहे नरगतलपहणा भवंति, एवं खलु गोयमा। जीवा गुरुयत्तं हव्वमागच्छंति ) उन प्रकृतियों को पौगालिक होनेके कारण गुरु और भारी होने से ये कर्म बंध वाले जीव भी गुरु और भारी हो जाते हैं इस लिये घे काल मास मे काल करते हैं तब धरीणितल को अतिक्रमण कर नीचे नरकतल मे प्रतिष्ठित होजाते हैं।
इस तरह हे गौतम । जीव जिस समय प्राणातिपात आदि कर्मों को करते है उसी समय में वे गुरुत्त्व अवस्था को प्राप्तहो जाते हैं यहयात हव्य शब्द से द्योतित होती है। सूत्र "२ " મિથ્યાદર્શન શલ્યથી કમપૂર્વક આઠ કર્મોની પ્રકૃતિઓનું ઉપાર્જન કરતે રહે छ. सटरमा थी ७१ मधातो तय छ (तासिं गुरुयत्तीए भारित्ताए गरुयभारित्ताए कालमासे कालं किच्चा धराणियलमइवाइत्ता अहं नरगतलपइद्राणा भवंति एवं खलु गोयमा ! जीवा गुरुयत्तं हव्वमागच्छंति) ते ज्ञाना२यादि भी ની પ્રકૃતિએ પિદુગલિક છે, ગુરુ તેમજ ભારે છે, એટલા માટે તેમનાથી આ કર્મ બંધવાળા જીવ પણ ગુરુ તેમજ ભારે થઈ જાય છે. એથી તે જી કાળ માસમાં કાળ કરે છે ત્યારે પૃથ્વીનું અતિક્રમણ કરીને તેની નીચે નરક તળમાં અવસ્થિત થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે છે ગૌતમ! જીવ જયારે પ્રાણાતિપાત વગેરે કર્મો કરે છે તે સમયે જ તેઓ ગુરુત્વ અવસ્થા મેળવે છે. આ વાત “હવ્ય” શબ્દ થી पाय छे. ॥ सूत्र २ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधामृतवर्षिणी टीका अ० ५ ईन्द्रभूतेः जीवविषये प्रश्नः मटियालेवेसु तिन्नेसु जाव विमुक्कबंधणे अहे धरणियलमइव'इत्ता उप्पिं सलिलतलपइटाणे भवइ ।
एवामेव गोयमा ! जीवा पाणाइवायवरमणेणं जाव मिच्छादंसणातल्लवेरमणेणं अणुपुठवणं अट्ठकम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पिं लोयग्गपइहाणा भवंति, एवं खलु गोयमा ! जविा लहुयत्तं हवमागच्छति, एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं छहस्स नायज्झयणस्स अयम8 पन्नत्ते ति बेमि ॥ सू० ३॥
॥छठं नायज्झयणं सम्मत्तं ॥६॥ टीका-अथः खलु गौतम ! तत्तुम्बं तस्मिन् — पढमिल्लुगंसि ' प्रथमे मृति कालेपे 'तिन्नंसि' स्तिमिते-आद्रतां प्राप्ते ततः 'कुहियंसि' कथिते-विनष्टे 'परिसडियंसि' परिशटिते-बन्धनमुक्ते सति, ईषत् स्तोकं धरणीतलाद् उत्पत्यउर्वीभूय खलु तिष्ठति । ततोऽनन्तरं च खलु द्वितीयेऽपि मृत्तिकालेपे यावदुत्प
'अहणं गोयमा' इत्यादि। टीकार्थ-(अहणे गोयमा ) हे गौतम । जैसे (से तुंबे तंसि पढमि ल्लुगंसि मटियालेवंसि तिन्नंसि कुहियंसि परिसडियंसि ईसिं धरणिय. लाओ उप्पइत्तोणं चिट्ठह ) वह तुंषी अपने ऊपर का पहेला लेप जब आई (गिला ) हो जाता है, कूषित-विनष्ट-हो जाता है-परिशटित बंधन मुक्त हो जाता है तब नीचे से कुछ ऊपर को उठ जाती है ( तयणंतरंच णं दोच्चपि मट्टियालेवे जाव उप्पाइत्ताणं चिट्ठइ
( अहणं गोयमा ! ) Uत्या !
टाथ-( अहण गोयमा ) 3 गौतम! म ( से तुबे तंसि पढमिल्लु गंलि मट्टियालेवंसि तिन्नंसि कुहियसि परिसडियासि ईसिं धरणियलाओ उप्पइत्ताणं चिटुइ) पाभा भी गयेसी तुंभीनी 6५२नो पहेलो ५ यारे पाणीथी भाद्र થઈ જાય છે-કૃથિત-નાશ-પામે છે, પરિશકિત-બંધ મુક્ત થઈ જાય છે ત્યારે ते नायथी ४४४ थे। ५२ मा छ, (तएणंतर च णं दोच्चंपि मट्टियाले
For Private And Personal Use Only
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.. १७६
ज्ञाताधर्मकथानसूत्रे त्य खलु तिष्ठति, एवं खलु एतेन उपायेन तेषु अष्टसु मृत्तिकालेपेषु स्तिमितेषु यावत् विमुक्तबंधने सति-अधो धरणीतलमतिव्रज्य=उत्पत्य उपरि सलिलतलपतिष्ठानं भवति। ___एवमेव गौतम ! जीवाः प्राणातिपातविरमणेन यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविरमणेन आनुपूळ अष्टकर्मप्रकृतिः क्षपयित्वा गगनतलमुत्पत्य उपरि लोकाग्रे प्रतिष्ठानाः सिद्ध स्वरूपावस्थिता भवन्ति । एवं खलु गौतम ! जीवा लघुकत्वं एवं खलु एएणं उवाएणं तेसु अट्ठस्सु मटियालेवेल तिन्नेसु जाव विमुक्कः पंधणे अहे धरणियलमइवइत्ता उप्पि सलिलतलपइदाणे भवइ ) इसी तरह द्वितीय मिट्टी का लेप जब गीला होकर नष्ट हो जाता है परिशटित (सुख ) जाता है तब वह तुषी पहिले की अपेक्षा और कुछ वहां से ऊँची उठ जाती है । इसी तरह होते २ जब उस तुंबी के वे आठों ही लेप गीले कूथित एवं परिशटित हो जाते हैं तब वह तुंबी बिलकुल धरितल से उठकर ऊपर पानी में आ जाती है (एवामेव गोयमा ! जीवा पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं अणुपुवेणं अट्ठ कम्मपगड़ीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइता उप्पि लोयग्गपइट्ठाणा भवंति ) इसी तरह हे गौतम । जीव प्राणातिपात के विरमण से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य के विरमण से क्रमशः अष्ट कर्मों की प्रवृत्तियो को नष्ट कर ऊपर की ओर गगनतल में उठ कर लोक के अग्रभागमें सिद्ध स्वरूप से अवस्थित हो जाता है। जाव उप्पोइत्तणं चिदुइ एवं खलु एएणं उवाएणं हेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु तिन्नेसु जाव विमुक्कबंधणे अहे धरणियल मइवइत्ता उप्पिं सलिलतल पइठाणे भवइ) मा शते तुमीना ५२ने। भील वातना दे५५ लानी थने सा. ગળી જાય છે, નષ્ટ થઈ જાય છે અને પરિશટિત થઈ જાય છે ત્યારે તે પહેલાં કરતાં પાણીમાં કંઇક છેડી વધારે ઉપર આવી જાય છે. આમ તુંબડીના આઠે આઠ લેપ ભીના થઈને ઓગળી જાય છે ત્યારે તુંબડી પિતાની મેળે જ पानी ७५२ त२५ भांडे छे. ( एवामेव गोयमा ! जीवा पाणाइवायवेरमणे ण जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेण अणु पुव्वेण अटू कम्म पगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पलोयग्गपइट्टाणा भवति )
આ પ્રમાણે જ હે ગૌતમ! જીવ પ્રાણાતિપાત ના વિરમણથી યાવત મિથ્યા દર્શન શલ્યના વિરમણથી અનુક્રમે આઠ કર્મોની પ્રકૃતિનો નાશ કરી ને ઉપર ગગનતળમાં પહોંચીને ફેંકના અગ્ર ભાગમાં સિદ્ધ સ્વરૂપથી અવસ્થિત થાય છે.
For Private And Personal Use Only
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ६ इन्द्रभूतेः जीवविषये प्रश्नः १७ इध्यमागच्छन्ति शीघ्रं प्राप्नुवन्ति, अस्मिन्नेव समये कर्मक्षये प्रवृत्ता भवन्ति तस्मिन्नेव समये लघुकत्वं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।
एवं खलु जम्बूः श्रमणेन भगवता महावीरेण षष्ठस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः इति ब्रवीमि, शेषं सुगमम् ॥ सू०३ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितक
लापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराज
गुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलार. व्रतिविरचितायां — ज्ञाताधर्मकथाङ्ग' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
पिण्याख्यायां व्याख्यायां षष्ठमध्ययनं संपूर्णम् ॥ ६ ॥ ( एवं खलु गोयमा ! जीवालहुयत्तं हन्व मागच्छंति-एवं खलु जंबू । समणेणं भगवया महावीरेणं छट्ठस्स नायज्ज्झयणस्स अयमढे पन्नते त्तिवेमि ॥ ३ ॥ इस तरह हे गौतम । जिव उर्व गमन स्वभाव को शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं-अर्थात् वे जिस समय कर्मक्षय करने में प्रवृत्त होते हैं उसी समय में वे लघुकत्व स्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं । इस प्रकार हे जंबू । श्रमण भगवान महावीरने छठे अध्ययनका यह अर्थ कहा है।०३। श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाता. धर्मकथाङ्गसूत्र की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का छट्ठा
अध्ययन समाप्त।। ६॥ ( एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छति-एव खलु जंबू ! समणेण भगवया महावीयेण छम्टुस नायज्झुयणस्स अयम8 पन्नते तिबेमि । ३ । આ પ્રમાણે છે ગૌતમ ! જીવ ઉર્ધ્વ ગમનવાળા સ્વભાવને તરત જ મેળવી લે છે. એટલે કે જ્યારે જીવ કર્મોના નાશ માટે પ્રવૃત્ત થાય છે, ત્યારે જ તે લકત્વ સ્વભાવને મેળવે છે હે જંબૂ આમ ભગવાન મહાવીરે છઠ્ઠા અધ્યયનને અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે. | સૂત્ર ] શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત જ્ઞાતાધર્મકથાગ સૂત્રની અનગાર ધર્મામૃતવર્ષિણી વ્યાખ્યાનું છડું અધ્યયન સમાપ્ત દા ज्ञ २३
For Private And Personal Use Only
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अथ सप्तममध्ययनं प्रारभ्यतेगतं षष्ठमध्ययनम् साम्प्रतं सप्तममारभ्यतेऽस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः इहानन्तराध्ययने प्राणातिपातादि क्रियावतां कर्मगुरुता मोक्ता, तदभिन्नानां कर्म लघुता ततश्चानर्थार्थप्राप्तिरुपोऽर्थः इहतु प्राणातिपातादि विरति स्खलितसंर क्षकाणामनर्थार्थमाप्तिः प्रोच्येते. । तत्राद्यं सूत्रमाह
मूलम् जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं छहस्स नाय ज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते सत्तमस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था, सुभूमिभागे उज्जाणे, तत्थणं राय
सातवां अध्ययन प्रारम्भछठा अध्ययन सम्पूर्ण हो चुका-अब सातवां अध्ययन प्रारंभ होता है। इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से संबन्ध हैछठे अध्ययन में प्राणातिपात आदि करनेवाले प्राणियों में कर्म गुरुता कही गई है और नहीं करने वालों में कर्मलघुता कही गई है- तथा इन दोनों का फल क्रमशः अनर्थ एवं अर्थ की प्राप्ति होना कहा गया है। अब इस अध्ययन में यह कहा जावेगी कि जो प्राणातिपात आदि से विरति धारण करके भी उससे स्खलित हो जाते हैं वे जीवअनर्थ परंपरा को भोगते हैं और जो उसकी रक्षा करते हैं वे अभीष्ट-इच्छित अर्थ को प्राप्त कर लेते हैं।
સાતમું અધ્યયન પ્રારંભ. છઠ્ઠા અધ્યયન બાદ હવે સાતમું અધ્યયન શરૂ થાય છે. સાતમા અધ્ય. યનને છઠ્ઠા અધ્યયનની સાથે સંબંધ આ પ્રમાણે છે. છઠ્ઠા અધ્યયન માં પ્રાણાતિપાત વગેરે કરનાર પ્રાણુઓમાં કર્મની ગુરૂતા કહેવામાં આવી છે અને પ્રાણાતિપાત નહિ કરનાર પ્રાણુઓમાં કર્મની લઘુતા કહેવામાં આવી છે. તેમજ અનુક્રમે આ બંનેનું ફળ એટલે કે અનર્થ અને અર્થની પ્રાપ્તિ થવી આ વિષે કહેવામાં આવ્યું છે. હવે સાતમા અધ્યયનમાં કહેવામાં આવશે કે જે પ્રાણાતિપાત વગેરેથી વિરતિ ધારણ કરવા છતાં તેનાથી ખલિત થઈ જાય છે. તે જીવો અનર્થ પરંપરા એને ભગવે છે અને જે છે તેની રક્ષા કરે છે તેઓ અભીષ્ટ-મનગમતા એટલે કે ઈચ્છિત અર્થ ને મેળવે છે.
For Private And Personal Use Only
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणीटी० अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् १७९ गिहे नयरे धण्णे नामं सत्थवाहे परिवसइ० अड्डे० भद्दा भारिया अहीण पंचेंदिय० जाव सुरूवा तस्स णं धण्णस्त सत्थवाहस्स पुत्ता भदाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाहदारया होत्था तं जहा-धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए तस्स णं ध. पणस्स सत्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था,तं जहा-उंज्झिया भोगवइयारक्खइया रोहिणिया।सू०१॥
टीका-'जइणं भंते ' इत्यादि-अथ जम्बूस्वामी पृच्छति हे भदन्त ! यदि खलु श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् मुक्तिसंप्राप्तेन षष्ठस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः, हे भदन्त सप्तमस्य खलु ज्ञाताध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं जम्बू स्वामिना प्रश्ने कृते सति सुधर्मास्वामी प्राह एवं खलुजम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन्
'जहणं भंते ! समणेणं' इत्यादि । टीकार्थ-(जहणं भंते !) जंबूस्वामी पूछते हैं कि हे भदंत ! (समणेणं जाव संपत्तणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते सत्तमस्स णं भंते नायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ?) श्रमण भगवान् महावीर ने जो मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं छढे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्ररूपित किया है तो हे भदंत ! सप्तम ज्ञाताध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्ररूपित किया है ? (एवं खलु जंबू ! ) इसका उत्तर देते हुए श्री सुधर्मा स्वामी जंबूस्वामी से कहते है कि हे जंबू ! सुनो श्रमण भगवान महावीर ने जो सातवें ज्ञाताध्ययन का अर्थ प्ररूपित किया है- वह इस प्रकार है ( तेगं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय
'जइण भते ! समणेण'' त्या !
साथ-(जइण भते !) भू स्वामी प्रश्न पूछे छे है महन्त ! (समणेण' जाव संपत्तण छहस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते सतमस्स ण भंते नायज्मयणस्स के अढे पण्णत्ते ? ) भुति मेरा श्रम लगवान महावीरे छ। જ્ઞાતાધ્યયનને અર્થ પૂર્વોક્ત રીતે રજુ કર્યા છે ત્યારે હે ભદંત ! તેઓશ્રીએ सातभा ज्ञाताध्ययननी । अथ प्र३पित - छ ? ( एवं खलु जबू!) मा પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે જે બ્રા સાંભળે! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સાતમા જ્ઞાતાધ્યયનને અર્થ આ પ્રમાણે
For Private And Personal Use Only
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूते समये राजगृहं नाम नगरमासीत् , नगरस्य बहिः सुभूमिभाग नामकमुद्यानं 'तत्थ णं' तत्र खलु राजगृहे नगरे धन्यनामा सार्थवाहः परिवसतिस्म स कीदृशः, ' अड़े' आहयः बहुधनधान्य समृद्धः, तस्य भदानाम्नी भार्या, सा किं भूता ? अ. हीनपञ्चन्द्रियशरीरा 'जाव सुधा' इह यावत्करणादिदं ज्ञातव्यं ' लक्षणवंजण गुणोववेया माणुम्माणपमा गपडिपुण्णमुजायसव्वंगसुंदरंगा, ससि सोमाकारा कांता पियदंसणा सुरुवा' इति एतानि पदानि व्याख्यातपूर्वाणि 'तस्स गं 'तस्य खलु धन्यस्य सार्थवाहस्य पुत्राः भद्रायाः भार्यायाः ‘ अत्तया' आत्मजा अङ्गजा-निजकुक्षिसंभवा इत्यर्थः चत्वारः सार्थवाहदारका आसन् , तद् यथा में ( रायगिहे नाम नयरे होत्था ) राजगृह नाम का नगर था (सुभूमिभागे उज्जाणे) वहां बाहिर में एक सुभूमि भाग नाम का उद्यान था। (तत्थणं रायगिहे धपणे नामं सत्यवाहे परिवता ) उस राजगृह में धन्य नाम का सार्थवाह रहता था। (अड्रे०भद्दा भारिया, अहीण पंचे दिय० जाव सुरूवा) यह बहुत अधिक धन घान्य से समृद्ध था। इसकी भद्रानाम की भायों थी।
इसका शरीर अहीन पंचेन्द्रियों से परिपूर्ण था । सुन्दर अंगवाली थी।" यावत् शब्दसे" लक्खणवंजग गुणोववेचा, माणुम्माणपमाणपडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंग सुरंगा, ससिसोमाकारा, कंना पिय सणा सुरूवा " इस पाठका संग्रह किया गया है
कोई बार पहिले इन पदो का अर्थ लिखा जा चुका है। (तस्सणं धण्णस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भद्दाप भारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाह दारया होत्था) उस धन्य सार्थवाह के भद्राभायों की कुक्षो से उत्पन्न नि३पित य छे. ( तेण कालेणं तेण समरण) ते णे भने ते सभये (रायगिहे नाम नगरे होत्था ) रागृह नामे नगर उतुं (सुभूमिभागे उज्जाणे) ते नगरनी पडा२ सुभूमिमा नामे मे धान तु (तत्थ णं रायगिहे धण्णेनामं सत्थवाहे परिवसह) | नगरमा बन्य नोभे साथ वार्ड २ता डतो. (अडूढे भद्दा भारिया अहीण पंचेदिय. जाव सुरूवा) ते घो। १ घन ધાન્યથી સમૃદ્ધ હતું. ભદ્રા નામે તેની પત્ની હતી. તેનું શરીર અહીન પંચેન્દ્રિયથી પરિપૂર્ણ હતું તે સુંદર અંગોવાળી હતી. “યાવત્ ” શબ્દથી मडी ( लक्खणवंजणगुणोववेया, माणुम्माणरमाणपडिपुण्णसुजायसव्यंगसुंदरंगा, ससिसोमाकारा, कंता पियदसणा सुरूवा ) 1 पाउने। सब थय। छ. या पहोना पडतां घी मत सथ५५८ ४२वामां माव्या . (तस्सगं धण्णस्स मत्थवाहस्स पुत्ता भदाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्यवाहदोरया होत्या ) धन्य સાર્થવાહને ભદ્રા ભાર્યાના ઉદર જન્મ પામેલાં ચાર સાર્થવાહ દારક પુત્ર-હતા.
For Private And Personal Use Only
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
टोहा अं) ७ घन्यसार्थवाहवरेतनिरूपणम्
१ धनपालः, २ धनदेवः, ३ धनगोपः, धनरक्षितश्चेति । तस्य खलु धन्यसार्थवाहस्य चतुर्णां पुत्राणां भार्याश्चतस्रः स्नुषाः - पुत्रवध्वः बभूवुः तद्यथा - १ उज्झित्ता, २ भोगवतिका, ३ रक्षिता, ४ रोहिणिकाच ॥ सु. १ ॥
मूलम् - तएर्ण तस्स धण्णस्स अन्नया कयाइं पुत्ररत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु अहं रायगि बहूणं ईसर जात्र पब्भिईणं समस्त कुटुंबस्स बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य कुटुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसुय रहस्सेसुय निच्छएसुय ववहारे सुय आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिजे मेढीपमाणे आहारे आलंबगे चक्खुमेढीभृए जाव सव्व कज्जवड्डावए तंणणजइ जं मए गयंसि वा चुयंसि वा मयंसि वा भग्गस वा लुग्गंसि वा सडियंसि वा पडियंसि वा विदेसत्थं सिवा विवसिसि वा इम्मस्त कुटुंबस्स किं मन्ने आहारे वा
हुए चार सार्थवाह दारक - पुत्र थे ( तं जहा ) उनके नाम ये हैं- ( धणपाले, धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए ) धनपाल, धनदेव, धनगोप, धनरक्षित (तस्स णं ण्णस्स सत्यवाहस्स चऊण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुहाओ होत्था ) उस धन्य सार्थवाह को उन चारपुत्रों की भार्याएँ पुत्र वधुएं - थी (तंजा - ऊंझिया, भोगवइया, रक्खइया, रोहिणिया ) धनपालपुत्र की भार्या उज्झिताथी १ धनदेवकी भार्या भोगवतिका थी २, धनगोपकी भारक्षिताथी ३, धनरक्षित की भार्या रोहिणिकाधी४ || सू० १ ॥
o
( त जहा ) तेभना नाभे या प्रमाणे छे- ( घणपाले घणदेवे धणगोवे घणरक्खि • ए) धनयाण, धनहेत्र, धनगोय अने घनरक्षित ( तस्त्रणं घण्णस्स सत्यवा इस च उह पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था ) धन्य सार्थवाहना मायारे पुत्राने लायो उती ( त जहा उज्झिया भोगवइया, रक्खइया, रोहिणिया ) धनयाजनी लाया हुती १, घनदेवनी लाय लोगवतिम હતી, ૨, ધનગાપની ભાર્યા રક્ષિતા હતી ૩, ધનરક્ષિતની ભાર્યા હિણિકા हुती ४, ॥ सूत्र१ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
६
१८२
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
आलंबे वा पडिबंधे वा भविस्सइ ? तं सेयं खलु मम कलं जाव जलंते विउलं असणं ४ उवक्खडावेत्ता मित्तणाइ० चउण्हं सुपहाणं कुलघरवर्ग आमंतेत्ता तं मित्तणाइ णियगसयण० य चउह सुण्हाणं कुलघरवग्गं विउलेणं असणं ४ धुवपुष्फ बत्थ गंधजाव सकारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइ० चउण्ह य सुपहाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ चउण्हं सुण्हाणं परिरक्खणट्टयाए पंचर सालि अक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किन्हें वा सारखेइ वा संगोवेइ वा संत्रढेइ वा ? | सू० २ ॥
टीका- ' तरणं तस्स ' इत्यादि - ततस्तदनन्तरं खलु तस्य धन्यसार्थवा हस्य अन्यदा कदाचित् 'पुव्वतावरत कालमसि' पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरणं कुर्वतो 'इमेयारूवे ' अयमेतद्रपः ' अज्झथिए 'आध्यात्मिकः आन्तरोपायसाध्यसुखदुःखादिरूपः यावत्संकल्पः 'मुप्पज्जित्था समुदपद्यत ' एवं ' अमुना प्रकारेण खलु ' निश्वयेन अहं राजगृहे नगरे बहूनां ' ईसर
}
"
6
'तणं तस्स घण्णस्स ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद (तस्स घण्णस्स उस धन्य सार्थवाह को ( अन्नया कमाई ) किसीएक समय ( पुञ्चरत्तावरत्तकाल समर्थसि ) मध्यरात्रि के समय में जब कि वह कुटुंब जागरणासे जगरहा था (इमेारूबे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था ) इस प्रकार का यह आध्यात्मिक - आंतर उपाय साध्या सुख दुःखदिरूप यावत् संकल्प उत्पन्नहुवा ( एवं खलु अहं रायगिहे बहूणं. ईसर जाव पभईणं समस्स ' तरणं तस्व धणरस , इत्यादि !
For Private And Personal Use Only
टीअर्थ - (तएण ) त्यार माह ( तस्स घण्णरस ) धन्य सार्थवाहने ( अन्नया कथाई) आई वजते ( पुत्र्वरत्तावरत्तकालसमयंसि ) मधी रात्रिना समये न्यारे ते मुटुज नगर अस्तु तु. (इमेयारूवे अज्झ थिए जाव समुप्पज्जित्था ) ત્યરે આ જાતના આધ્યાત્મિક એટલે કે આંતરિક ઉપાયથી સાધ્ય સુખદુઃખ बगेरे ३५ यावत् संउदय उदभव्यो - ( एवं खलु अहं रायगिद्दे बहूणं ईसर
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगार मृत पिणी का ४० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम १८३ ईश्वराः-ऐश्वर सम्पन्नाः 'जावभईणं' यावत शब्देन 'तलवरमाडंबिय कोडं. बियइभ सेहसेणावसस्थवाह ' एतेषां संग्रहः, तेन तलचरमाडम्बिककोडुम्बकेश्यभेष्ठि सेनापति सार्थवाहप्रभृतीनां — सयस्स ' स्वकस्य-निजस्य कुटुम्बस्य बहुषु 'कज्जेसु' कार्येषु-प्रयोज नेषुच पुनः 'कारणेसु' कारणेषु-कार्यजातसम्पादक हेतुषुच, 'कुटुंबेसु ' कुटुम्बेषु बान्धवेषु च ' मतेसु' मन्त्रेषु-कर्तव्य निश्चयार्थ गुप्तविचारेषु च ' गुज्झेसु ' गुह्येषु-लज्जाया गोपनीयव्यवहारेषु च ' रहस्सेसु' रहस्येषु-प्रच्छन्न व्यवहारेषुच 'निच्छएमु ' निश्चयेषु-पूर्ण निर्णयेषु च 'ववहारेसु' व्यवहारेषु च बान्धवादि समाचरितलोकविपरीतादि क्रिया प्रायश्चित्तेषु अत्र चकाराः समुच्चयार्थकाः एतेषु विषयेषु'आपुच्छणिज्जे आमच्छनीयः-ईषत्माष्टुंयोग्यः एकवार मित्यर्थः 'पडिपुच्छणिज्जे' परिमच्छ नीयः सर्वतो भावेन प्रष्टव्यः । मेढी' मेधिः श्रीहियवादिकणमर्दनार्थ पशुवन्धनस्तम्भः, तत्सादृश्यादयमपि मेधिः-मेधिरूपः, कुटुंबस्स बहुतु कन्जेसु य कारणे सु य, कुटुंबे सु य, मंतेस्तु य, गुज्झे रहस्से निच्छए, ववहारे सु य, आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, मेढीप माणे आहारे, आलंबणे ) में राजगृह नगर में अनेक ऐश्वर्यशाली सलवर, माउंयिक कौटुबिक इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदिजनों के तथा अपने निज कुटुम्बके प्रयोजनी भूत कार्यों मे, कार्यों के साधन भूत कारणो में बन्धुजनों के कर्तव्य को निश्चय करने के लिये प्रवृत्त गुप्तविचारों में लज्जावश गोपनीय व्यवहारो में-प्रच्छन्नव्यवहारोमेंपूर्णनिर्णयों में, बांधवादिजनो द्वारा समाचरित लोक विरुद्धादिकायों के प्रायश्चित्तों में अर्थात् इन सब विषयो में पूछा जाता है, ये सबलोग मेरी अच्छी तरहसे सलाह लेते हैं। मैं इन सब के लिये मेधी रूप हैं जाव पविभईण सयस्स कुडुबस्स बहसु कज्जेसु य कारणेसुय, कुडुबेसु य, मतेसुय, गुज्झे रहस्से निच्छए ववहारेसुय, आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, मेढीपमाणे आहारे आलंबणे) २ नगरमा हुघ! मैश्वर्यशाणी, तलव२, भाईબિક, કૌટુંબિક, ઇભ્ય, શ્રેષ્ઠી, સેનાપતિ, સાર્થવાહ વગેરેના તેમજ પિતાના કુટુંબનાં જ ખાસ કામમાં, કાર્યોના સાધન ભૂત કારણોમાં સગાં વહાલાંના કર્તવ્યના નિશ્ચય માટે ની ગુપ્ત મંત્રણાઓમાં છુપાવવા યોગ્ય લજજાથી સંબંધિત ગોપનીય કાર્યોમાં પ્રચ્છન્ન વ્યવહારમાં–પૂર્ણ નીર્ણમાં, સગાં સંબંધીઓ વડે આચારથી વિરુદ્ધ અનાચરીય કરવામાં આવેલા કાર્યોમાટે ની પ્રાયશ્ચિત્ત વિધિમાં–એટલે કે આ બધી સામાજિકરાજનીતિક અને ધાર્મિક બાબતેમાં બધા મને પૂછે છે. બધા માણસો મારી સલાહ લે છે. આ બધા લોકે માટે હું મેધી રૂ૫ છું, પ્રમાણ રૂપ છું. અનાજ વગેરેની હાલણી માટે
For Private And Personal Use Only
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૨૪
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
"
•
अर्थादेतदवलम्बनैव सर्वस्यापि कुटुम्बस्यावस्थानम् ' पमाणे ' प्रमाणम् प्रत्यक्षादि प्रमाणवद् वस्तुतत्वप्रतिबोधकः 'आहारे' आधारः - आधारवत् कुटुम्बादीनामाश्रयः ' आलंबणे' आलम्बनं रज्यादिवत् विपद्गर्तपतज्जनोद्धारकतयाऽवलम्वनम्. 4 चक्खु ' चक्षुः नेत्रं तद्वत् सकलार्थप्रदर्शकः, यदुक्तं (मेधिः प्रमाणमाधारः आलम्बनं चक्षुरिति तदेव स्पष्टबोधार्थमौपम्यवाचिभूतशब्द संमेलनेन पुनरावर्तयति मेधिभूतः इत्यादि, यावदिति - यावच्छब्देन ( पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खूभूए) इत्येषां संग्रहो बोध्यः अर्थतः पुनरुक्तिदोष वारणं तु पूर्वत्र मेधिरिति आरोपित मेधिश्ववानित्याद्यर्थेन बोध्यम् । सव्वकज्जव tar ' सर्व कार्यवर्धकः सर्वेषा कार्याणां वर्धकः = सम्पादकोऽस्मि 'तं ' तद् प्रमाणरूप हूँ । बीहि कव आदिके कणों को मर्दन करने के लिये पशु जिस स्तंभ में बांधे जाते हैं उसका नाम मेघी है । मेधी के सहारे से जिस तरह पशुओं का अवस्थान रहता है उसी तरह उसके सहारे से समस्त कुटुंबका अवस्थान था इसलिये इसे मेधीरूप कहा गया है । प्रत्यक्ष आदि प्रमाण जैसे वस्तुतस्व के प्रतिबोधक होते हैं उसी तरह यह भी सब के लिये वस्तु का वास्तविक स्वरूप समझा दिया करता था अतः इसे प्रमाण रूप प्रकट किया है। मैं ही कुटुम्ब आदिका आश्रय भूत हू, रज्ज्वादिक की तरह विपत्तिरूप खड्डे में पतित जनो का उद्धारक होनेके कारण मैं उनका अवलंबन रूपहूँ ।
जिस प्रकार सामने के पदार्थ का यथार्थ प्रकाशन करता है उसी तरह यह भी मनुष्यों को राय लेने पर वास्तविक वस्तु के रहस्य से परिचित्त करा देता था । अतः इसे यहां चक्षुरूप कहा गया इसीलिये (चक्खु मेढीभूए जाव सम्वकज्जबडावर ) मेघि प्रमाण,
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
બળદો જે થાંભલાને ખાંધવામાં આવે છે. તેનું નામ મેઘી છે. મેધી જેમ પશુઆને માટે ખાસ કેન્દ્રરૂપમાં રહેલા આધાર હાયછે તેમજ તેપણુ બધાને માટે મેધી રૂપ હતા પ્રત્યક્ષ વગેરે પ્રમાણેા જેમ વસ્તુના તત્ત્વને ખતાવનારા હાય છે તેમજ ધન્યસાર્થવાહ પણ બધાને દરેકે દરેક વસ્તુનું સાચું સ્વરૂપ સમજાવતા હતા. તેથી તેને પ્રમાણ કહ્યો છે. કુટુંબના હુ જ આશ છું. હું. જ ઉંડા ખાડામાં પડેલા માણુસાના દોરીની જેમ ઉદ્ધારક છું એથી હું તેમના માટે અવલંબન (આધાર ) રૂપ છું. ક્ષુ જેમ સામેની વસ્તુને પ્રકાશિત કરે છે. તેમજ તે પણ સલાહ માટે આવેલા માણસાને વસ્તુના साया रहस्यधी पाडे उरतो तो भेटला भाटे ४ ( चक्खुमेढीभूए जान सन्कज्जव विए) भेधि प्रमाणु આધાર આલંબન અને ચક્ષુ આ પદોની
For Private And Personal Use Only
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अमगार धर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्
१८५
"
"
,
तस्मात्कारणत् 'ण णज्जइ' न ज्ञायते मया 'जं' यत् यदि 'मए' मयि 'गयंसि' गते ग्रामादौ 'वा' 'चुयंसि' च्युते - स्खलितेचा कर्मवशादनाचरतः स्वपदात्पतिते इत्यर्थः ' मयंसि ' मृते प्राणवियोगे सति वा भग्गंसि भग्ने रोगादिना कुब्ज खञ्जवेनाऽसमर्थीभूते वा 'लुग्गंसि रुग्णे- रोगावस्थाप्राप्तेसति 'सडियंसिवा सटिते व्याधिविशेषेण जीर्णतां गते सति, वा' पडियंसि पतिते प्रासादादितोग्लानभावाद्वा ' विदेसत्यंसि ' देशान्तरं गत्वा तत्रैव स्थिते वा 'विप्पवसियसि विप्रोषिते - स्वस्थान विनिर्गते - देशान्तरगमनप्रवृत्ते सति वा 'मन्ने ' अहं मन्ये
ܕ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आधार, आलम्बन एवं चक्षु इन पदों के साथ सूत्रकार इसी बात को और जोरदार शब्दों से समझाने के लिये उपमा वाचक भूत शब्द का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि यह धन्यसार्थवाह उन सब के लिये मेधिभूत था, प्रमाणभूत था, आधारभूत था, आलंबनभूत था और चक्षुभूत था । इस तरह यहाँ पुनक्ति दोष का सद्भाव भी नही माना जा सकता है ।
1
कारण पहिले कथन में उसे स्वयं मेधि आदि रूप कहा गया है और इस कथन में उसे उन २ जैसा कहा गया है । इस प्रकार पुनरुक्ति दोष at वारण हो जाता है । यह धन्य सार्थवाह समस्त ईश्वर आदि जनों के सर्व कार्यों का संपादक था- इसलिये उसे यह " सर्व कार्य वर्द्धक " कहा गया है । इस प्रकार वह धन्य सार्थवाह अपने में इन समस्त बातों का विचार करके अब आगे ऐसा विचार करता है (तं ण णज्जइजं मए गयंसि वा चुयंसि वा, मयंसि वा भग्गंसि वा, लुग्गंसि वा, सडियंसि
સાથે સૂત્રકાર એ જ વાતને વધારે સ્પષ્ટ કરવા માટે ઉપમા વાચક ‘ભૂત ’ શબ્દના પ્રયોગ કરતાં કહે છે કે ધન્ય સાવિાહ બધાને માટે મેધિભૂત હતા, પ્રમાણ ભૂત હતા, આધાર ભૂત હતા, આલંબન ભૂત હતા અને ચક્ષુ ભૂત હતા. એથી અહીં પુનરુક્તિ રૂપ દોષ ઉદ્ભવવાની શકયતાથી ઉભી થતી નથી. કેમકે પૂર્વ કથનમાં જ તેને મેઘિ વગેરે રૂપ મનાવવામાં આવ્યો છે અને આ વનમાં પણ તેને તે પ્રમાણે જ વવવામાં આવ્યે છે. આ રીતે પુનરુક્તિ દોષનું નિવારણ પણ થઇ જ ગયું કહેવાય. ધન્ય સાથ વાડ બધા ઈશ્વર વગેરે લેાકેાના બધા કામેાને પાર પમાડનાર હતા. એથી જ તેને “ સર્વ કા વક ” કહેવામાં આવ્યે છે. આ પ્રમાણે ધન્ય સાવિાહ પેાતાની મેળે આ બધી વાતે વિષે વિચાર કરતા આગળ આમ વિચારે છે કે (સ' ન ज जं मए गये सिवा चुयंसिवा मयंसिवा भगंसिवा, लुग्गंसिवा, सडिय सिवा,
शा० २४
For Private And Personal Use Only
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथाजस्थे 'इमस्स' अस्य कुटुम्बस्य 'कि' कः ‘आहारे' आधारः आश्रयो भूमिरिव 'वा' अथवा 'आलंबे' आलम्बः-पततो रज्जा दिकमिव अथवा 'पडिबंधे' पतिबन्धः प्रमार्जनिका शलाकादीनां परिरक्षणीय दवरकइव 'भविस्सइ' भविष्यति 'तं' तद्-तस्मात् ' सेयं ' श्रेयः खलु निश्चये मम ' कल्लं' कल्ये-श्वः प्रभातसमये यावत्-तेजसा 'जलंते ' ज्वलतिसति-दिनकरे उदयं प्राप्ते विपुलं-प्रचुरं आशनं ४ ' उवक्खडावेत्ता' उपस्कार्य निष्पाद्य मित्रज्ञाति निजक स्वजन सम्वन्धिनः परिजनान् चतस्रः स्नुषाः 'कुलघरवग्गं ' कुलगृहवर्ग, कुलगृह-पितृगृहं तद् वर्ग मातापित्रादिकं 'आमंतेत्ता' आमंत्र्य=भोजनार्थमाहूय 'तं ' तान् वा पडियंसि वा विदेसत्थंसि वा विप्प वसयंसि वा इमस्स कुटुंबस्स किं मन्ने आहारे वा आलंबे वा पडिबंधे वा भविस्सइ ?) कि ऐसा मैं यदि यहां से दूसरे ग्राम आदि को चला जाऊँ, या कर्मवशात् स्वपद से च्युत हो जाऊँ, मरजाऊँ किसी रोग आदि के द्वारा कुबडा या लूला बन जाउँ, रोग से ग्रसित हो जाउँ, किसी व्याधि विशेष से जीर्ण शरीर हो जाउँ किमी मकान आदि से अचानक गिरजाउँ विदेश जाकर वहाँ रहने लगजाऊँ,अथवा यहां से विप्रोषित परदेशरहने वाला जाऊतो ऐसी स्थिति में मुझे ऐसा कोई नही ज्ञात होता है कि जो इस मेरे कुटुम्ब का आधार होगा आलंबनभूत होगा उसको बुहारू संमार्जनी को सीकों को एकत्र बांध कर रक्षा करने वाले डोरेके सामान रक्षा करने वाला होगा। इसलिये जब मैं ऐसा मानता हूँ (तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते विउलं असणं ४ उवक्खडावेत्ता मित्सणाह०च उण्हं सुहाणं कुलघरवग्गं पडिय'सिवा, विदेसत्यसि वा विप्पवसयसि वा इमस्स कुडुबस्स किं मन्ने आहारे वा
आलंबे वा पडिषधे वा भविस्सइ ?) ले महीथी भी शाम तो २४ કમવશાત સ્વપદ (પિતાના અધિકાર) થી ભ્રષ્ટ થઈ જાઉં કે મરણને ભે, રોગ વગેરેમાં સપડાઈને કૂબડે અથવા અપંગ થઈ જાઉં, રોગી થઈ જાઉં કેઈ વ્યાધિ વિશેષમાં સપડાઈને સાવ દુર્બળ શરીરવાળે થઈ જાઉં, કેઈ મકાન ઉપરથી ઓચિંતો પડી જાઉં, વિદેશમાં જઈને ત્યાં રહેવા લાગું અથવા તે અહીંથી વિપ્રેષિત પરદેશમાં રહેનાર થઈ જાઉં ત્યારે એવી સ્થિતિમાં મને એવી કઈ પણ વ્યક્તિ દેખાતી નથી કે જે મારા કુટુંબને આધાર થઈ શકે, આલંબન ભૂત થઈ શકે. સાવરણીનાં છૂટાં પડેલાં તરણુઓને એકીસાથે બાંધનાર દેરીની જેમ મારા આ કુટુંબને એકી સાથે સંપીને રાખનાર તેમજ તેની રક્ષાકરનાર કેણ હશે? જે અત્યારે આવી પરિસ્થિતિ છે તે મારે એ વિચાર છે કે(त सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते विउलं असणं ४ उवक्खडावेत्ता मित्तणाइ
For Private And Personal Use Only
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१८०
antaratit ीका अ० ७ धन्यन्तार्थवाहचरितनिरूपणम् मित्रज्ञातिनिजक स्वजनसम्बन्धिनः परिजनाँश्च चतस्रः स्नुषाः कुलगृहवर्ग च विपुलेन अशनादिना ४ धूपपुष्पवस्त्रगंधादिभिर्यावत् 'सक्कारेचा' सत्कृत्य ' सम्माचा' सम्मान्य मधुरवचनादिना, तस्यैव मित्रज्ञत्यादेः चतसृणां स्नुपानां कुलगृहवर्गस्य पुरतः समक्षं चतसृणां स्नुषाणां ' परिरक्खणट्टयाए ' परीरक्षणार्थ पच आमंतेत्ता) तो मेरी अब इसी में भलाई है कि मैं कल सूर्योदय होते ही प्रातःकाल सूर्य के उदय होने पर विपुल मात्रा में अशन पान, खाद्य, स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार तैयार कराकर मिश्र ज्ञाति, निजक स्वजन सम्बन्धी जनों को तथा परिजनों को चारों अपनी इन पुत्र वधूओं को इनके माता पिता आदिको को भोजनार्थ आमंत्रित करके ( तं मित्तणाइ णियग सयण० य चउन्हं सुण्हाणं कुलघर वग्गं विउलेणं असण ४ धुवपुष्पवत्थगंधं जाव सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइ० चउन्हें सुण्हाणं परिरक्खणट्टयाए पंच २ मालि अक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किव्हं वा सारक्खेइ वा संगोवेह वा संवढे वा ) उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन संबंधियों को परिजनों को चोरों इन अपनी पुत्र वधूओं को और इनके माता पिता आदिकों को उस विपुल अशनादि से और धूप पुष्प, वस्त्र गंध आदि से यावत् संस्कृत करूँ मधुरवचनादि द्वारा उन्हें सन्मानित करूँ । सत्कृत और सन्मानित करके बाद में मैं उन्हीं मित्र ज्ञाति आदि जनों के चारो ओर अपनी इन पुत्र वधूओं के कुल गृह वर्ग के समक्ष इन चारों पुत्र art सुहाणं कुलघरवग्गं आमंतेत्ता) हुं अस सवार थतां सवारे सूर्योदय थतां અશન, પાન, સ્વાદ્ય અને ખાદ્ય આમ ચાર પ્રકારના વિપુલ માત્રામાં આહર તૈયાર કરાવીને મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક સ્વજન, સબંધી તેમજ પરજના અને ચારે પુત્રા ચારે પુત્રવધૂએ તથા એમના માતાપિતા વગેરેને જમવા માટે गोसावीने ( त मित्तणाइ नियगसयण. य चउन्हं सुण्हाणं कुलघरवगं विउले अण ४ धुव पुप्फवत्थगंध जाव सक्कारेत्ता सम्मणेत्ता त्तस्सेव मित्तणाइ० चउ सुक्षणं परिरक्खणट्टयाए पंचरसालि अक्खए दलइत्ता जाणामि तावका fsog'ar enzeègar émàgar #agògar ) (ka, la, fors, za સંબધીઓના, પરનાના, પેાતાની ચારે પુત્રવધૂઓને, અને તેમના માતા પિતા વગેરેના પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં આવેલા અશન વગેરે ચારે પ્રકારના આહારા થી અને ધૂપ, પુષ્પ વસ્ર ગધ વગેરેથી સત્કાર કરૂં તથા મધુરવાણી થી તેમનું સન્માન કર્યું. તેમની સત્કાર તેમજ સન્માનની વિધિ પૂરી કર્યાં બાદ હું મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે તથા પુત્રવધૂઓના કુટુંબીજનોની સામે ચારે પુત્ર
For Private And Personal Use Only
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे पश्च संख्यकान् शाल्यक्षतान् शालिकणान् दत्वा 'जाणामि' जानामि 'ताव' तावत् निश्चयेन 'का' स्नुषा 'किह' कथं केन प्रकारेण 'सारक्खेह' संरक्षयति संगोपयति -संवरणतः, मंजूषादिषु संस्थापनेन गोपनं करोति. अथवा का-वधू ' संवट्टा' सम्बर्धयति बहुत्वकरणतः वपनादिना ? ॥ सू ० २ ॥ __मूलम्-एवं संपेहेइ संहिता कल्लं जाव मित्तणाइ० चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेइ आमंतित्ता विउल असणं ४ उवक्खडावेइ, तओ पच्छा पहाए भोयणमंडवंसि सुहासण. मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गेणं सद्धिं तं विउलं असण ४ जाव सकारेइ सम्माणेइ सकारिता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्त य पुरओ पंच सालि अक्खए गेण्हइ गेण्हित्ता जेट्टा सुण्हा उज्झिया तं सदावेइ सद्दवित्ता एवं वयासी-तुमं णं पुत्ता मम हत्थाओ इमे पंच सालि अक्खए गेण्हाहि गेण्हित्ताअणुपुत्रेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जयाणंऽहं पुत्ता ! तुम इमे पंच सालि अक्खए जाएजा तयाणं तुमं मम इमे पंच सालि अक्खए पडिदिजाएजासि तिकटु सुण्हाए हत्थे दलयइ दलयित्ता पडिधधूओं की परीक्षा के निमित्त उन्हें पांच पांच शालिकणों को दूँ- और देकर यह ज्ञात करूँ कि इन में से कौन पुत्र वधू किस तरह से इनकी रक्षा करती है, कौन पुत्र वधू इन्हें मंजूषा आदि में रखकर गुप्त रखती है और कौन सी पुत्रवधू वपनादि क्रिया द्वारा उन्हे बढाती है। सूत्र '२' વધૂઓની પરીક્ષા માટે તેમાંથી દરેકને પાંચ પાંચ શાલિકણે (ડાંગરના કણે ) આપું અને આપને એ વાતની પરીક્ષા કરૂં કે તેમાંથી કેણ કેવી રીતે તે શાલિકોને સાચવી રાખે છે. કઈ પુત્ર વધૂ શાલિકણને પેટી વગેરે માં મૂકીને ગુપ્ત રાખે છે? અને કઈ પુત્રવધૂ શાલિકણે ને વાવીને તેમની वृद्धि ३ छ १ ॥ सूत्र २ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् ૮૦ विसजेइ, तरणं सा उज्झियां घण्णस्स तहन्ति एयमहं पडिसुणेइ पडिणित्ता धण्णस्स सत्यवाहस्स हत्थाओं ते पंच सालि अक्खए गेहइ गेरिहत्ता एगंतमवक्कमइ एगंतमवक्कमियाए इमेयारूवे अज्झत्थिए० एवं खलु तयाणं कोट्टागारंसि बहवे पल्ला सालिणं पडिपुण्णा चिति । तं जया णं ममं ताओ इमे पंच सालि अक्खए जाइस्सइ तयाणं अहं पलंतराओ अंते पंच सालि अक्खए गहाय दाहामि त्तिकट्टु एवं संपेहेइ संपेहित्ता ते पंच सालि अक्खए एगंते एडेइ एडित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था || सू० ३ ॥
4T
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
टीका- ' एवं संपेहेइ' इत्यादि - एवं उक्तरूपे संप्रेक्षतेमनसि विचार्यते 'संपेहित्ता संप्रेक्ष्य - पर्यालोच्य कल्ये प्रभातसमये, यावत् तेजसा ज्वलति, सूर्ये उगते संति मित्रज्ञाति स्वजनप्रमुखान् चतसृणां स्नुषाणां कुलगृहवर्ग च - पितृगृहसम्बन्धिमाता पित्रादीन्, आमंत्रयति निमन्त्रयति, आमन्त्र्य विपुलमशनादिकं चतुर्विधाहारं उप
' एवं संपेहेइ संपेहिता ' इत्यादि ।
टीकार्थ - ( एवं संपेt) धन्यसार्थवाह ने इस पूर्वोक्त प्रकार अपने मन में विचार किया ( संपेहिता ) विचार करके ( कल्लं जाव मित्तणाइ० चउन्हं सुहाणं कुलवरवग्गं आमंतेइ आमंतित्ता विउलं असणं ४ उबक्खड़ावेइ ) फिर उसने प्रातकाल होते ही सूर्य के उदय हो जाने पर मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि को और चारों ही पुत्रवधूओं के कुल वर्ग को उनके माता पिता आदिको को आमंत्रित किया । आमंत्रित
गृह
'एव' संपेtइ, संपेहित्ता' त्याहि !
टीअर्थ - ( एव संपेहे इ) धन्यसार्थवाडे पूर्वेति ३ये पोताना मनमां वियार ये. (संपे हित्ता) विचार उरीने ( कल्लं जाव मित्तगाइ चउण्ह सुण्ड्राणं कुलघर ari आमंतेइ आमंतित्ता विउलं असणं ४ उवम्खडावे इ) सवारे सूर्य उदययामतां ની સાથે જ તેણે પેાતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજત વગેરેને અને ચરે ચાર પુત્ર વચ્ચેના કુટુ'બીજનાને તેમના માતાપિતા વગેરેને જમવા માટે આમત્રિત
For Private And Personal Use Only
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
शाताधर्मकथाङ्गो स्कारयति-निष्पादयति. ततः पश्चात् स्नातो भोजनमण्डपे सुखासननिषण्णःसुखेनासने उपविष्टः सन् मित्रज्ञाविस्वजनादिभिः साई चतसृणां स्नुषाणां च कुलगृहबर्गेगच सार्द्ध तद्विपुलमशानादिकं भोजयित्वा यावत्सत्कारयति वस्त्रादिभिः संमानयति मधुरवचनादिना, सत्कारं कृत्वा संमानयित्वा तस्य धन्यसार्थवाहस्यैव स्वमित्रज्ञाति प्रमुखाणामग्रे चतसृगां स्नुषाणां कुलगृहवर्गस्य पुरतः पञ्चशाल्य क्षतान् , गृह्णन्ति गृहीत्वा ज्येष्ठा स्नुषा उझिका नाम्नी तां शब्दयति शब्दयित्वा करने के बाद फिर उसने विपुल मात्रा में अशनादि रूप चतुर्विध आहार तेयार करवाया।
(तो पच्छा पहाए भोयण मंडवसि सुहासण• मित्तगाह० चउण्ह य मुण्हाणं कुलघरवग्गेण सद्धिं तं विउलं असणं ४ जाव सक्कारेइ, सम्माणेइ ) जब चतुर्विध आहार निष्पन्न हो चुकी तब वह स्नान करके भोजनशाला में सुख से आसन पर उपविष्ट (बैठगया ) हो गया और मित्र, ज्ञाति एवं स्वजनादि को के साथ २ और अपनी पुत्रवधूओं के माता पिता आदिकों के साथ २ उस चतुर्विध भोजन की विपुल सामग्री का आहार करने के बाद में उन सबका उस ने वस्त्रादि से सत्कार किया तथा मधुरवचनादि से सन्मान किया। (सक्कारित्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ पंच सालि अक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेट्ठा स्तुण्हा उज्झिया तं सद्दावेइ ) जब सबका सत्कार और सन्मान हो चुका तब उस के बाद કર્યા. આમંત્રણ આપ્યા પછી ધન્ય સાર્થવાહે પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન વગેરે ને ચાર પ્રકારને આહાર બનાવડાવ્યું.
(तओपच्छण्हाए भोयणमंडवांसि सुहासण मित्तणाइ. चउण्हय सुण्हाणं कुलघरवग्गेण सद्धिं त विउल असणं ४ जाव सक्कारेइ सम्माणेइ ) न्यारे ચારે જાતને આહાર તૈયાર થઈ ગયે ત્યારે તે સ્નાન કરીને રસોઈ ઘરમાં સુખેથી આસન ઉપર બેસી ગયા અને મિત્ર, જ્ઞાતિ અને પિતાના સ્વજને વગેરેની સાથે તેમજ પોતાની પુત્રવધૂઓનાં સગાં વહાલાંઓ માતાપિતાએ ની સાથે ચારે જાતનાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં તૈયાર કરવા માં આવેલા આહારને જ જમ્યા પછી તેણે વસ્ત્રો વગેરે આપીને તે બધાને સત્કાર્યો તેમજ भधु२ वयनाथी ते अधार्नु सन्मान यु. (सक्कारिता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइ, चउण्हय सुण्हाणं कुलघरवग्गस य पुरओ पंचसालि अक्खए गेहइ, गेण्हिता जेट्ठा सुण्ह उझिया त सद्दावेइ) न्यारे १५ मामत्रित
For Private And Personal Use Only
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरित निरूपणम्
१०१
6
"
एवमवदत् हे पुत्र त्वं खलु मम हस्तादिमान् पञ्च शाल्यक्षतान् गृहाण, गृहीत्वाच 'अणुपुवेणं' अणुपूर्व्या-अनुक्रमेण संरक्षन्ती संगोपायन्ती ' विहराहि ' विहर. । 'जया' यदा यस्मिन् समये खलु हे पुत्र ! अहं ' तुमं ' तवपार्श्वे इमान् पश्च शाल्यक्षतान् ' जाएज्जा' याचय, ' तथा ' तदा तस्मिन् समये खलु 'तुम' हवं मम इमान् पञ्चशाल्यक्षतान् पडिदिज्जासि' प्रतिदद्याः पश्चाद् मह्यं समर्पये, इतिकृत्वा - इत्युक्त्वा ज्येष्ठायाः स्नुषायाः हस्ते ददाति, दत्वा च प्रतिविसर्जयति, धन्य सार्थवाह ने अपने मित्र ज्ञाति आदि जनों के तथा उन चारों जपनी पुत्रवधुओं के कुल गृहवर्ग के सामने पांच शाल्यक्षतो को लिया और लेकर ज्येष्ठा जो पुत्रवधू थी कि जिसका नाम उज्झिका थी उसे बुलाया (सावित्ता एवं बयासी तुमं णं पुत्ता ! मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि, गेण्हिन्ता अणुपुब्वे णं सारक्खेनाणी संगोमाणी विहराहि) बुलाकर उससे ऐसा कहा -पुत्रि ! तुम मेरे हाथ सें इन पांच शाल्यक्षतों को लों और लेकर इन्हें सुरक्षित रखो सम्मा लकर अच्छी तरह से रखो । ( जयाणं अहं पुत्ता ! तुमं इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जतयाणं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिज्जारज्जासि ) जब मैं हे पुत्रि ! तुम से इन पांच शालि अक्षतों को मागू तब तुम मेरे लिये इन्हें पीछे देना ।
( ति सुहाए हत्थे दलयइ ) ऐसा कहकर उसने उस ज्येष्ठ स्नुषा के हाथ मेंउन शाल्यक्षतो को दे दिया । ( दलयित्ता पडिविसज्जेह ) देकर फिर उसे विसर्जित कर दिया ।
મેહમાનાના સત્કાર તેમજ સન્માન થઈ ગયુ. ત્યારે અન્ય સાથવાહે પાત ના મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે સ્વજને તેમજ ચારે પુત્ર વચ્ચેના માતાપિતા વગેરે સગાવહાલાઓની સામે પાંચ શાલિકણા ( ડાંગરના કણા ) લીધા અને पोताना सौथी भोटा पुत्रनी लायो उन्मिने मोवावी. ( सद्दावित्त एवं वयासी तुमं णं पुत्ता ! ममहत्याओ इमे पंचसाडि अक्खए गेण्हाहि गेव्हित्ता अणुपुवेणं सारकखेमाणी संगोवेमाणी विश्राहि ) गोसावीने तेने या प्र કહ્યું “ હું પુત્રિ ! આ પાંચ શાલિકણાને તમે સ્વીકારા અને એમને સારી इतेि सलाजीने सुरक्षित राणे. ( जयाणं अह पुत्ता ! तुम इमे पंच सालिअक्खए जाएज्ज तयाणं तुमं मम इमे पंचसालि अक्खए पडिदिज्जासि ) हे पुत्र ! જ્યારે હું તમારી પાસેથી શાલીકણા માગુ' ત્યારે તમે મને પાછા આપો.
( तिकट्टु सुहाए हत्थे दयइ ) आम उडीने तेथे भोटा पुत्रनी वधूना हाथमां शाली ने भूडी डीषां ( दलयित्ता पडिविसज्जेइ ) शासी
For Private And Personal Use Only
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१९२
शाताधर्मकथाजस्थे ततस्तदनन्तरं खलु सा-उज्झिका नाम्नी वधः धन्यस्य सार्थवाहस्यैतमर्थ 'तहत्ति तथेति कृत्वा-तथास्त्विति कथयित्वा 'पडिसुणेइ ' प्रतिशृणोति स्वीकरोति । 'पडिसुणित्ता' प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य धन्यस्य सार्थवाहस्य हस्तात् ' ते ' तान् पञ्चशाल्यक्षतान् गृहति गृहीत्वा 'एगंतमवक्कमइ ' एकान्तमपक्रामति एकान्त स्थाने गच्छति ‘एगंतमवक्कमियाए' एकान्तमपक्रमितायाः एकान्तं गच्छन्त्याः मनसि 'इमेयारूवे ' अयमेतद्रपः 'अज्झथिए' आध्यात्मिकः-आत्माश्रयो यावत्संकल्पःसमुदपद्यत एवममुना प्रकारेण खलु निश्चयेन 'तायाणं' तातस्य श्वशुरस्य ( तायाणं ) अत्र आदरार्थ बहुवचनं, 'कोट्ठागारंसि' कोष्ठागारे 'वहवे ' बहवः -अनेकसंख्यकाशालिनां 'पल्ला' पल्यकाः-पल्यकामानविशेषा तैः 'पडिपुभा' प्रतिपूर्णाः भृतास्तिष्ठति सार्द्धत्रयमणप्रमितानां धान्यानामेकः पल्लक इत्यभिधीयते ते पल्लका बहवः कोष्टागारे भृताः संतीति भावः । 'तं जया णं ' तद्... (तएणं सा उझिया धण्णस्स तहत्ति एयमढे पडिस्तुणेइ.) चलते समय उस ज्येष्ठ पुत्र वधू उज्झिका ने धन्य सार्थवाह के "तथास्तु" कहकर इस कथनरूप अर्थको स्वीकार करलिया ( पडिसुणित्ता घण्णस्स सत्यवाहस्स हत्याओ ते पंच सालि · अक्खए गेण्हइ ) स्वीकार करके धन्य सार्थवाह के हाथ से उन पांच शाल्यक्षतों को फिर उसने ले लिया।
(गेण्हित्ता एगंतमवक्कमइ ) लेकर फिर वह वहां से एकान्त स्थान में चली गई । ( एगंतमवकमियाए इमेयारूवे अज्झथिए ० ) वहां ओकर उसने ऐसा विचार किया-(पवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि वहवे पल्लासालि णं पडिपुण्णा चिटुंति ) तात-श्वशुरजी-के कोष्ठागार में-अनेक चावलो के पल्यक भरेहुए रक्खे हैं। यहां पल्पक एक प्रमाण विशेष का नाम है । यह ३॥) मन का होता है । तं जयाणं मम ताओ
मापाने तमने पानी आज्ञा मापी. (तएणं सा उज्झि या धण्णस्स तहत्ति एयम, पडिसुणेइ) ती मते मोटर पुत्रनी वधू Aoriti धन्य साथपाउने 'सा' (तथास्तु) मा उडान तनी माज्ञाने स्वी. (पडिसुणित्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स प्रत्याओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हइ ) माज्ञा स्वीर्या पछी ધન્ય સાર્થવાહના હાથથી તેમણે પાંચ શાલિકણે લઈ લીધાં.
(गेण्हित्तो एगतमवकमइ) शालिन नेत त्यांथी त स्थान त२५ ती २ही. ( एगतमबक्कमियाए इमेयारूवे अज्झथिए० ) त्यां मे त२५ भावीन तेणे विया२ ४-( एवं खलु तायाणं कोडागारंसि वहवे पल्लासालिणं पडिपुण्णा चिति ). " भा२१ ससराना 11२मा योमाना ५२॥ ५८यी मारे। छे. ( ५८५४ २ प्रमाण विशेषतुं नाम छे. ते 3॥ भनु डाय छ ) (तं
For Private And Personal Use Only
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममणारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरिचनिरूपणम्
१९३
6
तस्मात् कारणात् यदा यस्मिन् समये खलु मम तातःश्वसुर इमान् पञ्च शाल्यक्षतान् याचिष्यति ' तया णं ' तदानीं तस्मिन्नेव समये खलु अहं 'पल्लंतराओ' पल्लान्तरात् - कोष्टागारमध्ये अन्यतरात्पल्लकात् 'अन्ने' अन्यान् पञ्चशाल्यक्षतान् 'गहाय ' गृहीला 'दाहामि ' दास्यामि, इति कृत्वा - इति मनसि निधाय ' एवं संपेtइ' एवं संप्रेक्षते - चिन्तयति ' संपेहित्ता ' संप्रेक्ष्य - पर्यालोच्य ' ते ' तान् श्वसुर प्रदत्तान् पश्चशाल्यक्षतान् ' एगंते ' एकान्ते ' एडेइ ' एडति - प्रक्षिपतिपातयतीत्यर्थः ' एडित्ता' प्रक्षिप्य ' सकम्मसंजुत्ता' स्वकर्म संप्रयुक्ता-जाताचाप्य भवत् स्वगृहादिकार्यकरणे उक्ताऽऽसीदित्यर्थः ॥सू० ३ ॥
,
मूल्यू- एवं भोगवतियाए वि, णवरं सा छोल्लेइ छोल्लित्ता अगिलइ अणुगिलित्ता जाया, एवं रक्खियावि, णवरं गेण्हइ गेण्हित्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए० एवं खलु ममं ताओ इमस्ल मित्तनाइ० चउण्हय सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ सहावेत्ता एवं वयासी - तुम पुत्ता मम हत्थाओजान पडिदिजा
कि पंच सालि अक्खए जाइस्सइ तयाणं अहं पल्लंतराओ अंते पंच सालिअक्खए गहाय दहामित्ति कट्टु एवं संपेहेइ संपेहिता ते पंच सालि अक्खए एगंते एडेइ, एडित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था ) जब ऐसा कितने ही पल्यंक चावलों के कोष्ठागार में भरे हुए रखे हैं तो जिस समय श्वशुरजी इन पांच शाली - अक्षतों को मुझसे मांगेंगें मैं उसी समय कोष्टागार के मध्य में से किसी एक दूसरे पत्यंक से लेकर इन पांच शालि - अक्षत्रों को दे दूंगी। ऐसा उसने विचार किया । विचार करके बादमें उसने श्वसुरप्रदत्त पांचशालि अक्षतो को एकान्त में दिया । और डालकर फिरवह अपने घर के काम करने में लग गई || सू० ३ ॥
जयाणं ममं ताओत्ति कट्टु पंच सालि अक्खए जाइस्सइ तयाण अहं पल्लंतराओ अते पंच खालि अक्खए गहाय दहामि तिकट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ते पंच सालि अक्खए एगंते एडेइ, एडित्ता सकम्मसंजुता जाया यावि होत्थ । ) જ્યારે, ઘણા પલ્યા ચાખા કાઠારમાં છે તે જે વખતે સસરા પાંચ શાતિકણા માગશે તે વખતે પાંચ શાલિકા કાઠારના પક્ષકામાંથી લઈને તેમને આપી દઈશ. આ પ્રમાણે વિચારીને સસરાએ આપેલા પાંચ શાલિકણાને એટા પુત્રની વધુએ એક તરફ ફેકી દીધા. અને ફૂંકીને પોતાના હમેશાના ઘરકામમાં પરાવાઈ ગઈ. | સૂત્ર "" 3 แ
66
66
शा० २५
For Private And Personal Use Only
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१९४
हाताधर्मकथागसूत्र एजासि तिकटुममहत्थंसि पंच सालि अक्खए दलयइ तं भवियत्वमेत्थ कारणेणं तिकडु एवं संपेहेइ संपेहित्ता ते पंच साल अक्खए सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ पक्खिवित्ता ऊसीसा मूले ठावेइ ठावित्ता तिसंझं पडिजागर. माणी विहरइ ॥ सू० ४॥ ___टीका-एवं भोगवतिकामपि-भोगवती नाम्नों स्नुषामप्याह्वयति नवरं 'सा' भोगवती श्वशुरप्रदत्तपञ्चशालिकणरूपानक्षतान् स्वस्थाने नीत्वा 'छोल्लेइ' तुषरहितं करोति 'छोल्लित्ता' निष्तुषीकृत्य ' अणुगिलइ' अनुगिलति-भक्षयति, ' अणुगिलित्ता' अनुगिल्य भक्षयित्वा 'जाया' स्वकार्यसंप्रयुक्ता जाताचाप्यासीत्-स्वगृहकार्यकरणे लग्नाऽभवदिति भावः । एवमनेनैव प्रकारेण रक्षितामपि-रक्षितानाम्नी तृतीयां स्नुषामप्याहयति, आहूय तेन पंचसंख्याः शालिकणा दत्ताः, नवर सा तान् गृह्णाति, रम गृहीत्वा चायमेतद्रूपः ‘अज्झथिए ' आ
एवं भोगवतिया एवि ' इत्यादि । सूत्र ... टीकार्थ-( एवं भोगवतियाए वि) उसी तरइ भोगवतिका नामकी अपनी पुत्रवधू थी-उसे भी धन्यसार्थवाहने बुलाया (गवरं) इसमें विशेषता केवल इतनी रही कि (सा छोल्लेइ) उसने उन शाल्यक्षतोंको अपने स्थान पर लेजाकर तुषरहित किया (छोल्लित्ता अणुगिलइ ) और तुष रहित कर वहउन्हे खा गई ( अणुगिलित्ता जाया ) खाकर बादमें अपने काम में लग गई । (एवं रक्खिया वि) इसी प्रकार धन्यसार्थवाहने अपनी तीसरी रक्षिता नामकी पुत्रवधू को बुलाया (णवरंगेण्डइ, गेण्हित्ता इमेयारूवे आन्झथिए ० ) बुलाकर उसे भी पांच शालिकणो को दिया ।
‘एवं भोगवतियाएवि' त्यादि --टी -(एव भोगवतियाए वि) ॥ प्रमाणे धन्यसाथ वाडवति। નામની પિતાની બીજી પુત્રવધૂને બોલાવી (જીવ) ભગવતિકાના વિષે વધારાનું એ
न है ( सा छोल्लेइ ) तेथे शामिण पोताना निवास स्थान से न तुप ( २२) १५२ना मनाया (छोल्लित्त। अणुगिलइ ) मने ules नांतरा सा ४शने तेभने मा . ( अणुगिलित्ता जाया ) माया ५छ। तपाताना ममा परेवा 8. (एव रक्खिया वि ) 0 शत धन्यसार्थवा चातानी श्री पुत्रवधू २क्षिताने माताकी (णवर गेण्हइ गेण्हित्ता इमेयारूवे अझंथिए ) मोसावीन तभने ५५५ पांय लि। माया. २क्षिता शालि
For Private And Personal Use Only
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् १९५ ध्यात्मिक-आत्माश्रेयः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगत संकल्पः समुदपद्यत, एवं खलु मां तातः श्वसुरः । इमस्स ' एतेषां मित्रज्ञातिप्रमुखाणां 'पुरओ' पुरतः-समक्ष पुनश्चतसृणा स्नुषाणां कुलगृहवर्गस्य पुरतोऽग्रे शब्दयित्वा चैवमवादीत् वक्ष्यमाणरीत्या मां कथितवान् त्वं खलु पुत्ता' हे पुत्रि ! मम हस्तादिमान् पञ्चशालिकणान् गृहाण गृहीत्वा आनुपूर्व्या संरक्षन्ती संगोपायन्ती विहर, यावद् .यदाऽहं पुनर्याचेय तदा खलु त्वं मह्यमिमान् पञ्चशाल्यक्षतान् ‘पडिदिज्जारज्जासि' पतिदद्याः प्रति समर्पयेः, इति कथयित्वा मम हस्ते पञ्चशालिकणा ददाति ' तं-भवियव्य मेत्य कारणेणं ' तस्माद्भवितव्यमत्र किंचित्कारणमित्येवं 'संपेहेइ ' संप्रेक्षते -पर्यालोचयति विचारयतीत्यर्थः 'संपेहिता' संप्रेक्ष्य-पर्यालोच्य 'ते' तान्
उसने वे ले लिया। लेने के बाद उसे ऐसा विचार आया ( एवं खलु ममं ताओ इमस्त मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हा णं कुलघरवग्गस्स य पुरओ सद्दावेत्ता एवं वयासी) कि ये मेरे तात-श्वसुर-जो मुझे इस मित्र ज्ञाति-आदि मंडली के समक्ष बुलाकर इसतरह कह रहे हैं (तुमण्णं पुत्ता ! मम हत्थाओ जाव पडि दिज्जाएज्जासि तिक? मम हत्यंसि पंच सालि अक्खए दलयइ तं भवियन्वमेत्य कारणेणं ) कि " हे पुत्रि । तुम मेरे हाथसे पांच शाल्यक्षतों को लो और लेकर इन्हे सु रक्षित देखो । जब मैं तुम से इन्हे पीछे वापिस मांगू तो तुम इन पांचो शाल्यक्षतोंको मुझे समर्पित कर देना । सो ऐसा कहकर जो ये पांच शाल्यक्षतो को मुझे दे रहे हैं तो इस विषय में कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिये (त्तिकटूटु एवं संपेहेइ, संपेहिता ते पंच सालि
ने - all मने त्या२ मा तेने L तनो विया लव्यो-( एवं खलु ममताओ इमस्स मित्तणाइ चउण्ह य सुण्हाण कुल बरवग्गस्स य पुरओ सहावेत्ता एवं वयासी)" भा२। सस। पोताना भित्र, ज्ञाति वगैरे तभ यारे પુત્રવધૂઓ ના માતાપિતા વગેરેની સામે મને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહી २६॥ छ-( तुमण्ण पुत्ता! मम हत्थाओ जाव पडिदिज्जोएज्जासि त्ति कटु मम हत्थंसि पंचसालि अक्खए दलयइ तं भवियामेत्थकारणेण)" पत्रि। આ પાંચ શાલિકણે તમે મારી પાસેથી લે અને લઈને એમને સંભાળીને રાખે. જ્યારે હું તમારી પાસેથી શાલિકણે માગુ ત્યારે આ પાંચે શાલિક તમે મને પાછા આપજે. આમ કહીને મને આ શાલિકણે આપી રહ્યા છે તે मेनी ५७०५ गते २५ तो sug ra. (त्ति कटु एवं संपेहेइ संपेहिता ते पंचसालि अक्खए सुद्धे वत्थे बंधड बंधिसा रयण करडियाए पक्खिवह
For Private And Personal Use Only
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथाङ्गस्त्रे पञ्चशाल्यक्षतान् ' सुद्धे' शुद्धे-पवित्रे ' वत्थे ' वस्त्रे 'बंधइ' बध्नाति-'बंधित्ता' वध्वा ' रयणकरंडियाए' रत्नकरंडिकायां-रत्नडिबिकायां ' पक्खिवेइ ' प्रक्षिपति रक्षार्थ स्थापयति 'पक्खिवित्ता' प्रतिक्षिप्य स्थापयित्वा 'उसीसामूले' उच्छीर्षकमूले-उपधानस्याधोभागे ठावेई ' स्थापयति ठावित्ता' स्थापयित्वा 'तिसंझं' त्रिसंध्यं-प्रातमध्याह्नसायंकाललक्षणे 'पडिजागरमाणी' प्रति जाग्रती तद्रक्षार्थ सावधानासती । विहरइ ' विहरति ।। सू० ४ ॥ ___मूलम्-तएणं से धण्णे सत्थवाहे तहेवमित्त जाव चउत्थिं रोहिणीयं सुण्हं सद्दावेइ सदावित्ता जाव तं भणियध्वं एत्थ कारणेणं तं सेयं खलु मम एए पंच सालि अक्खए सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए संबड्डेमाणीए तिकदृ एवं संपेहेइ संपेहित्ता कुलघरपुरिसे सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी - तुब्भेणं देवाणुप्पिया! एए पंच सालि अक्खए गिण्हइ गिणिहत्ता पढम पाउसंसि महावुटिकायंसि निवइयंसि समाजसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेह करित्ता इमे पंच सालि अक्खए अक्खए सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ, पक्खि. वित्ता उसीसामूले ठावेइ, ठावित्ता तिसंझं पडिजागरमाणी विहरइ ) ऐसा जब उसने विचार किया तो विचार करके उसने उन पांच शाल्य क्षतों को शुद्ध वस्त्र में बांधा बांधकर उन्हें फिर रत्ननिर्मित एक डब्बे में रख दिया । रखकर उस डब्बे को उसने उसीसे-के नीचे भाग में सिरहाने के अधोभाग में रख दिया। इस तरह वह प्रातः मध्यान्ह
और सायंकाल में इन तीनों कालों में उसकी संभाल में सावधान होकर रहने लगी। सूत्र " " . पक्खिवित्ता उसीसा मूले ठोवेइ रावित्ता तिसंझं पडिजागरमाणी विहरई:) माम વિચારીને તેણે પાંચ શાલિકને શુદ્ધ વસ્ત્રમાં બાંધીને રત્ન જડેલી એક ડાબલીમાં મૂકી દીધા. ડાબલીમાં મૂકીને તેણે તે ડાબેલીને પિતાના એશીકાની નીચે મૂકી દીધી. આ પ્રમાણે તે સવાર બપોર અને સાંજ આમ
વખત તે ડાબલીને સંભાળીને રાખવા લાગી. તે સૂવ જ છે
For Private And Personal Use Only
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् १९७ वावेह वावित्ता दोञ्चपि तच्चपि उक्खयनिहए करेह करित्ता वाडिपक्खेवं करेह करिता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा अणु पुब्वेणं संवदेह । तएण ते कोडंविया रोहणीए एयमद्रं पडिसुणति ते पंच सालि अक्खए गिण्हंति गिण्हित्ता अणुपुटवेणं सारक्खंति संगोवंति विहरति तएणं ते कोडुंबिया पढम पाउसंसि महावुटिकायंसि णिवइयंसि समाणंसि खुड्डायं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति करित्ता ते पंच सालि अक्खए ववंति दुच्चंपि तच्चंपि उक्खयनिहए करेंति करित्ता वाडिपरिक्खेवं करेंति करित्ता अणुपुवेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्डेमाणा विहरति ॥ सू० ५॥
टीका-'तएणं से धण्णे ' ततस्तदनन्तरं खलु स धन्यसार्थवाह 'तहेव। तस्यैव मित्रादीन यावच्चतुर्थी रोहिणिकां स्नुषां शब्दयति, शब्दयित्वा 'जाव' यावच्छब्देन यथा तृतीया रक्षिका शाल्यक्षतविषये चिंतयति तथैव रोहिणिकापि
___'तएणं से धणे' इत्यादि। ____टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से धण्णे) उस धन्यसार्थवाह ने (तहेव मित्तं जाव चउत्थिं रोहिणीयं सुण्हं सद्दावेइ ) उसी तरह मित्रादि परिजनों के समक्ष अपनी चतुर्थ पुत्रवधू कि जिमका नाम रोहिणी था उसे घुलाया ( सहावित्ता जाव तं भणियन्वं) बुलाकर उसे पांच शाल्यक्षत देकर उन्हें सुरक्षित रखने के लिये उससे कहा। ___ श्वसुर की बात सुनकर जिस प्रकार प्राप्त शाल्यक्षतों के विषय में तृतीय पुत्रवधू रक्षिका ने विचार किया था उसी तरह इस चतुर्थ पुत्रवधू
'तएण से धण्णे ' त्या !
साथ-(तएण) त्या२ मा (से धण्णे) धन्य सापा (तहेव मित्तं जाव चउस्थि रोहिणीयं सुण्हं सहावेइ) A1 प्रमाणे १ भित्र कोरे समधीयानी सामे पोतानी याथी पुत्र १५ डिशीन मासावी. ( सहावित्ता जाव त भणियव्व) બોલાવીને તેણે પાંચ શાલિકણે આપીને તેઓને સુરક્ષિત રાખવા માટે કહ્યું,
સસરાની વાત સાંભળીને રહિએ ત્રીજી પુત્રવધૂ રક્ષિકાએ જેમ વિચરે કર્યો તેમજ તેણે પણ આ વિષે ઘણી જાતના વિચાર કર્યા. છેવટે તે
For Private And Personal Use Only
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे विविधप्रकारेण चिन्तयति, 'तं भणियव्वं' तस्माद्भवितव्यमत्र किश्चित्कारणेन मम तातेन श्वसुरेण मह्यं पंच शाल्यक्षता दत्ताः, तत्र कोऽपि हेतुरस्ति । 'तं' तद् तस्मा
कारणात् । सेयं ' श्रेयः सुखकरमेतदेव खलु मम 'एए' एतान् पश्च शाल्यक्षतान् संरक्षन्त्याः । संगोपायन्त्याः संवर्द्धयन्त्याः इति निश्चित्य एवं संप्रेक्षते= पर्यालोचयति, संप्रेक्ष्य च कुलगृहपुरुषान् कृषिकर्मनिपुणनिजकुटुम्बपुरुषान् शब्दयति आह्वयति शब्दयित्वा चैवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत् , हे देवानुप्रियाः यूयं खलु एतान् पंचशाल्यक्षतान् गृह्णीत गृहीत्वा 'पदमपाउसंसि' प्रथम प्राषि वर्षाकालप्रारम्भसमये ' महाबुटिकायंसि ' महावृष्टिकाये निवइयंसि समाणंसि' निपतिते सति महावृष्टिरूपेण जलराशि रूपेऽप्काये भूमौ निपतिते सतीत्यर्थः रोहिणीकाने भी विविधरूप से विचार किया। अन्त में इस निष्कर्ष पर वह पहुँची कि श्वसुरजोने जो ये पांच शाल्यक्षत मुझे दिये हैं
और इनकी रक्षा आदि करने के विषय में जो मुझ से कहा है सो इसमें कोई न कोई कारण अवश्य है । (तं सेयं खलु मम एए पंच सालि अक्खए सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए संबडेमाणीए त्तिक? एवं संपेहेइ ) इसलिये मुझे यही सुखकर है कि मैं इन पांच शाल्यक्षतों की रक्षा करूँ इन का संगोपन और संवर्द्धन करूँ। ऐसा निश्चय कर उसने यह पूर्वोक्त रूप से विचार किया । ( संपेहित्ता कुलघरपुरिसे सद्दावेह ) विचार कर फिर बाद में उसने कृषिकर्म करने में निपुण अपने कुटुम्ब के पुरुषो को बुलाया । ( सद्दावित्ता एवं वयासी ) बुला कर ऐसा कहा(तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! एए पंच सालि अक्खए गिण्हह गिण्हित्ता पढमपाउसंसि महाडिकायंसि निवइयंसि समाणंसि खुड्डागं केयारं
એ નિર્ણય ઉપર આવી કે સસરાએ મને પાંચ શાલીકણે આપ્યા છે અને તેઓની રક્ષા માટે મને જે કંઈ કહ્યું છે તેની પાછળ કંઈને કંઈ કારણ તે ચોકકસ डाg or . (त सेयं खलु मम एए पंच सालि अक्खए सारक्खेमाणीर संगोवेमाणीए सवइढेमाणीए त्ति कटुएवं सपेहेइ) तो भारी सन १२०४ छ કે હું તેઓની રક્ષા કરૂં તેઓનું સંગેપન તેમજ સંવર્તન કરૂં. આ પ્રમાણે शडिया से पांय लिने भाटे पिया ध्या. ( सपेहित्ता कुलघरपुरिसे सहावेइ ) विया२ अरीने तेणे कृषि ४२वामा मेटले थे.वामा यतुर सेवा पोताना अपना भासाने मोवाव्या. ( सहावित्ता एवं वयासी) બોલાવીને તેણે આ રીતે કહ્યું(तुभेण देवाणुप्पिया! एए पंच सालि अखए गिण्हइ गिहित्ता पढम पाउसंसि महावुड्ढिकायांसि निवयसि समाणसि खुडागं केयार सुपरिकम्मिय करेह)
For Private And Personal Use Only
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् १९९ 'खुड्डाग ' क्षुलकं कयार ' केदार क्षेत्रं क्यारा, इति भाषा प्रसिद्धं 'सुपरि कम्मियं ' सुपरिकर्मित शाल्यक्षतवपनयोग्यं करेह ! कुरुत, कृत्वा च 'इमे' इमान् पञ्चशील्यक्षतान 'वावेह ' वपत प्ररोहार्य क्षेत्र प्रक्षिपत, उप्त्वा क्षेत्रो वपनं कृत्वा द्वितीयमपि तृतीयमपि वारं ' उक्खयनिहए ' उत्खातनिहतान् क्षेने जातान पुनस्तान् वर्धनाथ द्वित्रिवारम्-उत्पाटय अन्यत्र क्षेत्र समारोपितान् ‘करेह' कुरुत एकस्मात् स्थानादन्यस्थाने रोपयत ‘करित्ता' कृत्वा-रोपयित्वा, 'वाडिपडिक्खेवं ' वाटिकापरिक्षेपं = प्राकाराकारेण वाटिकां कुरुत कृत्वा संरक्षन्त, संगोपायन्त आनुपूर्त्या अनुक्रमेण 'संवदेह' संवर्धयत । सुरिकम्मियं करेह.) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग इन पांच शालि अक्षतो को लो-और लेकर जब सर्व प्रथम वर्षाकाल के प्रारम्भ में जलराशि रूप अप्काय महा वृष्टिरूप से भूमि पर गिरे तो उस समय तुम छोटी सी एक क्यारी में शालि अक्षतों को योने के योग्य करो ( करित्ता इमे पंच सालि अक्खए वावेह वावित्ता दोच्चपि तच्चपि उक्खय निहए करेह, करित्ता वाडिपक्खेवं करेह करित्ता सारवखेमाणा संगोवेमाणा अणुपुब्वेणं संबड्वेह ) जब वह क्यारी अच्छी तरह से परिकर्मित हो जावे तो उसमें इन पांच शालि अक्षतों को तुम लोग बो दी। ... ___घोकर दुबारा तिघारा उन्हे उत्खात निहत करो-अर्थात् जब वे खेत में-क्यारी में-अंकुररूप से उत्पन्न हो जावे तब उन्हें वृद्धिंगत करने के लिये वहां से उखाड़ो और फिर दूसरी जगह-क्यारी में उन्हें आरोपित करो। इस तरह दो तीन बार करो। करके फिर उस खेत को वाड़ी से परिवृत करो-प्राकार के आकार जैसी कांटो की बाड़ से હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે આ પાંચ શાલિકણે છે અને વર્ષાકાળ ના પ્રારંભમાં અપૂકાયમહાવૃષ્ટિ રૂપે જળ વૃષ્ટિ થાય ત્યારે તમે નાની સરખી એક કયારી २ मा शासि वी शत शते योग्य नाव, (करित्ता इमे पंच सालि अक्खए वावेह वावित्ता दोच्चापि तच्चापि उक्चइ निहए करेह, करित्ता वाडि पक्खेव करेह करिता सारखेमाणा संगोवेमाणा अणुपुट्वेण सवडूढेह) यारी જ્યારે સરસ રીતે તૈયાર થઈ જાય ત્યારે તેમાં આ પાંચે શાલિકણેને વાવજો.
વાવીને બીજી અને ત્રીજી વખત ઉખાત નિયત કરે એટલે કે જ્યારે શાલિકણે કયારીમાં છ મી જાય ત્યારે તેઓના વર્ધન માટે તે સ્થાનેથી ઉપાડીને ફરી બીજે સ્થાને છે. આ પ્રમાણે તમે બે ત્રણ વખત કરે આમ કરીને તમે તે શાલિકણવાળી કયારીની ચેમેર કાંટાઓની વાડ બનાવે. આ
For Private And Personal Use Only
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२००
बाताधर्मकथागस ततस्तदनंतरं खलु ते कोटुम्बिकपुरुषाः रोहिण्या; एतमर्थ शाल्यक्षतसंवधनरूपमर्थ प्रति शृण्वन्ति-रोहिणी कथनानुसारेण स्वीकुर्वन्ति स्वीकृत्य च तान् पञ्च शाल्यक्षतान् गृह्णन्ति गृहीत्वा चानुपूर्वण क्रमेण संरक्षन्ति संगोपायन्ति, 'वि. हरंति' आसते । ततस्तदनन्तरं खलु ते कौटुम्बिकाः पुरुषाः प्रथममापि महावृष्टिकाये निपतिते सति क्षुलकं केदारं सुपरिकर्मितं शालिवपनयोग्यं कुर्वन्ति कृत्वा च तान पंच शाल्यक्षतान् वपन्ति द्वितीयमपि तृतीयमपि द्वित्रिवार 'उक्खय निहए ' उत्खात निहतान मूलस्थानादुत्पाव्य अन्यत्र स्थाने समारोपितान कुर्वन्ति कृत्वा वाटिका परिक्षेपं कुर्वति कृत्वा च आनुपूा अनुक्रमेण-संरक्षन्तः-सम्यक रक्षां कुर्वन्तः संगोपायन्तः संवर्धयन्तो विहरन्ति ॥ सू० ५ ॥ उसे घेर दो-और घेर कर उस की रक्षा करो-उपद्रवों से उसे पचावो इस प्रकार क्रमशः इन शालि अक्षतों को तुम लोग बढाओ। (तएणं ते कोडुंबिया रोहिणीए एयमढे पडिसुणंति ते पंचसालि अक्खए गिण्हंति गिणिहत्ता अणुपुत्रेणं सारखेति संगोवंति विहरति ) रोहिणिका के इस शालि अक्षत वर्धनरूप अर्थ को उन कौटुम्बिक पुरुषों ने स्वीकार कर लिया और उन पांच शालि अक्षतों को उससे ले लिया। लेकर रोहिणीका के कहने के अनुसार क्रमशः उन सब ने रक्षा की और उपद्रवों से उन्हें बचाया।
(तएणं ते कौटुंषिया पढमापाउसंसि महा धुडिझायसि णिवइयंसि समाणंसि खुड्डीय केयारं सुपरिकम्मियं करंति, करित्ता ते पंच सालि अक्खए ववंति दुच्चपि तच्चपि उक्खय निहए करेंति, करित्ता वाडि परिक्खेवं करेंति, करिता अणुपुत्वेणं सारक्खेमाणा संगोवेमाणा संबપ્રમાણે તમે તે વાવેલા શાલિકણની વિવિધ રીતે સંભાળ પૂર્વક રક્ષા કરતાં ४२i मार्नु १ ४२१. (तएण ते कोडुबिया रोहिणीए एयमढे पडिसुणति ते पंच चालि अक्खए गिण्हति गिण्हित्ता अणुपुम्वेण सारखें ति सगोवंति विहरति) રોહિણના-શાલિકાના વર્ધન માટેના બધા સૂચને કૌટુંબિક પુરુષેએ સ્વીકાર્યા, અને પાંચે શાલિકોને તેમની પાસેથી લઈ લીધા. લઈને રોહિણીની સૂચના મુજબ શાલિક ની તેમણે ઉપદ્રવથી રક્ષા કરી.
(तएण ते कौडुबिया पढमापाउससि महाबुढि काय सि णिवइयासि समाण सि खुइडीय केयार सुपरिकम्मियं करेति, करिता ते पंचसालि अक्खए ववति दुच्चपि तच्चापि अक्खए निहए करें ति, करित्ता वाडिपरिक्खेव करे ति करिता अणुपुत्वेण सारक्खेमाणा संगोवेमाणी संवढेमाणा विहरति ) / ना
For Private And Personal Use Only
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् २०१
मूळम्-तएणं ते साली अणुपुटवेणं सारक्खिजमाणा संगोविजमाणा संवड्डिजमाणा सालीजाया किपहा किण्हो भासा जाव निउरंबभूया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तएणं साली पत्तिया वत्तिया गम्भिया पसूया आगयगंधा खीराइया बद्धफला पक्का परियागया सल्लइया पत्तइया हरिय. पव्वकंडा जाया यावि होत्था, तएणं ते कोडुंबिया ते सालिए पत्तिए जाव सल्लइयपत्तइए जाणित्ता तिक्खेहिं णव पजण. एहि असियएहिं लणति लुपिता करयलमलिए करेंति, करिता पुणंति, तस्थणं चोक्खाणं सूयाणं अवखंडाणं अप्फुडियाणं छड्डछडापूयाणं सालीणं मागहए पत्थए जाए । तएणं ते कोडुबिया ते साली णवएसु घड़एसु पक्खिवंति पक्खिवित्ता
डेमाणा विहरंति) जय सर्व प्रथम वर्षा काल के प्रारंभ में जलराशी रूप अपूकाय महा वृष्टि के रूप भूमि पर बरसा तब उन लोगों ने शालि वपन के योग्य एक छोटाक्यारी बनाया। बनाकर उस में उन पांच शालि अक्षतों को बो दिया । बाद में जब वे अंकुर के रूप में उत्पन्न हो गये-तष उन्हे मूलस्थान से उखाड़ कर दूसरे स्थान में आरोपित कर दिया। इस तरह दो तीन बार उन्हें उखाड़ और आरोपित किया पश्चात् उस खेत को बाड़ से परिवृत कर दिया। इस प्रकार कर के उन सब ने क्रमशः उनकी रक्षा की-उपद्रवों से उन्हें बचाया और उन्हें बहाया ॥ सू०५ ॥
પ્રારંભમાં જ્યારે સૌ પ્રથમ અપકાય મહાવૃષ્ટિ ને રૂપમાં જળ વર્ષા થઈ ત્યારે તે લેકેએ શાલિકણને વાવવા યોગ્ય એવી એક નાની સરખી કયારી બનાવી
નાની કયારી બનાવીને તેઓએ તેમાં પાંચ શાલિકાને વાવ્યા, જ્યારે શાલિકણે અંકુરિત થયા ત્યારે તેઓએ તેમના પિતાના મૂળ સ્થાનેથી ઉપાડીને બીજા સ્થાને રેપી દીધા. ત્યાર બાદ ક્યારીને તેઓએ કાંટાની વાડ કરી લીધી. આ પ્રમાણે તે લકે એ યથાક્રમે વાવેલા શાલિકણની રક્ષા કરી, ઉપકોથી તેમની સંભાળ રાખી અને તેમનું વર્ધન કર્યું. આ સૂત્ર “પ”
हा २६
For Private And Personal Use Only
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२०२
शाताधर्म कथाङ्गसूत्रे उवलिंपंति, उवलिंपित्ता लंछियमुदिए करेंति, करित्ता कोट्टागारस्स एगदेसंसि ठावेंति, ठावित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा विहरति । तएणं ते कोढुंबिया दोच्चमि वासरत्तसि पढम पाउसंसिं महाबुटिकायंसि निवइयंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं निवइयंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करोति ते साली ववंति दोच्चंपि तच्चपि उक्खयणिहए जाव लुणेति जाव चलण तलमलिए करेंति, करेत्ता पुणंति तत्थणं सालीणं बहवे कुडवा जाव एगदेसास ठावेंति ठावित्ता सारक्खमाणा संगोवेमाणा विहरंति।तएणं ते कोडुंबिया तच्चंसिवासारत्तसि महावुट्टिकार्यसि निवइयंसि बहवे केयारे सुपरिकम्मिए जाव लुणेति लुणत्ता संवहंति संवहित्ता खलयं करेंति खलयं करित्ता मलोत जाव बहवे कुंभा जाया, तएणं ते कोडुबिया साली कोट्ठागारंसि पक्खिवंति जाव विहरंति चउत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया ॥ सू० ६ ॥ - टीका-ततस्तदनन्तरं खलु ते शालय आनुा संरक्ष्यमाणाःसंगोप्यमानाः संवद्धर्थमानाः शालयः 'जाया' जाता:-निष्पन्नाः किंभूताः ? किण्हा ' कृष्णाः वर्णतः श्यामाः 'किण्होभासा ' कृष्णावभासाः कृष्णच्छायाः श्यामकान्तयः यावद्
तएणं ते साली अणुपुव्वेणं' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से साली) अन्य खेत में आरोपित की गई वह शाली ( अणुपुग्वेणं) क्रम २ से (सारक्खिज्जमाणा, संगोविजमाणा संवडिज्जमाणा साली जाया) उन लोगों से रक्षितकी जाकर संगोपित की जाकर बढाई गई सो खूब वढ गई (किण्हा किग्हो भासा, जाव
'तपण ते साली अणुपुञ्वेण । त्याह
साथ-(तएण) त्या२।४ (ते सालो) vilon मेतरमा SIो पावेया ति ४। (अणुपुत्वेण) यथा (सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा, संवढिजनमाणा सालीजाया) तेमाथी २क्षित, सगापित तभर पति ने पू०१ वृद्धि पाभ्या. (किण्हा किण्होभासा जोव निउर बभूया, पासाईया दरसणिज्जा, अभिरूवा )
For Private And Personal Use Only
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् २०३ 'मेह निउवभूया' मेघनिकुरम्बभूता अन्योन्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशात् घन निरंतरच्छायरमणीयमेघानां निकुरंबः समूहस्तद्वत् शोभाशालिन इत्यर्थः अतएव 'पासाईया' प्रासादीयाः दर्शकमनः प्रसन्नता हेतुत्वात् ' दरिसणिज्जा' दर्शनीयाः नेत्रानन्दकारित्वात् ' अभिरूवा ' अभिरूपाः कमनीयत्वात् ' पडिरूवा' प्रतिरूपा- सर्वथा चित्तहारित्वात्. । ततस्तदनन्तरं खलु 'साली' शालयः 'पत्तिया पत्रिता-पत्रयुक्ता जाता 'वर्तिताः-वृत्ताकारतया वर्तुला जाता नालरूपतया शाखादिना समतया वा वृत्तभावं प्राप्ताः 'गम्भिया' गर्भिताः प्रवर्धनानन्तरं जातगर्भाः= अन्तः सातमञ्जरिका इत्यर्थः ‘पमूयाः' प्रसूता निस्सृतमञ्जरिकाः 'आगयगंधा' आगतगन्धाः सर्वतः प्रसरत्सुरभिगन्धाः 'खीराइया ' क्षीरकिता:= समुत्पन्नदुग्धाः, “वद्धफला' 'बद्धफलाः क्षीरस्य कणरूपेण परिणामादुत्पन्नफला 'पक्का ' पक्वाः कणानां परिपाकात् परिपुष्टा परियागया ' पर्यायागता. सर्वावयवेन पक्कावस्थामुपगताः । ' सल्लइया' शलाकिताः शुष्कपत्रत्वेन निकुरंबभूया, पासाईया, दरसणिज्जा, अभिरूवा पडिरूवा ) वर्ण से वह काली हो गई आभा भी उसकी काली निकलने लगी । यावत् वह मेघ निकुरम्ब समूह जैसी हो गई ।
शाखा प्रशाखाओ के परस्पर में प्रवेश से, सान्द्र और अन्तर रहित छाया से रमणी य मेघों के समूह की तरह वह शोभित होने लगी। जो भी कोई उसे देखता तो उसका मन आनन्द से खिल उठता। नेत्रों को उसके दर्शन से बहुत अधिक शीतलता प्राप्त होती। इस लिये वह कमनीय और प्रतिरूप बन रही थी। चित्ताकर्षक थी और बहुत अधिक मनोज्ञ थी। (तएणं साली पत्तिया, वत्तिया, गम्भिया, पसूया, आगय गंधा खीराइया, बद्धकला, पक्का, पड़ियागया, सल्लइया, पत्तइया हरियपव्यकंडा, जाया यावि होत्थो ) धीरे २ समयानुसार वह તે શ્યામ રંગના થઈ ગયા. તેમનામાંથી કાળી આભા કુટવા લાગી. યાવત્ તે મેઘનીકુરબ જેવાં થઈ ગયા. - આ રીતે વાવેલી તે ડાંગર શાખા પ્રશાખાઓના પ્રવેશથી સાંદ્ર તેમજ સઘન છાયાથી રમણીય મેવ સમૂહો જેવી શોભવા લાગી. જે કે તેના સૌંદર્ય ને તું ત્યારે તેનું મન હર્ષઘેલું થઈને નાચી ઉઠતું હતું. તેને જોવાથી નેત્ર શીતળતા અનુભવતા હતા. એથી તે કમનીય અને પ્રતિરૂપ લાગતી હતી. તે थित्तने मा नारी तर म भनो २ ता. (तएण' साली पत्तिया, वत्तिया, गम्भिया, पसूया आगमगंधा, खीराइया बद्धफला पकापडियागया, सलइया
For Private And Personal Use Only
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२०४
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे शलाकारूपेणावस्थिताः ' पत्तइया' पत्रकिता: पापत्राणां प्रायशः क्षरणादल्प पत्राः, ' हरियपत्रकंडा' हरितपर्वकाण्डाः-हरितानि=परिपक्वतया हरितालवर्णानि आशुकानि प्रादुर्भवदकुरवत्पीतवर्णानि - पर्वकाण्डानि येषां ते तथा, जाताश्चाप्यभवन् सम्पूर्णतया परिपक्वा जाता इत्यर्थः। ततः खलु ते कौटुम्बिका तान् शालीन् शाली-धान्य-पत्र युक्त होने लगी, आकार में गोल २ दिखलाई देने लगी । नाल के ऊपर शाखा आदि-अवयव समान रूप से नीचेकी और छत्तो के समान झुक गये थे इसलिये वह आकार मे गोलाकार दिखलाई देती थी। जब वह अच्छी तरह वर्धित हो चुकी तब उसमें भीतर मंजरी आगई और बाहिर निकल आई । चारों और सुगंधि उसमे से फैलने लगी।
धीरे २ उस मंजरीमे दूध भा उत्पन हो गया। और वह दुग्ध कणरूप से परिणम गया इससे उस मंजरी में अन्न भी आगये। वे अन्नके दाने भी परिपक्व हो गये संपूर्ण रूप से अच्छी तरह पककर पुष्ट हो गये । इस तरह जब वह शालि-धान्य पककर तैयार हो गई -तब उसके पत्ते शुष्क हो चले और वे शलाई के आकर में उसमें लटकने लगे। धीरे २ कुछ २ पके हुए पत्ते उसमें से क्षरित भी हो गये । इसलिए उसमें बहुत कम पत्ते लगे हुए रह गये । उसके पर्व काण्ड परिपक्व होने के कारण प्रादुर्भवित अंकुर के समान पीले हो गये। पत्तइया, हरिय पव्वकंडा जाया यावि होत्था) समय तi यथामे ते २ પાંદડા વાળી થવા માંડી. આકારમાં તે ગોળ દેખાવા લાગી. ડાંગરની દાંડીની ઉપર નાની શાખાઓ વગેરે અવય સરખી રીતે છતરીના આકારમાં નીચે નમેલાં હતાં એથી જ તે આકારમાં ગોળ દેખાતી હતી. જ્યારે તે સારી પેઠે મોટી થઈ ગઈ ત્યારે તેમાં મંજરીઓ નીકળી. અને તેની સુવાસ ચોમેર પ્રસરી ગઈ.
ધીમે ધીમે મંજરીઓમાં દૂધ ઉત્પન્ન થયું અને યથા સમયે તે દૂધ તેમાંજ કોના રૂપમાં બંધાવા લાગ્યું. આમ સમય જતાં શાલિકણે સંપૂર્ણ રીતે પરિપકવ તેમજ પુષ્ટ થઈ ગયા. આ રીતે જ્યારે તે શાલિબાન્ય નો પાક તૈયાર થઈ ગયે ત્યારે તેના પાંદડાં સૂકાઈ ગયાં અને તે શલાકા (સળી) ના આકારે તેમાં લટકવા લાગ્યા. તેમાં લટકવા લાગ્યાં ધીમે ધીમે પાકેલાં પાંદડાં તેમાંથી ખરવા લાગ્યાં. એથી ખૂબજ થેડાં પાંદડાં તેની ઉપર રહી ગયાં. તેને ૫ર્વકાંડ (છોડની બે ગાંઠ વચ્ચેને ભાગ) પરિપકવ થઈ જવાથી પ્રાઃવિત અંકરની જેમ પીળો થઈ ગયો હતે.
For Private And Personal Use Only
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२०५
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् पत्रितान् यावत् शल्यकित पत्रकितान् ज्ञात्वा तीक्ष्णैः ‘णवपज्जणएहिं ' नवपा. यनकै-नवानि-नवीनानि पायनकानि-लोइकारेण तापितानि कुहितानि तीक्ष्णधारी कृतानि कृत्वा पुनस्तापयित्वा जले निबोलनानि येषां तानि, तैः ‘असियएहिं ' 'असिय' इति दात्रार्थकोऽयंदेशी शब्दः दात्ररित्यर्थः, लुनन्ति=छेदयन्ति, लविला 'करतलमलिए ' करतलमृदितान् कर लघर्षणेतान् कुर्वन्ति, शालिकणान् मञ्ज रीतो निस्सारयन्तीत्यर्थः पुणंति' नन्ति पलालादीनपसारयन्ति तत्र खलु= . (तएणं ते कौटुंबिया ते सालीए पलिए जाव सल्लाय पत्तइए जाणित्तो तिक्खे हिं णवपज्जणएहिँ असि एहिं लुणेति, लुणित्ता करयलमलिए करेंति, करित्ता पुणंति, तस्थणं चोक्खाणं सयाणं अक्खंडाणं अप्फुडियाणं छड्डुछडापूयाणं सालीणं मागहए पत्थए जाए ) इस तरह जब वह शालि-सस्य पूर्णरूप पककर तयार हो गई और जब उन कौटुम्बिक पुरुषोंने उसे पत्रित यावत् शाल्यंकित पत्रांकित-पके हुए पत्तो वाली और शालि से युक्त देखा तो उसे पूर्ण पकी हुई जानकर तीक्ष्ण नव पायनक वाले दात्रों से-हैसियोंसे उन लोगों ने उसे काट लिया।
"लुहार के द्वारा जो तापित और कुटित कर पहिले तीक्ष्ण धारी वाले बनाये गये ये हैं और बाद में फिर तापित कर जलमें बुझाये गये हैं" यह " नव पायनक" इस शब्द का अर्थ है । यह " आसिएहिं" यह हसिया (दात्र ) वाचक देशीय शब्द हे । काटकर फिर उन्होंने उसशालि मंजरी में से हाथों से मर्दित कर शालिकगों को निकाला।
(तएण ते कौडुबिया ते सोलीर पत्तिए जाव सल्लइय पतइए जाणितो तिखेहिं णवपज्जणएहि आसियएहि लुणेति लुणित्ता करयलमालिए करें ति, करिता पुणति तथण चोक्खाण सयाण अक्खंडाण अफडियाण छड्डछडापूयाण साली ण मागहए पत्थए जाए ) 21 प्रमाणे न्यारे ते सिधान्य पू९३पे परिप થઈને તૈયાર થઈ ગઈ ત્યારે કૌટુંબિક પુરુષોએ તેને પત્રિત યાવત શલ્યક્તિ પત્રાંતિ એટલે કે પાકેલાં પાંદડાં વાળી જોઈ ત્યારે તેને પૂર્ણરૂપે પરિપકવ થયેલી જાણીને તીક્ષણ ધારવાળી દાતરડીથી તેને કાપી નાખી.
લહાર વડે તપાવી તેમજ ટીપીને પહેલાં તીક્ષણ ધારવાળાં બનાવવામાં આવે અને ત્યા બાદ ફરી તપાવીતે પાણીમાં ઠંડાં કરવામાં આવે તેને “નવ. पायन' वामां आवे छे.
मासिमडिं। माहात्र (हातरी) पाय देशी २५ छ.। ડાંગરને કાપીને તેઓએ શાલિમંજરીઓને હથેળીથી મસળીને શાલીક ટા પડયાં. ભૂસાને તેએાએ ત્યાંથી દૂર કર્યું. આ રીતે તે સ્થાન ભૂસુ
For Private And Personal Use Only
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२०६
ज्ञाताधर्भकथाङ्गसत्र तस्मिन् स्थाने ' चोक्खाणं ' चोक्षाणं कचवरनिस्सारणेन स्वच्छानाम् ' सूइयाणं' शूकितानां शूकयुक्तानां वपनयोग्यानामित्यर्थः ' अक्खडाणं' अखण्डानाम् अक्षतानाम् ' अप्फुडियाणं ' अस्फुटितानाम् अत्रुटितानाम् 'छड्डछडापूयाणं ' छडछडापूतानोम्- 'छड-छड ' शब्दपूर्वक सूर्यादिना शोधितानां शाल.नां शालिकणानां 'मागहए 'मागधकः- मगधदेशप्रसिद्धः, 'पत्थए' प्रस्थक-मानविशेषो जातः, मागधपस्थपरिमिताः शालयः संजाता इत्यर्थः।
ततः खलु ते कौटुम्बिकास्तान् शालीन् ‘नवएसु ' नवकेषु-नूतनेषु घटेषु लघुकलशेषु पक्विवंति' प्रक्षिपन्ति स्थापयन्ति भरन्तीत्यर्थः, उत्क्षिप्य ' उवलिंपंति ' उपलिम्पन्ति घटमुखे पिधानकस्य गोमयादिना संयोजनेन मुख निरोधं कुर्वन्ति उपलिप्य · लंछियमुहिए' लामिछमुद्रितान् लाञ्छिता रेखादिउसके प्यार आदिको पलोल को-वहां से हटाया । इस तरह उसस्थान में चोखे-कूड़ाकरकट निकलजाने से बिलकुल स्वच्छ हुए-शक युक्त -चपन योग्य ऐसे अखंड-अक्षत-सावित-टूटे नहीं तथा छड़ छड़ शब्द पूर्वक मूपादि से शोधित किये गये शालिकण निकले जो मगध देश प्रसिद्ध १ प्रस्थ प्रमाण हुए। (तएणं ते कौटुंबिया ते सालि णवएस्तु, घडएसु, पक्खिवंति पक्खिवित्ता उवलिपति, उवलिंपित्ता लंछियादिए करेंति, करित्ता कोट्टागारस्स एगदेसंसि ठाति, ठावित्ता सारक्खेमाणा, संगोवेमाणा विहरंति ) इस के बाद उन कौटुम्बिक पुरुषोने उन शालिकणों को नवीन छोटे २ घडों में भरकर रख दिया। भरने के बाद उन घडोंका मुख ढंक दिया और उसे गोबर आदि से लीपकर बंदकर दिया। बन्द करके फिर उन घडों को रेखादि चिह्न વગેરે સાફ કરવાથી સ્વચ્છ શાલિકણે શુક યુક્ત-વાવવા યોગ્ય, અખંડ-અક્ષત સૂપ વગેરે, થી છડે છડ શબ્દ કરાવડાવીને સાફ કરેલાં શાલિકણે નીકળ્યા. तशासी भगवश प्रसिद्ध से प्र२५ प्रमाण ता. (तएण ते कौडुबिया ते मालिणवएसु घडएसु पक्खि ति पविखवित्ता, उवलियति उबलिंपित्ता लछि यमुहिए करेति, करित्ता कोडागारस्स एगदेसंसि ठावेंति, ठावित्ता सारखेमाणा, संगोवेमाणा विहरंति ) त्या२ मा टुमि पुरुषाये शामियाने ना नाना નાના કળશમાં ભરીને મૂકી દીધા.
ત્યાર બાદ કળશના મેં ઢાંકીને તેમને છાણ વગેરેથી લીપીને બંધ કરી દીધા. કળશને બંધ કરીને રેખાઓ વગેરેથી તેમને ચિહ્નિત કરીને તેમના ઉપર નામની મહોર લગાવી દીધી. ત્યાર પછી ભંડારમાં એક તરફ કળશને
For Private And Personal Use Only
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतषिणी टोक १० ७ धन्यसार्थवाहचिरितनिरूपणम् २०० चिनेन चिह्निताः,मुद्रिताः नाममुद्रादिनाऽङ्कितास्तान् कुर्वन्ति, कृला 'कोट्ठागारस्स' कोष्ठागाहस्य एकदेशे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा संरक्षन्तः संगोपायन्तो विहरन्ति ।
ततः खलु ते कौटुम्बिका द्वितीये वर्षाराने द्वितीयवर्षसम्बन्धि चातुर्मास्यकाले प्रथममापि प्राट् प्रारम्भसमये महारष्टिकाये निपतिते महावर्षायां सत्या क्षुल्लक केदारं : सुपरिकम्मियं ' सुपरिकर्मितं-विशिष्ट लक्ष्णमृत्तिकादिदानेन हलकुद्दालादिनोत्खनने च संस्कारितं कुर्वन्ति, कृत्वा तान् शालीन् वन्ति 'दोच्च पि तच्चंपि' द्विरपि त्रिरपि-द्वित्रिवारमापि ' उक्खयनिहए' उत्खातनिहतान्उत्पाटितरोपितान यावत् लुनन्ति, यारत् चरणतलमृदितान् कुर्वन्ति, कृत्वा पुनन्ति से चिह्नित कर उनपर नामकी मुहर लगा दी। पश्चात् भंडार में उन्हें एक ओर रख दिया। समय २ पर वे लोग उनकी रक्षा और संभाल भी करते रहे। (तएणं ते कौटुंबिया दोच्चपि वासारसंसि पढम पाउसंसि महावुट्टिकायंसि निवइयंसि खुट्टागं केयारं सुपरिकम्मियं करति इसके बाद उन कौटुबिक पुरुषोने द्वितीय वर्ष संबन्धी चौमासा जय लगा-तब-सर्व प्रथम महवृष्टि के रूप में जल के बरस जाने पर, हल से जोत कर तथा कुद्दाल आदि से खोदकर एक छोटा सा खेत तैयार किया। उसमें चिकनी और नरम मिट्टी डालकर उसे बहुत ही अच्छा शालि उपजाने के योग्य बना दिया । (ते शालि वपंति, दोच्यपि तच्चपि उक्खय निहए जाव लुणेति ) बादमें उस शाली को उसमें बो दिया।
पहिले की तरह जब वह धान्य अंकुरित हो आई तब उन्होंने उसे वहां से उखाड कर दूसरी जगह आरोपित कर दिया । इस तरह यह भूती दीया. यथा समय ते तेमनी an ५y andu Cal. ( तएणं ते कौंडुबिया दोच्चंचि वासारतसि पढम पाउसंसि मह वुड्ढकायंसि निवइयंसि खुड्हागं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति) या२ ५७ टुमि पुरुषोभे भी वर्षे ચોમાસાના દિવસે આવ્યાં ત્યારે સૌ પહેલાં મહાવૃષ્ટિના રૂપે જળવર્ષા થયા બાદ હળથી ખેડીને તેમજ કેદાળી વગેરે થી ખોદીને એક નાનું ખેતર તૈયાર કર્યું જેમાં ચીકણી અને કોમળ માટી નાખીને તેને ખૂબ જ સરસ શાલિ (i1२) पाव। यो२५ मनावी हीधु. (ते सालीवपंति, दोच्चंपि तच्चपि उक्खयनिहए जाव लुणेति) त्या२ ५छी तरमा तिनी हीधी.
પહેલાની જેમ જ્યારે શાલિના અંકુરો બહાર નીકળ્યા ત્યારે કૌટુંબિક માણસે એ તેના છેડાને ત્યાંથી ઉપાડીને બીજા સ્થાને રેપી દીધા. આ
For Private And Personal Use Only
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२०८
हाताधर्मकथासूत्र तत्र खलु शालीनां बहवः कुडवाः शालिसंभृता बहवः कुडवा अभूवन संजाता, यावत् एकदेशे स्थापयन्ति, स्थपयित्वा संरक्षन्तः संगोपायन्तो विहरन्ति । ततः खलु ते कौटुम्बिकास्तृतीये वर्षा रात्रे महादृष्टिकाये निपतिते सति बहून् केदारोन् सुपरिकर्मितान् यावद् लुनन्ति, लवित्वा संवहन्ति=भाररूपेण तान् बद्ध्वा मस्तके स्कंधेवा निधाय खले स्थापयितुं समानयन्ति. तत्रतोऽपनीय तान्वहन्ति,समुह्यसमानीय 'खलयं ' खलक धान्यमर्दनस्थानं ' करेंति' कुर्वन्ति शालीन् खले स्थापयन्तीत्यर्थः, कृत्वाखले संस्थाप्य ' मलेति' खले प्रसार्यवलीवदर्भदैयन्ति उत्खाक (उखारना) निखात (रोपना रूपक्रिया उन्होंने दो तीन वार की . यावत् धीरे २ उसके पूर्णत पकजाने पर उन्हों ने उसे काट लिया। (जाव चरण तल मलिए करेंति, करेत्ता पुणंति, तत्थणं सालीणं यहवे कुडवा जाव एगदेससि ठाति ठोवित्ता सारवखमाणा संगोवेमाणा विहरंति) यावत् उसे अपने २ पैरों के तलियों से मर्दित किया। बाद में उसे पलालआदि के अपसारण (दूर ) से साफ किया। इस तरह वहां शालियों के अनेक कुडव (घडे ) उन से भर गये। यावत् उन कुडवो (घड़ो) को उन्हों ने ले जाकर पहिले की तरह भंडार में एक तरफ रख दिया।
रखकर वे समय २ पर उनकी सारसंभाल भी करने लगे। (तएणं ते कौटुंबिया तच्चपि वासारत्तंसि महा बुडिकायंसि निवइयंसि यहवे केयारे सुपरिकम्मिए जाव लुणे लि, लुणित्ता संवहंति संवहित्ता खलयं करेंति, खलयंकरेत्ता मलेति, जाव बहवे कुंभा जाया) इस तरह धीरे २ समय निकल ने पर जब तीसरी बार वर्षा काल सम्बन्धी રીતે આ ઉત્પાત (ઉપાડવું) નિખાત (રેપવું ની ક્રિયા તેમણે બે ત્રણવાર કરી. સમય જતાં યથાસમયે જ્યારે પાક તૈયાર થઈ ગયે ત્યારે તેઓએ તેને કાપી લીધે.
(जाव चरण तल मलिए करेति करेत्ता पुणंति, तत्थणं सालीणं वह वे कुडवा जाव एगदेसंसि, ठाति ठावित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा विहरंति)
અને “યાવતુ ” તેને પોતાના પગોથી મદિંત કર્યો ત્યાર પછી તેમાંથી ભૂસું વગેરે સાફ કર્યું. આ પ્રમાણે ત્યાં શાલિઓ (ડાંગર) ના ઘણા કુડવ–કળશે -ભરાઈ ગયા. આ રીતે તે કૌટુંબિક પુરુષે એ પહેલાંની જેમ જ શાલિથી પરિપૂર્ણ કળશને કઠોરમાં એક તરફ મૂકી દીધા. યથા સમય શાલિના કળશેની તેઓ સંભાળ પણ રાખતા હતા.
(तएणं ते कौटुंबिया तच्चंपि वासारत्तंमि महावुद्धिकायंसि निवइयंसि वहवे केयारे सुपरिकम्मिए जाव लुणेति, लुणित्ता, संघहति संघहिता खलयं, करेंति, खलयं करेत्ता मर्लेति जाव बहवे कुंभा जाया)
For Private And Personal Use Only
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका भ० ७ घन्यसार्थवाहपरितनिरूपणम् २०९ यावत् बहवः वृहद्घटाः जाताः अनेकबृहद्घटाः शालिपूर्णा अभूवमित्यर्थः । ततःखलु ते कौटुम्बिकाः शालीन् कोष्ठागारे प्रक्षिपन्ति स्थापयन्ति यावत् संगोपायन्तो विहरन्ति.। चतुर्थे 'बासारत्रेचतुर्थवर्षसम्बन्धि-चातुर्मास्यका वर्षिचौमासा प्रारंभ हुआ और उस में सर्व प्रथम महावृष्टि के रूप में जब जलकी वर्षा हुई तो उन कौटुम्बिक पुरुषों ने अनेक खेत सुपरिकर्मित किये ... उन में उस शाली को को दिया। यावत् उसे काट लिया। जब वह सब कट चुकी तब गट्ठा के रूपमें बांधा तब मस्तक परस्कंध पर भार रूप से उसे रख कर वे सब खलिहान में ले आये । लाकर वहां उन्हों ने धान्यमर्दन के योग्य खलिहान तैयार किया । उस के तैयार हो जाने पर उस में उस शाली को फैला कर रख दिया। बाद में बैलों द्वारा उस की दाँय की। यावत् वह धान्य इतना निष्पन्न हुआ कि उससे बडे २ घडे भर गये । (तएणं ते कोडुंबिया साली कोट्ठागारंसि पक्खि. वैति, जाव विहरंति, चउत्थे वासोरसे बहवे कुंभसया जाया ) इसके बाद उन लोगों ने उन धान्य को कोष्ठागार में रख दिया और समय २ उस की देखभाल करने लगे। इसी तरह जब चौथे वर्ष का चतुर्मास આ રીતે સમય પસાર થતાં જ્યારે ત્રીજી વખત વર્ષા કાળ આવ્યું અને મહાવૃષ્ટિના રૂપે પ્રથમ જળ વર્ષ થઈ ત્યારે કૌટુંબિક પુરુષએ ઘણાં ખેતરે तयार ४ा.
બધાં ખેતરમાં તેઓએ શાલી વાવી. અને આમ સમય જતાં જ્યારે તે પહેલાંની જેમ પરિપકવ થઈ ગઈ ત્યારે કૌટુંબિક પુરુષેએ શાલિને પાક કાપી લીધું. જ્યારે લણણી થઈ ત્યારે ભારાએ બાંધી માથે તેમજ ખભે મૂકીને બધા ખેતરેની શાલિને ખળામાં લઈ આવ્યા. ત્યાં લાવીને તેઓએ ધાન્ય મને યોગ્ય ખળું તૈયાર કર્યું તૈયાર કર્યા બાદ તેઓએ શાલિ ને પાથરી દીધી. અને બળદે ફેરવીને ખળું કર્યું આ પ્રમાણે આગળની પહેલાંની
જેમ બધી વિધિઓ પતાવ્યા બાદ ખેતરમાંથી શાલધાન્ય આટલું બધું થયું છે કે જેનાથી ઘણા મોટા મોટ કળશ ભંરાઈ ગયા.
(तएणं ते कोडुबिया साली कोट्ठागारंसि पक्खिवेंति, जाव विहरति च उत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया)
ત્યાર બાદ તેઓએ શ લિધાન્ય થી ભરેલા કળશને કોઠારમાં મૂકી દીધા અને યથા સમય તેમની સંભાળ રાખવા લાગ્યા. આ પ્રમાણે જ ચોથા વર્ષના झा २७
For Private And Personal Use Only
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
हाताधर्मकथासले तानां घालीनां बहूनि कुम्भशतानि जातानि बहूनि कुम्भशतानि शालिसंभृतानि जातानि ॥ सू०॥६॥
मूलम्-तएणं तस्स धण्णस्स पंचमयंसि संवच्छरांस परिसममार्णसि पुम्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजिस्था एवं खलु मए इओ अईए पंचमे संवच्छरे घडण्हं सुण्हाणं परिक्खणठयाए ते पंचसालि अक्खया हत्थे दिना तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते पंच सालिअक्खए पडिजाइत्तए जाव जाणामि ताव काए किण्हं सारक्खिया को संगोरिया वा संवड़िया जाव त्ति क. एवं संपेहेइ, संपेहिता कलं जाव जलते विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडा. बइ, उवक्खडाबित्ता मित्तनाइ..घउण्ह य सुण्हाणं कुलघर जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेट्टं उज्झियं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी -एवं खलु अहं पुत्ता! इंओ अईए पंचमांस संवच्छरंसि इसस्स मित्तनाई० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तब हत्यसि पंचसालि अक्खए दलयामि, जयाणं अहं पुत्ता ! एए पंचसालि अक्खए जाएजा तयाणं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएसित्ति, से नूणं पुत्ता ! अट्टे समहे?, प्रारंभ हुआ तब उस समय बोई गई और पर्षित हुई उस धान्य के सैकडों कुंभ तैयार हो गये। अर्थात् यह धान्य इतनी अधिक निफ्जी किजिससे सैकड़ो बडे २ घडे उससे भर गये। सूत्र ॥६॥ ચેમાસામાં વાવવામાં આવેલી શાલિથી સેંકડે મોટા કળશે ભરાઈ ગયા. એટલે કે શાલિ ધાન્યને એટલે. બધા સરસ પાક તૈયાર થયો કે તેનાથી એકડે મોટા મોટા કળશે ભરાઈ ગયા છે. સૂત્ર “દ” .
For Private And Personal Use Only
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
अनगारत्रामृतवर्षिणो टोका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् २११ हंता अस्थि । तएणं पुत्ता! मम ते सालि अक्खए पडिनिजाएहि । तएणं सा उज्झिया धण्णस्स सत्थवाहस्स एयमढें सम्म पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पल्लाओ पंचसालिअक्खए गेहह, गिहिता जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धणं सत्थवाहं एवं वयासी एएणं ते पंचसालिअक्खए-त्ति कह धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थंसि ते पंच सालि अक्खए दलयइ । तएणं धण्णे सत्थवाहे उज्झियं सवहसावियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-किं णं पुत्ता ! ते चैव एए पंच सालि अक्खए उदाह अन्ने ? । तएणं उज्झि या धण्णं सत्थवाहं एवं क्यासीएवं खलु तुब्भे ताओ ! इओ अईए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुल० जाव विहराहि । तएणं अहं तुम्भं एयमढें पडिसुणित्ता ते पंचसालिअक्खए गेण्हामि, गिण्हित्ता एगंतमवकमामि। तएणं मम इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपजिस्था-एवं खलु तायाणं कोटागारंसि. जाव सकम्मसंपउत्ता जाया, तं ण खलु ताओ ते चेव पंच सालिअक्खए एएणं अन्ने । तएणं से धण्णे उज्झियाए अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उझिंतियं तस्स मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुज्झियं च छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च समुच्छियं च सम्मच्छियं च पाउवदाइं च पहाणोवदाई च बाहिरपेसणकारिं ठवेइ।
For Private And Personal Use Only
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथासूत्र एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव पवइए, पंच य से महव्वयाई उज्झियाई भवंति सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं ४ जाव अणुपरियहिस्सइ जहा सा उज्झिया ॥१॥ ___एवं भोगवइयावि, नवरं तस्स जाव कंडंतियं च कुटुंतियं च पसिंतियं च, एवं रुधंतियं, रंधतियं, परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभंतरियं च पेसणकारिं महाणसिणि ठवेइ ।
एवामेव समणाओ ! जो अम्हं समणो वा जाव पंचयसे महाव्वयाइं फोडियाई भवंति से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं ४ जाव हीलणिजे ४ जहा व सा भोगवइया ॥२॥
एवं रक्खिइयावि, नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मंजूसं विहाडेइ, विहाडिता रयणकरंडगाओ ते पंचसालिअक्खए गेण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव धपणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचसालिअक्खए धण्णस्स हत्थे दलयइ। तएणं से धपणे रखिइयं एवं क्यासी-किं णं पुत्ता ते चेव एए पंचसालिअक्खया उदाहु अन्ने ? त्ति । तएणं रक्खिइया धणं सस्थवाहं एवं वयासी-ते चेव ताया ! एए पंच सालिअक्खया गो अन्ने । कहं णं पुत्ता! एवं खल्लु ताओ तुम्भे इओ पंचमंमि जाव 'भवियव्वं एत्थ कारणेणं-ति कहु ते पंचसालिअक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसंझं पडिजागरमाणी२ विहरामि, तं एएणं कारणेणं ताओ ! ते चेव एए पंच सालिअक्खया, णो अन्ने । तएणं से धण्णे रक्खिइयाए अंतिए एयमहं सोचा हट्तुह.
For Private And Personal Use Only
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नगारधर्मामृतवषिणोटी० अ० ७ धन्यसार्थवाहरितनिरूपणम् १३ तस्स कुलघरस्स हिरन्नस्स य जाव कंसदूस विउल धण जाव साव तेजस्स य भंडागारिणि ठवेइ । ____ एवामेव समणाउसो! जाव पंच य से महव्वयाइं रक्खि. याई भवंति, से णं इहभवे चेत्र बहूणं समणाणं ४ अञ्चणिजेट जहा.व सा रक्खिया ॥३॥
रोहिणियावि एवं चेव, नवरं तुभं ताओ ! मम सुबहुयं सगडीसागडं दलाह जेणं अहं तुभं ते पंच सालिअक्खए पडिणिज्जाएमि । तएणं से धण्णे रोहिणिं एवं वयासी-कहं णं पुत्ता ! तुमं मम ते पंच सालिअक्खए सगडीसागडेणं निजाइस्ससि ? । तएणं सा रोहिणी धण्णं एवं वयासी-एवं खल ताओ! तुब्भे इओ पंचमे संवच्छरे इमस्त मित्त. जाव बहवे कुंभसया जाया, तेणेव कमेणं, एवं खलु ताओ ! तुभे ते पंच सालिअक्खए सगडीसागडेणं निजाएमि। तएणं से धपणे सत्थवाहे रोहिणियाए सुबहुयं सगडोसागडं दलयइ । तएणं सा रोहिणी सुबहुं सगडीसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोडागार विहाडेइ, विहाडित्ता पल्ले उभिदइ, उभिदित्ता सगडीसागडं भरइ, भरित्ता रायगिहे नगरं मझमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ । तएणं रायगिहे नयरे सिंघाडग जाव बहजणो अन्नमन्ने एवमाइक्खइ - धन्नेणं देवाणुप्पिया ! धपणे सस्थवाहे, जस्त णं रोहिणिया सुण्हा पंच सालिअक्खए सगडसागडिएणं निजाएइ । तएणं से धागे सत्थवाहे ते पंच सालि.
For Private And Personal Use Only
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भाताधर्मrARE अक्खए सगडीसागडणं निजाइए पासइ, पासित्ताहह. पडि. च्छइ, पडिच्छित्ता तस्सेव मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुल. घरस्त पुरओ रोहिणियं सुण्हं तस्स कुलघरस्स बहुसु कज्जेसु य जाव रहस्सेसु य आपुच्छणिजं जाव सव्वकज्जवड्डावियं पमाणभूयं ठावेइ । ___ एवामेव समणाउसो!जाव पंच य से महाव्वया संवडिया भवंति से णं इह भवे चेव बहूर्ण समणाण० ४ अचणिजे जाव वीईवइस्सइ जहा व सा रोहिणिया। - एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्त अयमढे पन्नते-सिबेमि ॥
__॥ सत्तमं नायज्झणं समत्तं ॥७॥ टीका-'तपणं तस्स ' इत्यादि । ततः खलु तस्य धन्यस्य धन्यसाया माइस्य पञ्चमे संवत्सरे 'परिणममामंसि' परिणम्यमाने संपूर्यमाणे सति पूर्वरा त्रापररात्रकालसमये अयमेतद्रूपः- आध्यात्मिकः आत्मनि विचारः यावत् मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत-एवं खलु मया इओ' इत: अवतनादिवसात्याग अतीते पचमे वर्षे यतस्पां स्नुषाणां 'परिक्खमयाए' परीक्षणार्थाय-बुद्धि
.. 'तएणं तस्स धण्णस्स' इत्यादि।
टीकार्य-(तएणं.) इसके बाद (तस्स धण्णस्स) उस धन्य सार्थवाह को (पंचमयंसि संघच्छरंसि परिणममाणसि ) पांच वर्ष जय पूर्ण हो चुके, तब ( फुवरसावरत्तकालसमयंसि ) मध्यरात्रि के समय में (इमेयावर्षे अजमथिए जाव समुप्पज्जित्था ) इस प्रकार का आध्यात्मिक गाव मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ (एवं खलु मए इओ अईए पंच में
"तएणं तस्स धण्णस्स" त्यादि - -(तएण) त्या२ ५६ (तस्स ‘धण्णस्स ) धन्य साईव ने (पंचायति संबसि परिणममासि) पांय वर्षा न्यारे पूरा या त्या३(पुष्वासा रतकालसमयंसि) मधी रात्रिना मते (इभेयारूवे अन्झथिए जाय समुःपज्जिथा આ જાતને આધ્યાત્મિક કાવત્ મને ગત સંકલ્પ ઉદ્દભ. .
For Private And Personal Use Only
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० ७ घायसाचाहरितहिए.म
२१५
-
-
-
परीक्षार्थ ते पञ्च शाल्यक्षता हस्ते दत्ता आसन्, 'सेयं ' श्रेया-उचितम् अत्य पतियाचितुमित्यनेन संबन्धः ! एवं खलु मम कल्ये यावज्ज्वलतिम्सूर्योदये सतिसमाते पञ्चशास्यवतान् ‘पडिजाइत्तए ' प्रतियाचितु पतिग्रहीतुम्, 'जाणामि' जानामिन्ताधुना निर्णयामि यस्- 'जान' यावत्-यावरसंख्यकाः शाल्यक्षतामया दत्तास्ते 'ताव ' तावत्-तावनपरिमिताः कया स्नुषया 'किहं ' कथंकेन प्रका रेण संरक्षिताः संगोषिताः संवद्धिता यावत् 'तिक ' इति कृखा इत्यभिपाय मनसि निधाय एवं-श्चमाण कारेण संपेक्षयति-विचारयति, संप्रेक्ष्य कल्ये बावज्ज्वलति प्रभातसमये विपुलमशन पानं खाचं स्वायं चतुर्विधमाहारम्. उपस्का संबच्छरे चहं सुल्हाण परिक्षणयाए ते पंच सालि अक्खया हत्थे दिना-तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलं ते पंच सालि अक्खए पडिमाइतए) कि मैंने आज से गत पांचवे वर्ष में चारों अपनी पुत्रवधूओं के उन की बुद्धि की परीक्षा के निमित्त हाथों में उन पांच पांच शालिअक्षतों को दिया था, तो अब प्रात:काल होते ही जब सूर्योदय हो जायगा-मैं उन पांच शालि अक्षतों को उनसे पीछे मांग लूँ यह उचित है। - (जाव जाणामि ताव काए किण्हं सारक्खिया या संगोविया धा संघडिया जाव त्ति कटु एवं संपेहेर) इससे मैं यह निर्णय कर लूंगा कि जितने शाल्यक्षत मैंने उन्हें दिये थे वे उतने शाल्यक्षत किस पुत्र वधू ने किस प्रकार से संरक्षित किये हैं, सगोपित किये हैं और सबबित किये हैं। इस पूर्वोक्त प्रकार से उसने विचार किया ( संपेहिसा
(एवं खलु मए इओ अईए पंचमे संवच्छरे चउपहाणे परिक्षणयाए ते पंचसालि अक्खया इस्पे दिमा- सेय खलु मम कल्लं ते भाव जसंते पंचसालि अक्खए पडिजाइत्तए)
કે આજથી પાંચ વર્ષ પહેલાં મેં ચારે પુત્રવધૂઓને તેમની બુદ્ધિ પરીક્ષા માટે તેમના હાથમાં પાંચ શાલિકણે આપ્યા હતા તે હવે સવારે સૂર્ય ઉદય પામતાની સાથે જ હું તેમની પાસેથી પાંચે શાલિકણે પાછા માગું એ જ ઉચિત છે.
(जाब जाणामि तार कार किण्हं सारक्खिया वा संगीविया वा संवड़िया जाव त्ति कहु एवं संपेहेइ)
એનાથી મને એ વાતની ખબર પડશે કે મેં જેટલાં શાલિક તેમને આપ્યા હતા તેને કઈ પુજાએ કેવી રીતે સક્ષિત, સગેપ્તિ તેમજ સંવર્ધિત કર્યા છે. આ રીતે તેણે વિચાર કર્યો
For Private And Personal Use Only
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२१६
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
"
रयति, उपस्कार्य मित्रज्ञातिप्रभृतीन् चतसृणां च स्नुषाणां कुलगृहवर्गेण सार्द्ध भोजयित्वा यावचान् संमान्य तस्यैव मित्रज्ञातिमभृतेः चतसृणां स्नुषाणां कुल गृहवर्गस्य च पुरतो 'जेहं' ज्येष्ठां= ज्येष्ठ पुत्रवधूम् ' उज्झियं उज्झिनाम् = उज्झितानाम्नीं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् एवं खलु अहं पुत्रि ! इतोऽतीते पश्चमे संवत्सरे अस्य मित्रादेश्वतसृणां स्नुषाणां कुलगृहवर्गस्य च पुरतस्तत्र हस्ते पञ्च शाल्यक्षतान् ! दलयामि ? ददामि दत्तवान् कथितवांच कल्लं जाव जलते विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेइउवक्खडावित्ता- मिसनाइ० चउण्ह सुण्हाणं कुलघर जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्तणाह० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेदुं उज्झियं सदावेs) विचार कर के फिर उसमे प्रातःकाल सूर्योदय होने पर विपुलमात्रा में अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य रूप से चारों प्रकार का आहार तैयार करवाया ।
जब चारों प्रकार का आहार अच्छी तरह निष्पन्न हो चुका तथ उसने अपने समस्त मित्र ज्ञाति आदि परिजनों के और चारों पुत्रव धूओं के कुलवर्ग के साथ भोजन किया। बाद में उन सबका सम्मान सत्कोर किया। और उन्हीं मित्रादि परिजनों के एवं अपनी चारों पुत्रवधूओं के कुलवर्ग के समक्ष जेठी को पुत्रवधू थी कि जिस का नाम उज्झिता था उसे बुलाया । (सद्दावित्ता एवं वयासी एवं खलु अहं पुत्ता ! इओ अईए पंचमंसि संवच्छरंसि इमस्स मित्तनाइ चउण्हय सुण्हाणं
ত
( संपेहित्ता कल्ले जाव जलते विउलं असण पाण खाइमं उवक्खडावेइ उवक्खडाविता मित्तनाई. चउन्ह सुण्हाणं कुलघर जात्र सम्माणित्ता तस्सेव मित्तणाइ चउण्हय सुव्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओजेडं उज्झियं सदावे . )
વિચાર કરીને તેણે સવારે સૂર્ય ઉદયપામ્યા બાદ અશન, પાન ખાદ્ય અને સ્પદ્ય આમ ચાર જાતના પુષ્કળ પ્રમાણમાં આહાર તૈયાર કરાવડાવ્યા.
ચારે જાતના આહાર સારી રીતે તૈયાર થઇ ગયા ત્યારે તેણે પેાતાના બધા મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજના તેમજ ચારે પુત્રવધૂએનાં સગાંવહાલાંઓની સાથે ભાજન કર્યું”. જમ્યા ખાદ તેણે ખાંનેા સત્કાર તથા સન્માન કર્યું. ત્યારખાદ મિત્ર વગેરે પરિજના અને ચારે પુત્રવધૂએનાં સગાવહાલાંઓની સામે તેણે ગે મોટા પુત્રની વધુ ઉજ્જિતાને બેલાવી.
( सहावत्ता एवं वयासी एवं खलु अहंपुत्ता। इओ अईए पंचमंसि संच्छरंसि इमस्स मित्तना चउन्हय सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ तत्र इत्यंसि पंचसालि अक्खए दलयामि )
For Private And Personal Use Only
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगार धर्मामृतवषिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरियनिरूपणम् २१७ यदा खलु अहं पुत्रि : एतान् पश्च शाल्यक्षतान् यावेयं तदा खलु त्वं मामि मान् पश्च शाल्यक्षतान् प्रतिदद्याः 'इति, स नूनं पुत्रि ! अर्थः समर्थः १ उज्झिता माह- हन्त ! अस्ति-एतत्सत्यमस्ति । श्रेष्ठीमाह- ' तं' तत्-तस्मात् खलु त्वं हे पुत्रि ! मह्यं तान् । पडिनिज्जाएहि ' प्रतिनिर्यातयतिसमर्पय । ततःखलु सा उज्झिता धन्यस्य सार्थवाहस्य एतमर्थ सम्यक प्रतिशृणोति-स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य यत्रैव कोष्ठागारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य — पल्लाओ' पल्लात् शालि कुलघरवग्गस्स पुरओ तव हत्थंसि पंच सालि अक्खए दलयामि ) धुलाकर उससे ऐसा कहा हे पुत्रि ! आज से गत पांचवें वर्ष में मैंने जो इन मित्र, ज्ञाति आदि परिजनों के और चारों पुत्रवधूओं के कुल गृहवर्ग के समक्ष तुम्हारे हाथ में पांच शालि-अक्षतों को दिया था। (जयाणं अहं पुत्ता एए पंच सालि अक्खए जाएजा) और हे पुत्रि ऐसा कहा था कि जब मैं इन पांच शालि-अक्षतों को माँगू ( तयाणं तुमं मम इ मे पंच सालि अवखए पडिदिज्जाएसि त्ति) तय तुम मुझे इन पांच सालि-अक्षतो को पीछे वापिस दे देना (सेणूण पुत्ता अढे समढे) हे पुत्रि ! कहो यही बात कही थी न ? (हंता अस्थि) तब उज्झिताने कहा-हाँ यही बात कही थी (तण्ण पुत्ता ! मम ते सालि अक्खए पडिदिज्जाएहि ) तो पुत्रि ! तुम मुझे उन पांच शालि अक्षतो को अब पीछे वापिस दे दो । (तएणसा उज्झिया धण्णस्स सत्थवाहस्स एयमढें सम्म पडिसुणेइ पडिसुणित्ता जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छद)
બેલાવીને તેણે કહ્યું કે હે પુત્રિ! આજથી પાંચ વર્ષ પહેલાં મેં તને આ બધા મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજને અને ચારે પુત્રવધૂઓના સગાં વહાલાંઓની સામે તમારા હાથમાં પાંચ શાલિકણે આપ્યાં હતા. (जयाणं अहं पुत्ता एए पंचसालि अकाल ए जाएज्जा)
અને એમ કહ્યું હતું કે જ્યારે હું તમારી પાસેથી આ પાંચ શાલિકણે મારું (तयाणं तुमं मम इमे पंच सालि अक्वए पडिदिज्जएसित्ति) . त्यारे तमे भने । पाये Ales पाछा मापन. ( से गूण पुत्ता अद्वे समठे । उ पुत्रि! मास में तभने मेरी वात ४ी तीन ? (हता अत्थि) त्यारे Glorsतामे - " ०० पात ४६ी ती.” तण्ण पुत्ता ! मम ते सालि अक्खए पडिनिज्जाएहि ) तो पुत्रि! ते पाये शानिय तमे भने પાછા આપી.
(तएणं सा उझिया धण्णस्स सत्थवाहस्स, एयमढे सम्म पडिसुणेइ पडिसुणित्ता जेणेव कोडागारं तेणेव उवागच्छइ )
शा २८
For Private And Personal Use Only
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथाजस्ले कोष्ठात् पश्च शाल्यक्षवान् गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव धन्यः सार्थवाहस्तत्रैवोपागमछति, उपागत्य धन्यं सार्थवाहमेवमवादी- एते खलु ते पञ्च शाल्यक्षताः, इति कृत्वा इत्युक्त्वा धन्यस्य सार्थवाहस्य हस्ते तान् पश्च शाल्यक्षतान् ददाति । सतः खलु धन्य उज्झितां पुत्रवधू ' सवहसावियं' शपथशापितां = शपथयुक्तां करोति-शपथं कारयति, कृत्वा एवमवदत्-किं खलु पुत्रि ! त एव-एते पच शाल्यक्षताः, उदाहु अथवा अन्ये ? । ततः खलु उज्झिता धन्यसार्थवाहमेवमवइस प्रकार उज्झिताने उस धन्य सार्थवाह के इस कथन रूप अर्थको स्वीकार कर लिया । और स्वीकार करके जहां कोष्ठागार था-वहां पर गई। . ( उवागच्छित्ता पल्लाओ पंच सालि अक्खए गेण्हइ, गिहिस्सा जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ ) वहां जाकर उसने शालि कोट से पांच शालि-अक्षतों को ले लिया और ले जाकर जहां धन्यसार्थवाह था वहां ओई । ( उवागच्छित्ता धणं सत्थवाहं एवं क्यासी) आकर उसने धन्यसार्थवाह से ऐसा कहा-(एए णं ते पंच सालि अक्खए सि कटूटु घण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थंसि ते पंच सालि अक्खए दलयइ) आपके वे पांच शालि अक्षत ये हैं। ऐसा कहकर उसने धन्यमार्थाह के हाथ में उन पांच शालि अक्षतों को दे दिया ' (तएणं धण्णे सत्थवाहे उज्झियं सवहसावियं करेइ करिता एवं वयासी-किंणं पुत्ता! ते चेव एए पंच सालि अक्खए उदाहु अन्ने ? तएणं उज्झिया धणं सत्थवाहे ઉઝિતાએ ધન્યસાર્થહની આજ્ઞા સ્વીકારી અને ત્યાર પછી તે જ્યાં કોઠાર હતું ત્યાં ગઈ.
(उवागच्छित्ता पल्लाओ पंचसालि अक्खए गेण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव षण्णे सस्थवाहे तेणेव उवागच्छइ ) * ત્યાં જઈને તે શાલિકેઝમાંથી પાંચ શાલિક લઈ લીધા અને લઈને
धन्यसा वाडनी पासे पायी. (उवागछित्तो धण्ण सत्यवाह एवं वयासी) ત્યાં આવીને તેણે ધન્યસાર્થવાહને આ પ્રમાણે કહ્યું.
(एएण ते पंचसालि अक्खए त्ति कटु धण्णस्स सत्यवाहस्स हत्थंसि ते पंच सालि अक्खए दलयइ)
તમે આપેલાં પાંચ શાલિકણે આ રહ્યા ” આમ કહીને તેણે પાંચે પાંચ શાલીક ધન્યસાર્થવાહને આપી દીધા. .. (तएणं धण्णे सत्थवाहे उज्झियं सहसावियं करेइ करिता एवं क्यासी कि
पुत्ता ते चेव एए पंच सालि अक्खए उदाहु अन्ने ? तएणं उझिया धमं
For Private And Personal Use Only
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मारधर्मामृतवर्षिण ढोका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्
શ
C
दत् एवं खलु यूयं हे तात ! अतीते पञ्चमे संवत्सरे अस्य मित्रज्ञातिप्रभृतेः, चतसृणां च स्नुषाणां कुलगृहवर्गस्य › जाव यावत् पुरतः पश्च शाल्यक्षतान् दत्वा कथितवन्तः - हे पुत्र ! त्वमेतान् पञ्चशाल्यक्षतान् संरक्षन्ती संगोपायन्ती विहरति । ततः खलु अहं युष्माकमेतमर्थं प्रतिशृणोमि प्रतिश्रुत्य तान् पञ्चशास्यक्षतान् गृह्णामि, गृहीत्वा - एकान्तमपक्रामामि, ततः खलु तदा मम मनसि अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः = विचारः यावन्मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत एवं खलु 'तायाणं' एवं बयासी एवं खलु तुम्भे ताओ ! इओ अईए पंचमें संवच्छरे इमस्स मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुल० जाव विहराहि ) उन पांच शालि अक्षतों को हाथ में लेकर धन्य सार्थवाह ने उसे शपथ दिलाई और दिलाकर उससे ऐसा पूछा पुत्रि ! कहो ये पांच शालि अक्षत वे ही हैं या और दूसरे है ? इस प्रकार धन्य सार्थवाह के कथन को सुनकर उज्झिताने उससे ऐसा कहा हे तात ! आपने आज से गत पांचवें वर्ष में मित्र ज्ञाति आदि परिजनों के और अपनी पुत्रवधूओं के कुल गृह वर्ग के समक्ष पांच शालि अक्षतों को देकर ऐसा कहा था- हे पुत्र ! तुम मेरे इन पांच शालि अक्षतों की रक्षा करती रहो-इन्हे उपद्रवों से बचाकर सुरक्षित रखो - ( तएवं अहं तुन्भं एयमहं पडिलुणेमि पडिसुणित्ता ते पंच सालि अक्खए गेहामि गिट्टित्ता एगतमवकमामि-तरण मम इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्यजित्था ) मैंने आपके इस कथन को स्वीकार कर लिया था। और उन पांच शालि अक्षतों को ले लिया सत्थवाहे एवं वयासी एवं खलु तुम्भे ताओ ! इओ अईए पंचमे सवच्छरे इमस्स मित्तनाई. चउण्हय सुण्हाणं कुल. जाव विहराहि )
તે પાંચ શાલિકણાને હાથમાં રખાવીને ધન્યસાંવાડે તેને શપથ (સમ) આપીને ફરી પૂછ્યુ કે હું પુત્રિ ! પ્યાલો, આ પાંચે શાલિકણે મારા આપેલા જ છે કે બીજા. આ રીતે ધન્યસાથની વાત સાંભળીને ઉન્નતાએ તેમને કહ્યું- હું તાત ! આજથી પાંચવષ પૂર્વે મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજન તેમજ ચાર પુત્રવધૂએના સગાવહાલાંઓની સામે મને પાંચ શાલિકણૢા આ પતાં તમે કહ્યું હતું કે હૈ પુત્રિ ! તમે મારા આ પાંચ શાલિકણાની રક્ષા કરા અને એએને ઉપદ્રવેાથી મચાવા,
(तरणं अहं तु एयमहं पडिसृणेमि, पडिसृणित्ता ते पंचसालि अक्खर गेण्डामि, गिण्डित्ता एगंतमत्रककमामि तपणं मम इमेयारूवे अज्झत्थिए जाब समुपज्जित्था )
મે' તમારી આજ્ઞા પ્રમણે તે શાલિકા લઈ લીધા. ત્યાર માદ
For Private And Personal Use Only
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२२०
माताधर्मकथाजसत्र तातानाम् आदरार्थ बहुवचनम् तातस्येत्यर्थः, श्वशुरस्य कोष्ठागारे बहवः पल्लाः शालीनां प्रतिपूर्णास्तिष्ठन्ति, तद् यदा खलु मम सकाशात् तात इमान् पश्च शाल्यक्षतान् याचिष्यते तदा खलु अहं पल्लन्तरात् कोष्ठाभ्यन्तराद् अन्यान् पञ्च शाल्यक्षतान् गृहीत्वा दास्यामि, इति कृत्वा एकान्तेऽपक्राम्य तान् प्रक्षिप्य स्वकर्मसंयुक्ता-स्वकार्यसंलग्नो समभवत् 'तं' तत्-तस्मात् कारणात् नो खलु तात ! तएव पश्च शाल्यक्षताः, किंतु एते खल्वन्ये कोष्ठाभ्यन्तरादानीताः सन्तीत्यर्थः । ततः खलु स धन्यः सार्थवाह उज्झिताया अन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा 'आसुरुत्ते' आशुरुतः शीघ्रकोपान्वितः यावत् ‘मिसमिसेमाणे ' मिसमिसन्= क्रोधाग्निना था। लेकर फिर मैं आपके पास किसी एकान्त स्थान में चली आईवहां आते ही मुझे इस प्रकार का विचार आया
( एवं खलु तायाण कोट्ठागारंसि० जाव सकम्भ संपउत्ता जाया तं णो खलु ताओ ते चेव पंच सालि अक्खए, एए ण अन्ने ) मेरे श्वसुर जी के यहां कोष्ठागार में तो बहुत से पल्लशालियों के भरे पडे हैं-तो जिस समय श्वसुर जी इन प्रदत्त पांच शालि अक्षतों को मुझ से पीछे वापिस मांगेंगे तो मैं दूसरे शालि कोष्ठ के भीतर से अन्य पांच शालि अक्षतों को उठाकर दे दूँगी । इस प्रकार विचार कर मैंने आपके द्वारा दिये हुए पांच शालि अक्षतों को इधर उधर डाल दिया और अपने दैनिक कार्य करने में लग गई । अतः हे तात ! ये शालि-अक्षत वे पांच शालि अक्षत नहीं हैं-किन्तु उनसे भिन्न दूसरे ही हैं । (तरण से धण्णे उझियाए अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म आसुरत्ते जाव मिसि मिसेતમારી પાસેથી એક તરફ ગઈ ત્યાં આવતાં જ મને વિચાર સફર્યો
( एवं खलु तायाणं कोहागारंसि. जाव सकम्म संपउत्ता जाया तं णो खल ताओते चेवपंचसालिअक्ख एएणं अन्ने )
| મારા સસરાના કંઠારમાં ડાંગરથી ભરેલા ઘણું પલ્યો છે. તે જ્યારે પણ તેઓ મારી પાસેથી ફરી પાંચ શાલિકણે માગશે ત્યારે કેઠારમાંથી બીજા પાંચ શાલિકણે તેમને આપીશ. આમ વિચાર કરતાં મેં તમારા આપેલા પાંચે શાલિકને આમ તેમ ફેંકી દીધા અને ત્યાર બાદ હું મારા હંમેશાના ઘરકામમાં પરોવાઈ ગઈ. એથી હે તાત! આ શાલિકણે તમે જે આપેલા હતા તે નથી. પણ આ તે બીજા જ છે.
(तएणं से धण्णे उझियाए अतिए एयम सोच्चा णिसम्म आमुरते जाव “मिसेभिसे माणे उज्झतियं तस्स मित्त गाइ० च उण्हय मुण्हाणं कुलघरवग्गस्सय
For Private And Personal Use Only
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम्
"
२२१ जाज्वल्यमानः उज्झितां तस्य मित्रज्ञातिप्रभृतेः, चतसृणां च स्नुषाणां कुलगृहवर्गस्य च पुरतस्तां तस्य= स्वस्य कुळ गृहस्य 'छारुज्झियंच' क्षारोज्झि कां भस्मप्रक्षेपिकाम्, ' छाणुज्झियं च ' छगणोज्झिकां= गोमयमक्षेपिकाम् ' कयवरुज्झियं ' कचवरोजिझ = गृहकचचरमक्षेपिकाम्, 'समुच्छियंच' समुक्षिकां गृहाङ्गणे जलच्छटक दायिकाम्, 'संमज्जियंच ' संमाजिकां = गृहसंमार्जनकारिकाम् ' पाओवदाहयं पादोदकदायिकां= पादप्रक्षालनजलदायि काम्, 'व्हाणोवदाइयं स्नानोदकदा१ यिकां= स्नानार्थ जलदायिकाम्, 'बाहिर पेसणकारियं बाह्यमेषणकारिकं ' बाह्यपेषणकार्यकारिकाम्, 'ठवेइ' स्थापयति तादृशकार्यकारिणीत्वेन नियोजयतीत्यर्थः । माणे उज्झितियं तस्स मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघर वग्गस्स पुरस्कुलरस्स छारुज्झियं च छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च समुच्छियं च सम्मच्छियं च पाउवदाई च ण्हाणोवदाई च बाहिर पेसण काfids ) इस तरह वह धन्य सार्थवाह उज्झिता के मुख से इस कथन रूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में अवधारण कर शीघ्र ही कुपित हो गया । मिस मिसाने लग गया - क्रोधरूपी अग्नि से जलने लगा । उसने उसी समय उज्झिता को उस मित्र ज्ञाति आदि कों के तथा चारो पुत्र वधूओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष अपने घर की राख डालने वाली गोवर 'फेंकने वाली' कूड़ाकर कट साफ करने वाली, घर के आंगण में पानी छिड़कने वाली बुहारु देने वाली, पाद प्रक्षालन तथा स्नान के लिये जल देने वाली, बाहर जाने का काम करने वाली बना दिया ।
अर्थात् बाहिरी काम करने वाली दासी के पद पर उसे रख दिया । पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुज्झियं च छाणुज्झिये च कपवरुज्झियं च समुच्छियं च सम्मच्छियं च पाउवदाई च ण्हाणोवदाहं च बाहिर पेसणकारि ठवेइ )
આ પ્રમાણે તે ધાન્ય સાર્થવાહ' ઉઝિતાના મુખેથી આ વાત સાંભળીને તેને હૃદયમાં અવધારણ કરીને એકદમ ગુસ્સે થઇ ગયા.
ના
કુપિતાવસ્થામાં તે ક્રોધની જ્વાળાઓમાં સળગવા લાગ્યા. તેણે તેજ ક્ષણે ઉઝિતાને મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજના તેમજ ચારે પુત્રવધૂ કુળના માણસાની સામે ઘરની રાખ સાફ કરનારી, છાણુ સાફ કરનારી, કચરા વગેરે સાકરનારી, ઘરના આંગણામાં પાણી છાંટનારી, સાવરણી થી કચરા વાળનારી, પગ ધેાવામાટે તેમજ સ્નાનકરવા મટે પાણી તૈયાર રાખનારી અને ઘરની બહારના કામેા કરનારી બનાવી દીધી.
એટલે બહારનાં કામ કરનારી દાસીનારૂપે ધન્યસાથ વાહે તેની નિમણૂક કરી
For Private And Personal Use Only
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथानायचे श्रीवर्धमानस्वामीमाह- एवमेव हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं निम्रन्थो वा निग्रन्थीका यावत्मनजितः सन् विहरति यदि पश्च च तस्य महावतानि उज्झितानि परित्यक्तानि भवन्ति तर्हि स खलु इह भवे एव बहूनां श्रमणानां४चतुर्विधस
स्य हीलनीयः,निन्दनीयः, गर्हणीयः,यावत् चातुरन्तसंसारकान्तारमनुपर्यटिष्यति यथा सा उज्झिता ।
एवं भोगवतिकाऽपि भोगवतिकानाम्नी शाल्यक्षतभक्षिका द्वितीया पुत्रवधूरपि । नवर=विशेषस्त्वयम् तांभोगवतिकां तस्य=निजस्य कुलगृहस्य यावत् 'कंडलि अंच ' कण्डन्तिकाम् उदुखलादौ तण्डुलादीनां तुपापसारणार्थ मुशलादिनाऽवघा. तिनीम्, 'कुट्टयंतियंच' कुट्टयन्तिकांतिलादिचूर्णकारिकाम् , 'पीसंतियं च' 'पेपग्रन्तिकांघरट्टादौ गोधूमादीनां पेषणकारिकाम् , 'रूंधंतियंच' रुन्धयन्तिका ( एवामेव समशाउसो जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा जाव पवहए पंच य से महम्बयाई उझियोइं भवंति, से ण' इहभवे चेव बहूर्ण समणाणे ४ जाव अणुपरियटिस्सइ जहा सा उमिया ) श्री वर्धमान स्वामी इसका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि हे आयुष्मंत श्रमणो! जो हमारा निर्ग्रन्ध अथवा निग्रंन्धी साध्वीजन दीक्षा संयम लेते समय पंचमहाव्रत लेते हैं और यदि वह अपने महाव्रतों का परित्याग कर देता है तो वह उन्मिता की तरह इस भव में ही अनेक श्रमणजनों के द्वारा तयो चतुर्विध संघ के द्वारा हीलनीय होता है, निंदनीय होता है, गहणीय होता है-यावत् वह चतुगतिरूप इस संसार में परिभ्रमण करता रहता है । ( एवं भोगवइया वि' नवरं जाव कंडंतियं च, कुठं तियं च' पीसंनियं च, एवं रुधतियं च, रंधतिय परिवेसंतिय परिभायं.
(एचामेव समणा उसो जो अम्हं निग्गयो वा निग्गयीवा जाव पबहए पंच यसे महनयाई उज्जियाई भवंति, सेग इहभवे घेव बहूमं समगाणं ४ जाव अणुपरियट्टिस्सइ जहा सा उज्झिया)
શ્રી વર્ધમાન સ્વામી આવિષે ઉપસંહાર કરતાં કહે છે કે તે આયુષ્મતા શ્રમણ ! અમારા જે કઈ નિગ્રંથ કે નિર્ચથી સાધવીજન દીક્ષા સંયમ લેવાના વખતે પાંચ મહાવ્રતે સ્વીકારે છે અને ભવિષ્યમાં સ્વીકારેલા તે મહાવતે ને પરિત્યાગ કરે છે તે તે ઉઝિતા ની જેમજ આ ભવમાં ઘણું શ્રમણે વડે તેરજ ચતુર્વિધ સંધ વડે હલનીય હોય છે, નિંદનીય હોય છે, ગીંણીય હોય છે-યાવત-તે ચતુર્ગતિ વાળા આ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતે રહે છે. ' (एवं भोगवइयावि, नवरं जाव कंडंतियं च कुश्यंतियंच पीसतियंच, एवं
For Private And Personal Use Only
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ললাখেলায়িী কাজ ঘাথাবিনিমু ২২ यन्ने चणककोद्रवादीनां तुपापसारिकाम् , 'रंचंतियं च' रन्धयन्तिकाम् औदनादि पाचिकाम् ' परिवेसयंतिच' परिवेषणकारिकाम् 'परिभायंतियं च ' परिमाज यन्तिकां-पर्वदिनादौ स्वजनगृहेषु खण्डखाधादीनां संविभागकारिकाम् ' अन्मि तरियं च पेसणकारियं' आभ्यन्तरिकां च प्रेषणकारिका-गृहाभ्यन्तरप्रेषणकार्य: कारिकाम् ' महाणसिणि ' महानसिका महानससम्बन्धिसकलकार्यकारिणी'ठवे' स्थापयति-गृहाभ्यन्तरकार्यकारिणीत्वेन नियोजयतीत्यर्थः। श्री वर्धमानस्वामी तियं च अभंतरियं च पेसगकारि महाणसिणिं ठवेइ ) इसी तरह पन्य सार्थवाह ने अपने जो दूसरी पुत्रवधू भोगवतिका नाम की थी कि जिसने उन पांच शालि अक्षतों को खा लिया था उसे बुलाया
और उससे भी उशिता की तरह दिये हुए पांच शालि अक्षतों को बापिस मांगा-उसने “ वे पांच शालि अक्षत मैंने खा लिया है जब ऐसा कहा-तब उस धन्य सार्थवाहने उन मित्र ज्ञाति आदि परिजनों के समक्ष और पुत्रवधूओं के कुलगृह के व्यक्तियों के समक्ष अपने घर के भीतरी काम पर रख दिया।
उसके अधीन में घर का भीतर का यह काम दिया गयाओखली में मूशल से धान्य कूटना और चावल तैयार करना, तिलं आदि का चूर्ण करना, चक्की से गेंहुओं आदि पीस कर आटा तैयार करना, चना आदि की दाल बनाना तथा क्रोद्रव आदि को फर्श से दल करें उनके छिल के दूर कर उन की कुद ई बनाना ? चावल पकाना, रुधतियं च रंधतियं परिवेसतियं, परिभायतियं च अभंतरियं च पेसणकारि महाणसिणि ठवेइ) - આ પ્રમાણે જ ધન્યસાર્થવાહે પિતાની બીજી પુત્રવધૂગ વતીકાજે પાંચે શાલિહણે ખાઈ ગઈ હતી–તેને બેલાવી અને તેની પાસેથી પણ ઉઝિતાની જેમ પાંચે શાલિકણે માગ્યા. જવાબમાં ભગવતીકાએ જ્યારે એમ કહ્યું “કે તે પાંચે શાલિકણે હું ખાઈ ગઈ છું. ત્યારે ધન્યસાર્થવાહ તેને મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનો તેમજ ચારે પુત્ર વધૂઓના કુટુંબીઓની સામે તેને ઘરની અંદરના કામમાં તેની નિમણુંક કરી.
ધન્યસાર્થવાહે ઘરના નીચે મુજબના કામે તેને સેંપ્યા હતાં -ખાંડણિયા સાંબેલાથી શાળ (ધાન્ય) ખાંડવી અને ચોખા તૈયાર કરવા, તલ વગેરેને ભૂકે કરે. ઘંટીમાં ઘઉ વગેરે દળીને લેટ તૈયાર કરે. આખા ચણા વગેરે ની દાળ તૈયાર કરવી. તથા કેદરા વગેરેને ઘંટીથી ભરડીને તેનાં છેતરાં દૂર
For Private And Personal Use Only
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२२४
ज्ञाताधर्म कथासूत्रे
1
माह एवमेत्र = अनेनैव प्रकारेण हे आयुष्मन्तः ! श्रमणाः ! योऽस्माकं श्रमणो वा श्रमणीवा मत्रजितः सन् विहरति, यदि पंच च तस्य महाव्रतानि ' फोडियाई स्फोटितानि = खण्डितानि भवन्ति तर्हि स खलु इहभवे चैत्र बहूनां श्रमणानां ४ चतुर्विधसंघस्य हीलनीयः यावत् संसारमनुपर्यटिष्यति यथा च सा भोगवतिका धन्य सार्थवाहस्य द्वितीय पुत्रवधूः ।
एवं रक्षिताऽपि = रक्षितानाम्नी धन्यसार्थवाहस्य तृतीयपुत्रवधूरपि, नवरंधन्यसार्थवाहेन स्वदत्तशाल्लक्षतान् प्रत्यर्पयितुं याचिता सतो यत्रैव वासगृहं तत्रैभोजन करने वालों को भोजन परोसना, स्वजन के घरों में खण्ड - खाना खाद्य आदि का विभाग करना रसोई घर का समस्त कार्य करना ! ( एवामेव समणाउसो जो अम्हं समणो वा जाव पंचय से महव्वयाई फोडियाई भवंति से ण' इह भवे चेव बहूण समणाण ४ जाव हील णिज्जो ४ जहाव सा भोगवइया ) इसी तरह हे आयुष्मंत श्रमणो ! जो हमारा श्रमण अथवा श्रमणी जन प्रवजित होकर पंच महाव्रतों का खंडन करता है वह भोगवतिका की तरह इस भव में ही अनेक श्रमणों द्वारा तथा चतुर्विध संघ द्वारा हीलनीय होता है, यावत् अनादि अनंत इस संसार में परिभ्रमण करता है । ( एवं रक्खियावि नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छित्ता मंजू विहाडे, विहाडित्ता रयणकरंडगाओ ते पंच सालि अक्खए गेव्हइ ) इसी तरह धन्य सार्थवाह ने अपनी तृतीय पुत्रवधू से जिस का नाम रक्षित था अपने द्वारा दिये हुए ५ शालि अक्षतों को मांगा- सो वह जहां अपना वासगृह था वहां आई -
કરી તેમાંથી. કાદરી ખનાવવી, ભાત તૈયાર કરવા, જમનારાઓને પીરસવું સગાં સંખ’ધીઓનાં ઘરામાં પીરસણ વગેરે માલવું રસોઈઘરનું બધું કામ २. (एवामेव समणाउसो जो अम्हं समणोवा जाव पंत्रय से महव्यवाई कोडियाईं भवंति सेणं इह भवे चैव बहूण ४ जान हीलणिज्जो समणाणं ४ जहान सा भोगवइया) આ પ્રમાણે હું આયુષ્યન્ત શ્રમણેા ! જે અમારા શ્રમણ શ્રમણીજન પ્રત્રજિત થઈને પાંચ મહાવ્રતાનું ખંડન કરે છે. તે ભેાગવતીકાની જેમ આ ભવમાં ઘણા શ્રમણો વડે તેમજ ચતુર્વિધ સંઘદ્વારા હીલનીય હાય છે. યાવત્ અનાદિ અનંત આ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે.
उवागच्छित्ता
क
( एवं रक्विइयावि नवरं जेणेव वासघरे तेणेत्र उत्रागच्छ मंजूस विहाडे विहरता रयणकरंडगाओ ते पंचसालि अक्खए गेव्हइ ) આ રીતે જ ધન્યસા વાહે પેાતાની ત્રીજી પુત્રવધૂ રક્ષિતા પાસેથી પેાતે આપેલા પાંચ શાલિકણા માગ્યા. તે ત્યાંથી પેતાના નિવાસ
For Private And Personal Use Only
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी रीका अ०७ धन्यसार्थवाहवरितनिरूपणम् .. २२५ वोपागच्छति, उपागत्य मञ्जूषा 'विहाडेइ' विघटयति-उद्घाटयति विघटख्य मञ्जूषाभ्यन्तरस्थात् रत्नकरण्डकात् तान् पञ्चशाल्यक्षतान् गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रव धन्यः सार्थवाहस्तौवोपागच्छति. उपागत्य पश्च शाल्यक्षतान धन्यसार्थवाहस्य हस्ते ददाति. । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहो रक्षितां रक्षिताभिधां तृतीयपुत्र वधूमेवमवदत्- किं खलु पुत्रि ! त एवैते पञ्चशाल्यक्षताः उदाहु- अथवा अन्ये, इति । ततः खलु रक्षिता धन्यं सार्थवाहमेमवदत् त एव तात ! एते पश्च शाल्यक्षताः, नो अन्ये धन्यः सार्थवाह आह कथं खलु पुत्रि ! रक्षितान्माह-एवं खलु तात ! यूयमितः पञ्चमे संवत्सरे ' जाव' यावत् सर्वेषां मित्रज्ञातिप्रभृतीनां वहां आकर उसने अपनी पेटी खोली-उस में से रखी हुई रत्न की डिबिया निकाली-निकाल कर उसमें रखे हुए पांच शालि अक्षतों को लिया (गिण्हित्ता जेणेव धण्णे तेणेव उवागच्छद) और लेकर जहां धन्य सार्थवाह थे-वह वहां आई ( उवागच्छित्ता पंचसालि अक्खए धण्णस्स हत्थे दलयइ ) वहां आकर उसने पांच शालि अक्षतों को धन्य सार्थवाह के हाथ में सोंप दिया । (तएण से धण्णे रक्खियं एवं वयोसी ) धन्य सार्थवाह ने उन्हें लेकर रक्षिता से ऐसा कहा (किण पुत्सा! ते चेव एए पंच सालि अावया उदाहु अन्ने ?त्ति ) हे पुत्रि ! ये पांच शालि अक्षत वे ही हैं या और दूसरे ? (तएणं रक्खिइया धणे सत्यवाहं एवं वयासी ते चेव ताया! एए पंच सालि अक्खया णो अन्ने ) तय रक्षिता ने धन्य सार्थवाह से कहा-हे तात ! ये पांच शालि अक्षत वे ही हैं अन्य नहीं हैं । ( कहं पुत्ता ! एवं खलु ताओ तुम्भे સસ્થાને આવી. ત્યાં તેણે પિટી ખેલીને અંદરથી રત્નજડિત ડાબલી બહાર કાઢી. अमसीमाथी तेरी पाये शामि। दीपा. ( गिमिहत्ता जेणेव धण्णे तेणेव उवागच्इ) અને લઈને ધન્યસાર્થવાહ જ્યાં હતા ત્યાં આવી __ (उवागच्छित्ता पंचसालि अक्खए धण्णस्सहत्थे दलयइ )
ત્યાં આવીને તેણે પચે શાલિકો ધાન્યસાર્થવાહને આપી દીધા. (तएण से धण्णे रविवइय एवं वयासी ) धन्यसार्थ वा तिथे एने २क्षिताने (किंणं पुत्ता । ते चेव एए पंचसालि अक्खया उदाह अन्ने ! त्ति) ... “ पुत्रि ! AL पांय शालि ते छे , भीत ? "
( तएणं रक्खिइया धण्णे सत्थवाहे एवं वयासी ते चेव ताया ! एए पंच सालि अक्खया णो अन्ने )
ત્યારે રક્ષિતાએ ધસાર્થવાહને કહ્યું-“હે તાત ! આ પાંચ શાલિકણે તે જ છે બીજા નહિ
शा० २९
For Private And Personal Use Only
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथासूत्र पुरतः पञ्च शाल्यक्षतान् मयं दत्तवन्तस्तदा मम मनसि सकल्पो जात:-यत्तातः सर्वेषां पुरतः पञ्च शाल्यक्षतान् ददाति तत् 'भवियध्वं एत्थ कारणेणं ' 'भवित. ध्यमत्र केनापि कारणेन-अस्मिन् विषये किमपि कारणमवश्यं विद्यते ' तिकडु' इति कृत्वा इतिविचार्य तान् पश्चशाल्यक्षतान् शुद्धे-स्वच्छे निर्मले वस्त्रे बद्ध्वा रत्नकरण्ड के निक्षिप्य उच्छीर्षकमूले स्थापयित्वा 'तिसंझं' त्रिसन्ध्यं प्रभाते मध्याह्ने सायंकालेवा 'पडिजागरमाणो २ प्रतिजाग्रती २= पुनः पुनर्निरीक्षमाणा इओ पंचमंसि जाव ( भवियव्वं एत्य कारणेण) त्ति कटु ते पंच सालि अक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसंझं पडि जागर माणी २ विहरामि ) इस प्रकार रक्षिता की बात सुनकर धन्य सार्थवाह ने उससे पूछा-पुत्रि ! थे इसी तरह से अभी तक कैसे रक्खे रहे-तब रक्षिता ने कहा-सुनो मैं बताती हूँ-आपने आज से गत पांचवें वर्ष में जो ये पांच शालि अक्षत मुझे समस्त मित्र ज्ञाति आदि परिजनों के तथा पुत्रवधुओं के कुलगृह वर्ग के समक्ष दिये थे उस समय मेरे मन में ऐसा विचार आया कि ये तात जो मुझे सब जनों के सामने इन पांच शालि अक्षतों को दे रहे हैं और इन की रक्षा आदि के विषय में कह रहे हैं-सो इस में कोई न कोई कारण अवश्य है-ऐसा विचार कर मैंने उन पांच शालि अक्षतों को स्वच्छ-निर्मलवस्त्र में बान्ध कर एक रत्न की डिबिया में रख दिया और उसे अपने सिरहाने में रखकर आज तक में उसकी हर समय संभाल करती आ रही हूँ।
( कहणं पुत्ता एवं खलु ताओ ! तुम्भे इओ पंचमंसि जाव 'भवियव्वं एत्थ कारणेणं 'त्ति कटु ते पंचसालि अक्खए सुद्धे वत्थे जाव ति सम्म पडि जागरमाणी २ विहसमि)
આ રીતે રક્ષિતાની વાત સાંભળીને ધન્યસાર્થવાહે તેને પૂછયું “હે પુત્રિ ! અત્યાર સુધી કેવી રીતે આ શાલિકોને રાખવામાં આવ્યા. ત્યારે રક્ષિતાએ જવાબ આપતાં કહ્યું “સાંભળે,હું બધી વિગત તમારી સામે રજુ કરું છું. આજથી પાંચ વર્ષ પહેલાં બધા મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજને તેમજ ચારે પુત્રવધૂઓના કુટુંબીજનેની સામે તમે મને શાલિકો આપ્યા હતા. હે તાત! તમે મને બધા સ્વજનની સામે પાંચ શાલિકણો આપીને તેઓની રક્ષા માટે મને આજ્ઞા આપી હતી જેથી મેં વિચાર કર્યો કે આમાં કે રહસ્ય જોક્કસ છુપાયેલું છેઆમ વિચાર કરીને પાંચે શાલિકને સ્વચ્છ નિર્મળ વસ્ત્રમાં બાંધીને એક રત્નની કાબલીમાં મૂકી દીધા, અને તેને ઓશીકાની નીચે મૂકીને આજ (દિવસ) સુધી તેની રક્ષા કરતી રહી છું.
For Private And Personal Use Only
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
"
૨૨૭
गारमृतपिणी टीका भ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् विरामि = अद्यावधि तिष्ठामि तदेतेन कारणेन हे ताक ! त एवैते पञ्च शास्यक्षताः, नो अन्ये । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहो रक्षिताया अन्तिके =समीपे एतमर्थ श्रुत्वा हृष्ट तुष्टः तस्य = निजस्य कुलगृहस्य ' हिरण्णस्य ' हिरण्यस्य च = रजतस्य यावत् कांस्यदृष्य विपुलं यावत्स्वापतेयस्य हिरण्यादि यावन्मात्रधनस्य ' भाण्डागारिणि भण्डामाराधिष्ठात्रीं ' ठवे ' स्थापयति-सर्वधनाधिकारिणी त्वेन नियोजयतीत्यर्थः । श्रीवर्धमानस्वामी प्राह एवमेव हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः योऽस्माकं श्रमणो वा श्रयणी वा प्रव्रजितः सन् विहरति, यदि पञ्च च तस्य महाव्रतानि
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( तं एएण कारणेण ताओ ! ते चेव एए पंच सालि अक्खए पो अन्ने) इस कारण हे तात ! वे पांच शालि अक्षत ये हो हैं, दूसरे नही है । (तएण से धण्णे रक्विइयाए अंतिए एयमहं सोच्चा हट्टतुट्ठ० तस्स कुलधरस्स हिरन्नस्स य जाव कंसदूस विउलधण जाव सावतेज़स्स य भंडागारिणि ठवे ) इस तरह उस धन्य सार्थवाह मे रक्षिका के मुख से इस अर्थ को सुनकर बहुत अधिक प्रसन्न और संतुष्ट होकर उसे अपने घर में जितना भी सोना चांदी आदि धन था उसकी अधिकारिणि बना दिया ।
( एवामेव समणाउसो जाव पंच य से महव्वयाइं भवति, सेणं इह भवे चेत्र बहूण समणाणं ४ अच्चणिज्जे४ जहाव सा रक्खिया) इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणों । जो हमारा श्रमण और श्रमणी जन प्रत्रजित होकर इतस्ततः विहरण करता है यदी उस के पांच महाव्रत
(तं एएणं कारणं ताओ ! ते चेत्र एए पंचसालि अक्खए णो अन्ने) એટલે હું તાત ! તે પાંચ શાલિકણા એજ છે, ખીા નથી
( तरणं से धण्णे रक्खियाए अंतिए एयमहं सोच्चा हट्टतुट्ट० तस्स कुलधरस्त हिरनस्य जाव कंसइस बिउल धणजाव तेज्जस्सय भंडारगारिणि ठवेइ) આ રીતે ધાન્યસા વાહે રક્ષિકાના મુખેથી ખંધી વિગત સાંભળીને ખૂજ પ્રસન્ન તેમજ સતુષ્ટ થતાં તેને પેતાના ઘરમાં જેટલું સાદું ચાંદી વગેરે ધન હતું તેની અધિકારીણી બનાવી દીધી.
( एवामेव समणाउसो जात्र पंचयसे महन्त्रयाई रक्खियाई भवंति सेर्ण इहभवे चैत्र बहूणं समणागं ४ अच्चणिज्जे ४ जहात्र सा रक्खिया )
આ પ્રમાણે હું આયુષ્યન્ત શ્રમણેા ! જે અમારા શ્રમણ તેમજ શ્રમણી જના પ્રજિત થઈને આમ તેમ વિહાર કરતા રહે છે, તેમ કરતાં જો તેમના
For Private And Personal Use Only
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
खाताधर्मकथाजस्त्र रक्षितानि भवन्ति स खलु इहभवे चैत्र बहूनां श्रमणानां४ चतुर्विधसंघस्य अर्चनीयः यावत् समाननीयो भवति यथा सा रक्षिता-धन्यसार्थवाहस्य तृतीया पुत्रवधूः। . रोहिणिकाऽप्येवमेव-रोहिणिकानाम्नी धन्यसार्थवाहस्य चतुर्थपुत्रवधूरपि पूर्व वदेव विया, नवरं विशेषस्त्वम्-श्रेष्ठिना समाहूय ' महत्तान् पञ्चशाल्यक्षतान् समर्पय' इत्येवं कथिता सती रोहिणिका श्रेष्ठिनं प्रत्याह-हेतात ! यूयं मयं सुबहुकम्-अनेकसंख्यकं , सगडीसागडं शकटीशाकटं शकटया लघुगाडिकाः शाकट-शकटसमूहः, शकटयश्च शाकटं चेत समाहारे शकटीशाकटम् अनेकगाडी शकट समूह 'दलह' दत्त-प्रयच्छत, येन शकट यादिनाऽहं 'तुम्भ ' युष्माकं तान् सुरक्षित रहते हैं तो वह इस भव में ही अनेक श्रमणादि जनों द्वारा तथा चतुर्विध संघ द्वारा अर्चनीय होता है यावत् संमान नीय होता है। जैसे वह धन्य सार्थवाह की तृतीय पुत्रवधू रक्षिता हुई है । ( रोहि णियावि एवं चेव नवरं तुम्भे ताओ ! मम सुबहुयं सगड़ी सागडं दलाह जेणं अहं तुन्भं ते पंच सालि अक्खए पडिणिज्जाएमि ) इसी तरह धन्य सार्थवाह की चौथी पुत्रवधू रोहिणी का भी चरित्र जानना चाहिये परन्तु इसमें जो विशेषता है-वह इस प्रकार है-जब धन्यसार्थवाहने चौथी अपनी पुत्रवधू रोहिणिका को बुलाया और घुलाकर उससे ऐसा कहा किमैने आज से गत पांचवे वर्ष जो तुझे पांच शालि-अक्षत दिये थे-उन्हें तुम वापिस मुझे आज दो-तब रोहिणिकाने उनसेकहा हे तात ! आप मेरे लिये अनेक छोटी गाडियां और बडी २ गाडियां दीजिये-कि जिनके द्वारा मैं आपके उन पांच शालि अक्षतों को भरપાંચ મહાવ્રતે સુરક્ષિત રહે છે તે આ ભવમાં તે અનેક શ્રમણે દ્વારા અર્ચ નીય હોય છે. યાવતું સન્માનનીય હોય છે, ધન્ય સાર્થવાહની ત્રીજી પુત્રવધુ રક્ષિતા જેમસન્માનીત થઈ તેમજ તે પણ સન્માનીત થાય છે.
(रोहिणियावि एवं चेव नवरं तुम्भे ताओ ! मम सुबहुयं सगडीसागडं दलह जेणं अहं तुभं ते पच सालि अक्खए पडिणिज्जाएमि) ( આ પ્રમાણે હવે આપણે ધન્યસાર્થવાહની ચોથી પુત્રવધૂ રેહિણના ચરિત્ર વિષે પણ જાણવું જોઈએ. તેના ચરિત્રની વિશેષ વાત આ પ્રમાણે છે કે–
જ્યારે ધન્યસાર્થવાહે પિતાની ચેથી પુત્રવધૂ હિણિકાને બેલાવી અને બોલાવીને તેને એમ કહ્યું કે આજથી પાંચ વર્ષ પહેલાં મેં તને પાંચ શાલિકણે આપ્યા હતા તે મને પાછા આપે. ત્યારે રેહિણિકાએ તેમને કહ્યું. કે હે તાત ! તમે મને અનેક નાની મોટી ગાડીઓ આપે કે જેથી તમે આપેલા પાંચ શાલિકને તેમાં ભરાવીને અહીં લાવું અને તમને પાછા
For Private And Personal Use Only
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
-
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् २२९ पश्च शाल्यक्षतान् ‘पडिणिज्जाएमि' प्रतिनिर्यातयामि-प्रतिसमर्पयामिः । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहो रोहिणीमेवमवदत्- कथं खलु हे पुत्रि ! त्वं मम तान् पञ्च शाल्यक्षतान् शकटीशाकटेन 'पडिणिज्जाइस्ससि' प्रतिनिर्यातयिष्यसि-प्रतिसमर्पयिष्यसि ? ततः खलु सा रोहिणी धन्यं सार्थवाहमेवमवदत्-एवं खलु हे तात! यूयम् इतः पञ्चमे संवत्सरे-अस्य पित्रज्ञातिप्रभृतेः पुरतः संरक्षणार्थ संगोपनार्थ पश्च शाल्यक्षतान् मह्यं दत्तवन्तः, तान् गृहीत्वा मया चिन्तितम्-अत्रकेनापि वाकर यहां ला सकू-और आपको पीछे वापिस करसके (तएणं से धण्णे रोहिणि एवं वयासी) रोहिणिका की इस प्रकार बात सुनकर धन्यसार्थवाहने उससे ऐसा कहा-(कहं णं पुत्ता! तुमं मम ते पंच सालि अक्खए सगडी सागडेणं निन्जाइस्ससि ) पुत्रि ! किस तरह तुम मुझे वे पांच शालि अक्षत शकटी और शकट समूह में भरने लायक कर पीछे वापिस देना चाह रही हो ? (तएणं सा गहिणि धण्णं एवं वयासी-एवं खलु ताओ! तुम्भे इओ पंचमें संवच्छरे इमरस मित्त० जाव वहवे कुंभसया जाया-तेणेव कमेणं एवं खलु ताओ। तुम्भे ते पंच सालि अक्खए सगडी सागडेणं निजाएमि) धन्यसार्थवाह का ऐसा कहना सुन कर रोहिगिका ने कहा-तात ! आजसे पांचवें वर्ष में आपने मुझे मित्र ज्ञाति आदिपरिजनों के समक्ष बुला कर५ पांच शालि अक्षत दिये थे और उनके संरक्षण संवर्धन आदि विषय में आपने शिक्षा की थी।
मापी शर्छ (तएण से धण्णे रोहिणि एवं वयासी) डिलिवानी मारीते વાત સાંભળીને ધન્યસાર્થવાહે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું ... (कहणं पुत्ता ! तुम ते पंचसालि अक्खए सगडीसागडेणं निज्जाइस्ससि)
હે પુત્રી ! મેં આપેલા પાંચ શાલિકાને તમે નાની મોટી ઘણી ગાડી એમાં ભરાવીને કેવી રીતે આપવા માંગે છે
(तएणं सा रोहिणी धणं एवं वयासी-एवं खलु ताओ ! तुम्भे इओ पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त. जाव वह वे कुंभपया जाया तेणेव कणं एवं खलु ताओ तुम्भे ते पंवसालि आवए सगडी सागडेगं निज्माएमि) ધન્યસાર્થવાહનું કથન સાંભળીને હિણિકાએ તેમને કહ્યું- હે તાત! આજથી પાંચ વર્ષ પહેલા મિત્રજ્ઞાતિ વગેરે પરિજન ની સામે મને બેલાવીને તમે પાંચ શાલિકણે આપ્યા હતા અને આપતી વખતે તમે તેમના સંરક્ષણ સંવર્ધન વગેરેની બાબતમાં સૂચન કર્યા હતા.
તમારી પાસેથી શાલિકણે લઈને મેં આમ વિચાર કર્યો કે આ પાચ શાલિકણે તાતે આપ્યા છે અને તેમના સંરક્ષણ તથા સંવર્ધન વિષે જે
For Private And Personal Use Only
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
२० कारणेन भवितव्यमिति, तदनु पितृगृहपुरुषान् समाहूय मया वर्द्धयितुं तेभ्यस्ते पश्च शाल्यक्षता दत्ताः । तैः सुपरिकर्मित केदारेषु वपनादि क्रियाभिः परिवद्धिता जातोस्ते प्रथमे वर्षे मागधप्रस्थपरिमिताः शालयः । एवं क्रमसो द्वितीय वर्षे शालीनां बहवः कुडवाः संजाताः । तृतीये वर्षे बहवः कुम्भाः । चतुर्थे संवत्सरे बहूनि कुम्भशतानि शालीनां संजातानिः । तेनैव क्रमेण एवं खलु हे तात ! युष्माकं तान् पञ्च झाल्यक्षतान् शक्टीशाकटेन प्रतिनिर्यातयामि समपयामिः। तत खलु स धन्यः सार्थवाहो रोहिणिकायै सुबहुकम्-अनेकसङ्ख्यकं शक्टी शाकटं ददाति,। ____ मैंने उन्हें लेकर ऐसा विचार किया-कि तातने जो ये पांच शालि अक्षत दिये है और उनके संरक्षण आदि के विषय में जो कहा है सो नियमतः इसमें कोई न कोई कारण अवश्य है-ऐसा विचार कर मैंने पितृगृह (पीयर ) के पुरुषों को बुलाया और उन्हें उन पांच सालि अक्षतों को बढाने के लिये दिया। ____ उन लोगों ने उन्हें लेकर सुपरि कर्मित खेतों में वपनादि क्रिया द्वारा खूब बढाया प्रथम वर्ष में वे मगधदेश प्रसिद्ध प्रस्थप्रमाण निपजे । द्वितीय वर्ष अनेक कुड़व प्रमाणयोने पर हुए। तृतीय वर्ष में वे अनेक कुंभप्रमाण हुए। चौथे वर्ष सैकड़ों कुंभप्रमाण हुए। इस तरह आपके द्वारा दिये हुए वे पांच शाल अक्षत आज अनेक गाडी और गाड़ा प्रमाण हुए हैं-इसलिये मैं आपके लिये आज उन्हें अनेक गाड़ी और गाडा प्रमाण करके पीछे वापिस देरही हूँ। तएणं से धण्णे सत्यवाहे रोहिणियाए सुबहुयं सगडी सागडं दलयइ, तएणं सा रोहिणिं सुबई કંઈ મને કહ્યું છે, જેથી ચક્કસ આ વાતમાં કંઈક રહસ્ય હોવું જોઈએ. એમ વિચાર કરીને મેં પિયરના માણસને બેલાવ્યા અને તેમને વર્ધન માટે પાંચ શાલિકણ આવ્યા.
તેમણે શાલિક લઈ લીધા, અને સુપરિકર્મિત ખેતરમાં વાવીને તે કણેની ખૂબ વૃદ્ધિ કરી. પહેલા વર્ષે મગધ દેશ પ્રસિદ્ધ પ્રસ્થ પ્રમાણુ જેટલા શાલિકણે થયા. બીજા વર્ષે વાવવાથી ઘણા કળશે ભરાય તેટલા થયા, ત્રીજા વર્ષે બીજા વર્ષ કરતાં પણ વધારે કળશે ભરાય તેટલી શાલિ થઈ ચોથા વર્ષે વાવવાથી સેંકડો કળશે ભરાય તેટલી શાલિ થઈ. આ પ્રમાણે તમે આપેલા પાંચ શાલિકણે આજે ઘણું નાની મોટી ગાડીઓમાં ભરાય તેટલા થઈ ગયા છે, તેથી જ હું આપને તે પાંચ શાલિકો અનેક ગાડીઓમાં ભરાય તેટલા પ્રમા ણમાં વધન કરીને પાછા આપી રહી છું. . (तएणं से धणे सत्यवाहे रोडिणियाए सुबहुयं सगडी सागडं दलयह,
For Private And Personal Use Only
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनार पिंगा टीका ) 9 धन्यलार्यवाहरितनिरूपणम २१ ततो खलु सा रोहिणी सुबहुकं शकटोशाकटं गृहीत्वा यत्रैव स्वकं कुलगृह-पितृगृह तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य कोष्ठागाराणि-कोष्ठगृहाणि — विहाडेइ 'विघटयति उद्घाटयति, विघटथ्य पल्लान-शालिकोष्ठान ' उम्भिदेइ ' उद्भिनत्ति-उन्मुद्रितान् करोति, तेषां मुद्रामपनयतीत्यर्थः, उद्भिद्य शकटीशाकटं भरति, भृत्वा राजगृहं नगरं मध्य मध्येन यत्रैव स्वकं गृहं. यौव धन्यः सार्थवाहस्तमैवोपागच्छति । ततः खलु राजगृहे नगरे शृङ्गाटक यावत्-महापथपथेषु बहुजनोऽन्यो न्यमेवमाख्याति संगडी सागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोडागारे विहाडेइ) इस तरह रोहिणिका के वचन सुनकर धन्य सार्थ वाहने उसे अनेक शकटी और शकों को दिया वह रोहिणि का उन अनेक शकटी और शकटो को लेकर जहां अपना कुलगृह था वहां पहुंची-पहुंच कर उसने वहां के कोष्ठागार को उघाड़ा (विहाडिता पल्लं उभिदइ)-उघाड़ कर वहां रक्खे हुए शालि कोष्ठों को खोला उन्हें मुद्रा रहित किया-( उभिदित्ता सगड़ीसागडं भरेइ ) बाद में उनसे अनेक शकटी और शकटों को भरा ( भरित्ता रायगिहं नयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेच धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छद) भर कर राजगृह नगर के ठीक बीचो बीच के मार्ग से होकर वह जहां अपना घर था और जहां धन्य सार्थवाह थे वहां पहुँची-(नएणं रायगिहे नयरे सिंगाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नं एवमाइक्खइ, धण्णेणं तएणं सा रोहिणीं सुबहुं सगडीसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उना. गच्छइ, उवागाच्छित्ता कोट्ठागारे विहाडेई )
આ રીતે હિણિકાની વાત સાંભળીને ધન્યસાર્થવાહે તેને ઘણી નાની મોટી ગાડીઓ આપી. હિણિક તે બધી નાની મોટી ગાડીઓને લઈને જ घातानु पिय२ हेतु त्यो मावी त्या मान ते त्यांना 3310 Gघाउये (विहारिता पल्लं उभिदह) त्यामा त्यो भूसा बिना ॥२॥ने जाया ( उभिदि. सासगडीसागडं भरेइ) भने मनाथी नानी मोटी थी सोने मरी.
(भरित्ता गयगिहं नयरं मज्झ मज्झेणे जेणेव सए गिहे जेणेव घण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ)
ભરીને રાજગૃહ નગરના ઠીક મધ્ય માર્ગે થઈને જ્યાં તેનું પોતાનું ઘર અને જ્યાં ધન્યસાર્થવાહ હતા ત્યાં પહોંચી (तएणं रायगिहे नयरे सिंघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नं एकमाइक्खइ,
For Private And Personal Use Only
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथागस धन्य धन्यवादपानं खलु हे देवानुप्रियाः धन्यः सार्थवाहः यस्य खलु रोहिणिका स्नुषा-चतुर्थपुत्रवधूः पञ्च शाल्यक्षतान् शकटीशाकटेन निर्यातयति. । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः पञ्च शाल्पक्षतान् शकटीशाकटेन निर्यातितान् समर्पितान् पश्यति दृष्ट्वा हृष्टः यावत् — पडिच्छइ' प्रतीच्छति-धीकरोति, प्रतीष्य-स्वी कृत्य तस्यैव मित्रज्ञातिप्रभृतेः, चतसृणां च स्नुषाणां कुलगृहस्य पुरतो रोहिणिकां स्नुषां तस्य-निजस्य कुलगृहस्य-कुटुम्बस्य बहुषु कार्येषु च यावद् रहस्येषुःच देवाणुपिया ! धण्णे सस्थवाहे ते पंच सालि अक्खए सगडी सागडेणं निजाइए पासह पासित्ता हट तुट्ठ पडिच्छह, पडिच्छित्ता तस्सेव मित्तणइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरस्त पुरओ रोहिणियं सुण्हं तस्स कुल घरस्स बहुसु कज्जेतु य जाव रहस्सेतु य अपुच्छणिज्ज जाव सव्यक ज्ज वडावियं पमोणभूयं ठावेइ) जब वे गाड़ी और गाड़े भरे हुए राजगृह के मध्यमार्ग से होकर जा रहे थे-तय लोगों ने देखकर नगरमें शृंगाटक आदि मार्गों के ऊपर परस्पर इस प्रकार से बात चित करना प्रारंभ किया " देवाणुप्रियो ! देखो धन्य सार्थवाह कितना अधिक धन्य वाद का पत्र है कि जो चतुर्थ पुत्र वधू रोहिणिका के द्वारा पांच शालि अक्षतों की गाडी और गाडों से भरकर पीछे लौटाये हुए देख रहा है। और हष्ट तुष्ट हो उन्हें स्वीकार कर रहा है । तथा स्वीकार करके उस रोहिणिका को मित्रज्ञाति आदि परिजनों के चारों पुत्रवधूओं के कुल धण्णेणं देवाणुप्पिया ! धण्णे सत्यवाहे ते पंचसालि अक्खए सगडीसागडेणं नि ज्जाइए पासइ पासित्ता हट्ठ तुट्ठ पडिच्छइ पडिच्छित्ता तस्सेव मित्तणाइ. चउण्ड य सुण्हाणं कूलघरस्स पुरओ रोहिणियं मुण्डं तस्स कुलघरस्स बहुमु कज्जेसुय जाव रहस्सेसुय आपुच्छणिज्जं जाव सबकज्ज वडावियं पमाणभूयं ठावेइ)
જ્યારે તે નાની મોટી ગાડીઓ રાજગુડ નગરના મધ્યમાર્ગે થઈને પસાર થઈ રહી હતી ત્યારે નગરના શ્રાટક વગેરેમાં એકઠા થયેલા લે કે પરસ્પર આ પ્રમાણે વાત કરવા લાગ્યા “દેવાનુપ્રિયે !: જુઓ ધન્યસાર્થવાહ કેટલે બધે ભાગ્યશાળી છે કે જે આજે એથી પુત્રવધૂ હિણિકા વડે પાંચ શાલિકણનાં ગાડાંએ અને ગાડીઓ ભરીને ફરી પાછા આવતાં જોઈ રહ્યો છે. અને પ્રસન્ન થઈને તુષ્ટ થઈને તેને સ્વીકારી રહે છે. તે આ બધું સ્વીકારીને હિણિકાને મિત્ર, જ્ઞાતિ વગેરે પરિજને તેમજ ચારે પુત્રવધૂઓના કુટુંબી
For Private And Personal Use Only
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनंगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् ॥ आमच्छनीयां यावत् सर्वकार्यवद्धिका प्रमाणभूतां — ठवेइ स्थापयति सर्व कुटुम्बाधिष्ठात्रीत्वेन तां नियोजयतीत्यर्थः । ___ एवमेव हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं श्रमणोवा श्रमणीवा प्रबजितः सन् विहरति यदि पञ्च च तस्य महाप्रतानि संवर्द्धितानि भवन्ति स खल्ड इहमवे एव बहूनां श्रमणानां ४= चतुर्विधसंघस्य अर्चनीयः-यावत् चातुरन्तसंसारकान्तारं 'वीइवइस्सइ ' व्यतिब्रजिष्यति-पारयिष्यति यथा च सा रोहिणिका-धन्यसार्थवा हस्य चतुर्थी पुत्रवधूः । उक्तश्चगृह वर्ग के समक्ष अपने कुटुम्ब के अनेक कार्यों में यावत् रहस्यों में पूछने योग्य यावत् समस्त कार्यों में प्रमाणभूत उसे बना रहा है। ___ तथा संपूर्ण कार्यों की बढ़ाने वाली उसे मान रहा है-कारण इस का केवल यही है कि धन्य सार्थवाह ने उस रोहिणिका को अपने समस्त कुटुम्ब की अधिष्ठात्री बना दिया। (एवोमेव समाणाउसो ! जाव पंच य से महव्वया संवड़िया भवंति सेणं इहभवे चेव बहुणं समणाणं ४ अञ्चणिज्जे जाव वीईवहस्सइ जहाव सा रोहिणिया एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयम पत्ते त्ति बेमि ) इस तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जा हमारा श्रमण तथा श्रमणीजम दीक्षित होता हुआ अपने पंच महाव्रतों को बढाता रहता है वह रोहिणिका की तरह इस भवमें ही अनेक श्रमण आदि महोनु. भावों द्वारा तथा चतुर्विध संघ द्वारा अर्चनीय आदि होता हुआ चतु: એની સામે પિતાના કુટુંબની ઘણી બાબતમાં યાવત બીજી પણ ઘણું રહસ્થની મહત્વપૂર્ણ વ તેમાં તેની સલાહ લઈને તેને પ્રમાણભૂત બનાવી રહ્યો છે.
તેમજ રેહિણિકાને તે બધા કામને સંપૂર્ણ રીતે પાર પાડનારી માની રહ્યો છે. કેમ કે ધન્યસાર્થવાહ રે હિણિકાને પિતાના આખા કુટુંબની અધિષ્ઠાત્રી બનાવી દીધી છે . (एवामेव समाणाउसो ! जाव पंचय से महत्वया संवड़िया भवंति से ण इह भवे चेव बहुणं समणाण ४ अच्चणिज्जे जाव वीईवइस्सइ जहाव सा रोहिणिया एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अपमढे पन्नत्ते तिबेमि)
આ પ્રમાણે જ છે આયુષ્યન્ત શ્રમણે! જે અમારા શમણ તેમજ શ્રમણીજન દીક્ષિત થઈને પિતાના પંચમહાવ્રતનું વર્ધન કલા રહે છે–તે હિંણિકાની જેમ આ જગતમાં જ ઘણા શ્રમણ વગેરે મહાનુભાવો દ્વારા તેમજ ચતુર્વિધ સંઘદ્વારા અર્ચનીય હોય છે. અને તે ચતુર્ગતિ » આ અનાદિ
शा ३०
For Private And Personal Use Only
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
साताधर्मकथासूत्रे __“जहसेही तह गुरुणा, जहणाइजणो तह समणसंघोय । जह बहुया तह भन्या, जह सालिकणा तह वयाई ॥१॥” इति छाया-" यथाश्रेष्ठी तथा गुरवः, यथाज्ञातिजनस्तथा श्रमणसंघश्चः । यथा वध्वस्तथा भव्याः (श्रमणाः) यथा शालिकणास्तथा व्रतानि ॥ १॥ इति
एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् मोक्षं संप्राप्तेन सप्तमस्य शाताध्ययनस्यायम्-पूर्वोक्तः अर्थ-भावः प्रज्ञप्तः=प्ररूपितः। ' इति ब्रवीमि इति पूर्ववत् . ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छप्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलाल
वतिविरचितायां — ज्ञाताधर्मकथाङ्ग' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
- पिण्याख्यायां व्याख्यायां सप्तममध्ययनं संपूर्णम् ॥ ७॥ र्गति रूप इस अनादि संसार कान्तार को पारकरदेताहै । कहा भी हैश्रेष्ठी के स्थानापन्न यहां गुरुजन हैं ज्ञातिजनों के स्थानापन्न श्रमण संघ है, बधुओं के स्थानापन्न भव्यजन हैं और शालिकणों के समान पांच महावत है।
इस प्रकार हे जंबू ! मुक्ति को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने इस सप्तम ज्ञानाध्ययन का पूर्वोक्त अर्थ प्ररूपित किया है। ऐसा मैं तुम से कहता हूँ। श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का सातवा
अध्ययन समाप्त ॥ ७॥ સંસાર કાંતાર (જંગલ) ને પાર થઈ જાય છે. અહીં શ્રેષ્ઠીને સ્થાને ગુરુ જન છે. જ્ઞાતિજનેના સ્થાને શ્રમણ સંઘ છે. સગાવહાલા એના સ્થાને ભવ્ય જન છે અને શાલિકણે ના સ્થાને પંચમહાવ્રત છે.
આ રીતે હે જંબુ! મુક્તિ મેળવેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ સાતમા જ્ઞાતા ધ્યયનને અર્થપૂર્વોક્ત રૂપે નિરૂપિત કર્યો છે. આમ હું તમને કહી રહ્યો છું. શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “જ્ઞાતાધર્મકથાડગ” સૂત્રની અનગાર ધર્મામૃતવર્ષિણી વ્યાખ્યાનું સાતમું અધ્યયન સમાપ્ત મછા
For Private And Personal Use Only
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ अथाष्टममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ उक्तं सप्तमाध्यनं सम्प्रतं मल्लीनामकममष्टमाध्ययनमुच्यते, एवं रूपेण सहास्य सम्बन्धः-पूर्वाध्ययने ' महाव्रतानां विराधनायामों भवति, तथा तत्समारा धनायां शिवसुखावाप्तिरूपः परमार्थों भवती' त्युक्तम् , अस्मिन्नध्ययने तु तेषां महावतानामेव स्तोकेनापि मायाशल्येन मालिन्ये सति यथावत् स्वफलजनकत्वं नास्तीति प्रतिबोध्यते, इत्येवं प्रसंगतः प्राप्तस्यैतस्याध्ययनस्य प्रथम मूत्रमाह
-: अष्टम अध्ययन प्रारभसातवां अध्ययन का भाव संपूर्ण हो गया है-अब मल्ली नामका अष्टम अध्ययन प्रारंभहोता हे ! इसअध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से संबंध है कि पूर्व अध्ययनमें जो यह विषय कहा गया है कि जो साधुमहाव्रतों की विराधना करता है वह अनेक अनर्थों का भोक्ता होता है और चतुर्गति संसार में परिभ्रमण करता है जो इनकी रक्षा करता है-अच्छी तरह से आराधना करता है-वह शिव सुख प्राप्तिरूप परमार्थका भोक्ता होता है।
अब इस अध्ययन में सूत्रकार इसवातको स्पष्ट कहते हैं कि उन महाव्रतों में यादि थोडीसी भी मायाशल्य से मलिनता आजाती है तो वे यथावत् अपने फलके जनक नहीं होते हैं । इसीसंबंध से प्राप्त हुए इस अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है जहणं भंते इत्यादि
આઠમું અધ્યયન. સાતમું અધ્યયન પુરૂં થઈ ગયું છે. હવે મલી નામે આઠમું અધ્યયન પ્રારંભ થાય છે. આ અધ્યયનને પૂર્વ અધ્યયનની સાથે સંબંધ એવી રીતે છે કે–સાતમાં અધ્યયનમાં એ પ્રકારે ચર્ચા થઈ કે જે સાધુ મહાવ્રતની વિરાધના કરે છે તે ઘણા અનર્થોને ભેગવનાર હોય છે, અને તે ચતુર્ગતિ રૂપ આ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે. જે પંચમહાતેની રક્ષા કરે છે–સારી પેઠે તેમની આરાધના કરે છે તે શિવસુખ પ્રાપ્તિરૂપ પરમાર્થને ભેગવતા હોય છે.
હવે આઠમાં અધ્યયનમાં સૂત્રકાર એ બાબતનું સ્પષ્ટીકરણ કરે છે કે મહાવતેમાં જે ડી પણ માયા શલ્યથી મલીનતા આવી જાય તો તેમનું ફળ સંપૂર્ણ પણે મળતું નથી. એજ સંબંધની ચર્ચા માટેના આઠમા અધ્યાયनतुं मा ५९ सूत्र छ. ' जइण भंते । इत्यादि
For Private And Personal Use Only
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
. २३६
शाताधर्म कथासूत्रे
मूलम् - जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, अट्टमस्स पणं भंते ! के अट्ठे पण्णत्ते ? |
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे महाविदेहेवासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं निसदस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं सीयोयाए महाणइए दाहि णेणं सुहावहस्स वक्खारपव्वतस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं एत्थणं सलिलावतीनामं विजए पन्नत्ते, तत्थ णं सलिलावती विजए वीयसोगानामं रायहाणी पण्णत्ता, नवजोयणवित्थिन्ना जाव पच्चक्खं देवलोगभूया, तीसे णं बीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरस्थि मे दिसि - भाए इंदकुंभे नाम उज्जाणे, तत्थ णं वीयसोगाए रायहाणीए बले नाम राषा तस्स धारणीपामोक्खं देवी सहस्सं ओरोहे, होत्या, तरणं सा धारिणीदेवी अन्नया कयाई सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा जाव महब्बले नामं दारए जाव उम्मुक्क जाव भोगस मत्थे || सू० १ ॥
,
टीका - श्री जम्बूस्वामी पृच्छति' जइणं भंते !' इत्यादि ' जइ ' यदि 'णं' खलु ' भंते !' हे भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रीवर्धमान स्वा
"
7
टीकार्थ - ( जणं भंते ! ) श्री
स्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं। कि (जणं भते !) हे भदंत ! यदि (समणेणं भगवया महाविरेणं जाव संपत्तेर्ण सत्तमस्स प्रायज्झयणस्स अयमठ्ठे पण्णत्ते अट्टमस्स णं
टीडार्थ - ( जइण भंते!) श्री भू स्वामी पूछे छे छे (जय भंते ) हे लत ! ले ( समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते अट्टमस्स णं भंते ! के अद्वे पण्णले )
For Private And Personal Use Only
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ घलराजवरितनिरूपणम् ___२३७ मिना यावत्- सिद्रिगतिनामधेयं स्थानं संपाप्तेन सप्तमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थः पज्ञप्तः, अष्टमस्य खलु हे भदन्त ! कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ?
एवं श्रीजम्बू स्वामिना पृष्ठः श्री सुधर्मास्वामी तं कथयति- ‘एवं खलु जम्बू इत्यादि. । एवं खलु हे जम्बूः! तस्मिन् समये- इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे मध्य जम्बू द्वीपे महाविदेहे वर्षे महाविदेहनामके क्षेत्रे मन्दरस्य पर्वतस्य मेरुगिरेः 'पच्चस्थि मेणं' पश्चिमे पश्चिमायां दिशि · निसहस्स' निपधस्य-निषधपर्वतस्य · वासहरप व्ययस्स' वर्षधरपर्वतस्य ‘उत्तरेणं ' उत्तरस्मिन् उत्तरस्यां दिशि · सीयोयाए महाणइए' शीतोदाया महानद्याः 'दाहिणे' दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशि सुखाव अटे पण्णत्ते) श्रमण भगवान महावीरने कि जो मोक्षको प्राप्त हो चुके है सातवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वाक्त अर्थ प्ररूपित किया है तो हे भंदत ! उन्होंने आठवे ज्ञाताध्ययन का क्या भाव प्रापित किया है । (एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं इहे वजंबू दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चस्थिमेणं निसढस्स वासहर पव्वयस्स उत्तरेणं सीयोयाए महाणइए दाहिणेणं सुहावहस्स वखारव्वयस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थि मलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थगं सलिलावइ नामं विजए पनत्ते) इस प्रकार जंव स्वामी के द्वारा पूछे गये श्री सुधर्मास्वामी उनसे कहते हैं हे जंबू । तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इसप्रकार है उस काल में और उस समय में इस जंबूद्वीप नामके द्वीप में स्थित महाविदेह नामका क्षेत्र में सुमेरूपर्वत की पश्चिमदिशामें, निषधर्वत की उत्तरदिशा में शीतोदा म
મોક્ષ પામેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સાતમાં જ્ઞાતાધ્યયનને પૂર્વોકત રીતે અર્થ સ્પષ્ટ કર્યો છે. તે હે ભદંતાં તેમણે આઠમાં જ્ઞાતાધ્યયનને શો અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે. __(एवं खलु जंबू तेणं कालेगं तेणं समएणं इहेव जंबू दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरम्स पञ्चयम्स पच्चत्थिमेणं निसढस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरेणं सीयो याए महाणइए दाहिणे णं सुहावहस्स वखारपव्ययस्य पच्चत्थिमेणं पञ्चस्थिमलब णसमुदस्स पुरथिमेणं एत्वगं सलिलावइ नाम विजए पन्नत्ते)
શ્રી સુધરવામી જંબૂ સ્વામીને જવાબ આપતાં કહે છે કે હે જંબૂ! તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે-તે કાળે અને તે સમયે આ જબૂ દ્વીપ નામે દ્વીપમાં સ્થિત મહાવિદેહ નામે ક્ષેત્રમાં સુમેરુપર્વતની પશ્ચિમદિશામાં નિષિપર્વતની ઉત્તર દિશામાં, મહાનદી શીદાની દક્ષિણે, સુખત્પાદક વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમે, પશ્ચિમ લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં સલિલાવતી નામે વિજય છે. પશ્ચિમ સમુદ્રમાં મળનારી મહાનદી શીતેદાની દક્ષિણ દિશામાં સલિલા
For Private And Personal Use Only
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
হাসানুগ हस्य सुखोत्पादकस्य ' वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमे पश्चिमायां दिशि पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरथिमेगं' पौरस्त्ये पूर्वे, अत्र अस्मिन् स्थाने खलु सलिलावती नामा विजयः प्रज्ञप्तः- पश्चिम समुद्रगामिन्याः शीतोदामहानद्या दक्षिणतः सलिलावतीनामकं चक्रवर्तिनां विजेतव्यं क्षेत्रखण्डमासीत् , तदेव सलिलाव तीविजय इत्युच्यते इत्यर्थः। __तत्र खलु सलिलावतीविजये वोतशोका नाम राजधानी प्रज्ञप्ता कथिता. । सा कीदृशो- इत्याह-नवयोजनविस्तीर्णा यावत् द्वादश योजनायामा प्रत्यक्ष देव लोकभूता साक्षात् स्वर्गस्वरूपा । तस्याः खलु वीतशोकाया राजधान्या उत्तर पौर स्त्ये-दिग्भागे ईशानकोणे इन्द्रकुम्भं नामोधानमासीत्. । तत्र खलु वीतशोकायां राजधान्यां बलो नाम राजाऽभूत् । तस्य बलस्य राज्ञो धारणी प्रमुख देवीसहस्रम्. हानदी की दक्षिण दिशामें,सुखोत्पादक वक्षस्कारपर्वत की पश्चिवदिशामें, पश्चिमलवणसमुद्र की पूर्व दिशा में सलिलावती नाम का विजय है।
पश्चिम समुद्र में जाने वाली शीतोदा महानदी की दक्षिणदिशा में जो सलिलावती नामका विजय है-जिसे चक्रवती जीता करते हैं । उसी का नाम सलिलावती विजय है।
(तत्थणं सलिलावती विजए वीयसोया नामं रायहाणी पण्णत्ता) उस सलिलावती विजय में वीतशोका नाम की राजधानी है ( नव जोयणविस्थिन्ना जाव पच्चक्खं देवलोय या) इसका नौ योजन का विस्तार है और १२ योजन का आयाम है। यह प्रत्यक्ष में देवलोक -अमरावती-जैसी प्रतीत होती है। (तीसेणं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरथिमे दिसीभाए इंदकुंभे नाम उज्जाणे ) उस वीतशोका नगरी के ईशान कोण में एक इन्द्रकुंभ नामका उद्यान था। (तस्थगं वीयसोगाए વતી નામે એક ક્ષેત્રખંડ–છે. જેને ચક્રવર્તી સમ્રાટ જીતતા આવ્યા છે તેનું નામ સલિલાવતી વિજ્ય છે
(तत्यण सलिलावती विजए वीयसोका नाम रायहाणी पण्णत्ता) सवि. सापती विस्यमा वातनाम मे पानी छ (नव जोयण विस्थिन्ना जाव पच्चक्ख देवलोय भूया) तेन विस्तार न१ यात तम तना આયામ ૧૨ (બાર) જન જેટલું છે તે પ્રત્યક્ષ દેવક-અમરપુરી–જેવી
२ छे. (तीसेण वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरास्थिमें दिसिमाए इंद कुंभे नाम जाणे) ते पीत नगरीन शान मान्द्रमा नामे मे धान तो. ( तत्थणं वीयसोगाए रायहाणीए बले नाम राया, तस्स धारणी पामोक्ख
For Private And Personal Use Only
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
---
-
-
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० ८ बलराजचरितनिरूपणम् अवरोधे अन्तः पुरे आसन्. बलनामकस्य तस्य राज्ञो धारणीप्रमुखा एकसहस्त्र संख्यकाः देव्यआसनित्यर्थः। ___ ततस्तदनन्तरं खलु सा धारिणी देवी अन्यदा कदाचित्- अन्यस्मिन् कस्मि श्चित समये सिंह स्वप्ने सप्नावस्थायां दृष्ट्रा प्रतिबुद्धा-जागरिता, यावद् महाबलो नाम दारको जातः इह यावच्छब्देन-सा स्वपवृत्तं भर्तुरग्रे निवेदयति, ततः सानपाठकमुखात् स्वप्नफलश्रुतिस्ततः सा गर्भवती जाता संपूर्णेषु मासेषु महा. बल नामकः पुत्रो जात इत्यर्थों बोद्धव्यः । सा कीदृश इत्याह उन्मुक्त-यावद् रायहाणीए घले नामं राया,नस्स धारणी पामोक्खं देवी सहरसं ओराहे होत्था) उस वीत शोका नाम की राजधानी में बल नामका राजा रहता था। उसके अन्तः पुर में धारणी प्रमुख १ हजार रानियां थी। (तएणं सा घारिणी देवी अन्नया कयाई सिहे सुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धा जाव महब्बले नाम दारए जाए उम्मुक्क जाव भोगसमत्थे) एक दिनकी पोत है कि जब धारिणी देवी अपनी शय्या में आनन्द के साथ सोयी हुईथी उस समय उसने रात्रिके पश्चिम प्रहर में स्वप्न में एक सिंह देखा। स्वप्न देखने के साथ माथ वह जग गई। स्वप्न का वृत्तान्त उसने अपने पतिसे निवेदित किया। उसने स्वप्न पाठकों को बुलाया और उनलोगोने स्वप्न फलका रहस्य उसे सुनायारानीने भी वह सब सुना। वह गर्भवती हो गई । गर्भ के नो मास रात्रि सग्ढे सात औरआनन्द के साथ उसके व्यतीत हुई। बाद में महायल नामका पुत्र उससे उत्पन्न हुआ। देवी सहस्सं ओराहे होत्था)
તે વીતશેકા નામની રાજ નીમાં બેલ નામે રાજા રહેતે હતે. તેના રણવાસમાં ધારણી. ખ એક હજાર રાણીઓ હતી. (तएणं सा धारिणीदेवी अन्नया कयाइं सिहे मुमिणे पास्सित्ताणं पडिबुद्धा जाव महवले नाम दारए जाए उम्मुक्कजाव भोगसमत्थे)।
એક વખતની વાત છે કે ધારિણદેવી પિતાની શય્યા ઉપર સુખેથી સૂતી તે સમયે રાત્રિના છેલ્લા પહેરમાં તેણે સ્વપ્નમાં એક સિંહ જે. સ્વપ્ન જોતાની સાથે જ તે જાગી ગઈ, અને સ્વપ્નની વિગત પિતાના પતિને કહી સંભળાવી. સ્વપ્ન પાઠકોને બોલાવ્યા અને તેમણે રાજાને સ્વપ્નના ફળ વિષે બધી વાત કહી. રાણીએ પણ સ્વપ્નના રહસ્યને સ્વપ્ન પાઠકના મુખેથી સાંભળ્યું તે સગર્ભા થઈ. ગર્ભના નવ માસ અને સાડા સાત દિવસે સુખેથી પસાર થયા. ત્યાર બાદ યથા સમયે તેને મહાબેલ નામે પુત્રને જન્મ થયે.
For Private And Personal Use Only
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२४०
माताधर्मकथा भोग समर्थः - उन्मुक्तबालभाव विज्ञातपरिणतमात्रः सर्वकलाकुशलो भोगसमर्थों जात इत्यर्थः ॥ सू०१॥ ___मूलम्-तएणं तं महब्बलं अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरी पामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकन्नासयाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेंति, पंच पासायसया पंचसयदाओ जाव विहरइ, थेरागमणं, इंदकुंभे उज्जाणे समोसढा । परिसा निग्गया, बलो वि निग्गओ धम्म सोच्चा णिसम्म जं नवरं महम्बलं कुमार रज्जे ठावेइ जाव एकारसंगवी बहुणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता जेणेव चारुपवए मासिएणं भत्तेणं सिद्धे ॥सू०२॥ ___ टीका-ततस्तदनन्तरं खलु तं 'महब्बलं' महाबलनामकं कुमारं मातापितरौ 'सरि सियाणं' सदृशीनां कुलेन वयसा योग्यानां कमलश्रीपमुखाणां, पञ्चानां राजबरक न्याशानां पञ्चशतानां राजवरकन्यानाम्. एकदिवसे पाणि ग्राहयतः, पञ्च
धीरे २ वह महायल पुत्र बाल्यकाल को पूरा करके यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ। अवस्थानुसार वह विकसितज्ञान वाला भी होगया सर्वकलाओं में कुशलमति बन गया और-पंचेन्द्रियों के भोग भोगने लायक भी हो गया। सूत्र "१"
'तएणं तं महब्बलं ' इत्यादि
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (तं महब्बलं अम्मापियरो) उस महापल का माता पिताने (एगदिवसेणं) एक ही दिन के भीतर (सरिसियाणं कमलसिरी पामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकन्नासयाणं) समान कुल, वय वाली कमलश्री आदि पांचसौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ ( पाणि
સમય જતાં મહાબલ બચપણું વટાવીને જુવાન થયે. ઉંમરના વધારાથી વધીને તે સવિશેષ વિકાસ યુક્ત જ્ઞાનવાળે ગયે. તે બધી કળાઓમાં કુશળ બુદ્ધિ વાળો અને પંચેન્દ્રિયના ભેગોને ભેગવવા ગ્ય થઈ ગયે. સૂત્ર “1”
'तएणं महाब्बलं 'त्यादि
110-(तएण) त्यारा (तमहब्वलं अम्मापियरो) महामसने तनां भाता पिता ( एगदिवसेण) ३४१ सेविसमा ४.
(सरिसियाणं कमलसिरीपामोक्खा णं पंचण्हं रायवर कन्नासयाणं) સરખા કુળ અને સરખી આયુષ્યવાળી કમળ શ્રી વગેરે પાંચસે ઉત્તમ રાજ अन्यमानी साथे (पाणिं गेण्हावे ति) ५२वी बीपी. (पंच पासाय सया पच सय
For Private And Personal Use Only
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणीटी० अ० ८ बलराजदीक्षाग्रहणादिनिरूपणम् २१ मासादशतानि पञ्चशतवधूनां निवासार्थ पञ्चशतानि प्रसादान् कारयतः। पञ्च शतदायः पञ्चशतप्रमितो दायः यौतुकं 'दहेज' इति भाषा प्रसिद्धः श्वसुरेण तस्मै महाबलकुमाराय प्रदत्त इत्यर्थः । स महाबलकुमारः याव-उपरि प्रासादे मानुष्यकान् कामभोगान् उपभुञ्जानः, विहरति आस्तेस्म. । अथ-थेरागमणं' स्थविरागमनम्-तत्र वीतशोकायां नगर्यां स्थविराणामागमनमभूदित्यर्थः । ते स्थविराः इन्द्रकुम्भे-इद्रकुम्भनामके - उज्जाणे' उद्याने 'समोसोदा' समवसृताः-अव. गृहमवगृह्यावस्थिताः। परिषन्निर्गता-धीतशोकानगरी निवासीनो लोकाः स्थविराणं वन्दनाथै बहिनिःसृता इत्यर्थः । बलोऽपि निर्गतःबलनामा नृपोऽपि नगर्या निः सृतः । स्थविराणामन्ति के धर्म श्रुत्वा निशम्य, राजा बलः प्रतिबुद्धः सन्नवादीगेण्हावेंति) विवाह कर दिया । (पंच पासायसया पंचसयदाओ) और पांच सौ प्रासाद उन ५०० पांच सौ वधूओं के निवास के लिये बनवादिये । महाबल कुमारके लिये उसके श्वसुर ने ५०० प्रमाण दहेज दिया । अर्थात् दहेज में भी वस्तुए महाबल कुमारको मिली-वे सब ५०० ५०० सौ थी। (जाव विहरइ ) इस तरह वह महाबल कुमार यावत् महलों के ऊपर रहता हुआ मनुष्य भव संबंधी काम भोगों को भागने लगा (थेरागमणं इंदकुंभे उज्जाणे समोसढा परिसा निग्गया बलो वि निग्गओ) वीतशोका नामकी उसनगरी में एक समय स्थविरो का आगमन हुआ वे सब वहां के इन्द्रकुंभ नाम के उद्यान में मुनिप. रंपरा के अनुसार अवग्रह प्राप्तकर विराजमान हुए। नगरी के परिषद मुनि वंदना के लिये अपने अपने घर से निकल कर उस उद्यान में आई । बल राजा भी आया । (धम्मं सोच्चा निसम्म दाओ) मने पांयसो भय ते पायसे नववधू ने २१। भाटेमनाती દીધા. મહાબેલ કુમારના સસરાએ પાંચસો પ્રમાણ દેજ આપ્યું. એટલે કે મહાબલકુમારને દેજમાં જેટલી વસ્તુઓ મળી તે તમામ પાંચસોની સંખ્યાपणी ती.(जाव विहरइ) २मा प्रमाणे महामद भा२ 'यारत' या भडલમાં રહીને મનુષ્ય ભવના બધા ભેગેભોગવવા લાગ્યા. . (थेरागमण इंदकुंभे उज्जाणे समोसढा परिसा निग्गया बलो विनिम्गओ)
એક વખતે વીતશેક નામની તે નગરીમાં સ્થવિરેનું આગમન થયું. તેઓ બધા ત્યાંના ઈન્દ્રકુંભના ઉદ્યાનમાં મુનિ પરંપરાને અનુસરતાં અવગ્રહ મેળવીને વિરાજમાન થયા. નાગરિકની પરિષદ પિત પિત્તાના ઘેરથી નીકળીને મુનિજનની વંદના માટે ઉધામમાં આવી. બલરાજા પણ ત્યાં આવ્યા,
For Private And Personal Use Only
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथासूत्रे अत्र पूर्ववद् वर्णनं बोध्यम्. यथा हे देवानुप्रियाः महाबलकुमारं राज्ये स्थायित्वा युष्माकमन्तिके प्रबजितुमिच्छामि. ततः स्थविरैः- 'विलम्बं माकुरु ' इत्युक्तो ऽसौ बलः यन्नवरं-विशेषवृत्तमाह-महाबलं महाबलनामकं स्वपुत्रं राज्ये स्थापयति स्थापयित्वा स्थविराणां समीपे प्रवनितः । - यावद् एकादशाङ्गविद् एकादशाङ्गान्यधीते स्म.। बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा यत्रैव चारुपर्वतस्तत्रोपागत्य मासिकेन भक्तेन-मासिकभक्तपत्याख्याने न मासिकमनशनं कृत्वेत्यर्थः, सिद्धः मुक्ति प्राप्तः ॥ सू०२ ॥ जं नवरं महब्वलं कुमारं रज्जे टावेइ, जाव एक्कारसंगवी बहणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता जेणेव चारूपव्वए, मासिएणं भत्तेणं सिद्धे ) स्थविरों से श्रुतचारित्र रूप धर्म का व्याख्यान सुनकर, उसे हृदय में धारण कर राजा बल प्रतिबुद्ध हो गया। और कहने लगाहे देवानुप्रियो ! मैं महाबल कुमार को राज्य में स्थापित कर आपके पास दीक्षा लेना चाहता हूँ। इस तरह जब राजा ने कहा-तो उन स्थवि. रों ने “ विलम्ब मत करो" ऐसा उससे कहा-इस प्रकार उन से आज्ञापित होता हुआ वह महायल राजा वापिस नगर में आया वहां आकर उसने महाबल कुमार को राज्य में स्थापित किया।
बाद में स्थविरों के पास जाकर दीक्षित हो गया। धीरे २ उसने ११ अंगों का अध्ययन कर लिया। इस तरह उसने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कियो । पालन करके फिर वह जहां वह चारु पर्वत था वहां आया। वहां आकर उसने १ माम का भक्त प्रत्या. ख्यान किया। और अन्त में मुक्ति को प्राप्त कि। सूत्र "२" (धम्म सोच्चा निसम्म जं नवरं महब्बलं कुमारं रज्जे ठावेइ, जाव एक्कारसंगवी बहणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता जेणेव चारूपव्वए मासिएणंभत्तेणं सिद्धे)
સ્થવિરે પાસે શ્રી શ્રતચરિત્ર રૂપ ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળીને તેને સારી પેઠે હૃદયમાં ધારણ કરીને રાજા બલ પ્રતિબુદ્ધ થઈ ગયે, અને તે કહેવા હા - હે દેવાનપ્રિયે ! હં મહાબલ કુમારને રાજ્યાસને સ્થાપિત કરીને તમારી પાસેથી દીક્ષિત થવા ચાહું છું. રાજાની આ વાત સાંભળીને સ્થવિરે એ તેને કહ્યું “વિલમ્બ કરે નહિ આ રીતે તેમની આજ્ઞા મેળવીને રાજા નગરમાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેણે મહાબલ કુમારને રાયસિંહાસન ઉપર બેસાડ. - ત્યારબાદ રાજા સ્થવિરેની પાસે આવીને દીક્ષિત થઈ ગયો. ધીમે ધીમે તેણે અગિયાર (૧૧) અંગેનું અધ્યયન કર્યું. આરીતે તેણે ઘણાં વર્ષો સુધી શ્રામય પર્યાયનું પાલન કર્યું. પાલન કરીને તે જ્યાં ચારુપર્વત હતું ત્યાં આવીને તેણે એક માસનું ભક્ત પ્રત્યાખ્યાન કર્યું અને અને મુક્તિ મેળવી પાસૂ૦૨ા
For Private And Personal Use Only
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
%3
-
-
-
-
-
भनगारधमितवषिणी टोका अ० ८ महाबलादिषटाजस्वम्पनिरूपणम् २४ .. मूलम्-तएणं सा कमलसिरी अन्नया सीहं सुमिणे जाव बलभद्दो कुमारो जाओ, जुवराया यावि होत्था, तस्स णं महाबलस्स रन्नो इमे छप्पियबालवयंसगा रायाणो होत्था, तं जहा अयले धरणे पूरणे वसु वेसमाणे अभिचंदे सहजायया सहवडि या जाव अम्हहिं एगयओ समेच्चा णित्थरियव्वं तिकट्ट अन्नमन्नस्सेयमढे पडिसुणेति, तेणं कालेणं तेणं समएणं इंदकुंभे उजाणे थेरा समोसढा। परिसा निग्गया, महब्बले णं धम्म सोच्चा जं नवरं छप्पियबालवयंसए आपुच्छामि बलभदं च कुमारं रज्जे ठावेमि,जाव छप्पिय बालवयंसए आपु. च्छइ। तएणं ते छप्पियबालवयंसगा महब्बलं रायं एवं वयासी-जह णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे पवयहं अम्हं के अन्ने आहारे वा जाव पव्वयामो । तएणं से महब्बले राया ते छप्पिय बालवयंसए एवं वयासी-जइणं तुब्भे मए सद्धिजाव पवयह तो णं गच्छहं जेट्टे पुत्ते सएहिं २ रज्जेहिं ठावेहपुरिससहस्सवाहिणीओ सोयाओ दुरूढा जाव पाउब्भवंति, तए णं से महब्बले राया छप्पियबालवयंसए पाउब्भूते पासइ, पासित्ता, हट्टतुट्टे कोडुविय पुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता, बलभ. इस्स अभिसेओ. आपुच्छइ, तएणं से महब्बले जाव महिड्डीए जाव पवइए एकारस अंगाई अहिजइ, बहुहिं चउत्थ जाव भावेमाणे विहरइ ॥ सू०३ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- .
----
-
-
---
ज्ञाताधर्मकथागचे ___टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं सा कमलश्री राजी महाबलस्य भार्या, अन्यदा अन्यस्मिन् काले सिहं स्वप्ने दृष्टा प्रतिबुद्धा। यावत् वलभद्रः कुमारो जातः अत्र यावक्तरणेनायमर्थोऽवगन्तव्यः-सा स्वप्नवृत्तं भर्तुरग्रे निवेदयति ततः स्वप्नपाठकमुखात् स्वप्नफलश्रवणं यावत्-तदनन्तरं सा गर्भवती जाता. संपूर्णषु मासेषु बलभद्रनामकः कुमारः उप्तन्न इति । स युवराजश्चाप्यभवत् । तस्य खलु महाबळस्य राज्ञ इमे वक्ष्यमाणा पडपि च बालवयस्यका बालमित्राणि
'तएणं सा कमलसिरी' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सा कमलसिरी) महाबल राजा की रानी कमल श्री ने (अन्नया) किसी एक समय (सींह) सिंह को (सुमिणे) स्वप्न में (जाव बलभद्दो कुमारो जाओ) देखा और देख कर वह प्रतिघुद्ध हो गई-जग गई- । यावत् उस के बलभद्र कुमार उत्पन्न हुआ यहां यावत् शब्द से इस पाठ का संग्रह हुआ है-कमल श्री ने स्वप्न में जो सिंह देखा था उस स्वप्न को उस ने अपने पति महाबल से कहामहाबल ने स्वप्नपाठकों को बुलाया उन्हों ने इस दृष्ट स्वप्न का क्या फल है यह बात उसे सुनाई। सुनकर सब को बडा आनन्द हुआ। कमल श्री गर्भवती हुई । नौ मास साढे सात दिन जब गर्भ को पूर्ण हो गया-तब कमल श्री के बलभद्र नाम का कुमार उत्पन्न हुआ।
(जुवराया यावि होत्था) धोरे २ वह कुमार युवराज भी बन गया। (तस्स णं महाबलस्स रन्नो इमे छप्पिय बालवयंसगा रायाणो होत्था) 'तएण सा कमलसिरी' त्यादि
-(तएण) त्या२माह (सा कमलसिरी) महारानी २५ भता श्रीस (अन्नया) से मते ( सीह) सिडने (सुमिणे) स्वपनमा (जाव बलभद्दो कुमारो जाओ) यो मनेने ते ७. ७. ' यावत्' समय જતાં તેને બલભદ્ર નામે કુમાર જયે. અહીં ‘યાવતુ' શબ્દથી આ પાઠનો સંગ્રહ થયે છે કે-કમલશ્રીએ જે સ્વપ્નમાં સિંહ જે હતો તે સ્વપ્ન વિષેની ચર્ચા તેણે પિતાના પતિ મહાબલને કરી મહાબલે સ્વપ્ન પાઠકને બોલાવ્યા વખપાઠકેએ તેને સ્વપ્નનું ફળ બતાવ્યું. સMફળને જાણીને બધાને ખૂબજ આનંદ થયે. કમળશ્રી સગર્ભા થઈ. ગર્ભને જ્યારે નવમાસ અને સાડા સાત દિવસ પૂરાં થયાં ત્યારે કમળશીના ઉદરથી બલભદ્રનામે કુમારને જન્મ થયો.
(जुवराया यवि होत्था ) समय ५सा२ यता भार समद्र युव२४ ५५ या गया. (तस्सणं महाबलस्स रन्नो इमे छप्पियबालवयं सगा रायाणो होत्था) મહાબલ રાજાને ૬ બાલમિત્ર રાજાઓ પણ હતા.
For Private And Personal Use Only
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
,
વ
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० महाबलादिषट् राजस्वरूपनिरूपणम्
राजान आसन्, तद् यथा - (१) अचलः, (२) धरण:, (३) पूरण:, (४) वसुः (५) वै भ्रमण:, (६) अभिचंद्रः, ते कीदृशा इत्याह- सहजायया' सहजातकाः सह समानकाले समुत्पन्नाः, सहवर्धिताः, समानकाले वर्धिताः यावत् - ' तेर्सि अन्नया कमाई एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निसन्नाणं सन्निविद्वाणं इमेयारूवे मिहो कहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था - जन्नं देवाणुपिया ! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पत्रज्जा वा विदेसगमणं वा समुपज्जइ, तन्नं, ' इत्यन्तस्य पाठस्य संग्रहः । तेषाम् अन्यदा कदाचित् एकतः सहितानां समुपागतानां संनिषण्णानां संनिविष्टानाम् अयमेतद्रूपः मिथः कथासमुल्लापः समुदपद्यत इतिछाया । एकत: - एकत्र - एकस्मिन् स्थाने सहितानां = मिलितानां समुपागतानां सप्तानां मध्ये एकस्य कस्यचिद् भवने कार्यवशात् संप्राप्तानां संनिषण्णानाम् उपविष्टानां संनिविष्टानां = स्थिरसुखासनस्थितानामू-अयमेतद्रूपः = त्रक्ष्यमाणस्वरूपः मिथः कथासमुल्लापः = परस्परवार्ता लापः समुदपद्यत=अभवत्, इत्यर्थः । यत् खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं सुखं वा दुःखं वा प्रव्रज्या वा विदेशगमनं वा समुत्पद्यते, तत् खलु अस्माभिः ' एगयओ
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उस महाबल राजा के ये छह बाल मित्र राजा थे । ( तंजहा अयले, धरणे, पूरणे, वसु, बेसमणे अभिचंदे सहजायया, सहवड्डिया जाव कम्हेहिं एगयओ समेच्चा णित्थरियन्त्र ति कट्टु अन्नमन्नस्सेयम पडि सुर्णेति ) उनके नाम ये हैं- (१) अचल, (२) धरण (३) पूरण ( ४ ) वसु (५) वैश्रमण (६) ये अभिचंद्र | सब महाबल राजा के साथ२ उत्पन्न हुए थे, और उन्हीं के साथ २ बढे हुए थे । एक समय सब ये सबके सब किसी कार्यवश एक स्थान पर एकत्रित हुए तो परस्पर में इन सब ने ऐसा विचार किया कि चाहे सुख कारक कार्य हो या दुःख कारक कार्य हो, प्रव्रज्या लेना हो या परदेश जाना हो चाहे इनमें से कोई भी
(तंजहा अयले, धरणे, पूरणे, वसु, वेसमणे, अभिचंदे सहजायया सह वडिया जा अम्देहिं एगयओ समेच्चा णित्थरियन्त्र त्ति कट्टु अन्न मन्नस्सेयमहं पडिसुति तेभना नाभो या प्रमाणे छे - (१) सयस, (२) धरण, (3) पू२, (४) वसु, (4) वैश्रभणु, (१) अलिचंद्र मा मधा महामस રાજાની સાથે જ જન્મ્યા હતા, અને તેમની સાથે જ મેટા થયા હતા, એક વખતે જ્યારે ખધા કોઇ કાયવશ એક સ્થાને એકઠા થયા ત્યારે તેઓએ વિચાર કર્યા કે દુઃખ કારક કે સુખ કારક ગમે તેવું કામ હાય પ્રવ્રજ્યા ગ્રહણ કરવી ખેડવુ' હાય, તે આપણે બધાએ સપીને જ તે કામ
હાય કે પરદેશ રહીને કરવું
સાથે
For Private And Personal Use Only
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथासूत्र समेच्चा' एकतः समेत्य 'णित्थरियव्वं ' निस्तरितव्यम् इतिकृत्वाऽन्योन्यस्यैतमथं प्रतिशुण्वन्ति, अस्मामिः सर्वमित्रमिलित्वा सर्व कार्य संपादनीयमिति निश्चित्य परस्परमेतमर्थ प्रतिज्ञातवन्त इत्यर्थः ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये इन्द्रकुम्मे उद्याने स्थविराः समवस्ताः समागतवन्तः ! परिषनिर्गता स्थविरान् वंदितुं वीतशोका नगरी निवासिनो लोका बहिनिःसृताः, महाबलो राजापि वन्दनाथै निर्गतः । महाबलः खलु धर्म श्रुत्वा प्रतिबुद्धः सन् स्थविरानेवमवादीद् युष्माकमन्तिके प्रबजितुमिच्छामि यन्नवर षडपि च वालवयस्यकान् आपृच्छामि बलभद्रं च कुमारं राज्ये स्थापयामि, ततः कार्य करना हो तो हम सब लोग मिलकर ही वह कार्य करेंगे इस प्रकार से आपस में वे सब वचन बद्ध हो गये । ( तेणं कालेणं तेणं समएणं) इतने में उस काल और उस समय में (इंदकुंभउज्जाणे थेरा समोसढा ) उस इंदकुंभ उद्यान में स्थविरों का आगमन हुआ-(परिसा निग्गया महब्यलेणं धम्म सोच्चा जं नवरं छप्पियवालवयंसए आपु. च्छामि बलभदं च कुमारं रज्जे ठावेमि ) स्थविरों का आगमन सुनकर वीतशोका नगरी को परिषद मुनियों को वंदना करने के लिये अपने २ घर से निकल कर उद्यान मे आई, महाबल राजा भी गये। धर्म का उपदेश हुआ महाबल राजा धर्म का उपदेश सुन कर प्रतिबोध को प्राप्त हो गया।
उसने उसी समय स्थविरों से कहा-भदंत ! मैं आप लोगों के पास दीक्षा धारण करना चाहता हूँ-परन्तु मेरे जो बालसखा हैं मैं उन से · मा प्रमाणे तेसो प्रतिज्ञा (वयन ) मद्ध थया. (टेण कालेण तेणे समएणं) ते णे अने ते समये इंदकुभे उजाणे थेरा समोसढा ) न्द्र प्रधानम ! સ્થવિરે પધાર્યા.
(परिसा निग्गया महब्बले ण धम्म सोच्चा जन वरं छप्पिय बालवयंसए आपूच्छामि बलभदंच कुमारं रज्जे ठावेमि )
સ્થવિરેનું, આગમન સાંભળીને પિત પિતાના સ્થાનેથી નીકળીને વાત શેકા નગરીના નાગરિકની પરિષદ મુનિની વંદન માટે ઉદ્યાનમાં આવી. મહાબલ રાજા પણ ત્યાં ગયા. મુનિઓએ ધર્મને ઉપદેશ આપ્યો. ધર્મોપદેશ શ્રવણ કરીને રાજા મહાબલને પ્રતિબંધ થયો. એટલે કે વૈરાગ્ય થયે. ન મહાબલે તે સમયે જ સ્થવિરેને વિનંતિ કરી “હે ભદંત! હું તમારી પાસેથી દીક્ષિત થવા ચાહું છું. પણ તે પહેલાં આ વિષે મારા બાલસખાઓને
For Private And Personal Use Only
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिण टीका अ० ८ महाबलादिष्ट्र राजस्वरूपनिरूपणम् २४७ स्थविरैः - ' मा विलम्बं कुरु' इत्येवमुक्तः सन् स्वभवने समागत्य यावत् तान् षडपि वालवयस्यकान् अपृच्छति । ततः खलु ते षडपि च बालवयस्यकाः महाबलं राजानमेवमवादीत् - यदि खलु देवानुप्रियाः । यूयं प्रवजिष्यथ, अस्माकं कोऽन्य आधारो वा आलम्बो वा भविष्यति यावत् - तस्माद् युष्माभिः सहैव वयं प्रव्रजामः । ततः खलु स महाबलो राजा तान् षडपि च बालवयस्यकान् एवमवादीत्यदि खलु यूयं मया सार्धं यावत् मवजिष्यथ, तर्हि खलु स्व स्वभवनं गच्छत ज्येइस विषय में पूछ लूँ और बलभद्र कुमारको राज्य में स्थापित कर दूँ पीछे आपके पास संयम लूंगा । इस प्रकर राजा का कथन सुनकर स्थवि रों ने उससे " मा विलम्बं कुरू " बिलम्ब मत करो ऐसा कहा - स्थविरों द्वारा अनुमत हो कर राजा अपने घर पर वहां से वापिस आया और आते ही उस ने ( जाव छप्पिय बालवयंसए आपुच्छइ ) अपने बाल काल्य के उन छह मित्रो से पूछा ।
( तएणं ते छप्पिय बालवयंसगा महब्वलं रायं एवं वयासी ) अपने मित्र महाबल की बात सुनकर उन मित्रों ने उससे ऐसा कहा( जइणं देवा० जाव पव्वयामो) मित्र ! यदि आप दीक्षा लेना चाहते हैं तो फिर हमारा आपके बाद और कौन दुसरा आलंबन तथा आधार होगा- इसलिये हम भी आप ही के साथ दीक्षा संयम धारण करेंगे । ( तरणं. ....एवं वयासी ) इस प्रकार अपने बाल कल्य के मित्रों की बात सुनकर राजा महाबल ने उन से कहा ( जहणं तुम्भे मए सर्द्धि जाव હું પૂછી લઉ અને બલભદ્ર કુમારને રાજ્યાસને બેસાડી દઉ. ત્યાર બાદ તમારી પાસેથી સંયમ ગ્રહણ કરીશ. આ રીતે કાજાની વિનતી સાંભળીને स्थविशेो तेने धुं- " मा विलम्बं कुरु, भेोडुं । नहि. " आम स्थविरोनी આજ્ઞા મેળવીને તે રાજા પેાતાને ઘેર પાછા વળ્યેા. ઘેર આવીને તેણે ( જ્ઞય छप्पियबालवयंसए आपुच्छइ पोताना छमे मातसमागने
पूछयुं.
( तरणं ते छप्पियबालवयंसंगा महन्वलं रायं एवं वयासी ) पोताना भित्र भडासनी वात सांलजीने ते मित्रोये तेने धुं - " जइण देवा जाव पव्वयामो) हे मित्रवर ! तमे ले दीक्षित थथा थाहो छो तो अभारी आयु આલંબન અને આધાર થશે? એથી અમે પણ તમારી સાથે જ દીક્ષા સયમ धार शु. ( तरणं.....एवं वयासी ) या रीते पोताना यात समायोनी વાત સાંભળીને મહાબલે તેમને કહ્યું
(जइणं तुब्भे मए सद्धिं जान पव्बयह तोणं गच्छह जेट्टे पुत्ते सएहिं २ रज्जे हिं. ठावेद )
For Private And Personal Use Only
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२४८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
ष्ठान् पुत्रान् स्वकेषु स्वकेषु राज्येषु स्थापयत, स्थापयित्वा पुरुषसहस्रवाहिनीः शिविका दूरूढाः समारूढाः सन्तो यावत् = ममान्ति के प्रादुर्भवत, ततस्ते षडपि बालवयस्यकाः स्त्र स्व गृहे गत्वा स्व स्व ज्येष्ठपुत्रं राज्ये स्थापयित्वा पुरुषसह - स्त्रवाहिनीः शिविकाः समारूढाः सन्त महाबलस्य राज्ञोऽन्तिके प्रादुर्भवन्ति । ततः खलु स महाबलो राजा षडपि च बालवयस्यकान् प्रादुर्भूतान् पश्यति । दृष्ट्वा हृष्टतुष्टोऽतिशयेन तुष्टः सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति आह्वयति । शब्दयित्वा =आहूय बलभद्रस्य बलभद्रकुमारस्य अभिषेकः कारितः । ततो महावलो बलभद्रं पव्वयह तो णं गच्छह जेट्ठे पुत्त सएहिं २ रज्जेहिं ठावेह ) यदि आप लोग मेरे साथ प्रब्रजित होना चाहते हैं तो अपने २ घर पर जाओऔर जाकर ज्येष्ठ पुत्रों को अपने २ राज्यपद पर स्थापित करो - बाद में पुरुष सहस्र वाहिनी शिबिकाओ पर आरूढ होकर मेरे पास यहां आओ ( पुरिस सहरसवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा जाय पाउन्भवंति ) इस प्रकार महाबल राजा की बात सुनकर वे छहों मित्र वहां से अपने २ घर पर आये और अपने २ ज्येष्ठ पुत्रों को अपने २ पद पर स्थापित कर पुरुष सहस्र वाहिनी शिविका पर आरूढ हो महाबल राजा के पास आये । (तएण से महाबले राया छप्पिय बाल वयंसए पाउन्भूए पासह, पासित्ता हट्ट तुट्ठे कोडुंबिय पुरिसं सहावेइ, सद्दावित्ता बलभद्दस्स अभिसेओ, आपुच्छर ) महाबल राजा ने जब अपने इन छहों बाल मखाओं को अपने पास आया हुआ देखा तो देखकर वे बहुत अधिक
જો તમે બધા ખુશીથી મારી સાથે દીક્ષિત થવા ચાહતાહા છે તો સત્વરે પાત પેાતાની રાજધાનીએ જઇને પોત પોતાના મેટા પુત્ર ને રાજગાદીએ બેસાડીને હજાર પુરુષા વહન કરે એવી ‘ પુરુષ સહસ્રવાદ્મિની' પાલખીએ ઉપર બેસીને અહીં यावे. (पुरिससहस्त्रवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा जाव पाउब्भवंति ) या रीते महाभय राजनी बात सांलजीने छ्ये मित्रो त्यांथी તપેાતાને ઘેર આવ્યા અને પેાતાના સ્થાને માટા પુત્રને રાજગાદીએ બેસાડીને પુરુષ સહસ્ર વાહિની પાલખીએ ઉપર બેસીને થઇને મહાખલ રાજાની પાસે આવ્યા.
( तरणं से महब्बले राया छप्पिय बालवयंसए पाउन्भूए पासर, पासित्ता तुट्ठे कोचियपुरिसं सदावे, सदावित्ता बलमदस्त अभिसे, आपुच्छ) પેાતાના છએ ખાલમિત્રાને પેાતાની પાસે આવી ગયેલા જોઇને રાજા મહાખલ અત્યંત હાષિત તેમજ સંતુષ્ટ થયો. રાજાએ સત્વરે તે સમયે જ
કૌટુંબિક પુરૂ
For Private And Personal Use Only
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ महावलादि षट्रराजस्वरूपनिरूपणम् २४९ राजानम् आपृच्छतिस्म । आपृच्छय स महाबलो यावत् महद्धर्था महाधुत्या पुरुषसहस्रवादिनी मिक्किामाला यावन् स्थविणणासन्ति के प्रजितः दीक्षां गृहीतवान् । एकादशाङ्गानि-आचाराङ्गादीनि अधीनेस्म । बहुभिश्चतुर्थादि भक्तैः यावत् आत्मानं भावयन् विहरति पारने स्म ॥ मू०३ ।।
मूलम्-तएणं तेसिं महाबलपामोक्खाणं सत्तण्हं अणगाराणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था-जण्हं अम्हं देवाणुप्पिया ! एगे तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं बिहाइ, तण्णं अम्हेहिं सव्वेहिं तवोकम्मं उपसंपजित्ताणं विहरितएत्ति कट्ट अण्णमण्णत एयम, पडिसुणेति, पडिसुणित्ता बहुहिं च उत्थ जाब विहरति, तएणं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इथिणामगोयं कम्म निव्वत्तिंसु ॥ सू० ४॥ हर्षित एवं संतुष्ट हुए। उसी समय उन ने कौटुम्बिक पुरूषों को घुलाया-घुलाकर बलभद्र कुमार का अभिषेक करवाया। ___ इस तरह बलभद्र कुमार अब राज्य पद आसीन हो गया। महावल राजा ने बलभद्र से पूछा-पूछकर फिर वे पुरुष सहस्र बाहिनी शिविका पर आरूढ हो गये-और महाऋद्धि एवं महाधति के साथ २ चलते हुए वेस्थविरों के पाम उद्यान में आये। उन्हों ने मंयम ले लिया। आचारांग आदि ११ अंगों का अध्ययन किया और चतुर्थभक्त आदि विविध प्रकार की तपस्याओं से अपने आत्मा को भावित किया ॥सू० ३॥ ને લાવ્યા અને બોલાવીને બલભદ્ર કુમારને રાજ્યાભિષેક કરાવડાવ્યો.
આ રીતે બલભદ્ર કુમાર રાજ્યાસને બિરાજીત થઈ ગયા. રાજા મહાબલે પ્રવજ્યા વિષે બલભદ્રને પૂછ્યું અને પૂછીને પુરુષ સહસવાહિની પોલખી ઉપર બેસીને મહાકદ્ધિ અને મહાતિની સાથે શુભતા તેઓ ઉદ્યાનમાં - વિરની પાસે આવ્યા અને તેઓએ સંયમ સ્વીકાર્યો. તેમણે આચારાંગ વગેરે અગિયાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું. અને ચતુર્થભક્ત કગેરે અનેક પ્રકારની તપસ્યા આથી પિતાના આત્માને ભાવિત કર્યો. એ સૂત્ર “3”
For Private And Personal Use Only
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
२५०
शाताधर्मकथासूत्रे
टीका - तेर्सि' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं तेषां महाबलप्रमुखाणां सप्तानामनगाराणाम् अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले एकतः सहितानाम् एकत्रोपविष्टानाम् अयमेतद्रूपः = त्रक्ष्यमाणस्वरूपः 'मिहो' मिथः = परस्परं 'कथासमुल्लावे ' कथासमुल्लाप:- वार्तालाप: ' समुपज्जित्था ' समुदपद्यत - अभवत् . हे देवानुप्रियाः ! अस्माकं मध्ये 'एगे' एकः = कोऽप्येकः यत् खलु तपः कर्म ' उवसंपज्जित्ता ' उपसंपद्य अङ्गीकृत्य खलु विहरति = विहरिष्यति, अस्माभिः सर्वैः तत् खलु तपः कर्म उपसंपद्य खलु विहर्तु = विहर्तव्यम् इति कृत्वा ' अन्नमन्नस्स अन्योन्यस्य परस्परस्य एतमर्थ ' पडिसुर्णेति ' प्रतिशृण्वन्ति = प्रतिजानन्ति प्रतिज्ञां
,
6
तणं तेर्सि महब्बलपामोक्खाणं ' इत्यादि ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
टीकार्थ - ( तरणं) इस के बाद ( तेसिं महम्बलपामोक्खाणं सत्तण्हं अणगाराणं अन्नया कयाई) उन महाबल प्रमुख सात अनगारोंको किसी एक समय (एमओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो कहा समुल्लावे समुप्प जित्था ) जब कि ये एक जगह बैठे हुए थे इस प्रकार का यह विचार उत्पन्न हुआ - परस्पर में उनकी ऐसी बात चीत चली - ( जहं अम्हं देवाणुप्पिया ! एगे तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ) हे देवानुप्रियों ! हम लोगों में से जो भी कोई तप कर्म को अंगीकार कर अपने आप को भावित करेगा- हम सब भी वही तप कर्म आचरित करेंगे। (तण्णं अम्हेहिं सव्वेहिं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तरति कट्टु अण्ण
"
'तरण' तेखि महबळपामोक्खाणं इत्यादि
टीअर्थ - (तरण ) त्यारजाह ( तेसिं महान्चलपामोखाण सत्तण्हं अणगाराण अन्नया कयाई ) अर्ध वयते भडास प्रभुख ते खाते अनगाशने ( एगयओ सहियाण' इमेयावे मिहो कहासमुल्लावे समुप्यज्जित्था ) -न्यारे तेथेो मे स्थाने એકઠા થઈને બેઠા હતા ત્યારે આ પ્રમાણે વિચાર સ્ફુર્યાં-એટલે કે તેઓ આ रीते मरस परस वातयीत उरवा साज्या - ( जाहं अम्हं देवाणुपिया ! एगे तवो कम्मं उवसपज्जित्ताण विहरइ ) हे देवानुप्रियो ! भाषाभांथी गभेते વ્યક્તિ જે જાતનું તપ કમ સ્વીકારીને પોતાના આત્માને ભાવિત કરશે આપણે બધા પણ તેજ તપ આચરીશું
( तण्णं अम्हेहिं सव्वेहिं तवोक्रम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तरति कट्टु अण्णमणस्स एयम परिसुणेति )
For Private And Personal Use Only
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ८ महाबलादिषट्राजस्वरूपनिरूपणम् २५६ कुर्वन्ति । प्रतिश्रुत्य बहुभिश्चतुर्थ- यावद् चतुर्थभक्तादिभिरात्मानं भावयन्तो विहरन्ति । ततस्तदनन्तरं स महाबलोऽनगारो' इमेण' अनेन वक्ष्यमाणेन 'कारणेणं' कारणेन प्रतिज्ञां कृत्वा तदन्यथा करणरूपेण भाषित्वातदन्यथा करणं हि माया साच स्त्रीत्वस्य कारणम् , इयं मायाऽभिमानात् मादुर्भवति, अभिमानं चात्र-'अह मेतेषां नायकोऽस्मि, एते मदधीना अनुनायकाः सन्तीति. यदि ममोत्कृष्टता न स्यात्तर्हि नायकानुनायकानां को विशेषः स्यादित्येवं भावनया अभिमानो माया मण्णस्स एयमट्ठ पडिसुणेति ) इस प्रकार विचार कर उन्हों ने परस्पर में इस विचार को स्वीकार कर लिया।
(पडिसुणित्तो बहूहिं चउत्थ जाव विहरंति ) स्वीकार कर फिर उन सबने साथ ही साथ चतुर्थ भक्त आदि की तपश्चर्या करना प्रारंभ कर दी- (तएणं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इथिणामगोयं कम्मं निव्वतिसु) महाबल अनगार ने इस वक्ष्यमाण कारण से स्त्री नाम गोत्र कर्म का उपार्जन किया अर्थात् महाबल ने प्रतिज्ञा करके भी प्रतिज्ञानुसार तपश्चरण नहीं किया किन्तु-कुटिल भाव रखकर अन्यथारूप से तपश्चरण किया-कहा कुछ और किया कुछ-इसी का नाम माया है। यह माया स्त्रीत्व प्राप्ति का कारण होती है। माया अभिमान से उद्भूत होती है-महाबल के हृदय में अभिमान इस कारण से आया था-कि मैं इन सब का नायक हूँ-ये मेरे आधीन हैं-अनुनायक हैं-यदि मेरे में इनकी अपेक्षा उत्कृष्टता नही हो तो फिर नायक और अनुनायकों में
આ પ્રમાણે વિચાર કરીને બધાએ મળીને એ વાતને સ્વીકારી લીધી.
(परिसुणित्ता बहूहिं चउत्थ जाव विहरति) वी॥२ ४रीन तमायो सही સાથે ચતુર્થભક્ત વગેરે તપશ્ચર્યા શરુ કરી (तएणं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इत्थिनामगोयं कम्मं निब्वत्तिमु)
મહાબલ અનગારે જેના કારણે વિષેની ચર્ચા આગળ થશે–તેવા “ સ્ત્રી નામ ગોત્ર કર્મનું ” ઉપાર્જન કર્યું. એટલે કે મહાબલે પ્રતિજ્ઞા કરીને પણ તે મુજબ તપનું આચરણ કર્યું નહિ. કુટિલ ભાવથી તેઓએ બીજી રીતે તપનું આચરણ કર્યું. “ કહેવું કંઈ અને કરવું કંઈ” તેનું નામ માયા છે. એ માયા જ સ્ત્રીત્વ પ્રાપ્તિનું કારણ બને છે. અભિમાનથી માયા ઉત્પન્ન થાય છે. મહાબલ ના મનમાં આરીતે અભિમાન ઉત્પન્ન થયું કે હું બધાને નાયક છું. આ બધા મારે આધીન છે-અનુનાથક છે. જે મારામાં તેઓની અપેક્ષા ઉત્કૃષ્ટતા નહિ હેય તે નાયક અને અનુનાયકેમાં તફાવત શો રહ્યો ? આ જાતની ભાવના
For Private And Personal Use Only
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२५२
हाताधर्मकथासूत्र. मुत्पादयति. । ' इत्थिणामगोयं ' स्त्रीनामगोत्रं यस्य कर्मग उदयात् स्त्रीभावः । स्त्रीत्वं प्राप्यते तत् स्त्रीनाम कर्म तथा-गोत्रं जाति कुल निर्वतके कर्म अनयोःसमा हारः स्त्रीनामगोत्रं कर्म 'निवर्तिसु' निर्वर्तितवान् . उपार्जितवान् ॥ सू०४ ॥ .... मूलम्-जइणं ते महब्लवज्जा छ अणगारा चउत्थं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे छटं उवसंप. ज्जित्ताणं विहरइ । जइणं ते महब्बलवज्जा अणगारा छटुं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति, तओ से महब्बलअणगारे अटुमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । एवं अट्ठमं तो दसमं, अह दसमं तो दुवालसं, इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहिं आसेविय बहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु, तं जहा -
(१) अरहंत (२) सिद्ध (३) पक्यण (४) गुरु (५) थेर (६) बहुस्सुए (७) तवस्सीसुं। वच्छल्लयाइ (८) तेसिं अभिक्खणं णाणोवओगे य ॥१॥ (९) सण (१०) विणए (११) आवस्सए य (१२) सीलव्वए निरइयारं । (१३) खणलव (१४) तव (१५) चियाए (१६) वेयावच्चे (१७) समाहीय ॥२॥ (१८) अप्पुवणाणगहणे (१९) सुयभत्ती (२०) पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीओ ॥सू०५॥ क्या भेद होगा-इस प्रकार की भावना ने उस के हृदय में अभिमान उत्पन्न किया और इस अभिमान ने माया को जन्म दिया। जिस कर्म के उदय से जीव स्त्रीत्वपद प्राप्त करता है वह स्त्री नाम कर्म है तथा जातिकुल निर्वर्तक जो कर्म होता है वह गोत्र है । इस प्रकार के कर्म को माया के सद्भाव से अनगार ने उपार्जित किया। सूत्र “४" . એજ મહાબલના મનમાં અભિમાન ને જન્મ આપ્યો હતો. અને એ અભિમાને જ માયાને પણ ઉત્પન્ન કરી હતી. જે કર્મના ઉદયથી જીવ આવપદ મેળવે છે તે સ્ત્રીનામ કમ છે તેમજ જે કમ જાતિકુલ નિર્વતક હોય છે તે બેત્ર છે. માયા ના સદૂભાવથી આ પ્રમાણે તે અનગારે આ જાતના કર્મનું S यु. ॥ सूत्र “४"।
For Private And Personal Use Only
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिषट्राजस्वरूपनिरूपणम् २५३
टीका- 'जइणं ते इत्यादि । यदि खलु ते महाबलवर्ना षडनगाराः 'चउत्थं चतुर्थ-चतुर्थभक्तम्. एकोपवासमित्यर्थः, उपसंपज्जित्ता' उपसंपद्य-स्वीकृत्य खलु विहरंति, ततः स महाबलोऽनगारः 'छटुं' षष्ठं-पष्ठभक्तमुपवासद्वयमुपपद्य खलु विहरति । अयं भावः-यदा ते पडनगाराः एकोपवास कुर्वन्ति, तदा महाब. लोऽप्येकोपवासं करोति, परंतु-पारणदिने एवं कथयति अद्य मे शिरोबाधा ते नाहं पारणं करिष्यामि, भवद्भिरेवपारणं कर्तव्यमित्युक्त्वा मायया षष्ठं भक्तं करोतीति ।
यदि खलु ते महाबलवर्जा षष्ठं=षष्ठभक्तमुपसंपद्य-स्वीकृत्य खलु विहरंति, ततः स महावलोऽनगारोऽष्टमं अष्टमभक्तमुपसंपद्य खलु 'विहरइ ' विहरति । . 'जर्ण ते महब्बलवज्जा छ अणगारा' इत्यादि।
टीकार्थ-(जइणं) यदि वे ( महब्बलवज्जा) महाबल अनगार को छोड़कर ( छ अणगारा) छह अनगार ( चउत्थं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति) चतुर्थ भक्त की तपस्या करते-तओसे) तो वह (महाबल अणगारे) महाबल अनगार ( छटुंउवसंपज्जित्ताणं विहरइ ) दो उपवास करता-तात्पर्य इसका यह है कि जिस समय वे छह अनगार एक उपवास करते उस समय महाबल अनगार भी एक ही उपवास करता -परंतु जय पारणा का दिन आता तो कहने लगता कि आज मेरे शिरमे दर्द हो रहा है मैं पारणा नहीं करूँगा-आप लोग ही पारणा करलो।
इस प्रकार माया को चित्त में रखकर वह दूसरा उपवास करलेता। (जइणं ते महत्पलवज्जा अणगारा छटे उपसंपज्जित्ताणं विहरंति ताओ से महब्बले अणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ) इसी तरह वे
' जईण ते महब्बलवज्जा छ अणगारा' त्या
टीर्थ-(जइण) ने तेथे (महाब्बलवज्जा ) भाम सिवायना (छ अण गारा) छ भन॥३॥ (चउत्थ उवसंपज्जित्ताण विहरति) यतु मरतनी तपस्या ४२ता ( तओसे ) त्यारे ते ( महाबल अणगारे ) मस मना२ (छठू उपसंपज्जि त्ताणं विहरइ ) में पास ४२ता. मेट यारे छ मनमा२ मे पास કરતા ત્યારે મહાબલ અનગાર પણ એકજ ઉપવાસ કરતા. પણ જ્યારે પારણને દિવસ આવો ત્યારે તેઓ કહેતા કે આજે મારું માથું દુખવા માંડ્યું છે, હું પારણાં કરીશ નહિ. તમે લેક પારણાં કરો.
આરતે માયાવશ થઈને મહાબલ અનગાર બીજે ઉપવાસ કરતા હતા - (जइणं ते महरूबलज्मा अणगारा छठें उवसंज्जिताणं विहरंति, तओ से महब्बलेअणगारे अट्टमं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ )
For Private And Personal Use Only
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૨૨
ज्ञाताधर्मकथा
एवं यदि ते षडनगारा अष्टमम् अष्टमभक्तम् उपसंपद्य विहरंति 'तो' तर्हि स महाबलोsनगारः दशमं = दशमभक्त मुपसंपद्य विहरति । अथ यदि ते षडनगारादशमं = दशमभक्त मुसंपद्य विहरति 'तो' तदा स महावलोडनगारः 'दुवालसं ' द्वादशं द्वादश भक्तम् उपसंपद्य विहरति, एवमधिकाधिकतपः करणादहमुत्कृष्टो भविष्या मीति मायाकरणेन स्त्रीनामगोत्रं कर्मोपार्जितवान् तदानीं मिथ्यात्वं सास्वादनं च गुणस्थानमनुभवतिस्म, श्रीनामकर्मणो मिथ्यात्वानन्तानुबन्धि मायाहेतुकत्वादिति महाबल अनगार वर्ज छट्ठ की तपश्चर्या-दो उपवास करते तो यह महाबल अनगार अट्टम की तपश्चर्या तीन उपवास करता ।
---
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( एवं अट्ठमंतो दसमं, अह दसमंतो दुवालसं इमेहिं य णं वीसाएहिंय कारणेहिं य आसेविय बहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वत्ति) यदि वे छह अनगार अष्टमभक्त की तपश्चर्या करते तो यह महाबल अनगार दशमभक्त की तपश्चर्या करता यदि वे दशमभक्त की तपश्चर्या करते, तो यह द्वादशभक्त की तपस्या करता । इस तरह अधिकाधिक तप करने से मैं उत्कृष्ट उत्तम - हो जाऊँगा " इस प्रकार माया पूर्वक तपस्या करने से उसने स्त्री नाम गोत्र - जिस कर्म के उदय से स्त्रीत्व की प्राप्ति होती है ऐसा स्त्री नाम कर्म तथा जाति कुल निर्वर्तक गोत्र कर्म का बंधकर लिया। इस समय में मिध्यात्व और सास्वादन इन दो गुणस्थानों का जीव अनुभव करता है । क्यों कि मिध्यात्व और अनंतानुबंधी माया हेतुकता स्त्री नामकर्म में रहती આ પ્રમાણે જ્યારે તે બધા છએ અનગારી છઠ્ઠની તપશ્ચર્યા–એ ઉપવાસ-કરતા ત્યારે મહાખલ અનગાર અઠ્ઠમની તપશ્ર્ચર્યો-ત્રણ ઉપવાસ કરતા હતા
( एवं अमंतो दसमं, अह दसमंतो दुबालसं इमेहिं य णं बीसाएहिय कारयि आसेविय बहुलीकरहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वति )
તે બધા છ અનારા જયરે અષ્ટમ ભક્તની તપશ્ચર્યા કરતા ત્યારે મહા અલ અનગાર દશમ ભક્તની તપશ્ચર્યા કરતા આ પ્રમાણે જ્યારે તેએ છ અનગાર દશમભક્તની તપશ્ચર્યા કરતા ત્યારે મહાખલ અનગાર દ્વાદશ ભક્તની તપસ્યા કરતા હતા. આ રીતે વધારે તપ કરવાથી હું આ બધા કરતાં ઉત્તમ થઇ જઈશ તેમ તેઓ માનતા પણ આમ માયાવશ તપ કરવાથી તેણે સ્રીનામ ગેત્ર-એટલે કે જે કર્મના ઉદયથી સ્ત્રીત્વની પ્રાપ્તિ થાય છે એવું સ્રીનામ કમ તેમજ જાતિકુલ નિક ગાત્ર કર્મોના અધ કર્યો. આ વખતે મિથ્યા અને સાસ્વાદન આ એ ગુરુ સ્થાનાને જીવ અનુભવે છે. કેમકે મિથ્યાત્વ અને અનંતાનુબંધી માયા
For Private And Personal Use Only
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महारलादिषदाजस्वरूपनिरूपणम २५५ भावः । ततः खलु स महाबलोऽनगारः ' इमेहिं ' एभिश्च शास्त्रपसिद्धः खलु वीसा एहि य' विंशत्याच कारणैः विंशतिस्थानकैः ‘आसेविय बहुलीकएहिं ' आसेवितबहुलीकृतैः प्रत्येक स्थानस्य सकृत् करणादासेवितानि. बहुशः सेवनाद् बहु ली कृतानि तैः लब्धोत्कृष्टरसायनपरिणामैरित्यर्थः । तीर्थकरनामगोनं कर्म 'नि बत्तिंसु 'निर्वर्तितवान् उपार्जितवानित्यर्थः । तं जहा तद्यथा-विंशतिस्थानकानां नामानि गाथात्रयेण दर्शयति(१-७ ) अहंत-सिद्ध- प्रवचन- गुरु- स्थविरबहुश्रुततपस्विषु वत्सलता भक्तिः- यथाऽवस्थिते गुणग्रामोत्कीर्तनरूपा (८) 'तेसिं' तेषाम् अईदादीनां 'अभिक्खण' अभीक्षण=पुनःपुनः ज्ञानोपयोगः ज्ञानेधूपयोगः ज्ञानोपयोगः इत्यष्ट स्थानकानि, (९) दर्शनं सम्यक्त्वं, (१०) विनयो गुरुदेवादिविषयकः, (११) आवश्यकम्- उभयकालमावश्यककरणम् (१२) शील. व्रतं च निरतिचारं, व्रतपत्याख्याननिर्मल पालनम्, (१३) क्षणलवेति- कोलोप
है। इसके बाद उस महाबल अनगार ने शास्त्र प्रसिद्ध इन विंशति स्थानकों के द्वारा कि जो आसेवित बहुलिकृत थे तीर्थकर नोम गोत्र कर्म का धंध किया। प्रत्येक स्थान का एक वार सेवन करना इसका नाम आसेवित और बहुत बार सेवन करना इसका नाम बहुली कृत है। (तंजहा) वे वीस स्थान ये हैं अरिहंत (१), सिद्ध (२), प्रवचन (३) गुरु (४), स्थाविर (५), बहुश्रुत (६), तपस्वी इनमें वात्सल्यभाव-भक्ति -रखना-अर्थात् इनके यथावस्थित गुणों का उत्कीर्तन करना (७), इन के ज्ञान में निरंतर उपयोग रखना (८), दर्शन का विशुद्धि करना (९) गुरुदेव आदि के विषय में विनय संपन्नता होना (१०), दोनों काल में आवश्यक क्रियाओं को करना (११),शील और व्रतों में अतिचार रहित
હેતુક્તા સ્ત્રીનામ કર્મમાં રહે છે. ત્યાર બાદ મહાબલ અનગારે શાસ્ત્ર પ્રસિદ્ધ વિંશતિ (વીસ) સ્થાનકે વડે-કે જે આસેવિત બહુલકુત હતા. તીર્થંકર નામ ગેત્ર કમને બંધ કર્યો. દરેક સ્થાનનું એક વાર સેવન કરવું તે આસેવિત भने धणी वा२ सेपन ४२ ते मीत छ. (तजहा ) पीय स्थान नाये भुराम छ-मरिडत, (१) सिद्ध, (२) प्रपयन, (3)गुरु, (४) स्थविर, (५)महुશ્રત, (૬) તપસ્વીમાં વાત્સલ્યભાવ-ભક્તિ-રાખવી એટલે કે તેમના યથાવસ્થિત ગુણેનું કીર્તન કરવું. (૭) તેમનાં જ્ઞાનમાં નિરંતર ઉપયોગ કરતા રહેવું (૮). દર્શનની વિશુદ્ધિ કરવી (૯) ગુરુ દેવ વગેરેની સામે વિનય રાખ (૧૦) બને સમયે (સવાર સાંજ ) આવશ્યક ક્રિયાઓ કરવી, (૧૧) શીલ અને
For Private And Personal Use Only
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथासूधे लक्षणं, क्षणलवादिकालेषु प्रमादं विहाय शुभध्यानकरणम् (१४) तपः= द्वादशविधम् , (१५) त्याग!दानम् तश्च अभयदानं सुपात्रदानं च, तत्रोभयदानं-भयानुत्पादनं परैर्भयं प्राप्तस्य मार्यमाणस्य कथंचिन्म्रीयमाणस्य च परिरक्षणम् , अभ यदानमिह करुणादानोपलक्षणम् । सुपात्रेभ्यो दानं महाव्रतधारिभ्यः प्रतिमाधारि श्रावकेभ्यश्च दानम् सुपात्रदानम् । इदमुपलक्षणं तेन चतुर्विधसंघ सुखोत्पादनमित्यर्थः । (१६) वैयावृत्यं आचार्यादीनां शुश्रूषा (१७) समाधिः-सर्वजीवानां सुखो त्पादनम् , (१८) अर्वज्ञानग्रहणं प्रसिद्धम् , (१९) श्रतभक्तिः जिनोक्तागमेषु होकर प्रवृत्ति करते रहनाव्रत, प्रत्याख्यान को निर्मल रूपसे पालन करना (१२), क्षण, लव आदि कालों में प्रमाद का परिहार (निवारण ) करते हुए शुभ ध्यान करना, (१३), तप-१२ प्रकार के तपों का आराधन करना (१४), त्याग-अभय दान और सुपात्र दान देना किसी को भय उत्पादन नहीं करना यह अभयदान है-तथा दूसरों द्वारा भय को प्राप्त हुए अथवा मार्यमाण या किसी भी तरह मरणोन्मुख हुए ऐसे व्यक्ति की अपनी शक्ति के अनुसार रक्षा करना, उन पर करुणा वरसांना, उनके प्रति दया भाव रखना यह सब अभय दान है। . यह अभयदान करुणादान का उपलक्षक है। महाव्रतधारी सकल संयमीजनों को अथवा प्रतिमाधारी श्रावकों को आहारादि दान करना यह सुपात्र दान है। चतुर्विध संध के लिये सुख का उत्पादन करना इसका यह उपलक्षक है (१५), वैयावृत्य-आचार्य आदि की शुश्रूषा करना (१६) समाधि-समस्त जीवों को सुख मिले इस प्रकार का प्रयવતેમાં અતિચાર વગર થઈને પ્રવૃત્તિ કરતા રહેવું-વ્રત, પ્રત્યાખ્યાન નું નિર્મળ રૂપથી પાલન કરવું. (૧૨) ક્ષણ, લવ વગેરે કાળમાં પ્રમાદ રહિત થઈને शुभ ध्यान ५२ (१3)त५,-मा२ प्रा२नातपातुंमाराधन ४२,(१४)त्याग, અભય દાન અને સુપાત્ર દાન આપવું, કેઈને પણ ભયની સ્થિતિમાં મૂકવે નહિ તે અભયદાન છે તેમજ બીજાઓ દ્વારા ભયની સ્થિતિમાં મૂકાયેત્રા અથવા તે કેઈપણ રીતે મરણોન્મુખ થતા વ્યક્તિની પિતાની શક્તિ મુજબ રક્ષા કરવી, તેમની ઉપર કરુણ રાખવી, દયાભાવ બતાવો આબધું અભયદાન કહેવાય છે.
આ અભયદાન કરુણાદાનને ઉપલક્ષક છે. મહાવ્રતધારી બધા સંયમી જનોને અથવા પ્રતિભાધારી શ્રાવકોને આહાર વગેરે દાન કરવું તે સુપાત્ર દાન છે. ચતુર્વિધ સંઘના માટે સુખનું સર્જન કરવું આ તેને ઉપલક્ષક છે. (१५) वैयाकृत्य-माया कोनी सेवा ४२वी, (१६) समाधि-मा प्राणीमान
For Private And Personal Use Only
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिषट्ाजस्वरूपनिरूपणम् २५७
परमानुरागः, (२०) प्रवचने प्रभावना = प्रभूतभव्येभ्यः प्रव्रज्यादानं भवकूपपत त्माणियाणसमाश्वासनपरायण जिनशासनमहिमोपबृंहणं समस्तस्य जगतो जिनशासन रसिक करणं मिथ्यात्वतिभिरापहरणं चरणकरणशरणीकरणं च ।
एतानी - तीर्थकत्वमाप्तिः विंशतिस्थानकानि सर्वजीवसाधारणानि सन्तीति दर्शयितुमाह-' एएहि तित्थयरत्तं लहइ जीवो' इति । एतैः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ।
*
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
न करना, (१७), अपूर्व ज्ञान का पढना, (१८), श्रुतभक्ति - जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित आगमों में परम अनुराग रखना, (१९), प्रवचन प्रभावना अनेक भव्य जीवों को प्रव्रज्या देना, संसारकूप में पड़ते हुए प्राणीयों की रक्षा करने के आश्वासन में परायण ऐसे जिनशासन की महिमा बढाना, समस्त जगत के जीवों को जिन शासन का रसिक बनाना, मिथ्यात्वरूप तिमिर का ध्वंस करना, और चरण सत्तरी एवं करण सत्तरी की शरण में रहना यह सब प्रवचन प्रभावन है ( २०) ।
ये २० स्थान समस्त जीवों को तीर्थंकर पदकी प्राप्ति में कारण है । (एएहि कारणेहिं तित्थयरत्तं लहहं जीओ) इन्हीं वीस स्थानक के सेवन से जीव तीर्थकर पद को प्राप्त करता है । अन्यत्र भी यही बात कही है-जिनागम में अनेक तप प्रसिद्ध हैं परन्तु इन श्री बीसस्थानरूप तपस्या के समान और कोई तप नहीं हैं । इन बीस स्थानों में से कोई एक स्थान की आराधना करके जीव अरिहंतो के बीच में उत्तम जिनेन्द्र के पद को पाता है।
સુખ મળે તેમ કરવું-(૧૭) અપૂર્વજ્ઞાનનું વાંચન કરવું. (૧૮ શ્રુતભક્તિ-જિને ન્દ્રપ્રતિપાદિત આગમા-માં ખૂખજ અનુરાગ રાખવે, ૧૯ પ્રવચન પ્રભાવના –અનેક ભવ્યજીવાને પ્રવ્રજ્યા આપવી સંસાર રૂપી વાવમાં પડનાર પ્રાણીઓની રક્ષા કરવા રૂપ આશ્વાસન માં પરાયણ એવા જિન શાસનના મહિમા પ્રશસ્ત કરવા. જગતના બધા જીવાને જિનશાસનના રસિક અનાવવા. મિથ્યાત્વ રૂપ અંધકારને નાશ કરવા, અને ચરણસત્તરી અને કરણસત્તરીની શરણમાં રહેવુ. આ પ્રવચન પ્રભાવના છે. ૨૦
આ વીસ સ્થાને બધા જીવાને માટે તીર્થંકર પદની પ્રાપ્તિમાં કારણુ भूत होय छे. "एएहि कारणेहि तित्ययरतं लहइं जीओ " २ गो द्वारा જીવ તીર્થંકર પદ્મ મેળવે છે. બીજી ઘણી જગ્યાએ પણ એજ વાત કહેવામાં આવી છે. જિનાગમમાં અનેક તપ પ્રસિદ્ધ છે, પણ આ શ્રી વીસ સ્થાન રૂપ તપસ્યા જેવી બીજી કોઈપણ તપસ્યા નથી. આ વીસ સ્થાનામાંથી ગમે તે એક સ્થાનની આરાધના કરીને જીવ અરિહતેાની મધ્યે ઉત્તમ જિનેન્દ્રના પદને મેળવે છે.
का ३३
For Private And Personal Use Only
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२५८
हाताधर्मकथासूत्रे यदुक्तम्भूयांस्यपि तपांसिस्युः, प्रसिद्धानि जिनागमे । परंश्रीविंशतिस्थान.- तपस्तुल्यं तपो नहि. ॥ १॥ अन्यच्च-बीसाए अन्नयर, ठागं आराहिऊण जे जीवा । अरिहाईणं मज्झे, जिणिदपदमुत्तमं लहइ. ॥ २॥ पुनः-पुरिमेण पच्छिमेणय, एए सव्वे वि फासिया ठाणा. । मज्झिमगेहिं जिणेहिं, एगं दो तिणि सव्वे वा. ॥ ३॥
इतिवचनादादिनाथजीवेन वर्धमानजीवेन च पूर्वस्मिन् तृतीयभवे सर्वाणि विंशतिस्थानकानि सेवितानि, अन्याविंशतितीर्थकरजीवैरेकं द्वे त्रीणि सर्वाण्यपि स्पृष्टानि, नियमो नास्ति । मल्लीनाथ जीवेन तु सर्वाण्येव सेवितानीति भावः।
एतेषु विंशति संख्याकेषु ये वसन्ति तदाराधनायां प्रवृत्ता भवन्ति, ते स्थानकवासिनः कथ्यन्ते । उक्तं च
" तित्थंगर पयदाइसु, वसइ य वीसासु ठाणगेसुं जं।
आराहणट्टमणिसं, ठाणगवासी य सो हवए ॥ १ ॥" छाया-" तीर्थङ्कर पददायिषु वसति च विंशतौ स्थानकेषु यत् ।
आराधनार्थमनिशं, स्थानकवासो च स भवति ॥ १॥" इति।
आदि नाथ प्रभु के जीव ने और श्री महावीर प्रभुके जीवने पूर्व तृतीय भव में समस्त बीस स्थानों की आराधना की थी। बीच के बाकी २२ तीर्थकरों ने किन्हींने एक किन्हींने २ किन्हींने ३ स्थानों की
और किन्हीं २ ने सवहीं स्थानों की आराधना की । ऐसा नियम नहीं हैं कि तीर्थंकर प्रकृति के बंध के लिये इन बीसोही स्थानों की आरा. धना करनी पड़ती हो। मल्लिनाथ के जीव ने तो इन बीसोही स्थानो की आराधना की। बीस स्थानों में जो रहते हैं उनकी आराधना करने में प्रवृत्त होते हैं—वे स्थानकवासी कहलाते है। उक्तंच-तर्थकर
પૂર્વતીય ભવમાં આદિનાથ પ્રભુના જીવે અને શ્રી મહાવીર પ્રભના જીવે વીસ સ્થાનની આરાધના કરી હતી. વચ્ચેના શેષ બાવીસ તીર્થકરે માંથી કેઈએ એક કેઈએ બે, કેઈએ, ત્રણ સ્થાનની અને કેઈ કેઈએતો બધા સ્થાનેની આરાધના કરી હતી. એ કઈ ચોક્કસ નિયમ નથી કે તીર્થ. કર પ્રકૃતિના બંધને માટે ઉક્ત વીસે વીસસ્થાનની આરાધના કરવી જ પડતી હોય. મલિલનાથના જીતે આ બધાની વીસેવીસ સ્થાનની આરાધના કરી હતી. આ વિસ સ્થાનમાં જે રહે છે તેમની આરાધના કરવામાં જે તત્પર રહે છે તેઓ “સ્થાનકવાસી” કહેવાય છે ઉલ્લંચ-તીર્થંકર પ્રકૃતિને આપનારા ઉક્ત વીસ
For Private And Personal Use Only
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिषट्राजस्वरूपनिरूपणम् २५२ अन्यच्च-" तीर्थङ्कर पदप्राप्तेः, स्थानकेषु च विंशतौ ।
वसन्त्याराधनार्थं यत्तस्मात् स्थानकवासिनः ॥ १॥” इति।
मूलम्-तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति, जाव एगराइयं उवसंपजित्ताणं विहरंति, तएणं ते महाब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा
खुड्डागं सीहनिकीलियं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति, तं जहा-चउत्थं करेंति, करित्ता सव्वकामगुणियं पारोति, पारिता छठं करेंति । करित्ता चउत्थं करेंति, करित्ता अट्टमं करेंति, करित्ता छटुं करेंति, करित्ता दशमं करेंति, करित्ता अट्टमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता दसमं करेंति, करित्ता चाउइसमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करिता सोलसमं करेंति, करित्ता चोद्दसमं करेंति, करित्ता अट्ठारसमें करेंति, करित्ता सो. लसमं करेंति, करित्ता वीसइमं करेंति, करित्ता अट्ठारसमं करेंति, करित्ता वीसइमं करेंति, करित्ता सोलसमं करेंति, करित्ता अट्टा रसमं करेंति करित्ती चोदसमं करेंति, करित्ता सोलसमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता चोउद्दसमं करेंति, करिता दसमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता अहमं करेंति, करित्ता देसमं करेंति, करित्ता छंढें करोति, करित्ता अट्ठमं करेंति, प्रकृति के दाता इन २० स्थानों में जो आराधना करने के निमित्त सदा वसते हैं-निवास करते हैं-वे ही स्थानकवासी कहलाते हैं। दूसरे श्लोक का भी यही भाव है । सूत्र "५" સ્થાનમાં આરાધના કરવાના પ્રયજનથી જેઓ હંમેશા નિવાસ કરે છે–વસે છે, તેએજ સ્થાનવાસી કહેવાય છે. બીજા ગ્લૅક ને પણ એજ અર્થ છે. સૂત્ર પર
For Private And Personal Use Only
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
२६०
शाताधर्मकथासूत्रे
करिता उत्थं करेंति करिता छहं करेंति, करित्ता चैउत्थं करेंति, सव्वत्थ सव्वकामगुणिएणं पारेंति एवं खलु एसा खुड्डागसीह निक्कीलयस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासहि सत्तहि य अहोर तेहि य अहासुतं जाव आराहिया भवइ,
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तयानंतरं दोच्चंपि परिवाडीए चउत्थं करेंति, नवरं विगइवज्जं पारेंति, एवं तच्चापि परिवाडी नवरं पारणए अलेवार्ड पाति, एवं चउत्था वि परिवाडी नवरं पारणए आयंविलेण पारेंति ॥ सू० ६ ॥
टीका- ' तरणं ते ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु ते महाबलप्रमुखा सप्तानगारा: ' मासियं ' (१) मासिकीम् एकमासपरिमाणां प्रथमां भिक्षुप्रतिमाम् 'उवसंजित्ताणं' उपसंपद्य स्वीकृत्य, विहरन्तिस्म । एवम् अमुना प्रकारेण 'जावएगराइयं' यावत् एकरात्रिकीम् अत्र यावत् करणात् ' दो मासियं तेमासियं - चउम्मासियं पंचमासियं छम्मासि सत्तमासियं पढमसत्तराईदियं बीयसत्तराईदियं
6
तरणं ते महाबल पामोक्खा ' । इत्यादि ।
टीकार्थ - (एणं) इसके बाद ( ते महबलपामोक्खा ) उन महाबल प्रमुख सातों अनगारों ने ( मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जिन्त्ताणं विहरति ) १ मास की प्रमाण वाली १ प्रथम भिक्षु प्रतिमा धारण की ( जाव एगराइ उवसंपज्जित्ताणं विहरति ) इसी तरह दो मास प्रमाण बाली द्वितीय भिक्षु प्रतिमा, तीन मास प्रमाण वाली तृतीय भिक्षु प्रतिमा, ४ चार मास प्रमाण वाली चतुर्थ भिक्षु प्रतिमा, पांच मास
तएण ते महाबल पामोक्खा ' । इत्याहि
टीअर्थ - (तरणं) त्यार माह (ते महाबलपामोक्खा ) भडास प्रमुख सात अनगारोशे ( मासियां भिक्खुपडिमं उत्रसंपज्जित्ताणं विहरति ) थे भासनी प्रभाशवाणी १ प्रथम लिक्षु प्रतिभा धारण ४ . ( जाव एगराइयं उवसंपज्जिखाण' विहरति ) या प्रमाणे मे भास प्रभाणुवाणी द्वीतीय भिक्षुप्रतिभा, ત્રણમાસ પ્રમાણુ વાળી તૃતીય ભિક્ષુપ્રતિમા, ચાર ચાર માસ પ્રમાણ વાળી ચતુ.
For Private And Personal Use Only
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिषट्राजब रितनिरूपणम्
२६१
• तच्च सतराईदियं अहोराईदियं ' इति पाठस्य संग्रहः । तत्र २ द्वैमासिकीं, ३ कीं, ४, चातुर्मासिक ५, पंचमासिकीं, ६, पाण्मासिकीं, ७ सप्तमासिकीं, सम ८. प्रथम सप्तरात्रंदिवां ९ द्वितीय सप्तरात्रंदिवां १० तृतीय सप्तरात्रंदिव, इमा दश प्रतिमा उपसंपद्य, एकादशीम् - ११. अहोरात्रिकीं, १२. द्वादशीम् - एक रात्रिकीम् इत्येवं द्वादशप्रतिमा उपसंपद्य विहरन्ति स्म । आसां वर्णनं दशाश्रुतस्कन्धे सप्तमाध्ययने मुनिहर्षिणी टीकायां द्रष्टव्यम्. ।
ततस्तदन्तरं खलु ते महाबलप्रमुखा सप्तानगारा ' खुड्डागं ' क्षुल्लकं ' सीह निक्कीलयं' सिंहमिक्रीडितं सिंहनिष्क्रीडितनामकं सिंहो यथा विहरन् स्व पश्चाप्रमाण वाली पांचवीं भिक्षुप्रतिमा, छ मास प्रमाण वाली छठी भिक्षुप्रतिमा, ७ मास प्रमाण वाली सप्तमी भिक्षुप्रतिमा, प्रथम सात रात दिन प्रमाण वाली ८ भी भिक्षुप्रतिमा, द्वितीय सात दिन रात प्रमाण वोली १० वी भिक्षुप्रतिमा तथा १ दिन रात प्रमाण वाली ११ वीं भिक्षुप्रतिमा और एक रात प्रमाण वाली १२वीं भिक्षुप्रतिमा उन सब अनगारोंने धारण की ।
इन समस्त प्रतिमाओं का वर्णन दशाश्रुतस्कंध में सप्तम अध्ययन में मुनि हर्षिणी नोम की टीका में किया गया है। वहां से देख लेना ।
(तएणं तें महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सीहनिक्की लियं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरति ). इसके बाद उन महाबलप्रमुख सातों ही अनगारों ने लघु सिंह निष्क्रीडित नाम का तप किया। जिस ભિક્ષુપ્રતિમા પાંચ માસ પ્રમાણવાળી પાંચમી ભિક્ષુપ્રતિમા, છ માસ પ્રમાણુ વાળી છઠ્ઠી ભિક્ષુપ્રતિમા, સાત માસ પ્રમાણવાળી સાતમી ભિક્ષુપ્રતિમા, પ્રથમ સાત રાત દિવસ પ્રમાણવાળી આઠમી ભિક્ષુપ્રતિમા, ખીજી સાત દિવસ રાત પ્રમાણુ વાળી નવમી ભિક્ષુપ્રતિમા, ત્રીજી સાત દિવસ રાત પ્રમાણવાળી દશમી ભિક્ષુ પ્રતિમા તેમજ એક દિવસ રાત પ્રમાણવાળી અગિયારમી ભિક્ષુપ્રતિમા, અને એક રાત પ્રમાણવાળી ખારમી ભિક્ષુ પ્રતિમા, તેઓ બધા અનગરો એ ધારણ કરી. આ બધી પ્રતિમાએ વિષે વિગતવાર ચર્ચા ‘ દશાશ્રુતસ્કંધ ’ ના સાતમા અધ્યયનની મુનિષિણી નામની ટીકામાં કરવામાં આવી છે. જિજ્ઞાસુ. આએ ત્યાંથી જાણી લેવુ' જોઇએ.
( तरणं ते महब्बलपा मोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सीह निक्कीलियं तवो कम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति )
ત્યાર બાદ મહાખલ પ્રમુખ સાતે સાત અનગારીએ લઘુસિંહનિષ્ક્રીડિત નામે તપ કર્યું. સિંહું જેમ પોતાના પાછળના ભાગની તરફડોકીયુ કરતા
For Private And Personal Use Only
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२६२
माताधर्मकथाङ्गसूत्रे द्भागं पश्यति, तथा यत् तपः पूर्वकृतं पुनरावोत्तरोत्तरं क्रियते तत् सिंहनिष्कीडितमित्युच्यते. । तपःकर्मोपसंपद्य विहरन्ति । तत्र क्षुल्लक सिहनिष्क्रीडितं तपः कर्म केन प्रकारेण तैः कृतमित्याकाङ्क्षायामाह-' तंजहा ' इत्यादि चतुर्थ चतुर्थभक्तमेकोपवासरूपं कुर्वन्ति कृत्वा 'सबकामगुणियं ' सर्वकामगुणितं सर्वकामगुणाः दुग्धदधिधृततैलमधुररूपा विकृतयः संजाता यत्र तत् सर्वकामगुणितम्. इदं पारगक्रियायाविशेषणं, 'पारेंति ' पारयन्ति पारणं कुर्वन्ति । पारयित्वा षण्ठं कुर्वन्ति, ततः पारणं कृत्वा पष्ठभक्तं द्वयुपवासरूपं तपः कुर्वन्ति- इत्यर्थं कृत्वा तरह सिंह अपने पश्चात् भाग का निरीक्षण करता आगे चलता है उसी प्रकार जो तप पूर्वकृत तपो को साथ लेकर आगे २ किया जाता है उस का नाम सिंहनिष्क्रीडित तप है। (तंजहा ) यह क्षुल्लक सिंह निष्क्रीडित तप उन्हों ने किस प्रकार से किया इस बात को अय सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं । - (चउत्थं करेंति, करित्ता सव्वं कामगुणियं पारेंति, पारित्ता छ8 करेंति, करित्ता चउत्थं करेंति करित्ता अट्ठमं करेंति, करिता छर्ट करेंति, करित्ता, दसमं करेंति, करित्ता अट्टमं करेंति, करित्ता दुवा. लसमं करेंति, करित्ता दसमं करेंति, करित्ता चाउद्दसमं करेंति करित्ता दुवालसमं करेंति) उन्हों ने पहिले चतुर्थ भक्त-एक उपवास किया। एक उपवास करके विगय सहित पारणा किया पारणा करके फिर छट्ठभक्त -दो उपवास किये दो उपवास करके फिर उन्हों ने पारणा किया बाद में चतुर्थ भक्त किया । चतुर्थभक्त करके पारणा किया फिर-तीन उपઆગળ ચાલે છે તે પ્રમાણે જ જે તપ પૂર્વે કરેલાં તપને સાથે લઈને भाग ४२वामां आवे छे, ते त५ सिड निीत उपाय छे. ( त जहा ) અનગારેએ આ ક્ષુલ્લક સિંહ નિષ્ક્રીતિ તપ કેવી રીતે કર્યું ? તે વિષે સૂત્રકાર સ્પષ્ટીકરણ કરતાં કહે છે.
( चउत्थं करेंति, करित्ता सबकामगुणियं पारेति, परित्ता, छटुं करेंति करिता चउत्थं करेंति, करित्ता अट्ठमं करेंति, करित्ता छटुं करेंति, करिता दसम करेंति. करित्ता अट्ठमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति करित्ता चाउद्दसमं करेंति करित्ता दुवालसमं करेंति)
તેઓએ સૌ પ્રથમ ચતુર્થભક્ત-એક ઉપવાસ કર્યો. એક ઉપાસ કરીને વિગય સહિત પારણાં કર્યો. પારણા કર્યા બાદ ફરી છઠ્ઠભક્ત-બે ઉપવાસ કર્યા. બે ઉપવાસ કરીને તેઓએ પારણું કર્યા ત્યાર બાદ ચતુર્થ ભક્ત કર્યા બાદ પારણાં કર્યા. ત્યાર પછી ત્રણ ઉપવાસ રૂપ અષ્ટમ ભક્ત કર્યો. અષ્ટમ ભકત
For Private And Personal Use Only
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगर धर्मामृतषिणी टी० १० ८ महाबलादिषट्र राजपरितनिरूपणम् २६३ चतुर्थ कुर्वन्ति, कृत्वाऽष्टमम् , अष्टमभक्तं व्युपवासरूपं कुर्वन्ति, कृत्वा षष्ठं कुर्वन्ति, कृत्वा दशमं चतुरुपवासरूपं दशमभक्तं कुर्वन्ति, कृत्वाऽष्टमं कुर्वन्ति, कृत्वा द्वादशं पञ्चपोवासरूपं कुर्चन्ति, कृत्वा दशमं कुर्वन्ति. कृत्वा चतुर्दशं षडुपवासरूपं कुर्वन्ति, कृत्वा द्वादशं कुर्वन्ति. कृत्वा षोडशं सप्तोपवासरूपं कुर्वन्ति, कृत्वा चतुर्दशं कुर्वन्ति, कृत्वाऽटादशं अटोपवासरूपं कुर्वन्ति, कृत्वा षोडशं कुर्वन्ति, कृत्वा विंशघासरूप अष्टभभक्त किया अष्टम भक्त करके पारणा किया फिर छटुभक्त रूप दो उपवास किये । षष्टभक्त करके पारणा किया फिर दशम भक्त रूप चार उपवास किये चार उपवास करके पारणा किया फिर अष्टम भक्त रूप तीन उपवास किये। अष्टम भक्त करके पारणा कियो फिर पञ्च उपवास रूप द्वादश भक्त किया द्वादश भक्त करके पारणा किया। पुन: दशम भक्त किया। दशम भक्त करके पारणा किया फिर षट् उपवास रूप चतुर्दश भक्त किया। चतुर्दश भक्त करके पारणा किया पुनः द्वादश भक्त रूप पांच उपवास किये । (करित्ता सोलसमं करेति ) पांच उपपास करके पारणा किया पुन:७ उपवासरूप सोलस भक्त किया (करित्ता चोइसमं करेंति) ७ उपवास करके पारणा कियो-बाद में ६ उपवास किये (करित्ता अद्वारसमं करेंति)पारणा करके फिर अष्टा दश भक्त रूप८उपवास किये (करित्ता सोलसमं करेंति) आठ उपवास करके पारणा किया फिर ७ उपवास किये (करित्ता वीसइमं करेंति) सात उपवास करके उसका કરીને પાણું કર્યા ત્યાર બાદ છઠ્ઠ ભક્ત રૂપ બે ઉપવાસ કર્યા. ષષ્ઠ ભક્ત કરીને પારણાં કર્યા ત્યાર બાદ દશમ ભકત રૂપ ચાર ઉપવાસ કર્યા. ચાર ઉપવાસોના અને પારણાં કર્યા ત્યાર બાદ અષ્ટમ ભક્તરૂપ ત્રણ ઉપવાસ કર્યા અષ્ટમ ભકત કરીને પારણાં કર્યા ત્યાર બાદ દ્વાદશ ભક્ત પાંચ ઉપવાસ કર્યા ત્યાર પછી પારણાં કર્યા. ફરી દશમ ભકત કર્યા. દશમ ભકત કરીને પારણાં કર્યો. અને ત્યાર બાદ છ ઉપવાસ રૂપ ચતુર્દશ ભકત કર્યો.
ચતુર્દશ ભકત કરીને પારણાં કર્યા. ફરી દ્વાદશ ભકત રૂપ પાંચ ઉપवासे। ४ा. (करित्ता सोटससम करें ति पाय वासे। रीन पा२९४ ४ा. ३री सोसस मत साता या (करित्ता चोदसम करेंति ) सात पास ४शन पारण या त्या२ मा छ वासो ४ा. “ करित्ता अट्ठारसमं करेंति" पारण ४रीन मष्टाश मत ३५ मा पासो थ्यो. “ करित्ता सोटसम करेंति मा8 उपासे रीने पार ज्या त्या२ मा सात पासो ४या. " करिता बोसइमं करेति " सात ६५वासी ४२रीन तेही ॥२i ४या, त्यार
For Private And Personal Use Only
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
ય
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
तितमं नवोपवासरूपं कुर्वन्ति । कृत्वाऽष्टादशं कुर्वन्ति कृत्वा विंशतितमं कुर्वन्ति कृत्वा षोडश कुर्वन्ति कृत्वाऽष्टादशं कुर्वन्ति कृत्वा चतुर्दशं कुर्वन्ति कृत्वा षोडशं कुर्वन्ति कृत्वा द्वादशं कुर्वन्ति कृत्वा चतुर्दशं कुर्वन्ति कृत्वा दशमं कुर्वन्ति कृत्वा द्वादशं कुर्वन्ति कृत्वाऽष्टमं कुर्वन्ति कृत्वा दशमं कुर्वन्ति कृत्वा षष्ठं कुर्वन्ति, कृ पारणा किया फिर ९ उपवास किये ( करिता अट्ठारसमं करेंति ) उस का पारणा किया फिर ८ उपवास किये (करिता वीसइमं करेंति) आठ उपवास करके उस का पारणा किया फिर ९ उपवास किये (करितो सोलसमं करेंति ) ९ उपवास करके उस का पारणा किया फिर ७ उपवास किये ( करिता अट्ठारसमं करेंति ) सात उपवास का पारणा किया-८ उपवास किये ( करिता चोदसमं करेंति ) उन आठ उपवास का पारणा किया - फिर ६ उपवास किये ( करिता सोलसमं करेंति ) ६ उपवास का पारणा किया फिर ७ उपवास किये ( करिस्ता दुवालसमं करेंनि ) ७ उपवास करके उस का पारना किया- फिर ५ उपवास किये ( करिता चाउदसमं करेंति) ५ उपवास करके उस का पारणा किया फिर ६ उपवास किये (करिता इसमें करेंति ) ६ उपवास करके पारणा किया फिर ४ उपवास किये ( करित्ता दुवालसमं करेंति ) ४ उवास का पारणा किया - पारणा करके ५ उपवास किये ( करिता अट्टमं करेंति ) ५ उपवास का पारणा किया फिर ३ उपवास किये ( करिता दसमं करेति " अने तेनां पार
वीसइमंकरेति " २५
यह दूरी नव उपवासो अर्था. “ करिता भट्ठारसमं हुर्ष्या, त्यार माह आउ उपवासो र्या. “ करिता વાસેા કરીને તેનાં પારણાં કર્યાં. ત્યાર પછી उपवासेो र्या “ करिता सोलसमं करेति " नव उपवास ने तेनां पारगांय त्यार आह सात
८८
વ
उपवासेो र्या “ करिता अट्ठारसमं करेति સાત ઉપવાસનાં પારણાં કરીને म उपवासर्या “ करित्ता चोहसमं करेति " भने मह उपवासानां पारणां . त्यार पछी छ उपवास “करिता सोलसमं क्ररेति " छ उपवासोना પારણાં કરીને સાત ઉપવાસ કર્યો करिता दुबालसमं करें ति ” सात उपवास अरीने तेनां पार त्यार माह पांय उपवास करेति " यांन्य उपवासो उरीने तेनां पारणां य. 5. “ करित्ता दसम करेति छ उपवासनां पायां ચાર ઉપવાસ કર્યો. " करिता दुबालसमं करें ति "
. " करिता चाउदसमं બાદ છ ઉપવાસે
ત્યાર
કર્યાં, અને ત્યાર પછી ચાર ઉપવાસના પારણાં
रीने पांय उपवासो अर्ध्या " करिता अट्टमं करेंति " यांय उपवासनां पारणां ईर्ष्या ने त्यार मात्र उपवासो अर्था. “ करिता दसम
करेति "
ત્રણ
"6
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
"
For Private And Personal Use Only
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
समगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिषटाजचरितनिरूपणम २६५ त्वाऽष्टमं कुर्वन्ति कृत्वा चतुर्थ कुर्वन्ति, कृत्वा षष्टं कुर्वन्ति कृत्वा चतुर्थ कुर्वन्ति सर्वत्र सर्वकामगुणितेन पारयन्ति । चतुर्थ कुर्वन्तीत्यादि-सर्वत्र सर्वकामगुणितेन पारयन्तीत्यन्तस्यायं निष्कर्षः-सिंहनिष्क्रीडितं तपोद्विविधं महत् क्षुल्लकंच । तत्रानुलोमगत्याकरेंति ) ३ उपवास का परणा किया फिर ४ उपवास किये ( करित्ता छटुं करेंति ) ४ उपवास का पारणा किया-फिर २ उपवास किये ( करित्ता अट्टमं करेंति ) २ उपवास का पारणा करके फिर ३ उपवास किये ( करित्ता चउत्थं करेंति ) ३ उपवास का पारणा करके फिर १ उपवास किया ( करिसा छ8 करेंति ) १ उपवास का पारणा करके फिर २ उपवास किये ( करित्ता चउत्थं करेंति) २ उपवास का पारणा करके फिर एक उपवास किया ( सव्वस्थ सव्वकामगुणिएणं पारेति ) पारणा जो इन्हों ने किया वह सर्वत्र विगय सहित किया ( एवं खलु एसा खुहागसीहनिक्कीलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परीवाडी छहि-मासेहिं सत्तहिं अहोरत्तेहिं य अहासुतं जाव अहाराहिया भवइ ) इस तरह क्षुद्र सिंहनिष्क्रीडित तप की प्रथम परिपाटी है। यह छह मास और सात दिन रात तक सूत्रोक्त विधि के अनुसार यावत् आराधित होती है।
अर्थात् इसके करने में सात दिन रात अधिक ६ मास का समय लगता है। यहां "सर्वकामगुणित" ऐसा जो पारणा का विशेषण उपवासाना पारपशन त्या२ पछी या२ पास ४ा. "करित्ता छ करें ति" थार वासना ५२i ा', त्या२ माह मे पास ४ा. “करिता अदम' करें ति" में 6वासनां पा२४i a] वास या " करित्ता चउत्थ करें ति त्रा 6वासना पा२/i 3रीने मे 64वास ध्या. “करित्ता छद्रं करेंति" मे वासना पा२४ां उरीन मे पास ४ा. “ करित्ता चउत्थ करेंति में वासनां पा२४ ४शन मे पास ये “ सव्वत्थ सव्व कामगुणि एण पारे ति" तमामे मां पारण! विय सहित यो ता. __( एवं खलु एसा खुट्टागसीहनिक्कीलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासेहिं सत्तहिं अहोरत्तेहिंय आहामुत्तं जाव अहाराहिया भवइ) આ પ્રમાણે ક્ષુદ્રસિહ નિષ્ક્રીડિત તપની આ પ્રથમ પરિપાટી છે. છ માસ અને સાત દિવસ રાત સુધી સૂત્રોક્ત વિધિ મુજ “યાવતી તેની આરાધના હેાય છે.
એટલે કે આ વ્રતને કરવામાં છ માસ અને સાત દિવસ રાત એટલે qमत साणे छ मही “सर्व कामगुणित " ने पारणांना विशेषण ३२ भू
शा० ३४
For Private And Personal Use Only
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथाङ्गसूत्रे ___चतुर्भक्तादि विंशतितमपर्यन्त, प्रतिलोमगत्या। - विंशतितमभक्तादितश्चतुर्थभक्तपर्यन्तं च मिलित्वा तपः क्षुल्लकमित्युच्यते । अनुलोमसमाप्त्यनन्तरं प्रतिलोमकरणात् प्राग् मध्येऽष्टादशभक्तं भवति । चतुर्थ षष्ठाष्टमादीनि तु एकैकवृद्धया एकोपवास द्वयुपवासादीनि । इह चतुर्थषष्ठाष्टमदशम द्वादशचतुर्दशषोडशभक्तानि प्रत्येकं चत्वारि २ त्रिणि अष्टादशानि, द्वे विंशतितमे एवं तपोदिनानि १५४ चतुःपश्चादधिकं शतं, पारणदिनानि ३३ त्रयस्त्रिशद्भवन्ति । रखा है उससे यह निष्कर्ष निकलना है कि यह सिंहनिष्क्रीडित तप क्षुल्लक और महत की अपेक्षा से दो प्रकार का होता है-इनमें अनुलोम गति से प्रथम चतुर्थभक्त से प्रारंभ होकर विंशतितम पर्यन्त किया जाता है और प्रति लोमगति से प्रथम विं शतितम भक्तादि से प्रारंभ कर चतुर्थभक्त पर्यन्त समाप्त किया जोता है। इस तरह अनुलोम प्रतिलोम विधि से किया गया यह तप क्षुल्लक निष्क्रीडित तप माना गया है। अनुलोम विधि की समाप्ति होने के बाद प्रतिलोम विधि से इसे करने के पहिले बीच में अष्टादश भक्त हो जाते हैं। ये चतुर्थ षष्ठ अष्टमादि एक एक उपवास की वृद्धि से एक उपवास दो उपवास तीन उपवास आदि वाले होते है। __ इसमें चतुर्थ षष्ठ अष्टम, दशम द्वादश चतुर्दश और षोडश भक्त ये प्रत्येक क्रमश ४-४-३-३ हो जाते हैं, तथा विंशतितम ९ उपवास दो होते हैं। तपस्या के दिन १५४, पारणा के दिन ३३ इस प्रकार मिला વામાં આવ્યો છે તેને અભિપ્રાય આ પ્રમાણે છે કે સિંહ નિષ્ક્રીડિત તપ ક્ષુલ્લક અને મહતની દષ્ટિએ બે પ્રકારનું હોય છે. અનુલમ ગતિથી પહેલાં ચતુર્થ ભક્તથી આરંભીને વિંશતિતમ સુધી તપ કરવામાં આવે છે અને પ્રતિ લોમ ગતિથી પ્રથમ વિશતિતમ ભક્ત વગેરે થી આરંભિને ચતુર્થ ભકત સુધી પુરું કરવામાં આવે છે, આ રીતે અનુલેમ પ્રતિમ વિધિથી કરવામાં આવેલું આ તપ ભુલક નિષ્ક્રીડિત તપ ગણાય છે. અનુલેમ વિધિની સમાપ્તિ બાદ પ્રતિમ વિધિથી આ તપ આરંભ કરીને તેના પહેલાં વચ્ચે અષ્ટાદશ ભક્ત થઈ જાય છે આ ચતુર્થ, અષ્ટ, અષ્ટમ વગેરે એક એક ઉપવાસની વૃદ્ધિથી એક ઉપવાસ, બે ઉપવાસ અને ત્રણ ઉપવાસ વગેરેના હોય છે.
આમાં ચતુર્થ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશ, ચતુર્દશ અને ડિશ ભક્ત આ બધા અનુક્રમે ચાર ચાર, ત્રણ ત્રણ, થઈ જાય છે. તેમજ વિશતિતમ નવ ઉપવાસ બે હોય છે. તપસ્યાના દિવસે ૧૫૪, અને પારણના દિવસો ૩૬,
For Private And Personal Use Only
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिषट्राज व रित्र निरूपणम्
२६७.
उभयं मिलित्वा प्रथमपरिपट्यां १८७ सप्ताशीत्यधिके मेकंशतं दिनानि भवन्ति पारणकं च सर्वत्र सर्वकामगुणितं = सविकृतिकं कुर्वन्ति इत्यर्थः । एवं खलु एषा
सिंहनिष्क्रीडितस्य तपः कर्मणः प्रथमा परिपाटी पभिर्मासैः सप्तभिश्चाहोरात्रैश्च यथासूत्र सूत्रोक्तविधिना यावद् आराधिता भवति । उक्तरीत्या क्षुद्रकसिंह निष्क्रीडितस्य तपसः प्रथमायां परिपाट्यां सप्तरात्रंदिवाधिकाः पणमासा भवन्ति पारणं च विकृतिसहितं भवति ।
इदमस्य तपसः प्रथमपरिपाटीयन्त्रम्, एकमेव द्वितिय तृतीयचतुर्थ पदिपाटीनामपि यन्त्र बोध्यम् ।
१ २ १ ३ २ ४ 3 ५ ४ २ १ ३ २ ४ ३ ५ ४
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
9 ६ ८ 9 ९
६ ५ ६ ५ ७ ६ ८ ७ ९ ८
तदनन्तरं प्रथमपरिपाटीकरणानन्तरं द्वितीयायां परिपाट्यां चतुर्थ कुर्वन्ति, नवरं विकृतिवजे पारयन्ति । पारणं कुर्वन्ति एवं तृतीयाऽपि परिपार्टी, नवरं कर प्रथम परिपाटी में १८७, दिन हो जाते है । पारणा के दिन विगय सहित आहार लिया जाता है । इस प्रकार इस क्षुद्र सिंह निष्कीडित तप की प्रथम परिपाटी ६ मास ७ दिन रात तक सूत्रोक्त विधि के अनुसार आराधित होती है । इस तप की प्रथम परिपाटी का यन्त्र उपर संस्कृत टीका में दिया है। इसी तरह, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ परिपाटी का भी यंत्र जानना चाहिये ।
( तयानंतर........
पारंति )
जब प्रथम परिपाटी के अनुसार क्षुद्र सिंह निष्क्रीडित तप आरा धित हो चुकता है तब उसके बाद द्वितीय परिपटी में जो चतुर्थ भक्त की तपस्या करते हैं वे विकृतिवर्ज आहार का पारणा करते है ।
આમ બંનેના સરવાળા પ્રથમ પરિપાટીમાં ૧૮૭ દિવસના હાય છે. પારણાંના દિવસે વિગય સહિત આહાર કરવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે ક્ષુદ્રસિંહ નિષ્ક્રી ડિત તપની પ્રથમ પરિપાટી સૂત્રેાક્ત વિધિ મુજબ છ માસ અને સાત દિવસ રાત સુધી આંરાધિત હેાય છે. આ તપની પ્રથમ પરિપાટીનું યંત્ર ઉપર સંસ્કૃત ટીકામાં ખતાન્યા મુજબ છે. આ પ્રમાણેજ દ્વિતીય, તૃતીય ચતુર્થ પરિપાટીના યંત્ર વિષે પણ જાણવું જોઇએ.
( तयाणं तर.......
..परिति )
જ્યારે પ્રથમ પરિપાટી મુજબ ક્ષુદ્રસિંહ-નિષ્ક્રીડેત તપની આરાધના પૂરી થઈ જાય છે ત્યારે દ્વિતીય પરિપટીમાં ચતુર્થાં ભક્તની તપસ્યા કરનારા વિકૃતિ વજ્ર આડારનાં પારણાં કરે છે.
For Private And Personal Use Only
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૮
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे पारणके-अलेपकृतं अस्निग्धं रूक्षं पारयन्ति। एवं चतुर्थ्यपि परिपाटी नवरं पारणके आचामाम्लेन पारयन्ति-रूक्षान्नमचित्तजलप्लावितं कृत्वा तेन पारणं कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ मू० ६ ॥
मूलम्-तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सहिनिकालियं तवोकम्मं दोहिं संवच्छरेहिं अट्रावीसाए अहो. रत्तेहिं अहासुत्तं जाव आणाए आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्तो थेरे भगवंते वदंति नमसंति वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामो णं भंते ! महालयं सीहनिक्कीलियं तहेव जहा खुड्डागंनवरं चोत्तीसइमाओ नियत्तए एगाए परिवाडीए कालो एगेणं संवच्छरेणं छहिं मासे हिं अट्ठारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेइ । सव्वंपि सीहनिकीलियं छहिं वासेहिं दोहि य मासेहिं बारसेहिं य अहोरत्तेहिं समप्पेइ। तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं अहासुत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति नमसंति वंदित्ता नमसित्ता बहणि चउत्थ जाव विहरंति ॥ सू० ७॥
इसी तरह तीसरी भी परिपाटी होती है । परन्तु इसमें जो पारणा होता है वह विगय वर्जित रूक्ष अन्न का होता है। इसी तरह की चोथी परिपाटी होती है परन्तु इस में जो पारणा होता है वह चावल आदि का धोया हुआ धोवान पानी में अर्थात् अचित्त जल से प्लावित हुए रुक्ष अन्न याने आयंधिल का होता है ॥ सूत्र ६॥
આ પ્રમાણે ત્રીજી પરિપાટી પણ હોય છે. પણ તેનાં પારણાં વિનય વગરના રૂક્ષ અન્નનાં હોય છે. આ પ્રમાણે જેથી પરિપાટી પણ હોય છે. પણ તેનાં પારણું ભાત વગેરેના ઓસામણમાં એટલે કે અચિત્ત પાણીથી પ્લાવિત થયેલા અક્ષ અન્ન અર્થાત્ આયવિલના હોય છે. # સૂત્ર ૬
For Private And Personal Use Only
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारधर्मामृतबिंग टीका अ० ८ महाबलादिषटू राजवरितनिरूपणम् २६९
टीका-ततस्तदनन्तरं खलु ते महाबलपमुखाः सप्तानगाराः 'खुड्डागं क्षुल्लक लघुकं, सिंहनिष्क्रीडितं-चतसृभिः परिपाटीभिर्युक्तं तपः कर्म द्वाभ्यां संवत्सराभ्यामष्टाविंशत्याऽहोरात्रैः ‘अहामुत्तं' यथासूत्र मूत्रोक्तविधिना, यावद्-इह यावत् करणाद् ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षायोपशमिकमावानतिक्रमेण वा 'आणाए' आज्ञया भगवदाज्ञया प्रवचनानुसारेण आराध्य, यौव स्थविरा भगवन्तस्तत्रैवो पागच्छन्ति, उपागत्य स्थविरान् भगवतो वन्दते स्तुवन्ति, नमस्यंति प्रणमन्ति, वन्दित्वा नत्वा एवमवदन्
हे भदन्त ! वयमिच्छामः खलु ‘महालयं' महत् सिंहनिष्क्रीडितं तपः कर्म कर्तुम् , ततः स्थविराज्ञया महाबलप्रमुखाः सप्तानगाराः महासिंहनिष्क्रीडित तपः
'तएणं ते महब्बलपामोक्खा' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (ते महब्बलपामोक्खा सत्तअणगारा) वे महाबल प्रमुख सातों हीं अनगार (खुड्डागं सोह निक्कीलियं) लघु सिंह निष्क्रीडित तपः कर्म को (दोहिं संवच्छरेहिं अट्ठोविसाए अहोरत्तेहिं) दो वर्ष २८ दिन रात तक (अहासुत्तं) यथा सूत्र (जाव आणाए आ. राहेत्ता) यावत् भगवान की इस तप को करने की जेसी आज्ञा है उस के अनुसार आराधित कर (जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति उवागछित्ता थेरे भगवंते वंदति नमंसंति, वंदित्ता नमंसिता एवं वयासी) जहाँ स्थाविर भगवान थे वहां गये। वहां जाकर उन्होंने भगवंत स्थविरो को वंदन की-उन्हें नमस्कार किया वंदना नमस्कार करके फिर वे इस प्रकार बोले (इच्छामो णं भंते ! महालयं सीहनिकोलियं
'तएण ते महोब्बलपामोक्खा ' त्या !
साथ-(तएण) त्या२मा 'ते महब्बलपामोक्खा सस अणगारा' भड़ास प्रभु सात मना(खुड्डागं सोहनिकीलियं) सधुसिंड निहीत त५ ४
शने (दोहिं संवच्छरेहि अट्ठावीसाए अहोरत्तेहि ) मे १५ २८ हिवस रात सुधा (अहासुसं ) सूत्रत विधि भु४५ ( जाव आणाए आराहेत्ता) तेभन तेने આરાધવાની ભગવાનની જેવી આજ્ઞા છે, તે મુજબ આરાધીને
(जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदंति नमसंति, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासो)
જ્યાં સ્થવિર ભગવાન હતા ત્યાં ગયા ત્યાં જઈને તેમણે ભગવંત સ્થવિરોની વંદના કરી અને તેમને નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેઓ એ વિનંતી કરતાં આ પ્રમાણે કહ્યું.
For Private And Personal Use Only
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२७०
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे कर्म कर्तुं प्रवृत्ताः, 'तहेव' तथैव-महासिंहनिष्क्रीडितमपि तद्वदेव भवति-'जहा खुड्डागं' यथा क्षुल्लकं लघुसिंहनिष्क्रीडितं, नवरं विशेषस्तु 'चोत्तीसइमाओ नियत्तए' चतुस्त्रिंशत्तमाद् निर्वर्तते-अयमर्थः-चतुर्थभक्तमेकोपवासरूपमादितः कृत्वाऽनुलोमगत्या पूर्वोक्त-क्षुल्लकसिंह निष्क्रीडिततपः कमवत् षोडशोपवासरूपचतुस्त्रिंशत्तमपर्यन्तं करोति पुनस्तस्मानिवर्तते प्रत्यावर्तते, तद् यदा-चतुस्त्रिंशत्तमतहेव जहा खुड्डागं नवरं चोत्तीसइमाओ नियत्तए एगाए परिवाडिए कालो एगेणं संवच्छरेणं छहिं मासेहिं अट्ठारसहिय अहोरत्तेहिं य समप्पेह ) हे भदंत ! हम लोग महान सिंह निष्क्रीडित तपः कर्म करना चाहते हैं। इसके बाद वे स्थविर भगवान् की आज्ञा से महायल प्रमुख सातों ही अनगार ब्रहत् सिंह निष्क्रीडित तप कर्म करने में प्रवृत्त हो गये। ___ यह महासिंहनिष्क्रीडित तप भी क्षुल्लकसिंह निष्क्रीडित तप की ही तरह होता है-परन्तु इसमें इतनी विशेषता रहती है कि इस तप को करने वाला संयमी एक उपवास रूप चतुर्थ भक्त को सर्व प्रथम करता है फिरवह अनुलोम गति से पूर्वोक्त क्षुल्लकसिंह निष्क्रीडित तप कर्म को आराधित करने के क्रम की तरह सोलह उपवास रूप चतुस्त्रिं शसम पर्यन्त इस तप को करता है। ___ बाद में वहां से लौटता है-लौटने का क्रम इस प्रकार है-जब यह ... ( इच्छामो णं भंते ! महालयं सीहनिक्कीलियं तहेव जहा खुड्डाग नवर चोत्तीसइमाओ नियत्तए एगाए परिवाडिए कालो एगेणं संबच्छरेणं छहिं मासेहि अट्ठारसहिय अहोरत्तेहिं य समप्पेइ )
હે ભદત ! અમે મહાન સિંહનિષ્ક્રીડિત તપ કર્મ કરવા ઈચ્છી એ છીએ. ત્યાર બાદ સ્થવિર ભગવાનની આજ્ઞાથી મહાબલપ્રમુખ સાતે અનગારી મહાન સિંહ નિષ્ક્રીડિત તપ કર્મમાં પ્રવૃત્ત થઈ ગયા.
મહાસિંહ નિષ્ક્રીડિત તપની વિધિ પણ સુકલક સિંહ નિષ્ક્રીડિત તપની વિધિની જેમજ હેય છે. પણ તેના કરતાં તેમાં એટલી વિશેષતા હોય છે કે આ તપને આચરનાર સંયમી એક ઉપવાસ રૂપ ચતુર્થ ભક્તને સૌ પહેલાં આચરે છે ત્યાર બાદ તે અનુલેમ ગતિથી પૂર્વે વર્ણવેલા ભુલક સિહ નિષ્ક્રીડિત તપ કર્મના આરાધન કમની જેમજ સોળ ઉપવાસ રૂપ ચતુસ્વિંશત્તમ સુધી આ તપને કરે છે.
For Private And Personal Use Only
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० महाबलादिषट् राजचरितनिरूपणम्
२७१
करणानन्तरं प्रतिलोमगत्या प्रत्यावृत्तिकाले मध्ये पञ्चदशोपवासरूपं द्वात्रिंशं भक्तं कृत्वा पुनः पोडशोपवासरूपं चतुस्त्रिंशत्तमं करोति, ततश्चतुर्दशोपवासरूपं त्रिंशत्तमं कृत्वा द्वात्रिंशं करोति एवं पूर्वोक्तक्रमेण ततश्चतुर्थभक्तपर्यन्तं करोति । इदं महासिंहनिष्क्रीडितस्य तपसः प्रथमपरिपाटी यन्त्रत्
१
२ १ ३
१ २ १ ३
६
४ ३ |५ ४ ६ ५ ७ ६ ८ २ ४ | ३ ४ ११ १० १२ ११ १३ ११ । १० १२
५/७ ६ १३ | १५ १४ १६ |
१२ | १४
१२ । १४
१३ १५ १४ १६ | १५
११ | १३ इमेऽङ्का उपवासनां निवेशिताः । एवमेव द्वितीयतृतीय चतुर्थपरिपाटीनां प्रत्येकं यन्त्रं बोध्यम्. ।
इह महासिंह निष्क्रीडिते तपस्येकस्यां परिपाट्यामनुलोमप्रतिलोमतश्चतुर्थषष्ठाष्टमाद त्रिंशत्तमपर्यन्तानि चत्वारि चत्वारि 'द्वात्रिंशानि त्रीणि, 'द्वे चतु त्रिंशत्तमे ' भवन्ति ।
の
6 17
९ १०
१०
९
For Private And Personal Use Only
९ ।
९ |
सोलह उपवास कर चुकता है-तब प्रतिलोम गति से प्रत्यावृत्ति काल मे बीच में यह १५ उपवासरूप द्वात्रिंशत् भक्त करता है - पुनः सोलह उपवासरूप चतुस्त्रिंशत्तम भक्त करता है। फिर चतुर्दश उपवास रूप तीस भक्त करता है - इन्हें कर के फिर १५ उपवास करता है । इस प्रकार पूर्वोक्त क्रम से यह चतुर्थभक्त पर्यन्त तपस्या करता है । इस महासिंह निष्क्रीडित तप का प्रथम परिपाटीयंत्र उपर संस्कृत टीका में दिया है । इस प्रकार समझ लेवें ।
यंत्र में जो अंक दिये है वे अंक उपवासों के हैं । इसी तरह द्वितीय तृतीय और चतुर्थ परिपाटीयों के प्रत्येक के अंक जानना चाहिये । इस महासिंह निष्क्रीडित तप में एक परिपाटी में अनुलोम प्रतिलोम की
ત્યાર બાદ તે ત્યાંથી પાછે ફરે છે. પાછા ફરવાના ક્રમ આ પ્રમાણે छे. न्यारे સાળ ઉપવાસે કરી લે છે ત્યારે પ્રતિલેામ ગતિથી પ્રત્યાવૃત્તિ કાળમાં વચ્ચે પંદર ઉપવાસ રૂપ દ્વાત્રિંશત ભકત કરે છે. ફરીતે સેોળ ઉપવાસ રૂપ ચતુસ્રિશત્તમ ભકત કરે છે. ગ્યાર ખાદ ચતુર્દેશ ઉપવાસ રૂપ ત્રીશ ભકત કરે છે. અને ત્યાર પછી પંદર ઉપવાસ કરે છે. આ રીતે પૂર્વોકત ક્રમથી તે ચતુર્થ ભકત પન્ત તપસ્યા કરે છે. મહાર્સિહનિષ્ક્રીડિત તપનું પ્રથમ પરિપાટી યંત્ર ઉપર સસ્કૃત ટીકામાં બતાવ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું,
આ અંક ઉપવાસે ના છે. આ પ્રમાણે જ દરેક ીજી, ત્રીજી અને ચેાથી પિરપાટીએના કે જાણવા જોઇએ. મહાર્સિહનિષ્ક્રીડિત તપમાં એક પરિષાટિમાં અનુલામ પ્રતિલામની અપેક્ષા ચતુ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ, વગેરેથી
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
=
૨૭૨
पाताधर्मकथागसत्रे इह प्रत्येकपरिपाटया मनुलोमप्रतिलोमतः सर्वाणि तपोदिनानि संकलनया ४९७सप्तनवत्यधिकानि चत्वारि शतानि,तथा-पारणदिनानि-६१एकाधिक षष्ठिसंख्यकानि भवन्ति, एषामुभयेषामाकलनेन यावान् कालो भवति, तं प्रदर्शयितुमाह 'एगाए परिवाड़ीए' इत्यादि । एकस्याः परिपाटयाः काल:-एकेन संवत्सरेण पभिर्मासैरष्टादशभिश्चाहोरात्रैः 'समप्पेइ ' समाप्यते संपूर्णों भवति.। 'सव्वंपि' सर्वमपि अशेषमपि चतसृभिः परिपाटीभिर्युक्तमित्यर्थः, ' सीहनिक्कीलियं ' सिंह निष्क्रीडितं तपः- पइभिवाभ्यां च मासाभ्यां द्वादशभिश्चाहोरात्रैः पारणदिनतैः ' समप्पेइ 'समाप्यते= संपूर्ण भवति-यथामूत्रं यावदाराधितं भवतीत्यर्थः अपेक्षा चतुर्थ, षष्ट, अष्टम, आदि से लेकर त्रिंशत्तम-१४ उपवासो-तक सब उपवास चार चार हो जाते हैं। अर्थात प्रथम भक्त ४, चतुर्थ भक्त ४ षष्ट भक्त ४ अष्टम भक्त ४,इत्यादि १४ उपवासों तक जानना चाहिये । १५ उपवास ३, और १६ उपवास २ हो जाते हैं। ___ यहां प्रत्येक परिपाटी में अनुलोम प्रतिलोम विधि के अनुसार समस्त तपस्या के दिनों की संख्या मिलाकर ४९७ होती है। पारणा के दिनों की संख्या ६१ । इन दोनों के संकलन से जितना समय होता है-सूत्रकार उसे " एगाए परिवाडी ए " इत्यादि पदों द्वारा प्रकट करते हैं-वे कहते हैं कि एक परिपाटी का काल एक वर्ष ६ मास और १८रात दिनों में समाप्त होता है। (सव्वं वि सीहनिक्कीलियं छहिं वासे हिं दोहिं मासेहिं बारसहिय अहोरत्ते हिं य समप्पेह) और समस्त यह सिंह निक्रीडित तप छह वर्ष दो मास एवं १२ दिन रात में समाप्त होता है। માંડીને ત્રિશત્તમ-૧૪ ઉપવાસ-સુધી બધા ઉપવાસ ચારચાર હોય છે એટલે કે પ્રથમ ભક્ત ૪ ચતુર્થ ભક્ત ૪, ષષ્ઠ ભક્ત ૪, અષ્ટમ ભક્ત ૪, વગેરે ૧૪ ઉપવાસ સુધી જાણવું જોઈએ. ૧૫ ઉપવાસ ૩ અને ૧૬ ઉપવાસ ૨ થઈ જાય છે.
આ પ્રમાણે અહીં દરેકે દરેક પરિપાટિમાં અનુલેમ પ્રતિમ વિધિ મુજબ તપસ્યાના બધા દિવસોની ગણત્રી કરીયે તે ૪૯૭ થાય છે. પારણાંના દિવસોની સંખ્યા ૬૧ હોય છે. આ બંનેના સરવાળાના જેટલા દિવસે થાય छ. सूत्र।२ 'एगाए परिवाडीए” पोरे ५। १२॥ २५५८ ४२ छ. सूत्रा२ કહે છે કે એક પરિપાટાને કાળ એક વર્ષ છ માસ અને અઢાર દિવસમાં पू। थाय छे. ( सव्वं वि सीहनिक्कीलियं छहिं वासेहिं दोहिं मासेहि वारसहिय अहोरत्तेहिय समप्पेइ मन मा सिंह निष्ठीयरित तपने सपूण ५ ५३ वामा છ વર્ષ બે માસ અને બાર દિવસ રાત એટલે વખત લાગે છે
For Private And Personal Use Only
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणीटी० अ० ८ महाबलादिषट्राजचरितनिरूपणम् २७३
ततस्तदनन्तरं खलु ते महाबलप्रमुखाः सप्तानगाराः ' महालयं ' महत्, सिंह निष्क्रीडितं यथासूत्र-सूत्रानतिक्रमेण यावद् आज्ञया आराध्य यत्रैव स्थविरा भगवन्तस्तौवोपागच्छन्ति उपागत्य स्थविरान् भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नत्वा बहूनि बहुविधानि चतुर्थ. यावद् चतुर्थषष्ठाऽष्टमादीनि तपांसि कुर्वन्तो विहरन्ति. ॥ सू०७॥
मूलम-तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं ओरालेणं सुक्का भुक्खा जहा खंदओ नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं दुरूहंति, दुरूहित्ता जाव दोमासियाए संलेहणाए सवीसं भत्तसयं चउरासीइं वाससयसहस्साइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता चुलसीई पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बतसिं सागरोवमाइं ठिई तत्थणं महब्बल
(तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालय सिंह निक्की लियं अहासुत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छति) इस प्रकार वे महाबल प्रमुख सातों ही अनगार इस महासिंह निष्क्रीडित तप को यथा सूत्र यावत् आराधित करके जहां स्थविर भगवंत थे वहां आये । ( उवागच्छित्ता थेरे भगवंते बंदति नमसंति, वंदित्ता नमः सित्ता, यहूणि चउत्थ जाव विहरंति ) वहां आकर उन्हों ने स्थविर भगवंतो को वंदना की नमस्कार किया-और वंदना नमस्कार करके फिर वे चतुर्थ षष्ठ अष्टमादि तपों को करते हुए विहार करने लगे ॥सू०७॥
(तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सिंहनिक्कीलियं अहा मुत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति)
આ રીતે યથાસૂત્ર અને યાવત યથાવિધિ મહાસિંહનિષ્ક્રીડિત તપને આરાધીને મહાબલ પ્રમુખ સાતે અનગારો જ્યાં સ્થવિર ભગવંત હતા ત્યાં આવ્યા.
( उवागच्छित्ता थेरे भगवंते बंदंति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता, बहणि चउत्थ जाब विहरंति)
ત્યાં જઈને તેમણે સ્થવિર ભગવતે ને વંદન અને નમસ્કાર કર્યો, અને વંદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેઓ ત્યાર બાદ ચતુર્થ ષષ્ઠ અષ્ટમ વગેરે તને આરતાં વિહાર કરવા લાગ્યા. સૂત્ર “”
For Private And Personal Use Only
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२७४
साताधर्मकथागसूत्रे वजाणं छण्हं देवाणं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिई महबलस्स देवस्स पडिपुन्नाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई ॥सू०८॥
टीका-'तएणं ते' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु ते महाबलप्रमुखाः सप्तानगारास्तेनोदारेण इहलोकाधाशंसारहितत्वेन प्रधानेन तपः कर्मणा ' सुक्का' शुष्काः शुष्कशरीराः रक्तमांसशोषणात् ' भुक्खा ' बुभुक्षिताः बहुतपस्वित्वात् । 'जहाखंदओ' यथा स्कन्दकः स्कन्दकनामकोऽनगारः भगवतीमत्रे द्वतीयशतके प्रथमोद्देशके वर्णितस्तथा संजाता इत्यर्थः, नवरं-एतावान् विशेष:-'थेरे' स्थविरान् स्कन्दको महवीरमापृष्टवान् एते तु स्थविरानित्यर्थः आपृच्छय ' चारुपव्वयं'
'तएणं ते महब्बलपामोक्खा' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (ते महब्बल पामोक्खा सत्त अणगारा) वे महबल प्रमुख सातों ही अनगार ( तेणं ओरालेणं सुक्का भुक्खा जहा खंदओ) भगवती सूत्र के द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक में वर्णित स्कंदक मुनि की तरह उसे इहलोक परलोक आदि की आशंसा से रहित होने के कारण प्रधान तप से शुष्क शरीर एवं बुभुक्षित ( भूख युक्त) हो गये । ( नवरं थेरे आपुच्छित्तो चारुपव्वयं दुरुहंति' दुरूहित्ता जाव दो मासियाए संलेहणाए सवीसं भत्तसयं चउरासीई वाससयसहस्साइं सामण्णपरियागं पाउगंति ) किन्तु स्कंदक मुनि की अपेक्षा इन सातों अनगारों में यह विशेषता हुई कि स्कंदक मुनि ने महावीर प्रभु से आज्ञा ली और इन्हों ने स्थविर भगवंतों से आज्ञा ली
'तरण ते महाब्बल पामोक्खा सत्त अणगारा' त्या
टी -(तएण ) त्या२।४ (महाबलपामोक्खा सत्त अणागरा) भ७५ प्रभु सात अना। (तेण ओरालेणं सुक्का भुक्खा जहा खंदओ) भगवती સૂત્રના બીજા શતકના પહેલા ઉદ્દેશકમાં વણિત સ્કંદક મુનિની જેમ તેઓ ઈહલેક અને પરલેક વગેરેની અશંસા (ઈચ્છા) રહિત લેવા બદલ પ્રધાન તપથી શુષ્ક શરીર અને બુભુક્ષિત (ભૂખ્યા) થઈ ગયા. . (नवर थेरे आपुच्छित्ता चारु पव्वयं दुरूहंति, दुरूहित्ता जाव दो मासियाए संलेहणाए सवीसं भत्तसयं च उरासीइं वाससय सहस्साइं सामण्णपरियागं पाउणंति)
કંઇક મુનિએ જ્યારે ભગવાન મહાવીર પાસે આજ્ઞા મેળવી હતી ત્યારે એ સાતે અનગારોએ ભગવંત સ્થવિરો પાસેથી આજ્ઞા મેળવી સ્કંદમુની કરતાં એમના વિશે આટલું જ વધારે જાણવું જોઈએ, આ પ્રમાણે સાતે અનગારો
For Private And Personal Use Only
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अगरधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादिषट् राजचरितनिरूपणम् २७५
चारुपर्वतं चारुनामकं पर्वतं ' दुरूहंति ' दूरोहन्ति = आरोहन्ति, ' दुरूहित्ता' दूरुह्य = आरुह्य यावद् पृथिवीशिलापट्टकं प्रमार्ण्य पादपोपगमनं स्वीकृत्य द्विमासिक्यासंलेखनया सर्विंशतिकं भक्तशतं 'चउरासीइं वाससय सहस्साई' चतुरशीर्ति वर्षशतसहस्राणि= चतुरशीतिलक्षवर्षाणि श्रामण्यपर्यायं = चारित्रपर्यायं पालयन्ति, पालयित्वा चतुरशीतिं पूर्वशतसहस्राणि चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि सर्वांयुः पालयित्वा जयन्ते विमाने देवतयोपपन्ना: देवत्वेनोपपातमुत्पत्तिं प्राप्ताः ।
E
तत्र खलु अस्त्येककानां देवानां द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि यावत् स्थितिः । तत्र खलु महाबलवर्नानां षण्णां देवानां देशोनानि द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिः । महाबलस्य देवस्य प्रतिपूर्णानि द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिर्जाता ।। सू०८ ॥ इस तरह ये सातों ही अनगार भगवंत स्थविरों से आज्ञा लेकर चारु नाम के पर्वत पर पहुँचे वहां पहुँच कर उन्हों ने वहां के शिलापट्टक की प्रमार्जमा की बाद में पादपोपगमन संथारा धारण कर लिया । दो मास की संलेखना से १२० भक्तों का छेदन कर उन्हों ने ८४ लाख वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालक किया ।
इस तरह अपनी ८४ लाख पूर्व की समस्त आयु समाप्त कर अन्त में देह का परित्याग कर वे पांच अनुत्तर विमान के अन्दर जयन्त विमान में (तत्थणं अत्थे गहयाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाई० ठिई तस्थणं महन्थलवज्जाणं छण्हं देवाणं देणाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई महत्पलस्स देवस्स पडिपुनाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिई ) वहां कितने क देवों की बत्तीस सागर प्रमाण स्थिति है सो महाबल को छोड़कर छह देवों की स्थिति कुछ कम बत्तीस सागर की हुई और महावल की स्थिति पूर्ण बत्तीस सागर की हुई । " सूत्र ९
ܕܕ
ભગવત સ્થવિ રાની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને ચારુ નામે પર્વત ઉપર પહોંચ્યા. ત્યાં પહેાંચીને તેઓએ પાપાપગમન સંથારો ધારણ કર્યાં.
For Private And Personal Use Only
આ પ્રમાણે પોતાને ૮૪ લાખ પૂર્વનું સપૂર્ણ આયુષ્ય પૂરું કરીને અન્તે દેહ છેાડીને તેએ પાંચ અનુત્તર વિમાનમાં જયન્ત નામના વિમાકમાં દેવના પર્યાયથી જન્મ પામ્યા.
( तत्थणं अथेगयाणं देवाणं बत्तीसं सागरीवमाई० ठिई - तत्थणं महब्बल वज्जाणं छण्हं देवाणं देमुणाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिई )
ત્ય'ના કેટલાક દેવાની ખત્રીશ સાગર પ્રમાણુ સ્થિતિ છે. મહાખલને ખાદ કરતાં બીજા છ દેવાની સ્થિતિ ખત્રીશ સાગર પ્રમાણમાં થેાડી આછી થઈ અને મહામલની સ્થિતિ પૂરી ખત્રીશ સાગર જેટલી થઇ । સૂત્ર “ ૮''
66
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्रे - मूलम्-तएणं ते महब्बलवज्जा छप्पिय देवा ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिईक्खएणं अणंतरं घयं चइत्ताइहेवजंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे विसुद्धपिइमाइसेसु रायकुलेसु पत्तेयं पत्तेयं कुमारत्ताए पच्चायायासी, तं जहा पडिबुद्धी इक्खागराया, चंदच्छाए अंगराया, संखे कासिराया, रुप्पी कुणालाहीवई,अदीणसत्तूकुरुराया, जितसत्तू पंचालाहिवई॥ सू०९ ॥
टीका-'तएणं ते' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं ते महाबलवाः षडपि देवास्तस्माद् देवलोकाद् जयन्ताद् विमानाद् । 'आउक्खएणं' आयुः क्षयेण-देवसम्बन्धिन आयुष्कर्मदलिकनिर्जरणेन, देवसम्बन्ध्यायुः क्षयेण · भवक्खए ' भवक्षयेण भवनि बन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणं । ठिइक्खएणं' स्थितिक्षयेण=देवसम्बन्धि स्थितिक्षयेण तेनानन्तरं चयं देवशरीरं त्यक्त्वा इहैव जम्बूद्वीपे नाम्नि द्वीपे
'तएणं ते महब्बलषज्जा छप्पियदेवा' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद (ते महब्बल वज्जिया) महाबल के सिवाय वे ( छप्पिय देवा ) छहों देव ( ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिहक्खएणं) उस देवलोक से जयन्त विमान से-देवलोक संबन्धी आयु कर्म के दलिको की निर्जना हो जाने से अर्थात् देव पर्याय संबन्धी आयु के क्षय हो जाने से भव के कारण भूत गत्यादि कों की निर्जना हो जाने से स्थिति के क्षय हो जाने से ( अणंतरं ) उसी समय (चयं चइत्ता) देव शरीर को छोड़कर (इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे ) इसी जंबू द्वीप नाम के द्वीप में, भारतवर्ष में-भरत क्षेत्र में
'तएण ते महब्वल बज्जा छप्पिय देवा ' त्या
EAstथ-(तएण) त्या२माह ( ते महब्बल वज्जिया) भाडामा सिवाय ते (छपियदेवा) छ । (ताओ देवलोगाओ आउक्खएण भवक्खएण ठिइक्खएण) તે દેવલેકના જયંત વિમાનથી દેવલેક સંબંધી આયુ કમને દલિકાની નિર્જરા થઈ જવાથી એટલે કે દેવ પર્યાય સંબંધી આયુષ્ય ક્ષય થવાથી ભવના કારણ ભૂત ગતિ વગેરેની નિજર થઈ જવાથી, સ્થિતિનો ક્ષય હોવાથી (अर्णतरं) त समये४ (चयंचइता ) हे शरीरने छ।डीने (इहेव जंबूहोवे दीवे भारहे वासे) यूद्वीप नामना ४ दी५मां-भारत वर्ष मां-भरत क्षेत्रमा
For Private And Personal Use Only
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादि षट्राजचरितनिरूपणम् २७७ ( मध्यजम्बूद्वीपे ) भारते वर्षे भरत-क्षेत्रो, विशुद्धपितमातृवंशेषु राजकुलेषु प्रत्येकं २ कुमारतया ' पच्चायाया होत्या प्रत्युत्पन्ना अभूवन् तद्यथा-१. पतिबुद्धिः-इक्ष्वाकुराजः प्रथमो जीवः प्रतिबुद्धि नामकः कोशलदेशाधिपतिः । यत्रदेशेअयोध्यानगरी २. चन्द्रच्छाय:-अङ्गराजः द्वीतीयो-धरणि जीवः चन्द्रच्छायनामाऽङ्ग देशाधिपतिः यत्र चम्यानगरी ३. शङ्ख काशिराजः, तृतीयोऽभिचन्द्रजीतः शङ्खनामा-काशिदेशाधिपतिः यत्र वाराणसी नगरी । ४ रुक्मी-कुणालाधिपतिः चतुर्थः पूरण जीव:--रुक्मीनामकः कुणालदेशाधिपतिः यत्र श्रावस्ती नगरी । ५. अदीनशत्रु:-कुरुराजः, पश्चमो वसु जीवोऽदीनशत्रुनामकः कुरु देशाधिपतिः । यत्र( विसुद्धपिइमाइवंसेसु ) विशुद्ध माता पिता के वंश वाले राज कुलों में ( पत्तेय २) पृथक २ (कुमारत्ताए पच्चायायासी) पुत्र रूप से उत्पन्न हुए । (तंजहा) इनमें (पडिबुद्धी इक्खागराया चंदच्छाए अंगराया संखे कासि राया, रुप्पी कुणालाहिवह, अदीणसत्तू कुरु राया, जित पत्तू पंचालाहिवई ) प्रथम जो अचल का जीव था वह कोशल देश का अधिपति हुआ, जिस में अयोध्या नगरी है-इसका नाम वहां प्रतिबुद्ध हुआ। दूसरा जिसका नाम धरण था वह चन्द्र छाया नाम का अङ्ग देश का अधिपति हुआ। इस अंग देश में चंपा नगरी है। तीसरा जो अभि चन्द्र का जीव था वह काशी देश का राजा हुआ। वहां इसका नाम शंख हआ। इस काशी देश में बनारस नाम की नगरी है। चौथा जो पूरण का जीव था वह कुणाल देश का अधिपति हुआ उसका वहां नाम रुक्मी था । इस कुणाल देश में श्रावस्ती नगरी है । पांचवां जो "विसुद्धपिइमाइवसेसु" विशुद्ध भातापिताना शा २०४ामा (पत्तयं२) हा हा (कुमारत्ताए पच्चायायासी) पुत्र ३ म पाभ्या. (तौं जहा) मा मधामi.
(पडिबुद्धी इक्खागराया चंदच्छाए अंगराया संखे कासिराया रुप्पी कुणाला हिवइ अदीणसत्तू कुरुराया, जितसत्त पंचालाहिवई )
પહેલે અચલને જીવ કેશલ દેશને અધિપતિ થયે કેશલ દેશનું પાટનગર અયોધ્યા નગરી હતું. અચલને જીવ ત્યાં પ્રતિબુદ્ધ નામે પંકાયે.
બીજે ધરણ અંગ દેશને અધિપતિ થયે તેનું નામ ચંદ્રછાય હતું. ત્રીજા અભિચંદ્રને જીવ કાશી દેશને રાજા થયે. તે ત્યાં શખ નામે પ્રસિદ્ધિ પામે. આ કાશી દેશમાં બનારસનામે નગરી છે. ચોથા પૂરણને જીવ કુણાલ દેશને અધિપતિ થયે. ત્યાં તેનું નામ કમી હતું. આ કુણાલદેશમાં
For Private And Personal Use Only
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૭૮
शाताधर्मकथासूत्रे देशे-हस्तिनागपुरम् । ३. जिनशत्रु पाश्चालाधिपतिः, षष्ठो वैश्रमण जीवो जितशत्रुनामकः पाञ्चालदेशाधिपतिः, यत्रदेशे काम्पिल्यं नगरम् । एवं षडपि पृथक २ स्थानेषु राजानो जाताः ॥ सू०९॥
__ मूलम्-तएणं से महब्बले देवे तीहिं णाणेहि समग्गे उच्चठाणट्ठिएसु गहेसु सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु जइएसु सउणेसु पयाहिणाणुकूलंसि भूमिसपिसि मारुयंसि पवायंसि निप्फन्नसस्तमेइणीयंसि कोलंसि पमुइयपकालिएसु जणवएसु अद्धरत्तकालसमयंसि अस्सिणीणक्खत्तेणं जोगमुवागएणं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे अहमे पक्खे फग्गुणसुद्धे तस्त णं फग्गुणसुद्धस्स चउत्थि पक्खेणं जयंताओ विमाणाओ बत्तीसं सागरोवमद्विईयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रन्नो पभावईए देवीए कुच्छिसि आहारवकंतीए सरीरवकंतएि भववकं तीए गब्भत्ताए वक्रते तंरयणिं च णं चोदसमहासुमिणा वनओ भत्तारकहणं सुमिणपाढगपुच्छा जाव विहरइ ॥ सू० १०॥ वसु का जीव था वह कुरु देश का अधिपति हुआ-वहां उसका नाम अदीन शत्रु था। कुरु देश में हस्तिनाग पुर है । तथा छठा जो वैश्रवण का जीव था पाञ्चाल देश का अधिपति हुआ-इसका वहां नाम जित शत्रु पड़ा था। इस में कपिलो नाम की नगरी है।
इस तरह ये छहों पृथक् २ स्थानों में राजा हुए । सूत्र " ९" શ્રાવસ્તી નગરી છે. પાંચમે વસુને જીવ કુરુદેશને અધિપતિ થયે. તેનું નામ અદીન શત્રુ હતું. કુરુ દેશમાં હસ્તિનાપુર નગર છે. તેમજ છઠ્ઠો વૈશ્રવણને જીવ પાંચાલ દેશને અધિપતિ થયે. તેનું નામ જિત શત્રુ હતું. પાંચલ દેશમાં કપિલા નામે નગરી છે.
આ પ્રમાણે તેઆ છએ જુદા જુદા દેશમાં રાજ્ય પદે સુશોભિત थया ।। सूत्र" "॥
For Private And Personal Use Only
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
न
अगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलादि षट्राजचरितनिरूपणम् २७९
टीका-'तएणं से' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं स महाबलो देवत्रिभिमा॑नः 'समग्गे' समग्रः संयुक्तः, 'उच्चट्ठाणढिएसु' उच्चस्थान स्थितेषु ग्रहेषु सूर्यादिषु सौम्यासु दिग्दाहाद्युत्पातरहितासु 'दिसासु 'दिक्ष वितिमिरासु तीर्थकर गर्भावासमभावाद व्यपगतान्धकाराम विशुद्धासु-झंझावातरजः कणादि रहितत्वेन निर्मलासु 'जइएसु ' जाषिकेषु राजदीनां विजयसूचकेषु ' सउणेसु ' शकुनेषु काकरुतोदिषु पयाहिणाणुकूलंसि ' प्रदक्षिणानुकूले प्रदक्षिणावर्तत्वात् प्रदक्षिणः, शुभावहः सुरभिशी तमन्दत्वादनुकूलश्च तस्मिन् 'भूमिसपिसि' भूमिसर्पिणी भूमौ प्रसरणशीले मारुते वायौ, · पवायंसि ' प्रवाते वातुं प्रवृत्ते. 'निष्फन्नसस्स. मेइणीयंसि' निष्पन्नसस्यमेदिनीके निष्पन्नसस्या मेदिनी भूमियस्मिन् तथाभूते काले ‘पमुइयपक्कीलिएसु ' प्रमुदितमक्रीड़ितेषु जनपदेषु अर्धरात्रकालसमये अश्विनीनक्षत्रेण 'जोग' योगं चन्द्रयोगम्, उपागतेन प्राप्तन, यासः प्रसिद्धः 'हे मंताणं' हेमन्तानां मार्गशीर्षादि फाल्गुनान्तानां शीतकालमासानां मध्ये चतुर्थी मासः, अष्टमः पक्षः कृष्णादि मासस्य शास्त्रसंयमत्वादष्टमत्वं पक्षस्येति भावः फाल्गुनशुद्धः फाल्गुनस्य शुद्धः शुक्लः द्वितीयपक्षोऽस्तीत्यर्थः । तस्य फाल्गुन शुद्धस्य ' चउत्थिपक्खे' चउर्थीपक्षे फाल्गुनशुद्धस्य पक्षस्य या चतुर्थी तिथिस्तस्याः पक्षः पार्थोऽर्धरात्रिरिति भावः, तत्र-'ण' इतिवाक्यालङ्कारे, जयन्ताद विमानाद् द्वात्रिंशत्सागरोपमस्थितिकादनन्तरं चयं देवसम्बन्धिशरीरं त्यक्त्वाइहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे-मध्यजम्बूद्वीपे भारते वर्षे भरतक्षेत्रे मिथिलायां राजधान्यां
'तएणं से महब्यले ' इत्यादि । ____टीकार्थ-(तएणं ) इसके बाद (से महब्बले देवे ) वह महाबल का जीव देव (तीहि जाणेहिं समग्गे) मति ज्ञान श्रुतज्ञान और अवधि ज्ञान इन तीन ज्ञानों का धारी हो कर ( अणंतरं ) उन छहों के बाद अपनी स्थिति पूर्ण कर (जयंताओ विमाणाओ) उस जयंत विमान से (चइत्ता) चल कर ( इहेव जंबुद्दीवे हीवे ) इसी जंबू द्वीप नाम के द्वीप में ( भार
'तरण से महन्बले' त्या
-( तएण') त्या२४ " से महब्बले देवे" हे महामसन १ “तीहिं णाणेहिसमग्गे" भतिज्ञान, श्रुतज्ञान भने अवधिज्ञान मा श्री ज्ञानाने पा२६५ ४२ना२ ने " अणंतर" ते ७सेना पछी पातानी स्थिति पूरी शने “ जयंताओ विमाणोओ" यत विभानथा “ चइत्ता" यासीन " इहेव जंबूहीवे दीवे " दीप नामना माल द्वीपमi (भारहे वासे )
For Private And Personal Use Only
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
०८०
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे * कुंभगस्स ' कुम्भकस्य कुम्भकनामकस्य राज्ञः प्रभावत्याः प्रभावतीनाम्न्या देव्यः ' कुच्छिसि ' कुक्षौ ' आहारवक्कंतीए' आहारव्युत्क्रान्त्या आहारपरिवर्तनेन मनुष्योचिताहारग्रहणेनेत्यर्थः, ‘सरीरवक्कंतीए ' शरीरव्युत्क्रान्त्या देवशरीरपरिवर्तनपूर्वकमनुष्यशरीरग्रहणेनेत्यर्थः । भववक्कतोए' भवव्युत्क्रान्त्या = देवभवं विहाय मनुष्यभवग्रहणेन 'गम्भत्ताए वक्ते' गर्भतया व्युत्क्रान्तः गभरूपेण समुत्पन्नः । तस्यां रजन्यां च खलु चतुर्दश महास्वनाः प्रभावती देव्या दृष्टः। हे वासे ) भरत क्षेत्र में (मिहिलाए रायहाणीए ) मिथिला राजधानी में (कुंभगस्स रन्नो पभावइए देवीए कुच्छिसि) कुंभक राजाकी प्रभावती देवी की कुक्षि में ( आहार वक्रतीए) आहार के परिवर्तन से-मनुष्यो चित आहार के ग्रहण से, ( सरीरवक्कंतीए ) शरीर की व्युत्क्रान्ति से देव शरीर के परिवर्तन पूर्वक मनुष्य शरीर के ग्रहण से, ( भव वक्कंतीए ) भव की व्युत्क्रान्ति से देव भव को छोड़कर मनुष्य भव के ग्रहण से ( गम्भत्ताए वकं ते ) गर्भरूप से उत्पन्न हुए ।
जब यह प्रभावती की कुक्षी में गर्भ रूप से उत्पन्न हुए तब ( गहे सु उच्चट्ठाणढिएसु) सूर्यादिग्रह उच्चस्थान पर स्थित थे । (दिसाप्सु सोमासु ) चारों दिशायें दिग्दाह आदि उपद्रवों से रहित थी ( विति मिरासु विसुद्धासु ) तीर्थकर के गर्भावास के प्रभाव से वे अन्धकार रहित बन गई थीं एवं झंझावात रजकण आदि से रहित हो कर निर्मल हो गई थीं।
सरत क्षेत्रमा । 'मिहिलाए रायहाणीए" मिथिला पानीमi कुंभगस्सरन्ने। पभावइए देवीए कुच्छिसि " म २०नी प्रभावती देवीना ४२म “आहार वक्कंतीए " महारानी परिवर्तनथी भानवायित माहारना थी " सरीर वक्तीए” शरीरनी व्यु.तिथी थेट है व शरीरना परिवतन तमा मनुष्य शरी२ना था “ भववक्कंतीए " अपनी युतिया ३१ सपने त्यने मनुष्य -म१२ अ ४२वानी मापेक्षाथी “गन्मत्ताए वक्कंते " ગર્ભ રૂપે જન્મ પામ્યા. ___यारे ते प्रमावतीन २मा ३५ सतया त्यारे “ गहेसु उच्चद्वाण द्विएसु " सूर्य कोरे अडी अन्य स्थान ता. दिसासु सोमासु यारे हिमाहिहाड कोरे उपद्रव पानी ती. “ वितिमिरासु विसुद्धासु" તીર્થકર ના ગર્ભવાસના પ્રભાવથી દિશાઓ પ્રકાશ યુક્ત તેમજ ઝંઝાનિલ રજકણ વગેરેથી રહિત થઈને સ્વચ્છ બની ગઈ
For Private And Personal Use Only
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ महाबलषट् राजचरितनिरूपणम् २१
उस समय (सउणे सु जइएसु) काक आदि पक्षी, राजा आदि के विजय सूचक शब्द बोल रहे थे। ( मारुयसि) हवा भी (पयाणु कूलंसि ) प्रदक्षिणावर्त हो कर ( पवायसि ) वह रही थी। सुरभी और शीतल मन्द होने के कारण वह अनुकूल थी । ( भूमि सपिसि ) भूमि का स्पर्श वह कर रही थी । (कालंसि ) वह समय ऐसा था कि जिसमें ( निष्फनसस्समेहणीयंसि ) निष्पन्न सस्य से मेदिनी आच्छादितहरी भरी पनी हुई थी ( जणवए सु) जन पद भी (पमुइयपक्कीलीएसु) हर्ष से हर्षित बने हुए थे और विविध प्रकार की क्रीडोओ में रत थे( अद्धरत्तकालसमयंसि ) यह समय अर्द्ध रात्रि का था। (अस्सिणी णक्खत्तेणं जोगमुवगएणं) इस में अश्विनी नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग हो रहा था (जे से हेमंताणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे फग्गुण सुद्धे ) यह अर्ध रात्रि का समय फालगुन मास के शुक्ल पक्ष का था । यह मास हेमंत काल के मासो में चौथा मास तथा ८ वां पक्ष है। (तस्स णं फरगुणसुद्धस्स चउत्थि पक्खे णं) ऐसी उस फाल्गुन शुक्ल चौथ की अर्द्धरात्रि के समय में वे महावल देव अपनी ३२ सागर की स्थिति पूर्ण करके उस जयंत नामक विमान से चव कर प्रभावती देवी
ते मते (सउणेसु जइएसु ) 1131 मेरे पक्षी Pion वगेरेन। भाटे मियने सूयबना। शva प्यारी २॥ ता. ( मारुयसि) ५न ५y (पयाणुकूलंसि ) प्रक्षित ने (पवायसी) पाते तो. शीत भन्ह भने सुगध युत पवन अनुण सागतो तो. ' भूमिसपिसि ' ते पृथ्वीन। २५० २तां पाते। तो ता. 'कालंसि' मावा सुभ समय तो भां (निप्पन्नसरसमेइणियसि ) नि०पन्न पानथी भडनी पृथ्वी' दी माप २६ थी८७ २ही ती. 'जणवएसु' न५६ ५५ ‘पमुइय पक्कीलीएसु' હર્ષમાં તરબોળ થઈ રહ્યું હતું. અને જાત જાતની ક્રીડાઓમાં મસ્ત હતું “અદ્ધरत्तकालसमयसि' मधी शतनामत ता. 'अस्सिणीणक्खत्तेण जोगमुवगए ण' मश्विनी नक्षत्रने यन्द्रनी साथे योग 25 २हो तो. 'जे से हे मंताणं चऊत्थे मासे अट्ठमे पक्खे फग्गुणसुद्धे ' ३ महिना ना शुख पक्ष यात હતું. આ મહિને હેમંત કાળના મહિનામાં ચોથે મહિને તેમજ આઠમ पक्ष छ. 'तस्सण फग्गुणसुद्धस्स चउत्थि पकखण' मेवी ५५ शुत ચોથના અડધી રાતના વખતે મહાબલ દેવ પિતાની બવીશ સાગરની સ્થિતિ પૂરી કરીને તે ત્યંત નામક વિમાનમાંથી ચવીને પ્રભાવતી દેવીના ગર્ભમાં
शा० ३६
For Private And Personal Use Only
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२८१
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे वर्णका= तेषां स्वप्नानां वर्णनं वाच्यं तच्चान्यत्र सविस्तरं द्रष्टव्यम् तेषां नामानि केवलं प्रोच्यन्ते-गज-वृषभ-सिंह-लक्ष्मी-पुष्पमाला-चन्द्र-सूर्य-ध्वज-पूर्णकलश-पनसरः-समुद्र-देवविमान-रत्नराशिवह्नय इति । भर्तृकथनम् स्वप्नवृत्तं भत्रे निवेदयतीत्यर्थः । स्वप्नपाठकपृच्छा स्वप्नफलवाचकान् समाहूय भर्ना कुम्भकनपेण स्वप्नफलपृच्छा कृतेत्यर्थः । यावत्-स्वप्नपाठकैः स्वप्नफलं निवेदितं, तत्सर्व प्रथमाध्ययने धारिणीदेव्या अधिकारे यथा कथितं तथैव वाच्यं विशेषस्तु-धारिण्या स्वप्ने गज एव दृष्टः, प्रभावत्वा तु चतुर्दश स्वप्ना इति । एवं च तैरुक्तम्के गर्भ में आये । (तं रयणि च णं चोद्दस महासुमिणा वन्नओ) उस रोत्रि में उस प्रभावतीदेवी ने १४ महा स्वप्न देखे । इन महा स्वप्नों का सविस्तर वर्णन अन्यत्र से जानना चाहिये हम यहाँ उन के नाम निर्देश करते है जो इस प्रकार चन्द्र, सूर्य, ध्वज, पूर्णकलश, पद्मसर, समुद्र देवविमान, रत्नराशि और अग्नि । इन स्वप्नो को देखकर प्रभावती ने अपने पति कुंभक राजा से कहा राजा ने उसी समय स्वप्नपाठकों को बुलाया और उनसे इन स्वप्नों के फल को पूछा।
उन्हों ने इन स्वप्नों का क्या फल है यह यात राजा को कही। यह सब विषय इसी के प्रथम अध्ययन में धारिणी देवी के अधिकार में जिस प्रकार से प्रकट किया गया है उसी प्रकार से यहां भी जानना चाहिये। धारिणी देवी ने स्वप्न में केवल एक हाथी ही देखा था। प्रभावती ने तो चौदह महा स्वप्न देखे । अन्त में उन स्वप्न पाठकों ने कहा-राजन ! प्रभावती देवी ने जो ये चौदह सुन्दर स्वप्ने देखे हैं-उन स्थित थया 'त रयणिं चण' चोइसमहासुमिणा वन्नओ'त रात्रिमा પ્રભાવતી દેવીએ ૧૪ સ્વપ્નો જોયાં આ બધાં મહાસ્વને વિષેનું સવિસ્તર વર્ણન જિજ્ઞાસુઓએ બીજેથી જાણું લેવું જોઈએ. પ્રભાવતી દેવીએ. य, सूर्य, १r, पूण ४, ५मस२, समुद्र, विभान २त्नराशि भने અગ્નિ આટલી વસ્તુઓ સ્વપ્નમાં જોઈ હતી. આ સ્વપ્નને જોયા બાદ પ્રભાવતીએ પિતાના પતિ કુંભક રાજાને સ્વપ્ન વિષે કહ્યું અને તેમણે તરત જ સ્વપાઠકેને બોલાવ્યા અને તેમને આ સ્વાના ફળ વિષે પૂછયુ.
સ્વપ્ન પાઠકેએ આ સ્વપ્નનું ફળ શું થશે તેની બધી વિગત રાજાને કહી સંભળાવી. જ્ઞાતાધ્યયન ના પ્રથમ અધ્યપનમાં ધારિણિદેવીના પ્રસંગમાં આ વિષે સવિસ્તર વર્ણવ્યું છે. અહીં પણ તે મુજબ જ સમજી લેવું જોઈએ સ્વપ્નમાં ધારિણી દેવીએ ફક્ત એક હાથી જ જે હતે પણ પ્રભાવતીએ તે ચૌદ મહા સપને જોયાં હતાં. સ્વપ્નનું ફળ વર્ણવતાં સ્વપ્ન પાઠકએ કહ્યું
For Private And Personal Use Only
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारमामृतवर्षिणी टोका अ० ८ प्रभावतीदेवीदोहदादिनिरूपणम् २८३ हे राजन् ! प्रभावती देव्या चतुर्दश शोभनाः स्वप्ना अवलोकिताः। तत्पभावाच्च क्रवर्ती वा तीर्थंकरो वा भविष्यति । स्वप्नफलं श्रुत्वा सा प्रभावती गर्भ सुखसुखेन वहमाना विहरति-आस्ते स्म ॥ सू० १० ॥ __मूलम्-तएणं तीसे पभावईए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडि पुन्नाणं इमेयारूवे डोहले पाउब्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं जलथलयभासुरप्पभूएणं दसद्धवन्नेणं मल्लेणं अत्थुयपच्चत्थुयंसि सयणिज्जंसि सन्निसन्नाओ सण्णिवन्नाओ य विहरांति, एगं च मह सिरीदामगंडं पाडलमल्लिय चंपय असोग पुन्नाग नाग मस्यगदमणगअणोजकोज्जयपउरं परमसुहफासदरिसणिज्जं महयागंधद्धणिं मुयंतं अग्घायमा. णीओ डोहलं विणेति ।
तएणं तीसे पभावतीए देवीए इमेयारूवं डोहलं पाउब्भूयं पासित्ता अहासन्निहिया वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथलय० जाव दसद्धवन्नमल्लं कुंभग्गसो य भारग्गसो य कुंभगस्स रन्नो भवसि साहरंति, एगं च णं महं सिरिदामगडं जाव मुयंतं जाव उवणेति, तएणं सा पभावती देवीजलथलय जाव मल्लेणं जाव डोहलं विणेइ, तएणं सा पभावती देवी पसत्थके प्रभाव से इस के या तो कोई तीर्थंकर जन्म लेगा या कोई चक्रवर्ती। इस प्रकार स्वप्नों का फल सुनकर प्रभावती बड़ी प्रसन्न हुई और उस ने आनंद के साथ गर्भ को धारण करते हुए सुखपूर्वक समय को व्यतीत किया। सूत्र “१०"
હે રાજન! પ્રભાવતી દેવીએ ચૌદ ઉત્તમ સ્વને જોયાં છે, તેના પ્રભાવ થી એમના ઉપરથી કાંતે તીર્થકર જન્મ લેશે કાં કેઈ ચક્રવર્તી ! ” આ પ્રમાણે સ્વપ્ન ફળ સાંભળીને પ્રભાવતી ખૂબજ પ્રસન્ન થઈ. અને સુખેથી ગર્ભ ધારણ કરી ને સમય પસાર કરવા લાગી છેસૂત્ર ૧૦ /
For Private And Personal Use Only
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जाताधर्मकथासूत्रे डोहला जाव विहरइ, तएणं सा पभावई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धटुमाण यरतिदियाणंजे से हेमंत्ताणं पढमं मासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्सणं एकारसीए पुव्वरत्तावरत्त० अस्सिणी नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उच्चट्ठाणट्टिएसु गहेसु पमुइयपकालिएसु जणवएसु आरोग्गारोग्गं एकूणवीसइमं तित्थयरं पयाया॥ सू० ११ ॥ ____टीका-'तएणं तीसे 'इत्यादि- ततस्तदनन्तरं खलु तस्याः प्रभावत्या देव्या स्त्रिषु मासेषु बहुपतिपूर्णषु अशेषतः सम्पूर्णेषु सत्सु अयमेतदूपः दोहदः गर्भसद्भावनिताभिलाषः प्रादुर्भूतः- धन्याः खलु ता अम्बा:=पुत्रमातरः या खलु 'जलथलयभासुरप्पभूएणं' जलस्थलजभास्वरमभू - तेन जलेपु स्थलेषुच यज्जात भास्वरं विकसितं, प्रभूतं प्रचुरं, तेन ' दसद्धवन्नेणं' दशार्धवर्णेन पञ्चवर्णयुक्तेन माल्येन माल्येभ्यो हितं माल्यं-पुष्पजातं, तेन ' अत्थुयपञ्चत्थुयंसि ' आस्तृत प्रत्यास्तृते क्रमश उपर्युपरि समाच्छादिते शयनीये-शय्यायां ' सनिसन्नाओ' सनिषण्णाः संनिविष्टाः 'सण्णिवन्नाओ' संनिपन्नाः सुप्ताश्च विहरन्ति सुखेन
तएणं तीसे पभावईए' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इस के बाद (तीसे पभावईए देवीए) उस प्रभावती देवी के जब (तिण्हं मासाणं बहुपडिपुनाणं ) तीन मास अच्छी तरह से पूर्ण हो चुके-तब ( इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए ) उसे इस प्रकार का दोहला उत्पन्न हुआ- (धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ ) वे माताएँ धन्य हैं (जाओ णं जल थलय भासुरप्पभूएणं दसद्धवन्ने णं मल्ले णं) जो जल में एवं स्थल में उत्पन्न हुए विकसित पंचवर्गों के प्रभूतपुष्पों से ( अस्थुय पच्चत्थुयंसि सणिज्जंसि सनिसन्नाओ सनिवन्नाओ य
'तएणं तीसे पभावइए । ' या !
टीर्थ-(तएण) त्या२।४ (तीसे प्रभावइए देवोए) प्रमावतीहवी यारे (तिहं मासाणं बहुपडिपुन्नाण) ay महिना सारी ते ५सा२ ५४ यु४॥ त्यारे ( इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए) तेने या प्रमाणे हा उत्पन्न युं है (धन्नाजो णं ताओ अम्मयाओ) ते भात। । धन्य छे. (जाओ ण जल थलय भासुरप्पभूएण दसद्धवन्नेणं मल्लेणं) रेसी भने स्थमा सi અને વિકાસ પામેલાં પાંચરંગના પુષ્કળ પ્રમાણમાં એકઠાં કરેલાં પુખેથી
For Private And Personal Use Only
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भेनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ प्रभावतीदेवी दोहदादिनिरूपणम् २८५ तिष्ठन्ति ता अम्बा धन्याः, इति पूर्वेण सम्बन्धः । एकंच महत् विशालं 'सिरि. दामगंडं' श्रीदामकाण्डं श्रीदाम्नां शोभायुक्तमालानां काण्डं समूहं 'पाडलमल्लियचंपय- असोग- पुन्नाग-नागमरुयग-दमणग-अणोज्ज कोज्जयपउरं' पाटलामल्लिका- चम्पिका-ऽशोक-पुंनागनाग - मरुवक-दमनका- ऽनवयकुब्ज प्रचुरं, पाटलाद्या पुष्पजातयः- पाटलपुष्पं, ' गुलाब ' इति प्रसिद्धं मल्लिकापुष्पं-चम्पकपुष्पम् , अशोकपुष्पम्, पुन्नागयुष्पम् , नागपुष्पं, मरुवका पत्रजाति विशेषः, दमनकपुष्पम् , अनक्यः-सुन्दरः, कुब्जकः शतपत्रिका विशेषः, एतानि प्रचुराणि यत्र तत तथा, 'परमसुहफासदरिसणिज्ज' परमसुखस्पर्शदर्शनीयं परमसुखदः स्पर्शीयस्य तद् तच्च दर्शनीयं दृष्टिसुखदं चेति 'महया गंधद्धाणि' महामुरभिगन्धघ्राणि महामुरभिगन्धगुणं तृप्तिहेतुं पुद्गलसमूहं मुश्चत् प्रसारयद् तद् आजिघ्रन्त्यः विहरंति ) इस तरह एक एक करके क्रमशः पुष्पों के अनेक स्वरों से समाच्छादित हुई शय्या पर बैठती हैं सुख से शयन करती हैं । (एगं च महं सिरीदामगंडं पाडलमल्लियचंपयअसोगपुन्नागनागमरुयगदमणगणोज्जकोज्जयपउरं परमसेहफासदरिसणिज्ज महयागंधद्धणिमु. यंत आधायमाणीओ दोहलं विणेति ) और अद्वितीय श्रीदामकांड को-शोभायुक्त मालाओ के समूह को कि जिसमें पाटल (गुलाब) मल्लिका (मोंघरा) चंपक, अशोक, पुन्नाग, नाग, मरुवा, दमनक एवं सुन्दर कुब्जक के पुष्पों का प्राचुर्य है, जिसका स्पर्श परम सुख कारक है और जो दृष्टि को आनंद दायक है तथा तृप्ति कारक महासुरभि गंध गुण वाले पुद्गलों को जो फैला रहा है सूंघती हुई अपने गर्भ मनोरथ ( अत्थुय पञ्चत्थुयंसि सयणिज्जंसि सन्निसन्नाओ सन्निवनाओ य विहरति) ॥ રીતે અનુક્રમે પુનો થરથી ઢંકાએલી એવી શય્યા (પથારી) ઉપર બેસે છે અને સુખેથી શયન કરે છે.
( एगं च महं सिरीदामगंडं पाडलमाल्लियचंपयअसोगपुन्नागनागमरुय. गदमणगणोज्जकोज्ज पउरं परमसुहफासदरिसणिजं महया गंधद्धणिमुयंतंआधाय माणीओ दोहलं विणेंति)
२मा ५८ (गुदा), मदिरा, २५४, मश, पुन्ना, नी, भरुवा, દમનક અને સુંદર કુજકના પુષે પુષ્કળ પ્રમાણમાં છે, સ્પર્શ જેને અત્યંત સુખદ છે અને જે દષ્ટિને આનંદ આપનાર છે અને તુતકરનાર મહાસુગંધ ગુણવાળા પુદ્ગલેને જે ફેલાવી રહ્યો છે-એવા અદ્વિતીય (સર્વોત્તમ)
For Private And Personal Use Only
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
સ્ટેફ
anarasures
तेन तथाविधेन श्रीदामकाण्डेन प्राणेन्द्रियं तर्पयन्त्यः दोहदं = गर्भसद्भाव जनित मनोरथं ' विणेंति' विनयन्ति = पूरयन्ति । ता एव जनन्यो जगति भाग्यशालिन्यः प्रशंसनीया धन्याश्च सन्तीत्यर्थः ।
ततस्तदनन्तरं खलु तस्याः प्रभावत्या देव्याः इममेतद्रूपं दोहदं प्रादुर्भूतं था संनिहिताः समीपस्थिता वानव्यन्तरादेवाः क्षिप्रमेव जलस्थलीत्पन्नानि यावदशार्धवर्णान = पञ्चवर्णानि माल्यानि = पुष्पाणि कुम्भाग्रशश्च कुम्भपरिमाणतः, भाराग्रशश्च भारपरिमाणतश्च कुम्भकस्य राज्ञो भवने संहरन्ति = समानयन्ति । एकंच खलु महत् श्रीदामकाण्डं यावद् मुञ्चत् उपनयन्ति - समीपे समानयन्ति । ततः खलु सा प्रभारती देवीजलस्थलज यावत्- यावच्छब्देनकी पूर्ति करती हैं (वे माताएँ धन्य हैं ऐसा संबंध यहां पर लगा लेना चाहिये) (तएणं) इसके बार (तीसे पभावतीए देवीए इमेयारूवं दोहलं पाउन्भूतं पासित्ता अहासन्निहिया वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथल्य० जाव दसद्धवन्नमलं कुंभग्गसोय भारग्गसोय कुंभगस्स रनो भवणंसि सारंति) उस प्रभावती देवीके इस प्रकार के दोहलेको उत्पन्न हुआ देख कर के समीप में रहे हुए वानव्यन्तर देवोंने शीघ्र ही जल में और स्थल में उत्पन्न पंचवर्ण के पुष्पों को कुंभ परिमाण में और भारपरिमाण में कुंभक राजा के भवन पर लाकर रख दिया ।
( एगं चणं महं सिरिदामगंडं जाव मुयंत जाव उवणेंति) और साथ में एक बड़ा भारी श्रीदामकाण्ड भी कि जिसमें पाटल गुलाब શ્રી દામકાંડ સુંદરમાળાઓના સમૂહ ) ની સુવાસ અનુભવતી પેાતાના ગમનારથ ( દોહદ )ની પૂર્તિ કરે છે. ( ખરે ખર તે માતાએ ધન્ય છે. ) ( तएण ) त्यार माह.
( ती से पभावती देवीए इमेयारूवे दोहलं पाऊभूतं पासित्ता अहासनि हिया बाणमंतरा देवा खिप्पामेव जल थलय० जाव दसद्धवन्नं मल्लं कुंभगस्सो य भारगस्सो य कुंभगरस्स रन्नो भवणंसि साहरंति )
પ્રભાવતી દેવીના આ પ્રમાણેના દાહલાને ઉત્પન્ન થયેલા જાણીને પાસે રહેનારા વાનન્યતર દેવાએ તરત જ જળ અને સ્થળમાં ઉત્પન્ન થયેલાં પાંચર'ગના પુષ્પાને કુંભ પરિમાણમાં અને ભાર પિરમાણુમાં કુંભક રાજાના ભવન ઉપર લાવીને મૂકી દીધાં
( एगंच णं महं सिरिदामगंड जाव मुयंत जाव उवणेति ) पाटस वगेरे ના પુષ્પા જેમાં ગૂંથેલાં છે, અને જે નેત્રાને માટે સુખદ અને સ્પર્શ પણ જેના આનંદ દાયક છે, અને જેમાંથી ચામર સુગંધી પ્રસરી રહી છે એવા
For Private And Personal Use Only
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ प्रभावतीदेवी दोहदादिनिरूपणम् २८७ 'जल थलइत्यनन्तरं 'भासुरप्पभूएणं दसवन्नेणं' इति संग्रहः, माल्येन-पुष्प जातेन यावत्-अत्र यावच्छब्देन- 'अस्थुयपच्चत्थुयंसि ' इत्यारभ्य ' अग्याय माणीओ' इतिपर्यन्तस्य ग्रहणम्., दोहदं विनयति-पूरयति । ततः खलु सा प्रभावती देवी प्रशस्तदोहदा यावद् संपूर्ण दोहदा संमानित दोहदा विहरति.।
अथ भगवतस्तस्य तीर्थंकरस्य सकल जगत्कल्याणकरंजन्मकदाऽभवदिति जि. ज्ञासायामाह-' तएणं' इत्यादि ।
ततस्तदन्तरं खलु सा प्रभावती देवी नवसु मासेषु बहुप्रतिपूणेषु सर्वथा संपूर्णेषु तदनन्तरम् अर्धाष्टमेसु रात्रिंदिवेषु व्यतीतेषु योऽसौ हेमन्तानो हेमन्त ऋतु संज्ञकानां मार्गशीर्षदिफाल्गुनान्तानों प्रथमो मासः, द्वितीयः पक्षः मार्गशीर्ष शुद्धः मार्गशीर्षमासस्य शुद्धः शुक्ल: पक्षो वर्तते, तस्य- खलु एकादश्यां तिथौ पूर्वरात्रापररात्रकालसमये मध्यरात्रे अश्विनी नक्षत्र योग-चन्द्रयोगमुपागते-प्राप्ते
आदिकेपुष्पगुंथे हुए हैं और जो नेत्र को सुख देने वाले एवं सुखस्पर्श है जिसमें से सुगंध ही सुगंध चारों ओर फैल रही है रानिके पास लाकर उपस्थित किया । (तएणं सा पभावती देवी जल थलय जाव मल्लेणं जाव दोहलं विणेइ ) इसके अनन्तर उस प्रभावती देवीने जल थलके विकसित पंच वर्ण वाले प्रभूत पुष्पों से समाच्छादित हुई शय्या पर बैठकर शयन कर श्रीदामकाण्ड को कि जो पाटल (गुलाय) आदि के पुष्पों से गुंथा हुआ था यावत् गंध को फैला रहा था सूंघ कर अपने दोहले की पूर्ति की। (तएणं सा पभावती देवी पसत्थ दोहला जाव विहरह, तएणं सा पभावई देवी नवण्हं मामाणं बहु पडिपुण्णाणं अट्ठमाण य रत्तिं दियाणं जे से हेमंत्ताणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्सणं एगारसीए पुव्वरत्तावरत्त० ओस्सिणीनक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उच्चट्ठाणहिएसु गहेसु पमुइयपक्कीलिएस्सु जणवएस आरोग्गारोग्गं एगू मे मोटी मारे श्रीrisis ५५ पानव्यत। त्या दाव्या (तएण सा पभा. वती देवी जलथलय जाव मल्लेण जाव दोहल विणेइ ) त्या२ मा प्रभावती દેવીએ જળના વિકસિત પાંચરંગના પુષ્પથી સમાચ્છાદિત શય્યા ઉપર બેસી ને, શયન કરીને, પાટલ વગેરેના પુષ્પથી ગૂંથાયેલા સુવાસિત શ્રીદામકાંડને સુધીને પિતાના દોહદની પૂર્તિ કરી.
(तएणं सा पभावती देवी पसत्यदोहला विहरइ, तएणं सा पभावई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णातं अट्ठमाणयराइंदियाणं जे से हेमंताणं पढ मेमासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्सणं एगारसीए पुत्वत्तावरत्त. आस्सिणीनक्खत्तेण जोग
For Private And Personal Use Only
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२८८
हाताधर्मकथाङ्गसूत्रे सति उच्चस्थानस्थितेषु उच्चराशिगतेषु ग्रहेषु सूर्यादिषु प्रमुदित प्रक्रीडितेषु हृष्टेषु कीडावत्सु च जनपदेषु देशेषु सत्सु आरोग्यारोगरहिता अनावाधा प्रसववेदना रहिता सतीत्यर्थः आरोग्यं = अनाबाधं लकेशवर्जितं एकोनविंशतितमं तीर्थकर प्रजाता-प्रजनिवती. ।। मू० ११ ॥ णवीसइमं तित्थयरं पयाया) इस प्रकार प्रशस्त दोहला वाली वह प्रभा. वती देवी कि जिस का दोहला अच्छी तरह से पूर्ण हो चुका हैं और जिस दोहले को राजा आदिजनों ने भी सन्मानित किया है आनन्द पूर्व क रहने लगी। अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि भगवान उन तीर्थ कर को जगत् कल्याण कारक जन्म किस समय हुआ-वे कहते हैं कि जब गर्भ के नौ मास सम्पूर्ण रूप से व्यतीत हो चुके और उनके ऊपर साढे सात रात का समय और अधिक निकल चुका उस समय प्रभावती देवी ने हेमन्त काल के प्रथम मास मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन मध्य रात्रि के समय अश्विनी नक्षत्र में, जब कि उसका योग चन्द्रमा के साथ हो रहा था और सूर्यादिग्रह उच्चस्थान पर स्थित थे तथा जनपदों में आनन्द की लहरे छायी हुईथी-विविध प्रकार की क्रीडाओं में वे रत बने हुए थे बिना किसी बाधा के क्लेशवर्जित १९ वें तीर्थकर को जन्म दिया ।। सूत्र ११ ॥ मुवागएणं उच्चट्ठाणटिएसु गहेसु पमुइय पक्कीलिएसु जणवएसु आरोग्गारोग्गं एकूणवीसइमं तित्थयर पयया)
આ રીતે જેનું દેહદ સંપૂર્ણ પણે પૂરું થયું છે અને રાજા વગેરે ગુરુ જનેએ પણ જેના દેહદને સન્માનીત કર્યું છે એવી પ્રશસ્ત દેહદ વાળી પ્રભાવતી દેવી આનંદની સાથે પિતાના દિવસો પસાર કરવા લાગી, હવે સૂત્રકાર જગત ના કલ્યાણ કરનારા એવા ભગવાન તીર્થંકર ને જન્મ કયારે થયે તેનું વર્ણન કરતાં કહે છે-કે જ્યારે ગર્ભના નવમાસ પૂરા થઈ ગયા અને નવમાસ ઉપર સાડા સાત દિવસરાતને સમય પસાર થયે ત્યારે હેમંતકાળના પ્રથમ મહિનાના શુકલ પક્ષ અગિયારસના દિવસે અડધી રાતના સમયે અશ્વિની નક્ષત્રમાં-જ્યારે તે નક્ષત્રને ગ ચન્દ્રની સાથે થઈ રહ્યો હતો અને સૂર્ય વગેરે ગ્રહે ઉચ્ચ સ્થાને સ્થિત હતા અને આખા જનપદમાં આનંદનાં મોજાં પ્રસરી રહ્યા હતાં અને બધા માણસે અનેક જાતની રમત અને કીડાઓમાં મસ્ત થઈ રહ્યા હતા ત્યારે પ્રભાવતી દેવીએ કલેશ અને દુઃખ રહિત થઈને ૧૯ મા તીર્થંકર ને જન્મ આપ્યું. એ સૂત્ર “૧૧”
For Private And Personal Use Only
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ दिशाकुमारी प्रभृतिभिः उत्सवकरणम् २८५
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समयेणं अहोलोगवत्थव्वाओ अह दिसाकुमारीओ मयत्तरीयाओजहा जंबूद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सव्वं नवरं मिहिलाए कुंभयस्स पभावईए अभिलाओ संजोएवो जाव नन्दीसरवर दीवे महिमा, तया णं कुंभए राया बहहिं भवणवइ तित्थयर जायकम्मं जाव नामकरणं, जम्हाणं अम्हे इमीए दारियाए माउए मल्लसयणिज्जसि डोहले विणीते तं होउणं णामेणं मल्ली, जहा महाब्बले नाम जाव परिवड्डिया सा वद्धती भगवती दियलोयचुता अणोवमसिरीया। दासीदास परिवुडा परिकिन्ना पीढमद्देहिं ॥ सू० १२ ॥
टीका- तण कालेण ' इत्यादि । तस्मिन् काले चतुर्थारकलक्षणे तस्मिन् समये जिन जन्मसमयेऽधोलोक वास्तव्या अष्ट दिकुमार्यः महत्तरिकाः प्रधानाः भोगङ्करा १, भोगवती २, सुभोगा ३, भोगमालिनी ४, सुवस्सा ५, वत्समित्राः ६, वारिषेणा ७, वलाहका ८, इत्येतनामिकाः समागताः । यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ भगवतस्तीर्थकरय जन्मवर्णितं, सर्व तथैव विज्ञेयम् , नवरं एतावान् विशेषः
'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय में (अहो लोगवत्थव्वाओ) अधोलोक में निवास करनेवाली (अट्ठ) आठ (दिसाकुमारीओ) दिक्कुमारिकाएँ (मयहरीयाओ जहा जंबूद्दीवपन्नत्तीए जम्मणंसव्वं ) जिनका नाम भोगङ्करा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी सुवत्सा, वत्समित्रा वारिषेणा और बलाहका है आई। जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति
'तेण कालेण तेण समएण"-त्यादि
टी -(तेण कालेण तेण समएण) तेणे भनेते समये (अहोलोग बत्थवाओ) अपामा २डेनारी ( अट्ठ) मा (दिसाकुमारीओ) EिAL सुभारिस ( महयरीयाओ जहा जंबूहोवपन्नत्तीए जम्मणं सव्वं ) मना નામે ભેગંકરા ભેગવતી, સુગા, ગમાલિની, સુવત્સા, વત્સમિત્રા, पारिया, मने मा-छ-त्या भावा-' दीपप्रज्ञप्ति' भी लगवान सा ३७
For Private And Personal Use Only
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे इह मिथिलायां नगर्या कुम्मकस्य राज्ञः प्रभावत्याः अभिलापः वर्णनं संयोक्तव्यः
वक्तव्यः, यावत् नन्दीश्वरवरे द्वीपे महिमा-उत्सवः, देवैकृतः । तदा खलु कुम्भको राजा बहुभिर्भवनपतिवानव्यन्तर-ज्योतिष्क वैमानिकैः जन्मोत्सवे कृते सति तीर्थकरजातकर्म यावत् नामकरण कृतवान् यस्मात् खलु अस्माकम् अस्यां दारिकायां गर्भगतायां मातुर्माल्यशयनीये कुसुमशय्या विषये दोहदो विनीतः= में भगवान तीर्थंकर ने जन्म का जैसा वर्णन किया गया है-वैसा ही वर्णन यहां जानना चाहिये (नवरं) परन्तु उसकी अपेक्षा इसमें इतनी विशेषता है (मिहिलाए कुंभयस्स पभावइए अभिलाओ) कि यहां मिथिला नगरी कुंभक राजा और रानी प्रभावती का सम्बन्ध लिया गया इसलिये मल्लीनाथ तीर्थंकर के जन्म के वर्णन करने में इनसय का योग लगा लेना चाहिये ।
(जाव नंदीसर वरे दीवे महिमा) मल्लिनाथ तीर्थकर के जन्म का उत्सव नंदीश्वर नाम के द्वीप में देवों ने किया । (तयाणं कुंभए राया बहहिं भवणवइ ४ तित्थयर जाय कम्मं जाव नाम करणं) इसके बाद कुंभक राजा ने अनेक भवनपति वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के द्वारा जन्मोत्सव किये जाने पर तीर्थकर का जोत्कर्म यावत् नाम करण किया । ( जम्हा णं अम्हे इमीए दारियाए माउए मल्ल सयणिज्जंसि दोहले विणीए तं होउणं णामेण मल्ली) नाम करण તીર્થકર ના જન્મ વિષે જેવું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેવું જ વર્ણન सडी ५ नवु नये. ( नवर) ५ तना ४२di 28 मारली विशेषता ongपी न ( महिलाए कुंभयस्स पभाईए अभिलाओ) मी मिथिला નગરી, કુંભક રાજા અને રાણી પ્રભાવતીના સંબંધ વિષે વર્ણન કરવામાં આવે છે એટલે મલ્લિનાથ તીર્થકરના જન્મ વર્ણનમાં આ બધાને વેગ અપેક્ષિત છે.
(जाव नदीसरवरे दीवे महिमा ) हेवामे मसिनाय तीथ ४२ नमी(स नही५१२ नामना द्वीपमा व्य। ते! (तयाण कुंभए राया बहूहि भवण वइ४ तित्थयर जायकम्मं जाव नाम करणं) ५ लनपतिवान व्यतर, ज्योतिष्य અને વૈમાનિક દેએ જ્યારે સારી પેઠે ભગવાન તીર્થકરને જન્મોત્સવ ઊજવી લીધે ત્યારે કુંભક રાજાએ તેમને જાતકર્મ યાવત્ નામ કરણ સંસ્કાર કર્યો.
(जम्हाणं अम्हे इमीए दारियाए माउए मल्लसयणिज्जसि दोहले विणीए तं होउणं णामेण मल्ली)
રાજાએ તેમનું નામ મલ્લિ પાડ્યું કેમકે જ્યારે તે ગર્ભમાં હતા ત્યારે તેમની માતાને માલતીના પુપિની માળાની શાનું દેહદ થયું હતું અને તેમના દેહદની
For Private And Personal Use Only
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणो टी अ०८ दिशाकुमारी प्रभृतिभिः महोत्सवकरणम् २२१ देवैः पूरितः, तद् भवतु खलु इयं नाम्ना मल्लिः मालायै हितं, तब साधु वा माल्यं कुसुमं तद्गताभिलाषरूपदोहदपूर्वकमेतस्या दारिकाया जन्मसंजातं तस्मा दस्या नाम 'मल्लीं' इतिकृतम् । अस्याः स्त्रीत्वेऽपि जिनस्तीर्थकरोऽर्हदिति शब्दानां बाहुल्येन पुंस्त्वे प्रवृत्तिदर्शनात्पुंलिङ्गशब्देन व्यवहारः । यथा महावलो नाम= में उनका नाम मल्ली रखा गया-क्यों कि राजाने यह विचारा कि जब ये गर्भ में थी तो इनकी माताको पुष्पोंकी माल्य की शय्या के विषय में दोहला उत्पन्न हुआ था-और उस दोहले की पूर्ति देवों ने की थी अतः यह पुत्री नाम से मल्ली रहो- इसी अभिप्राय से राजा ने उसका नाम मल्लि रखा।
"मालायै हितं तत्र साधु वा माल्यं" इस व्युत्पत्ति के अनुसार माल्य शब्द का अर्थ कुसुम होता है । सो जब ये माता के गर्भ में थी तब माता को उस माल्य के विषय में अभिलाष रूप दोहला उत्पन्न हुआ था-जिस की पूर्ति देवों ने की थी-अतः उस दोहद पूर्वक इस लड़की का जन्म हुआ-इस कारण राजा ने उसका नाम मल्लि रख दिया। यद्यपि यह स्त्रीरूप में थी-तो भी " जिनः तीर्थ कर अर्हत" इत्यादि शब्दों की बहुलता से पुल्लिङ्ग में प्रवृत्त देखी जाती है-इसलिये यहां इनका पुल्लिङ्ग शब्द से व्यवहार तीर्थंकर की अपेक्षा किया गया है । ( जहा महावले नोम जाव पडिवडिया " मा वद्धइ भगवती दिय लोय चुना अणोवम सिरीया दासी दास परिवुडा परिकिन्ना पीढमहिं ,, પૂર્તિ દેએ કરી હતી. એથી જ રાજએ તે પુત્રીનું નામ મહિલા પાડ્યું હતું
“मालायै हितं तत्र साधुवा माल्यं " . व्युत्पत्ति भुम भास्य શબ્દને અર્થે કુસુમ ( પુષ્ય ) થાય છે. જ્યારે મલિલ માતાના ગર્ભ માં હતા ત્યારે તેમને માલ્ય ની અભિલાષા રૂપ દેહદ ઉત્પન્ન થયું હતું તે દેહદની પૂર્તિ દેવોએ કરી હતી. એથી માલ્યને દેહદથી જન્મેલી તે પુત્રીનું નામ शत महिला पाउयुं न मा खी ३५ उती छत से “ जिन तीर्थकरः ગત વગેરે શબ્દ ના બાહુલ્યથી તે પુલિગથી જ સંબંધિત કરવામાં આવે છે. એટલા માટે અહીં જે પુલિગ શબ્દથી વ્યવહાર કરવામાં આવે છે તે તેમની તીર્થકરની અપેક્ષાથી જ.
(जहा महाबले नाम जाव पडिवडिया “सा वद्धती भगवती दियलोय चुता अणोवमसिरीया दासीदासपरिवुडा परिकिन्ना पोढमद्देहिं "१")
ભગવતી સૂત્રના મહાબલનાં વર્ણનની જેમ જ મલિના વર્ણન વિશેષણ
For Private And Personal Use Only
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२९२
शाताधर्भकथाङ्गसूत्रे यथा भगवती सूत्रे महावलो वर्णितस्तथेयं मल्ली विज्ञेयेत्यर्थः ।।
अथ गाथा द्वयेन मल्लिं वर्णयति- सा वद्धइ ' इत्यादि
सा वर्धमाना भवती धुलोकच्युता अनुपमश्रीका,
दासीदासपरिश्ता परिकीर्णा पीठमर्दैः ॥ १ ॥ सा मल्ली वर्धमाना-अनुदिनं वृद्धि गता, भगवती-ऐश्वर्यादिगुणयुक्ता, धुलोकच्युता देवलोकादनुत्तरविमानाच्च्युता=अवतीर्णा, अनुपम श्रीका-अद्वितीय शोभायुक्ता, दासीदासपरिवृता, पीठमर्दैः वयस्यैः परिकीर्णा-परिकरवती बहुसहचरी युक्तेत्यर्थः।
असितशिरोजा सुनयना बिम्बोष्ठी धवलदन्तपङ्क्तिका । वरकमलकोमलाङ्गी फुल्लोत्पलगन्धनिःश्वासा ॥ २ ॥
असित शिरोना भ्रमरयदतिश्यामवर्णकेशा, सुनयना = सुलोचना, बिम्बोष्ठी =विम्बवद्रक्तवर्णोष्ठी, धवलदन्तपङ्क्तिका धवला कुन्दमुक्तादिवच्छुक्लवर्णा दन्त पक्तिदन्तश्रेणिका यस्याः सा तथा, वरकमलकोमलाङ्गी वरकमलवत् – अशुष्क कमलपुष्पवत् कोमलानि मृदुलान्यङ्गानि यस्याः सा तथा, फुल्लोत्पलगन्धनिः श्वासा=विकसितनीलकमलवद्गन्धयुक्तनिःश्वासवती जाता ।। सू० १२ ॥
जिस प्रकार भगवती सूत्र में महाबल का वर्णन किया गया हैउसी प्रकार से इन मल्ली का भी वर्णन जानना चाहिये-सूत्रकार इसी यात का वर्णन " सा वद्धइ" इस गाथा द्वारा करते है-वे कहते है कि ये मल्लि नाम की कन्या प्रतिदिन वृद्धिंगत हो रही थी। ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त थी । अणुत्तर विमान से चव कर आई थी अनुपम श्री से संपन्न थी । दासी दास परिवृत्त थी और अनेक सहचरियों से युक्त थी।
उनके बाल भ्रमर के समान अति श्याम वर्ण वाले थे। लोचन बडे सुहावने थे। बिम्ब जैसे लोल वर्ण वाले इनके दोनों ओष्ठ थे। दांतों की पङ्क्ति कुन्द तथा मुक्ता आदि के समान बिलकुल शुभ्र थी। अशुष्क
लो . “सा वद्धइ" 0 43 सूत्रा२ मे पात २५०४ ४२५॥ માગે છે. તેઓ વર્ણન કરતાં કહે છે કે મલ્લિ નામે કન્યા દિવસે દિવસે મોટી થઈ રહી હતી. તે એશ્વર્ય વગેરે ગુણેથી પૂર્ણ હતી તે અનુત્તર વિમાનથી આવીને આવી હતી અને અનુપમ શ્રી સંપન્ન હતી. તે દાસી દાસેથી વીંટળાયેલી તેમજ ઘણું સહચરીએથી યુક્ત હતી.
તેમના વાળ ભમરા જેવા અત્યંત કાળા હતા. તેમનાં નેત્રે મનોહર હતાં. બંને હોઠ બિંબફળ જેવા લાલ હતા. તેમની દંતપંક્તિ કુંદ તેમજ મતી
For Private And Personal Use Only
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० ८ मोहगृहनिर्माणस्वरूपनिरूपणम् २९३
मूलम्-तएणं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव रूवण जोव्वणेण य लावन्नेण य अतीव २ उकिदुसरीरा जाया यावि होत्था, तएणं सा मल्ली देसूणवाससयजाया ते छप्पिरायाणो विउलेण ओहिणा आभोएमाणी २ विहरइ । तं जहा - पडिबुद्धिं जाव जियसत्तुं पंचालाहिवइं, तएणं सा मल्ली कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी - तुब्भेणं देवाणुप्पिया! असोगवणियाए एगं महं मोहणघरं करेह अणेगखंभसयसन्निविटुं, तस्स णं मोहणघरस्स बहुमज्झदेसभाए छ गम्भघरए करेह, तसिं णं गब्भघरगाणं बहमज्झदेसभाए जालघरयं करेह, तस्सणं जालघरयस्त बहुम. ज्झदेसभाए मणिपोढियं करह, जाव पच्चप्पिणंति ॥सू०१३॥
टीका-'तपणं सा' इत्यादि-ततस्तदनन्तरं खलु सा मल्ली मल्लीनाम्नी 'विदेह रायवरकन्ना' विदेहराजवरकन्या विदेहो मिथिलाजनपदः, तस्य राजा कुम्भ कस्तस्य वराकन्या पुत्री ' उम्मुक्कवालभावा' उन्मुक्तबालभाषा, व्यपगतवाल्या वस्था यावत् रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च अतीवातीवोत्कृष्टा उत्कृष्टकमल पुष्प के जैसा इनका मृदुल अंग था। विकसित नील कमल के समान गंध युक्त इनका निश्वास था। सूत्र “१२" .
'तएणं सा मल्ली ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (विदेहरायवरकन्ना सा मल्ली) विदेह राजकी कन्या वह मल्ली (उम्मुक्क बालभावा) बाल्यावस्था का परित्याग कर (जाव स्वेण जोवणेण य लावन्नेण य अतीव २ उक्किट्ठसरीरा વગેરે જેવી એકદમ સ્વચ્છ હતી. તાજા કમળ પુષ્પના જેવાં તેમનાં સુકોમળ અંગો હતા. તેમને નિશ્વાસ પ્રકુટિલત નીલકમળ જે સુવાસિત હતું. આ સૂત્ર “૧૨
'तएणं सा मल्ली' या
टी--(तएणं) त्या२माह (विदेहरायवरकन्ना सा मल्ली) विहे अन्यां भक्ति (उम्मुक्कबालभावा) मय५५ वटावान (जाव रूवेण जोव्वणेण य
For Private And Personal Use Only
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૨૨૪
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
शरीरा चापि जाता ssसीदिति सम्बन्धः । ततस्तदनन्तरं खलु सा मल्लिर्देशोन वर्षशत जाता देशोनं किञ्चिदूनं वर्षशतं जातं = भूतं व्यतीतं यस्याः सा तथा, देशोनशतवर्षयस्का सतीत्यर्थः तान् षडपि प्रतिबुद्धयादीन् राज्ञो विपुलेनावधिना= अवधिज्ञानेन आभोगयन्ती २ पुनः पुनः पश्यन्ती विहरति तिष्ठति स्म । तद्यथाप्रतिबुद्धिं यावत् जितशत्रुं पाञ्चालाधिपतिम् । प्रतिबुद्धि नामा इक्ष्वाकुवंश्यो राजाऽ योध्याधिपतिः, चन्द्रच्छायोऽङ्गदेशाधिपतिः शङ्खनामा काशीजनपदाधिपतिः, रुक्मनामा कुणालाधिपतिः, अदीनशत्रुनामा कुरुदेशराजः, जितशत्रुः पञ्चाला - जाया यावि होत्था ) यावत् रूप, यौवन एवं लावण्य से अत्यंत उत्कृष्ट शरीर युक्त हो गई । (तणं सा मल्ली देसूण वास सय जाया-ते छप्पि रायाणो विपुलेण ओहिणा आभोएमाणी २ विहरइ ) उस समय उस की अवस्था शत वर्ष से कुछ कमथी । प्रतिबुद्धि आदि अपने साथ के उन ६ राजाओं को ज्योंही उनोंने अपने अवधिज्ञान से जाना तो उने मालूम हो गया कि ( पडिबुद्धिं जाव जिग्रसतुं पंचालाहिवई ) अचल का जीव कोशल देश को अधिपति हुआ है वह इक्ष्वाकुवंशीय है और उसका नाम प्रतिबुद्ध है ।
1
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
धरण का जीव चंद्रच्छाय नाम का अंग देशाधिपति हुआ है । अभिचन्द्र का जीव काशी देश का अधिपति हुआ है उसका नाम इस समय शंख है । पूरण का जीव कुणाल देश का अधिपति हुआ है । उसका नाम रुक्मी है । वस्सुका जीव कुरुदेश का अधिपति हुआ है लावणय अतीव २ उक्किसरीरा जाया यावि होत्था ) यावत रूय, यौवन અને લાવણ્યથી એકદમ ઉત્તમ શરીરવાળી થઈ ગઈ,
( तणं सा मल्ली देभ्रूण वास समजाया ते छपि रायाणो विपुलेण ओहिणो आभोमाणी २ विरह )
તેમની ઉંમર તે વખતે સો વર્ષ કરતાં ઓછી હતી. પ્રતિબુદ્ધિ વગેરે પેતાની સાથેના તે છ રાજાઓને તેણે પોતાના અધિજ્ઞાનથી જાણ્યા ત્યારે તેને गुडे ( पडिबुद्धि जाव जियसत्तं पंचालाद्दिवई ) भयसना व अशसना અધિપતિ થયા છે. તે ઈક્ષ્વાકુવંશીય છે, અને તેનું નામ પ્રતિબુદ્ધ છે.
.
ધરણના જીવ અંગ દેશના અધિપતિ થયા છે અને તેનું નામ ચંદ્રરચ્છાય છે. અભિચંદ્રના જીવ કાશી દેશના અધિપતિ થયા છે અને અત્યારે તેનું નામ શખ છે. પૂરણ ને જીવ કુણાલ દેશના અધિપતિ થયા છે અને તેનું નામ રુકમી છે વસુના છત્ર કુરુ દેશના અધિપતિ થયા છે અને તેનું
For Private And Personal Use Only
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ मोहगृहनिर्माणस्वरूपनिरूपणम् २९५ धिपतिः, एतान् पडपि राज्ञः पुनपुनरवधिज्ञानेन विलोकयन्ती तिष्ठतिस्मेत्यर्थः। ज्ञानत्रयसंपन्ना मल्ली भगवती स्वकीयावधिज्ञानोपयोगेनेदं विदितवती-पूर्वभवस्नेहवशा ते षडपि राजानो मां परिणेतुमागमिष्यन्तीति तेषां प्रतिबोधार्थमुपायो मया विधेय इति भावयति स्मेति भावः । ततस्तदनन्तरं सा मल्ली कौटुम्बिक पुरुषान् आज्ञाकारिणः पुरुषान् शब्दयति=आह्वयति, शब्दयित्वा=आहृय, एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण, अवादीत्-हे देवानुप्रियाः ! यूयं खलु अशोकवनिकायामेकं महत्-बृहत् मोहनगृहसंमोहजनकं गृहं ' करेह' कुरुत-निर्मात, कीदृशं तदित्याह ' अणेगखंभसयसन्निविडं' अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टम् अनेकानि स्तम्भशतानि सभिविष्टानि संलग्नानि यस्मिन् तत् तथाविधम् । तस्य खलु मोहनगृहस्य बहुमउसका नाम अदीन शत्रु है। वैश्रवण का जीव पांचालाधिपति हुआ है। उसका नाम जितशत्रु है ( तएणं सा मल्ली कोडुबिय पुरिसे सहावेह ) इस प्रकार अपने पूर्वभव के साधियों की परिस्थिति को ज्ञात कर उस मल्ली भगवती ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया- ( सहावित्ता एवं वयासी) और घुलाकर उन से ऐसा कहा- (तुम्भे णं देवाणुप्पिया! असोगवणियाए एगं महं मोहणधरं करेह-अणेगखंभसयसन्निविटुं) हे देवानुप्रियों! तुम अशोकवनिका में सैकड़ों खंभों से युक्त एक विशाल संमोहन गृह बनाओ। इस घर को बनाने को आदेश उन मल्ली भगवती इसलिये दिया था कि उन्हों ने अपने अवधिज्ञान से यह जान लिया था कि वे छहों राजा पूर्वभव के स्नेह से मुझ से विवाह करने के लिये यहां आवेंगे-अतः मुझे उन्हें प्रतियोधित करने के लिये उपोय करना चाहिये। નામ અદીનશત્રુ છે. વૈશ્રવણ ને જીવ પંચાલ દેશને અધિપતિ થયે તે અને तेन नाम तिशत्रु छ. (तएणं सा मल्ली कोडुबिय पुरिसे सहावेइ) मा शते પિતાના પૂર્વભવના મિત્રોની પરિસ્થિતિ જાણીને મલી ભગવતીએ કૌટુંબિક पुरुषाने मोसाव्या. " सहावित्ता एवं वयासी" भने मोसावाने तेभने हुं.
( तुब्भेणं देवाणुप्पिया ! असोगवणियाए एगं महं मोहणधर करेह-अणेगखंभ सयसन्निविटं)
હે દેવાનપ્રિયે ! તમે અશોક વનિકામાં સેંકડે થાંભલાઓ વાળ એક મોટું સંમોહન ઘર બનાવે. મલી ભગવતીએ સંમોહન ઘર એટલા માટે બનાવડાવ્યું હતું કે પિતાના અવધિજ્ઞાન થી તેમણે એ વાત જાણે લીધી હતી કે તેઓ છએ રાજા પૂર્વ ભવના પ્રેમને લીધે તેમની સાથે લગ્ન કરવા અહીં આવશે એથી તેમને પ્રતિબંધિત કરવાના ઉપાયે તેમણે મલ્લીને કરવા જ જોઈએ કૌટુંબિક પુરુષને તેમણે આગળ કહ્યું
For Private And Personal Use Only
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२९६
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
ध्यदेश भागे = सर्वथा मध्यस्थानभागे षड्- ' गभघर' गर्भगृहान् अन्तगृहान् कुरुत । वास भवनानि तेषां च गर्भगृहाणां बहुमध्यदेशभागे जालगृहं अत्र गृहान्तर्गतं वस्तु बहिः स्थिताः पश्यन्ति तदर्थं कुडचेषु दार्वादिनिर्मितजालकानि वर्त - न्ते तद् जालगृहं कुरुत तस्य खलु जालगृहस्य बहुमध्यदेशभागे मणिपीठिकां मणिमयपीठिका, कुरूत, कृला यावत् प्रत्यर्पयन्ति मल्ली भगवत्या आदेशात् कोटुम्बिकपुरुषा मोहनगृहं तत्र मध्यमागे षट्संख्यकं गर्भगृहं तन्मध्ये मणिमय
( तस्स णं मोहणघरस्त बहुमज्झदेसभाए छ गन्भधरए करेह ) उस संमोहन गृह के ठीक मध्यभाग में छ गर्भगृहों को बनाओ ( तो सेणं गम्भघरगाणं बहुमज्झदेसभाए जालधरयं करेह तस्स णं जाल घरयस्स बहुमज्झ देसभाए मणिपेढियं करेह, जाब पच्चपिणंति ) उन गर्भ गृहों के मध्यभाग में जालघर को बनाओ। जालियों में से जिस घर की वस्तु को बाहिर रहे हुए मनुष्य देख लेते हैं । वह जाल घर कहलाते है । ये जालियां भीतों में काष्ट आदि की बनाकर लगाई जाती है । जिस प्रकार मकानों में हवा तथा प्रकाश आने के लिये खिड़कियों हुआ करती है - उसी प्रकार से ये जालियां भी लगाई जाती हैं । और उस जाल गृह के ठीक बीच के स्थान में मणिनिर्मित पीठिका को बनाओ ।
बनाकर पीछे इसकी हमें सूचना दो। इस प्रकार मल्ली भगवती के आदेश को पाकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने १ मोहन गृह, उसके बीच छ गर्भ गृह उनके बीच में १ जाल गृह और उस के बीच में मणि"सरसणं मोहणगरस्स बहुमज्झदेखभाए गन्भघरए करेह સમાહન ઘરના અધવચ્ચે છ ગર્ભગૃહ બનાવે.
( ती सेणं गन्भघरगाणं बहुमज्झ देसभाए जाव घर यं करेह तस्स णं जाल बहुमतदेसमाए मणिपेढियं करे जाव पच्चप्पिर्णति )
घर
"
ગર્ભગૃહાના મધ્ય ભાગમાં જાલ ઘર મનાવા જે ઘરની અંદરની વસ્તુઓ ને બહારના માણસા ઘરની જાળીએથી જોઈ લે છે, તે ઘરને જાળધર કહે છે. જાળીએ ભીંતામાં લાકડા વગેરેની બનાવીને મૂકવામાં આવે છે. ઘરમાં પવન તેમજ પ્રકાશ ને આવવાને માટે ખારીએ હાય છે, તેમજ જાળીએ પણ મૂકવામાં આવે છે ) આ જાળ ઘરની ખરાખર અધવચ્ચે મણિ જડિત પીઠિકા બનાવો.
For Private And Personal Use Only
આખધું તૈયાર થઈ જાય ત્યારે મને સૂચિત કરો. આરીતે મલ્લી ભગવતીની આજ્ઞા સાંભળીને કૌટુંબિક પુરુષાએ એક સ ંમેાહન ઘર, તેના વચ્ચે છ ગર્ભગૃહ, તેની વચ્ચે એક જાળગૃહ અને તેની વચ્ચે મણિ જટિત પીકિા
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ मणिमयपुतलिका निर्माणादिनिरूपणम् २९७ पीठिकां च कृला मल्लीभगवत्याः समीपमागत्या वेदयन्ति स्म भवदीयादेशमनुसृत्य सर्व साधितमस्माभिरिति कथयन्ति स्मेत्यर्थः ॥ सु. १३ ॥
मूलम् - तणं मल्ली मणिपेढियाए उवरिं अप्पणो सरिसियं सरितयं सरिव्वयं सरिसलावन्नजोव्वणगुणोववेयं कणगमई मत्थयच्छि पउप्पलप्पिहाणं पडिमं करेइ, करिता जं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ, तओ मणुन्नाओ असण ४ कल्ला कल्लि एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगमईए मत्थयच्छिड्डाए जाव पडिमाए मत्थयंसि पक्खिवमाणी २ विहरइ । तणं ती कणगमईए जाव मच्छयछिड्डाए पडिमाए एगमगसि पिंडेपक्खिप्पमाणे २ तओ गंधे पाउब्भवइ, से जहानामए अहिमडेइ वा जाव एतो अणिइतराए अमणामतराए॥ सू०१४॥
टीका- 'तपणं मल्ली' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु मल्ली = मल्लीकुमारी मणिपीठिकाया उपरि आत्मनः सदृशीं सदृशत्वं च सदृशवयस्कां स्वशरीरसदृशप्रमाणां लावण्ययौवनगुणपपेतां स्वसदृशलावण्यादिगुणैः सहितां, कनकमयीं सुवर्णनिमय पीठिका बनाई और बनाकर फिर वे मल्ली भगवती के पास आये - आकर कहने लगे- आपके आदेशानुसार हमने सब बनोकर यथावत् तैयार कर दिया है। सूत्र
66
१३ "
"
तणं मल्ली मणिपेढियाए ' इत्यादि० ।
टीकार्थ- (i) इसके बाद (मल्ली) मल्ली कुमारीने ( मणिपेढियाए raft अपणो सरिसियं सरितयं सरिव्वयं सरिसलावन्न जोव्वण गुणो અનાવી અને બનાવીતે તેઓ મલ્લી ભગવતીની સામે આવ્યા અને આવીને કહેવા લાગ્યા “ હૈ દેવાનુપ્રિ। હમારી આજ્ઞા પ્રમાણે અમે યથાવત બધું तैयार रावी हीधुं छे." ॥ सूत्र
("
૧૩ n ""
'तरण' मल्लीं मणिपेढियाएँ इत्यादि
टीअर्थ - (तएण ) त्यार माह ( मल्ली ) भहती कुमारीखे.
( मणिपेढिया उवरि अप्पणो सरिसियं सरितंय सरिव्वयं सरिस लावन
शा ३९
For Private And Personal Use Only
.
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मितां मत्थयच्छिड्ड' मस्तकच्छिद्रां मस्तकोपरिभागे छिद्रयुक्तां 'पउमुप्पलप्पिहाणं पद्मोत्पलपिधानां-रक्तनीलकमलानि पिधानानि मस्तकच्छिद्रस्याच्छादनानि यस्या स्तां प्रतिमां = स्वतुल्यकृतिकपुत्तलिकां कारयति = शिल्पकारैनिर्मापयति । कारयित्वा सा मल्ली कुमारी यद् विउलं' विपुलं-बहुलम् , अशनपानखाध स्वाचं चतुर्विधमाहारम् आहारयति-भुङ्क्ते, ततः तस्मात्-'मणुनाओ' मनोज्ञाम् प्रियरसयुक्तात् अशनपानखाद्यस्वाद्यात् चतुर्विधाहारमध्यात् 'कल्लाकल्लि' कल्याकल्यिदिने दिने, एकमेकं पिण्डग्रास गृहीत्वा, तस्याः कनकमय्याः मस्तकच्छिद्राया यावत् प्रतिमाया मस्तके मस्तकोपरिभागवर्तिनि रन्ध्र प्रक्षिपन्ती एकमेकं ग्रासं निपातयन्ती 'विहरइ ' विहरति आस्ते स्म । ततस्तदनन्तरं खलु तस्यां कनकववेयं कणगमई मत्थयच्छिड्डु पउमुप्पलप्पिहाणं पडिमं करेइ ) उस माणिपीठिका के ऊपर अपनी जैसी-अपनी जैसी वयवाली अपने शरीर के सदृश प्रमाणवाली, अपने जैसे लावण्य आदि गुणों वाली एक सुवर्ण निर्मित पुत्तलिका शिल्पियों से बनवाई । उसके मस्तक में एक बड़ा सा छेद रखवाया। वह छेद रक्त नील कमल रूप ढक्कन से ढका हुआ था। (करित्ता जं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ तओ मणुन्नाओ असण ४ कल्लाकल्लि एग द्वारेणं पिउगहाय....विहरइ ) जब इस प्रकार की पुत्तलिका बनकर तैयार हो चुकी-तब उस मल्ली कुमारी ने विपुल मात्रा में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार तैयार करवाया और स्वयं खाया-बाद में उस प्रियरसयुक्त आहार में से प्रतिदिन वह एक एक ग्राम को लेकर उस मस्तक छिद्र वाली सुवर्ण की पुत्तलिका के उस मस्तकोपरिभागवर्ती छेद में डालने लगी-(तएणं जोव्यणगुणोववेयं कणगमई मत्थयच्छिष्टुं पउमुप्पलप्पिहाणं पडिमं करेइ ) - તે મણિ પીઠિકા ઉપર શિલ્પ શાસ્ત્રીઓ પાસેથી પિતાના જેવી. પિતાના જેવા આયુષ્યની, પિતાના શરીર જેવા પ્રમાણની પોતાના જેવા લાવણ્ય વગેરે ગણવાળી એક સોનાની પૂતળી બનાવડાવી. તેના માથામાં એક મોટું કાણું ૨ખાવ્યું. તે કાણું રક્તનીલ કમળના ઢાંકણથી ઢાંકેલું હતું.
(करित्ता जं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ तओ मणुन्नाओ असण ४ कल्लाकल्लि एगद्वारेणं पिउगहाय....विहरइ)
જ્યારે આરીતે સેનાની પૂતળી તૈયાર થઈ ગઈ ત્યારે મલ્લી કુમારીએ અશન પાન ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતને પુષ્કળ પ્રમાણમાં આહાર તૈયાર કરાવડાવ્યું, અને હંમેશા તે આહારમાંથી પિતે જમતી, અને ત્યાર બાદ તેમાંથી એક કળીઓ લઈને કાણાવાળી સેનાની પૂતળીના
For Private And Personal Use Only
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ मणिमयपुत्तलिकानिर्माणादिनिरूपणम् २९९ मय्यां यावत् मस्तकच्छिद्रायां प्रतिमायामेकैकस्मिन् पिण्डे प्रक्षिप्यमाणे प्रक्षिप्य माणे सति — तओ' ततः तस्या पुत्तलिकाया सकाशाद् गन्धः दुर्गन्धः पाउब्भवइ ' प्रादुर्भवतिः-बहिनिस्सरति स्म । सदृष्टान्त पुत्तलिका वर्णयति-तद् यथानामकम् यथा दृष्टान्तम्-' अहिमडेइ वा ' अहिमृतक इति वा यावत्-अत्र यावच्छ ब्देन-' गोमडेइ वा, सुणगमडेइ वा, मज्जारमडेइ वा, मणुस्समडेइ वा, महिसमडेइ वा, मूसगमडेइ वा, आसमडेइ वा, हथिमडेइ वा सीहमडेइ वा, वाघमडेइ वो, विगमडेइ वा, दीविमडेइ वा, इति सङ्ग्रहः ' गोमृतक इति वो, शुनकमृतक इति वा, मार्जारमृतक इति वा, मनुष्यमृतक इति वा, महिषमृतक, इति वा मूषकमृतक इति वा, अश्वमृतक इति वा, हस्तिमृतक इति वा, सिंहमृतक इति वा, व्याघ्रमृतक तीसे कणगमत्तीए जाव मच्छयछिड्डाए पडिमाए एगमेगंसि पिंड पक्खिप्पमाणे २ तओ गंधे पाउन्भवइ ) इस प्रकार करते करते उस सुवर्ण मयी पुत्तलिका में मस्तक के छेद द्वारा पिंड पहुँच ने पर उस पुत्तलिका से दुर्गन्ध निकल ने लगी।
(से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव एत्तो अणि?तराए अमणामतराए ) वह दुर्गध ऐसी थी-जैसी मरे हुए सर्प के सड़ जाने की होती है । यहां यावत् शब्द से “गोमडेइ वा, सुणगमडेइ वा” इत्यादि का संग्रह हुआ है। ____ इसका अर्थ इस प्रकार है-वह दुगंध गाय के मरे हुए सडे कलेवर
की होती है मरे हुए कुत्ते के सडे कलेवरकी होती है, मरे हुए बिलोव के सडे कलेवर की होती है, मनुष्य के मरे हुए सडे कलेवर की होती है, महिष के मरे हुए सडे कलेवर की होती है, मरे हुए चूहे के मडे कलेघर की होती है, मरे हुए घोडे के सडे कलेवर की भाथाना ni नसती. (तएण तीसे कणगमत्तीए जाव मच्छय छिहाए पडिमाए एगमेगंसि सिंडे पविखप्पमाणे २ तओ गंधे पाउन्भवइ) मारीत सोनानी पूतणीमां ४२२१ मे मे जीये नवाथी तमाथी दुगनी दासी. (से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव एत्तो अणिद्वतराए अमगामतराए) भरेखा भने ससा सापना की ते दुध उती. मी यात शपथी गोमडेइवा, सुणगमडेइवा' વગેરેનો સંગ્રહ થયે છે. આને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે કે મરીને સડી ગયેલા ગાયના શરીરના જેવી મરીને સડવા માંડેલા કૂતરાના શરીરના જેવી મરીને સડવા માંડેલા બિલાડાના શરીરના જેવી, મરીને સડતાં માણસના શરીરના જેવી, મરીને સડતાં પાડાના શરીરના જેવી, મરીને સડતાં ઉંદરના શરીરના જેવી, મરીને સડતાં ઘેડાના શરીરના જેવી, મરીને સડી ગયેલા હાથીના શરીરના જેવી,
For Private And Personal Use Only
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३००
शाताधर्मकथङ्गसूत्रे इति वा, वृकमृतक इति वा, द्वीपिमृतक इति वा, इतिच्छाया, एषां मृतसादि कलेवराणां दुर्गन्धः खलु यादृशोऽनिष्टः प्रादुर्भवति ' एत्तो' एतस्माद् ' अणि. हतराए ' अनिष्टतरः अधिकस्तीत्रः, अतएव 'अमणामतराए' अमनआमतर:मनसोऽति प्रतिकूलो दुर्गन्धस्तस्याः पुत्तलिकाया अभवदित्यर्थः ॥ मू० १४ ॥
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसलणामं जणवए, तत्थ णं सागेए नामं नयरे, तस्त णं उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं महं एगे णागघरए होत्था दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे, तत्थ णं नयरे पडिबुद्धिनामं इक्खागुराया परिवसइ, पउमावई देवी सुबुद्धी अमच्चे सामदंडभेयकुसले, तएणं पउमावईए देवीए अन्नया कयाई नागजन्नए यावि होत्था । तएणं सा पउमावई नागजन्नमुवटियं जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं दसनहं मत्थए अंजलिं कट्ठ एवं वयासी -एवं खलु सामी ! मम कल्लं नागजन्नए यावि भविस्सइ, तं होती है, मरे हुए हाथी के सडे कलेवर की होती है, मरे हुए सिंह के सडे कलेवर की होती है, मरे हुए व्याघ्र के सडे कलेवर की होती है वृक और द्वीपि के सडे कलेवर की होती है। इन मृत सादिकों के सडे हुए कलेवरों की दुर्गंध जिस प्रकार अनिष्ट होती है उसी प्रकार इससे भी अनिष्टतर वह पुत्तलिका से निकलती हुई दुर्गध थी-अमन आमतर थी मन को जरा सी भी रुचे ऐसी नहीं थी-किन्तु मन के अतिसर्वथा प्रतिकूल थी। सूत्र " १४" મરીને સડી ગયેલા સિંહના શરીરના જેવી, મરીને સડી ગયેલા વાઘના શરીરના જેવી મરીને સડી ગયેલા વરુ અને દીપડા (કીપિ)ના શરીરના જેવી, મરીને સડી ગયેલા સાપ વગેરેના શરીરના જેવી અનિષ્ટકારી દુર્ગધ હોય છે તેવી જ અને તેના કરતાં પણ વધારે અનિષ્ટતર પૂતળીમાંથી નીકળતી દુર્ગધ હતી. મનને એકદમ અણગમો થાય તેવી સર્વથા પ્રતિકૂળ તેમાંથી नाती दुग ५ ता. ॥ सूत्र “१४ " ॥
For Private And Personal Use Only
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् ३०१ इच्छामि णं सामी ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी नागजन्नयं गमित्तए, तुभवि णं सामी! मम नागजन्नयंसि समोसरहा तएणं पडिबुद्धी पउमावईए देवीए एयमटुं पडिसुणेइ। तएणं पउमावई पडिबुद्धिणा रन्नो अब्भणुन्नाया हट्टतुट्ट जाव कोडं. बियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम कल्लं नागजण्णए भविस्सइ तं तुन्भे मालागारे सदावेह, सदावित्ता एवं वदह एवं खलु पउमावइए देवीए कलं नागजण्णए भविस्सइ, तं तुब्भे गंदेवाणुप्पिया ! जलथलय० दसद्धवन्नं मल्लं णागघरयंसि साहरह, एगंच णं महं सिरिदामगंडं उवणेह । तएणं जलथलय दसद्धवन्नेणं मल्लेणं णाणाविह भत्तिसुविरइयं हंसमियमउरकोंच सारसचकवायमयणसाल. कोइलकुलोववेयं ईहामियजावभत्तिचित्तं महग्धं महरिहं विपुलं पुप्फमंडवं विरएह तस्सणं वहुमज्झदेसभाए एगं महं सिरिदामंगडं जाव गंधधुणि मुयंत उल्लोयंसि ओलंबेह, ओलंबित्ता पउमावइं देविं पडिवालेमाणा २ चिट्ठह। तएणं ते कोडुंबिया जाव चिट्ठति ॥ सू० १५ ॥
टीका--' तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समयेकोसलानाम जनपदः देश आसीत्, तत्र खलु साकेतनामकं नगरमासीत् । तस्य साकेत
'तेणें काले णं तेणं समएणं' इत्यादि। टीकार्थ-( तेणं काले णं तेणं समएणं ) उस कोल और उस समय में (कोसला नाम जणवए ) कोशल नामका जन पद-देश था।
' तेण कालेण तेण समएण 'त्याह
E -(वेणं कालेणं तेणं समएणं) ते णे मने ते मते (कोसल नाम जणवए) | नामे ५४ (देश) sal. (तस्थण सागेए नामं नयरे )
For Private And Personal Use Only
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३०२
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
4
नगरस्य खलु उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे = ईशान कोणे अत्र खलु महदेकं नागगृहमासीत् तत् कीदृशमित्यात- दिव्यं = प्रधानं सत्यं कामना पूरकत्वात् 'सच्चोवाए ' सत्यावपातं = सत्याभिलाषं संनिहियपाडिहेरे ' संनिहितमातिहार्य= संनिहितं विनिवेशितं प्रातिहार्य प्रतीहारकर्म व्यन्तरदेवेन यस्मिन् तत्तथा देवाधिष्ठितमित्यर्थः । तत्र खलु नगरे = साकेतनगरे प्रतिबुद्धिनामा इक्ष्वाकुराजः = इक्ष्वाकुवंशीयो राजा परिवसति । पद्मावती देवी तस्य भार्याऽऽसीत् । ' सुबुद्धिः अमच्चे ' सुबुद्धिनामकस्तस्यामात्यः = मंत्री, स कथंभूत इत्याह-' सामदंडभेयकुसले ' सामदण्डभेदकुशलः (तत्थणं सागेए नामं नयरे) उस में साकेत नाम का नगर था । ( तस्स णं उत्तर पुरत्थिमे दिसीभाए - एत्थ णं महं एगे णागधरए होत्था दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संति हियपाडिहेरे) उस के ईशान कोण में विशाल नागघर था
यह दिव्य और प्रत्येक व्यक्ति की कामना का पूरक होने से सत्य था। जो भी कोई कामना - अभिलाषा - इसके समक्ष करता वह उस की सफल हो जाती - सत्य हो जाती - इसलिये यह सत्याभिलाष था । इसके द्वार पर व्यन्तर देव प्रतिहार के रूप में खडे रहते थे इसलिये यह संनिहित प्रतिहार्य था । (तत्थ णं नयरे पडिवुद्धी नामं इक्खागु राया परिवसह, परमावई देवी सुबुद्धी अमच्चे सामदंडभेयकुसले ) उस साकेत (अयोध्या) नगर में इक्ष्वाकुवंश से उत्पन्न प्रतिबुद्ध नाम का राजा रहता था । इस की भार्या का नाम पद्मावती था । अमात्य का नाम सुबुद्धि था । તેમાં સાકેત નામે નગર હતું.
( तस्स उत्तर पुरथिमे दिसी भाए - एत्थणं महं एगे नागधर होत्या ) दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संतिहिय पडिहेरे)
તેના ઈશાન કાણુમાં એક મેાટુ નાગધર હતું.
તે વ્ય અને દરેકે દરેક માણસની ઈચ્છાને પૂરી કરનાર હાવાથી સત્ય હતું. ગમે તે વ્યક્તિ પેાતાની ઇચ્છા-કામના-તેની સામે પ્રકટ કરતા, તેની ઈચ્છા તે ચાક્કસ પૂરી પાડતું હતું. તેની કામના સફ્ળ તેમજ સત્ય થતી હતી. એથી જ તે સ·યાભિલાષ હતું. વ્યંતર દેવા તેના દ્વારે પ્રતિહારના રૂપમાં ઊભા રહેતા હતા એથીજ તે સંનિહિત પ્રતિહાય હતુ
( तस्थणं नयरे पडिबुद्धीनामं इक्खागुराया परिवसर, पउमाई देवी सुबुद्धी अमच्चे सामदंडभेय कुसले )
સાકેત નગરમાં ઇક્ષ્વાકુવ ́શમાં જન્મેલા પ્રતિબુદ્ધ નામે રાજા રહેતા હતા તેની ભાર્યાનું નામ પદ્માવતી હતું. તેના અમાત્ય ( મત્રી) નું નામ સુબુદ્ધિ હતું.
For Private And Personal Use Only
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भागारधर्मामृतषिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम ३०३ सामसान्खनप्रयोगः, दण्डारद्धं, भेदः त्रुपक्षे मन्त्रिसैनिकादिभिर्विरोधोत्पादनम् , तेषु कुशल := निपुणः । १.तस्तदनन्तरं र लु पद्मादायादेच्या अन्यदा कदाचित् नागयज्ञकश्चा प्यासीत-नागमहोत्सव दिवसः समायात इत्यर्थः । ततस्तदा खलु सा पद्मावती देवी नागयज्ञं नागमहोत्सवदिवसम् , उपस्थितं समायातं ज्ञात्वा यशैव प्रति बुद्धिम रक्ष्वाकु राजरतवोपारस्छति । उपागत्य करतल परिगृहीतं शिरआवतै दशनख मरत केऽञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-हे स्वामिन् । एवं खलु मम कल्ये आगामिदिवसे नागयज्ञवश्वापि भविष्यति, सद्-तस्मात् इच्छामि
यह अमात्य साम, दण्ड, और भेद नीति में कुशल था। श, को शांति से वश करना यह साम नीति है, युद्ध से वश करना-उसे परास्त कर अपने आधिन धनाना-यह दण्ड निति है-शत्रु की सेना में मंत्री तथा सैनिकों में विरोध उत्पन्न कराना इस का नाम भेद है। (तएणं पउमावईए देवीए अन्नया कयाइं नागजन्नए यावि होत्था) एक समय की बात है कि पद्मावती देवी के यहां नागयज्ञ के महोत्सव का दिन आया। (तएणं सा पउमावई नागजन्न मुवट्टियं जाणित्ताजेणेव पडिबुद्धी-तेणेव उवागच्छइ)अतःवह पद्मावती देवी नाग यज्ञ-नागमहो त्सव-का दिन आया हुआ जान कर जहाँ अपने पति प्रतिबुद्धि राजा थे वहां गई । (उवागच्छित्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं दसनहं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी) वहां जाकर उस ने राजा को दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और मस्तक पर रखकर नमस्कार किया-बाद में वह इस प्रकार कहने लगी- ( एवं खलु सामी मम कल्लं नाग जन्नए
તે અમાત્ય સામ દંડ તેમજ ભેદ નીતિમાં કુશળ હતે. શત્રુને શાંતિથી વશકરે તે સામનીતિ છે. યુદ્ધ લડીને વશ કરે, તેને હરાવે અને પિતાને અધીન કરે તે દંડનીતિ તે. શત્રની સેનામાં મંત્રી તેમજ સૈનિકે માં विशष त्पन्न ४२व तसे नीति . (तएण पउमावईए देवीए अन्नया कयाई नागजन्नए याविहोत्था) से सभयनी पात छ है पद्मावती हवीने त्यां नागयज्ञ न भडास हिवस 24.व्य.. ( तएण सा पउमावई नागजन्न मुवद्वियं जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धि तेणेव उवागच्छइ ) ना भात्स ना Eिसनी oney थतां पाती वी प्रतिसुद्ध रानी पासे ४. ( उवागच्छित्ता करयर परि. गाहियं सिरसावत्तं दसनहं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी) त्यां न तेरे मन હાથની અંજલિ બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યા અને ત્યારપછી કહ્યું
( एवं खलु सामी मम कल्लं नाग जन्नए यावि भविस्सइ तं इच्छामिणे
For Private And Personal Use Only
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३०४
हाताधर्मकथाङ्गसूत्रे खलु स्वामिन् ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता-आदिष्टासती नागयज्ञकं गन्तुं नागमहोत्सवं कर्तु-नागगृहं गन्तुम् ‘इच्छामी' ति पूर्वेण समन्वयः । हे स्वामिन् ! यूयमपि खलु मम नागयज्ञे-नागपजायां समवसरत-आगच्छत यतु 'मया साधं समागच्छा इत्यर्थः' इति व्याख्यातं तत् प्रमादिकम् पद्मावत्या उक्ति स्वीकृत्य हि राज्ञः पश्चा. द् गमनपरं शास्त्रं विरुध्येत । ततस्तदनन्तरं खलु स प्रतिबुद्धिः प्रतिबुद्धिनामको नृपः पद्मावत्या देव्या एतमर्थम्मार्थनारूपं प्रतिशृणोति-स्वीकरीतिस्म. । ततः खलु पद्मावती प्रतिषुद्धिना राज्ञाऽभ्यनुज्ञाता हृष्टा तुष्टा० यावत् कोटुम्बिकपुरुषान् आज्ञाकारिणः पुरुषान् शब्दयति आवयति, शब्दयित्वा=आहूय एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्- हे देवानुप्रियाः ! एवं खलु मम कल्ये नागयज्ञको भविष्यति, यावि भविस्सइ, तं इच्छामिणं सामी ! तुम्भेहिं अन्भणुन्नाया समाणी नागजन्नए यं गमित्तए ) स्वामीन् ! कल नागमहोत्सव होगा-मैं कल नाग महोत्सव मनाऊँगी-अतः आपसे आज्ञा लेने आई हूँ अतः आप आज्ञा दे तो मैं कल नाग महोत्सव मनाने के लिये नाग गृह जाऊँ । हे स्वभिन् ! आप भी मेरे इस उत्सव में पधारें। ___ (तएणं पडिबुद्धी पउमावईए देवीए एयमé पडिसुणेइ ) पद्मावती देवी के इस कथन को सुनकर प्रतिघुद्धि राजा ने उस के प्रार्थना रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया ( तएणं पउमावई पडिबुद्धिणा रन्ना अन्भणुनाया हट्ट तुट्ट जाव कोडुंबिय पुरिसे सहावेह) इस के अनन्तर प्रतिबुद्धि राजा से आज्ञापित हुई वह पद्मावती देवी बहुत अधिक हर्षित एवं संतुष्ट हुई । यावत् उस ने कौटुम्पिक पुरुषो को घुलाया ( सहावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! मम, कल्लं नागजण्णए भविस्सइ, सामी ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी नागजन्नएयं गमित्तए)
હે સ્વામિન્ આવતી કાલે મારે ત્યાં નાગ મહોત્સવ થશે. હું આવતી કાલે મહોત્સવ ઉજવવાની છું. એથી નાગ મહોત્સવ ઉજવવાની તમારી પાસેથી આજ્ઞા મેળવવા આવી છું. તમારી આજ્ઞા થાય તે હું આવતી કાલે નાગ મહોત્સવ માણવા નાગધર જાઉં. હે સ્વામિ ! ઉત્સવમાં પધારવા તમને પણ
मामय माधु छु
(तएण' पडिबुद्धि पउमावईए देवीए एयमहूँ पडिसुणेइ) ५मावती न थन सामजीन प्रतिमुद्ध २० तेनी विनती स्वीपरी बाधी. “ तएण पउमावई पडिबुद्धिणी रन्ना अब्भणुन्नाया हट्ठतुट्ठ जाव कोटुंबियपुरिसे सहावेइ" પ્રતિબુદ્ધિ રાજા વડે આજ્ઞાંકિત થયેલી રાણી પદ્માવતી દેવી ખૂબજ હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈ. યાવત તેણે કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા,
For Private And Personal Use Only
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम्
१०५
तद्-तस्मात् यूयं मालाकारान् शब्दयत, शब्दयित्वा एवं पदत-एवं खलु पद्मावत्या देव्याः कल्ये प्रभाते नागयज्ञक नाग महोत्सवो भविष्यति तद्-तस्माद् यूयं खलु हे देवानुप्रियाः जलस्थल नभावरमभूतं जलोत्पन्नं विकसितं प्रचुरंदशाध वर्ण पञ्चवर्णमाल्यं कुसुमजातं माल्यं च नागर हे संहरत-समानयत.एकंच खलु महत् श्रीदामकाण्डमुपनयत. समानयत । ततः खलु जलस्थलज भास्वर प्रभूतेन दशावणेन माल्येन-'जाणाविक पनि-विइयं नानाविध भक्ति सुरचितम् अनेकप्रकारकचित्ररचना सुशोभित, पुप्पमण्डपं विसर तेति सम्बन्धः, पुनः कथंभूतं तदित्याह-'हंसमियमउ. रकोंच सारसचकवायमयणसालकोइलकुलोक्वेवं हंसमृगमयरक्रोश्चसारसचक्रवाक मदन शालकोकिल कुलोपपेतम्-हंसादि कोकिलान्ताः प्राग व्याख्याताः, तेषां कुलैः समूहैश्चित्ररूपैरुपपेत्तं युक्तं, 'ईहामियजावभत्तिचित्तं ' ईहामृग यावद् भक्तिचित्रम् तं तुम्मे लालागारे सदावेह, सदावित्ता एवं वदह एवं खलु पउमावईए देवीए कलं नाम जण भविता ) बुलाकर उन से उस ने ऐसा कहा देवानुप्रियो ! मेरे यहां कल नागमहोत्सव होगा-इसलिये तुम लोग मालियों को बुला-और बुलाकर उन से ऐसा कहो-कि पद्मादेवी के कल नाग यज्ञ होगा । (तं तुम्भेणं देवाणुपिया ! जल थलय० दसद्धवन्नं मल्लं णागपश्यसि ताहरह ) मो तुम सब हे देवानुप्रियो ! जलथल में उत्पन्न हुए विकसित पंचवण के पुष्पों को नागघर पर पहुँचाओ
और साथ में एक महान श्रीदामकाण्ड को भी। (तएणं जलथल. दसवाने की मल्लेशं जागा विहमतिसु विरूयं हँस मिय मउर कोंच सारसचकवायमयणामालकोइलकुलोवधेयं ईहामिय जाव भत्तिचित्त ___“ सदाबित्ता एवं कयासो एवं खलु देवाणुप्पिया मम कल्लं नाग जण्णए भविस्सह. तं तुझे मालागारे गदावेह सदाचित्तानदह एवं खलु पउमावईए देवीए कल्लं नागनाए भविसा"
લાવીને તેમને કહ્યું- “દેવાનુપ્રિયે ! મારે ત્યાં આવતી કાલે નાગ મહોત્સવ થશે. રોથી તમે માળીઓને બેલા અને બોલાવીને તેમને એ प्रमाणे से पावती देवीने त्यांना महोत्सव 20. ( त तुभेण देवाणप्पिया! जल थलय, दसवन्न मल्लं जागधरयंसि साहरह) तो દેવાનુપ્રિયે ! તમે બધા જળ થળમાં ઉત્પન્ન થયેલાં પાંચ રંગેના પુપને અને શ્રીદામકાંડને નાગઘરો માં પહોંચાડો. ___ "तएणं जल थल० दसहयो णं मल्लेणं णाणाविह भत्तिसु विख्यं हँस मियमउर काँच सारस चायनयणसाल कोइलकुलोववेयं ईहामिय जाब भत्ति चित्तं नहवं महरिहं विपुलं पूफमंडवं विरएह)
मा ३९
For Private And Personal Use Only
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३०३
शासाधर्मकथास
9
"
अत्र यावच्छब्देन - ' ईहामृगेत्यनन्तरं - वृषभतुरग मकरविहगव्यालक किन्नररुरु शरभकुञ्जरवनलतापद्मलता ' इतिपाठस्य ग्रहणम् । ईहामृगो वृकः, रुरुशरभौ मृगजातिविशेषौ अन्ये स्पष्टार्थाः तेषां भक्त्या चित्ररचनया चित्रम् आश्चर्य जनकम् ' महग्धं महा - महामूल्यकं ' महरिहं ' महाहै- महतां योग्य, विपुलं विस्तीर्णम्, ईदृशं पुष्पमण्डपं विरचयत कुरुतेत्यर्थः । तस्य पुष्पमण्डपस्य खलु बहुमध्यदेश भागे - सर्वथा मध्यभागे एकं महत् श्रीदामकाण्डं यावत् पाटलादिपुष्प समूहसहितगन्धत्राणि गन्धदतिं मुञ्चत्-मददत् ' उल्लोयंसि ' उल्लोचे चन्द्रातपे वस्त्रनिर्मितगृहाभ्यन्त रिकावरणे - ' ओलंबेह ' अवलम्बयतः, ओलंबित्ता अबमहग्धं महरिहं विपुलं पुष्फमंडवं विरएह ) इस के अनन्तर वे सब जलथल के विकसित पंचवर्णों के पुष्पों से और अनेक प्रकार के चित्रों की रचना से सुशोभित एक पुष्प मंडप बनावे, इस मंडप को वे हंस मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मदनशाल कोकिल इन सब के चित्रों से सुशोभित करें ईहा मृग-वृक, वृषभ, तुरंग, मकर, विहग, पालक - सर्प, किन्नर, एए, शरभ, कुंजर - वनलता और पद्मलता इन के चित्रों की रचना से उसे आश्चर्य कारक बनावें ।
वह पुष्प मंडप कीमती महारुषों के योग्य, एवं विस्तीर्ण हो ऐसा बनायें। (तरसणं बहुमज्झदेसभाए एवं महं सिरिदामगंडं जाव गंधवर्णि मुतं उल्लोल यंसिओलंवेह, ओलंबित्ता पउमावई देवीं पडिवाले माणा २ चिट्टह, तरणं ते कोडुंबिया जाव चिह्नंति) और उस के ठीक मध्य भाग में तने हुए चंदोवा के नीचे एक बड़ा भारी श्रीदाम
અને ત્યાર ખાદ જળથળ ના વિકાસ થયેલા પાંચવણોના પુષ્પાથી તેમજ જાત જાતના ચિત્રોની રચનાથી શેાલતા એક પુષ્પના માંડવા મનાવે, હંસ, મૃગ, માર, કૌ ંચ, સારસ, ચક્રાવાક મદનશાલ અને કેપલ આખધાં પશુ पंजीयन यित्रो थी भांडवाने शत्रुगारे तथा महाभृग, वरु, मजह, घोडो, भगर, पक्षी व्यास, ( सर्व ), डिन्नर, रुरु, शरल, हाथी, वनसता, अने પદ્મલતાના સુંદર ચિત્રોથી માંડવાને અદ્ભુત રીતે સુશોભિત કરો.
પુષ્પમડપ કિંમતી તેમજ મહાપુરુષોને યેાગ્ય વિશાળ હોવા જોઇએ. ( तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एवं महं सिरिदामगंडं जाव गंधद्धणि मुयंत उल्लोलयंसि ओलंबेद, ओलंबित्ता पउमावई देवीं पडिवालेमाणा २ चिह्न, तणं ते कोडुंबिया जाव चिह्नंति )
અને તાગેલા ચદરવાની નીચે ઠીક મધ્યભાગમાં નાકને પેાતાની સુવાસ થી નૃત્ય કરાવનાર એક, બહુ માટેા શ્રીદામકાંડ લટકાવો.
For Private And Personal Use Only
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् ३०७ लम्ब्य पद्मावतों देवीं 'पडिवालेमाणा ' प्रतिपालयन्तः २ प्रतीक्षमाणाः प्रती क्षमाणास्तिष्ठत । ततस्तदनन्तरं खलु ते कौटुम्बिकाः कौटुम्बिकपुरुषाः यावत्यथापद्मावत्यासमादिष्टं तथा कृत्वा पद्मावतीदेवीं प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्तिस्मा।मू०१५॥
मूळम्-तएणं सा पउमावई देवी कल्लंकोडुबिए एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सागेयं नगरं सभितर बाहिरियं आसित्त समजिओवलितं जाव पच्चप्पिणंति तएणं सा पउमावई देवी दोच्चंपि कोडुंबिय० खिप्पामेब लहुकरणजुत्त० जाव जुत्तामेव उवटवेह, तएणं तेऽवि तहेव उवटावेति। तएणं सा पउमावई देवी अंतो अंते उरंसि पहाया जाव धम्मियं जाणं दुरूढा, तएणं सा पउमावई देवी नियगपरिवाल संपरिवुडा सागेयं नगरंमज्झमज्झेणं णिजाइ, णिजित्ता जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुक्खरणिं ओगाहइ,
ओगाहित्ता जलमजणं जाव परमसूइभूया उल्लपडसाडियाजाई काण्ड-पुष्पों का गजरा-कि जिस से नासिका इन्द्रिय को तृप्ति कारक गंध निकल रही हो को लटकावें। लटका कर फिर मुझ-पद्मावती की वहां प्रतीक्षा करते हुए बैठे रहें । इस प्रकार उन कौटुम्पिकपुरुषों से पद्मावती देवी ने ऐसा कहा-पद्मावती देवी के इस कथनानुसार सब ही काम उन कौटुम्बिक पुरुषों ने किया-अर्थात् मालियों को बुलाया और उन से इस पूर्वोक्त प्रकार के पुष्प मंडप की रचना करने को कहा-उन्हों ने सब कार्य व्यवस्थित ढंग से कर दिया और पद्मावती देवी की प्रतीक्षा करते हुए वे सब वहां ठहरे रहे। सूत्र "१५"
લટકાવીને મારી-પદ્માવતી દેવીની બધા ત્યાં પ્રતીક્ષા કરતા શેકાય. આ પ્રમાણે પદ્માવતી દેવીએ કૌટુંબિક પુરુષને નાગમહોત્સવ વિષે સૂચને આપ્યાં પદમાવતી દેવીના આદેશ મુજબ કૌટુંબિક પુરુએ માળીઓને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેમને યથાયોગ્ય પુષ્પમંડપ બનાવવાની આજ્ઞા આપી. આ પ્રમાણે બધું કામ વ્યવસ્થિત રીતે પતાવીને પદ્માવતી દેવીની રાહ જોતા તેઓ त्या साया. ॥ सूत्र" १५"॥
For Private And Personal Use Only
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे तत्थ उप्पलाई जाध गेण्हइ, गिहित्ता जेणेव नागधरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं, पउमाबईए दालवडीओ बहूओ पुप्फपडलगहत्थगयाओ धूवकडुच्छगहत्थगयाओ पिट्टओसमणुगच्छति । तएणं पउमावई सबिडिए जेणेव नागघरे लेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता नामघरयं अपविलइ, अशुपविसित्ता लोमहत्थगं जाव धूवं डहाइ, डहिता पडिबुद्धिं पडियालेमाणी पडिवालेमाणी चिट्टइ ॥ सू० १६ ॥ ___टीकाः-'तएणं सा' इत्यादि-ततस्तदनन्तरं खलु सा पद्मावती देवी कल्ये द्वितीयदिवसे प्रभाते कौटुम्विकान् आज्ञाकारिणः पुमान् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादित्-भो देवानुभियाः ! क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव, साकेत नगरं । सभितर बाहिरियं' साभ्यन्तरबाह्य-अभ्यन्तरेण-मध्यमागेन सह बाह्यं बहिर्मागं यत्र तत्'आसित्तसम्मजिओवलितं ' आसिक्त समार्जितोपलिस-आसिक्तं-सुगन्धितजलैराीकृतं संमानितं-मार्जन्यादिभिः कचरापसारन निर्मलीकृतं पश्चादुपलिप्त
'तएणं सा पउमावई देवी इत्यादि । ____टीकार्थ-(तएणं) इस के बाद (सा परमावईदेवी) उस पद्मावतीदेवीने (कल्लं कोडंथिए एवं वयासी ) दूसरे दिन प्रातःकाल उन कौटुम्बिक पुरुषों से ऐसा कहा-(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सायं नगरं सभितर बाहिरियं आलित्त सन्मज्जिओलितं जाव पच्चप्पिणेति ) भो देवानुप्रियों ! तुम लोग शीघ्र ही साकेत नगर को भीतर बाहिर सुगंधित जल से सींचों, बुहारू लेकर उसे कूडा कर कट कचरा हटाकर बिलकुल साफ करो, गोबर आदिसे उसे लीपों इस प्रकार पद्मावतीदेवी _ 'तएण सा पउमावईदेवी ' त्यात
टीथ (तएण) त्या२ (सा प उमाबई देशी) ५मावती पाये (कल्लं कोडुबिए एवं वयासी) भी हिसे सवारे टीम पुरुषाने २मा प्रमाणे ४ .
(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सागेयं नगरं सम्भितरवाहिरियं आसित्त सम्मज्जिवलितं जाव पच्चप्पिणेति)
- હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે લોકો સત્વરે સાકેત નગરી ની બહાર અને અંદર સુવાસિત પાણી છાંટે સારણુથી કચરે એકદમ સાફ કરે અને છાણ વગેરેથી લીધે પદ્માવતી દેવીની આજ્ઞા સાંભળીને કૌટુંબિક પુરુષોએ તે પ્રમાણે જ
For Private And Personal Use Only
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् ३०९ गोमयादिनाऽनुलिप्तं कुरुत यावत् प्रत्यर्पयन्ति-यधा-पद्माती देव्या आदिष्टं तथा कृत्वा ते कौटुम्बिका हे स्वामिन्यः सर्व साधितमस्माभिरिति-तदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति-आवेदयन्ति स्म । ततस्तदनन्तरं सा पद्मावती देवी 'दोच्चंपि' द्वितीयवारमपि कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयित्वा एक्शवादित्-हे देवानुप्रियाः! क्षिप्रमेव
लहुकरगजुत्त०' लघुकरणयुक्त यावद् युक्तमेव पभेयुक्तां कृत्वा रथमुपस्थाप. यत । ततस्तदनन्तरं खलु तेऽपि कौटुम्विकपुरुषाअपि यथा पधावत्या समादिष्टं तथैव रथमुपस्थापयन्ति । ततः खलु सा पावती देवी अन्तोऽन्तःपुरे अन्तः पुरस्य मध्ये स्नाता यारद् सोलंकार विभूपिता धार्मिक यान-स्थं, दुरूड़ा-आरोके आदेश को पाकर उन कौटुम्धिक पुरुषों ने वैसा ही सब कुछ कार्य यथावत कर दिया और पीछ पद्मावती के पास जाकर कहा-स्वमिनी! आपने जैसा काम कर ने को कहा था हम ने वह काम वैसा हो कर दिया है। (तएणं सा पउमावई देवो दोच्चपि कौडविय० विप्पामेव लह करण जुत्तजावजुत्तामेव उवहवेह, तएणं ते वि तहेव उट्ठावेंति) इसके बाद एमावती देवीने दुवारा भी उन कौटुबिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-भो देवानुप्रियों ! तुम लोग शीघ्र ही जल्दी २ चाल से चलने वाले बैलों को जोत कर यहां एक रथ को उपस्थित करो। पद्मावती की इस आज्ञा को पाकर वे कौटुम्बिक पुरूष भी पद्मावती के आदेशानुसार रथ को बैलों से युक्त कर ले आये । (तएणं सा पउमा. वई देवी. अंतो अंतेउसि डाया जाव धम्मियं जाणं दुढा ) रथ जब आ चुका-तब पद्मावती देवी ने अन्तः पुर के भीतर ही स्नान किया यावत् समस्त अलंकारों से आपने आप को विभूषित कर फिर वह કર્યું અને ત્યાર બાદ તેમની પાસે આવીને કહેવા લાગ્યા...હે સ્વામિનિ ! તમે જે કામ કરવાની અમને આજ્ઞા આપી હતી તે કામ અમે એ સરસ રીતે પૂર્ણ કરી દીધું છે.
तएणं सा पउमावईदेवी दोच्चपि कोडुविय खिप्पामेव लहकरण जुत्ता जाव जुत्तामेव उपवेह तएणं तेवि तहेव उवट्ठाति )
ત્યાર બાદ પદ્માવતી દેવીએ બીજી વાર કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને કહ્યું “હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સત્વરે શીધ્રપતિ વાળે બળદ જોતરીને એક રથ લાવે. પદ્માવતી દેવીની પ્રમાણે આજ્ઞા સાંભળીને કૌટુંબિક पुरुषो पशु तेभनी माज्ञा भु५ २थमा तरीन सम.व्या. (तएण सा पउमावई देवी अंतो अंते उरंसि व्हाया ज व धम्मियं जाणं दुरूढा) न्यारे રથ સજજ થઈને આવી ગયા ત્યારે પદ્માવતી દેવીએ રણવાસની અંદર જ સ્નાન કર્યું યાવત્ સર્વ પ્રકારના ઘરેણાંઓથી પોતાના શરીરને શણગાય અને ત્યાર પછી તે ધાર્મિક સ્થમાં બેસી ગઈ
For Private And Personal Use Only
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्रे हतिस्म । ततः खलु सा पद्मावती देवी निजकपरिवारसंपरिवृता संख्यादिपरिवारेण युक्ता साकेतनगरं मध्यमध्येन निर्याति=निर्गच्छति । निर्याय-निर्गत्य यत्रै व पुष्करणी कमलयुक्ता वापी वर्तते तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पुष्करणीमवगाहते-प्रविशति । अवगाह्य जलमज्जनं यावत्-स्नानं कृत्वा परमशुचिभूता 'उल्लप
साडिया' आर्द्रपटशाटिका, सार्द्रपरिधानीयवस्वा यानि तस्यां पुष्करिण्यामुत्प लानि यावत्वमादीनि तानि गृह्णाति गृहीत्वा यत्रैव नागगृहं वर्तते तत्रैव प्रधारयति प्रवर्तते गमनाय । ततस्तदनन्तरं खलु पद्मावत्या दासवेटयो बढ्यः पुष्यपटलकहस्तगताः हस्तपरिधृतपुष्पकरण्डकाः धूपकडुच्छुकहस्तगता:-धूपाधारपात्राणि उस धार्मिक यान पर रथ पर आरूढ हो गई। (तएणं सा पउमावई देवी नियगपरिवाल संपरिघुडा सांगेयं नयरं मज्झं मज्झे णं णिज्जाइ णिज्जित्ता जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवागच्छइ ) इस के बाद पद्मावती देवी अपने परिवार से घिरी हुई होकर उस साकेत नगर के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर निकली-निकल कर वह जहां कमलों से युक्त वापी थी-वहाँ पर आई-( उवागच्छित्ता पुक्खरणिं ओगाहइ ) आकर उस ने उस पुष्करिणी में प्रवेश किया - (ओगाहित्ता जल मज्जणं जाव परमसुइभूया उल्ल पउ साडिया जाई तत्थ उप्पलाइं जाव गेण्हइ) प्रवेश कर जल स्नान किया यावत् परम शुची भूत बनी हुई उस ने गीली साड़ी पहि ने ही पुष्करिणी से कमल चुन लिये (गिणिहत्ता जेणेव नागघरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) चुन कर फिर वह जहां नाग घर था उस आर चल दी- (तएणं पउमावईए दासचेडीओ बहूओ __ (तएणं सा पउमाईदेवीनिया परिवालसंगरिवुडा सागेयं नयरं मज्झ मज्झेण णिज्जाइ णिज्जित्ता जेणेव पुक्खरगी तेणेव उवागच्छइ)
ત્યાર બાદ પદ્માવતી દેવી પિતાના સંપૂર્ણ પરિવારની સાથે સાકેત નગ રીની બરાબર મધ્યમાર્ગમાં થઈને પસાર થઈ અને જ્યાં કમળ યુક્ત વાવ
ती त्यो ५डया ( उघागच्छित्ता पुक्खरणि ओगाहर) त्यां पांयाने ते १०४शित (भा ) Hi Gतरी.
ओगाहित्ता जलमग्नणं जाव परममुइभूया उल्ल पउसाडिया जाइं तत्थ उप्पलाई जाव गेण्हइ)
ઉતરીને તેણે પાણીમાં સ્નાન કયું યાવત તે પરમ પવિત્ર થઈને તેણે मीनi grile Y४रिएमाथी भी यूटयां (गोण्हित्ता जेणेव नागधरए सेणेव पहारेत्थ गमणाए) २दयामा ५मावती यांना तत२६ .
For Private And Personal Use Only
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिरवरूपनिरूपणम् ३११ हस्ते धृतवत्यः पृष्ठतः समनुगच्छन्ति । ततः खलु सा पद्मावती देवी सर्व द्वर्या सखिदास्यादिपरिजनैः सह यत्रैव नागगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य नागगृहमनुपविशति, अनुपविश्य रोमहस्तकं-मयूरपिच्छनिर्मितमार्जनी गृहीत्वा नागगृह संमायं यावद् धूपं दहति, नागगृहाभ्यन्तरे समन्तात् धूपं दहति स्म। धूपं दग्ध्वा प्रतिबुद्धिप्रतिबुद्धिनृपं स्वपती प्रतिपलयन्ती प्रतिपालयन्ती-पुनः पुनः प्रतीक्षमाणा तिष्ठति स्म ।। मू० १६ ॥ पुप्फपडलगहत्थगयाओ धूवकडुच्छग हत्थगयाओ पिट्टओ समणुगच्छंति ) उस के पीछे २ उस की अनेक दास चेटिया पुष्प करण्डों को और धूप के पात्रों को हाथों में लिये हुए चली । (तएणं पउमावई सविडिए जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नागघरयं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता लोमहत्थगं जाव घूवं डहइ डहित्ता पडि. धुद्धि पडिवालेमाणी २ चिट्ठइ) इस के अनन्तर पद्मावती सखी, दासी आदि परिजन रूप अपनी समस्त ऋद्धि के साथ जहां वह नाग घर था वहाँ आई-वहां आकर वह नाग घर के भीतर गई भीतर जाकर उस ने वहां रखी हुई मयूर पिच्छ निर्मित मार्जनी को उठाया-उठा कर उस ने उससे उस नागघर को झाड़ा झाड कर फिर उस ने वहां यावत् धूप जलाई । धूप जला कर फिर वह अपने पति देव प्रतिबुद्धि राजा की प्रतीक्षा करती हुई बैठ गई । सूत्र " १६"
( तएणं परमावईए दास चेडीओ बहूओ पुष्फपडलगहत्थगयाओ ध्वकडुछगहत्थगयाओ पिट्ठओ समणुगच्छंति)
તેની પાછળ ઘણી દાસ-દાસીઓ પુષ્પ-કરડકે તેમજ ધૂપદાનીઓ હાથમાં ઉચકી ચાલવા લાગી.
(तएणं पउमावई सबिडिए जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता नागघरय अणुपविसइ अणुपविसित्ता लीमहत्थगं जाव धूवं डहइ डहित्ता पडिबुद्धि पडिवालेमाणी २ चिट्टइ)
આરીતે પદ્માવતી દેવી સખી દાસી વગેરે પરિજન રૂપ પિતાની સંપૂર્ણ અદ્ધિની સાથે જ્યાં તે નાગઘર હતું ત્યાં પહોંચી અને ત્યાં પહોંચીને તે નાગઘરની અંદર ગઈ ત્યા જઈને તેણે મેરપીંછી હાથમાં લીધી અને ત્યાર પછી તેણે નાગધરને સ્વચ્છ બનાવ્યું. નાગઘરની સફાઈ કરીને તેણે ધૂપ સળગાવ્યા અને પછી પિતાના પતિ પ્રતિબુદ્ધિની પ્રતીક્ષા કરતી ત્યાં જ બેસી ગઈ. સૂ ૧૬
For Private And Personal Use Only
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૨૧૨
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
--
मूत्रम् तपणं पडिबुद्धी पहाए हत्थिखंधवरगते सकोरंट जाव सेयवरचामराहिं० हयगय रहजोहम हयाभडगचडकरपहकरेहिं साकेयन यरं० णिगच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हस्थिधाओ पञ्च्चोरहइ, पञ्च्चोरुहित्ता आलोए पणामं करेइ, करिता पुप्फमंडवं अणुपविसइ अणुप विसित्ता पासइ तं एवं महं सिरिदामगंडं । तएणं पडिबुडी तं सिरिदामगंडं सुइरं कालं निखिखइ, निरिक्खित्ता तंसि सिरिदामगंडंसि जाय विम्हयमणे सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी - तुमन्नं देवाणुपिया ! मम दोच्णं बहूणि गामागर जाव सन्निवेसाई आहिडसि बहूणि रायईसर जाव गिहाई अणुपविससि तं अस्थि तुमं कहिंचि परिसए सिरिदामगंडे दिट्ठपुत्रे जारिसए णं इमं पउमावईए देवीए सिरिदामगंडे ?
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तपणं सुबुद्धी पडिबुद्धिं रायं एवं ववासी एवं खलु सामी ! अहं अन्नया कयाईं तुब्भं दोच्चेणं मिहिलं रायहाणि गए, तत्क्षणं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अन्तयाए मल्लीए संवच्छर पडिलेहणगंसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिपुत्रे तस्स पणं सिंरिदामगंडस्स इमे पउमावईए सिरिदाम. गंडे सहस्नमं कलं ण अग्घर, तरणं परिबुद्धी सुबुद्धिं अमचं एवं वयासी- केरिसिया णं देवाप्पिया ! नल्ली विदेहरायवरकन्ना जस्लणं संवच्छर पडिलेणयंसि सिरिदामगंडस पउमावईए देवीए सिरिदामगंडे सयस हस्ततमपि कलं न अग्घइ ?, तणं सुबुद्ध परिबुद्धि इक्खागुरायं एवं वयासी
For Private And Personal Use Only
--
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
३१३
--
अगरधर्मामृnefit टीका भ० ८ कोसाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् विदेहरायवरकन्नगा सुपइट्टिय कुम्मुन्नयचारुचरणा वन्नओ, तणं पडिबुद्धी सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म सिरिदामगंडजणितहासे दूयं सद्दावेइ, सदावित्ता एवं बयासी - गच्छाहि णं तुमं देवाणुपिया ! मिहिलं रायहणि तत्थ णं कुंभग्गस्स रन्नो धूयं पभावईए देवीए अन्तयं मल्लि विदेहवररायकण्णगं मम भारियत्ताए वरेहि जतिविय णं सा सयं रज्जं सुक्का, तणं से दूए पडिबुद्धिणा रन्ना एवं वृत्ते समाणे हड० पडिसुणेइ, पडिणित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव चाउरघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं पडिक पावेइ, पडिकप्पावित्ता दुरुढ़े जाव हयगय महयाभडचडगरेणं साएयाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू०१८॥
टीका:- ततस्तदनन्तरं खलु प्रतिबुद्धिः प्रतिबुद्धिनामको राजा स्नातो मुकुटालङ्कारवस्त्र विभूपितः हस्तिस्कन्धवरगतः 'सकोरण्टमल्लदामेणं' सकोरण्टमाल्यदाम्ना कोरण्टाख्य पुष्परतवकवन्ति माल्यदामानि पुष्पाजस्तैः सहितेन छत्रेण त्रियमाणेन यावत् श्वेतवरचामरैरुद्वोजितैश्व सहितः, हयगजरथयोधमहा
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
'तरणं पडिबुद्धी पहाए' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद (पडिबुद्धी) प्रतिबुद्धि राजाने ( पहाए ) स्नान किया बाद में वे मुकुट आदि अंलकारों से और राजसी वस्त्रों से अलंकृत होकर ( हविखंधवरगए ) अपने पह हाथी पर बैठ गये
( स कोरंट जाव सेयवरचामराहिं० हयगयरह जोहमहया भड
,
'तरण' पडिबुद्धिहाए ' त्याहि
टीडार्थ - (तएण ) त्यारणा (पडिबुद्धि) प्रतियुद्धि रामसे (व्हाए) स्नान રાજસી વસ્રોથી અલંકૃત થઈને पर सवार था. हयगयरह जोह महया भडचढकरेहिं
કર્યું અને મુકુટ વગેરે આભૂષણે તેમજ ( हरिथख धरगए ) पोताना मास हाथी ( सकोरंट जाव सेयवर चामराहिं० साकेयनयरं० निग्गच्छा )
ज्ञा० ४०
For Private And Personal Use Only
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथाङ्गसूत्रे भट चरकरपहकरैः हय गजादीनां समहैश्च सहितः साकेतनगरस्य मध्यभागेन निर्गच्छति । निर्गत्य स प्रतिबुद्धिनृपो यत्रैव नागगृहं वर्तते तत्रैवोपागच्छति उपागत्य हस्तिस्कन्धात् प्रत्यवरोहति अवतरति प्रत्यवरह-अधः प्रत्यवतीर्य आलोके-नागदर्शने प्राप्ते सति प्रणामं करोति कृत्वा पुष्पमण्डपं पद्मावती निर्मापितपुष्पमयमण्डपम् अनुप्रविशति, अनुमविश्य पश्यति तदेकं महत् श्रीदामकाण्डम् । घड कर पह करेहिं साके यं नयरं० निग्गच्छइ ) उन के बैठते ही छत्र धारी ने उन पर कोरण्ट पुष्प के गुच्छों से निर्मित मालाओं से युक्त छत्र को तान दिया।
चमर ढोर ने वालों ने उन पर श्वेत उत्तम चमर ढोरना प्रारंभ कर दिया। बाद में वे हय, गज आदि के समुदाय से युक्त होकर साकेत नगर के मध्यभाग से होकर निकले (निग्गच्छित्ता जेणेव नाग घरे, तेणेव उवागच्छह ) निकल कर नागघर की ओर चल दिये ( उवागच्छित्ता हत्थि खंधाओ पच्चो रुहइ, पच्चो रुहित्ता आलोए पणामं करेइ) वहां पहुँच कर वे उस हाथी से नीचे उतरे-उतर कर ज्यों ही उन्हें नाग प्रतिमा दिखलाइ पडी तो उसी समय उन्हों ने उसे नमस्कार किया।
(करित्ता पुष्फमंडपं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पासइ, तं एगं महं सिरिदामगंडे ) नमस्कार कर फिर वे पद्मावती देवी द्वारा निर्मापित पुष्प मंडप में प्रविष्ट हुए । वहां उन्हों ने उस विशाल श्री दाम काण्ड
રાજા જ્યારે હાથી ઉપર સવાર થઈ ગયા ત્યારે છત્ર ધારીએ તેમના ઉપર કેરંટ પુના ગુચ્છથી બનેલું તેમજ માળાઓથી શોભિતું છત્ર તાર્યું.
ચમર ધારીઓ તેમના ઉપર સફેદ તેમજ ઉત્તમ ચમરે ઢળવા લાગ્યા. આમ પ્રતિબુદ્ધિ રાજા હય, ગજ વગેરે સમુદાયની સાથે સાકેત નગરના मध्यभागे थन (निग्गच्छित्ता जेणेव नागधरे तेणेव उवागच्छह ) २ त२३ નાગઘર હતું તે તરફ ગયા. (उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पचोरुहइ, पञ्चोरुहित्ता आलोए पणामं करेइ)
ત્યાં પહોંચીને તેઓ હાથી ઉપરથી નીચે ઉતર્યા અને ઉતરીને જ્યારે તેઓએ નાગપ્રતિમાઓ જોઈ ત્યારે તરત જ તેમણે તેમને નમન કર્યું. (करित्ता पुप्फ मंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पासइ, तं एग महं सिरिदाम गंडे
નમન કર્યા બાદ રાજા પદ્માવતી દેવી વડે બનાવવામાં આવેલા પુષ્પ મંડપમાં પ્રવિષ્ટ થયા ત્યાં તેમણે મોટા શ્રીદામકાંડને જે.
For Private And Personal Use Only
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणोटी० अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् १५
ततस्तदनन्तरं खलु प्रतिबुद्धिस्तं श्रीदामकाण्डं सुचिरं कालं बहुकालं निरीक्षते एकाग्रमनसा पश्यतिस्म । निरीक्ष्य तस्मिन् श्रीदामकाण्डे जातविस्सयः * अपूर्वदृष्टमिदं श्रीदामकाण्ड ' मित्याश्चर्य प्राप्तः सन् सुबुद्धि-सुबुद्धिनामक ममात्य-स्वमन्त्रिणम् , एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादी-हे देवानुपिय ! त्वं खलु मम 'दोच्चेणं' दौत्येन-इतो भूत्वा बहून् यावत् ग्रामाकरनगरसंनिवेशान् अहिण्डसि = परिभ्राम्यसि, बहूनि च राजेश्वरतलबरमाडम्बिककौटुम्बिकवेष्ठि सेनापतिसार्थवाहानां यावद् गृहाणि अनुप्रविशसि, तदस्ति खलु त्वया दृष्टपूर्व को-देखा । (तएणं पडिबुद्धि तं सिरीदामगंडं सुइरं कालं निरिक्खह, निरिक्खित्ता तसि सिरिदामगंडसि जाय विम्हयमणे सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी ) देख ने के बाद प्रतिवुद्धि राजा ने बहुत देर तक उस का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण किया।
निरीक्षण करने के बाद उसे उस श्रीदामकाण्ड के विषय में बड़ा आश्चर्य हुआ। आश्चर्य युक्त होकर उसने अपने सुबुद्धि मंत्री से फिर इस प्रकार कहा-(तुमं ण्णं देवाणुप्पिया! मम दोच्चेणं बहूणि गामागर जाव गिहाई अणुपविससि-तं अस्थि णं तुम कहिंचि एरिसए सिरिदामगंडे दिह पुव्वे जारिसए णं इमें पउमावईए देवीए सिरिदामगंडे ) __हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे दूत होकर अनेक ग्रामों में अनेक आकरों में, अनेक नगरों में अनेक संनिवेशों में घूमते फिरते हो वहां बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी सेनापति और सार्थवाहों के घरों में भी आते जाते रहते हो, तो क्या तुमने ऐसा
(तएगं पडिबुद्धि तं सिरीदामगंडं सुइरं कालं निरिक्खइ, निरिक्खित्ता तंसि सिरिदामगंडसि जाय विम्हयमणे सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी)
તેને જોઈને પ્રતિબુદ્ધિ રાજાએ સૂમ દષ્ટિથી બહુ વખત સુધી તેનું दिशक्ष५ ४यु".
રાજાને શ્રીદામકાંડ જોઈને ખૂબ જ આશ્ચર્ય થયું. તેમણે પિતાના મંત્રી સુબુદ્ધિને આ પ્રમાણે કહ્યું
(तुमन्नं देवाणुप्पिया ! मम दोच्चेग बहू णि गामागार जाव गिहाई अणुपविससि तं अस्थिगं तुम कहिचि एरिसए सिरिदामगंडे दिट्टपुत्वे जारिसएणं इमें पउमावईए देवोए सिरिदामगंडे )
હે દેવાનપ્રિય ! મારાદૂત થઈને તમે ઘણાં ગામે, આકરો નગરો અને સંનિવેશોમાં ફરતા રહે છે, ત્યાં ઘણું રાજા ઈશ્વર, તલવર, માડંબિક કૌટું બિક, શ્રેષ્ઠી, સેનાપતિ અને સાર્થવાહના નિવાસ સ્થાનમાં પણ આવાગમન
For Private And Personal Use Only
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
३१६
शाताधर्मकथा
"
कुत्रचिदेतादृशं श्रीदामकाण्डम् यादृशं खलु इदं पद्मावत्या देव्याः श्रीदामका ण्डं वर्त्तते । ततःखलु सुबुद्धिः सुबुद्धिनामा मन्त्री प्रतिबुद्धिं राजानमेव = त्रक्ष्यमाण प्रकारेण अवादीत् एवं खलु स्वामिन्! अहमन्यदा कदाचित् युष्माकं दौत्येन= दुतो भूत्वा मिथिला राजधानीं गतः ।
6
तत्र - मिथिलाराजधान्यां खलु मया कुम्भकस्य कुम्मनाम्नो राज्ञो दुहितुः पुत्र्याः प्रभावत्या देव्या आत्मजाया मल्ल्या:=कुम्भकनृपस्य पुत्री या प्रभावती देव्या आत्मजा = गर्भजा मल्ली नाम्नी कुमारी वर्तते तस्या इत्यर्थः, ' संच्छर परिलेहणगंसि ' संवत्सर प्रतिलेखनके वर्षपूर्तिसंख्याकरणदिवसे वार्षिके जन्मदिवसोत्सवकाले इत्यर्थः दिव्यम् आश्चर्यकारकं श्रीदामकाण्डं दृष्टपूर्व = पूर्वकाले दृष्टम् । तस्य खलु श्रीदामकाण्डस्येदं पद्मावत्याः श्रीदामकाण्डं शतसहस्रतमां कलां श्रीदामकांड जैसा कि ये श्रीदामकांड पद्मावती देवी का है कहीं देखा है ? (तरणं सुबुद्धी पडिबुद्धिं रायं एवं वयासी ) राजा की इस प्रकार बात सुनकर सुबुद्धि अमात्य ने उन प्रतिबुद्धि राजा से इस तरह कहा ( एवं खलु सामी ! अहं अन्नया कयाई तुभं दोच्चेणं मिहिलं राय हाणि गए तत्थ णं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए संवच्छ र पडिले हणगंसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिदुपुब्वे) स्वामिन्! मैं किसी एक समय आपका दूत बनकर मिथिला राजधानी में गयो हुआ था। वहां मैंने कुंभक नरेश की पुत्री प्रभावती देवी की आत्मजा - गर्भ जा-मल्ली कुमारी की वर्ष गांठ के अवसर पर आश्चर्य कारक श्रीदाम कांड को देखा था ।
=
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( तस्स णं सिरीदामगंडस्स इमे पउमावईए सिरिदामगंडे सयस - हस्तमे कल्लं ण अग्धइ ) उस के समक्ष पद्मावती देवी का यह श्री
કરી છે, તે તમે પદ્માવતી દેવીના જેવા શ્રીદામકાંડ કોઈ સ્થાને જોયા છે? (तएण सुबुद्धि पडिबुद्धिरायं एवं वयासी ) राजनी या प्रमाणे वत सांलजीने અમાત્ય સુબુદ્ધિએ પ્રતિબુદ્ધિ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું
( एवं खलु सामी ! अहं अन्नया कयाइं तुब्भं दोच्चेण मिहिलं रायहाणिगए तस्थणं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए प्रभावईए देवीए अत्याए मल्लीए, संवच्छर पडिलेगंसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिट्टपुव्वे )
હે સ્વામિન્ ! એક વખતે તમારા દૂત તરીકે જ હુ' મિથિવા રાજધાની માં ગયા હતા.
ત્યાં મેં કુંભક રાજાની પુત્રી પ્રભાવતી દેવીની આત્મના-પુત્રી-મલ્લીકુમારીના જન્મેાત્સવ પ્રસ`ગે ખૂબજ નવાઈ પમાડે તેવા શ્રીદામકાંડ જોયે હતા.
For Private And Personal Use Only
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगाधर्मामृतवरिंग टीका अ० ८ कोललाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् १७ नाईति । मल्लीकुमार्या यदस्ति श्रीदामकाण्डं तस्य शोभासुगन्धादिगुणानां लक्षा. शमपि प्राप्तुं न शक्नोति पद्मावत्याः श्रीदामकाण्ड मित्यर्थः । ___ ततः खलु प्रतिबुद्धिममात्यमेवमवादीत्-हे देवानुपिय! कीदृशी खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या यस्याः खलु संवत्सरपतिलेखनके श्रीदामकाण्डस्य पद्मा. वत्या देव्या श्रीदामकाण्डं शतसहस्रतमामपि कलां नार्हति ? । ततः खलु सुबुद्धिः प्रतिबुद्धिमिक्षाकुरानमेवमवादीत्-हे स्वामिन् ! विदेह राजवरकन्यका मल्लीमाम्नी दामकांड लक्षांश (लाखमा भाग भी सुन्दर और सुगंधीत में नहीं हैं ) भी नहीं हैं (तएणं पडिबुद्धी सुधुद्धि अमच्चं एवं वयासी ) इस प्रकार सुनने के बाद प्रतिबुद्धि ने सुबुद्धि अमात्य से ऐसा कहा(केरिसियाणं देवाणुप्पियो ! मल्ली वीदेहरायवर कन्ना ) हे देवानुप्रिय! विदेह राजा की वह उत्तम कन्या मल्लो कुमार कैसो है कि (जस्स णं संवच्छरपडिलेहणयंसि सिरिदामगंडस्स पउमावईए देवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सत्तमंपि कलं न अग्घइ ) जिस की वार्षिक जयं. ती के श्रीदाम कांड के समक्ष पद्मावती देवी का यह श्रीदामकांड लक्षांश भी नही ज्ञात हो रहा है।
(तएणं सुबुद्धिपडिबुद्धिं इक्खागुरायं एवं बयासी) इस तरह सुनकर सुबुद्धि ने इक्ष्वाकु वंशों में उत्पन्न प्रतिबुद्ध राजा से ऐसा कहा (विदेहरायवरकन्नगा सुपहडिय कुम्मुन्नयचारूचरणा वन्न ओ ) स्वा.
(तस्स णं दिरीदामगंडस्स इमे पउमावईए सिरीदामगंडे सय सहस्सतमे फरलं ण अग्धइ)
તેની સામે પદ્માવતી દેવીને આ શ્રીદામકાંડ લક્ષાંશ પણ નથી. એટલે કે સુગંધ કે સૌંદર્ય બંનેની દષ્ટિએ મલીકુમારીને જન્મત્સવ પ્રસંગના श्रीहामनी सामे मा नथी. (तएण पडिबुद्धो सुबुद्धि अमच्च एवं क्यासी) मारीत सामजीने प्रतिभुद्धि सुमुद्धि समात्यने या प्रमाणे ४थु(केरिसियाण देवाणुप्पिया! मल्लो वींदेहरायवर कन्ना) आनुप्रिय ! विड રાજ પુત્રી મલીકુમારી એવી કેવી છે કે.
" जस्सणं संवच्छरपडिलेहणयसि सिरिदामगंडस्स पउमावईएदे वीए सिरि दामगंडे सयसहस्सत्तमं पि कलं न अग्धइ"
જેમના જન્મોત્સવના શ્રીદામકાંડની સામે પદ્માવતી દેવીને આ શ્રીદામ કાંડ લક્ષાંશ પણ લાગતું નથી.
(तएण सुबुद्धि पडिबुद्धिं इक्खागुराय एवं वयासो) मारीते सांभणीन पावशमा पनि प्रतिमुद्ध Mने सुमुद्धिये ४थु (विदेहरा यवरकन्नगा
For Private And Personal Use Only
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३१८
श्रोताधर्मकथासूत्रे
सुप्रतिष्ठितकू मन्नतचारुचरणा, सुप्रतिष्ठितौ=गुष्ठुसंस्थानवन्तौ = कूर्मोन्नती=कूर्म पृष्ठ पर्युन्नतौ चारू = सुन्दरौ चरणौ यस्याः सा तथा, वर्णकः वर्णनं विशेषतो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादौ द्रष्टव्यम् ।
ततः खलु प्रतिबुद्धिभूपः सुबुद्धेरमात्यस्यान्ति के एतमर्थ मल्लीकुमारी सौन्द यदि गुणवर्णनरूपं श्रुखा श्रवण गोवरीकृत्य, निशम्य = अर्थतोऽवधार्य श्री दामकाण्डजनितद्दर्षः = श्रीदामकाण्ड गुणश्रवणसं जातममोदः सन् तं शब्दयति आह्वयति, शब्दयिता एवमवादीत् - हे देवानुप्रिय ! गच्छ खलु त्वं मिथिला राजधानीं, तत्र खलु कुम्भकस्य राज्ञो दुहितरं प्रभावत्या देव्या आत्मनां मल्ली विदेहवरराजकमिन् ! वह विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी अच्छे आकार वाले, कूर्म की पृष्ठ के समान उन्नत सुन्दर चरण वाली है । इस का विशेष वर्णन जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि में किया गया है ।
( तणं पडिबुद्धी सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए एयमहं सोच्चा जिसम्म, सिरिदामगंडजणितहासे दूयं सहावे ) इस प्रकार श्रीदाम कांड के गुणों के श्रवण से अत्यधिक हर्षित हुए प्रतिबुद्धि राजा ने सुबुद्धि अमात्य के मुख से मल्ली कुमारी के सौन्दर्य आदि गुणों का वर्णन सुनकर और उसे हृदय में निश्चित कर दूत को बुलाया (सद्दावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उससे ऐसा कहा ( गच्छाहिणं तुमं देवाप्पिया ! मिहिलं रायहाणि ) हे देवानुप्रिय ! तुम मिथिला नाम की राजधानी को जाओ - ( तत्थ णं कुंभगस्स रण्णो धूयं पभावईए देवीए
सुपइट्ठिय कुम्मुन्नय चारूचरणा बन्नओ) डे स्वाभिन् ! ते विहेड राजनी ઉત્તમકન્યા મલીકુમારી સરસ આકારવાળા કાચબાની પીઠના જેવા સુંદર ઉન્નત ચરણવાળી છે. (તેમનું વિશેષ વર્ણન જ બુદ્ધીપ પ્રજ્ઞપ્તિ વગેરે માં કરવામાં આવ્યું છે.
( तणं पडिद्धि सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म सिरिदामगंडजणितहासे दूयं सदावेद )
આ પ્રમાણે સુબુદ્ધિ અમાત્યના મેઢેથી શ્રીદામકાંડના ગુણુ શ્રવણથી તેમજ મલ્ટીકુમારીના સૌદય વગેરે ગુણેાની ચર્ચા સાંભળીને તેને હૃદયમાં અવધારિત કરીને ખૂબજ હર્ષિત થયેલા પ્રતિબુદ્ધિ રાાએ દૂતને બેલાન્યા. ( सावित्ता एवं वयासी) जोसावीने तेने उछु - ( गच्छाहि णं तुम देवाणु पिया ! मिहिल रायहाणि ) डे हेवानुप्रिय ! तमे भिथिज्ञानी राजधानीमा नयाँ.
( तत्थणं कुंभगस्स रण्गो धूयं पमावईए देवीए अत्तयं मर्दित्र विदेदवरराय कण्णर्ग मम भरियत्ताए बरेहिं )
For Private And Personal Use Only
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अमगारधर्मा मृतब दिणी १.० ८ कोरलाधिपतिरक्षा परिणम १९ न्यकां मम भार्यात्वेन वरय, अयमर्थ:-हे देवानुप्रिय ! मिथिलां गत्वा कुन्भक नपं ब्रूहि-साकेतनगराधिपतिः प्रतिबुद्धिनामानुपस्तव कन्यकां मल्ली धर्मपत्नीत्वेन ग्रहीतुमिच्छति, तदनुमन्यस्वेति । . यद्यपि च सा स्वयं राज्य शुल्क-मूल्यं यस्याः सा तथा, स्वस्य निरुपम सुशीलादिगुणवत्तया सा यदि स्व शुल्कत्वेन राज्यममिलषेसदाऽहं सर्व राज्यं समर्पयामीति भावः। ततः खलु स दूतः प्रतिबुद्धिना राज्ञा एवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टो अत्तय मल्लि विदेहवररायकगगं मम भारियत्ताए बरेहिं ) वहां कुंभक राजा की पुत्री मल्ली कुमारी को कि जो प्रभावती देवी के गर्भ से उत्पन्न हुई है मेरी भार्या के रूप से वरो अर्थात् तुम मिथिला राज. धानी में जाकर कुंभक राजा से कहो कि साकेताधिपति प्रतिबुद्धि राजा आपकी कन्या मल्ली कुमारी को अपनी धर्मपत्नी बनाना चाहते हैंसो आप इस की स्वीकृति प्रदान करो
(जइ विय णं सा सयं रजसुका) यद्यपि मैं इस बात को जानता हूँ कि वह कन्या राज्य ही है शुल्क जिस का ऐसी है-अर्थात् वह अनु. पम सुशीलादि गुणों से युक्त होने के कारण अपने शुल्कपने से राज्य की अभिलाषा यदि करेगी तो मैं उसे समस्त अपना राज्य भी समर्पित कर दूंगा।
(तएणं से दूए पडिबुद्धिगा रन्ना एवं बुत्ते समाणे हट० पडि सुणेइ ) इस प्रकार राजा का अभिप्राय हृदयंगम कर वह सुबुद्धि अमात्य बड़ा ही अधिक हर्षित एवं संतुष्ट हआ और उस ने मिथिला राजधानी जाना स्वीकार कर लिया। (पडिसुणित्ता जेणेव सए गेहे
અને પ્રભાવતી દેવીના ઉદરથી જન્મ પામેલી કુંભકરાજાની પુત્રી કુમારીની મારી વધૂના રૂપે યાચના કરે, એટલે કે તમે નિથિલા રાજધાનીમાં જઈને કુંભક રાજાને કહે કે સાકેતન અધિપતિ પ્રતિબુદ્ધિ રાજા તમારી પુત્રી મલી કુમારી ને પોતાની વધૂ બનાવવા ચાહે છે તે તમે તેની સ્વીકૃતિ આપે.
(जइवियण सा सयं रज्जमुक्का ) भी भारी अत्यन्त सौ यवती तेम રાજ્ય જેનું શુલ્ક ( કિંમત) છે આવી અદભુત સુશીલ વગેરે ગુણોવાળી કન્યા છે. એ વાત હું સારી પેઠે જાણું છું એટલે કે અનુપમ ગુણવતી મલી કુમારી પિતાના શુલ્ક રૂપે મારા રાજ્યને પણ માંગશે તે હું મારું આખું રાજ્ય તેને સમપિત કરવા તૈયાર છું.
(तएण से दूए पडिबुद्धिणा रन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ट० पडिसुणे) આ રીતે રાજાને અભિપ્રાય હૃદયમાં ધારણ કરીને સુબુદ્ધિ અમાત્ય ખૂબ જ
For Private And Personal Use Only
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
३२०
ज्ञाताधर्मकथाजसत्रे ऽतिशयेन प्रमुदितो भूत्वा प्रतिशृणोति आज्ञामङ्गीकरोति, प्रतिश्रुत्य-स्वीकृत्य. यत्रैव रक्षक गृहं यत्रैव चातुर्धष्टोऽश्वरथो वर्तते तौवोपागच्छति, उपागत्य चातु घण्टमश्वरथ प्रतिवल्पयति-सज्जयति, प्रतिकल्प्य चातुर्घण्टमश्वरथ सज्जीकृत्य दृरुढा-समारूढः सन् यावत्-हयगजमहाभट चटकरेण सहितः साकेतात् साकेतनगराद् निगच्छति, निर्गत्य यौव विदेहजनपदः यौव मिथिलानगरी तत्रव प्रधारयति गमनाय-गंतुं प्रवृत्तः प्रस्थित इत्यर्थः । इति प्रतिबुद्धिनामकस्य राज्ञः सम्बन्धः कथितः ॥ सू०१७॥ जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ ) स्वीकार कर पहिले वह अपने घर गया। __वहां जाकर फिर वह जहां चार घंटो से युक्त अश्वरथ रखा था वहाँ गया ( उवागच्छित्ता चाउरघंटं आसरहं पडिकप्पावेइ ) वहां जाकर उम ने उसे चातुर्धट रथ को अच्छी तरह सज्जित कर वाया (पडि कप्पावित्ता दुरुढे जाव हय गय महया भडचड गरेणं साएपाओ णि. गच्छइ ) जब रथ अच्छी तरह सज्जिन हो चुका तो वह बाद में उस पर आरूढ़ हुआ-और हय, गज, महा भटों के ममूह से युक्त होकर साकेत नगर से बाहिर निकला (णिग्गच्छित्ता जेणेव विदेह जणवए जेणेव मिहिला गयहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए निकल कर फिर वह जहां विदेह जनपद और उम में भी जहां वह मिथिला राजधानी थी उस ओर चल दिया। सूत्र "१७" હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થયું અને તેણે મિથિલા રાજધાની જવાની રાજાની माज्ञा स्वाक्षरी. ( पडिसुणित्ता जेणेव सए गेहे जेणेव चाउग्घटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ ) २०ीरीत सौ पडसा पोताने ३२ गयी.
ઘેર પહોંચીને તે જ્યાં ચાર ઘંટડીઓ વાળે અશ્વરથ મૂકેલે હતું ત્યાં ગયો. ( वागरित्ता चउटे आसरहं पडिकप्पावेइ)
त्यांने तेथे यातुध રથને સારી પેઠે શણગાવ્યું. (पडिकापावित्ता दुरू ढे जाव हयगय महया भडवडगरेणं सोएया पो णिगच्छइ)
જ્યારે રથ સારી રીતે તૈયાર થઈ ગયે ત્યારે તેના પર સવાર થયે અને હાથી ઘોડા મહાભના દળની દ્ધાઓની સાથે સાથે સાકેત નગરથી महा२ नीयो.
(णिगच्छित्ता जेणेव विदेह जणवए जेणेव महिला रायहाणी तेणेव पहारेत्य गमगाए)
નીકળીને તે જે તરફ વિદેહ જનપદ અને મિથિલા રાજધાની હતી ते त२५ गयी. ॥ सूत्र" १७"॥
For Private And Personal Use Only
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम् ३१
मूलम्--तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगनाम जणवए होस्था, तत्थणं चंपा नामं णयरी होत्था, तत्थणं चंपाए नय. रीए चंदच्छाए अंगराया होत्था, तत्थ णं चम्पाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा वहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया, तएणं से अरहन्नगे समणोवासए याविहोस्था अहिगयजीवाजीवे वन्नओ, तएणं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजुत्ता णावावाणियगाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहिआणं इमे एयारूवे मिहो कहासंलावे समुप्पज्जित्था-से यं खलु अम्हं गणिमं धरिमं च मेजं च भंडगं गहाय लवणसमुदं पोतवहणेण ओगाहित्तए त्ति कटु अन्नमन्नं एयमहं पडिसुणति, पडिसुणित्ता गणिमं च ४ गेण्हंति । गेण्हित्ता सगडसागडियं भरेंति, भरित्ता सोहणसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहुत्तसि विपुलं असण०४उवक्खडावेंति मित्तणाइ० भोअणवेलाए भुंजावेंति जाव आपुच्छंति, आपुच्छित्ता सगडिसागडियं जोयंति, जोइत्ता चपाए नगरीए मझ मज्झेणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सगडिसागडियं मोयंति, मोइत्तापोयवहणं सजेति, सजित्ता गणिमस्स य जाव चउठिवहस्स भंडगस्स भरेंति, तंदुलाण य संमियस्स य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरसस्स य उदयस्स उदयमायणाण य ओसहाण य भेसज्जाण य तणस्स य कटस्स य आवरणाण य पहरणाण य अन्नसिं च बनणं पोयवहणपाउग्गाणं दव्वाणं पोयवहणं भरेंति । सोहणंसि
For Private And Personal Use Only
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३२२
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहत्तंसि विपुलं असण४ उवक्खडावेंति, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ० आपुच्छंति, आपुच्छित्ता जेणेव पोयटाणे तेणेव उवागच्छति ॥ सू० १८ ॥
टीका-अथ द्वितीयस्य चन्द्रच्छायनाम्नो नृपस्य संबन्धं प्रस्तौति-'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये अङ्ग नामा जतपद आसीत् । तत्र खलु चम्पा नाम नगरी असीत् तत्र खलु चम्पायां नगर्या चन्द्रच्छायोऽङ्गराज असीत् । तत्र खलु चम्पायां नगर्याम् अरहन्नाप्रमुखाः बहवः संयात्रा नौकावाणिजकाः= संगतायात्रा संयात्रा तत्प्रधाना नौकावाणिजकाः-पोतवणिजः मिलित्वा देशान्तर गामिनो नौकया वाणिज्यकारिणः परिवसन्ति, कथंभूतास्ते इत्याह-आढयाः धन
. 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि।
टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समयमें (अंगनाम जणवए होत्था) अंग नामका जनपद था-(तत्थणं) उस जनपद में (चंपानामं णयरी होत्था) चंपा नाम की नगरी थी (तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगरायो होत्था ) उस चंपा नगरी में चन्द्रच्छाय नाम के अंग देशाधिपति रहते थे।
(तत्थ णं चंपाए नयरोए अरहन्नग पामोक्खा बहवे संजत्ता णावा वणियगा परिवसंति) और उसी चंपा नगरी में अरहन्नक प्रमुख अनेक पोतवणिक् जो साथ २ व्यापार के निमित्त परदेश की यात्रागमना गमन-करते रहते थे। नौकाओं द्वारा जो व्यापार करते हैं वे पोतवणिक कहलाते हैं। (अड़ा जाव अपरिभूया) ये सब धन धान्या
'तेण कालेण तेण समएण' त्याह
टी -(तेण कालेण वेण सणएण) ते ४ाणे मने ते समये ( अंगनाम जणवए होत्या) अनामे ५६ उतुं ( तत्थण) ते पहभi (चपा नाम णयरी होत्था ) नामे नारी उती. ( तत्थण चपाए नयरीए चंदच्छाए भंगराया होत्था) ते या नगरीमा यछाय नामना अधिपति २उता हुता.
( तत्थणं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ताणावा वाणियगा परिवसति)
તે ચંપા નગરીમાં અરહનક પ્રમુખ ઘણા પિતવાણિક-કે-જેઓ વેપાર ખેડવા માટે દેશ પરદેશમાં આવ જા કરતા રહેતા હતા નિવાસ કરતા હતા. नया सेवेपा२ ४२ छ तसा पातपशु उपाय छ ( अडूढा जाव
For Private And Personal Use Only
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
aaranav का अ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
३२३
,
धान्यपूर्णा यावद् अपरिभूताः परैः पराभवितुमशक्याः । ततः = तत्र तेषु खलु सोऽरहन्नकः श्रमणोपासकः श्रावकश्वाप्यासीत्, न केवलं धनधान्यादियुक्तएवासीत् किंतु - आईतागमानुरागी श्रमणानां सेवकचाप्यासीदित्यर्थः । पुनः किं भूतोSसावित्याहsurface - ' : अहिगयजीवाजीवे ' अभिगतजीवाजीवः = जीवाजीवतत्वज्ञः वर्णकः=अस्य वर्णनमन्यत्रोक्तरीत्याऽवगन्तव्यम् । ततः खलु तेषामहरमकममुखाणां संयात्रा नौकावाणिजकानां व्यवसायिकानाम् अन्यदा कदाचित् = एकस्मिन् कस्मिंश्चित् समये, एकतः सहितानाम् = एकत्र संमिलितानां अयमेतद्रूपः- वक्ष्यमा णस्वरूपः, मिथः कथासंलापः परस्परकथालापः समुदपद्यत = अभवत् श्रेयः दि से परिपूर्ण यावत् दूसरों से पराभवितुं अशक्य थे (तपणं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्या) इन में अरहन्नक श्रमणोपासक भी था । केवल यह धन धान्यादि से परिपूर्ण ही नहीं था किन्तु आहेत आगमानुरागी और श्रमण जनों का उपासक भी था ।
( अहितगत जीवोजीवे वन्नओ ) जीव का क्या स्वरूप है, अजीव का क्या स्वरूप है इस बात का यह ज्ञाता था । इस का विशेष वर्णन अन्यत्र किया गया है।
,
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(तएण तेमिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजुत्ता णावा वाणियगाणं अन्नया कयाई एगयओ सहिआणं इमे एयारूवे मिहो कहासंलावे समुप्पज्जित्था ) किसी एक दिन ये अरहन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोतafra किसी कार्य वश जब सब के सब किसी एक स्थलपर एक त्रित हुए तो उन्हों ने परस्पर में वक्ष्यमाण रूप से ऐसा विचार कियाअपरिभूया ) तेथे मघा धन धान्य वगेरे समस्त वैलवाथी संपन्न ता तेभ्यो मघा अपरान्नेय ता. (तरण से अरहम्नगे समणोवासए यावि होत्था) भां એક અરહનક નામે શ્રમણેાપાસક પણ હતા. તે કેવળ ધન ધાન્યથીજ સમૃદ્ધ નહતા પણ તે આત આગમાનુરાગી અને શ્રમણુજનાના સેવક પણ હતા. ( अहित गत जीवाजीवे वन्नओ ) व भने अव स्व३५ विषे ते સંપૂર્ણ પણે જ્ઞાતા હતા. ( આ માખતનું વિશેષ વર્ણન ખીજા સ્થાને કરવામાં मायुं छे.)
(तरणं तेसि अरहनगपा मोक्खाणं संजुत्ता णावा वाणियगाणं अन्नया कयाई एग सहिआणं इमे एयाहवे मिहो कहासंलावे समुपज्जित्था )
એક દિવસે અરહન્નક પ્રમુખ ખધા સાંયાત્રિક પાતવણિક કાઇ સ્થળે એકઠા થયા અને તેઓએ પરસ્પર મળીને આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો.
For Private And Personal Use Only
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकाङ्गसूत्र खलु अस्माकं गणिमं गणयित्वा व्यवहारयोग्यं यथा नालि केरपूगीफलादिकं, परिमं यत् तुलाधृतं व्यवहारयोग्यं भवति तद् धरिमम् , मेयं यत्-सेटिकादिभिर्मीयते तद् मेयम् , परिच्छेचं यत्-गुणतः परिच्छेद्यते परीक्ष्यते वस्त्ररत्नादि, तत् परिच्छेद्यं, च भाण्डकं चतुर्विधं क्रयाणकं गृहीत्वा लवणसमुद्रं पोतवहनेन अवगाहितुम्-उत्तरीतुम् , इति कृत्वा इति निश्चित्य, अन्योन्य-परस्परम् रतमध चतुर्विधं क्रयाणकं गृहीत्वा नौकायानेन लवणसमुद्रसंतरणरूपमर्थ प्रतिशृ. ध्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति । प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य गणिमं च ४ गृह्णन्ति, गृहीत्वा शकटी शाकटिक लघुशकटमहाशकटानां समूहं च सज्जयन्ति-नूतनरज्ज्वायुपकरणैः ( सेयं खलु अम्हं गणिमं, धरिमं, च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुदं पोतवहणेण ओगाहित्तए ) गणिम - गिनती करके व्यवहार योग्य-जैसे नारियल, पूगीफल आदि, धरिम-तुला पर तौलकर व्यवहार योग्य-जैसे सस्यादि, मेय सेटिकादि से प्रमाण कर व्यवहार योग्य, और परिच्छेद्य-गुणसे परीक्षा कर व्यवहार योग्य-जैसे वस्त्र रत्न आदि इन चार प्रकार के क्रयाणक को दो नौकाओंमें भर कर हम लोग पाहर लवणसमुद्रको पार कर चलें-इसमें हम लोगोंको बहुत लाभ होगा।
(त्ति कटु अन्नमन्नं एयमढे पडिसुणति, पडिसुणित्ता गणिमं च ४ गेहंति, गेण्हित्ता सगडसागडियं भरेंति ) इस प्रकार परस्पर विचार कर उन सब ने एक मत हो इस चतुर्विध क्रयाणक को लेकर नौका से लवण समुद्र को पार करने रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया।
( सेयं खलु अम्हं गणिमं, धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुदं पोतवहणेण ओगाहित्तए)
ગણિમ- ગણીને વ્યવહાર (વેપાર) કરી શકાય જેમ કે નારિયેળ, સેપારી, વગેરે ધરિમ–ત્રાજવાં માં જોખીને વ્યવહાર (વેપાર) કરી શકાય જેમકે ધાન વગેરે, મેય-માપના પ્રમાણથી વ્યવહાર (૫૨) કરી શકાય જેમકે તેલ વગેરે અને પરિચ્છેદ્ય-ગુણથી પરીક્ષા કરીને વ્યવહાર કરી શકાય જેમકે વસ્ત્ર રત્ન વગેરે આ ચારે જાતની વસ્તુઓ વિકય માટે બે નૌકાઓમાં લાદીને આપણે લેકે બહાર લવણસમુદ્રને પાર કરીએ તે આપણને ખૂબ લાભ થશે. __ (त्ति कटु अन्नमन्नं एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणित्ता गणिमं च ४ गेण्हंति, गेण्हित्ता सगडसागडियं भरेंति )
આ રીતે ચારે જાતની વેપારની વસ્તુઓ નૌકાઓમાં મૂકીને લવણસમુદ્રને પાર કરવાની બધાએ સર્વસમ્મતિથી સ્વીકારી. અને સ્વીકારીને તેઓએ
For Private And Personal Use Only
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम् ३२५ परिष्कुर्वन्ति, सज्जयित्वा गणिमस्य ४ भाण्डकस्य शकटीशाकटिकं भरन्तिपूरयन्ति । भृत्वा-पूरयित्वा शोभने तिथिकरणदिवसनक्षत्रमुहूर्ते विपुलं-विस्तीर्णम् अशनपानखाद्यस्वाद्यं चतुर्विधमाहारमुपस्कारयन्ति = निष्पादयन्ति । मित्रज्ञातिम. मुखान् भोजनवेलायां भोजयन्ति, यावद् आपृच्छन्ति स्म. अरहन्नक प्रमुखाः संयात्रानौकावाणिजका यात्रावसरे मित्रज्ञातीन् भोजयित्वा वाणिज्यार्थ नौकया समुद्रसंतरणकामास्तान मित्रज्ञातीन् स्वस्वानुमति प्रदानार्थ प्रार्थयन्ति स्मेत्यर्थः। आपृच्छय-संपार्थ्य शकटीशाकटिकं योजयन्ति वृषभैः सह संयोजयन्ति संयोज्य चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन यौव गम्भीरक गम्भीरकाख्यं समुद्रतीरवर्ति पोतस्वीकार कर के फिर उन सबने चारों प्रकार के क्रयाणक को लिया-लेकर उसे नूतन रज्ज्वादि से परिष्कृत की गई गाडी और गाड़ों में भर दिया।
(भरित्ता सोहणंसिं तिहिकरण दिवसनक्खत्तमुहुत्तंसि विपुलं असणं ४ उवक्खडावेंति) भर कर फिर उन्हों ने शुभतिथि, करण दिवस नक्षत्र रूप मुहूर्त में विपुल मात्रा में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार को बनवाया - (मित्तणाइ० भोअणवेलाए भुंजावेंति जाब आपुच्छंति) जब वह बन कर तैयार हो चुका-तो उन्हों ने अपने २ मित्र, ज्ञाति आदि परिजनों को भोजन के अवसर पर भोजन करवाया और फिर उन से पूछा-हम लोग बाहर व्यापार के लिये जाना चाहते हैंइसलिये आप लोग इस विषय में अपनी २ अनुमति प्रदान करें-इस तरह उन से प्रार्थना की- ( अपुच्छित्ता) पूछ कर (सगडसागडियं जोयंति, जोइत्ता चपाए नयरीए मज्झमझेणं जेणेव गंभीरए पोय ચારે જાતની વેચાણની વસ્તુઓને નવા દેરડાઓવાળી ગાડી તેમજ ગાડાઓમાં મૂકી. (रित्ता सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तसि विपुलं असणं४ उवक्खडावेति)
ભરીને તેઓએ શુભતિથિ, કરણ, નક્ષત્રરૂપ મુહૂર્તમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય આમ ચારે જાતના આહાર પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવડાવ્યા. (मित्ताणाइ ० भोअणवेलाए भुजावें ति जाव आपुच्छंति) न्यारे माडा२ तैयार થઈ ગયે ત્યારે તેઓએ પોતાના મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનેને જમવામાટે બેલાવીને જમાડયા અને જમ્યા પછી તેમને તેઓએ પૂછયું “ અમે બધાં વેપાર ખેડવા માટે બહાર જવા ઈચ્છીએ છીએ ”
એથી તમે બધા અમને અનુમતિ આપે. આ રીતે તેઓએ તેમને વિનંતી ४३०. ( आपुच्छित्ता) मा मेजवान.
( सगडसागडियं जोयंति जोइत्ता चपाए नयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव
For Private And Personal Use Only
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्भकथागसूत्र पत्तनंम्पोतनगरं नौकारोहणस्थानं वर्तते तौवोपागच्छति, उपागत्य शकटीशाकटिकं मुञ्चन्ति, शकटीशाकटिका समूहावस्थितं क्रयाणकादिकं सर्व वस्तु जातमवतारयन्ति, मुक्त्वा सर्व वस्तुजातं शकटेभ्योऽवतार्य पोतवहनं-नौकायानं सज्जयन्ति यथोचितनूतनोपकरणैः परिष्कृत्य दृढ़ीकुर्वन्ति, सज्जयित्वा परिष्करणेन दृढ़ीकृत्य गणिमस्य च यावच्चतुर्विधस्य भाण्डकस्य-क्रयाणकस्य भरन्ति-गणिमादि चतुर्विधक्रयाणकस्य स्थापनेन नौकायानं पूरयन्ति स्मेत्यर्थः । तण्डुलानां च समितस्य गोधूमस्य गोधूमचूर्णनिष्पन्नपकान्नविशेषस्य च तैलकस्य च गुडस्य च घृतस्य च गोरसस्य च उदकस्य च उदकभाजनानां च औषधानां-त्रिकटुकादीनाम् पट्टणे तेणेव उवागच्छंति ) फिर उन्हों ने क्रयाणको से भरी हुई गाड़ी
और गाड़ों को जुत वाया-जुतवो कर फिर वे सब के सब चंपा नगरी के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर जहां गंभीरक नाम का जहाज पर सवार होने का स्थान ( बंदरगाह ) था वहां पर आये। . (उवागच्छित्तो सगड़ सागडियं मोयंति, मोइत्ता पोयवहणं सज्जेति सज्जिसा, गणिमस्स य जाव चउन्विहस्स भंडगस्स भरेंति ) वहां आकर उन लोगों ने अपनी २ गाड़ियों और गाड़ों को ढील दिया ढीलकर पोत यानों को सज्जित कियो-यथोचित नूतन उपकरणों से दृढ़ किया। सज्जित करके फिर बाद में उस चतुर्विध गणिमादि रूप क्रयाणक को गाडियों और गाड़ों पर से उतार २ कर नौका यान में यथोचित स्थान पर भर दिया (तंदुलाणय संभियस्स य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरयस्स य उदयस्स य उदयमाणाण य ओसहाण य भेसज्जागंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति )
તેમને વેચાણને માલસામાનથી ભરેલી ગાડી અને ગાડાને જોતર્યા અને ત્યાર પછી તેઓ બધાં ચંપા નગરીની બરાબર વચ્ચોવચન માગથી પસાર થઈને જ્યાં ગંભીરક નામનું વહાણ પર બેસવાનું સ્થાન (બંદર) હતું ત્યાં પહોંચ્યા. __(उवागच्छित्ता सगडसागडियं मोयंति इित्ता पोयवहणं सज्जेति, सज्जित्ता गणिमस्स य जाव चउनिहस्स भंडगस्स भरेंति )
ત્યાં પહોંચીને તે એ પિતાની ગાડીઓ તેમજ ગાડાંઓને છેડીને યાચિત નવીન ઉપકરણથી વહાણ તૈયાર કર્યું. વહાણને સુદૃઢ રીતે તૈયાર કરીને તેઓએ ગાડી તેમજ ગાડાંઓની વેચાણની બધી વસ્તુઓ વહાણુમાં યથાસ્થાને ગોઠવી દીધી.
( तंदुलाण य संभियस्स य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरयस्स य उदयस्स य उदयमाणाण य ओसहाण य भेसज्माण य त गस्स य, कटुस्स य आव
For Private And Personal Use Only
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरितनिरूपणम् अथवा-एकद्रव्यरूपाणां च भैषज्यानां पथ्यानामाहारविशेषाणाम् अथवा द्रव्यसंयोगरूपाणाम् च तृणस्य च काष्ठस्य च आवरणानाम् अङ्गरसकादीनां च पहरणानां च खगादिशस्त्राणां अन्येषां च बहूनां पोतवहनमायोग्याणां नौकायानोपनेयानां द्रव्याणां स्थापनेन पोतवहनं-नौकायानं भरन्ति पूरयन्ति स्म । शोभने-शुभावहे, णय तणस्स य, कट्ठस्स य आवरणाण य पहरणाण य अन्नेसिं च षहणं पोयवहणपाउग्गाणं वाणं पोयवहणं भरेंति ). ___नौका यान में उन्हों ने चावलों को भरा, गेहुओं को भरा, गेहुओं के आँटे को और आटे से निष्पन्न पक्वान्न विशेषको भरा । तैल, गुड़ घृत गोरस भरा पानी भरा पानी के वर्तनों को भरा। त्रिकुट आदि औषधियों को भरा पथ्याहार विशेष भैषज्यों को भरा, तृणों को भरा लकड़ियों को भग अंगस्स आदि आवरणों को, खड्ग, आदि शस्त्रों को तथा और भी अनेक वस्तुओं को जो पोत वहन के योग्य थी भरा। ___ इस तरह उन्हों ने इन समस्त वस्तुओं को यथोचित स्थान पर स्थापित उस नौका यान को भर दिया। यहां पर जो औषध और भैषज्य ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं उन से ऐसा भी अर्थ बोध होता है कि त्रिकूट आदि जो अलग २ द्रव्य हैं वे औषध और इन का समुदाय रूप जो द्रव्य है-जैसे चूर्ण आदि वह भैषज्य है। "पोयवहणपाउ. गाणं " पद का यह अर्थ है कि जो द्रव्य नौका द्वारा अच्छी तरह ढोयाजा सके वह सब उन्हों ने उस में भर दिया । ( सोहणंसि तिहि करण रणाण य, पहरणाण य, अन्नेंसि च बहणं पोयवहणयाउग्गाणं दव्वाणं पोयवहणं भरेंति )
તેમણે ચેખા, ઘઉં, ઘઉલટ તેમજ ઘઉંના લેટથી બનાવવામાં આવેલું ५४वान्न विशेष, तेस, घी, सारस, पी, पी मरवाना पास।, ત્રિકૂટ વગેરે ઔષધીઓ, પચ્યાહાર વિશેષ ભૈષજ્ય, ચારે, લાકડાં, અંગરસ વગેરે આવરણ, ખડગ વગેરે શસ્ત્રો અને બીજી પણ ઘણી વહાણ માં લઈ જવા ગ્ય બધી વસ્તુઓ વહાણમાં લાદી
આ પ્રમાણે તેમણે બધી વસ્તુઓને યથાસ્થાને ગોઠવીને વહાણને સામાनथी मरी हाधु. मडी ५२ Aषस्य' भने 'मोषध' मारे शह। પ્રયુક્ત થયા છે તેથી અહીં આ પ્રમાણે પણ અર્થ થાય છે કે ત્રિકુટ વગેરે જે જુદા જુદા દ્રવ્યો છે તે ઔષધ અને આ બધાને એકઠાં કરવાં જેમકે यूथ वगैरे ते पाय छ“ पोयवहणपाउग्गाण" पहने। अर्थ ॥ प्रभारी छ કે જે દ્રવ્ય નૌકાવડે સારી રીતે લઈ જઈ શકાય તે બધું તેમણે તેમાં ભર્યું હતું.
For Private And Personal Use Only
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे तिथिकरण दिवस नक्षत्रमुहूर्ते विपुलं-विस्तीर्णम् , अशनपानवायस्वाद्य-चतुर्विधमाहारमुपस्कारयन्ति-संपादयन्ति, उपस्कार्य मित्रज्ञातिप्रमुखान् भोजयित्वाऽऽपृ. च्छन्ति, समुद्रयात्रानुमतिप्रदानार्थ प्रार्थयन्ति आपृच्छय यत्रैव पोतस्थान नौकायानारोहणस्थानं वर्तते तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च तत्र स्थिताः ।।मु० १८॥ ____ मूलम्-तएणं तेसिं अरहन्नग जाव वाणियगाणं परियणा जाव तारिसेहिं वग्गूहिं अभिणंदंता य अभिसंथुणमाणा य एवं वयासी-अज ताय भाय माउल भाइणजे भगवया समुद्देणं अभिरक्खिजमाणा २ चिरजीवह भदं च भे पुणरवि लद्धटे कय. कजे अणहसमग्गे नियगं घरं हवमागए पासामोत्तिकटु ताहिं सोमाहि, निद्धाहिं दीहाहिं, सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरीक्खमाणा मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठति तओ समाणिएसु पुष्फबलिकम्मे दिन्नेसु सरसरत्तचंदणददर पंचंगुलितलेसु, अणुक्खिदिवसनक्खत्तमुहुत्तंसि विपुलं असण४ उवक्खड़ाति, उवक्खड़ावित्सा, मित्राणाई आपुच्छंति, आपुच्छित्ता जेणेव पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति) जब सब प्रकार का चतुर्विध क्रयाणक नौकायान में भरा जा चुका तब पुनः उन लोगों ने अशनादि रूप चतुर्विध आहार निष्पन्न करवाया,
और करवा कर अपने २ मित्र ज्ञाति आदि परिजनों को जिमाया जिमा कर उन से समुद्रयात्रा कर ने की अनुमति मांगी-और मांग कर फिर वे सब के सब पोत वणिक जहां नौका पर चढने का स्थान था वहां आये-और आकर वहाँ ठहर गये। सूत्र “१८ (सोहणंसि तिहिकरणदिवसनक्वत्तमुहुत्तसि विपुलं असण ४ उपक्खडावेंति, उव. क्खडावित्ता, मित्तणाई आपुच्छंति,आपुच्छित्ता जेणेव पोयट्ठाणे तेणेर उवागच्छति
- જ્યારે ચારે જાતની વેચાણ કરવાની વસ્તુઓ જહાજમાં ભરાઈ ગઈ ત્યારે તેમણે અશન વગેરે ચારે જાતને આહાર તૈયાર કરાવડાવ્યું અને કરાવડાવીને પિતાપિતાના મિત્ર જ્ઞાતિ વગેરે પરિજનોને જમાડયા અને જમા ડિીને તેમની પાસેથી સમુદ્રયાત્રા કરવાની આજ્ઞા માગી અને આજ્ઞા મેળવીને તેઓ બધા પિતવણિકે જ્યાં વહાણમાં બેસવાનું થવાનું સ્થાન હતું ત્યાં भाव्या भने त्यो भावीन ते मया त्या आया. ॥ सूत्र “१८"॥
For Private And Personal Use Only
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ भङ्गराजचरित्रनिरूपणम् ३२९ तंसि धूवंसि पूइएसु समुद्दवाएसु, संसारियासु, बलयवाहासु ऊसिएसु सिएसु झयग्गेसु, पडुप्पवाइएसुतूरेसु,जइएसु सबस. उणेसु, गहिएसु रायवरसासणेसु, महया उकिट्रिसीहणाय जयरवेणं पक्खुभितमहासमुद्दरवभूयं पिव मेइणिं करेमाणा एगदिसिं संजुत्ता नावा वाणियगा णावं दुरूढा ।
तओ पुस्समाणवो वकमुदाहु-हंभो सम्वेसिमविभे अस्थ सिद्धीओ उवाहिताई कल्लाणाइं, पडिहयाइं सव्वपावाई, जुत्तो पूसो विजओ मुहुत्तो अयं देसकालाओ, तओ पुस्समाणवेणं वक्के उदाहिए हतुहा कुच्छिधारकन्नधारगभिजसंजाता णावा वाणियगा वावारिसु तं नावं पुन्नुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणेहिंतो मुंचंति ॥ सू० १९ ॥ ___टीका-'तएणं तेसिं ' इत्यादि-ततस्तदनन्तरं खलु तेषामरहन्नक प्रमु खाणां यावत् नौकावाणिजकानां परिजना यावत् तादृशीभिर्वाग्भिरभिनन्दन्तश्चामि संस्तुवन्तवैवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादिषुः-हे आर्य ! =हे पितामह ! तात ! हे पितः हे मातुल ! हे भागिनेय ! भगवता महता समुद्रेण ' अभिरखिज्जमाणा '२ अभि
. 'तएणं तेसिं अरहन्नग जाव' इत्यादि । ... टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (अरहन्नग जाव वाणियगाणं परियणा जाव तारिसेहिं वग्गूहिं अभिणंदंता य अभिसंथुणमाणा य एवं वयासी) उन अरहन्नक यावत् अन्य और पोतवणिजों के परिजनों ने यावत् उस २ प्रकार की वाणियों द्वारा उन सबका अभिनन्दन एवं संस्तवन करते हुए उन से इस प्रकार कहा- (अज्ज ! ताय ! भाय ! माउल ! भाइणज्जे ! भगवया समुद्देणं अभिरखिज्जे माणा २ चिरं जीवह भई
'तएण तेसिं अरहन्नग जाव' त्यात
साथ-"तएण" त्यांच्या “ अरहन्नग जाव वाणियगाण परियणा जाव तारिसेहिं वग्गूहि अभिण'दंताय अभिसंथुणमाणाय एवं वयासी" ते मन प्रभुम પિતવણિકના પરિજને તેમનું અનેક જાતની મંગળવાણી વડે અભિનંદન भने सस्तवन ४२तां तभने ४ा साश्या. ( अज्ज ! ताय ! भाय ! माउल ! भणिज्जे भगवया समु ण अभिरक्खिज्जेमाणा२ चिरंजीवह भई च ते) माय !
For Private And Personal Use Only
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथास रक्ष्याघमाणाः२=सुरक्ष्यमाणाः२ चिरं बहुकालं जीवत, भद्रंच युष्माकं भवतु पुनर पि लब्धार्थान् लब्धलाभान् कृतकार्यान् सम्पादितसकलकृत्यान् अनघसमग्रान्= अनघाच ते समग्राः अनघसमग्रास्तान् दोषरहितत्वादनघाः, धनेषु परिवारेषु च हासाभावात्. समग्राः तथाविधान् युष्मान् निजक-स्वकीयं, गृहं हव्यमागतान शीप्रमागतान् वयं पश्यामः, इतिकृत्वा इत्युक्त्वा ताभिः सौम्याभिनिर्विकारत्वात्, स्निग्धाभिः सस्नेहवात्, दीर्घाभिः दूरं यावदवलोकनात् — सप्पिवासाहिं ' सपिपासाभिः-दशनेच्छावतीभिः, 'पप्पुयाहिं ' प्रप्लुताभिः अश्रुपूर्णाभिः, दिट्ठीहिं' दृष्टिभि निरीक्षमाणा अवलोकमानाः मुहूर्तमानं संतिष्ठन्ते अरहन्नादीनां परिजना अश्रुपूर्णदृष्टिभिस्तान पश्यन्तोमुहूर्तमानं निश्चला अभूवन्नित्यर्थः । ततः 'समाणिएसु' समापितेषु सम्यक् संपादितेषु पुष्पवेलिकर्मसु पुष्पाक्षतच भे) हे आर्य ! हे तात ! हे भ्रातः ! हे मामा! हे भोगिनेय ! आपलोग इस भगवान् विशाल समुद्र से यार सुरक्षित होते हुए चिरकाल तक जीवित रहें। आप सबका कल्याण हो। ( पुणरवि लढे, कय कज्जे, अणहसमग्गे नियगं घरं हव्वमागए पासामो) हम लोग लाभ से युक्त सम्पादित सकल कार्यों वाले विना किसी शारीरिक आदि बाधा से रहित धन और परिवारों से परिपूर्ण हुए आप सब को घर पर शीध्र आया हुआ देखें । (त्ति कटु) ऐसा कह कर वे वहां-(ता हिंसोमाहिं निद्धाहिं, दीहाहिं, सप्पिवासाहि, पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरीक्खमाणा मुहत्तमेत्तं संचिटंति ) सौम्य स्निग्ध, दीर्घ, दर्शनेच्छावती और अश्रुपूर्ण दृष्टियों से उन्हें देखते हुए एक मुहूर्त तक बैठे रहे । (तओ समाणिएसु पुष्फक्लकम्मेसु दिन्नेसु सरसरत्तचंदणदद्दर, पंचंगुलितलेसु, अणुक्खित्तंसि હતાત! હે ભાઈ! હે મામા ! હે ભાણેજ ! તમે બધા આ ભગવાન વિશાળ સમુદ્રવડે વારંવાર સુરક્ષિત થઈને ચિરકાળ સુધી જીવતા રહો. तमा ध्यान थामी “पुणरविलद्धटे, कयकज्जे, अणहसमग्गे नियग धरं हव्वमोगए पासामो" म मा तभन सामन्वित थये, मधा अयान પાર પમાડનારા, કોઈ પણ જાતની શારીરિક મુશ્કેલી વગર એટલે કે સ્વસ્થ શરીરવાળા, ધન તેમજ પરિપૂર્ણ પરિવારથી યુક્ત થઈને ઘેર પાછા આવેલા नय."तिकट्ट" माम हीन तसा त्यां.
(ताहिं सोमाहिं निद्धाहिं दीहाहि, सपिवासाहिं पश्याहिं, दिट्ठीहिं निरीपखमाणा मुद्दुत्तमेत्तं संचिट्ठति )
સભ્ય, નિગ્ધ, બહુવખત સુધી દર્શનની ઈચ્છાવાળી અને આંસુ ભીની દષ્ટિએથી તેમને જેતા એક મુહૂર્ત સુધી બેસી રહ્યા. (तो समाणिए मथुप्फ बलिकम्मेसु दिन्नेस सरसरत्तचंदणदइरपंचंगलि तलेसु,
For Private And Personal Use Only
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
३३१
दानादिकर्मसु तथा - सरसरक्तचन्दन दर्दर पञ्चाङ्गुलितलेषु सरसरक्तचन्दनस्य दर्द - रेण चपेटाssकारेण पञ्चाङ्गुलितलेषु करतलाङ्कनेषु दत्तेषु परीधानीयेषु उत्तरीयेषु वस्त्रेषु च सरसरक्तचन्दनानुलिप्तकरतलमुद्रणेषु कृतेष्वित्यर्थः । अनूत्क्षिप्ते=अनुपश्रात् ऊर्ध्वक्षिप्ते पे गुग्गुलादि धूमे कृते सति, पूजितेषु = धूपादिना संमामितेषु समुद्रवातेषु समुद्रसम्बन्धिपवनेषु, तथा संसारितेषु स्थानान्तरादानीय यथोचित स्थाने निवेशितेषु वलयवाहुषु दीर्घकाष्ठरूपेषु बाहुषु तथा उच्छ्रितेषु उर्ध्वमुखमवस्थापितेषु सितेषु शुक्लेषु ध्वजार्येषु पताकाग्रेषु तथा-पटुवादितेषु पटुभिः पुरुषैः प्रवादितेषु यद्वा-पटु यथा भवति तथा प्रवादितेषु तूर्येषु वाद्येषु तथा जयिकेषु जय कारकेषु सर्वशकुनेषु = वायसरुतादिषु तथा गृहीतेषु = प्राप्तेषु राजवरशासनेषु = समुद्रयात्रार्थं चम्पानगरी भूपस्याऽऽज्ञापत्रेषु तथा महोत्कृष्ट सिंहनाद
"
धूवंसि, पूइएस समुद्दवाएस संसारियासु वलयवाहासु, उसिएस सिएसुझयग्गे, पडुप्पवाइएस तूरेसु जइएस सव्वसउणेसु, गहिएस रायवर सासणे ) इसके बाद पुष्प अक्षत दानादिक कर्म जब समाप्त हो चुका, परिधानीय वस्त्रों पर सरस रक्त चंदन के चपेटा कार से हाथे जब लगाये जा चुके, गुग्गुल आदि धूप अग्नि में डालकर जब उस का धूम किया जा चुका समुद्रीय हवाए जब धूपादि प्रदान द्वारा पूजित की जा चुकी दीर्घ काष्ट रूप वलय ( पतवार ) स्थानान्तर से लाकर जब यथोचित स्थान पर रखे जा चुके, शुभ्र ध्वजाओं के अग्रभाग जब उर्ध्वमुख कर अवस्थापित हो चुके, चतुर बजाने वालों के द्वारा जब अच्छी तरह बाजे बजाये जा चुके जय कारक वायसरुतादि रूप सर्व शकुन जब अच्छी तरह से हो चुके और समुद्र यात्रा करने का आदेश पत्र जब चंपा नगरी के राजा का प्राप्त हो चुका तब (महया उक्कट्ठसी. अणु क्वित्तंसि धूर्वसि पूएस समुदवाए संसारियासु वलयवाहासु उसिएस सिएस झग्गे पडुपवाइएस तूरेसु जइएस सन्न सउणे गहिएस रायवरसासणेसु ) ત્યાર બાદ પુષ્પ અક્ષત દાન વગેરે ની વિવિધ પ્રીથઈ ગઈ, પરિધાનીય વઓ ઉપર સરસ લાલ ચંદનના થાપાએ લગાવી લીધા, ગૂગળ વગેરે ધૂપ અગ્નિમાં નાખીને ધૂપ કરી લીધે, ધૂપ વગેરે અર્પીને સમુદ્રના પવનાની અર્ચનાનું કામ પુરૂં થઇગયું, ખીજા સ્થાનેથી દી કાષ્ઠરૂપ વલય એટલે કે સૂકાન વગેરે વહાણ ઉપર યથાસ્થાને મુકાઇ ગયા, શુભધ્વજાઓના અગ્રભાગ જ્યારે સુખના રૂપે અવસ્થાપિત થઇ ગયા, કુશળ વાજાવાળાએ વડે સરસ વાજા વગાડવાનું કામ પતિ ગયું', જય પમાડનારા કાગડા વગેરે પક્ષી આના માંગલિક શબ્દો એટલે કે સારા શુકન થઈ ગયા અને ચંપાનગરીના રાજા પાસેથી સમુદ્રયાત્રા કરવાના પરવાના “ આદેશ પત્ર ” તેમની પાસે આવી ગયા ત્યારે.
"
For Private And Personal Use Only
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३३३
शाताधर्मकथासूत्र जयरवेण उच्चस्वरयुक्त जथ जय वनिता प्रक्षुभितमहासमुद्ररवभूतामिव वायु प्रक्षोभजनितमहासागरध्वनिव्याप्तामिव मेदिनी = पृथविं प्रचुरनादवती कुर्वाणा एकदिर्श एकस्यां दिशि संयात्रानौका वाणिजका नावं नौकायानं दूरूढाः आरोहंति स्म ।
ततस्तदनन्तरं 'पुस्समाणवो' पुष्पमानवः-मागधो मङ्गलपाठकः 'वक्कमदाहु' वाक्यमुदाह-मङ्गलवचनमुक्तवान् तदाह-हंभो इत्यादि हे नौकायात्रिकाः 'सव्वेसिमविभे' सर्वेषामपि युष्माकम् अर्थसिद्धयो भवतु, उपस्थितानि कल्याणानि भवन्तु तथा प्रतिहितानि सर्वपापानि भवन्तु सर्वविघ्नाः प्रतिहता विनष्टा भवन्त्वित्यर्थः । ' जुत्तो' युक्तः 'पूसो ' पुष्पः पुष्पाख्यो नक्षत्रविशेषः अनूकूलेन चन्द्रमसा युक्त इत्यर्थः । पुष्पनक्षत्रं यात्रायां प्रशस्तम् तथ चोक्तंहणायजयरवेणं पक्खुभित्तमहासमुहरवभूयंपिव मेइणि करेमाणा ) उत्कृष्ट सिंहनाद जैसी जय जय ध्वनि से वायु के प्रक्षोभ से जनित महासागरकी ध्वनि से व्याप्त हुई की तरह मेदनी को करते हुए (संज्जुसा नावा वाणियगा एगदिसिं णावं दुरूढा ) वे सांयात्रिक पोत वणिक् नोव पर सवार हुए। ___ (तओ पुस्समाणवो वक्कमुदाहु ) इतने में ही मंगल पाठक-चारण-ने मंगल ध्वनि की (हंभो सन्वेसिं भविभे अथसिद्धीओ उवहि ताई कल्लाणाई, पडियाई सव्व पावाई, जुत्तो पूमो, विजओ मुहुत्तो अयंदेसकालो ) हे हे नौका यात्रिकों ! आप सब को अर्थ की सिद्धि हो, सब कल्याण आपके लिये सदा उपस्थित रहें, समस्त प्रकार के विघ्न आपकी इस मांगलिक यात्रा में नाश हों पुष्प नक्षत्र का अनुकूल चन्द्रमा के साथ योग रहा है यात्रा में पुष्प नक्षत्र का योग प्रशस्त होता (महया उक्किठसीहणायजयरवेणं पक्खुभित्तमहासमुद्दरवभूय पित्र मेइणि करेमाणा)
પવનથી-ક્ષુબ્ધ મહાસાગરના સર્વત્ર વ્યાપ્ત થયેલા અવનીની જેમ સિંહનાદ ज्य य पनिथी पृथ्वीने शहि ४२ता (सुज्जुत्तानावा वाणियगा एगदिसिंणावं दुरूढा) ते समये मालिस मेटले 3 या२णे. मे म पनि यो:
(भो सव्वेसिमविभे अत्थसिद्धीओ उवहिताई कल्लाणाई पडियाई सव्वपावाई, जुत्तो पूसो विजओ मुहुत्तो अयंदेसकालो )
હે પિતવણિકે ! તમને બધાને અર્થની સિદ્ધિ થાય તમને સદા કલ્યાણ પ્રાપ્ત થાઓ, મંગળયાત્રાના તમારા બધા વિનાશ પામો અત્યારે ચન્દ્રની સાથે પુષ્ય નક્ષત્રને અનુકૂળ યંગ થઈ રહ્યો છે. ( યાત્રામાં પુષ્ય નક્ષત્રને યોગ
For Private And Personal Use Only
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
अपि द्वादशमे चन्द्र पुष्यः सर्वार्थसाधनः ॥ इति ॥
विजयो मुहूतोऽधुना विद्यते, अयं देशकाला समयः प्रस्थाने शुभावह इत्युक्तं-मागधेन । ततस्तदनन्तरं 'पुस्समाणवेणं' पुष्यमानवेन मागधेन ' बक्के' वाक्ये माङ्गलिकवचने, ' उदाहिए' उदाहृते उक्ते सति हृष्टतुष्टाः अतिशयेन प्रमुदिताः 'कुच्छिधारकन्नधार गन्भिज्ज संजत्ताणाावावाणियगा' कुक्षिधार कर्णधार गर्भज संयात्रा नौवाणिजकाः कुक्षिधाराः नौकायाः पार्श्वतो नियोजिता सञ्चालकाः, कर्णधारः नाविकाः प्रधानभूता नौकावाहकाः, गर्भजाः नौमध्ये स्थित्वा यथावसरकार्यकर्तारः, संयात्रा: संगताः संमिलिताः सन्तो देशान्तरगामिनः, नौ वाणिजकाः नौकया वाणिज्यकारिणः भाण्डपतयः सर्वएते व्यापृतवन्तः स्व स्त्र व्यापारे प्रवृत्ताः सन्तः, तां नावं पूर्णोत्सङ्गां विविधक्रयाणकजातैः है-उक्तश्च अपि द्वादशमे चन्द्रे पुष्यः सर्वार्थसाधन : । इस समय विजय मुहर्त वर्त रहा है। प्रस्थान के लिये यह समय शुभावह हैं । (तओ पुस्समाणवेणं वक्के उदाहिए हट्ट तुट्ठा कुच्छिधारकन्नधारगन्भिज संजात्ता णावा वाणियगा वावारिसु ) इस तरह पुष्प मानव-चारण जब मंगल ध्वनि कर चुका-तब हर्षित और संतुष्ट हुए कुक्षिधार-नौका के पार्श्व में नियोजित किये गये संचालक जन, कर्णधार-खेवटियाजन, गर्भज-नौका के भीतर बैठ कर अवसरानुकूल कार्य कर्ता जन, और सांयात्रिक जन-मिलकर परदेश जाने वाले पोतवणिक् कि जिन का क्रयाणक नौका में भरा हुआ था-ये सब के सब अपने २ व्यापार-कार्य में प्रवृत्त हो गये (तं नावं पुन्नुच्छंगं पुण्ण मुहिबंधणेहिंतो मुंचंति ) और उस नौका को कि जिस को मध्यभाग विविध क्रयाणकों से पूर्ण प्रशस्त हाय छ-५ - ' अपिद्वादशमे चन्द्रे पुष्यः सर्वार्थसाधनः"). અત્યારે વિજયના મુહૂર્તનો સમય ચાલી રહ્યો છે. પ્રસ્થાન માટે અત્યાર ને વખત શુભાવહ છે.
(तओ पुस्समाण वेणंक के उदाहिए हद्वतुट्टा कुच्छिधारकन्नधार गम्भिज्ज संजात्ता णावावाणियगा वावारिसु)
આરીતે જ્યારે પુષ્પમાન–ચરણે–ને મંગળ પાઠ થઈ ચૂકે ત્યારે હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થયેલા કુક્ષિધાર-નૌકાના પાર્વભાગમાં નિયુક્ત કરાયેલા સંચાલકે, કર્ણધાર–નૌકાચલાવનારાઓ, ગર્ભજ-નૌકાના અંદરના ભાગમાં બેસીને અવસરાનુકૂળ કામ કરનારાઓ અને સાંયાત્રિકજને–વેપારીઓ-કે જેમની વસ્તુઓને નૌકામાં લાદેલી હતી, પિતતાના કામમાં વળગી ગયા. (तं नावं पुन्नुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणेहिं तो मुचंति ) । અને જેના વચ્ચેના ભાગમાં અનેક જાતની વેચાણની વસ્તુઓ ભરેલી
For Private And Personal Use Only
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
.
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वाताधर्मकथासू
संभृतान्तराला, पूर्णमुखीं यथोचितसंभृताग्रभागां बन्धनेभ्यः तीरस्थशङ्कुबद्धरज्जुबन्धनग्रन्थिमुन्मुच्य मुञ्चन्ति = विसर्जयन्ति ।। सू० १९ ॥
मूलम् तपणं सा नावा विमुक्कबंधणा पवणबलसमाहया उस्सियसिया विततपक्खा इव गरुडजुवई गंगासलिलतिक्खि सोय वेगेहिं संखुब्भमाणी २ उम्मीतरंगमालासहस्साइं समइच्छमाणी २ कइव एहिं अहोरत्तेहिं लवणसमुहं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढा, तरणं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजात्तामावावाणियगाणं लवणसमुद्रं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूई उप्पाइयसयाई पाउब्भूयाई, तं जहा - अकाले गजिए अकाले त्रिज्जुए अकाले थणियसदे, अभिक्खणं२ आगासे देवयाओ नच्चंति, एगं च णं महं पिसायरूवं पासंति, तालजंघ दिवंगयाहि बाहाहि मसिमूसगमहिसकालगं भरियमेहवन्नं लंबोट्टं निग्गयग्गदंतं निल्लालियजमलजुयलजीहं आऊसियवयणगडदेसं चीणचिविटनासियं विगयभुग्गभुमयं खज्जोयगदित्तचकखुरागं उत्तासगं विसालवच्छं विसालकुच्छि पलंब कुच्छि पहसियपयलियपयीडयगतं पणच्चमाणं अप्फोडतं अभिवयंतं अभिगतं बहुसो २ अट्टहासे विणिम्मुयंतं नीलुप्पलगवल
भरा हुआ था तथा अग्रभाग भी जिस का यथोचित अनेक प्रकार की संचालन सामग्री से व्याप्त हो रहा था तीर पर की कील में बंधी हुई रस्सी के बंधन को खोलकर छोड़ दिया। सूत्र " १९ "
હતી અને અગ્રભાગમાં યથેાચિત જાતજાતની સંચાલન સામગ્રી ભરેલી હતી એવા વહાણને કિનારા ઉપર ના થાંભલાનું બંધન ખેાલીને મુક્ત કરવ1માં भा० ॥ सूत्र ॥ २० ॥
"
For Private And Personal Use Only
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनमारधर्मामृतवर्षिणी टीका २०८ मङ्गराजचरिते ताल पिशाचवर्णनम्
गुलिय अयसिकुसुमप्पगासं खुरधारं असिंगहाय अभिमुहमावयमाणं पासंति ॥ सू० २० ॥
३३५
टीका- ' तर सा' इत्यादि - ततस्तदनन्तरं खलु सा नौ विमुक्तबन्धना बन्धनरहिता पवनबलसमाहता = वायुवेगमेरिता ' उस्सियसिया' उच्छ्रितसितपटा नौकायां वायुसंग्रहार्थे बृहद्वस्रमुच्छ्रितं कृत्वा निवध्यते, उच्छ्रितशुक्लप टेन सा नौ की शीत्याह - ' विततपवखा इव गरुडजुवई ' विततपक्षेव गरुडयुवतिः विततपक्षा-प्रसारितपक्षा गरुडभार्या गगने गच्छन्ती यथा भवति तद्वदित्यर्थः, गङ्गासलिलतीक्ष्णस्रोतोवेगैः गङ्गाजलस्य ये तीक्ष्णास्तीत्राः स्रोतोवेगाः = प्रवाहवेगास्तैः संक्षुभ्यन्ती र प्रेर्यमाणा २ समुद्र प्रतीति भावः, 'उम्मीतरङ्गमालासहस्साई ' ऊर्मितरङ्गमालासहस्राणि ऊर्मयो महाकल्लोला बृहत्तरङ्गाः, तरङ्गाः=हस्वकल्लोलाः लघुतरङ्गास्तेषां माला आवलयः तासां सहस्राणि, समतिक्रामन्ती २ समुत्तरन्ती २ कतिपयैर्बहुभिरहोरा दिवस रात्रिभिश्व लवणसमुद्रं अनेकानि योजनशतानि
'तपूर्ण सा नावा ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (तरणं ) इस के बाद (विमुक्क बंधणा) बन्धन से विमुक्त हुई (सा नावा) वह नौका (पवणबलसमाहया) वायु के वेग से प्रेरित होकर ( गंगासलिलतिक्ख सोयवेगेहिं संखुग्भमाणी २ ) गंगा जल के प्रवाह वेगों से बार २ इधर उधर क्षुभित होती हुई ( उस्सियसिया ) अपने ऊपर वायु संग्राहार्थ बांधे गये शुभ्रवस्त्र से ( वितत पक्खो गरुड जुवईइव ) पांखों को पसार कर आकाश में उड़ती हुई गरु युवती के जैसी प्रतीत होने लगी । (उम्मीतरंग मालासहस्साई समइच्छमाणी २ कइव एहिं अहारतेंहिं लवण समुहं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढा)
agot an a' Scaife.
टीडार्थ - (तरण) त्यार आहे (विमुक्कव 'घणा) मंधन मुक्त थयेलुं (सा नवा ) तेवडा ( पवणत्रलसमाया ) पवनना आधातोथी प्रेरित थाने ( गंगासलिलतिखसोय वेगेहिं सखुब्भमाणी ) गंगाना तीव्रप्रवाहथी क्षुमित श्रुतुं. ( इस्सियसिया ) पवन लराधने वढाउने गतिमणे सेवा पोताना स्वच्छ सढथी “ वितत पक्खा गरुडजुवई इव" यांचा प्रसारेसी भने अाशमां उती ગરુડ યુવતીની જેમ લાગતું હતું,
For Private And Personal Use Only
.
(उम्मीवरंग माला सहस्साई समइच्छमाणी २ कइवएहिं अहोरतेहि लवण समु अगाई जोयणसयाई ओगाढा )
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
शाताधर्मकथासूत्रे : ओगाढा' अवगाहिता तीर्णा । ततस्तदनन्तरं खलु तेषाम् अरहन्नकप्रमुखाणां संयात्रा नौवाणिजकानां लवणसमुद्रमनेकानि योजनशतानि अवगाहितानां तीर्णानां सतां बहूनि 'उप्पाइयसयाई उत्पातशतानि प्रादुर्भूतानि । तान्युत्पादशतानि वर्णयति--
तं जहा' इत्यादि । तद् यथा-अकाले गर्जितं वर्षाकालं-विना मेघध्वनिः, अकाले विद्युत् अकाले 'थणियसद्दे ' स्तनितशब्दः मेघस्य गम्भीरध्वनिरभूत तथा-अभीक्ष्णं पुनः पुनः आकाशे देवता नृत्यन्ति तथा-एकं च खलु महत् बृहत पिशाचरूपं पश्यन्ति अरहन्नकप्रमुखाः संयात्रा नौ वाणिजकाः अकालमेघध्वनिपडे वेग के साथ उम्नियों-महालहरों के तरंगो के-छोटी २ लहरों केमाला सहस्र को उल्लंघन करती हुई वह नौका कितनेक दिनों के बाद लवण समुद्र में अनेक योजनों तक पहुँच गई । ( तएणं तेसिं अरहन्नग पामोक्खाणं संजत्तानावा वाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाइं जोयण सयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूई उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाइं ) इस के बाद उन सांयात्रिक अरहन्नक प्रमुख नौका वणिकों को जब कि वे लवण समुद्र में अनेक सैकड़ों योजनों को पार कर चुके थे बहुत से सैकड़ों उपद्रव सामने आने लगे। - (तं जहा) जैसे- ( अकालेगज्जिए, अकाले विज्जुए, अकाले थणियसद्दे, अभिक्खणं २ आगासे देवया ओ नच्चंति, एगं च णं महं पिसायरूवं पासंति ) वर्षा काल के विना हो उस समय मेघध्वनि होने
ખૂબજતી વેગે નાનામોટા સેંકડે મેજાઓ ને વટાવીને કેટલાક દિવસો બાદ વહાણ લવણસમુદ્રમાં ઘણા યેજને દૂર સુધી પહોંચી ગયું.
(तएणं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्तानावा वाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाढाणं समाणं बहूइं उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाइं)
- ત્યાર બાદ સાંયાત્રિક અરહક પ્રમુખ પટવણિકે લવણ સમુદ્રમાં જ્યારે સેંકડે જન સુધી દૂર પહોંચી ગયા ત્યારે સેંકડે આફતે તેમની સામે
भवासी . ( त जहां ) रेम, .: ( अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसदे, अभिकवणं २ आगासे देवयाओ नच्चंति, एगंच णं महं पिसायरूवं पासंति)
વર્ષાકાળ હોવા ન છતાં મેઘ ગર્જનાઓ થવા માંડી, વીજળીઓ જબકવા લાગી અને મેઘને ગંભિર વિનિ પણ થવા માંડે. આકાશમાં વારંવાર દેવતાઓ નાચતા જોવામાં આવવા લાગ્યા,
For Private And Personal Use Only
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३३७ बिद्युद्विद्योतन पुनः पुनर्देवनृत्यप्रदर्शनपूर्वकमेकं बृहत् पिशाचरूपं विलोकयन्ति । स्मेत्यर्थः । कथम्भूतं तत् पिशाचरूपमित्याह- तालजंचं ' तालजथं तालवृक्षवदीर्घ जर्छ यस्य तत्तथा, दिवं गताभ्यां गगनस्पर्शिभ्यां बाहुभ्यां महादीर्घाभ्यां बाहुभ्यां युक्तमित्यर्थः । मषीमशकमहिषकालकं मषी-कज्जलं मूषको महिपश्च प्रसिद्धः तद्वत् कालकं कृष्णवर्ण यत्तत्तथा, भरियमेहवन्न' भृतमेघवर्ण = जलपूर्णघनीभूतमेघवटावदतिश्याम, लम्बोष्ठं, निर्गतापदन्तं निर्गतानि :मुखाबहिर्भूतानि अग्राणि अग्रभागा येषां ते निर्गतापास्तथा भूतादन्ता यस्य तथोक्तस्तं, 'निल्ला. लियजमलजुयलजीहं' निर्लालितयमलयुगलजिहम् निर्लालितं - मुखाबहिष्कृतं यमलं-समं युगलं द्वयं जियो येन तत्तथा, 'आऊसियवयणगंडदेस' प्रविष्टवदनलगी, बिजली चमक ने लगी, और मेघ की गंभीर ध्वनि भी होने लगी। घार २ आकाश में देवता नाचते हुए दिखलाई पड़ने लगे।
तथा विशाल काय पिशाच का रूप भी दृष्टिगोचर होने लगा। (तालजंघं दिवं गयाहिं बाहाहिं मसिमूसग महिसकालगं) इस पिशाच की दोनों जंघाएँ तालवृक्ष के समान दीर्घ थीं। दोनों बोहु मानो आकाश को छूते थे। कज्जल, मूषक, और महिष के समान इस का वर्ण काला था । ( भरियमेहवन्न, लंबोंटुं निग्गयग्गदंतं निल्ललिय जमलजुय लजीहं, आऊसिय वयणगंडदेसं, चीण चिपिटनासियं विगय भुग्गभग्ग भुमयं ) जल से भरी हुई घनी भूत मेघघटा की तरह इस को शरीर अत्यंत काला था । ओष्ठ बडे लंबे थे। आगे के दाँत बाहर निकले हुए थे । इस की जिह्वा के दोनो अग्र भाग एक ही साथ मुख से बाहिर
તેમજ વિશાળ શરીરવાળા પિશાચનુંરૂપ પણ લેવામાં આવવા લાગ્યું. (तालजघ दिवंगयाहि बाहाहि मासिमसग महित्यकालग) ते पिशायनी मने સાથળે તાલવૃક્ષની જેમ લાંબી હતી. બંને હાથ જાણે આકાશને સ્પર્શતા હેય. મેશ, ઉંદર અને પાડાના જે તેને રંગ કાળે હતે.
(भरियमेहवन्नं, लंबोटं निग्गयग्गदंतं निल्ललियजमलजुयलजीहं, आऊ सियवयणगंडदेस, चीणचिपिटनासियं विगयभुग्गभग्गभुभयं )
પાણીથી ભરેલી સાન્દ્ર મેઘ ઘટાઓની જેમ તેનું શરીર ઘણું કાળું હતું. હોઠ ઘણા લાંબા અને નીચે લબડતા હતા. આગળના દાંત બહાર નીકળી ગયેલા હતા. તેની જીભના આગળના બંને ટેરવાં એકી સાથે મેંથી બહાર નીકળી રહ્યાં હતાં. તેના બંને ગાલ મેંમાં બેસી ગયેલા હતા.
शा० ४३
For Private And Personal Use Only
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३३८
ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे गण्डदेशं प्रविष्टौ वदने गण्ड देशौ कपोलभागौ यस्य तत्तथा, 'चीणचिपिटनासियं' चोनचिपिटनासिकं, चीना-हस्वा चिपिटा च नासिका यस्य तत्तथा, 'विगयभुग्गभग्गभुमयं ' विकृतभुग्नभग्नभ्रुवम् विकृते सविकारे भुग्ने भग्ने= अतीववक्रे भ्रुवौ यस्य तत् तथा, खज्जोयगदित्तचक्खुरागं' खद्योतकदीप्तचक्षुराग, खद्योतकवद्दीप्तश्चक्षुरागो लोचनरक्तत्वं यस्य तत्तथा, उत्तासणगं' उत्रासनकं भयानकं विशा. लवक्षस्क-विस्तीरः स्थलं, विशालकुक्षि-विस्तीदरम् , प्रलम्बकुक्षि-दीर्घोदरम् , ' पहसियपयलियं पयडियगत्तं ' प्रहसितप्रचलितमपतितगात्रम् । प्रहसितानि प्रविकासितानि प्रचलितानि-प्रकम्पितानि प्रपतितानि प्रकर्षण श्लथीभूतानि गा. त्राणि यस्य तत्तथा, पणञ्चमाणं ' प्रनृत्यत् 'अप्फोडतं ' आस्फोटयत् , अभिवयंत' अभिवजत् , ' अभिगजंत' अभिगर्जत् , बहुसो ' अट्टहासे विणिम्मुयंत ' बहु निकल रहे थे । दोनों कपोल इसके मुख के भीतर घुसे हुए थे-अर्थात् दोनों गाल इस के पिच के हुए थे।
नाक इस की छोटी और चपटी थी। इस की दोनों भौंहें विकृत भुग्न और भग्न थी। अथवा भुग्न भग्न थी अत्यन्त चक्र थी-(खज्जोयगदित्तचक्खुरागं, उत्तासणगं विसालवच्छं, विसालकुच्छि पलंयकुच्छि पहसियपयालिय, पयडियगत्तं ) इस की आँखों की ललाई खद्योत (आग्या ) के समान दीप्त थी, उरस्थल (छाती) इस का भयोत्पादक था, पेट विस्तीर्ण और लंबा था। शरीर इस का प्रहसित प्रचलित एवं श्लथी भूत ढीला था । यह उस समय, (पणच्चमाणं अपफोडतं, अभि. वयंत अभिगज्जंतं, बहुसो २ अट्टहासे विणिम्मुयंत) नृत्य कर रहा था।
अपनी दोनों भुजाओं का आस्फालन (बजाता ) कर रहा था। ऐसा ज्ञात होता था कि मानों गर्जना करता हुआ समक्ष (सामने ) ही
તેનું નાક નાનું અને ચપટું હતું. તેની બંને ભમ્મરો વિકૃત ખડબચડી અને ભગ્ન હતી. અથવા ભગ્નભગ્ન અને વક-ત્રાંસી–હતી.
(खज्जोयगदित्तचक्खुरागं उत्तासणगं विसालवच्छं, विसालकुच्छि पलंब कुच्छि, पहसिय पयालिय, पयडियगत्तं )
તેની આંખે ને રતાશ આગિયા જેવી ચમકતી હતી. તેનું વક્ષસ્થળ ભયંકર હતું. પિટ વિશાળ અને લાંબું હતું. તેનું શરીર પ્રહસિત, પ્રચલિત અને લથી ભૂત એટલે કે લબડી ગયેલું હતું. ત્યારે. (पणच्चमाणं अप्फोडतं अभिवयंत, अभिगन्जतं, बहुसो २ अट्टहासे विणिम्मुयंत)
તે નાચી રહ્યો હતો. પિતાના બંને ભુજાઓનું તે આસ્ફાલન (અફળાવવું)
For Private And Personal Use Only
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३३१ शोऽट्टहासं विनिर्मुञ्चत् , ' नीलुप्पलगवलगुलिय अंयसिकुसुमप्पगास ' नीलोत्पल गवलगुलिकातसीकुसुमप्रकाशं नीलोत्पलं नीलकमलं, गवलं-महिशशृङ्गं, गुलिका =कृष्णवर्णवस्तुविशेषः प्रसिद्धः, अतसीकुसुमम् , अतसी अलसीनाम्नामसिद्धो धान्यविशेपस्तस्य कुसुमं=पुष्पं, तद्वत् प्रकाशो वर्णों यस्य स तथा तम् , नीलकमलादिसदशवर्णमित्यर्थः, खुरधारं क्षुरधारं क्षुरस्येव धारा यस्य स तत्तथा तम् अतितीक्ष्ण धारमित्यर्थः, असि = कृपाणं, गृहीत्वा, अभिमुहमावयमाणं ' अभिमुखमापतत् पश्यन्ति सर्वेऽपि सांयात्रिकाः अरहन्नकप्रमुखा अवलोकन्ते स्म ॥ मू० १९ ॥
मूलम्तएणं ते अरहण्णगवज्जा संजत्ताणावावाणियगा एगं च णं महं तालपिसायं पासंति तालजंघं दिवं गायाहिं बाहाहिं फुट्टसिरं भमरणिगरवरमासरासिमहिसकालगं भरियमहवन्नं सुप्पणहं फालसरिसजीहं लंबो, धवलवट्टअसिलिट्र तिक्खथिरपीणकुडिलदाढीवगूढवयणं विकोसियधारासिजुयलसमसआ रहा है। बार बार तो यह अट्टहास करता था । ( नीलुप्पलगवल गुलिय अयसि कुसुमप्पगासं खुरधारं असि गहाय अभिमुह मावय माणं पासंति ) नीलकमल, गवल-महिष शृंग, गुलिका-कृष्ण वर्णक विशेष, अलसी पुष्प, के समान इसका सारा शरीर अत्यंत काला था।
यह एक तलवार लिये हुए था, जिस की धारा क्षुरा की धारा के समान तीक्ष्ण थी। उन अरहन्नक प्रमुख सांयात्रिको ने उसे इस तरह से देखा कि वह उस तलवार को लेकर हम लोगों की ओर आरहा है । सूत्र " २०" કરી રહ્યો હતો. તેને જોઈને એમજ લાગતું હતું કે તે જાણે ગર્જના કરતા સામે આવી રહ્યો હોય તે વારંવાર અટ્ટહાસ “ખડખડાટ કરીને હસવું” કરતો હતો.
(नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासं खुरधारं असिं गहाय अभिमुह. मावयमाणं पासंति )
નીલકમળ, ગવલ, કપડાંનાં ગુલિકા-કૃષ્ણવર્ણક વિશેષ, અળસીના પુષ્પની જેમ તેનું શરીર ઘણું કાળું હતું.
તેના હાથમાં છરાનીધાર જેવી તીક્ષણ ધારવાળી તલવાર હતી. અરહજ્ઞક પ્રમુખ સાંયાત્રિકોને એમ થયું કે તે પિશાચ હાથમાં તલવાર લઈને તેમની त२६ ॥ ५सी मावी रह्यो छे. ॥ सूत्र “२०" ॥
For Private And Personal Use Only
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
૪૦
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
रिसतणुयचंचलगलंतरसलोलचवलफुरुफुरंत निल्ला लियग्गजीहं अवयच्छियमहल्लविगयबीभच्छलाल पगलंतरत्ततालुयं हिंगुलुयसगब्भकंदरविलंब अंजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलंतवयणं आऊसियअक्खचम्मउइट्टगंडदेसं चोणचिपिडवंकभग्गणासं
रोसागयधमध में तमारुतनिरखर फरुसझुसिर ओभुग्गणासियपुढं घाडुब्भडरइयभीसणमुहं उद्धमुहकन्न सक्कुलियं महंत विगयलोम संखालगलंबंतचलियकन्नं पिंगलदिप्पंतलोयणं भिउडितडियनिडाल नरसिरमालपरिणद्धचिंधं विचिंत्तगोणससुबद्धपरिकरं अवहोलंत पुप्फुयायंत सप्पविच्छ्रेय गोधंदरनउलसरडविरइयविचित्तवेयच्छमालियागं भोगकूरकण्हसप्पधमधमेंतलंबंतकन्नपूरं मज्जारसियाललइयखंधं दित्तघुघुयंतं घूयकयकुंमलसिरं घंटारवेण भीमं भयंकरं कायरजण हियय फोडणं दित्तमदृट्टहासं विणिम्यतं वसारुहिरपूयमंसमलमलिणपोच्चड - तणुं उत्तासणयं विसालवच्छं पच्छता भिन्नणहरोममुहनयणकन्नवरवग्घचित्तकत्तीणिवलणं सरसरुहिरगयचम्मविततऊस वियबाहुजुयलं ताहि य खरफरुसअसिद्धि अणिट्ठ दित्त असुभ अप्पिय अमणुन्न अक्कंतवग्गुहि य तज्जयंतं पासंति, तं तालपिसायरूवं एजमाणं पासंति, पासित्ता भीया० संजायभय अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमाणार बहूणं इंदाण य खंदाण य रुदविवेसमणणागाणं भूयाण य जक्खाण य अजको किरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि ओवाइयमाणार चिह्नंति ॥१॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४१
टीका-सर्वैः नौकास्थैः सांयात्रिकैः पिशाचरूपं दृष्टं, तत्रारहन्नकश्रावकवज्य - यत्कृतं तद् दर्शयितुमुक्तमेव पिशाचस्वरूपं सविशेष वर्णयन्नाह-'तएणं' इत्यादि। ___ ततस्तदनन्तरं खलु तेऽरहन्नकवाः संयात्रानौर्वाणिजकाः वक्ष्यमाणविशेषणकं पिशाचस्वरूपं पश्यन्ति, दृष्ट्वा च भीतास्त्रस्ता बहूनामिन्द्रादीनां वहनि मान्यता शतानि कुर्वन्तस्तिष्ठन्तीति वाक्यार्थः । कीदृशं पिशाचस्वरूपं पश्यन्तीत्याह-'एगं च णं महं' इत्यादि। एकं च खलु महान्तं तालपिशाचम् अतिदीघत्वेन तालपक्षकारः पिशाचस्तालपिशाचस्तम् पश्यन्ति, कथम्भूतं तालपिशाच. मित्याह-'तालजंघ' इति तालवृक्षवदीर्घ जङ्घ यस्य स तालजस्तम् , दिवं गताभ्यां गगनस्पर्शिभ्यां बाहुभ्यां युक्तं, स्फुटं शिरसं-स्फुटं स्फुटितं बन्धनरहितत्वाद् विकीर्ण शिरः शिरोजातत्वाद् केशजालं यस्य स तथा तं, 'भमरणिगरवरमा
'तएणं ते अरहण्णगवज ' इत्यादि। अब सूत्रकार इसी पिशाच के स्वरूप का पुन: विशेष वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि जितने भी उस नौका में सांयात्रिक थे उन सबने एक अरहन्नक श्रावक के विना उस विकराल पिशा च को देखकर क्या २ किया उनकी कैसी स्थिति हुई इस बात को कहने के लिये पहिले बे उक्त पिशाच के स्वरूप को विशेष रूप से पुनः कहते हैं
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (अरहन्नगवज्जा) एक अरहन्नक श्रावक के सिवाय ( संजत्ताणावा वाणियगा ) उन समस्त सांयात्रिक पोत चणिक जनों ने ( एगं च णं महं तालपिसायं पासंति ) एक बड़ा ताल वृक्ष के जैसा पिशाच ताल वृक्ष के समान लंबी २ जंघाओं वाला था।
इस के दोनों बाहु मानों आकाश को स्पर्श कर रहे थे। इस के 'तएण ते अरहण्णगवज्जा ' त्या
ટીકાર્થ–સૂત્રકાર અહીં ફરી પિશાચનું સવિશેષવર્ણન કરવાની ઈચ્છાથી કહે છે કે પિશાચને જોઈને અરહ-નક શ્રાવક સિવાયના બાકીના બીજા બધા સાયત્રિકની શું સ્થિતિ થઈ અને તે વિકરાળ પિશાચનું રૌદ્ર સ્વરૂપ જોઈને તેઓએ શું શું કર્યું એનું વર્ણન કરતાં પહેલાં તે પિશાચના સ્વરૂપનું વિશેષ રૂપથી વર્ણન હું અહીં કરૂં છું–
___“तएणं" त्या२ मा " अरहन्नगवरज्जा” १२.४ श्रावन सिवाय "सजत्ताणाया वाणियगा" मा सयात्रिपातपशु सनी से “ एगच णं मई तालपिसायं पासंति" मोटा वृक्ष २३। मने तास वृक्ष की मार સાથળો વાળે પિશાચ જોયે.
તેના બંને હાથ આકાશને સ્પર્શતા હતા. છૂટા પડેલા તેના માથાના વાળ
For Private And Personal Use Only
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
ર
शाताधर्म कथाङ्गसूत्रे
--
9
सरासिम हिसकालगं ' भ्रमर निकरवरमाषराशिमहिपकालकं तत्र भ्रमरनिकर इव= भ्रमरसमूह इव वरमापरापिरिव, महिष इव च यः कालकः = कृष्णवर्णकस्तं, 'भरि यमेवन्नं भृतमेघवर्ण= जलपूर्ण मेघघटावदतिनीलम् 'सुप्पण ' शूर्पनखं शूर्पवत् नखा यस्य स शूर्पनखस्तं, फालसदृशजिहवं, फालमिहाग्नौ प्रतापितं बोध्यम्, तत्सादृश्यं च वर्णेदैर्घ्यदीप्त्यादिभिरिति, लम्बोष्ठं दीर्घौष्ठं, 'धवलवट्ट असिलिड तिक्ख थिरपी कुडिलदाढोवगूढवणं धवलवृत्ताश्लिष्ठतीक्ष्ण स्थिरपीनकुटिलदष्ट्रोपगूढ़वदनं ' धवलाभिः = श्वेताभिः, वृत्ताभिर्वर्तुलाभिरश्लिष्टाभिविरलाभिः ती क्ष्णाभिः स्थिराभिर्ब्रहाभिः उपचितत्वेन पीनाभिः = स्थूलाभिः वक्रतया कुटिलाभिश्च दंष्ट्राभिरूपगूढं व्याप्तं वदनं यस्य स तथा तम् अतिविशाल दंष्ट्रमित्यर्थः, 'विकोसियधारासिजुयलसमसरिसतणुय चंचलगलंतरसलोलचवलफुरुफुरेंत निल्लालियग्गजी' विक्रोशितधारासियुगल समसदृशतनु कचञ्चलग लद्रसलोलच पलफुरफुरायमाणनिर्लालिताग्रजिहम्, तत्र विकोशिता= अपनीतावरणा धारा ययोस्तौ विकोशितशिर के बाल बंधन रहित होने से इधर उधर बिखरे हुए थे ! इस का वर्णभ्रमर समूह उडद की राशि और महिष के श्रृंग जैसा काला था । ( भरिय मेहवन्नं ) जल से भरी हुई मेघ घटा के समान अत्यन्त श्याम था ।
( सुप्पणहं, फाल सरिस जीहं लंबोडं, धवलवट्ट आसिलिट्ठ तिक्ख थिर पीणकुडिलदाढोवगूढवणं) नख इस के सूप ( सूपड़ा ) जैसे थे | जिह्वा इस की अग्नि में लाल किये गये फाल के समान थी । ओष्ठ लंबे २ थे । इसका मुख श्वेत, गोल, २ विरली, नुकीली, स्थिर-दृढ-स्थूल और कुटिल टेढी २ दांडों से युक्त था ।
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( विकसिय धारासिजुयल समसरिसतणुयं चंचल गलत रस लोल चवलफुरुफुरेंत निल्लालियग्गजीहं ) इस की जिह्वा दोनों अग्र આમતેમ વિખેરાઈ ગયા હતા. તેનેારંગ ભમરાઓના ટોળા, અડદના ઢગલે ाने पाडाना शिंगडां वो अणो तो " भरिय मेहवन्न " पालीथी लरेसी મેઘની ઘટાઓની જેમ ખૂબજ કાળેા હતેા.
( सुप्पण, फालसरिसजीहं लंबोद्वं, धवलवह आसिलिट्ट, तिक्खथिरपीण कुडलदाढोवगूढवण )
તેના નખા સૂપડા જેવા હતા. તેની જીભ અગ્નિમાં લાલચેાળ થઈ ગયેલી હળની કેસ જેવી હતી તેના હાડ લાંખા હતા. તેનું માં સફેદ ગાળ મટોળ અણિયાળી, મજબૂત મેાટી તેમજ કુટિલ ત્રાંસી દાઢા વાળું હતું,
( विकसिय धारासियजुयलसमस रिसतणुयं चंचलगलंतर सलोलचवलफुरफुरेंत निल्लालियग्गजी )
For Private And Personal Use Only
1
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४३ धारौ तयोरस्योः खडूगयोयुगलं-द्वयं तेन समसदृश्यौ-अतितुल्ये तनुके-प्रतले, चञ्चलं यथाभवति, यथाऽविश्रान्तं गलन्त्यौ-रसातिलालसत्वात् लालाविन्दूनधः पातयन्त्यौ, अतएव रसलोले-रसास्वादानुरक्ते, चपले चञ्चले, अतएव फुरफुरायमाणे-प्रकम्पमाने, निर्लालिते मुखाबहिष्कृते, अग्रजिह्वे-अग्रभूतजिह्वे जिह्वाग्रे येन स तथा तम् अतिदीर्घजिहूवमित्यर्थः तथा-' अवयच्छियमहल्लविगयबीभच्छ लालपगलंतरत्ततालुयं ' प्रसारितमहाविकृतवीभत्सलालाप्रगलद्रक्ततालुकम् , प्रसारितं मुखप्रसारणेन दृश्यमानं महाविकृतं बीभत्सं लालाभिः प्रगलद्रक्तं च तालु यस्य स तथा तं मुखप्रसारणप्रकटोभूतमहाविकृतलालापूर्णरक्ततालुवन्तमित्यर्थः तथा-' हिंगुलुयसगम्भकंदरविलंबअंजणगिरिस्स ' हिङ्गुलुकसगर्भकन्दरबिलामिवाञ्जनगिरे:-हिङ्लकेन रक्तवर्णकद्रव्यविशेषेण सगर्भ सान्तरालं कन्दररूपं विलमिव अञ्जनगिरेः कञ्जलपर्वतस्य मुखपसारेण रक्तातिदीर्घ जिहा तालु युक्तमुख विवरस्य हिगुलक पुञ्जसम्भृतकन्दरसादृश्यादति कृष्णवर्णमहाविशालशरीरस्याअभाग म्यान से निकाली हुई तलवार के समान तीक्ष्ण थी । पतलि थी । चंचल थी। रस में अतिलालसावाले होने के कारण उन से निरन्तर लार बह रही थी। रस के आस्वादन में वे अनुरक्त थे । चंचल होने के कारण वे कंप रहे थे। और मुख से बाहिर निकले हुए थे। तात्पर्यइस की जीभ बहुत लंबी थी।
(अवयच्छिय महल्लविगयबीभच्छलालपगलतरत्ततालूयं, हिंगुलयसगम्भकंदरविलंयअंजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलंतवयणं तालु इस का मुख के फाडते समय दिखलाई पड़ता था। महा विकराल था। बीभत्स था। लार से गीला हो रहा था और लाल था। इसका मुख अंजनगिरि (काला पर्वत ) के हिंगुलक से भरे हुए कंदरा रूप बिल के
તેની જીભના બંને આગળનાં ટેરવાં મ્યાનમાંથી બહાર કાઢેલી તલવારની જેમ તીક્ષણ હતાં, પાતળાં હતાં ચંચળ હતાં અને વિષયના રસોને ગ્રહણ કરવા માટે અત્યંત લુપ તેમજ આતુર હવા બદલ તેમાંથી સતત લાળ ટપક્યા જ કરતી હતી. તેઓ રસાસ્વાદમાં અનુરક્ત હતાં. ચંચળ હોવાને લીધે તેઓ પ્રખરો હતાં, અને માંથી બહાર નીકળી રહ્યાં હતાં. મતલબ એ છે કે તેની જીભ ખૂબ લાંબી હતી
( अवयच्छियमहल्लविगयबीभच्छलालपगलंतरत्ततालूयं, हिंगुलुयसगम्भकंदरविलंबअंजणगिरिस्स अग्गिजालग्गिलंतवयणं)
માં પહોળું કરતી વખતે તેનું તાળવું દેખાતું હતું. તે બીભત્સ હતું. લાળથીભીનું થઈ કહ્યું હતું અને લાલચળ હતું. તેનું મે અંજનગિરિ (કાળાપર્વત) ના હિંગળોથી ભરેલી કદરાના દર જેવું હતું તે બહુ વિશાળ અને
For Private And Personal Use Only
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३४४
हाताधर्मकथासूत्रे नगिरिसाम्याद् अञ्जनगिरेः कन्दरमिव तन्मुखं प्रतिभातीतिभावः । 'अग्गिजालुग्गिलंतवयणं ' अग्निज्जालोद्गिरद् बदनम् अग्निज्वाला उद्गिर-बहिष्कुर्वद्-वदनं मुखं यस्य स तथा तम् , यस्य मुखाद् अग्निज्वालानिस्सरति तथाविधमित्यर्थः, 'आऊसिय अक्खचग्मउइट्टगंडदेसं ' आयुषिताक्षचर्मापकृष्ट गण्डदेशम्-आयूषित वलियुक्तम् यदक्षचर्म-शको जलाकर्षण कोशस्तद्वदपकृष्टौ अन्तः प्रविष्टौ गण्डदेशौ यस्य स तथा तम् , ' चीणचिविडवंकभग्गणासं ' चीनचिपिट वक्रभग्ननासं-चीना महस्वा, चिपिटा निम्ना, वक्रा=कुटिला, भग्नाभग्नेव अयोधनोपरिकुट्टनेन प्र. मृतेव नासा यस्य स तथा तं, चिपिटनासिकावन्तमित्यर्थः ' रोसागयधमधमेंतमारुतनिठुरखरफरुसझुसिरं ओभुग्गणासियपुडं ' रोषागतधमधमायमानमारुतनिसमान था । यह स्वयं अति विशाल और अत्यंत काले वर्ण का था इस लिये अंजनगिरि के जैसा था-तथा इस की जिह्वा और तालुये दोनों अतिरक्त थे इस लिये वे हिङगुल के समान लाल थे।
इसलिये सूत्रकार ने उस के मुख को अंजनगिरि की हिंगुलक से भरी हुई कंदरा से उपमित किया है । इस के मुख से अत्यन्त लाल जिह्वा और तालु वाला होने के कारण ऐसा ज्ञात होता था कि मानों अग्नि की ज्वाला ही बाहर निकल रही है। (आऊसियअक्खचम्म उइट्टगंडदेसं, चीणचिपिडवंकभग्गणासं रोसागयधमधमेंतमारुत निटूटुरं खरफरुसमुसिरओभुग्गणासिपुयड, घाडुन्भडरइयभीसणमुहं) इस के दोनों कपोल (गोल ) पानी को खीच ने वाले शुष्क वलि युक्त चरस के समान भीतर को घुसे हुए थे। नासिका इस की इस्व चिपटी थी। टेडी इस नासि का के छेदों से जो श्वासोच्छ्वास निकलता અતિશય કાળારંગનું હતું. એટલા માટે જ તે અંજનગિરિ જેવું હતું. તેની જીભ અને તાળવું બને ખૂબજ લાલ હતાં એથી તેઓ હિંગળક જેવા લાલ હતાં.
સૂત્રકારે અંજનગિરિની હિંગળકથી ભરેલી કંદરાની તેને મેંની જે ઉપમા આપી છે. તેની પાછળ એજ કારણ છે. તેનું તાળવું અને જીભ ખૂબજ લાલ હોવાથી એમ લાગતું હતું કે જાણે તેને મેંમાંથી અગ્નિની જવાળાઓ બહારનીકળી રહી હોય.
(आऊसिय अक्ख चभ्म उइट्टगंडदेसं चीण चिपिडवंक भग्गणासं रोसागय धममेंत मारुत निठुरं खर फरुस झुसिरओ भुग्गणासियपुडं धाडुब्भडरइयभीसणमुहं
તેના બંને ગાલ કેસની જેમ કરચલીવાળા જેમ મેંમાં પેસી ગયેલા હતા. નાક તેનું નાનું અને ચપટું હતું, ત્રાંસા નાકના છિદ્રોથી શ્વાસેચ્છવાસ
For Private And Personal Use Only
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम्
३४५
,
ष्ठुरखर परुपशुषिरावभुग्ननासिकापुटम् रोषात् क्रोधादिवागतः प्रबलतया धमधमायमानः धमधमेतिशब्दं कुर्वन् मारुतो वायुनिष्ठुरस्तीवः खरपरूपः = अतिकर्कशः परमदुःसहः, शुषिरयोःरन्योर्यस्य तत्तथा तदेवं भूतम् - अत्रभुग्नं वक्रं नासिकापुढं यस्य तथा तम् भस्त्रावद्धमधमायमानश्वासोच्छ्वासपूर्ण वक्रनासिकायुक्तमित्यर्थः'घाड भरभीसणमुहं ' घाटोद्भटरचित भीषणमुखं तत्र घाटाभ्यां शिरोऽवयवविशेषाभ्याम् उद्भटं विकरालं दुर्दर्श रचितम् अतएव भीषणं भयंकरं मुखं यस्य स तथा तं विकृतभयानकमुखयुक्तम् ' उद्धमुहकन्न सक्कुलियं ' ऊर्ध्वमुख कर्णशष्कुलीकम् = ऊर्ध्वमुखे कर्णशष्कुल्या कर्णपुटौ यस्य स तम् । तथा - 'महंत विगयलोम संखा लग्गलंबतचलियकन्नं ' महाविक्रतलोमशङ्कालग्न लम्बमानवलितकर्णम्, महान्ति विकृतानि असुन्दराणि लोमानि ययोस्तौ महात्रिकृतलोमानौ, तथा तौ च शङ्कालग्नौ शङ्खः= अक्षिप्रान्तभागस्तत्रालग्नौ = संलग्नौ संस्पर्शिनौ लम्बमानौ च चलितौ= चञ्चलौ च कर्णौ यस्य स तथा तम्, 'पिंगल दिप्पंतलोयणं' पिङ्गलदीप्यमानलोचनं = पिङ्गले कपिले, था वह ऐसा मालूम देता था कि मानों बडे क्रोध से आ रहा है - और इसी लिये वायु भरते समय भस्त्रा (धमनी) से जैसा धम २ शब्द होते हैं उसी प्रकार का उस से भी धम धम ऐसा शब्द होता रहता था। वह तीव्र था अतिकर्कश था कठोर था । दुःसह था । उस का मुख शिर के अवयव विशेषों ने ऐसा ही दुर्दर्श बनाया था कि जिस से वह बड़ा भयंकर लगता था ।
(उद्धमुहकन्न सक्कुलियं ) इस के दोनों कर्णपुट ऊँचे उठे हुए थे । ( महंत विगयलोमसंखालग्गलंयंत चलियकन्नं ) इन दोनों कानों के रोम इस के महा विकराल थे शंख अक्षि प्रान्त भाग तक ये दोनों कान फैले हुए थे । इसीलिये ये बडे लंबे थे और चंचल थे ।
ધમ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
નીકળતા હતા તે એમ જણાતા હતા કે જાણે ખડુ ક્રોધમાં ભરાઇને તે સામે ઘસી આવતા હાય, એથી જ જ્યારે તે શ્વાસ લેતા હતા ત્યારે ભસ્ત્રા ( धभणु ) मांथी प्रेम ધમ શબ્દ થતુા રહે છે તેવા ધ્વનિ થયા
“
?
હતા. તે તીવ્ર, કર્કશ કઠોર દુઃસહુ હતેા. તેના માંના કદ રૂપા અવયવાથી તે દૃશ અને મહા ભયકર લાગતા હતા.
અને
( उद्धमुकन्न सक्कुलिय) तेनी मने तरइनी अनपटी उथे उपसेवी हुती
(महंत व्विगयलोम संखालग्गलंयंतच लियकन्न ) मने अन परना રાળ હતાં. આંખના ખૂણાઓસુધી તેના બંને કાન ફેલાયેલા માટે જ એએ લાંખા અને ચંચળ હતા. ज्ञा ४५
For Private And Personal Use Only
वांटा महावि હતા. એટલા
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३४६
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
,
दीप्यमाने = भास्वरे, लोचने यस्स स तथा तम्, मार्जारवत्प्रदीप्तनेत्र मित्यर्थः तथा =' भिउडितडियनिडाल' ' भ्रुकुटितडिल्ललाट = भ्रुकुटि:- भ्रूवक्रता कोपकृता सैव तडिद् यस्मिन् तथाविधं ललाटं, भालं यस्य स तथा तम् कोपावेषेन विद्युत्सद्दशभ्रू समुल्लसितललामयुक्तमित्यर्थः । तथा-' नरसिर मालपरिणद्ध चिंधं ' नरशिरोमालापरिणदचिन्हं = नरशिरोमालैव परिणद्धं परिघृतं चिह्न = पिशाचत्वं बोधकं लक्षणंयेन स तथातं =नरतुण्डमाला धारिणमित्यर्थः । तथा - 'विचित्तगोणस सुबद्धपरिकरं विचि त्रगोनससुबद्धपरिकरं=विचित्रैः = बहुवर्णकयुक्तः, गोनसैः सर्पविशेषैः, सुबद्धः परिकरः कवचो येन स तथा तम्, 'अवहोलंतपुप्फुयायंत सप्पविच्छुय मधु दरनउलसरड विरइयविचित्तवेयच्छ मालियागं ' अवधोलयत् फुस्कुर्वत् सर्पवृश्चिक गोधोन्दुरनकुलसरटविरचितविचित्रवैकक्षमालिकं अवघोलयन्तः किंचिम्मसर्पन्तः फूत्कुर्वन्तथ ये सर्पाः वृश्चिकाः गोधा उन्दुरा नकुलाः सरटाश्च तैर्विरचिता विचित्रा विविधवर्णवती, वैकक्षमालिकास्कन्धलम्बितमाला यस्य स तथा तम्, स्कन्धदेशे फुत्कार
(पिंगल दिप्पंतलोयणं, भिउडितडियनिडालंन र सिर मालपरिणद्धं चिधं विचित्तगोणस सुबद्धपरिकरं अवहोलंत पप्यायतसप्प विच्छुय गोधंदर नउलसरडविरइयं विचित्तवेयच्छमाल यागं ) इस की दोनों आँखे मार्जार (बिल्ली की तरह पीली और चमकीली थीं। इस का ललाट भ्रू वक्रता रूप बिजली से युक्त था इस ने पिशाचत्व के बो
क नरमुंडकी माला रूप चिह्न को धारण कर रक्खा था। इस ने जो कवच पहिरा हुआ था - वह अनेक वर्णवाले सर्पों से व्याप्त हो रहा था । अथवा कवच के स्थानापन्न इस ने विविध वर्णवाले सर्पों को अपने शरीर पर धारण कर रक्खा था ।
स्कंध देश में, इधर उधर, सरकते हुए तथा फुत्कार करते हुए सर्पा की, वृश्चिकों की, गोंहों की, उन्दुरों की, नकुलों की, सरों की, विविध
( पिंगलदिप्पंतलोयणं भिउडित डियनिडालं नरसिर - मालपरिणद्धं चिंधं विचित्तगोणस सुबद्धपरिकरं अवहोलंतपफुयायंतसप्पविच्छुयगोधंदरनउलसरडविरइयं विचित्तवेयच्छमालयागं )
તેની અને આંખા ખિલાડાની જેમ પીળી અને ચમકતી હતી. વક્રભૂ (ભમ્મર ) રૂપ વીજળીથી તેનું કપાળ યુકત હતું. પિશાચપણાના પ્રમાણ રૂપે તેણે નરમુંડની માળા પહેરેલી હતી. ઘણુારંગના સાપાથી તે આવેષ્ટિત હતા. અથવા કવચના સ્થાને તેણે જાતજાતના રંગવાળા અનેક સાપોને શરીર ઉપર ધારણા કરેલા હતા.
ખભા ઉપર આમતેમ હિલચાલ કરતા એટલે કે સરકતા તેમજ કુત્કાર झुरता साथेो, वीछीओो, घी, अहरौ, नोजियाओ, भने सरटोनी ने रंगो
For Private And Personal Use Only
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४७ युक्तमसप॑त्सादिमालाधारिणमित्यर्थः । तथा-'भोगकूरकण्हसप्पधमधमेंतलंबंतकन पूरं' भोगक्रूरकृष्णसर्पधमधमायमानलम्बमानकर्णपूरम् भोगैः फणैःक्रूरौ भयंकरौ भोगक्रूरौ, तौच कृष्णसौ च भोगक्रूरकृष्णासी, तौ च धमधमायमानौ फुत्कुर्वन्तौ तावेव लम्बमाने कर्णपूरे कर्णालङ्कारविशेषौ यस्य स तथा तम्,तथा-परिधृतकृष्णसर्प कर्णभूषणमित्यर्थः 'मज्जारसियाललइयखंध' मारिशगाललगितस्कन्धम् मार्जा रशृगालालगिता संयोजिताः स्कन्धयोर्ये न स तथा तम्, 'दित्तधुधुयंत धूयकयकुंतल. सिरं ' दीप्तधुधुकुर्वधूककृतकुंमलशिरस्कम् दीप्त-दीप्तस्वरं यथाभवत्येवं धुधुशब्द कुर्वन्तो यो धूकाः उलूकाः तएव कृतः कुम्मल: शेखरकः शिरोभूषणं शिरसि येन स तथा तम्, शब्दायमानोलूकशिरोभूषणधारिणमित्यर्थः, तथा-घंटारवेण भीमं= भयंकरम् , घण्टानों शब्देन भीमं भयंकरम् , अतिभयानकम् , तथा-'कायरजणहिययफोडणं' कातरजनहृदयस्फोटनम् कातरजनानां भीरुजनानां यानि हृद
वर्ण संपन्न माला उस ने पहिरी हुई थी। ( भोगकूरकण्हसप्पघम धत लंबतकन्नपूरं ) कर्णपूरों के स्थान पर इसने फणावलि से भयंकर बने हुए, तथा फुत्कार करते हुए काले दो सर्पो को पहने रखे थे। ( मज्जारसियाल लइय खधं) अपने दोनों स्कन्धों पर इसने मार्जार
और शृगालों को बैठा रखा था। (दित्तधुघुयंतघूयकयकुंतलसिरं) दीप्त स्वर जिस तरह से हो इस तरह से घू घू करते हुए उल्लुओं को इस ने अपने शिर का आभूषण-मुकुट बनाया था। (घंटारवेण भीम भयं. करं कायरजणहियय फोडणं दित्तमत्तट्टहासं विणिम्मुयंतवसारुहिरपूयमसमलमलिणपोच्चडतणुं ) घंटाओं के शब्द से यह भयंकर बना हुआ था। कातरजनों के हृदय का भयजनक होने से यह विदारक बना पणी ॥ तेथे ५९२वी उती. (भोगकूरकण्हसप्पधमधमेंतलंवतकन्नपूर) . લેના સ્થાને તેણે ફણાએથી ભયંકર તેમજ કુત્કાર કરતા બે કાળા સાપ પહે २। उu (मज्जारसियाललइयखंध) पोताना मने ममा ५२ तेो मिस मने श्रासन मेसोउसा ता. (दित्तधुधुयंत घूयकयकुतलसिर ) मोटा सा '५' “ધૂ કરનાર ધૂવડને તેણે પિતના માથાના આભૂષણ એટલે કે મુકુટ બનાવ્યા હતા.
(घंटारवेग भीमं भयंकरं जणहिययफोडणं दित्त मत्तट्टहासं विणिम्मुयंतं वसारूहिरपूयमंसमलमलिणपोच्चडतj)
ઘટના ભીમ ધ્વનિથી તે ભયંકર લાગતું હતું. કાતર જનોને હદના ભયથી હિંદીણું કરનાર હોવાથી તે “વિદારક હતે. વારંવાર તે મહા ભયંકર ઉગ્ર
For Private And Personal Use Only
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૪૮
शाताधर्मकथागसूत्रे यानि तेषां स्फोटनं भयजनकत्वेन विदारकं, तथा-दित्तमट्टहोसं विणिम्मुयंत ' दिप्तमट्टाहासम्=उग्रमट्टाट्टहासं विनिर्मुश्चन्त प्रकुर्वन्तम् , तथा-' वसारुहिरपूयमंसमलमलिणपोच्चडतणुं' वसारुधिरपूयमांसमलमलिनपोच्चडतनुम् वसारुधिरपूयमांसमलैमलिना पोच्चडा आर्द्रा पच पच ' कुर्वाणा तनुः शरीरं यस्य स तथातम् , तथा-' उत्तासणयं ' उत्त्रासनकम्-उद्वेजकं, विशालवक्षस्कम् विस्तीर्णवक्षस्थलकम् 'पेच्छंताभिन्नणहरोममुहनयणकन्नवरवग्यचित्तकत्तीणीवसणं' प्रेक्ष्यमाणाऽभिन्ननखरोममुखनयनकर्णवरव्याघ्र चित्र कृत्तिनिवसनम्=तत्र प्रेक्ष्यमाणा-दृश्यमाना अभिन्नाः =अच्छिन्नानखाश्च रोमाणि च मुखं च नयने च कौँ च यस्यां सा प्रेक्ष्यमाणाऽ भिन्ननखरोममुखनयनकर्णा सा चासौ वरव्याघ्रस्य चित्रा-विविधकर्णका, कृत्तिश्चम सैव निवसनं-परिधानं वस्त्रं यस्य स तथा तम् अखण्डव्याघ्रचर्मपरिधानमित्य र्थः, तथा-' सरसरुहिरगयचम्मवितत ऊसपियवाहुजुयल' सरसरुधिरगजचर्म वि. ततोच्छृतबाहुयुगलं सरसं-रुधिरा, यद् गजचर्म, तद् विततं-विस्तारितं यत्र तत् सरसगजचर्मविततं, तदेवं भूतम् उच्छृतम् उत्थापितं बाहुयुगलं येन स तथा वम् हुआ था घार २ यह महा उग्र, अट्टहास कर रहा था। इस का शरीर वसा-च:, रुधिर, पूय-पीप, मांस एवं मल इन से मलिन हो रहा था। और मसक ने पर पच पच इस प्रकार का शब्द करने लगता था।
( उत्तासणयं, विशालवच्छं पेच्छंताभिन्नणहरोममुहनयणकन वरवग्यचित्तकत्तीणिवसणं, सरसरुहिरगयचम्मविततऊसविय बाहु जुयलं ) इसे देखते ही लोग काँप जाते थे। इस का वक्षस्थल (छाती ) बहुत विशाल था । इस ने जो व्याघ्र का विविध वणे वाला चर्म रूप वस्त्र पहिर रखा था उस में स्पष्ट रूप से व्याघ्र के अच्छिन्न नख, रोम, मुख, नयन' और कान दृष्टिगत हो रहे थे। अपने उत्था पित किये हुए बाहु युगल मे इस ने लम्या खून से लथ पथ हुआ गीला गज का चमड़ा धारण कर रखा था। (ताहियखरफरुसअसि અટ્ટહાસ કરતે હતે. તેનું શરીર વસા–ચબ, લેહી, પીપ, માંસ અને મળથી ખરડાયેલું હતું. અને જોરથી દબાવાથી (ફસકી જવાથી) “પચ” પચ શબ્દ થતો હતો.
(उत्तासगयं, विसालवच्छंपेच्छंता भिन्नणह रोममुहनयणकन्नवरवग्ध चित्तकत्ती णिवसणं, सरससहिरगयचम्म वितत ऊसवियवाहुजुयलं) ।
તેને જોતાની સાથે જ માણસે પૂજવા માંડતા હતા. તેનું વક્ષસ્થળ ખૂબજ પહોળું હતું. અનેક જાતના રંગેના પહેરેલા વાઘના ચામડાના વસ્ત્રમાં વાઘને આખા નખે, વાંટા, મેં આખે અને કાન સ્પષ્ટ રીતે દેખાઈ રહ્યાં હતાં, ઉંચા કરેલા બંને હાથમાં તેણે લેહીથી ખરડાયેલું લાંબુ હાથીનું ચામડું પહેરેલું હતું.
For Private And Personal Use Only
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४९ ऊर्वीकृतभुजद्वयलम्बमानपक्षरद्रुधिरगजचर्मधारिणमित्यर्थः । तथा-' ताहिय खर फरुसअसिणिद्ध अगिट्ठदित्तअमुभअप्पियअमणुन्नअक्कंतवग्गूहि य तज्जयंत' ताभिश्च खरपरुपास्निग्धनिष्टदीप्ता शुभा प्रिया मनोज्ञा कान्तवाग्भिश्च तर्जयन्तंताभिः =तादृशीभिर्भयंकराभिश्च, खरपरुषा-अतिकर्कशा, अस्निग्धाः स्नेहरहिता, अनिटा-दुःश्रवत्वेनानीप्सिताः, दीप्ता उपतापजनकत्वादुज्ज्वलाः, अशुभाः अमङ्गलाः, अप्रियाः-श्रुतिकटुत्वात् , अमनोज्ञाः मनोविकृतिजनकत्वात् , अकान्ताश्च विकृत स्वरत्वाद् या वाचस्ताभिश्च तर्जयन्तं त्रस्तयन्तं पश्यन्तिस्म । अथ पुनस्तत् ताल पिशाचरूपं ' एज्जमाणं ' एजमान-नावंप्रति अभ्यागच्छत् पश्यन्ति, दृष्ट्वा भीताः, प्रस्ताः, त्रसिताः, उद्विग्नाः, संजातभयाः अन्योन्यस्य परस्परस्य, काय=शरीरं, 'समतरंगेमाणा २' आश्लिष्यन्तः २ वहनामिन्द्राणां च स्कन्दानां कार्तिकेयाणां च, रुद्रशिववैश्रमणनागानां नागो-भवनपतिविशेषः, भूतानां यक्षानां च भूतयक्षाः णिद्ध अणिदित्तअसुभअप्पियअमणुन्नअक्कंत वग्गूहिं य तज्जयंतं पासइ ) उस ताल पिशाच को भयंकर, अत्यन्त कर्कश, स्नेह शून्य, अनिष्ट, उपताप जनक, अमंगल रूप अप्रिय अमनोज्ञ, एवं अकान्त ऐसी अपनी वाणी से दूसरों को दुःखित करता हुआ उन लोगोंने देखा।
(तं तालं पिसायरूवं एज्जमाणं पासंति, पासित्ता, भीया० संजायभया अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमोणा २ बहणं इंदाणय खंदाण य रुद्दसिव वेसमणणागाणं भूयाण य जक्खाण य अज्जकोट्टे किरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि ओवाइयमाणा २ चिट्ठति ) और साथ में यह भी देखा की वह ताल पिशाच का रूप हम लोगों की और आ रहा
(ताहि य खरफरुस असिणिद्ध अणिदित्त असुभअप्पियअमणुनअक्कतं वग्गृहिंय तज्जयंतं पासइ)
તાલ પિશાચને તે લેકે એ પિતાની ભયંકર, અત્યંત કર્કશ, સનેહ રહિત, અનિષ્ટ ઉપતાપ જનક, અમંગળરૂપ અપ્રિય અમનેશ, અને અકાન્ત (બીભત્સ) વાણીથી બીજાઓને ત્રાસ આપતે જે.
(तं तालं पिसायरूवं एज्जमाणं पासंति, पासित्ता, भीया० संजायभया, अन्नमन्नस्स, कायं समतुरंगेमाणा २ बहूणं इंदाण य खंदाण य रुदसिववेसमण णागाणं भूयाणय जक्खाणय अज्जकोट्टे किरिया य बहूणि उवाइयसयागि ओवा इयमाणा २ चिट्ठति )
For Private And Personal Use Only
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३५०
शांता धर्म कथाङ्गसूत्रे
J
- व्यन्तरभेदास्तेषाम् तथा - आर्य कोट्टक्रियाणां च = आर्या प्रशान्तस्वभावा देव्यः, कोट्टक्रिया = चण्डिकारूपादेव्यः, तासां बहूनि उपयाचितशतानि = बहुविधानि मा न्यताशतानि उपयाचमानाः २ कुर्वन्त २ स्तिष्ठन्ति ॥ - २१ ॥
मूलम-तएणं अरहन्नए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एजमाणं पासइ, पोसित्ता अभीए अत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुव्विग्गे अभिन्नमुहराग णयणवन्ने अदीणविमणमाणसे पोयवहणस्स एगदेसंसि वत्थंतेणं भूमिं पमज्जड़, पम जित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयलओ एवं वयासी - नमोत्थूणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, जइ णं अहं एत्तो उवसग्गाओ मुंचमि. तो मे कप्पइ पारितए अहणं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि, तो मे तहा पच्चवखाए यव्वे त्तिकद्दु सागारं भत्तं पच्चक्खाइ, तएण से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहन्नगं एवं वयासी - हं भो ! अरहन्नगा अपत्थियपत्थया जाव परिवज्जिया णो खलु
है इस बात को देख कर वे सब के सब भयभीत हो गये, डर गये, उद्विग्न हो गये ! उन के प्रति प्रदेश में भय का संचार हो गया। इस तरह होकर वे सब परस्पर में एक दूसरे के शरीर से चिपक गये । और अनेक इन्द्रों की स्कन्द की कार्तिकेय की रूद्र की शिव की वैश्रमण की नाग की भूत की यक्ष प्रशान्त स्वभाव वाली देवियों की तथा चण्डि का रूप देवियों की सैकडों प्रकार बार २ मान्यता करने लग गये। सूत्र "२१"
તાલ પિશાચ ને તેઓએ પેાતાની તરફ જ આવતા જોચે. આરીતે જોઇને તે અધા ભયંત્રસ્ત થઈગયા, ખીગયા, ઉદ્વિગ્ન થઈગયા. તેમના આત્માના પ્રતિપ્રદેશમાં ભયનું સંચરણા થઇ ગયું. તેએ ભયભીત થઈને એક બીજાને ચેાંટી પડયા, અને તેઆમાંથી ઘણા ઈન્દ્રોની સ્કંદની, કાર્તિ કેયની रुद्रनी, शिवनी, वैश्रमणुनी, नागनी, भूतनी, यक्षनी, अशांन्त स्वभाववाजी દેવીઓની તેમજ ચંડિકારૂપ દેવીએની સેંકડો પ્રકારની વારંવાર માનતા માનવા લાગ્યા. ॥ || સૂત્ર २१ ” ॥
66
For Private And Personal Use Only
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते मरहन्नकश्रावकवर्णनम् ३५१ कप्पड़, तव सीलब्बयगुणवेरमण पच्चक्खाण पोसहोववासाई चालित्तए वा एवं खोभेत्तए वा खंडित्तए वा भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परिच्चइत्तए वा, तं जइणं तुम सीलव्वय जाव ण परिच्चयसि तो ते अहं एयं पोयवहणं दोहि अंगलियाहिं गेहामि, गिहित्ता सत्ततालप्पमाणमेत्ताई उड्डे वेहासं उव्विहामि, उन्विहिता अंतो जलंसि णिव्वोलेमि जेणं तुमं अट्ट. दुहवसते असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि, तएणं से अरहन्नए समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासी-अहं णं देवाणुप्पिया ! अरहन्नए णामं समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु अहं सके केणइ देवेण वा जाव निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा तुमं णं जा सद्धा तं करेहित्तिकटु अभीए जाव अभिन्नमुहरागणयणवन्ने अदीणविमणमाणसे निचले निप्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ ॥ सू० २० ॥
टीका-अरहन्नकवज्यैः सांयात्रिकैर्य थानुष्ठितं तदुक्तम्, अधुनाऽरहन्नकेन पिशाचरूपमवलोक्य यत् कृतं तदाह-'तएणं' इत्यादि । ततस्तदा खलु स अरहबकः अरहन्नकनामको मुख्यः सांयात्रिका, श्रमणोपासका श्रावकस्तं दिव्यम्
तएणं से अरहन्नए इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद मुख्य सांयात्रिक अरहन्नक को छोड़ कर अन्य सायात्रिकों ने जो २ किया उस के बाद (समणोवासए अरहन्नए) श्रमणोपासक अरहन्नक ने (तं दिव्वं पिसायरूवं पासित्ता ) जब दिव्य
'तएणं से अरहम्नए ' त्यात
ટીકાઈ-(vii) અરહુન્નક સિવાયના બીજા સયાત્રિકોની આવી હાલત થઈ त्या२ मा ( समणोवासए अरहन्नए) श्रमपास २२७न्न (तं दिव्वं पिसायरूवं पासित्ता ) या३ ते हिव्य अपूट-अभुत-पिशायन३५ने
For Private And Personal Use Only
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
=
३५२
हाताधर्मकथासूत्रे
,
अपूर्वदृष्टमद्भुतं विशाचरूपम् एजमानं = नावं प्रत्ति समागच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वाअभीतः, भयरहितः, अत्रस्तः त्रासमाप्तः अचलितः, अप्राप्तक्षोभः असंभ्रातः संभ्रान्तिरहितः अनाकुलः, अव्यग्रः अनुद्विग्नः, अमकम्पः अभिन्नमुखरागनयनवर्ण: = अभिन्नौ - अविकृतौ मुखरागनयनवर्णो यस्य स तथा तस्य भयाभावान्मुख - रागोनयनवर्ण श्वान्यथा न अदीनविमानो जातइत्यर्थः मानसः = अदीनविमनः- नदीनं दैन्यप्राप्तं, नापि विमनः = दुर्मनः नापि विकृतं मानसं यस्य स तथा तस्य मनो - Sप्यन्यथा न जातमित्यर्थः, तथा भूतः सन् पोतवहनस्य नौकायानस्यैकदेशे = एकभागे वस्त्रान्तेन वस्त्राञ्चलेन खलु भूमिम् = उपवेशनस्थानं प्रमार्जयति प्रमार्ण्य स्थानम्-उपवेशनार्हं स्थानं संशोध्य जीवादिरहितं कृत्वा तत्र तिष्ठति = उपविशति, स्थित्वा = उपविश्य करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽज्जालि कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् - नमोऽस्तु अद्भथो यावत् सिद्धिगतिनामधेयं
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अपूर्वदृष्ट- अद्भूत-पिशाच रूप को ( एज्जमानं ) नाव की तरफ आता हुआ (पासइ) देखा तो ( पासिता देखकर वह (अभीए ) डरा नहीं ( अतस्थे ) त्रस्त नहीं हुआ ( अ चलिए ) धैर्य से चलायमान नहीं हुआ ( असंभते ) घबराया नहीं ( अणाउले ) आकूल व्याकुल नहीं बना ( अणुव्विग्गे) उद्विग्न नहीं हुआ ( अभिन्न मुहरागणयणवन्ने ) उस के मुख का राग और नयनों का वर्ण विकृत नहीं बना ( अदीणविममाणसे ) उसका मन न दीन बना और न विकृत ही बना ( पोयव tree एगसंसि वत्थं तेणं भूमिं पमज्जह ) किन्तु नौका यान के एक तरफ वस्त्राञ्चल से भूमि को प्रमार्जित करने लगा - ( पमजित्ता ) प्रमार्जित कर के फिर वह ( ठाणं ठाह ) बैठ ने के योग्य स्थान का संशोधन कर उसे जीवादि रहित कर वहां बैठ गया ! (ठाइता करयलओ
" एज्जमानं " पोताना वहा तर भावतुं " पासइ ” लेयु त्यारे " पाखित्ता " लेने ते “ अभीए” लय याभ्यो नहि, " अतत्थे त्रस्त थये। नहीं, " अचलिए " धैर्य थी वियासित थये। नहि, " असंभंते " गलशयो नहि, " अणाउले व्याज थयो नहि, ( अणुव्विगो) उद्विग्न थयो नहि, ( अभिन्नमुह रागणयणवन्ने ) तेना भोनो रंगमने आमोना वर्षानभां नशये विकृत थयो नहि ( अदीण त्रिमणमाणसे ) तेनुं भन દીન બન્યું નહિ તેમજ વિકૃત થયું નહિ. ( पोयवहणस्स एगदेसंसि वत्थंतेणं भूमिं पमज्जइ ) ते वडाना शेड तरइनी लूमिने वखना छेडाथी प्रमार्जित रखा लाग्यो ( पम्मजित्ता ) प्रमानित अरीने ते ( ठाणंठाइ ) मेसवा योग्य स्थाननुं सशोधन अरीने स्थानने व वगेरेयी रडित मनाचीने त्यां मेसी गये. ( ठाइत्ता करयलओ एवं वयासी )
For Private And Personal Use Only
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते अरहनक श्रावकवर्णनम् ३५३
9
,
O
स्थानं संप्राप्तेभ्यः, यदि खल्वहम् एतस्मादुपसर्गाद् पिशाचकृत संकटात् निर्वि नो भवामि मुञ्चामि तदा मे तथा = तावत्पर्यन्तं प्रत्याख्यातव्यम् ० चतुर्विधभक्तप्रत्याख्यानं मयाऽनुष्ठेयमित्यर्थः इति कृत्वा साकारभक्तं = चतुर्विधमाहारं प्रत्याख्याति । ततस्तदनन्तरं खलु स पिशाचरूपधारी देवः, यत्रैवारनकः अरहन्नकनामकः श्रमणोपासकः = श्रावकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यारहन्नकम् - एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत - हंभो ! अरहन्नक ! हे अप्रार्थित प्रार्थित ! = अप्रार्थितं एवं वयासी) बैठ कर उस ने अपने दोनों हाथों की अंजलि बनाई । और उसे मस्तक पर रख कर आवर्त करते हुए वह इस प्रकार कह ने लगा - ( णमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं ) यावत् सिद्धगति को प्राप्त हुए अर्हत प्रभुओं को नमस्कार हो (जइणं अहं एत्तो उवसग्गाभो मुचामि तो मे कप्प पारिन्तए)
यदि मैं इस पिशाच कृत उपसर्ग से बच गया तो ही अशनादि ग्रहण करूँगा (अहं णं एतो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पथ Farmera ) यदि मैं इस उपसर्ग से नहीं बचा तो मेरे तावत्पर्यन्त चतुर्विध आहार का त्याग है ( त्ति कट्टु ) ऐसा विचार कर ( सागारं भन्तं पच्चक्खाइ) उसने साकार चतुर्विध आहारका प्रत्याख्यान कर दिया। अर्थात सागारी संधारा किया - (तरणं से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोचासए तेणेव उवागच्छद्द) इस के बाद वह पिशाच रूप धारी देव जहां वह श्रमणोपासक अरहन्नक बैठा था-वहां आया બેસીને તેણે પોતાના અને હાથની 'જિલ બનાવી અને તેને મસ્તક ઉપર भूडीने श्वतां ते या प्रमाणे उडेवा लाग्यो- " णमोत्थुर्ण अरहंताणं जाव सपत्ताणं" यावत्-सिद्धगतिने पाभेला भईत प्रलुग्गाने भारा नमस्ठार छे. ( जइणं अहं एतो उवसग्गाओ मुचामि तो मे कप्पर पारितए
ܕܕ
જે હું આ પિશાચના ઉપસૌથી બચી જઈશ તેાજ આહાર વગેરે श्रडुणु उरीश. " अह ंणं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पच्चक्खाए वे આ ઉપસર્ગ થી મારી રક્ષા નહિ થાય તે તાવપન્ત ચારતના आहारा हु त्याग ४३ छ "त्तिकट्टु " साम विचारीने " सागर भत्तं पच्चक्खाइ” तेथे साअर यतुविध आहारनं आत्याभ्यान यु.
એટલે કે તેણે સાગારી સથારા કર્યાં
( तण से पिसायरूये जेणेव अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छ ) ત્યાર બાદ પિશાચ રૂપ ધારીદેવ જયાં શ્રમણેાપાસક બેઠાહતા ત્યાં આળ્યે,
For Private And Personal Use Only
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे -यत् केनापि न प्रार्थितं मरणं, तत् प्रार्थितं येन, स अप्रार्थितप्रार्थितः । यद्वाहे तत्सम्बोधनम् हे मरणप्रार्थक !-अपस्थित प्रस्थित । अपस्थितः येन प्रस्थित इव मुमूर्षुरित्यर्थस्तस्य संबोधनम्, हे मरणवाञ्छक ! यावत् इह यावच्छन्देन 'दुरंतपंतलक्खणा, हीणपुण्णचाउद्दसिया सिरिहिरिधीकित्ति' इत्यन्तस्य संग्रहः। दुरन्तप्रान्तलक्षण ! दुरन्तं विपाककटु प्रान्तम् अवसानं लक्षणं स्वभावो यस्य स तथा, तस्यामन्त्रणं, हीनपुण्य चातुर्दशिक ! हीना क्षीणा पुण्या चन्द्रकला शुभकारकत्वात् यस्यां सा हीनपुण्या-कृष्णपक्षीयेत्यर्थः, सा चासौ चतुर्दशी च हीनपुण्य चतुर्दशी, तस्यां जातः, तत्सम्बोधनम् हे भाग्यहीन इत्यर्थः । श्रीहीधी कीर्तिपरिवर्जित । हे दरिद्र । हे निर्लज्ज ! हे बुद्धिहीन ! हे कुलकलङ्कित ! श्री लक्ष्मीः , ही लज्जा, धीः बुद्धिः, कीर्तिः यशः, ताभिः नो खलु कल्पते तवशीलव्रतगुणविरमणप्रत्याख्यानपोषधोपवासान्-तत्र शीलानि-सामायिकदेशावकाशिकपौषधतिथिसंविभागाख्यानि, व्रतानि पञ्चाणुव्रतानि, गुणा: त्रीणिगुणव्रतानि, विरमणं (उवागच्छित्ता अरहन्नगं एवं क्यासी) आकर उस ने अरहन्नक से इस तरह कहा (हं भो अरहन्नगा अपत्थियपत्थिया जाव परिवज्जिया) हे अरहन्नक ! हे अप्रार्थित प्रार्थित ! मरण की इच्छा करने वाला। यावत् शब्द से " हे दुरन्त प्रान्त लक्षण ! हे हीन पुण्य चातुर्दशिक ! हे श्री हीधी कीर्ति परिवर्जित ! हे कुल कलंकित ! ( णो खलु कप्पइ, तव सीलव्वयगुण वेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासाइं चालित्तए वा एवं खोभेत्तए वा खडित्तए वा भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परिच्चह तएवा ) मुझे तुम्हारे द्वारा पालित शीलो को व्रतों को गुणवतों को मिथ्यात्व की विनिवृत्ति को पर्व दिनों में हरित काय आदि के परित्याग
" उवागच्छित्ता अरहन्नगं एवं वयासी” मावीने तो अन्नने मा प्रमाणे धु-"ह भो अरहन्नगा अपत्थियपत्थिया जाव परिवज्जिया" सन्न ! હે અપ્રાતિ પ્રાર્થિત ! મૃત્યુને ભેટવાની ઈચ્છા રાખનાર ! “યાવત” શબ્દથી
હે દુરંતપ્રાંત લક્ષણ! હેહીનપુણ્ય ચાતુર્દેશિક ! હે શ્રીહીધી કીતિ પરિવજિત! उत !
(णो खलु कप्पइ, तव सीलव्ययगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासाइं चालित्तए वा एवं खोभेत्तएवा खंडित्तए वा भजित्तएवा उज्झित्तए वा परिच्चइत्तएवा )
તમારા વડે આચરિત શલેને, વતન, ગુણવતેને, મિથ્યાત્વની વિનિવૃત્તિને, પર્વના દિવસેમાં હરિફાય વગેરેના પરિત્યાગને, ચૌદશ, આઠમ,
For Private And Personal Use Only
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीकाअ० ८ अङ्गराजचरिते अरहन्नकश्रावकवर्णनम् ३५५ मिथ्यात्वानिवर्त्तनम् , प्रत्याख्यानं-पर्वदिनेषु हरितकायादि त्याज्यानामवश्यं परित्यागः, पोषधोपवास: पोष=पुष्टिधर्मस्य वृद्धिं धत्त इति पोषधः-चतुर्दश्यष्टम्यमावास्यापूर्णिमादिपूर्वदिनानुष्ठेयो व्रतविशेषः, एतेषां द्वन्दे तान् चालयितुं वा करणयोगरूपेण परिवर्तयितुम् , एवं क्षोयितुं वा एतान् एवं परिपालयामि, अथवा परित्यजामीति क्षोभं कर्तुं, खण्डयितुं देशतो भक्तुं भङ्क्तुं सर्वतो वा उज्झितुं देशविरतेस्त्यागेन, वा परित्यक्तुं सम्यक्त्वस्यापि त्यागात् वा, तद् यदि खलु त्वं शीलव्रत० यावत् न परित्यजसि तदा तवाहमेतत् पोतवहनं नौकायानं द्वाभ्यामगुलीभ्यां तर्जनीमध्यमाभ्यां गृहामि, गृहीत्वा सप्ताष्टतालममाणमात्रान् गगनभागान् यावत् , ऊर्ध्वं विहायसि-गगने 'उन्विहामि ' उद्विध्यामि प्रापयामि, ‘उन्विहित्ता' उद्विध्य ऊर्ध्वमाकाशे नीत्वा, 'अंतो जलंसि, ' अन्तको, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा आदि पर्वदिनों में अनुष्ठेय व्रत विशेष रूप पोषध को अन्यथा करण योग रूप से परिवर्तित करने की तुम इन्हें इस तरह से पालो अथवा इन का परित्याग कर दो इस रूपसे उन्हें क्षुभित करने की उन्हें एक देश अथवा सर्वदेश से खंडित करने की भंग करने की देश विरति के छुडवाने की अथवा सम्यक्त्व के परित्याग से उन के त्याग करवाने की मुझ में शक्ति नही है । अतः (जइणं तुम सीलव्वय जाव ण परिच्चयसि तो ते अहं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्हामि ) तुम इन शीलवत आदि कों को स्वयं छोड़ दोयदि नहीं छोडोगे तो मैं तुम्हारी इस नौका को दो अंगुलियों से-तर्जनी और मध्यमा से-पकड़ लूंगा (गिण्हित्ता सत्तट्ट तालप्पमाणमेत्ताई उड्डू અમાસ, પૂનમ વગેરે, પર્વના દિવસે માં અનુષ્ક્રય બતવિશેષ રૂપ પિષધને, અન્યથા કરણગ રૂપથી પરિવર્તિત કરવાની, તમે આ વ્રતે આ રીતે આચર કે આને પરિત્યાગ કરો આ પ્રમાણે તેમને શ્રુભિત કરવાની, તેમને એકદેશ અથવા સર્વદેશથી ખંડિત કરવાની-ભંગ કરવાની–દેશવિરતિનો ત્યાગ અથવા સમ્યકત્વના પરિત્યાગથી તેમને પરિત્યક્ત કરાવડાવવાની મારામાં તાકાત નથી એથી.
(जइण तुमं सीलमय जाव ण परिच्चयसि तो ते अहं पोयवहणं दोहि अंगुलियाहिं गेण्हामि)
તમે પિતાની મેળે જ આ શીલવ્રત વગેરે ને ત્યાગ કરે. જે તમે આ પ્રમાણે કરશે નહિ તે હું તમારા વહાણને બે આંગળીઓથી એટલે કે તજની અને મધ્યમાં આંગળીઓથી-કડી પાડીશ. (गिण्हित्ता सत्तद्वताल पमाण मेताइं उड़े वेहासं उब्धिहामि-उभिहिता अंतो
For Private And Personal Use Only
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
રૂદ્
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
जैलै - जलमध्ये, 'णिब्वोलेमि ' निव्रोडयामि = निमज्जयामि, येन त्वं ' अट्टदुहट्टसट्टे ' आर्तदुर्घटवशार्तः = आर्तम् - आर्त्तध्यानम् दुर्घटं = हिंसा दिदुर्घटनायुक्तत्वाद् रौद्रध्यानार्त्त, तयोर्वेशेन ऋतः पीडितः, अतएव 'असमाहिपत्ते' असमाधिमाप्तः, अकाले चैव = मरणकालात्पूर्वमेव जीवीतात् 'वबरोविज्जसि ' व्यपरोपयिष्य से - व्यपratefore मरिष्यसीत्यर्थः । ततः पिशाचवचनश्रवणानन्तरं सोऽरहन्नकः श्र putras: तं देवं पिशाचरूपं मनसा चैव एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् पि शारूपं देवं स्वमनसि सम्बोध्य स्वात्मन्येव वक्ष्यमाणप्रकारेणोक्तवानित्यर्थः, हे देवानुप्रिय ! हे देव ! अहं खलु अरहन्नको नाम श्रमणोपासकोऽभिगतजीवाजीवः = जीवाजीवतत्त्वज्ञः, नो खल्लु अहं शक्यः केनापि देवेन वा यावत् नै ग्रन्ध्यात् प्रबेहास उबिहामि - उविहित्ता अंतो जलसि णिव्वोलेमि) और पकड़ कर सात आठ ताल प्रमोण आकाश भाग तक उसे ऊपर पानी में डुबो दूँगा । ( जेणं तुम अदुहट्टवस असमाहिपत्ते अकाले चेव जीविधाओ ववरोविज्जसि ) जिससे तुम आर्त्त और दुर्घट-रौद्र-ध्यान के बश से पीडित होते हुए असमाधि को प्राप्त हो जाओगे और मरण काल से पहिले ही जीवन से रहित हो जाओगे ।
(तएण से अरहन्नए समणो वासए तं देव मणसा चेव एवं क्यासी) इस तरह उस पिशाच रूप धारी देव के वचन सुनने के बाद उस श्रमणोपासक अरहन्नक ने उस देव से अपने मन ही मन ऐसा कहा( अहं णं देवाणुपिया ! अरहन्नए णामं समणोवासए अहिगयजी वा जीवे नो खलु अहं सक्के केणइ देवेण वा जाव निग्गंथाओ पावयजलसि णिव्वोलेमि)
અને પકડીને સાત આઠ તાલ પ્રમાણ તેને ઉપર આકાશમાં લઈ જઈશ અને ત્યાંથી પાણીમાં ડૂબાડી મૂકીશ.
( जेणं तुमं अहट्टवसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चैव जीवियाओ ववरोविज्जसि ) એથી તમે આર્ત્ત અને દુટ-રૌદ્ર-ધ્યાનથી પીડિત થતા અસમાધિને મેળવશે અને મૃત્યુકાળ ના પહેલાં જ જીવન વગરના થઈ જશેા.
( तएण से अरहन्नए समणोवासए तं देवं मणसा चेत्र एवं वयासी ) આરીતે પિશાચ રૂપવાળા દેવની વાત સાંભળીને શ્રમણાપાસક અરહન્નકે દેવને પોતાના મનમાં જ આપ્રમાણે કહ્યું.
( अहंणं देवाणुपिया ! अरहनए णामं समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु अहं सक्के केiइ देवेण वा जान निग्गंथाओ पावयणाओ चालित वा
For Private And Personal Use Only
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणो टी०अ० ८ अङ्गराजचरिते अरहन्नकश्रावकवर्णनम् ३५७ वचनात् 'चालित्तए' चालयितुम् अन्यथाभावं कारयितुं वा, ‘खोभित्तए' क्षोभयितुं संशयोत्पादनेन क्षोभं कर्तुवा, तथा-'विपरिणामित्तए ' विपरणयितुं =विपरीताध्यवसायोत्पादनेनाप्यन्यथाकतुं वा, केनापि देवादिना श्रावकधर्माद् विचालयितुं नाहं शक्य इति संक्षिप्ताथैः । तत् खलु या यादृशी श्रद्धा वर्तते तत्तथा कुरु, त्वं यत् कर्तुमिच्छसि तत् कुरुष्वेत्यर्थः ' इति कटु' इति कृत्वा= इति स्वात्मन्युक्त्वा, अभीतः यावद्-अत्र यावच्छब्देन 'अतत्थे, अचलिए, असंभंते अगाउले, अणुब्बिग्गे, इत्येषां पदानां संग्रहः, एतान्यस्मिन्नेवसूत्रे व्याख्यातानि, णाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए या तुमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कटु अभीए जाव अभिन्नमुहरागणयणवन्ने अदीण विमगमाणसे निच्चले निफंदे तुसिणीए, धम्मज्झाणोवगए विहरह) हे देवानुप्रिय देव ! मैं अरहन्नक नामका श्रमणोपासक श्रावक हूँ।
जीव अजीव आदि तत्वों के स्वरूप को जानने वाला हूँ। किसी भी देव में ऐसी शक्ति नहीं है जो मुझे इस निर्ग्रन्थ प्रवचन से विच लित कर सके उस में अन्यथा भाव रूप से परिणमासके क्षुभित कर सके-संशयोत्पादन से मुझे उस में संदिग्ध बना सके तथा विपरिणामी बना सके-विपरीत अध्यवसाय के उत्पादन से उस में मुझे विपरीत बुद्धि वाला कर सकें, तात्पर्य इस का यही है कि कोई भी देव ऐसा नहीं है कि जिस के द्वारा में श्रावक धर्म से विचलित किया जा सकूँ। ___ इसलिये हे देव! तुम्हारी जैसी श्रद्धा हो वैसा तुम करो। इस खोभित्तएवा विपरिणामित्तएवा तुमणं जा सद्धा तं करेहि त्ति कटु अभीए जाव अमिन्नमुहरागणयणवन्ने अदीणविमणमाण से निच्चले निप्फंदे तुसिणीए धम्मज्झगोवगए विहरइ )
હે દેવાનુપ્રિયદેવ ! હું અરિહન્તક નામે શ્રમણોપાસક શ્રાવક છું.
જીવ અજીવ વગેરેના તના સ્વસ્કેપને જાણનાર છું. કેઈપણ દેવમાં તાકાત નથી કે જે મને પોતાના નિર્ગથપ્રવચનથી વિચિલિત કરી શકે, તેમાં અન્યથા ભાવ રૂપથી પરિણમાવી શકે, સુમિત કરી શકે, સંશય ઉન્ન કરીને મને તેમાં શંકાશીલ બનાવી શકે. અને વિપરિણામી બનાવી શકે, વિપરીત અધ્યવસાયના ઉતાદનથી નિગ્રંથ પ્રવચન પ્રત્યે મને વિપરીત બુદ્ધિવાળે કરીશકે. મતલબ એ છે કે કેઈપણ દેવમાં આટલી તાકત નથી કે તે મને પિતાના શ્રાવક ધર્મથી ડગાવી શકે.
એથી દેવ! તમારી જેવી શ્રદ્ધા હોય તેમ કરે. મનમાં દેવને સબંધીને
For Private And Personal Use Only
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ફર્ટ
कथासूत्रे
ज्ञाताधर्मक अभिन्नमुख रागनयनवर्णः = भयाभावादमतिहत मुखनेत्रप्रतिभः, तथा अदीनविमनोमानसः = भयसंशयरहितत्वात् विशादवैमनस्यरहितचित्तः, अतएव - निश्चलः = सुधीरः धर्मे दृढतर इत्यर्थः, निस्पन्दः = किंचिदपिकम्परहितः तूष्णीकः कृतवाक्संयमः स मौन इत्यर्थः धर्मध्यानोपगतः धर्मध्यानमेव शरणं कृत्य तत्परायणः विहरति = आस्तेस्म ||२२||
प्रकार देव को मन में संबोधन करके उस अरहनक श्रमणोपासक ने मन ही मन कहा- और अभीत, अत्रस्त, अचलित, असंभ्रान्त, अनाकुल, अनुद्विग्न, चित्त बना रहा । निर्भय होने के कारण उस के मुख और नेत्र की कांति में अन्तर नही आया ।
भय और संशय से रहित होने की वजह से उस का चित्त विषाद एवं वैमनस्य से रहित रहा । इसीलिये अपने धर्म में दृढ बना हुआ वह जरा भी उस से विचलित नही हुआ । किन्तु चुपचाप मौन धारण कर एक धर्म ध्यान को ही इस स्थिति में शरण मान उसी में वह तत्पर बना रहा । अप्रार्थित प्रार्थित आदि जो संबोधन पद सूत्र में आये हैं उनका अर्थ इस प्रकार है-जिसे कोइ भी नहीं चाहता है ऐसा अप्राधित मरण होता है उसे भी अरहनक श्रावक चाह रहा है ।
इसलिये देव ने उसे अप्रार्थित प्रार्थित इस संबोधन से संबोधित किया है । देव ने यह समझ कर की यह अरहननक अपने धर्म पर यदि
અરહન્નક શ્રમણેાપાસકે પાતાના મનમાં જ આમ કહ્યું. અને તે અભીત अत्रस्त, अयक्षित, असभ्रांत, अनाडुण, अनुद्विग्न, वित्तथी शांतथ्धने मेसी રહ્યો તે નિર્ભય હતા તેથી તેના મેાં અને આખાની કાંતિમાં જરાયે પરિત્રન थयु नहि.
ભય તેમજ સ`શય વગર હાવાથી તેનું ચિત્ત વિષાદ અને વૈમનસ્ય રહિત હતું. એથી જ તે પેાતાના ધર્મ પ્રત્યે દૃઢભાવ રાખતા તે જરાએ વિચલિત થયે નહિ, પણ ચુપચાપ મૌન ધારણ કરીને ફકત ધર્મધ્યાનને જ
આ સ્થિતિમાં શરણુ માનીને તેમાં તે તલ્લીન થઇ ગયા. અપ્રાર્થિત પ્રાથિત વગેરે જે સ ંબધન પદ્દો સૂત્રમાં આવ્યા છે તેનેા અથ આપ્રમાણે છે-કે જે મરણ ને ભેટવાનું કોઇપણ ઇચ્છે નહિ તે મરણને અરડુન્નક શ્રાવક ઇચ્છી રહ્યો હતા. એથી જ દેવે તેને અપ્રાર્થિત પ્રાથિત આ જાતના સબાધનથી સએષિત કર્યા છે. અરહુન્નક જો પેાતાને ધર્મને વળગી રહેશે તે તેના વિપાક
For Private And Personal Use Only
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते अरहन्नकश्रावकवर्णनम ३५९
मूलम्-तएणं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं समणोवासगं दोच्चंपि तचंपि एवं वयासी-हं भो ! अरहन्नगा० अदीण विमणमाणसे निचले निप्पंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ, तएणं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं धम्मज्झाणो.
गयं पासइ, पासित्ता बलियतरागं आसुरुत्ते तं पोयवहणं दोहिं दृढ बना रहता है तो इस का परिणाम उसे विपाककाल में कटु ही भोगना पडेगा-उसे दुरन्त प्रान्त लक्षण इस संबोधन पद से योधित किया है । कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में चन्द्रकला क्षीण रहती है इसलिये शुभ कारक चन्द्रकला से विहीन होने के कारण वह चतुर्दशी हीन पुण्य मानी जाती है देव कहता है कि मालूम होता है तेरा जन्म हुआ है अतः तूं भाग्य हीन है। इसलिये अरहनक श्रावक को उस ने हीन पुण्य चातुर्दशिक इस संबोधन पद से बोधित किया है। श्री ही आदि प्रत्येक में वर्जित पद के साथ संबोधन पद लगाकर देव ने अरहन्नक को संबोधित किया है-जैसे हे श्री वर्जित हे ही वर्जित आदि । सामायिक, देशाव काशिक, पौषध, अतिथि संविभाग ये शील हैं । अणुव्रत ५ हैं । गुणव्रत ३ हैं । यह सब श्रावक का धर्म है । इस तरह ४ शिक्षाव्रत, ५ अणुव्रत और ३ गुणव्रत ये १२ प्रकार श्रावक धर्म के यहां प्रकट किये गये हैं। सूत्र " २२" કાળમાં પકિણામ કટુ જ ભોગવવું પડશે. આ જાણીને જ દેવે તેને “દુરંત પ્રાંત લક્ષણ” આ પદથી સંબોધે છે. કૃષ્ણ પક્ષની ચૌદશના દિવસે ચંદ્રકળા ક્ષીણરૂપે રહે છે. એથી તે અમંગળકારી ગણાય છે તે મંગળકારી નહીં હોવાથી તે ચૌદશ હીન પુણ્ય ગણાય છે. દેવ તેને કહે છે કે તારો જન્મ આવા સમયે જ થયા છે એથી તે અભાગિયે છે. અરહન્તક શ્રાવકને દેવે એટલા માટે જ હીનપુણ્યચાતુર્દશિક પવડે સંબંધિત કર્યો છે. શ્રી, હી વગેરે દરેક પદની સાથે વજિત વિશેષણ લગાડીને જ દેવે અરહનકને સંબેधित यो छ. म 3-3 श्रीपति ! ही पति ! वगेरे. सामायिर, દેશાવક શિક, પૌષધ, અતિથિસંવિભાગ આ બધા શીલ છે અણુવ્રત પાંચ છે. ગુણવ્રત ત્રણ છે. આ બધે શ્રાવકનો ધર્મ છે. આરીતે ચાર શિક્ષાવ્રત, પાંચ અણુવ્રત, અને ત્રણ ગુણવ્રત આમ બાર પ્રકારને શ્રાવણ ધર્મ અહીં ચર્ચ. वामां माल्यो छ. ॥ सूत्र " २२ " ॥
For Private And Personal Use Only
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३६०
কাবাঘমকথা अंगुलियाहिं गिण्हइ, गिणिहत्ता सत्तट्टतलाइं जाव अरहन्नगं एवं वयासी-हं भो ! अरहन्नगा ! अप्पत्थियपत्थिया णो खलु कप्पड़, तव सीलव्वय तहेव जाव धम्मज्झाणोवगए विहग्इ। तएणं से पिसायरूवे अरहन्नगं जाहे नो संचाएइ निग्गंथाओ० चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संते जाव निठिवन्ने तं पोयवहणं सणियं२ उवीरं जलस्स ठवेइ, ठावित्ता तं दिवं पिसायरूवं पडिसाहरइ, पडिसाहरिता दिव्वं देवरूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता अंतलिक्खपडिवन्ने सखिं खिणियाइं जाव परिहिए अरहन्नगं समणोवासयं एवं वयासी "हं भो ! अरहन्नगा ! धन्नोऽसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाव जीवियफले जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पड़िवत्ती लंद्धा पत्ता अभिसमन्नगया। एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए बहूर्ण देवाणं० मज्झगते महया सद्देणं आइक्खइ ४, एवं खलु जंबूढीवेर भारहे वासे चंपाए नयरीए अरहन्नए समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खल्लु सक्के केणइ देवेण वा दाणवेण वा णिग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा जाव विपरिणामेत्तए वा । तएणं अहं देवाणुप्पिया ! सकस्स. णो एयमद्रं सद्दहामि०, तएणं मम इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जेत्था, गच्छामि णं अरहन्नयस्स अंतिये पाउब्भवामि, जाणामि ताव अहं अरहन्नगं किं पियधम्मे ? नो पियधम्मे
For Private And Personal Use Only
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
न
गारधामृतवर्षिणी टीका ८८ अङ्गराजचरिते अराकनावकवर्णनम् ॥ दढधम्मे नोदढधम्मे ? सीलव्वयगुणे किंचालेति जाव परिचयइ णो परिचयइ तिकटु, एवं संपेहेमि, संपेहित्ता ओहिं पउंजामि, पउंजित्ता देवाणुप्पियं ओहिणाआभोएमि, आभोइत्ता उत्तरपुरस्थिमं० उत्तरविउव्वियं० ताए उकिटाए गईए जेणेव समुद्दे जेणेव देवाणुप्पिया ! तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता देवाणुप्पियरस उवसग्गं करेमि, नो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा०, तं जपणं सके देविंदे देवराया वदइ सच्चेणं एसमटे ते दिटेणं देवाणुप्पियाणं इड्डी जुई जसे भाव परकमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए, तं खामेमि गं देवाणुप्पिया ! खमंतु णे देवाणुप्पिया ! गाइ भुजोर एवं करणयाए तिकडु पंजलिउडे पायवडिए एयमझु विणएणं भुजोर खामेइ, खामित्ता अरहन्नयस्स दुवे कुंडलजुयले दलयति, दलयित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू० २३॥
टीका।- 'तएणं से दिव्वे' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स दिव्यः पिशाचरूप:-पिशाचरूपधारी, अरहन्नकम् अरहन्नकनामकं श्रमणोपासक श्रावक 'दोचपि' द्वितीयवारमपि, तच्चंपि-तृतीयवारमपि, एवम्-उक्तमकररेण अवादीत्-हंभो ! अरहन्नक० ! अमार्थित प्रार्थित ! नो खलु कल्पते-तब शीलवत.
'तएणं से दिव्वे पिसायस्वे' इत्यादि। टीकार्थ-(तएण) इसके याद (से दिव्वे पिसाय रूवे) उस पिशाचरूप धारी देव ने ( अरहन्नगं समणोपासगं) उस श्रमणोपासक अरहन्नक से (दोच्चपि तच्च पि ) दुवारा तिवारा भी ( एवं वयासी) ऐसा ही कहा की हे अरहन्नक० । अप्रार्थित प्रार्थित ! मुझ में ऐसी शक्ति नही
'तएणं से दिव्वे पिसायरूबे' या
टी-( तएणं ) त्या२मा “से दिव्वे पिसायरूवे" ते पिशाय३५ था। हेवे " अरहन्नगं समणोपागं" श्रमपास २५२ नयी “दोच्चापि तच्चापि" भी मनत्री मत ५५ " एवं पयासी" मा प्रभार {-18 અરહનક!:અપ્રાર્થિત પ્રાર્થિત તમારા શીલ વિગેરે શ્રાવક ધમને બદલવાની કે
शा० ५६
For Private And Personal Use Only
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३६२
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
इत्यादि येन स्व मार्तदुर्घटवशार्तः असमाधिमासः अवाले चैव जीविताद् व्यपरोपयिष्य से इत्यन्तं पूर्वोक्तमेववाक्यं द्वितीयतृतीयवारमप्रयुक्तवानित्यर्थः । तथापि सोsरहन्नकः श्रावकः अदीन विमनो मानसः = विषादवैमनस्य रहितचित्तः, निबल: =धीरः, निस्पन्दः = भयाभावद् कम्परहितः = तूष्णीकः = भयरहिततत्वेन सभयवाग्व्यापाररहितः : यद्वा- कृतवाक संयमः, धर्मध्यानोपगतः, धर्मध्यानशरणसुपागतः विहरति- आस्तेस्म ० ।
ततस्तदन्तरं खलु स दिव्यः पिशाचरूपोऽरहन्नक धर्मध्यानोगतं पश्यति, दृष्ट्वा बलिततर कम्= अत्यन्तम् ० आशुरुतः झटिति क्रोधाविष्टस्तत् पोतवाहनं नौकायनं, द्वाभ्याम वलीभ्याम् = तर्जनीमध्यमाभ्यां गृह्णाति । गृहीत्वा सप्ताष्टतालप्रमाण हैं कि मैं तुम्हारे इन शीलादिकों का परिवर्तन आदि कर सकू अतः तुम स्वयं ही इन का परित्याग कर दो-तो ठीक है नही तो मैं तुम्हारी नौका को पानी में डुबा दूंगा ।
-
इस से तुम, आर्त्त रौद्रध्यान के वशवर्ती होकर असमाधि को प्राप्त हो जाओगे - तथा मरण काल से पहिले ही जीवन से रहित हो जाओगे। इस तरह जैसा उस ने प्रथम बार कहा - द्वितीय और तृतीय बार भी अरहन्नक श्रावक को वैसा ही कहा- ( तएण से दिव्वे पिसाय रूवे अरहन्नगं धम्मज्झाणोवायं पासह पसित्ता बलियतरागं आसुरुते तं पोयवहणं दोहिं अगुलियाहिं गिव्ह ) इस के बाद जब उस पिशाचरूप धारी देव ने अपनी बात पर ध्यान नही देते हुए अरहन्नक श्रावक को विषाद वैमनस्य से रहित चित्त होकर निश्चल रूप से बिना
તેમાં કોઇ પણ જાતના ફેરફાર કરવાની મારામાં તાકાત નથી, જો તમે પેાતાની મેળેજ એમના ત્યાગ કરેા તા ઠીક ! નહીં તેા તમારા વહાણને હું પાણીમાં ડુબાડી દઈશ.
તેથી તમે આન્ત રૌદ્ર ધ્યાનના વશવતી થઇને અસમાધિને પ્રાપ્તકરશે. તેમજ મૃત્યુના સમય પહેલાં જ મૃત્યુને ભેટશેા. આ પ્રમાણે જેમ તેણે પહેલી વખત કહ્યું હતું તે પ્રમાણે જ બીજી અને ત્રીજી વખત પણુ અરહુન્નક શ્રાવકને દેવે કહ્યું.
( तरणं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं धम्मज्झाणोवगयं पासइ पासित्ता बलियतरागं आसुरुते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गिव्ह )
ત્યાર બાદ પિશાચરૂપ ધારી દેવે અરહન્નક શ્રાવકને વિષાદ અને વમનસ્ય રહિત ચિત્તવાળા થઈને નિશ્ચળ રૂપથી, ભય વગર થઈને, મૌન ધારણ
For Private And Personal Use Only
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ अराजवरित भरहन्नकश्रावकषर्णनम् ३ मात्रान् यावत् ऊर्च गगने नीत्वाऽरहन्नके श्रावकमेवम् उक्तप्रकारेण अवादीहंभो ! अरहन्नक ! अप्रार्थित प्रार्थित ! नो खलु कल्पते तब शीलवत तथैव-सो ऽरहन्नकः पूर्ववदेव यावत् धर्मध्यानोपगतो विहरति-आस्ते स्म । किसी भय के मौन सहित धर्मध्यान में ही मग्न देखा तो देख कर वह उस पर क्रोध के आवेश से अत्यंत लाल पीला बन गया। और उस पोतयान को उस ने अपनी दोनों अंगुलियों-मध्यमा एवं तर्जनी अंगुलियों से-पकड लिया। (गिण्हित्ता सत्तहतलाई जाव अरहन्नगं एवं वयासी) पकड़ कर वह उसे ऊपर आकाश न सात आठ ताल प्रमाण आकाश भाग तक ले गया-ले जाकर फिर उस में अरहन्न श्रावक को इस प्रकार कहा - ( हं भो अरहन्नगा। अपस्थियपत्थिया ! णो खलु कप्पह तव सीलन्वय तहेव धम्मज्झाणोवगए विहरइ ) हे अरहन्नक ! हे अप्रार्थित प्रार्थित ! मुझे तुम्हारे इन शीलवत आदिकों को विचलित आदि करना उचित नहीं हैं अतः तुम ही खुशी से उन्हें छोड़ दो-नही तो मैं तुम्हारी इस नौका को यहां से पटक कर पोनी में डुबो दूंगाजिस से तुम असमाधि प्राप्त होकर आर्तध्यानादि के वशवर्ति बन मरणकाल से पहिले मृत्युके वश हो जाओगे । देवके इस कह ने पर अरहन्नक श्रावकने कुछ भी ध्यान नही दिया प्रत्युत उसे मन ही मन કરીને ધર્મધ્યાનમાં જ તલ્લીન છે ત્યારે તે તેના ઉપર-ક્રોધમાં ભરાઈ લાલ પીળો થઈ ગયો, અને તેણે વહાણને પિતાની બે આંગળીએ-મધ્યમાં मन तनी-43 ५४ीधु. “ गिण्हित्ता सत्तद्वतलाई जाव अरहन्नग एवं वयासी' પકડીને તે વહાણને સાત આઠ તાલ પ્રમાણે જેટલું આકાશમાં લઈગયે અને લઈ જઈને તેણે અરહનક શ્રાવકને આ પ્રમાણે કહ્યું.
(हं भो अरहन्नगा! अपत्थियपस्थिया ! णो खलु कप्पद तवसीलव्यय तहेव धम्मज्झाणोवगए विहरह)
હે અરહનક! હે આપ્રાર્થિત પ્રાર્થિત! હું તમને પિતાના શીલવ્રત વગેરેથી વિચલિત કરૂં તે યોગ્ય ન લેખાય એથી તમે રાજીખુશીથી પિતાની મેળે જ તેમને ત્યજો નહિતે તમારા વહાણને હું અહીંથી પટકીને પાણીમાં ડુબાડી દઈશ. જેથી તમે અસમાધિને મેળવીને આધ્યાન વગેરેના વશવતી થશે અને છેવટે મૃત્યુના સમય પહેલાં જ મૃત્યુને ભેટશે દેવની આ વાત પર અરહનક શ્રાવકે જરાએ ધ્યાન આપ્યું નહિ અને તેણે પિતાના મનમાં જ
For Private And Personal Use Only
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथासूत्रे . ततस्तदनन्तरं खलु स पिशाचरूपः पिशाचरूपधारी देवः, अरहनकं यदा नो शक्नोति नैग्रन्थ्यात् प्रवचनात् चालयितुं वा क्षोभयितुं वा विपरिणमयितुं वा 'ताहे. तदा स पिशाचः 'संते' श्रान्तः परिश्रमं प्राप्तः स्थग्नः, मनसा खिन्न इत्यर्थः, यावत्-अत्र यावत् करणेन-तंते' परितते इत्यनयोः संग्रहः । तान्तः-शरीरेण खेदं प्राप्तः, परितान्तः सर्वथा खिन्नः, निचिन्ने ' निर्विणः उपसर्गकरणात् प्रतिनिवृत्तः, तत् पोतवहनं नौकायानं, शनैः शनैरुपरिजलस्य, 'ठवेइ ' स्थाप. यति० 'ठावित्ता' स्थापयित्वा तद् दिव्यं पिशाचरूपं 'पडिसाहरइ' प्रतिसंहरति संबोधित कर " मुझे इस निग्रन्थ प्रवचसे कोई भी देव विचलित नहीं कर सकता है " ऐसा ही विचार-कहा-तथा अडिग भावसे निर्भय बन मौन लिये हुए. अपने धर्मध्यानमें ही वह स्थिर रहा। . (तएणं से पिसायरूवे अरहन्नगं जाहे नो संचाएइ, निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणा मित्तए वा ताहे संते जाव निम्विन्ने तं पोयवहणं सणिय उवरिजलस्स ठवेइ ) इस तरह वह पिशाच रूप धारी देव जव अरहन्नक श्रावक को निर्ग्रन्थ प्रवचन० से चलाने के लिये, उस से क्षुभित करने के लिये, विपरिणमित करने के लिये समर्थ नहीं हो सका तब श्रान्त और भग्न मन से खिन्न-होकर वह उपसर्ग करने रूप अपने कृत्य से प्रति निवृत्त हो गया। और धीरे २ आकाश से उतार उस पोतयान को उस ने पानी के ऊपर रख दिया। ( ठाधित्ता दिव्य पिसायरूव पडिसाहरइ ) વિચાર કરીને કહ્યું–“આ નિગ્રંથ પ્રવચનથી મને કોઈ પણ દેવ હટાવી શકશે નહિ.' આમ વિચારી ને નિશ્ચળ અને નિર્ભય થઈને તે મૌન પાળતે તે પિતાના ધર્મધ્યાન માંજ તલ્લીન રહ્યો.
(तएणं से पिसायरूवे अरहन्नगं जाहे नो संचाएइ निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तएवा विपरिणामित्तएवा ताहे संते जाव निचिन्ने तं पोयवहणं सणियं उवरिं जलस्स ठवेइ )
આ પ્રમાણે પિશાચ રૂપધારી દેવ જ્યારે અરહન શ્રાવકને નિગ્રંથ પ્રવચનથી વિચલિત કરવામાં, તેનાથી બુભિત કરવામાં, વિપરિણમિત કરવામાં શક્તિમાન થઈ શકે નહીં ત્યારે શાંત અને ભગ્નમનથી ખિન્ન થઈને ઉપસર્ગ કરવા રૂપ પિતાના કર્મથી પ્રતિનિવૃત્ત થઈ ગયા. અને આકાશમાંથી धाभधीमे उतरीन तेथे १९५५ २ ५५ 8५२ भूसीधु. ( ठावित्ता त दिव्वं पिसायरूवं परिसाइरह)
For Private And Personal Use Only
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
-
---
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते अरहन्नकश्रावकवर्णनम् १६५ विलीनयति० । प्रतिसंहत्य-पिशाचरूपमन्तर्हितं कृत्वा दिव्यं प्रशस्त परमसुंदरं देवरूपं विकुर्वति प्रादुर्भावयति । विकुर्वित्वा = दिव्यं देवरूपं प्रादुर्भाव्य, अन्तरिक्षपतिपन्नः आकाशस्थितः, 'सखिखिणियाई' सर्किङ्किणोकानि यावद् प्रघरवस्त्राणि परिहितः, स देवोऽरहन्नकं श्रमणोपासकमेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-हंभो ! अहो ! अरहन्नक ! धन्योऽसि खलु त्वं, हे देवानुपिय ! यावत् त्वया जन्मजीवितफलं लब्धं, यस्य खलु तव निर्ग्रन्थे प्रवचने इममेतद्पा पतिपत्तिः सम्यक्श्रद्धा लब्धा-उपार्जिता प्राप्ता स्वायत्तीकृता०, अभिसमन्वागता= रखकर फिर उसने वह अपना दिव्य पिशाच का रूप समेट लियाअन्तर्हित कर लिया-(पडिसाहरित्ता दिव्वं देवरूवं विउवह, विउन्वित्ता अंतलिक्खपडिवन्ने सखिखिणियाइं जाव परिहिए अरहन्नगं जाव समणोवासयं एवं वयासी) अन्तर्हित कर के फिर बाद में वह अपने घास्तविक दिव्यरूप में आ गया।
दिव्यरूप में आकर के उसने जो उस समय वस्त्रों को धारण कर रखा था-वे क्षुद्र घटिकाओ से युक्त बड़े ही सुन्दर थे। आकाश में रह कर ही उसने श्रमणोपोसक अरहन्नक से इस प्रकार कहा-(हं भो अरिहन्नगा ! धनो सि णं तुमं देवोणुप्पिया! जाव जीवियफले जस्सणं तब निग्गंथे पावयणे इमेयारूवे पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया) अहो अरहन्नक ! तुम धन्य हो। हे देवानुप्रिय ! तुमने यावत् जन्म और जीवन का फल प्राप्त कर लिया है जो इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में इस प्रकार મૂકીને તેણે પિતાનું દિવ્ય પિશાચરૂપ અન્તહિત કરી લીધું
पडिसाहरित्ता दिव्वं देवरूवं विउव्वइ, विउचित्ता अंतलिक्खपडिवन्ने सखिणियाई जात्र परिहिए अरहन्नगं जाव समणोवासयं एवं वयासी)
અન્તહિત કરીને તેણે પિતાના સાચા દિવ્ય રૂપને ફરી ધારણ કરી લીધું.
દિવ્ય રૂપમાં પહેલાં તેના વસ્ત્રો નાની નાની ઘૂઘરીઓવાળાં ખૂબ જ સુંદર હતાં. આકાશમાં સ્થિર રહીને તેણે શ્રમણોપાસક અરહનકને આ પ્રમાણે કહ્યું
(हे भो अरिहन्नगा धन्नोसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाव जोवियफले जस्तमें तब निग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्तीलद्धा पत्ता अभिसमन्नागया)
હે અરહનક તમે ધન્ય છે ! હે દેવાનુપ્રિય ! તમે સંપૂર્ણ પણે જન્મ અને જીવનનું ફળ મેળવી લીધું છે. કેમ કે આ નિગ્રંથ પ્રવચનમાં આ રીતે
For Private And Personal Use Only
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
1
सम्यगासेविता वर्त्तते । हे देवानुप्रिय ! एवम् अमुना प्रकारेण खलु शक्रो देवेन्द्रः =परमैश्वर्यत्रत्वाद्देवानामिन्द्रः, देवराजः = देवानां राजा कान्त्यादिगुणाधिक्येन विराजमानत्वाद्, सौधर्मे = सौधर्म नाम के प्रथमे कल्पे, सौधर्मावतंस के विमाने सुधर्मायां सुधर्माख्यायां सभायां देवसभायां बहूनां देवानां मध्यगतः = मध्ये स्थितः महता शब्देन = उच्च्चैः स्वरेण, 'आइक्खड़ ' आख्याति = सामान्यरूपेण ब्रवीति, भाषते = विशेषतः कथयति, प्रज्ञापयति = सामान्यतो बोधयति, प्ररूपयति, विशेषतः प्रतिबोधयति । किमित्याह ' एवं खलु ' इत्यादिना ।
की यह सम्यक श्रद्धा प्राप्त की है और उसे अपने आधीन कर लिया है । तथा वह श्रद्धा इस समय तक भी तुम्हारे द्वारा अच्छी तरह अचल रूप में सेवित हो रही है । ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्म वर्डिसए विमाणे सभाए ) सुह
माए बहूणं देवाणं मज्झगए महया सदेणं आइक्खई ४ ) मैंने तुम्हारे साथ ऐसा क्यों किया इसका कारण यह है कि हे देवानुप्रिय ! एक दिवस परम ऐश्वर्यशाली देवों के इन्द्र शक देवराज ने सौधर्म नाम के प्रथम कल्प में सौधर्मावतंसक विमान में अनेक देवों के बीच में बैठकर अपनी सुधर्मासभा में उच्चस्वर से पहिले तो सामान्य रूप से, कहा, बाद में भाषण द्वारा विशेष रूप से कहा । पहिले सामान्य रूप से समझाया, बाद में विशेषरूप से समझाया। उस में उन्हों ने कहा - ( एवं खलु जंबूद्दीवे २ भारहे वासे चपाए नयरीए अरहन्नए सम
તમે સમ્યક શ્રદ્ધા મેળવી છે અને તેને સ્વાધીન બનાવ્યુ છે અત્યાર સુધી પણ તમે તે શ્રદ્ધા તે જ સારી રીતે અચળ રૂપે વળગી રહ્યા છે.
O
( एवं खलु देवाणुपिया ! सक्के देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मत्रडिसए त्रिमाणे समाए मुहम्मार बहूणं देवार्ण मज्झगए महए संदेणं आइक्खई ४) મેં જે કંઇ તમારી સાથે વર્તન કર્યુ છે તેની પાછળનું કારણુ આ પ્રમાણે છે કે હે દેવાનુપ્રિય ! એક દિવસે પરમ અશ્વય શાળી દેવાના ઈન્દ્ર શક્ર દેવરાજે સૌધમ નામના પહેલા કલ્પમાં સૌધર્માવત'સક વિમાનમાં ઘણા દેવાની વચ્ચે બેસીને પેાતાની સુધર્મા સભામાં મેટા સાદે પહેલાં તા સામાન્ય રૂપે કહ્યું અને ત્યાર બાદ પાતાના ભાષણ વડે વિશેષ રૂપમાં કહ્યું. તેઓ એ પહેલાં સામાન્ય અને ત્યાર પછી વિશેષ રૂપમાં સમજાવતાં કહ્યુ—
( एवं खलु जंबूदीवे२ भारहे वासे चंपार नयरीए अरहनए समणोवासए
For Private And Personal Use Only
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका ४०८ अङ्गराजचरिते अगहनक श्रावकवर्णनम् ३६७
एवं खलु जम्बूद्वीपेद्वीपे जम्बूद्वीपनामके द्वीपे भारते वर्षे = दक्षिण भरतक्षेत्रे चम्पायां नगर्याम् अरहानकः श्रमणोपासकोऽभिगतजीवाजीवो यावत् - सम्यक्त्वमूल देश विर तिलक्षणे धर्मे दृढचित्तो वर्तते, असौ नो स्खलु शक्यः केनापि देवेन वा दानवेन वा इदमुपलक्षणम् - किन्नरेण वा, किंपुरुषेण वा महोरगेण वा गन्धर्वेण वा इति संयोज्यम् । तत्र देवो वैमानिको ज्योतिषको वा दानवो भवनपति, इतरे किनरादयो व्यन्तरभेदाः, 'णिग्गंथाओ' नैर्ग्रन्ध्यात् प्रवचनात् चालयितुं वा यावत् क्षोभयितुं वा, 'विपरिणामित्तए' विपरिणमयितुं = विपरीताध्यवसायोत्पादनान्यथाभावं जनयितुं वा । जम्बूद्वीपान्तर्गतभरतक्षेत्रे चम्पानगरी निवासी-अरहक नामकः श्रावको केनापि देवादिना श्रावकधर्माच्चालयितुं न शक्यत इतिभावः । गोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु सक्के केणइ देवेण वा दाण dr at furiधाओ पावयणाओ चालित्तए वा जाव विपरिणामेतए वा) देखो - जंबूद्वीप नाम के द्वीप में दक्षिण भरत क्षेत्र में, चंपा नाम की नगरी में जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता अरहन्नक नाम का श्रमणोपासक सेठ रहता है।
यह सम्यक्त्व मूल देश विरति रूपधर्म में इतना दृढचित्त हैं कि यह किसी भी देव दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व द्वारा अपने निर्ग्रन्थ प्रवचनरूप गृहीत धर्म से विचलित नहीं किया जा सकता है।
क्षुभित नहीं किया जा सकता है। विपरीत अध्यवसाय के उत्पादून से उसमें अन्यथा भाव उत्पन्न नहीं किया जा सकता हैं इन में वैमानिक एवं ज्योतिषी देवों का देव : पद से तथा भवनपति का दानव पद से ग्रहण हुआ है। शेष किन्नरादिकों का कि जो व्यन्तर देव हैं उपलक्षण से ग्रहण किया गया है।
अहिगय जीवाजीवे नो खलु सक्के केणइ देवेण वा दाणवेण वा णिग्गंथाओ पा वयणाओ चालित्तए वा जान विपरिणामेत्तए वा )
જુઓ-જમૂદ્રીપ નામનાં દ્વીપમાં દક્ષિણ ભરતક્ષેત્રમાં ચંપ:નામની નગરીમાં જીવ અજીવ વગેરે તત્ત્વાને જાણનાર અરહન્નક નામે શ્રમણેપાસક શેઠ રહે છે. તે સમ્યકત્વમૂળ દેશ વિરતિ રૂપ ધમમાં આટલે બધા સ્થિર ચિત્ત છે કે ગમે તે દેવ દાનવ, કિન્નર કિપુરુષ મહેારગ, ગધવ વડે પણ પાતાના નિગ્રંથ પ્રવચન રૂપ ધાઁથી તે વિચલિત થતા નથી.
ક્ષુભિત તેમજ વિપરીત અધ્યવસાયના ઉત્પાદનથી તેમાં ખીન્ને ભાવ ઉત્પન્ન થતા નથી. અહીંયા ધ્રુવપદથી વૈમાકિ અને જ્ગ્યાતિષી દેવાંનું તેમજ દાનવપદ્મથી ભવનપતિનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે.
For Private And Personal Use Only
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथास्त्रे ____ ततः शक्रदेवेन्द्रवचनश्रवणानन्तरं र लु अहं हे देवानुप्रिय ! शक्रस्य नो ए. तमयं श्रद्दधामि नो प्रत्येमि नो रोचयामि, शक्रोक्तवाक्यार्थे मम विश्वासो न जात इत्यर्थः । ततः खलु ममायमेतद्रूपः वक्ष्यमाणरूपः अभ्यर्थितः यावत्-चिन्तितः, प्रार्थितः, कल्पितः, मनोगतः संकल्पः समुदपधत समभवत्-गच्छामि खलु अरहअकस्यान्तिके समीपे प्रादुर्भवामि, तावद् अहम् अरहन्नकं, शक्रेण प्रशंसितोऽरहमका स कीदृशो वर्तते किंपियधम्मे ' किं प्रियधर्मा-प्रियोधर्मों यस्य स प्रियधर्मा, प्रीतिभावेन सुखेन च धर्मस्य स्वीकारात् प्रियधर्मा वर्तते किम् , अथवा ' नो पि. यधम्मे' नो प्रियधर्मा स नास्ति पियधर्मा, तथा-किमसौ ' दधम्मे ' दृढ़धर्मा विपत्नुपस्थितास्वपिधर्मस्यापरित्यागकरणात् दृढः स्थिरः धर्मों यस्य स दृढधर्मा, ... तात्पर्य इस का केवल एक यही है कि जंबूद्वीप नाम का एक द्वीप है। उस में भरत क्षेत्र नाम का क्षेत्र है । उस में चंपा नाम की नगरी है। यह अरहन्नक नाम का श्रावक उमी नगरी का निवासी है । वह अपने धर्म में इतना अधिक दृढ है कि उसे अपने धर्म से विचलित कर ने की किसी भी देव दानव में शक्ति नहीं है । (तएणं अहं देवाणुप्पि. या! सकस्स०णो एयमलु सहहामि० तएणं मम इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जेत्या) जब शक्र देवेन्द्र ने इस प्रकार कहा-तो उनके कथन को सुननेके याद हे देवानुप्रिय मुझे उनके उन वचनों पर विश्वासश्रद्धा नही हुई वे उनके वचन मुझे रुचिकारक नहीं हुए। अतः मेरे मनमें इस प्रकार का अभ्यर्थित, चिन्तित, प्रार्थित, कल्पित संकल्प उप्तन हुआ (गच्छामिणं अरहनस्स अंतिए पाउन्भवामि, जाणामि ताव अहं
તાત્પર્ય–આ પ્રમાણે છે કે જંબુદ્વીપનામે દ્વીપ છે. તેમાં ભરતક્ષેત્ર નામે ક્ષેત્ર છે. તે ક્ષેત્રમાં ચંપા નામે નગરી છે. તે અરહનક શ્રાવક ચંપા નામે નગરીમાં વસે છે તે પિતાના ધર્મમાં એટલે બધે સુદૃઢ છે કે દેવ દાનવમાં પણ તાકાત નથી કે તેઓ તેને પિતાના ધર્મથી હટાવી શકે.
(तएणं अहं देवाणुप्पिया ! सक्कस्स० णो एयमद्वं सद्दहामि० तएणं मम इ. मेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जेत्था) ।
જ્યારે શક દેવેન્દ્ર આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે તેમની વાત સાંભળીને મને તેમની વાત ઉપર શ્રદ્ધા તેમજ વિશ્વાસ બેઠે નહિ. મને તેમના વચન ગમ્યાં પણ નહિ. એથી મારા મનમાં આ જાતને અભ્યર્થિત, ચિંતિત, પ્રાર્થિત, કલ્પિત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે.
(गच्छामि गं अरहन्नस्स अंतिए पाउब्भवामि जाणामि ताव अहं अरहन्नगे कि
For Private And Personal Use Only
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते मरहन्नकभावकवर्णनम् २६९ अथवा-'नो दढधम्मे ' नो दृढधर्मा सोऽरहन्नको नास्ति दृढधर्मा ? स च शीलव्रतगुणान् किं चालयति अपनयति यावत् परित्यजति, किं वा नो परित्यजति अत्र यावत् करणात्-क्षोभयति किंवा नो क्षोभयति ? खण्डयति किंवा नो खण्डयति ? उज्झति किंवा नो उज्झति ? इति बोध्यम् । इति कृत्वा इत्येवं मनसि विचार्य, एवं संप्रेक्षे, संप्रेक्ष्य अवधिम् अवधिज्ञानं प्रयुञ्जे प्रेरयामि प्रयुज्य देवानुप्रियम् आभोगयामि-पश्यामि । आभोग्य उत्तरपौरस्त्यम्-ईशानकोणदिग्भागं गच्छामि, गत्वा, ' उत्तरविउनियं' उत्तरवैक्रियं करोमि, कृत्वा तयोत्कृष्टया गत्या-देवस. म्बन्धिन्या गत्या यत्रैव समुद्रः, यत्रैव देवानुपियस्तत्रैवोपागच्छामि, उपागत्य देअरहन्नगं किं पियधम्मे ? नो पियधम्मे दढधम्मे नो दढधम्मे ? सील व्वयगुणे किं चालेंति, जाव परिचयइ, णो परिच्चयइ) कि चलो अरहनक के पास चलें-और चलकर यह ज्ञातकरें.कि अरहन्नक को धर्म प्रिय है, कि नहीं है, वह धर्म में दृढ है कि नहीं है । वह अपने शीलों को, व्रतो को और गुणों को छोड़ता है अथवा नहीं छोडतो है, उन्हें क्षुभित करता है, या नहीं करता है, उनका खंडन करता है या नहीं करता है। प्रवचन में एक देश से भी उस में अतिचार लगाता है या नहीं लगाता है (त्तिकटु एवं संपेहेमि ) हे अरहन्नक ! मैंने ऐसा विचार किया (संपेहित्ता ओहिं पउंजामि ) विचार करके फिर मैंने अपने अवविज्ञान को जोडा (पउंजित्ता देवाणुप्पियं ओहिणा आभोएमि, आभो. इत्ता उत्तरपुरथिम० उत्तर विउव्वियं० ताए उकिट्ठाए गइए जेणेव देवाणुप्पिया तेणेव उवागच्छामि) अवधिज्ञान को जोड कर मैंने उसके द्वारा आप देवानुप्रिय को देखा। पियधम्मे नो दढधम्मे ? सीलव्यय गुणं किं चालेंति जाव परिचयइ, णो परिचयइ
કે ચાલે અરહનકની પાસે જઈએ અને જઈને તપાસ કરીએ કે તેને ધર્મ પ્રિય છે કે કેમ ? તે પિતાના શીલેને, વ્રતને અને ગુણેને ત્યજે છે કે કેમ? તેમને શ્રુભિત કરે છે કે નહિ તેમજ તેમનું ખંડન કરે છે કે કેમ? अवयनमा से देशथी ५५५ ते मतिया२ सा छ भ? (ति कडे एवं संपेहेमि ) 3 अन्न ! भे' मा प्रमाणे विया२ . ( सपैहित्ता ओहिं पडं जामि ) विया२ ४१२ मे भा२। अधिज्ञानयी सति साडी
(पडंजित्ता देवाणुप्पियं ओहिणा आभोएमि आभोइत्ता उत्तरपुरथिमं उत्तर विउब्वियं०ताए उक्ट्ठिाए गइए जेणेव समुद्दे जेणेव देवाणुप्पिया तेणेव उवागच्छामि અને તેની સંગતિ વડે દેવાનુપ્રિય તમને મેં જોયા.
For Private And Personal Use Only
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाने धानुपियस्योपसर्ग करोमि । नो चैव खलु देवानुप्रियाः ! भीता वा त्रसिता वा उद्विग्ना वा संजातभया वा जाताः। तद्-तस्माद् यत् खलु शक्रो देवेन्द्रोदेवराजो वदति, सत्यः खलु एषोऽर्थों दृष्टः । तद् तस्मात् दृष्टा खलु देवानुपियाणां भव ताम् ऋद्धिः गुणानामैश्वर्यम् , द्युतिः आन्तरं तेजः, यशः ख्यातिः, यावद्-अत्र यावच्छब्देनेदं द्रष्टव्यम् बलं-शारीरं पराक्रम, वीर्यम् आत्मिकं बलम् , पुरुषकारः
देखकर मैं ईशान कोण की और गया। वहां जाकर मैंने उत्तर वैक्रिय की रचना की-रचना कर उस देवभव सम्बन्धी उत्कृष्ट गति से जहां समुद्र था और जहां आप देवनुप्रिय थे वहां मैं आया (उवागच्छित्तो देवाणुपियस्स उवसग्गं करेमि) आकर मैंने फिर आप देवानुप्रियके ऊपर उपसर्ग करना प्रारंभ करदिया। (णो चेवणं देवाणुप्पिया भीया वा तं जण्णं सक्के देविदे देवराया वदइ सच्चे णं एसमट्टे) परन्तु आप देवानुप्रिय भीत नहीं हुए, त्रस्त नहीं हुए त्रसित नहीं हुए उद्विग्न नहीं हुए और न उत्पन्न हुआ है भय जिस को ऐस ही हए। इस लिये मैंने जैसा आपके विषय में शक्रदेव राजा देवेन्द्र ने कहा था वैसा ही आपको देखा-(तं दिटेणं देवाणुप्पियाणं इड्डी, जुई जसे जाव परक्कमे, लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए) अब मैंने आपके गुणों का ऐश्वर्य देखलिया प्रत्यक्ष कर लिया।आपकी युति-आन्तरतेज, आपकी ख्याति यावत् शब्द से आपका शारीरिक पराक्रम, आपका आत्मिक बल आपका स्वधर्म में दृढता
જોઈને ઈશાન કેણ તરફ ગયા. ત્યાં જઈને મેં ઉત્તર વૈકિયની રચના કરી, રચના કરીને તે દેવભવ સંબંધી ઉત્કૃષ્ટ ગતિથી જ્યાં સમુદ્ર હતું અને જ્યાં દેવાનુપ્રિય તમે હતા ત્યાં આવ્યું. ( उवागज्छित्ता देवाणुप्पियस्स उबसग्गं करेमि)
આવીને દેવાનુપ્રિય તમારા ઉપર ઉપસર્ગ ( બાધા ) શરૂ કર્યો. (णो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा तं जण्णं सक्के देविंद देवराया वदइ सच्चे णं एसमटे)
પણ દેવાનુપ્રિય તમે તેનાથી ડર્યા નથી, ત્રસ્ત થયા નથી, સિત થયા નથી, ઉદ્વિગ્ન થયા નથી તેમજ તમારામાં ભય ઉત્પન્ન થયે નથી. એથી તમારા વિષે શક દેવરાજે જે કંઈ કહ્યું છે તે તમને જોતાં બરોબર લાગે છે. (तं दिटेणं देवाणुप्पियाणं इड्री, जुई जसे जाव परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए)
હવે મેં તમારા ગુણોની સમૃદ્ધિ જોઈ લીધી છે. તમારી વૃતિ આંતર તેજ, તમારી પ્રસિદ્ધિ યાવત્ શબ્દ વડે તમારા શરીરનું શુરાતન, તમારું
For Private And Personal Use Only
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणा टी०अ० ८ अङ्गराजचरिते अरहन्नकश्रावकवर्णनम् ३७१
स्वधर्म तारूप इति, पराक्रमः = धर्माराधनजन्यशक्तिविशेषः, लब्धः = उपार्जितः, प्राप्तः = स्वायत्तीकृतः, अभिसमन्वा गतः - सम्यगासेवितः । अहो ! अरहनक ! भवतामृद्ध्यादयो मया दृष्टाः, यश्व पराक्रमो धर्माराधनालब्धः प्राप्तोऽभिसमन्वागतच सोsपि मया दृष्ट इति भावः ।
तत् = तस्मात् क्षमयामि, खलु हे हेवानुप्रियाः । भवन्तः, हे देवानुमियाः । क्षमन्तु भवन्तः हे देवानुप्रिया ! क्षन्तुमर्हन्ति भवन्तः । मस्कृताऽपराधं क्षन्तुं योग्या भवन्त इति भावः । नापि भूयोभूयः एवं करणतया = पुनः पुनरेवं न करिष्यामि, इति कृत्वा = एवमुक्त्वा, प्राञ्जलिपुट :- संयोजिताञ्जली कृतकरद्वयपुटः, पादपतितः पञ्चाङ्गमनपूर्वकं चरणयोः पतितः सन् एतमर्थम् स्वकृतापराधरूपं विनयेन विनरूप पुरुषकार आपको धर्माराधन जन्य शक्तिरूप पराक्रम, ये सब गुण मैंने देख लिया। इन सब गुणों को आपने अच्छी तरह उपार्जितकिया हैं ।
अच्छी तरह इन सब को आपने अपने आधीन बनाया है । और अच्छी तरह से इन सब गुगों को आपने सेवित किया है। (तं खामि, णं देवागुपिया ! खमं तुणं देवाणुपिया ! णाइ भुज्जोर एवं करणयाए तिकड पंजलिउडे पायवडिए एयमहं विणएणं भुज्जो २ खामेइ) अतः हे देवानुप्रिय ! आप को मैं खमाता हूँ । आप देवानुप्रिय मुझे क्षमा करें ! मैंने अभी तक जो आपके अपराध किये है मैं उन की आपसे क्षमा चाहता हूं | आप मेरे अपराधों को क्षमा करने योग्य है । अब आगे मैं ऐसा नही करूँगा । इस प्रकार कह कर उस देवने अपने दोनों हाथों को जोड़ा और जोड़ कर फिर वह उस अरहनक श्रावक के चरणों में
આત્મિક બળ, તમારૂ ધર્મમાં દૃઢરૂપ પુરુષકાર, ધર્માંની આરાધનારૂપ તમારૂ પરાક્રમ આ બધા ગુણા મે' જોઇ લીધા છે. તમે આ ખધા શુશું! સારી પેઠે મેળવ્યા છે. આ બધાને સારી પેઠે તમે પેાતાને સ્વાધીન બનાવ્યા છે. આ સર્વે ગુણાનું સેવન તમે સારી રીતે કર્યુ છે.
( तं खामेमिणं देवाणुप्पिया ! गाइ भुज्जो २ एवं करणयाए तिकट्टु पंजलिउडे पायवडिए एयमहं विणएणं भुज्जो २ खामेइ )
એથી હે દેવાનુપ્રિય ! તમને હું ખમાવું છું. દેવાનુપ્રિય તમે મને ક્ષમા કરો. મે' જે કઈ પણ તમારા અપરાધ કર્યા છે હુ' તેમની તમારાથી ક્ષમા ચાહું છું. તમે મારા અપરાધ ક્ષમા કરવા ચેગ્ય છે. હવેથી ભવિષ્યમાં કઇ પણ વખત મારાથી આવુ અયેાગ્ય વર્તન થશે હું. આ રીતે કહીને તે દેવે પોતાના બન્ને હાથ જોડયા અને ત્યારઞાદ તેણે અરહુનક શ્રાવકના પગમાં
For Private And Personal Use Only
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३७३
NRODi
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे प्रभावेन भूयोभूयः क्षमयनि, क्षमयित्वा अरहन्नकस्य द्वे कुण्डलयुगले ददाति दत्वा यस्या दिशः स देवःप्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः=देवलोकं गत इत्यर्थः ॥सू०२३॥
__मूलम्-तएणं से अरहन्नए निरुवसग्गमिति कटु पडिमं पारेइ, तएणं ते अरहन्नगपामोक्खा नावा वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयं लंबेति, लंबित्ता सगडिसागडं सजेति, सजित्ता तं गणिमं ४ सगडि० संकामेति, संकामित्ता सगडी० जोएंति, जोइत्ता जेणेव मिहिला तेणेव उबागच्छइ, उवागच्छित्ता मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुज्जाणंसि सगडीसागडं मोएइ, मोइत्तामिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायरिहं पाहुडं कुंडलजुयलं च गिण्हंति, गि. ण्हित्ता मिहिलं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल० तं महत्थं दिव्वं कुंडल जुयलं उवणेति । तएणं तसिं संजत्तगाणंजाव पडिच्छइ, पंचांग नमन पूर्वक नमस्कार किया नमस्कार कर उसने अपने अपराध की उससे बड़े विनय के साथ बार २ क्षमा कराई। (खामित्ता) क्षमा कराकर ( अरहन्नस्स ) उसने अरहनक श्रावक के लिये (दुवे कुंडल जुयले दलयति-इलयित्ता-जामेव दिसिं पाउभूए तामेव दिसिं पडिगए ) दो कुंडल युगल दिये । देकर के फिर वह जिस दिशा से आया था-प्रकट हुआ था-उसी दिशा की ओर वापिस हो गया देव. लोक को चला गया। सूत्र "२३" પંચાંગ નમનપૂર્વક નમસ્કાર કર્યા અને પિતાના અપરાધની બહુ જ વિનય સાથે पापा२ क्षमा २५ी. (खामित्ता) क्षमा ४२॥ीने ( अरहन्नरस तेणे A२९-१४ श्रावने (दुवेकुंडलजुयले दलयति दलयित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए)
બે કુંડળેની જોડ આપી. તે આપીને જે દિશામાંથી આવ્યું હતું, પ્રકટ थयो त त त२५ मा रत रह्यो. ॥ सूत्र “२३" ॥
.............
For Private And Personal Use Only
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
2
अनगारधर्मामृतfर्षणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरित निरूपणम्
३७३
पडिच्छित्ता मल्लीं विदेहवररायकन्नं सदावित्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेहवररायकन्नगाए पिनद्धइ पिणद्धित्ता पडित्रिसज्जेइ तएण से कुंभए राया ते अरहन्नगपामोक्खे नावा वाणियगे विउलेणं वत्थगंध जाव उस्सुक्कं वियरइ, वियरित्ता रायमग्गमोगाढेइ आवासे वियरइ पडिविसज्जेइ, तएणं अरहन्नग संजत्तगा जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मंडववहरणं करेंति, करिता पडिभंड गिण्हंति, गिव्हित्ता सगडी० भरेंति, भरित्ता जेणेव पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पोतवहणं सज्जेंति, सज्जित्ता भंड संकार्मेति, दक्खिणाणुकुलेणं वाउणा जेणेव चंपा पोयहाणे तेणेव पोयं लंबेति, लंबित्ता सगडी० सज्जेंति, सजित्ता तं गणिमं ४ सगडी० संकार्मेति, संकामित्ता जाव महत्थं पाहुडं दिव्वं च कुंडलजुयलं गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव चंदच्छाए अंगराया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव उवर्णेति, तपणं चंदच्छाए अंगराया तं दिव्वं महत्थं च कुंडल युगलं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तं अरहन्नगपामोक्खे एवं वयासी - तुब्भे णं देवा० ! बहूणि गामागार जाव आहिंडह लत्रणसमुद्द
अभिक्खणं २ पोयवहणेहिं आगाहेह, तं अस्थियाई भेकेइ कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुत्रे ? तएण ते अरहन्नगपामोक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासी एवं खलु सामी ! अम्हे इहेव चम्पाए नयए अरहन्नपामोक्खा बहवे संजत्तगा णावा वाणियगा परिवसामो तएणं अम्हे अन्नया कयाई गणिमं च४
Horat
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथाजस्ले तहेव अहीणमतिरित्तं जाव कुंभगस्त रन्नो उवणेमो, तएणं से कुंभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तं दिव्वे कुंडलजुयलं पिणद्वेइ, पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ, तं एसणं सामी अम्हहिं कुंभगराय भवणंसि मल्ली विदेह० अच्छेरए दिह्र तं नो खल्लु
अन्ना कावि तारिसिया देवकन्ना वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेह०, तएणं चंदच्छाए ते अरहन्नगपामोक्खे सकारेइ, सम्माणेइ, सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ, तएणं चदच्छाये वाणियगजणियहरिसे दूतं सदावेइ, जाव जइविय णं सा सयं रजसुक्का, तएणं से दूते हट्ट जाव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० २२॥
टीका-'तएणं ' इत्यादि । ततस्तनन्तरं खलु सोऽरहन्नकः, 'निरूपसर्गम्' उपसर्गाभावो जातः, इति कृत्वा-इतिविज्ञाय प्रतिमां साकारसंस्ताररूपं नियम विशेष पारयति स्म । ततस्तदनन्तरं खलु ते ऽरहन्नाप्रमुखा नौकावाणिजकाः सांयात्रिकाः दक्षिणानुकूलेन वातेन यत्रैव गम्भीरकं गम्भीरनामकं पोतपत्तनं नौका
'तएणं से अरहन्नए' इत्यादि। टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (से अरहनए ) उस अरहनक श्रावक ने (निरूव सग्गामिति कडु ) उपसर्ग दूर हो गया है ऐसा जानकर पडिमं परेइ ) अपने साकारी संथारे को पारित किया।
(तएणं ते अरहन्नग पामोक्खा नावावाणियगा दक्षिणानुकूलेणं वाएणं जेगेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति ) इसके अनन्तर वे समस्त अरहनक प्रमुख सांयात्रिक पोत वणिक् दक्षिणानुकूल वायु 'तएणं से अरहन्मए ' इत्यादि ।
टी -(तएणं) त्या२ मा (से अरहन्नए) ते ४२ श्राप निरुवस. गामिति कटु) ५ (४८) तो २wो छ म माना२ (पडिम पारेह) પિતાના સાકારી સંથારાને પારિત કર્યો.
(तएणं ते अरहन्नगपामोक्खा नावावाणियगा दक्खिगानुकूलेणं चाएणं जे. गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति )
ત્યાર પછી બધા અરહનક પ્રમુખ સાંયાત્રિક પિત વણિકે દક્ષિણાનું ફળ પવનથી જ્યાં ગંભીર નામે નાવને લાંગરવાનું બંદર હતું ત્યાં પહોંચ્યા.
For Private And Personal Use Only
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ०८ भङ्गराजवरित निरूपणम्
•
O
Sवतरणस्थानं वर्तने, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च पोतं नावं, 'लबेति, लम्बयन्ति तीरस्थाने कश क्रुषु रज्ज्वादिभिर्निबध्य स्थिरीकुर्वन्ति । लंबित्ता' लम्बविश्वाशकटी शकटिकं लघुशकटहच्छकटानां समूहं सज्जयन्ति = नवीनोपकरणरज्वादिभिः परिष्कुर्वन्ति, सज्जयित्वा तं गणिमं धरिमं मेयं परिच्छेयं चतुर्विधं क्रयाणकसमूहं शकटकटिके' संकार्मेति संक्रामयन्ति = स्थापयन्ति, संक्राम्य = तेऽरहन्नक म मुखाः सांयात्रिकाः शकटीशाकटिकं योजयन्ति = बलीवर्दादिभिर्योजितं कुर्वन्ति, योजयित्वा शकटारूढास्ते यचैव मिथिला राजधानीवर्तते तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य मिथिलायां राजधान्यां बहिरग्रोद्याने प्रधानोद्याने शकटीशाकटिकं मोचयन्ति शकटेभ्यो बलीवर्दान् पृथक्कुर्वन्ति, मोचयित्वा मिथिलायां राजधान्यां तन्मसे जहां गंभीर नाम का नौका के ठहर ने का स्थान था (वंदर गाह था ) वहां पहुंचे । ( उवागच्छित्ता पोयं लबेंति ) वहां पहुंच कर उन लोगों ने नौका को खड़ा कर दिया- तीर स्थित अनेक खूंटों में रज्ज्वादि से उसे धर स्थिर कर दिया। (लंबित्ता सगड़सागढ़ सज्जेति ) खड़ा करके छोटी छोटी गाडियों को और गाड़ों को तैयार किया - नवीन उपकरण एवं रज्ज्वादि से उन्हें सज्जित किया । ( सज्जित्ता तं गणिमं ४ सगडि ४ संकार्मेति ) सज्जित करके फिर उन्हों ने उस गणिम, धरिम, मेय एवं परिच्छेद्य रूप चतुर्विध- ऋयाणक को नौका से उतार कर उन गाडी गाडों में भरा ( संकामित्ता सगडी० जोएंति, जोहत्ता जेणेत्र मिहिला तेणेव उवागच्छंति) भर कर फिर उन्हों ने उन्हें जोता-जोत कर जहां मिथिला नगरी थी वहां वे आये। (उवागच्छित्ता मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुज्जाणंसि सागर्डसगडी मोएड मोहन्ता मिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायरिहं पाहुडे कुंडलजुयलं ( उवागाच्छित्ता पोयलवे 'ति ) त्यां पडथीने तेसोथो नावनें उली शमी. विनाशनी छोरीगोथी तेने सारी रीते गांधी हीधी ( लंबित्ता सगड़ सागड सज्जेति ) त्यार पछी नानी गाडीओ। ते मोटी गडांगाने होरीमा वगेरे साधनोथी सन्न अर्था ( सज्जिता व गणिम ४ सगडि ४ स कामे ति ) સજ્જ કર્યાં બાદ તેમણે ણિમ, ધરમ, મેય અને પરિચ્છેદ્ય રૂપ ચાર પ્રકારની વેચાણુની વસ્તુઓને નાવમાંથી ઉતારીને ગાડીએ અને ગાડા એમાં ભરી (संकामित्ता सगडी० जोएंति, जोपत्ता जेणेव महिला तेणेत्र उवागच्छंति )
સામાન ભર્યા પછી તેમણે ગાડીએ અને ગાડાંઓને જોતર્યાં અને જોતરીને જ્યાં મિથિલા નગરી હતી ત્યાં ગયા.
( उवागच्छित्ता महिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुज्जाणंसि सगडी सागडं
For Private And Personal Use Only
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ST
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
,
हार्थे महाप्रयोजनकं ' महग्घं महा=बहुमूल्यकं महार्ह महतां योग्यं विपुलं विस्तीर्ण राजाहं राजयोग्यं प्राभृतम् - उपहाररत्नादिकं कुण्डलयुगलं = देवेन दत्तं कुण्डलद्वयं च गृह्णन्ति गृहीत्वा मिथिलामनुपविशन्ति । अनुप्रविश्य यत्रेव कुम्भकः = कुम्भकनामको मिथिलान रेशो दर्तते, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा तन्महार्थं प्राभृतं रत्नादिकं दिव्यं कुण्डलयुगलं च उपनयन्ति = राज्ञः पुरतः स्थापयन्ति । ततस्तदा खलु कुम्भको राजा तेषाम् = अरहन्नकादीनां सांयात्रिकार्णा नौकावाणिजकानां यावत् रत्नादि
गिण्हंति, गिण्डित्ता मिहिलं अणुपविसंति ) वहां आकर उन लोगों ने. मिथिला राजधानी के बाहिर प्रधान बगीचे में उन गाड़ी गाड़ों को ढील दिया । ढील देने के बाद फिर उन्होंने मिथिला राजधानी में जाने के लिये उस महा प्रयोजन साधक, बहुमूल्य, महापुरुषो के योग्य रत्नादिकों को भेट ( नजराने) को और देव प्रदत्त उन दोनों कुंडलों को कि जो राजा के लायक थे लिया और लेकर वे मिथिला राजधानी में गये ( अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल० तं महत्थं दिव्वं कुंडलजुयलं उवर्णेति ) वहां जाकर फिरवे जहां कुभक राजा थे वहां गये वहां पहुंचकर उन सबने राजा को दोनो हाथो की अंजलि कर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार किया ।
बाद में साथ में लाया हुआ वह रत्नादिक रूप उपहार और कुंडल मोह मोहत्ता मिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायरिहं पाहुडं कुंडल जयलं च गिव्हंति, गिण्डित्ता मिहिलं अणुपविसंति )
ત્યાં પહોંચીને તેમણે ગાડીએ અને ગાડાંઓને છેડી દીધાં અને ત્યાર આદ તેમણે મિથિલા રાજધાનીમાં જવા માટે તે મહાપ્રયાજનની સિદ્ધિ માટે બહુ કિંમતી મહાપુરૂષોને લાયક એવા રત્ના વગેરેની ભેટ તથા દેવે આપેલા અને કુંડળાને કે જેઆ રાજાને ચેાગ્ય હતા તે લીધાં અને લઇને તેઓ મિથિલા રાજધાનીમાં ગયા.
( अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छेति उदागच्छित्ता करयल० तं महत्थं दिव्वं कुंडलजुयलं उबर्णेति )
ત્યાં જઈને તેઓ જ્યાં કુંભક રાજા હતા ત્યાં પહોંચ્યાં, ત્યાં પહાંચીને તેઓ બધાએ રાજાને બંને હાથની અજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમન કર્યાં', પછી સાથે લાવેલાં રત્ના વગેરેના ઉપહાર તેમજ કુંડળા તેમણે ભેટ કર્યો.
For Private And Personal Use Only
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० ० ८ अङ्गराजचरितनिरूपणम् मांभृतं कुण्डलद्वयं च प्रतीच्छति गृह्णाति, प्रतीच्छय-गृहीत्वा च मल्ली विदेह राजवरकन्यां शब्दयति, शब्दयित्वा च तद् दिव्यं मनोहरं कुण्डलयुगलं मल्ल्या विदेह राजवरकन्यकाया ‘पिण इ' पिनद्धयति-पिनद्धं करोति परिधापयतीत्यर्थः । पिनद्धय प्रतिविसर्जयति=तां कन्यान्तः पुरे स्वभृत्यैः प्रापयति, ततस्तदन्तरं खलु स कुम्भको राजा तान् अरहन्नाप्रमुखान् नौकावाणिजकान् विपुलेन वस्त्रगन्धमाल्यावङ्कारेण संमान्य यावत् उच्छुल्कं-शुल्काभाव वितरति ददाति । 'अरहन्नकादिभ्योव्यवहतभ्यः क्रयविक्रयव्यवहारनियमितं राजशुल्कं मभृत्यैन ग्रहीव्य मित्याज्ञापत्र प्रदत्तवानिति भावः । वितीर्य-शुल्काभावविषयकमाज्ञापत्र दत्वा, उन्हों ने राजा को भेट किये। (तएणं कुंभए तेंसिं संजत्तगाणं जाव पडिच्छइ, पडिच्छित्ता मल्ली विदेहबररायकन्नं सद्दावेइ सद्दावित्तो तं दिव्वं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेह वरराजकन्नगाए पिणद्धह) कुभंक राजा ने उन सांयत्रिको की उस दिये हुए रत्नादि भेटको तथा कुण्डलव्य को स्वीकार कर लिया-स्वीकार करने के बाद फिर विदेहवरराजकन्या मल्ली कुमारी को बुलाया-बुलाकर वे दोनों दिव्य कुण्डल उस विदेह वरराजकन्या मल्लि कुमारी को पहिरा दिये ।
(पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ ) पहिराकर फिर उसे वहां से दूतों के साथ कन्यान्तः पुर में विसर्जितकर दिया। (तएणं से कुंभए राया ते अरहन्नगपामोक्खे नावाचणिगये विउले णं वत्थगंध जाव उस्सुक्कं वियरह) इसके बाद कुंभक राजाने उन अरहनक प्रमुख सांयात्रिकां का विपुल, वस्त्र, गंधमाला, अलंकारों से सन्मान किया। सन्मान करके (तएणं कुंभर तेसि संजत्तगाणं जाव पडिच्छइ, पडिच्छित्ता मक्लीविदेह बररायकन्न सदावेई, सद्दावित्ता तं दिव्यं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेह वरराज कन्नगाए पिणद्धइ)
કુભક રાજાએ તે સાંયાત્રિકોની જ વગેરેની ભેટ તેમજ કુંડળને સ્વીકાર્યા. સ્વીકાર્યા પછી વિદેહવર રાજકન્યા મલ્લિકુમારીને બેલાવી અને બેલાવીને બંને દિવ્ય કુંડળો વિદેહવરરાજકન્યા મલિલકુમારીને પહેરાવ્યાં. .. (पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ) ५रावीन तने इतनी साथे त्यांची न्या. ન્તપુરમાં પહોંચાડી
(तएणं से कुंभए राया ते अरहन्नगपामोक्खे नावावणियगे विउले णं वत्थ गंध जाव उस्मुकं वियरइ )
ત્યાર પછી કુંભકરાજાએ અરિહન્નક પ્રમુખ સાંચાત્રિકનું વિપુલ વસ્ત્ર ગંધ માળા અલંકારો વડે સન્માન કર્યું સન્માન કરીને તેમની વસ્તુઓને કર (મહેસૂલ)
शा०४८
For Private And Personal Use Only
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३७८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
' रायमग्गमोगाडे ' राजमार्गमवगाढान् राजमार्गसमीपावस्थितान् आवासान् निवासस्थानानि वितरति = अरहन्तकादीनां वासार्थमाज्ञां ददाति प्रति विसर्जयति = एवं व्यवस्थां तदर्थे विधाय कुम्भको राजा स्वनिर्दिष्टानि वासस्थानानि गन्तुमादिशति स्मेत्यर्थः । ततः खलु अरहन्नक सांयात्रिकाः यत्रैव राजमार्गमत्रगाहिता = राजमार्गसंनिकृष्टा आवासा वासस्थानानि वर्तन्ते तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य राजदत्तभवनेषु निवसन्तस्ते भाण्डव्यवहरणं = गणिमादिकस्य क्रयाणकत्रस्तुजातस्य विक्रयं कुर्वन्तिस्म० । कृत्वा प्रातिभाण्डं = स्वकीयं गणिमादिकं भाण्डं विक्रीय तन्मूल्येन पुनरन्यत् क्रीतं स्वोपयोगिवस्तुजातरूपं भाण्डं प्रतिभाण्डं तद् गृह्णन्ति - संचिन्वन्ति, गृहीत्वा शकटी शाकटिकं भरन्ति = पूरयन् भृत्वा मिथि लानगरीतः प्रस्थिताः सन्तः यत्रैव गम्भिरकं गम्भीरकाख्यं पोतपत्तनं= नौकारोहण स्थानं वर्तते तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य पोतवहन = नौकायानं सज्जयन्ति = नवीनोउन की वस्तुओं पर से कर-टेक्स- माफ कर दिया । इन व्यवहारी अरहनकादिकों से क्रय विक्रय के व्यवहार पर नियमित राज शुक्ल मेरे नौकर न लेवे इस प्रकार का आज्ञा पत्र उन्हें लिखकर दे दिया । (वियरिता रायमग्गमोगाढेइ आवासेवियरइ, पडिविसज्जेह ) शुक्ल भाव विषयक आज्ञापत्र प्रदान करके राजा फिर उन्हें राजमार्ग के समीप में रहे हुए राजकीय मकान ठहरने के लिये देदिये । इस प्रकार उनकी व्यवस्था करके बाद में कुंभक राजा ने वहाँ से उन्हें विदा किया (तएणं अरहन्नग संजत्ता जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे- तेणेव उवागच्छति उवागछित्ता भंडववहरणं करेंति, करिता पडिभंड गिव्हंति गिव्हिसा सगडी० भरेंति, भरिता जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता पोयवहणं सज्जेंति) राजा से बिना बिदा लेकर वे अरहनक सांयात्रिक जन जहां राजमार्ग में राजकीय भवन थे वहां आये ।
માફ કર્યાં વેપારી અરહન્નક પ્રમુખ વગેરેની પાસેથી ક્રય વિક્રયના ઉપર મારા રાજ કમ ચારીએ શુલ્ક(કર)લે નહિ આ પ્રમાણેનું આજ્ઞાપત્ર રાજાએ તેમને લખી આપ્યુ.
( वियरिता रायमम्गमो गाडेर आवासे वियर, पडित्रिसज्जेइ )
શુલ્ક માફીનું આજ્ઞાપત્ર તેમને આપીને રાજાએ રાજમાર્ગની પાસે આવેલા પેાતાના મહેલ તેમને ઉતરવા માટે આપ્યા. આ પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરીને કુંભક રાજાએ ત્યાંથી તેમને વિદાય કર્યાં.
(तरुणं अरहन्नग संजत्ता जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भंडववहरणं करेंति, करिता पडिभंडं गिण्हंति गिण्हित्ता सगडी० भरेंति, भरिता जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पोयवहणं सज्जेंति)
For Private And Personal Use Only
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीकाअ०८ अङ्गराजचरितनिरूपणम् ३७९ पकरणरज्ज्वादिभिः परिष्कुर्वन्ति, सज्जयित्वा भाण्डं संक्रामयन्ति, स्थापयन्ति दक्षिणानुकूलेन वायुना यौव चम्पापोतस्थानं-चम्पानगरीसमीपे नौकावतरणस्थानं वर्तते तत्रैव पोतं नावं लम्बयन्ति तीरस्थितानेकशङ्कुषु रज्ज्वादिभिर्वद्धा स्थिरीकुर्वन्ति, लम्बयित्वा शकटीशाकटिकं-लधुशकटबृहच्छकटाकां समूहं सज्जयन्तिपरिष्कुर्वन्ति, सज्जयित्वा तद् गणिमं धरिमं मेयं परिच्छेद्य चतुर्विधं भाण्डं शकटी शाकटिके शकटसमूहे संक्रामयन्ति स्थापयन्ति संक्राम्य यावद् महाथै प्राभृतं दिव्यं देवेन दत्तं कुष्डदयुगलं च गृह्णन्ति, गृहीत्वा चम्पानगयां प्रविष्टा चन्द्रच्छायाचन्द्रच्छा यनामाङ्गराजः = अङ्गदेशाधिपतिस्तत्रोपागच्छन्ति, उपागत्य तन्महार्थं यावद्
वहां आकर वे उन भवनों मे ठहर गये और वहीं रहते हुए वे अपनी क्रयाणक गणिमादिरूप वस्तुओं का विक्रयकरने लगे । और उनके विक्रय से जो मूल्य उन्हें प्राप्त होता था उससे दूसरी अपने व्य. वहार के उपयोगी वस्तुओं को खरीदने लगे। इस तरह जब उन का संग्रह होचुका तय उन लोगों ने गाडी और गाड़ों को उनसे भरा-और भरकर मिथिला नगरी से प्रस्थित होकर जहां गंभीरक नाम का पोत पत्तन था वहां आये। वहां आकर उन्होंने नौकायान को सज्जित किया (सज्जिता भंडं संकाति, दक्खिणानुकूलेणं वाउणा जेणेव चंपा पोयट्ठणे तेणेव पोयं लंति-लंबित्ता सगड़ी० सज्जेति, सजित्ता तं गणिमें ४ सगड़ी० संकामेति संकामित्ता जाव महत्थं पाहुडं दिव्वं च कुंडल जुयलं गिण्हित्ता जेणेव चंदच्छाए अंगराया तेणेव उवागच्छंति ) सज्जित
રાજાની આજ્ઞા મેળવીને અરહનક સાંયાત્રિકે જ્યાં રાજ માર્ગની પાસે રાજ મહેલ હતા ત્યાં પહોંચ્યાં.
ત્યાં જઈને તેઓ મહેલમાં રોકાયા અને ત્યાં રહીને જ તેઓ પિતાની વેચાણ માટેની વસ્તુઓનું વેચાણ કરવા લાગ્યા. વેચાણથી તેઓને જે કંઈ રકમ મળતી તેનાથી તેઓ પિતાના વેપાર માટેની બીજી વસ્તુઓની ખરીદી કરવા લાગ્યા આ પ્રમાણે વસ્તુઓને સંગ્રહ થયે ત્યારે તે લેકેએ ગાડીઓ અને ગાડાઓમાં વસ્તુઓ ભરી અને આ પ્રમાણે મિથિલા નગરીથી પ્રસ્થાન કરીને તેઓ જ્યાં ગંભીરક નામે પતિ પત્તન હતું ત્યાં ગયા ત્યાં જઈને તેઓએ વહાણને તૈયાર કર્યું.
(सज्जित्ता भंड संकामेति दक्षिणानुकूलेणं वाउणा जेणेव चंपापोयट्ठणे तेणेव पोयं लंबेंति लंबित्ता सगडी० सज्जेति सज्जित्ता तं गणिमं ४ सगडी संकामेंति संकामित्ता जाव महत्थं पाहुडं दिव्वं च कुंडलजुयलं गिडंति गिण्हित्ता जेणेव चंदच्छाए अंगाराया तेणेव उवागच्छंति)
For Private And Personal Use Only
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૮૦
ज्ञाताधर्मकथासू
प्राभृतं दिव्यं कुण्डलयुगलं चोपनयन्ति, चन्द्रच्छायनृपस्याग्रे स्थापयतीत्यर्थः । ततः खलु चन्द्रच्छायनृपोऽङ्ग राजस्तद् दिव्यं महार्थं कुण्डलयुलं च प्रतीच्छति = गृह्णाति, प्रतीच्छ्य गृहीत्वा तान् अरहन्नकप्रमुखान् नौकावाणिजकान् एवमवादीत् - वक्ष्यमाणकरके उसमें गाड़ी और गाड़ों से उत्तर २ कर अपने भांडों को रखा । दक्षिणनुकूल वायु के चलने पर फिर वे वहां से चले - और चलकर जहां चंपा नगरी के समीप में नौका के ठहरने का स्थान था वहां आकर उन लोगों ने लंगड़ डाल दिया अपनी नौका को ठहरा दिया ।
नौका को ठहरा कर फिर गाड़ी और गाड़ों को सज्जित कियासज्जित करने के बाद उसमें से गणिमादि वस्तुओं को उतार २ कर उन गाड़ी और गाड़ों में भरा-भर कर फिर वे महार्थ साधक प्राभृत (भेंट) को और दिव्य कुंडलयुगल को लेकर चंपा नगरी में प्रविष्ट हुए।
वहां प्रविष्ट होकर जहां अंगदेशाधिपति चंदच्छाय राजा थे- वहां गये । (उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव उवर्णेति, तरणं चंदच्छाए अंगराया तं दिव्वं महत्थं च कुंडलयुगलं पडिच्छइ ) वहां पहुँच कर उन लोगों ने उस महार्थ साधक भेंट को और कुंडलयुगल को राजा को भेट किया अंगदेशाधिपति चंदछाय राजा ने उस भेंट एवं दिव्य महार्थ कुंडल युगल को स्वीकार कर लिया- (पडिच्छित्ता ते अरहन्नकपामोad एवं वयासी ) स्वीकार करके फिर उसने उन अरहन्नक आदि તૈયાર કરીને ગાડીએ તથા ગાડાંઓમાંથી પેાતાના ભાંડેને તેમાં મૂકયા. દક્ષિણાનુકૂળ પવન વહેવા લાગ્યા ત્યારે તે ત્યાંથી ચાલ્યા અને ચ'પા નગરીની પાસે વહાણને ઉભું રાખવાની જગ્યા હતી ત્યાં લંગર નાખ્યુ અને વહાણ ઉભું રાખ્યું. વહાણ ઉભું રાખીને ગાડીએ અને ગાડાંઓને તૈયાર કરીને તેમાં ગણિમ વગેરે વસ્તુઓ વહાણમાંથી ઉતારીને મૂકી અને ત્યાર પછી મહા સાધક ભેટ અને દિવ્ય કુંડળની જોડ લઇને ચંપા નગરીમાં ગયા.
ત્યાં જઈને જ્યાં 'ગદેશાધિપતિ ચંદૃચ્છાય રાજા હતા ત્યાં ગયા. ( उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव उवर्णेति तरणं चंदच्छाए अंगाराया तं दिव्वं महस्थं च कुंडलयुगलं पडिच्छर )
ત્યાં પહોંચીને તેઓએ મહાથ સાધક ભેટને તેમજ કુંડળની જોડ રાજાને ભેટ કરી. અંગદેશના રાજા ચંદછાયે પણ તે ભેટ તેમજ દિવ્ય महार्थ उजनी लेडने स्वीडअरी. ( पडिच्छित्ता त अरहन्तकपामोक्खे एवं वयासी) સ્વીકાર્યા બાદ તેણે અરહન્નક વગેરે સાંયાત્રિકાને આ પ્રમાણે કહ્યું—
For Private And Personal Use Only
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
-
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरितनिरूपणम्
३८१
,
प्रकारेणोक्तवान् हे देवानुप्रियाः । यूयं खलु बहून् ग्रामागर०यावत्-अत्र यावत्क रणादिदं द्रष्टव्यम् ० ' ग्रामाकरनगर खेटकर्बट मडम्बमुख पत्तन निगमसंनिवेशान्' इति तत्र ग्रामो जनपदः, आकर :- सुवर्णाद्युत्पत्तिस्थातम् नगरं - कररहितं, खेट - धूलीमाकारं कर्बट कुनगरं, मडम्ब - दूरवर्ति सन्निवेशान्तरं द्रोणमुखं-जलपथस्थलपथयुक्तं, पत्तनं - जलपथ स्थलपथयोरेकतरेण युक्तं, निगमो-वणिसृजनाधि ष्ठितः संनिवेश:- कटकादीनामावासः तान् ग्रामादीन् ' आहिंडह' आहिण्डध्वे=परिभ्राम्यथ, तथा लवणसमुद्रं चाभीक्ष्णं २ पोतत्रहनैः = नौकायानै', 'ओगाद्देह' अवगाहध्वे=तरथ, तत् = तस्माद् यूयं कथयत-अस्ति चापि युष्माभिः किमपि कुत्रचिद् आश्वर्यं दृष्टपूर्व पूर्व युष्माभिर्यत् किमप्याश्चर्यं कुत्रचिद् दृष्टमस्ति तान्मो वर्णयतेत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु तेऽरहन्नकप्रमुखाः व्यवहारिणश्चन्द्रच्छायमङ्गराजमेवमवादिषुः वक्ष्यमाणप्रकारेणोक्तवन्तः - हे स्वामिन ! एवं खलु वयमिहैव चम्पायां नगर्याम् अरहन्नकममुखा बहवः सांयात्रा नौकावाणिजकाः परिवसामः, सांयात्रिक से इस प्रकार कहा - ( तुम्भे णं देवाणुपिया बहूणि गामा जाव आहिंडह, लवणसमुदं च अभिक्खणं २ पोयवहणेहिं ओगाह ) हे देवानुप्रियों ! आप लोग अनेक ग्राम आकर आदि में परिभ्रमण करते रहते हो - तथा लवण समुद्र को भी नौका यानों से बार २ पार करते रहते हो ( तं अस्थियाई भे केई कहि चि अच्छे दि goa 2 ) तो कहो यदि कहींपर आप लोगों ने कोई आश्चर्य देखा हो तो । ( तरणं ते अरहन्नग पामोक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासी ) ऐसा राजा की जिज्ञासा जानकर उन व्यवहारी अरहनक प्रमुखों ने अंगदेशाधिपति उन चंदच्छाय राजा से इस प्रकार कहा - ( एवं खलु सामी अम्हे इहेव चंपाए नगरीए अरहन्नग पामोक्खा बहवे संजत्तगा णावा
गर
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( तुम्भेणं देवाणुपिया बहूणि गामागार जाब आहिंडह लवणसमुद्दे च अभिक्खणं २ पोयवहणेहिं ओगाहेइ )
હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે ઘણાં ગામ આકર વગેરેમાં પરિભ્રમણ કરતા જ રહે છે. તેમજ લવણુસમુદ્રને પણ વહાણુ વડે વારંવાર પાર કરતા રહેા છે. दिट्ठपुव्वे ! ) तभे अप
( तं अस्थियाइ भे केइ कहिंचि अच्छे નવાઈની વાત જોઇ હાય તા બતાવે
( तणं अन्नगपामोक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासी ) અંગદેશાધિપતિ રાજા ચદચ્છાયની જિજ્ઞાસા જાણીને અરહન્નક, પ્રમુખા એ તેને આ પ્રમાણુ કહ્યું——
( एवं खलु सामी अम्हे इहेव चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे
For Private And Personal Use Only
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
કેટર
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
ततः खलु वयमन्यदा कदाचिद् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्समये गणिमं च ४ गणिमादि चतुर्विधं क्रयाणकं पोतवहने भृत्वा समुद्रे प्रस्थिताः, तथैव अहीनातिरिक्त=
3
न्यूनाधिकं, किंतु यथादृष्टं तथैव भवतामग्रे कथयामः यावत् = समुद्रे गच्छन्तो वयं गम्भीरपुरपत्तनं नौकावतरणस्थानं प्राप्य शकटसमूहे सर्व क्रयाणकं भृत्वा मिथिलायाँ नगर्यां वहिस्थाने शकटसमूहमवस्थाप्य कुम्मकस्य राज्ञोदर्शनार्थ मिथिला नगरीं प्रविष्टाः यावत् - कुम्भकस्य राज्ञः प्राभृतं दिव्यं कुण्डलयुगलं चोपनयामः, कुम्भकपायोपहारं वयं प्रदत्तवन्त इत्यर्थः । तदा खलु स कुम्भकः वणिया परिवसामो तरणं अम्हें अन्नधा कयाई गणिमं च ४ तहेव अहीणमतिरिक्तं जाव कुंभगस्त रनो उवणेमो) स्वामीन् सुनो हम अरहनक प्रमुख अनेक सांयात्रिक पोत वणिक यही चंपा नगरी में रहते हैं
हम लोग किसी एक समय, गणिमादि चतुर्विध कयाणक को पोत वहन में भरकर यहां से समुद्रीय रास्ते से होकर मिथिला राजधानी गये हुए थे। वहां हम ने जो कुछ देखा वह आपके समक्ष न न्यून रूप में और न अधिक रूप में किन्तु जैसा देखा वैसा ही हम निवेदित करते है - हम लोग नौका से यहां से प्रस्थित होकर गंभीरक पोत पतन पर पहुँचे वहां उतर कर हम लोगों ने समस्त अपना ऋयाणक शकटों में भर दिया। वहां से चल कर फिर हम लोग मिथिला नगरी के बाहिर एक उद्यान में गाडियों को रख कर कुंभक राजा के दर्शन करने के लिये मिथिला नगरी गये। वहां राजा के समीप पहुँच कर हम लोगों ने उन के समक्ष अपनी भेंट रख दी और कानो के दो कुंडल भी संजत्तगाणावा वणियगा परिवसामो तरणं अम्हे अन्नया कयाई गणिमं च ४ तहेव अहीणमतिरित्तं जाव कुंभगस्स रन्नो उवणेमो)
હે સ્વામી ! અમે અરહન્નક પ્રમુખ અનેક સાંયાત્રિક પેાત વાણિક અહી' ચ‘પાનગરીમાં જ રહીયે છીએ.
અમે કોઇ વખત ણિમ વગેરે ચાર જાતની વેચાણુની વસ્તુઓ પાત વહન માં મૂકીને અહીંથી સમુદ્રના માગેથી મિથિલા રાજધાનીમાં ગયા હતા. ત્યાં અમે જે કંઇ જોયું છે તે તમારી સામે વધારે પડતું પણ નહિ તેમજ આછું પણ નહિ એટલે કે ત્યાં જેવી રીતે જે રૂપમાં અમે જોયુ છે તે વિષે તમારી સામે નિવેદ્યન કરીયે છીએ. અમે લેકે અહી'થી વહાણુ વડે પ્રસ્થાન કરીને ગંભીરક પાતપત્તન ઉપર પહોંચ્યા. ત્યાં ઉતરીને અમે વેચાણુની ખધી વસ્તુ ગાડાઓમાં ભરી. ત્યાર પછી ત્યાંથી ચાલીને મિથિલા નગરીની બહાર ઉદ્યાનમા ગાડીઓને ઉભીરાખીને કુંભક રાજાના દર્શન માટે મિથિલા નગરીમાં
For Private And Personal Use Only
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
"
गारधर्मामृतवर्षिणा टी० अ०८ अङ्गराजचरितनिरूपणम
३८३
•
'मल्लीए मल्ल्या: = मल्ली नाम्न्या विदेहराजवरकन्यायाः = स्वकन्यकायास्तद् दिव्यं कुण्डलयुगलं पिनद्धयति, विनय = परिधाप्य प्रतिविसर्जयति । हे स्वामिन् ! तदेषा खलु अस्माभिः कुम्मकस्य राज्ञो भवने, मल्ली विदेहराजवरकन्या = विदेहराजस्य कुम्भकस्य वरा सर्वगुणयुक्तत्वात् श्रेष्ठा कन्या, आश्चर्यं दृष्टम् = अवलोकितम् । तत् नो खलु अन्या काऽपि तादृशी देवकन्या वा यावत् अत्र यावच्छब्देनेदं द्रष्ट व्यम् -'असुरकन्ना वो-नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधव्यकन्ना वा राजकन्ना वा' इति । असुरकन्या वा नागकन्या वा यक्षकन्या वा गन्धर्व कन्या वा राजकन्या वा, इति संस्कृतम्, यादृशी खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या, यादृशी मिथिलारी(तएण से कुंभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तं दिव्वं कुंडलजुयल पिणइ ) भेंट को स्वीकार करके उसी समय उन कुंभक राजा ने अपनी विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी को बुलाया और बुलाकर वे दो कुंडल उसे पहिना दिये । (पिणद्धिन्ता पडिविसज्जेह ) और पहिना कर फिर उसे कन्यान्तः पुर में प्रति विसर्जित कर दिया । (तं एसणं सामी अम्हें हिं कुंभरायभवर्णसि मल्ली विदेह अच्छेए दिट्ठे नं नो खलु अन्ना कावि तारिसिया देव कन्ना वा जाव जारिसियाणं मल्ली विदेह ० ) इस तरह हे स्वामीन् ! हमने कुंभक राजा के भवन में सर्व गुण संपन्न विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी रूप अश्चर्य देखा है ।
हमारी दृष्टि में अन्य कोई भी ऐसी देव कन्या, असुर कन्या, नाग कन्या, यक्ष कन्या, गंधर्व कन्या अथवा राज कन्या आश्चर्य रूपा नहीं है ગયા. ત્યાં જઈને અમે તેનની સામે ભેટ તેમજ કાનના કુંડળની જોડ મૂકી. (तरण से कुंभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तं दिव्यं कुंडलजुयलं पिणदेइ ) ભેટ સ્વીકારીને તેજ વખતે કુંભક રાજાએ પેાતાની વિદેહ રાજવરકન્યા भस्ती डुभारीने गोसावी, मने मोसावीने डुडणेो तेने पडेराव्यां. ( विणद्धिता पत्रिसज्जे, ) ने पहेरावीने तेने उन्यान्तःपुरमा भोली हीघी.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( एसर्ण सामी अम्हें हिं कुंभरायभवणंसि मल्ली विदेद्दअच्छेरए दिट्ठे तं नो खलु अन्ना कावि तारिसिया देवकन्ना वा जाव जारिसियाणं मल्लीविदेह०) આ પ્રમાણે હે સ્વામી ! અમે કુ ંભક રાજાના મહેલમાં સર્વગુણ સ ́પન્ન વિદેડુ રાજવર કન્યા મલ્લી કુમારીના રૂપમાં આશ્ચય જોયુ છે.
અમારી સામે બીજી કોઈ પણ દેવકન્યા અસુર કન્યા, નાગ કન્યા, યક્ષ કન્યા, ગ ધ કન્યા, અથવા તેા રાજકન્યા નથી કે જે એવી વિદેહ રાજવર્ કન્યા મલ્લી કુમારી જેવી આશ્ચય રૂપા હાય.
For Private And Personal Use Only
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३८४
हाताधर्मकथागसूत्रे श्वरस्य कुम्भकस्य कन्यका मल्ली दिव्याश्चर्यरूपा विराजते, नास्ति तादृशी काऽपिदेवकन्या तथा न सन्त्यसुरकन्यकादयः काश्चिदपि तत्तुल्या इति भावः । - ततस्तदनन्तरं खलु चन्द्रच्छायनामा नृपस्तान् अरहन्नकपमुखान् सत्कारयतिवस्त्रादिना तेषां सत्कार करोति, सम्मानयति-मधुरवचनादिना प्रशंसति । सत्कृत्य संमान्य प्रतिविसर्जयति । तेभ्योऽरहन्न कादिभ्यो व्यवहर्तृभ्यः क्रयविक्रय व्यवहारेषु राजकीय शुल्कं मदीयभृत्यैन ग्रहीतव्यमित्याज्ञापनं दत्वा तान् विसजयति स्मेत्यर्थः । ततः खलु चन्द्रच्छायो वाणिजकजनितहर्षः = अरहन्नकादि वाणिजकवचनश्रवणेन मल्लीकुमायों संजातानुरागः सन् दूतं शब्दयति, याव= जैसी कि विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी है । (तएणं चंदच्छाए ते अरहन्नगपामोक्खे सक्कारेइ, सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणित्ता, पडिविसज्जेइ, तएणं चंदच्छाए वाणियगजणियहरिसे दूतं सदावेइ, जाव जइ वि य णं सा सयं रज्जमुक्का, तएणं से दूते हढे जाव पहारेत्था गमणाए ) इस प्रकार उन अरहन्नक प्रमुख सांयात्रिकों के मुख से मल्ली कुमारी रूप आश्चर्य श्रवण कर चंदच्छाय राजा ने उन अरहनक प्रमुख पोत वणिकों का वस्त्रादि प्रदान द्वारा सत्कार किया और मधुर वचनादि द्वारा उनकी बहुत २ प्रशंसा की। __बाद में उन्हें अपने पास से राजकीय शुल्क माफ कर विसर्जित कर दिया उन्हें इस प्रकार का “ मेरे भव्य जन इन अरहन्नक आदि व्यवहारी जनों से क्रय विक्रय के व्यवहार में राजकीय शुल्क न लेवें आज्ञा पत्र लिखकर दे दिया। पश्चात् उन अरहन्नक आदि वणिगजनोंके वचनों के
(तएणं चंदच्छाए ते अरहन्नगपामोक्खे सकारेइ, सम्माणेई सक्कारित्ता, सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ तएणं चंदच्छाए वाणियगजणियहरिसे दूतं सदावेजार जह वि य णं सासयं रज्जसुक्का तएणं से दुते हढे जाव पहारेत्य गमणाए)
આ રીતે તે અરહનક પ્રમુખ સાંયાત્રિકાના માંથી મલ્લીકુમારી રૂ૫ આશ્ચર્ય સાંભળીને ચંદચ્છાય રાજાએ અરહનક પ્રમુખ તે પિત વાશિકને વસ્ત્ર વગેરે આપીને સત્કાર કર્યો તેમજ મધુર વચને વડે તેમના ખૂબજ વખાણ કર્યા.
ત્યાર બાદ રાજકીય કર (મહેસૂલ) માફ કરીને તેમને વિદાય કરતી વખતે “મારા તમામ રાજકર્મચારીએ અરહનક વગેરે વેપારીઓ પાસેથી
ય વિજ્યના વ્યવહારમાં રાજકીય કર લે નહિ ” આ જાતનું આજ્ઞાપત્ર લખી આપ્યું ત્યાર પછી અરહનક વગેરે વણિક જનેના માંથી સાંભળેલા વચનથી મલ્લીકુમારી ઉપર જેમના હૃદયમાં પ્રેમ ઉત્પન્ન થયો છે, એવા તે
For Private And Personal Use Only
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम्
३८५
अत्र यावत् कहणादिदं द्रष्टव्यम् - शब्दयित्वा चैत्रमवादीत् - हे देवानुमिय! स्व मिथिलायां नगर्यां गत्वा कुम्भकं राजानं ब्रूहि तव कन्यकां मल्ली चन्द्रच्छायो वाञ्छति' इति । यद्यपि च खलु सा स्वयं राज्यशुल्का = राज्यार्थीनी, एवं चेत्तस्याः समग्रं राज्यं समर्पयामीति भावः । ततस्तदनन्तरं खलु स दूतचन्द्रच्छायनृपाज्ञया हृष्टतुष्टः=अत्यन्तं प्रमुदितः सन् यावत् कतिपय सैन्यसहितो रथारूढः प्राधारयद् गमनाय गन्तुं प्रवृत्त इत्यर्थः । इति द्वितीयस्य चन्द्रच्छायनाम्नो नृपस्य सम्बन्धः कथितः ।। ०२४ ॥
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं कुणाल नाम जणवए होत्था, तत्थ णं सावत्थी होत्था, तत्थ णं रुप्पी कुणालाहि - वई नाम राया होत्था, तस्स णं रुप्पिस्स घुया धारिणीए देवए अत्तया सुबाहुनामं दारिया होत्था, सुकुमाल० रूवेण य जोवणेणं लावणेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि
श्रवणसे मल्ली कुमारी के ऊपर जिसका अनुराग उत्पन्न हो गया है ऐसे उस चन्द्रच्छाय राजा ने उसी समय दूत को बुलाया। बुला कर उससे ऐसा कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम मिथिला नगरी में जाकर कुंभक राजासे कहो कि आपकी पुत्री मल्ली कुमारी को चंद्रच्छाया राजा चाहते हैं ।
यदि वह पुत्री मेरे समस्त राज्य को चाहेगी तो मैं उसे अपना समस्त राज्य समर्पित कर दूंगा। इस तरह वह दूत चंद्रच्छाय राजा की आज्ञा से हर्षित एवं संतुष्ट होता हुआ कतिपय सैन्य सहित वहां से रथ पर आरुढ होकर मिथिला नगरी की ओर प्रस्थित हो गया । इस तरह यह द्वितीय चंद्रच्छाय नामके राजा का संबंध कहा। सूत्र २४.१ ચંદૃચ્છાય રાજાએ તરત જ દૂતને ખેલાવ્યા અને તેને કહ્યું-હે દેવાનુપ્રિય ! તમે મિથિલા નગરીમાં જઈને કુંભક રાજાને કહેાકે તમારી પુત્રી મલ્લી કુમારી ને ચંદચ્છાય રાજા ચાહે છે.
(6
જો તે પુત્રી મારા આખા રાજ્યને પણ ઈચ્છશે તે હું તેને પોતાનું રાજ્ય સમર્પવા તૈયારે છું. આ રીતે દૂત ચંદ્રચ્છાય રાજાની આજ્ઞાથી હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થતા નથી કેટલાક સૈન્યની સાથે ત્યાંથી રથ ઉપર સવાર થઈને મિથિલા નગરી તરફ ચાલ્યા. આ પ્રમાણે આ ખીજા ચંદ્રાય નામના રાજા ના સંબંધ વિષે કહ્યું।। સૂત્ર २४ 11
((
""
हा ४९
For Private And Personal Use Only
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
साताधर्मकथासूत्रे होत्था, तीसे णं सुबाहुदारियाए अन्नया चाउम्मासियमजणए जाए यावि होत्था, तएणं से रुप्पी कुणालाहिवई सुबाहुदारियाए चाउम्मासियजणयं उवट्टियं जाणइ, जाणित्ता कोडंबिय पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी -एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुबाहुदारियाए कल्लं चाउम्मासियमजणए भविस्सइ, तं कल्लं तुब्भणं रायमग्गमोगाढंसि मंडबं जलथलयदसद्धवन्नमल्लं साहरेह जाव सिरिदामगंडं ओलइंति । तएणं से रुप्पी कुणालाहिवई सुवन्नगारसेणि सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायमग्गमोगाढंसि पुप्फमंडवंसि णाणाविहपंचवन्नेहिं तंदुलेहिं णगरं आलिहइ, तस्स बहुमज्झदेसभाए पट्टए रयेह, रएइत्ता जाव पञ्चप्पिणंति, तएणं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थिक्खंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भडचडगरयहयरविंदपरिक्खित्ते अंतेउरपरियालसंपरितुडे सुबाहुं दारियं पुरओ कटु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुप्फमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हस्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता पुप्फमंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तएणं ताओ अंते उरियाओ सुबाहुदारियं पट्टयंसि दुरूहेंति दुरूहित्ता सेयपीयएहिं कलसेहि पहाणेति, पहाणित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति करित्ता पिउणो पायं वंदिउं उव.
For Private And Personal Use Only
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनेगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम् ३८ गति, तएणं सुबाहुदारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छई उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ, तएणं से रुप्पी राया सुबाहुदारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता सुबाहुदारियाए रूवेण य जो० लाव० जाव विम्हिए वरिसघरं सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-तुमण्णं देवाणुप्पिया मम दोच्चेणं बहुणि गामागरनगरगिहाणि अणुपविससि, तं अस्थि ताई ते कस्सइरन्नो वा ईसरस्स वा कहिंचि एयारिसए मजणए दिपुवे जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मज्जणए ? तएणं से वरिसधरे रुप्पि करयल० एवं वयासी-एवं खलु सामी ! अहं अन्नया तुब्भेणं दोच्चेणं मिहिलं गए, तत्थ णं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायकन्नगाए मज्झणए दिटे, तस्स णं मज्जणगस्स इमे सुबाहुदारियाए मज्जणए सहस्सइमंपि कलं न अग्घेइ, तएणं से रुप्पी राया परिसघरस्स अंतिए एयमद्रं सोच्चा णिसम्म सेसं तहेव मज्जणगजणितहास दृतं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-जाव जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेथए गमणाए ॥ सू० २५॥
टीका-अथ तृतीयस्य रुक्मिनाम्नोतृपस्य संबन्धं प्रस्तौति-' तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये कुणालो नाम जनपदः=देशः, आसीत्,
तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि। टीकार्थ-( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में (कुणाल नाम जणवए होत्था) कुणाल नामका जनपद अर्थात् देश था।
• तेण कालेण समएण ' इत्यादि ।। साथ-(वेण' कालेण तेण समएण) ते ॥णे मने ते सभये (कुणाल नाम
For Private And Personal Use Only
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्र तत्र-तस्मिन् देशे खलु श्रावस्ती नाम नगर्यासीत । तत्र श्रावस्त्यां नगयां खलु 'रुप्पी' रुक्मी-रुक्मिनामा कुणालाधिपतिः कुणालदेशाधिपतिर्नाम-प्रसिद्धः राजाऽऽसीत् । तस्य खलु रुक्मिणो दुहिता-पुत्री धारिणीदेव्या आत्मना-गर्भसमुत्पन्ना,सुबाहुर्नाम-सुबाहुनाम्नी दारिका-कन्यका आसीत् । सा सुबाहुदारिका कीदृशीत्याह-'सुउमालपाणिपाया' सुकुमारपाणिपादा-कोमलकरचरणवती, तथारूपेण आकृत्या वर्णेन च, यौवनेन तारुण्येन, लावण्येन चोत्कृष्टा-उत्कर्षवती प्रधानेत्यर्थः, अतएव-उत्कृष्ट शरीरा=परमसुन्दरागी यावन् सकलयनितागुणसंपन्ना (तत्थणं सोवत्थी नाम नयरी होत्था ) उस जनपद-देश-में श्रावस्ती नाम की नगरी थी । ( तत्थणं रुप्पी कुणालाहिवई नामं राया होत्थातस्सणं रुप्पिस्स धुया धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहुनामं दारिया होत्था ) उस श्रावस्ती नगरी में कुणाल देश के अधिपति जिन का नाम स्क्मी था रहते थे। इस रूक्मी राजा की एक पुत्री थी। जिस का नाम सुबाह था। ____ यह धारिणी देवी के गर्भ से उत्पन्न हुई थी । (सुकुमाल० रूवेण य जोवणे णं लावण्णेण य उक्किट्ठा, उक्किट सरीरा जाया यावि होत्था) इस के हाथ और चरण ही अधिक सुकुमार थे। यह रूप-आकृति और वर्ण से यौवन से तथा लावण्य से सब में सुन्दर मानी जाती थी । इस कारण यह परम सुन्दराङ्गी थी और स्त्री संबंधी समस्त गुणों से युक्त जणवए होत्था) gla नामे ५४ मेट से देश . ( तत्थण सावत्थी नाम नगरी होत्था) ते न५४-हेशमा श्रावस्ती नामै नगरी उती.
(तत्थणं रुप्पी कुणालहिबई नामं राया होत्था तस्स णं सप्पिस्स धुया धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहु नामं दारिया होत्था)
શ્રાવસ્તી નગરીમાં કુણાલ દેશના અધિપતિરુક મા રહેતા હતા. રુકમી રાજા ને એક પુત્રી હતી તેનું નામ સુબાહુ હતું.
ધારિ દેવીના ગર્ભથી તેને જન્મ થયે હતો. ( सुकुमाल० रूवेण य जोव्वणे णे लावण्णेण य उकिट्ठा, उक्किद्वसरीरा जाया यावि होत्था)
તેના હાથપગ ખૂબ જ સુકેમાળ હતા. તે રૂપ, આકૃતિ, યૌવન, તેમજ લાવણ્ય બધામાં સુંદર ગણાતી હતી. તેથી તે ખૂબ જ સુંદર અંગોવાળી અને સ્ત્રી સંબંધી બધા ગુણેથી યુક્ત હતી.
For Private And Personal Use Only
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
'अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम् ३८९ जाता चाप्यासीत् । तस्याः खलु सुबाहुदारिकाया अन्यदाकदाचित् चातुर्मासिक मज्जनकं स्नानं स्नानमहोत्सवश्वाप्यभूत् ततस्तदनन्तरं स रुक्मीकुणालाधिपतिः मुवाहुदारिकायाः स्वपुत्र्याचातुर्मासिकमज्जनकमुपस्थितं जानाति० । ज्ञात्वा कौटुम्बिकपुरुषान= आज्ञाकारिणः पुरुषान् शब्दयति=आह्वयति, शब्दयित्या एवमवादीत्-हे देवानुप्रियाः! एवं खलु सुबाहुदारिकायाः मम पुयाः कल्ये प्रभाते द्वितीयदिवसेत्यर्थः चातुर्मासिकमज्जनकं चातुर्मासिकस्नानमहोत्सवो भविष्यति, तत् तस्मात् कल्ये यूयं खलु राजमार्गमवगाढ़े राजमार्गसंनिकृष्टे मण्डपे जलस्थ. लजदशार्धवर्णमाल्यं जलजं स्थल पञ्चवर्णपुष्पसमूह संहरत-समानयत, यावत्थी। (तीसेणं सुबाहु दारियाए अन्नया चाउम्मासियमज्जणए जाए यावि होत्था ) एक दिन इस सुबाहु पुत्री के चातुर्मासिक स्नान महोत्सव का समय आया (तएण से रुप्पी कुणालाहिवई सुबाहु दारियाए चाउ. म्मासिय मजणयं उपट्टियं जाणइ ) कुणाल देशाधिपति रुक्मि राजा को अपनी पुत्री सुबाहु दारिका के चातुर्मासिक स्नानोत्सव का जय ध्यान आया-तब ( जणित्ता कौटुंबिय पुरिसे सद्दावेद ) ऐसो जान कर उस ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया- (सदावित्ता एवं वयासी ) और बुलाकर उनसे ऐसा कहा- ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुबाहु दारियोए कल्लं चाउम्मासिय मज्जणए भविस्सइ) हे देवानुप्रियों ! कल प्रातः काल सुबाहु दारिका का चतुर्मासिक स्नान होगा। (तं कलं तुम्भेणं रायम ग्गमोगाढंसि मंडवं जलथल दसद्धवन्न मल्लं साहरेह ) अतः तुम लोग राज मार्ग के समीप मुख्य मंडप में कल प्रातः काल ही जल, स्थल में (तीसेणं सुबाहुदारियाए अन्नया चाउम्मासिय मज्जणए जाए यावि होत्या)
એક દિવસે સુબાહુ પુત્રીને ચાતુર્માસિક સ્નાન મહોત્સવને સમય આવ્યો. (तएणं से कुणालाहिवई सुबाहु दारियाए चाउम्मासिय मज्जणय उवद्वियं जाणs) - કુણાલ દેશના રાજા રુકમીને તેની પુત્રી સુબાહુને ચાતુર્માસિક સ્નાનેसपना न्यारे विचार माव्या त्यारे (जणित्ता कौटुबिय पुरिसे सदावेइ ) तेणे होमि पुरुषाने मोसाव्या (सहावित्ता एवं वयासी) भने मातापान मा प्रमाणे ह्यु(एवं खलु देवाणुप्पिया! सुवाहुदारियाए सकल्लं चाउम्मासियमज्जणए भविस्सइ)
હે દેવાનુપ્રિયે ! આવતી કાલે સવારે સુબાહુ દારિકાનું ચાતુર્માસિક સ્નાન થશે. (तं कल्लं तुम्भेणं रायमग्गमोगादसि मंडवं जला थल दसद्धवन्नमल्लं साहरेइ )
એથી તમે આવતી કાલે સવારે રાજમાર્ગની પાસેના મુખ્ય મંડપમાં
For Private And Personal Use Only
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३९०
starधर्मकथासूत्रे
अत्र यावच्छ देनेदं द्रष्टव्यम् - एकंच खलु महत् श्रीदामकाण्डमुपनयत, तस्य मण्डपस्य खलु बहुमध्यदेशभागे एकं महत् श्रीदामकाण्डं यावत् पाटलादि पुष्पसमूह सहितं गंधाणि मुञ्चत् उल्लोचे अवलम्बयतः इति ततस्ते कौटुम्बिक पुरुषास्तथैव मण्डपमध्ये उल्लोचे = चन्द्रातपे श्रीदामकाण्डमवलम्बयन्ति । ततः खलु स रुक्मी कुणालाधिपतिः सुवर्णकारश्रेणि सुवर्णकारान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवं वक्ष्यमाण प्रकारेणावादीत् - भो देवानुमियाः ! क्षिणमेव = शीघ्रमेव, राजमार्गमवगाढे-राजमार्गाssसने पुष्पमण्डपे ननाविधपञ्चवर्णै: अनेकविधैः पञ्चवर्णरज्जितैस्तण्डुलै नगरं आलिखत रचयत स्वस्तिकाद्याकारै चित्रयतेत्यर्थः । तस्य लिखितचित्रस्य उत्पन्न हुए पंच वर्ण के पुष्पों को लाकर उपस्थित करो ।
( जाव सिरिदाम गंडे ओलइंति ) तथा एक बड़ा भारी श्री दामकांडबहुत बड़ी लंबी पुष्पमाला-भी लाना। जो पाटल (गुलाब) आदि पुष्पों से गुंथा हुआ हो और जिस में से नासिका को तृप्ति करने वाली सुगंधि निकल रही हो । उस मंडप के ठीक बीचो बीच ऊपर तने हुए
दरवामें उसे लटका देना । इस तरह राजाकी आज्ञानुसार उन कौटुम्बिक पुरुषों ने सब कार्य कर दिया श्रीदाम कांड को वहां ऊपर चंदरवा में लटका दिया । (एणं से रुप्पी कुणालाहिवई सुवन्नागार से गिं सदावेह, सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! रायमग्गमो गाढंसि पुष्पमंडवंसि णाणाविह पंचवण्णेहिं तंदुलेहिं नगरं आलिहह ) इसके बाद उस कुणालाधिपति रुक्मी राजा ने सुनारों को बुलायाऔर बुला कर उनसे ऐसा कहा हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही જળ તેમજ સ્થળના પંચત્રણના પુષ્પા લાવે.
( जाव सिरिदामग डे ओलइति ) तेभन मे भोटो श्रीहाभअंड-भोटी પુષ્પમાળા-પણ સાથે લાવેા. તે શ્રીદામકાંડ ગુલાબ વગેરે પુષ્પાથી ગુંથાએલા તેમજ નાસિકા તૃપ્ત થાય તેવી સુવાસવાળો હાવે જોઇએ. તેને મડપની બરાબર વચ્ચે ઉપર તાણવામાં આવેલા ચંદરવામાં લટકાવો. આ પ્રમાણે રાજાની આજ્ઞા સાંભળીને તે રાજ પુરુષોએ તેમની આજ્ઞા પ્રમાણે જ કામ પુરૂ કરી આપ્યું. શ્રીદામકાંડને અધવચ્ચે ચંદરવામાં લટકાન્યા.
( तणं से रुप्पी कुणाल हिवई सुवन्नगारसेर्णि सहावेइ, सदावित्ता एवं यासी विपामेव भी देवाणुपिया ! रायमग्गमोगाउंसि पुष्कमंडवंसि णाणाविह पंचवण्णेहिं तंदुलेहिं नगरं आलिहह ) ત્યારપછી કુણાલાધિપતિએ સાનીને બાલાવ્યા અને ખેલાવીને તેઓને કહ્યું-
For Private And Personal Use Only
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ०८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम् ३९१ बहुमध्यदेशभागे पट्टकं रचयत, रचयित्वा यावत् प्रत्यर्पयन्ति । हे स्वामिन् ! यथा देवेन समादिष्ट तथा सर्व साधितमस्माभिरित्येवं ते कथयन्ति स्मेत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु स रूक्मी कुणालाधिपतिहस्तिस्कन्धवरगतः गजस्कन्धोपरि वरासने विराजमानः, 'चाउरंगिणीए' चतुरङ्गिण्या गजाश्वरथपदातिरूपया सेणाए' सेनया 'महया भडचडगडपहयरर्विदपरिक्खित्ते ' भहामटचड़गरपहयरवृन्दपरिक्षिप्तः महाभटानां चडगरः विच्छेदः समदः अन्यजनदुष्पवेश्यः । तथाविधो यः पहयरः समुदायस्तस्थ वृन्द-समूहः तेन परिक्षिप्तः परिवृतः, 'चडगर ' इति 'पहयर' इति च देशीयः शब्दः समूहार्थवाचकः । अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतः सुबाहुं सुबाहुराजमार्ग के समीप बने हुए पुष्प मंडप में अनेक रंगों से रंगे हुए चावलों से नगर की रचना करो।
(तस्स बहुमज्झदेसभाए पट्टयं रहेय ) उसने ठीक बीचों बीच में एक पट्टक बनाओ-(रएइत्ता जाव पच्चप्पिणंति ) पटक बनाकर उनलोगों ने राजा को इसकी पीछे खघरकरदी-उन्हों ने कहा स्वामी ! जैसा कार्य करने के लिये आपने आज्ञा प्रदान कीथी-वैसाही सष काम हमने कर दिया है इस प्रकार की राजा को सूचना कर दी-(तएणं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थि खंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भडचडगर पहयरविंदपरिक्खित्ते अंतेउरपरियालसंपरिघुड़े सुबाहुं दारियं पुरओ कटु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुप्फमंडवे तेणेव उवागच्छइ ) इस के बाद वे कुणालाधिपति रुक्मी राजा हाथी पर बैठ कर चतुरंगिणी सेना के साथ २ महाभटों के समूह से कि जिस से भीतर और कोई दूसरा
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સત્વરે રાજમાની પાસે બનાવવામાં આવેલા પુષ્ય-મંડપમાં અનેક રંગથી રંગાએલા ચેખાથી નગરની રચના કરે.
(तस्स बहुमज्म्म देसभाए पट्टय रहेय ) तेनी १२२५२ मध्ये से ५४४ मनाव. (रएइचा जाव पञ्चपिणांति) मा प्रमाणे ५४४ मनावीन તેઓએ રાજાને સૂચના કરી કે હે સ્વામી! જે પ્રમાણે કામ કરવાની તમે અમને આજ્ઞા આપી હતી તે પ્રમાણે બધું અમે તૈયાર કરી દીધું છે.
(तएणं से रुप्पी कुणालाहिबई हस्थि खंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भडचठगरपहयरविंदपरिक्खित्ते अहे उरपरियालसंपरिबुडे सुबाहुं दारियं पुरओ कटु जेणेव रायमग्गं जेणेव पुप्फमंडवे तेणेव उवामच्छइ )
ત્યાર પછી તે કુણાલાધિપતિ રુકમી રાજા હાથી ઉપર સવાર થઈને ચતુરગિણી સેનાની સાથે સાથે જેમાં કઈપણ પસી શકે નહિ તેવા મહા
For Private And Personal Use Only
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३९२
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
नाम्नी दारिकां= पुत्र, पुरतः अग्रे कृत्वा यचैत्र राजमार्गों यत्रैत्र पुष्पमण्डपस्तत्रैबोपागच्छति, उपागत्य हस्तिस्कन्धात् प्रत्यवरोहति = प्रत्यवतरति प्रत्यचरुह्य पुष्पमण्डपमनुप्रविशति, अनुपविश्य सिंहासनवरगतः ' पुरत्थाभिमुहे ' पौरस्त्याभि मुखः पूर्वदिङ्मुखः, ' सन्निसन्ने' संनिषण्णः - उपविष्टः । ततस्तदनन्रं 'ताओ ' ताः, 'अतेउरियाओ' आन्तः पुरवासिन्यो वनिताः सुबाहुदारिकां पट्टके 'दुरुहें ति दुरोहति = आरोहयन्ति उपवेशयन्तीत्यर्थः। दुरुह्य = आरोह्य श्वेतपीतकैः = राजतसौवर्णैः कलशैः स्नपयन्ति, स्नपयित्वा सर्वालङ्कारविभूषितां कुर्वन्ति कृत्वा =भूपयित्वा पितुः पादौ वन्दितुमुपनयन्ति तत खलु सुबाहुदारिका यत्रैव रुक्मी राजा तौत्रोपागमनुष्य घुस नहीं सकता है तथा अन्तः पुर से परिवृत होते हुए अपनी पुत्री सुबाहुदारिका को आगे करके जहां राजमार्ग के समीप पुष्पमंडप हुआ था वहाँ आये । ( उवागच्छित्ता हरिथखंधाओ पच्चोरूes, पच्चोरुहिता पुष्पमंडवं अणुपविसह - अणुविसित्ता सीहासनवरगए पुरत्याभिमू सन्निसन्ने ) वहां आकर वे हाथी के स्कंध से नीचे उतरे। उतर कर पुष्प मंडप में उपविष्ट हुए। वहां जाकर वे पूर्वदिशा की तरफ मुख कर के श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गये । (तएण ताओ अन्ते उरियाओ सुबाहुदारियं पयंति दुरूहेंति, दुरुहित्ता सेयपीयएहिं कलसेहिं व्हावेंति,. हावित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति-करिता पिउणो पायं वंदि उवर्णेति ) इस के बाद उन अन्तः पुर निवासिनी स्त्रियों ने सुबाहुदारिका को पाट पर चढाया- - और चढ़ा करके बैठा कर के चांदी और सुवर्ण के श्वेत पीले कलशों से उसे स्नान कराया - स्नान कराने के बाद
ભટાના સમૂહની વચ્ચે તેમજ અન્તઃપુની સાથે પોતાની પુત્રી સુબાહુ દ્વારિકાને આગળ રાખીને જ્યાં રાજમાની પાસે પુષ્પમંડપ હતા ત્યાં ગયા.
( उवागच्छित्ता हत्थिधाओ पच्चोरूहइ, पच्चोरुहित्ता पुप्फमंडवं अणुपविसह अणुविसित्ता सीहासनवरगए पुरत्याभिमुद्दे सन्निसन्ने )
ત્યાં આવીને તેએ હાથીના ઉપરથી નીચે ઉતર્યાં. ઉતરીને તેઓ પુષ્પમડપની અંદર ગયા. ત્યાં જઈને તે પૂર્વ દિશા તરફ માં કરીને એક ઉત્તમ આસન ઉપર બેસી ગયા.
( तरणं ताओ अंतेउरियाओ सुबाहुदारियं पट्टयंति दुरूहेंति दुरूहित्ता से - पहिं कलसेहिं हावेंति, महावित्ता सव्वालंकार विभासियं करेंति करिता विउणो पायं वंदिउं उपर्णेति )
ત્યરબાદ રણવાસની સ્ત્રીઓએ સુબાહુ દારિકાને પટ્ટક ઉપર ચઢાવી અને તેના ઉપર બેસાડીને ચાંદી તેમજ સાનાના સફેદ અને પીળા ફળશેાથી તેને
For Private And Personal Use Only
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनगारधर्मामृतवर्षिणी रीका अ०८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम् ३९३ च्छति, उपागत्य पादग्रहणं करोति । तत खलु स रुक्मीराना सुबाहुदारिकामङ्के उत्सङ्गे निवेशयति, निवेश्य सुवाहुदारिकाया रूपेण च यौवनेनच लावण्येन च यावद् विस्मितः= आश्चर्य प्राप्तः, वर्ष धरं-वर्षधरपुरुष अन्तः पुररक्षकं षण्डपुरुष शब्दयति= आइयति, शब्दयित्वा एवंवक्ष्यमाणपकारेण, अवादीत् उक्तवान्हे देवानुप्रिय ! त्वं खलु मम दौत्येन-दतो भूत्वा बहूनि ग्रामाकरनगरगृहाणि अनुपविशसि, तद् तस्माद्ब्रूहि-अस्तिचापि त्वया कस्यचिद् राज्ञो वा ईश्वरस्य वा व्यवहारिणो वा सार्थवाहस्य वा श्रष्ठिनो वो कुत्रचिद् ईदृशं मज्जनकं दृष्टपूर्व, फिर उसे समस्त अलंकारों से विभूषित किया-विभूषित करके फिर वे उसे पिता के चरणों की वंदना करने के लिये ले चली।
(तएणं सुबाहुदारिया जेणेव रूप्पी राया तेणेव उवागच्छइ, उवाग च्छित्ता पायग्गहणं करेइ, तएणं से रुप्पी राया सुबाहु दारियं अंके निवेसेह, निवेसित्ता सुबाहुदारियाए स्वेण य जो० लाव० जाव विम्हिए वरिसधरं सदावेइ ) सुबाहु दारिका भी जहां रुक्मी राजा विराजमान थे-वहां आई वहां आकर के उसने पिता के चरणों में नमन किया इस के बाद राजाने उस सुबाहुदारिका को उठाकर अपनी गोद में बैठालिया बैठाकर उस सुबोहुदारिका के रूपसे यौवन से और लावण्य से विस्मित हुए उन राजा ने वर्षघर अतःपुर के रक्षक नपुंसक-कंचुकी को बुलाया (सदायित्ता एवं बयासी-तुमण्णं देवाणुप्पिया ! मम दोच्चेणं बहूणिं गामागरनगरगिहाणि अणुपविससि, त अस्थियाइं ते कस्सा નવડાવી, નવડાવીને તેને બધા ઘરેણુઓથી શણગારી, શણગારીને તેઓ તેને પિતાના ચરણેના વંદન માટે લઈ ગઈ.
( तएणं सुबाहु दारिया जेणेव रुप्पीराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ, तएणं से रुप्पीराया सुबाहुदारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता मुबाहुदारियाए हवेण य जो० लाव० जाव विम्हिए वरिसधरं सदावेइ )
' સુબાહ દારિકા પણ જ્યાં રુકમી રાજા બેઠા હતા ત્યાં આવી, આવીને તેણે પિતાના ચરણોમાં વંદન કર્યા. ત્યારબાદ રાજાએ સુબાહુ દારિકાને ઉઠાવીને પિતાના મેળામાં બેસાડી લીધી. બેસાડીને સુબાહુ દારિકાના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી વિસ્મય પામેલા રાજાએ વર્ષધર રણવાસના રક્ષક નપુંસકકંચુકીને બોલાવ્યા.
(सदावित्ता एवं वयासी तुमण्णं देवाणुप्पिया ! मम दोच्चे णं बहूणि गामागरनगर गिहाणि अणुपविससि, तं अत्थिया ते कस्सइ रनो वा इसरस्स वा कहिं
शा ५०
For Private And Personal Use Only
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३९४
ज्ञाताधर्म कथासूत्रे
यादृशं खलु अस्याः सुबाहुदारिकाया मज्जनकम् ? | यतस्तदनन्तरं खलु स वर्ष - धरः =अन्तःपुररक्षकः पण्डपुरुषः, रुक्मिणं करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत् एवं खलु हे स्वामिन् ! अहम् अन्यदा - अन्यस्मिन् समये युष्माकं दौत्येन = दूतो भूत्वा मिथिला राजधानीं प्रतिगतः, तत्र खल मया कुम्भकस्य राज्ञो दुहितुः = पुत्र्याः प्रभावत्या देव्याः प्रभावतीदेव्या आत्मजाया:=अङ्गजातायाः मल्लया: = मल्लीनाम्न्याः, विदेहराजवरकन्यकायाः यद् मज्जनकं दृष्ट, तस्य खलु मज्जनकस्य = मल्लीमज्जनकस्य, इदं सुबाहुदारिकाया मज्जनकं शवस्त्रहसतमामपि=लक्षामपि कलां शनाया अंश 'न अग्वे' नार्हति न प्राप्नोती
नो वाइसरस्स वा कहिं चि एयारिसए मज्जणए दिट्ठपुग्वे जारिसएणं इमीले सुबाहुदारियाए मज्जणए ) बुलाकर उससे ऐसा कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम हमारे दूत होकर अनेकग्रामों में आकरों में नगरों एवं घरों में जाते रहते हो, तो कहो तुमने पहिले ऐसा स्नपन महोत्सव कही किसी राजो का किसी ईश्वर का किसी व्यवहारी का किसी सार्थवाहक अथवा किसी श्रेष्ठी का देखा है जैसा कि इस सुबाहु दारिका का यह हुआ है ।
(तरण से वरिसधरे रुप्पि करयल० एवं क्यासी- एवं खलु सामी अहं अन्नया कयाई तुम्भेणं दोच्चेणं मिहिलं गए, तत्थणं मए कुंभकस्स reat धूयाए पभावईए देवीए अन्तयाए मल्लीए विदेह रायकन्नगाए मज्जणए चिट्ठे, तस्स णं मज्जणगस्स हमे सुबाहुदारियाए मज्जणए सयसहस्सइमपि कलं न अग्घे ) ऐसा सुनकर उस बर्ष धरने दोनों हाथों की अञ्जलि बनाकर और उसे मस्तक पर चढाकर रुक्मी राजा से इस चिएयारिसए मज्जणए दिट्ठ पुग्वे जारिसए णं इमी से सुबाहुदारियाए मज्जणए ખેલાવીને તેમણે આ પ્રમાણે કહ્યું——“ હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે અમારા ડૂતના રૂપમાં ઘણા ગ્રામા, આકારા, નગરે અને ઘરમાં અવર-જવર કરતા રહે છે તે ખતાવા કે તમે પહેલાં એવા સુબાહુ દારિકા જેવા સ્વપન મહેાત્સવ કાઇ રાજા, ઇશ્વર, કાઈ વ્યવહારી, કેાઈ સાવાહ અથવા કેાઈ શ્રેષ્ઠિને ત્યાં જોયા છે?
( ari से वरिसधरे रुप्पि करयल० एवं वयासी एवं खलु सामी ! अहं अनया कयाई तुम्भेणं दोच्चेणं मिहिलं गए तत्थ णं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए भाई देवीए अत्ताए मल्लीए विदेह रायकन्नगाए मज्जणए दिट्ठे, तस्स णं मज्जणगस्स इमे सुबाहुदारियाए मज्जणए सयसहस्सइपि कलं न अग्धेइ )
આ પ્રમાણે સાંભળીને તે વધરે અને હાથની અંજલી બનાવીને તેને મસ્તકે સૂકીને રુકમી રાજાને કહ્યું કે હે સ્વામી ! હું કોઈ વખત તમારા ત
For Private And Personal Use Only
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कुणालाधिपतिरुक्मिनृपवर्णनम् ३९५ त्यर्थः। ततस्तदनन्तरं खलु स रुक्मी राजा वर्षधरस्य वर्षधर पुरुषस्यान्तिके समीपे 'एयमटुं' श्रुत्वा निशम्य ' सेसं तहेव' शेषं तथैव-शेषवृत्तान्तं चन्द्रच्छायनृपवद् बोध्यमित्यर्थः । तथाचायं सम्बन्धः- स रुक्मी-तं वर्षधरं प्रत्येवमवादीतहे देवानुपिय ! कीदृशी मल्ली वर्तते, तदा वर्षधर आह-नो खलु अन्या कापि तादृशी देवकन्या वा यावत् यादृशी खलु मल्ली विदेहसजवरकन्या, अत्र यावच्छब्देनासुर नागयक्षगन्धर्वादि कन्यकाः संग्राह्याः, ततः खलु स रुक्मी वर्षधरपुरुषं प्रकार कहा-हे स्वामिन् । मैं किसी समय आपका दूत होकर मिथिला नगरी गया हुआधा-वहां मैंने कुभक राजा की पुत्री कि जो प्रभावती की कुक्षि से अवतरित हुई है मल्ली कुमारी का जो विदेह राजा की पुत्रियों में सर्वोत्तम है जैसा स्नान महोत्सव देखा उसके समक्ष यह सुपाहुदारीका का मज्जनोत्सव लक्षांश-लाखमें अंश को भी प्राप्त नहीं कर सकता है। (तएणं से रुप्पी राया बरिसधरस्स अंतिए एयमट्ट सोच्चा णिसम्म सेसं तहेव मज्जणगजणित हासे दूतं सद्दावेह, सहाविसा एवं वयासी जाव जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए) इस के बाद रुक्मी राजाने जय वर्षधर ( कंचुकी पुरुष ) के मुख से ऐसी बात सुनी तो उसका विचार कर उसने चन्द्रच्छाय राज की तरह अर्थात् राजा ने वर्ष घरसे मल्ली कुमारी के विषय में अपनी जिज्ञासा प्रकट की-पूछा वह कैसी है-तब वर्षधर ने उस से कहा-हे देवानुप्रिय ! क्या कहें-जैसो वह है ऐसी तो कोई भी कन्या नहीं है-न ऐसी कोई देव कन्या है न कोई असुर कन्या है, न कोई नाग कन्या है, તરીકે મિથિલા નગરીમાં ગયે હતું. ત્યાં મેં પ્રભાવતીના ગર્ભથી જન્મેલી વિદેહ રાજાની બધી પુત્રીઓમાં શ્રેષ્ઠ કુંભક રાજાની પુત્રી મલલી કુમારીને જે સ્નાન મહત્સવ જે. તેની સામે સુબાહુ દારિકાને સ્નાન મહોત્સવ લક્ષાંશ પણ કહી શકાય તેમ નથી.
(तएणं से रुप्पीराया परिसधरस्स अंतिए अयमढे सोच्चा णिसम्म सेसं तहेव मज्जणगजणितहासे दूतं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी जाव जेणेव महिला नयरी तेणेव पहारेत्य गमणाए )
રુકમી રાજાએ જ્યારે વર્ષધર (કંચુકી પુરુષ) ના મુખેથી આ પ્રમાણે વાત સાંભળી ત્યારે તેના વિષે વિચાર કરીને તેણે ચન્દ્રચ્છાય રાજાની જેમ એટલે કે રાજાએ વર્ષધરને મલલી કુમારીના સંબંધમાં પોતાની ઈચ્છા જણાવતાં કહ્યું કે તે કેવી છે? ત્યારે જવાબમાં વર્ષધરે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! શું કહું? જેવી તે કન્યા છે તેવી તે કઈ પણ નથી. એવી કઈ નથી દેવકન્યા
For Private And Personal Use Only
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
શુદ્
सत्कारयति, सम्मानयति, सत्कृत्य संमान्य प्रतिविसर्जयति, ततः ख स रुक्मी कुणालाधिपतिः - मज्जनजनितहर्षः = मल्लीमज्ञ्जनकगुणश्रवणसंजात तद्विषयकारागः सन् दूतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - यावत् अत्र यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम् । हे देवानुप्रिय ! शीघ्रमेव मिथिला राजधानीं गत्वा कुम्भकं राजानं ब्रहि - ' रुक्मी कुणालदेशाधिपतिस्तव कन्यकां मल्लीं वाञ्छति' इत्यादि । ततः खल रुक्मिण आदेशानुसारेण स दूतो रथारूढः सन् यत्रेव मिथिलानगरी, तत्रैत्र प्राधारयद् गमनाय = गन्तुं प्रवृत्तः । इति तृतीयस्य रुक्मिणो राज्ञः सम्बन्धः कथितः ।। सू०२५।।
न कोई यक्ष कन्या है, न कोई गन्धर्व कन्या है आदि २ ।
ऐसा वर्षधर से सुनकर रूक्मी राजा ने वर्षधर का सत्कार किया सन्मान किया । सरकार सन्मान करके फिर उसे अपने पास से विसजित कर दिया। बाद में कुणाल देशाधिपति उन रुक्मी राजा ने मल्ली कुमारी के मज्जनोत्सव तथा गुणों के श्रवण से हर्षित और उस कुमारी में अनुरक्त चित्त हो कर दूत को बुलाया - बुलाकर फिर उससे ऐसा कहा- हे देवानुप्रिय ! तुम यहां से शीघ्र ही मिथिला राजधानी को जाओ और जाकर कुंभक राजा से कहो कि कुणाल देशाधिपति रुक्मी राजा तुम्हारी कन्या मल्ली कुमारी को चाहते है । इत्यादि
इस तरह अपने स्वामी की आज्ञा प्राप्त कर वह दूत रथ पर सवार हो जहां मिथिला नगरी थी उस ओर प्रस्थित हो गया । यह तृतीय राजा रुक्मी का संबंध कहा गया है। सूत्र " २५ "
કે નથી અસુર કન્યા કે નથી યક્ષકન્યા કે નથી ગધવ કન્યા, વગેરે.
આ રીતે વધરની વાત સાંભળીને રુકમી રાજાએ વધરના સત્કાર કર્યાં અને સન્માન કર્યું". સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને તેમને પેાતાની પાસેથી વિદાય કર્યાં. ત્યારપછી કુણોલ દેશાધિપતિ રુકમી રાજાએ મલ્લી કુમારીના મજ્જનાત્સવ તેમજ ગુણેાના શ્રવણથી દુષિત તથા તે કુમારીમાં અનુરક્ત ચિત્ત વાળા થઈને દૂતને મેલાન્યા. દૂતને ખેલાવીને તેને કહ્યું-હે દેવાનુપ્રિય ! તમે અહીંથી સત્વરે મિથિલા રાજધાનીમાં જાઓ અને જઇને કુભક રાજાને કહેા કે કુણાલ દેશાધિપતિ રુકમી રાજા તમારી કન્યા મલ્લી કુમારીને ચાહે છે વગેરે. આ પ્રમાણે પોતાના સ્વામીની આજ્ઞા મેળવીને ત રથ ઉપર સવાર થઈને મિથિલા નગરી તરફ રવાના થયા. આ રીતે તૃતીય રાજા રુકમીના સંબધ वा छे. ॥ सूत्र ॥ २५ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
धर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ काशिराज शंखनृपवर्णनम्
દૃશ્ય
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नाम जणवए होत्था तत्थ णं वाणारसी नाम नयरी होत्था, तत्थ र्ण संखे नाम कासी राया होत्या, तरणं तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाई तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संघो विसंघडिए यावि होत्था, तरणं से कुंभए राया सुवन्नगारसेणि सद्दावेs, सदावित्ता एवं वयासी- तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधि संघाडेह, तरणं सा सुवन्नागारसेणी एयमहं तहन्ति पडिसुणेइ २, पडिणित्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गिues, गिव्हित्ता जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवन्नगारभिसियासु णिवेसेइ, णिवेसित्ता बहूहिं आएहिं य जाव परिणामेमाणा इच्छइ, तस्स दिव्वरस कुंडलजुयलस्स संधि घडित्तए, नो चेवणं संचाएइ संघडित्तए, तरणं सा सुवन्नगारसेणी जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० वद्धावेत्ता एवं वासी - एवं खलु सामी ! अज तुम्भे अम्हे सद्दावित्ता जाव संधि संघाडेत्ता एयमाणं पञ्चपिणह, तएणं अम्हे तं दिव्वं कुंडलजुयलं गिण्हामो जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ जाव नो संचाएको संघाडित्तए, तएणं अम्हे सामी ! एयरस दिव्वस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजुयलं घडेमो, तरणं से कुंभए राजा तीसे सुवन्नगारसेणीए अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म आसुरुते तिवलियभिउडी निडाले साहद्दु एवं वयासी - से केणं तुब्भे कलायाणं भवह ? जेणं तुब्भे इमस्स कुंडलजुयलस्स नो संचाएह संधि संघा -
For Private And Personal Use Only
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्रे उत्तए ? सुवन्नगारे निव्विसए आणावेइ, तएणं ते सुवन्नगारा कुंभेणं रण्णा निविसया आणत्ता समाणा जेणेव साइं२ गिहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सभंडामत्तोवगरणमायाए मिहिलाए रायहाणीए मज्झं मज्झेणं निक्खमंति, निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव कासी जणवए जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अग्गुज्जा.
सि सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गिपहंति, गिहित्ता वाणारसीए नयरीए मज्झं मझेणं जेणेत्र कासीराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी-अम्हेणं सामी ! मिहिलाओ नयरीओ कुंभएणं रन्ना निव्विसया आणत्तासमाणा इह हव्वमागया तं इच्छामो णं सामी ! तुम्भं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया निरुव्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसिउं । तएणंसंखे कासराया तं सुवन्नगारे एवं वयासी-किन्नं तुब्भे देवाणुप्पिया ! कुंभएणं रन्ना निविसया आणत्ता ?, तएणं ते सुवन्नगारा संखं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! कुंभगस्स रन्नो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए 'मल्लीए कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए, तएणं से कुंभए सुवन्नगारसेणिं सदावेइ, सदावित्ता जाव निव्विसया आणत्ता, तं एएणं कारणेणं सामी! अम्हे कुंभएणं निव्विसया आणत्ता, तएणं से संखे सुवन्नगारे एवं वयासी--केरिसिया णं देवाणुपिंया! कुंभगस्सधूया पभावईदेवीए अत्तया मल्ली विदेह
For Private And Personal Use Only
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कम
'सबमारधर्मामृतपषिणी टीका अ०८ काशिराजशंखनृपवर्णनम् सयवरकन्ना ?, तएणं ते सुवन्नगारा संखरायं एवं वयासीणो खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गंधवकन्ना वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना, तएणं से संखे कुंडलजुयलजणितहासे दूयं सदावेइ, जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० २६॥
टीका-अथ चतुर्थस्य शङ्खनामो नृपस्य सम्बन्धप्रस्तावमाह- तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये काशीनाम जनपद आसीत् , तत्र खलु शङ्को नाम काशीराज आसीत् । ततस्तदनन्तरं खलु तस्या मल्ल्या विदेहराजवरकन्याया, अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् समये, तस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धिः=सन्धान योजनं, 'विसंघडिए' विसंघटितः= त्रुटितश्चाप्यभवत् , ततस्तदा खलु स कुम्भको राजा सुवर्णकारश्रेणि शब्दयति,
___ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएएणं) उस काल और उस समय में (काशी नाम जणवए होत्था) काशी नाम का देश था (तत्थणं वाणारसी नयरी होत्था ) उसमें घनारसी नाम की नगरी थी ( तत्थणं संखे नामं काशी राया होत्था ) उसमें काशी देशाधिपति शंख नाम का राजा रहता था (तएणं तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाई तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था ) एक समय की बात है कि उस विदेह राज वर कन्यो मल्ली कुमारी के उन दिव्य कुंडलों की संधी टूट गई-उन का जोड़ खुल गया।
(तएणं से कुंभए राया सुवन्नगार सेणिं सद्दावेद सहावित्ता एवं - तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि।
11-' तेणं कालेणं तेणं समएणं' त मते ( काशी नाम जणवए होत्था ) अशी नामे हेश डतो. ( तत्थण वाराणसी नगरी होत्था) मा मना२स नामे नगरी ती (तत्थण संखे नाम कासीराया होत्था) मा शशी દેશના અધિપતિ શંખ નામે રાજા રહેતા હતા
(तएणं तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाइं तस्स दिवस्स कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था)
એક વખતની વાત છે કે વિદેહરાજવર કન્યા મલ્લી કુમારીના દિવ્ય કુંડળોને સાંધાને ભાગ તૂટી ગયે.
For Private And Personal Use Only
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४००
शाताधर्मकथाङ्गखो शन्दयित्वा एवमवादीत-हे देवाणुप्रियाः ! अस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि 'संघाडेह ' संघटयत सन्धानं संयोजनं कुरुत ततस्तदा खलु सा सुवर्णकारश्रेणिः एतम्=कुण्डलसंधानकरणरूपम् अर्थ कार्य तथाऽस्त्विति कथयित्वा प्रतिशृणोति= स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य तद् दिव्यं कुण्डलयुगलं गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव 'सुवन्नगार भिसियाओ ' सुवर्णकारभिसियाः सुवर्णकाराणां दृषिकाः आसनानि -उपवेशनस्थानानि तवोपगच्छति, उपागत्य सुवर्णकारभिसियासु-सुवर्णकारोपवेशनस्थानेषु निविशति-उपविशति निविश्य-उपविश्य, बहुभिः = अनेकविधैः आयैः साधनैः यावत्-अत्र यावत्करणात्-उपायैः प्रयोगैः, स्थितिभिः व्यवस्थाभिरिति बोध्यम् । परिणमयन्ति-पूर्वस्वरूपं सम्पादयन्ति सा सुवर्णकारश्रेणिस्तस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि घटयितुमिच्छतीति पूर्वेण सम्बन्धः । वयासी तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! इमस्स दिवस कुंडलजुयलस्स संधि संघाडेह ) तब कुंभक राजा ने सुवर्णकारों को बुलाया और बुलाकर उन से ऐसा कहा-हे देवानुप्रियों! तुम लोग इस दिव्य कुंडल युगल की संधि को जोड़ दो (तएणं सा सुवन्नगारसेणी एयमद्वं तहत्ति पडि सुणेइ २, पडि सुणित्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गिण्हइ, गिछिहत्ता जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्सा सुवन्नगार भिसियालु णिवेसइ, णिवेसित्ता बहहिं आएहि य जाव परिणामे माणा इच्छा तस्स दिव्वस्स कुंडल जुपलस्स संधित्तए ) उस सुवर्णकार श्रेणी ने कुंडलों की संधि को जोड़ ने रूप अर्थ को" तथास्तु कहकर स्वीकार कर लिया और वे दोनों दिव्य कुंडल राजा के पास से ले लिये । लेकर फिर वे सब जहां सुवर्णकारों के बैठ ने के स्थान थे वहां चले आये। ___ (तएणं से कुंभए राया सुबन्नगारसेणि सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी तु. मेणं देवाणुप्पिया ! इमस्स दिवस्स कुंडलजुयलस्स सद्धि संघाडेह )
ત્યારે કુંભક રાજાએ સનીઓને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે આ દિવ્ય કુંડળે ને સંધિ ભાગ જોડી આપે.
(तएणं सा सुवन्नगार सेगी एयमढे तहत्ति पडिसुणेइ २ पडिसुणित्ता तं दिन्वं कुंडलजुयलं गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवन्नगारभिसियामु णिवेसइ, णिवेसित्ता बहहिं आएहिं य जाव परिणामेमाणा इच्छइ तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संघित्तए)
તે સોનીઓએ તથાસ્તુ કહીને કુંડળે ને તૂટેલા ભાગને જોડવાની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી. અને બંને દિવ્ય કુંડળે રાજાની પાસેથી તેઓ એ લઈ લીધાં. લીધા પછી તેઓ બધા જ્યાં તેનીઓને બેસવાનાં સ્થાન હતાં
For Private And Personal Use Only
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ० ८ काशिरामशंखनृपवर्णनम्
ક્રૂર
अस्य कु·
नो चैव खलु शक्नोति संघटयितुम् तैः सुवर्णकारैस्तस्य त्रुटितस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि संघटयितुमने कोपायाः कृताः, परंतु कुण्डल सन्धेर्यथोचित योजनाऽभावात्ते विफल प्रयत्ना अभूवन्निति भावः । ततस्तदनन्तरं खलु सा सुवर्णकारश्रेणिर्यचैव कुम्भकः - मिथिलाराजः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा = करद्वयं संयोज्य 'वृद्धावेत्ता ' वर्धयित्वा - 'जयजये' ति शब्देनाभिनन्द्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् - हे स्वामिन् ! एवं खलु अद्य यूयमस्मान् शब्दयथ, शब्दयित्वा यावत् भवद्भिरेवं वयमाज्ञप्ताः - ' आकर उन स्थानों में बैठ गये - बैठकर उन लोगों ने अनेक साधनों से, अनेक उपायों से अनेक व्यवस्थाओं से उस दिव्य कुंडल के युगलं की संधि को जोड़ने की इच्छा की, परन्तु ( नो चेवणं संचाएह संघडित्तए, तणं सा सुवण्णगारसेणी जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छद्द ) वे उस संधी को यथोचित रूप से जोड़ ने में समर्थ नहीं हो सके-अतः उन का समस्त प्रयत्न विफल हुआ। इस तरह विफल प्रयत्न वाले हुए वे लोग जहां मिथिलाधिपति कुंभक राजा थे वहां गये उवागच्छिता करयल० वद्धावेत्ता एवं वयासी ) वहां जाकर उस सुवर्णकार श्रेणी ने दोनों हाथों को जोड़कर राजाको बधाई दी - जय हो विजय हो इस तरह उसका अभिनंदन किया बाद में इस प्रकार कहा - ( एवं खलु सामी ! अज्ज तुभे अम्हे सदावेह, सद्दावित्ता जाव संधि संघाडेत्ता एयमाणं पच्चपिह ) स्वामिन् ! आपने आज हमलोगों को बुलाया था और
•
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ત્યાં આવ્યા. ત્યાં તે બેઠા અને એસીને તે લેાકાએ જાત જાતનાં સાધના, ઉપાયા તેમજ અનેક જાતની વ્યવસ્થાઓથી અને કુંડળાના તૂટેલા ભાગને સાંધવાના પ્રયત્ન કર્યા પણ
( नो चेत्र णं संचार संघडित्तए, तरणं सा सुवण्णगारसेणी जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छ )
તેઓ કુંડળાના તૂટેલા સ`ધિભાગને સાંધવામાં સમ થઈ શકયા નહિ અને તેના બધા પ્રયત્ને નિષ્ફળ બન્યા આ પ્રમાણે નિષ્ફળ પ્રયત્ન वाजा तेथे। मघा नयां मिथिलाधिपति डुल राल हता त्यां गया. ( उदागच्छित्ता करयल० वद्धावेत्ता एवं वयासी ) त्याने ते सोनीया मने હાથ જોડી ને રાજાને જયથાઓ જયથાએ આ પ્રમાણે ના શબ્દોથી અભિનંદિત કર્યો અને ત્યાર પછી કહેવા લાગ્યા
एवं खलु सामी ! अज्ज तुम्भे अम्हे सदावेह सद्दावित्ता जाव संधि संघाडेत्ता एमा पच्चपिणt )
शा० ५१
For Private And Personal Use Only
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
५०२
माताधर्मकथाङ्गसूत्रे ण्डलयुगलस्य सन्धि संघटयत, सन्धि संघटय-त्रुटितं सन्धि योजित्वा-एतामाज्ञां =ममाज्ञप्ति प्रत्यर्पयत ' इति, ततः खलु वयं तद् दिव्यं कुण्डलयुगलं गृह्णीमः; यत्रैव सुवर्णकारटर्षिकाः, यावत्-तौवोपागच्छामः उपागत्य तत्रोपविश्य वयं कुण्डल युगलस्य संधि संघटयितुं प्रयत्नं कृतवन्तः परंतु नो शक्नुमः संघटयितुं संयोजयितुम् , ततः तस्मात् कारणात् खलु हे स्वामिन् ! एतस्य दिव्यस्य कुण्डलस्यान्यत् सदृशं कुण्डलयुगलं घटयामा=रचयामः, ततस्तदनन्तरंखलु स कुम्भको राजा तस्याः सुवर्णकारश्रेण्याः सुवर्णकारसमूहस्य अन्तिके समीपे, एतमर्थ-कुण्डलसन्धिसंघटन घुलाकर ऐसा कहा था कि तुम लोग इस दिव्य कुंडल युगल की संधि को कि जो टूट गई है-खुल गई है-ठीक कर दो-जोड़ दो-और जोड़कर हमारी इस आज्ञप्ति को पूर्ण कर इस की हमें खबर दो (तएणं अम्हे तं दिव्वं कुडलजुयलं गिण्हामो-जेणेव सुवन्नागारभिसियाओ जाव नो संचाएमो संघडित्तए तएणं अम्हे सामी ! एयरस दिव्वस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजुयलं घटेमो) हमने उस दिव्य कुंडल युगल को ले लिया था और लेकर हम लोग जहां सुवर्ण कारों के बैठ ने का स्थान था-वहां चले गये थे-वहाँ बैठकर हम लोगों ने अनेक साधनों बारा, अनेक उपायों द्वारा और अनेक व्यवस्थाओं द्वारा इस कुडल युगल की संधि को जोड़नेका प्रयत्न किया-परन्तु यथोचित रूपसे जोड़ने में हम लोग सफल प्रयत्न नहीं हो सके है-अतः हे स्वामिन् ! आपकी आज्ञा हो तो हम इस दिव्य कुंडलके समान और दूसरा कुंडल युगल बना देते हैं-(तएणं से कुंभए राया तीसे सुवन्नगारसेणीए अंतिए एयमटुं
હે સ્વામિન્ તમે આજે અમને બોલાવ્યા હતા અને બોલાવીને કહ્યું હતું કે તમે લેકે આ દિવ્ય કુંડળે સંધિ ભાગ તૂટી ગયો છે તેને સારે કરી આપે, સાંધી આપે અને સાંધીને અમને ખબર આપો.
(तएणं अम्हे तं दिव्वं कुंडल जुयल गिहामी जेणेव सुवन्नागारभिसिया ओ जाब नो संचाएमो संघडित्तए तएणं अम्हे सामी ! एयस्स दिव्बस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजुयल धटेमो)
અમે તે કુંડળની જડને લીધી અને લઈને જ્યાં સોનીને બેવસાની જગ્યાઓ છે ત્યાં ગયા. ત્યાં બેસીને અમે લેકેએ ઘણાં સાધને ઉપાયોને ઘણી વ્યવસ્થાઓ વડે આ બંને કુંડળીના તૂટેલા ભાગને સાંધવાના પ્રયત્ન કર્યો, પણ તેઓને યોગ્ય રીતે સાંધવામાં અમે લેકે સફળ થયા નથી, એથી હે સ્વામી! આપની આજ્ઞા હોય તે આ દિવ્ય કુંડળો જેવાજ બીજા કુંડળે ઘડી આપીએ.
For Private And Personal Use Only
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
f
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ काशिराजशंखनृपवर्णनम्
૪૦૩
योग्यतारा हिश्यरूपं श्रुत्वा = शब्दतः कर्णगोचरीकृत्य, निशम्य - अर्थतोऽवगव्य, 'आसुरुते ' आशुरुतः झटितिक्रोधाविष्टः, 'तिवलियं ' त्रिवलिकां= रेखात्रयाभिव्यक्ति कारिकi, भिउड ' भ्रुकुटिं वक्रीभूतभुवं, ललाटे =माले संहृत्य = आवध्य-एवंवक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - अथ खलु यूयं ' कलायाणं ' कलादानां - कलामाददत इति कलादाः स्वर्णकारास्तेषां के भवथ ? न कोऽपीत्यर्थः ये खलु यूयमस्य कुण्डलयुगलस्य नो शक्नुय सन्धि संघटयितुम् । ये खलु सुवर्णकारास्ते कलामात्र सुवर्णमादाय तद् वितत्य राजादीनां मनोहरं कनकमयमाभूषणादिकं रचयन्ति यूयं तु त्रुटितस्य सुवर्णसन्धेः संयोजनेऽप्यसमर्थाः स्थ तर्हि कलादाकुलोद्भवा यूयमिति कथंसोच्चा णिसम्म आसुरुते तिवलियं भिउडी निडाले साहद्दु एवं वयासी) इस प्रकार उस सुवर्णकार श्रेणी के मुख से इस बात को सुनकर और उसे विचार कर वह कुंभक राजा उस पर झटिति क्रोध से लाल पीली आंखों वाला हो गया और भ्रकुटि को मस्तक पर चढ़ाकर इस प्रकार बोला ( से केणं तुभे कलायाणं भवह ? जेणं तुभे इमस्स कुंडल जुय लस्सनो संचाएह संधि संघाईत्तए ? ) जब तुम लोग इस कुंडल युगल की संधि को ही नहीं जोड़ सकते हो तो फिर तुम सुवर्णकार कैसे ? जो सुवर्णकार होते हैं वे तो कलामात्र (थोढा) भी सोनेका पसार कर ऐसे २ आभूषण उसके बना देते हैं जो राजादिकोंके मनको भी हरण कर लेते हैं। तुम लोग तो टूटे हुए सुवर्ण की संधि को भी जोडने में अक्षभ बन रहे हो तो फिर कैसे हम तुम्हें सुवर्णकारों के कुलों में उत्पन्न हुआ सोच्चाणि -
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तएण से कुंभए राया तीसे सुवन्नगारसेणीए अंतिए एयम सम्म आसुरुते तिवलियं भिउडी, निडाले साह एवं वयासी )
આ રીતે સાનીએના મુખેથી આ વાત સાંભળીને અને તે વિષે ખરેખર વિચારીને કુંભક રાજા તેના ઉપર ખૂબજ ક્રોધથી લાલ પીળા થઈ ગયા અને ભમ્મરા ઉંચી ચઢાવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા –
( सेकेणं तुब्भे कलायाणं भवइ ? जेणं तुभे इमस्स कुंडलजुयलस्स नो संचाre संधि संघात ? )
તમે આ બંને કુંડળોના તૂટેલા સધિભાગને જ સાંધી શકવામાં અસમ છે ત્યારે તમે સુવર્ણકાર કઈ રીતે છે ! જેએ સુવર્ણકાર હાય છે તે તા કલા માત્ર પશુ સેાનું હાય તેને ફેલાવીને એવાં એવાં ઘરેણાંઓ તૈયાર કરી આપે છે કે જનાથી રાજાઓના મન પણ પ્રસન્ન થઇ જાય છે.
તમે લેકે જ્યારે તૂટેલા સેાનાના સાંધા પણ જોડી શકતા નથી ત્યારે अभे तमने सुत्र अरोना गुणमा भन्भेला ज्या आधारे भानी से ? ( सुत्र
For Private And Personal Use Only
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ર
शांताधर्मकथासूत्रे
मन्ये, इति भावः । ततः स कुम्भको राजा किं कृतवान्? इत्याह--' ते ' इत्यादि, तान् सुवर्णकारान् ' निव्विसए' निर्विषयान् स्वदेशतो निष्क्रान्तान् आज्ञापयति मम राज्याद्वहिर्गच्छथ ' इत्याज्ञां ददाति स्मेत्यर्थः ।
"
ततः खलु ते सुवर्णकाराः कुम्भेन = कुम्भकेन राज्ञा निर्विषयाः स्वदेशतो निर्गताभवितुम् आज्ञप्ताः सन्तः यत्रैव स्वानि स्वानि गृहाणि तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य 'सभंड मत्तोवगरणमायाए ' सभाण्डा मंत्रोपकणमादाय स्वकीयभाण्डभाजनापकरणं गृहीत्वा शकटसमृहेऽवस्थाप्य मिथिलाया राजधान्या मध्यमध्येन निष्क्रामन्ति = निर्गच्छन्ति, निष्क्रम्य विदेहस्य जनपदस्य मध्मध्येन मध्ये भूत्वा यत्र काशीजनपदः, यचैव वाराणसी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य ' अग्गुज्जाणंसि' मानें। ( सुवन्नगारे निव्विस आणवेद ) इस तरह कह कर उस कुंभक राजा ने उन सुवर्णकारों को अपने देश से बहिर निकल जाने की आज्ञा दे दी । (तएण से सुवन्नगारा कुभेर्ण रन्ना निव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव साई २ गिहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सभंडामतोवगरणमाणाए मिहिलाए रायहाणीए मज्झं मज्झेणं निक्खमंति ) इसके बाद वे सुवर्णकार कुंभक राजा से अपने देश से बाहिर निकल जाने के लिये आज्ञप्त होकर जहां अपने २ घर थे वहां आये । वहां आकर उन्हों ने अपने २ भांड भाजन आदि उपकरणों को गाडियों में भरा और भराकर मिथिला राजधानी के बीचों बीच से होकर निकले । (निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झ मज्झेर्ण जेणेव कासी जणवए जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव उवागच्छति ) और निकल विदेह जनपद के भीतर से होकर जहां काशी देश और बनारसी नगरी थी वहां आये । नगारे निव्वस आणवेइ ) मा प्रमाणे उडीने डुलरामये ते सुवालुअरीने પેાતાના દેશની બહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા આપી.
तएणं से मुत्रन्नगारा कुंभेणं रन्ना निव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव साई २ गिहाई तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सभंडा मत्तोवगरणमायाए महिलाए यहाणी मज्झ मज्झेणं निक्खमंति )
ત્યાર પછી તે સાનીએ કુભક રાજાની પાસેથી પેાતાના દેશમાંથી ખહાર નીકળી જવાની આજ્ઞા સાંભળીને જ્યાં પેાતાનું ઘર હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓ એ પેાતાના વાસણ વગેરે સામાનને ગાડીઓમાં ભર્યાં, અને ભરીને મિથિલા રાજધાનીના રાજમાર્ગે થઈને નીકળ્યા.
(निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव कासी जणवए जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव उवागच्छंति )
અને નીકળીને વિદેહુજન પદ્મની વચ્ચે થઈ ને જ્યાં કાશીદેશ અને બનારસી નગરી હતી ત્યાં ગયા.
For Private And Personal Use Only
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ काशिराजशंखनृपवर्णनम् . ४०५ अग्रोद्याने प्रधानोद्याने, सगडीसागड' शकटीशाकटं लधुशकटबृहच्छ कटानां समूहं 'मोएति' मोचयन्ति शकटेभ्यो बली वर्दान् पृथक् कुर्वन्ति मोचयित्वा महार्य महाप्रयोजनकं यावत्-महाध महामूल्यकं महार्ह महतां राजादीनां योग्य, पाभृतम्-उपहारं गृह्णन्ति, गृहीत्वा वाराणस्या नगर्या मध्यमध्येन वाराणस्या नगर्यामध्ये भूत्वा यौव शड्रग्वः शङ्खनामा काशिराजस्तौवोपागच्छन्ति । उपागत्य करतळ० यावत् मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीहे स्वामिन् ! एवं वयं खलु मिथिलाया नगर्याः कुम्भकेन राज्ञा निर्विषयाःस्वदेश निर्गता भवितुमाज्ञप्ताः सन्त इह 'हव्वमागया' हव्यमागताः शीध्रमागताः, . (उवागच्छित्ता अग्गुजाणंसि सगडी सागडं मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गिण्हंति, गिण्हित्ता वाणारसीए नयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव संखे कासी राया तेणेव उवागच्छंति ) वहां आकर उन्होंने अपनी २ गाड़ी और गाड़ों को वहां के बगीचे में ठहरा दिया-और ठहरा कर फिर ये सब महार्थसाधक-कीमती तथा राजादिकों के योग्य भेट को लेकर पानारसी नगरी के बीच से होकर जहां काशी राज शंख राजा थे वहां आये ' ( उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-अम्हेणं सामी ! मिहिलाओ-नयरीओ कुंभएणरना निव्विसया आणत्ता समाणा इहं हव्वमागया) वहाँ आकर उन्होंने दोनों हाथों को जोड़ कर और उनकी अंजलि को माथेपर रखकर राजा को नमस्कार किया, बाद में इस प्रकार वे कहने लगे हे स्वाभिन् ! हमलोगों को कुंभक राजा ने
उवागच्छित्ता अग्गुज्जाणंसि सगडी सागड मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गिण्हंति, गिण्हित्ता वाणारसीए नयरीए मज्झ मज्झेणं जेणेव संखे कासी राया तेणेव उवागच्छति)
ત્યાં આવીને તેઓ એ પિત પિતાની ગાડીઓ તેમજ ગાડાંઓને. ત્યાંના ખાસ ઉદ્યાનમાં ક્યાં અને રેકીને તેઓ બધા મહાઈ સાધક બહુંજ કીમતી તેમજ રાજા વગરે ને યોગ્ય એવી ભેટ લઈને બનારસી નગરીની ઠીક વચ્ચે થઈને જ્યાં કાશીરાજ શંખરાજા હતા ત્યાં ગયા.
उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी अम्हेणंसामी ! मिहलाओ नयरीओ कुंभएणं रन्ना निन्धिसया आणत्ता समाणा इहं-हव्वमागया )
ત્યાં જઈને તેમણે બંને હાથ જોડીને અંજલી મસ્તકે મૂકીને રાજાને વંદન કર્યો અને તેઓ કહેવા લાગ્યાં–હે સ્વામિન! કુંભક રાજાએ અમને લોકોને મિથિલાનગરીથી બહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી છે મિથિલાનગરીની બહાર કહ
For Private And Personal Use Only
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૪૦.
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
तत् = तस्मात् इच्छामः खलु हे स्वामिन् ! युष्माकं बाहुच्छाया परिगृहीताः भुजच्छाया समाश्रिताः अतएव निर्भयाः, निरुद्विग्नाः = उद्वेगरहिताः, मुखं सुखेन= अतिसुखेन परिवस्तुमिच्छाम इति पूर्वेण सम्बन्धः ।
ततस्तदनन्तरं खलु शङ्खः काशिराजस्तान् सुवर्णकारानेवमवादीत् - हे देवानुप्रियाः ! किं = कुतः खलु यूयं कुम्भकेन राज्ञा निर्विषया आज्ञप्ताः ? ततः खलु ते सुवर्णकाराः शङ्खमेवमवादीत् हे स्वामिन् । एवं खलु कुम्भकस्य राज्ञो दुहितुः = मिथिलानगरी से बहार चलेजाने की आज्ञा दी - सो हमलोग वहांसे निर्वासित होकर यहाँ आये हैं - ( तं इच्छामोणं सामी ! तुमं बाहुच्छाया परिगहिया निग्भयानिव्विग्गा सुहं सुणेहं परिवसिउं ) अतः हे स्वामिन्! आपकी बाहुच्छाया का आश्रय लेकर हमलोग यहां निर्भय और freira होकर शान्ति पूर्वक आनन्द के साथ रहना चाहते हैं ( तणं संखे कासीराया ते सुवन्नागारे एवं वयासी) उनकी इस प्रकार की बात सुनने के बाद काशी देशाधिपति शंख राजा ने उनसे ऐसा कहा - ( किन्नं तुभे देवाणुपिया ! कु भएणं रन्ना निव्विसया आणत्ता ) हे देवानुप्रियों । किस कारण से कुंभक राजा ने आप लोगों को मिथिलानगरी से बाहर चले जाने की आज्ञा प्रदान की
(तरणं ते सुवन्नगारा संखं एवं वयासी) सुवर्णकारों ने प्रत्युत्तर में शंख राजा से इस प्रकार कहा - ( एवं खलु सामी ! कुंभगस्स रनो
ડવાની આજ્ઞા કરવાથી એથી અમે ત્યાંથી નિર્વાસિત થઇને અહી આવ્યા છીએ. ( तं इच्छामो णं सामी ! तुब्भं बाहुच्छाया परिग्गहिया निम्भया निरून्चिग्गा सुहं सुहेणं परिवसिउं )
એથી હે સ્વામિન્ ! તમારી ખાડુચ્છાયાના આશ્રયમાં અમે લોકો નિય અને નિરૂદ્વિગ્ન થઇને શાંતિથી સુખેથી અહી...રહેવા ઈચ્છા રાખીએ છીએ. ( तण संखे कासी राया ते सुवन्नागारे एवं वयासी )
તેમની આ પ્રમાણે વિનંતી સાંભળીને કાશી દેશોધિપતિ શ'ખ રાજાએ તેમને કહ્યું
( किन्नं तुभे देवाणुपिया ! कुंभणं रन्ना निविसया आणत्ता ) હૈ દેવાનુપ્રિયા ! કુંભક રાજાએ તમને શા કારણથી મિથિલા નગરીની મહાર જતા રહેવાની આજ્ઞા આપી છે ?
( तण ते सुवन्नागारा संख एवं वयासी )
સાનીએએ જવાખમાં શખ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે—
For Private And Personal Use Only
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवर्षिण टीका अ० ८ काशिराजशंखनृपवर्णनम् ४०७ पुच्या प्रभावती देव्या आत्मजायाः अङ्गजातायाः, मल्लया:-मल्लीकुमारिकायाः; कुण्डलयुगलस्य सन्धिविसंघटितः त्रुटितः । ततः खलु स कुम्भकः सुवर्णकार श्रेणिम् अस्मानित्यर्थः शब्दयति, शब्दयित्वा यावत्-अत्रयावच्छब्देनेदं द्रष्टव्यम्तेनैवं वयमाञप्ताः-अस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि संघटयत सन्धि संघटय त्रुटितं सन्धि योजयित्वा, एतामाज्ञां=ममाज्ञप्ति, प्रत्यर्पयत" इति ततः खलु वयं तद् दिव्यं कुण्डलयुगलं गृहीत्वा निनोपवेशनस्थानमागत्य तत्रोपविश्य नानाविधैरुपायैः पूर्वस्वरूपं सम्पादयन्तस्तस्य कुण्डलयुगलस्य संधि संघटयितुं प्रयासं कृतवन्तः, परन्तु नो शक्नुमः संघटयितुम् , ततः खलु कुम्भकस्य राज्ञः पुरोगत्वाऽस्माभिरेवमावेदिधूयाए पभावहए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुडलजुयस्स संधी विसंघडिए-तएणं से कुभए सुवन्नगारसेणिं सद्दावेइ, सहावित्ता जाव निन्वि सया आणत्ता) हे स्वामीन् ! कुमक राजा की पुत्री कि जो प्रभावती की कुक्षि से उत्पन्न हुई है और जिसका नाम मल्ली कुमारी है-के दो कुंडलों की संधी विघटितहो गई थी-सो कुभक राजाने हमसब सुवर्ण कारों को बुलाया था और ऐसा कहा था कि तुम लोग इन की संधी को जोड कर ले आओ-हमलोगों ने उनकी आज्ञानुसार उन दोनों कुडलो को लेलिया और लेकर हमलोग अपने २ बैठने के स्थान पर चले आए-वहां बैठकर हमलोगों ने नाना प्रकार के उपायों से उन कुंडलों को पूर्वावस्थ पनाने के लिये त्रुटित संधी को जोडने का बहुत प्रयास किया परन्तु यथावत् हमलोग उसे संघटित नही कर सके अतः हमलोग उनके समीप पहुँचे और वहां जाकर उनसे प्रार्थना की कि ____ (एवं खलु सामी ! कुंभगरस्स रन्नो धूयाए पभावइए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए तएणं से कुंभए मुवन्नगारसेणिं सदावेइ, सदा. वित्ता जाव निम्सिया आणत्ता)
| હે સ્વામીનું ! પ્રભાવતી રાણીના ગર્ભથી જન્મ પામેલી કુંભક રાજાની પુત્રી મલી કુમારીના બે કુંડળોને સાંધો તૂટી ગયે. કુંભક રાજાએ બધા સોનીઓને બેલાવ્યા અને કહ્યું કે તમે લોકે આ કુંડળોની સંધિને જોડી આપ. અમોએ તેમની પાસેથી કુંડળ લઈ લીધા અને લઈને અમે બધા પિતપતાના બેસવાના સ્થાને આવી ગયા. ત્યાં બેસીને અમોએ જાતજાતના ઉપાથી તે કુંડળને પહેલાંના જેવા જ સારા બનાવી આપવાની એટલે કે તૂટેલો સંધિ ભાગ ફરી સાંધી આપવા માટે ઘણા પ્રયત્ન કર્યા પણ તે કુંડળાને પૂર્વવત્ સારા કરવામાં સમર્થ થઈ શકયા નહિ અમે લેકે રાજાની પાસે ગયા અને તેમને વિનંતિ કરી કે હે મહારાજ ! અમે બહુ જ
For Private And Personal Use Only
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४०.
शाताधर्मकथाजस्त्रे तम्-अस्य दिब्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि संघटयितु प्रयासं कृतवन्तः, परंतु नो शक्नुमः संघटयितुम् , ततः खलु कुम्भकस्य राज्ञः पुरो गत्वाऽस्माभिरेव मवादित्अस्य दिव्यस्य कुण्डलयुगलस्य सन्धि संघटयितुं प्रयत्नं कृतवन्तोऽपि वयं नो शक्ताः संघटयितुम्, तस्मात् खलु हे स्वामिन् । एतत्सदृशमन्यत् कुण्डलयुगलं घटयामः इति । ततः क्रोधाविष्टेन कुम्भकेन राज्ञा एवं 'निधिसया' निर्विषया स्वदेशतो निर्गता भवितुम्, आज्ञप्ताः-आदिष्टाः।
ततः स शङ्खः काशीराजः सुवर्णकारानेवमवादीत्-हे देवानुपियाः । कीदृशी खलु कुम्भकस्य राज्ञो दुहिता-पुत्री प्रभावत्या देव्या आत्मना-अङ्ग नाता, मल्ली महाराज हमलोग प्रयत्न करने पर भी इस कार्य में असफलित हो रहे हैं-अतः आपको आज्ञा हो तो हम इन्हीं कुडलों जैसा कुंडल और घनादेवें-यस हमारा इतना ही कहना था कि राजा इकदम क्रोध के आवेश में आ गये-और हमलोगों को अपने देश से निकल जाने की आज्ञा दे बैठे । बस (तं एएणं कारणेणं सामी ! अम्हे कुभएणं निविसयो आणत्ता-तएणं से संखे सुवनगारे एवं वयासी-केरिसिया णं देवा. णुप्पिया ! कुंभगधूया पभावइए देवीए अत्तया मल्ली विदेह रायवरकन्ना) हे स्वामीन् यहीकारण है कि जिससे हमलोग कुंभक राजा के द्वारा देश से निकल जाने के लिये आज्ञप्तहुए हैं-शंख राजाने उन सुवर्ण करों को अपने राज्य में बसनेके लिये खुशी से आज्ञाप्रदान की।
इस प्रकार सुनने के अनन्तर उस शंख राजा ने सुवर्णकारों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियों ! कहो-कुंभक राजा की वह विदेहवर પ્રયત્ન કર્યા છતાં આ કામમાં અમે સફળ થઈ શક્યા નહિ. એથી તમે આજ્ઞા આપે તે આ કુંડળો જેવાં જ બીજા બે કુંડળે ઘડી આપીએ અમારી આ વાત સાંભળીને રાજા એકદમ લાલચોળ થઈ ગયા અને અમને પિતાના દેશથી બહાર જવાની આજ્ઞા આપી દીધી.
(तं एएणं कारणेणं साभी ! अम्हें कुंभए णे निन्धिसया आणत्ता तएणं से संखे सुवनगारे एवं वयासी केरिसियाणं देवाणुप्पिया ! कुंभगधूया पभावइए देवीए अत्तया मल्ली विदेहरायवरकन्ना)
સ્વામીન! બસ એ કારણને લીધે જ કુંભક રાજાએ અમને દેશવટે આપે. શંખ રાજાએ તે બધા સોનીઓને પિતાના દેશમાં રહેવાની ખુશીથી પરવાનગી આપી.
નીઓની આ બધી વાત સાંભળીને શંખ રાજાએ તેમને કહ્યું કે હે
For Private And Personal Use Only
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० ८ काशिराजशंखनृपवर्णनम् ४०९ विदेहराजवरकन्यका ?, ततः खलु ते सुवर्णकाराः शङ्ख राजानमेवमवदन्-हे स्वामिन् ! नो खलु अन्या काचित् तादृशी देवकन्या वा गन्धर्वकन्या वा यावत्अत्र यावच्छेनेदं बोध्यम्-असुरकन्या नागकन्या यक्षकन्या वो इति, यादृशी खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या मल्लीसदृशी काऽपि कन्या लोकत्रये नास्तीत्यर्थः । ततः खलु स शङ्खः काशीराजः कुण्डलयुगलजनितहः-कुण्डलयुगलमहत्त्वश्रवणसंजा. तमल्लीविषयकानुरागः सन् दूतं शब्दयति,यावत्-अत्र यावच्छब्देनेदं द्रष्टव्यम्शब्दयित्वा एवमवादीत्-हे देवानुप्रिय ! शीघ्रमेव मिथिलां गत्वा कुम्भकं राजानं राज कन्या मल्ली कुमारी-कि जिसका जन्म प्रभावती की कुक्षि से हुआ है-कैसी है ? (तपणं ते सुवन्नगारा संखरायं एवं वयासी-णो खलु सामी ! अन्ना काह तारिसिया देवकन्ना वा गंधव्वकन्ना वा जारीसियाणं मल्ली विदेहवरायकन्ना-तएणं से संखे कुडलजुयलजणितहासे दूयं सद्दावेद, जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए ) इसके प्रत्युत्तर में उन सुवर्ण कारोंने शंख राजा से इस प्रकार कहा हे स्वामिन् ! ऐसी तो कोई देवकन्या भी नहीं है, गंधर्व कन्या भी नही है, असुरकन्या भी नहीं है, नागकन्या भी नहीं है और न कोई यक्ष कन्या ही है कि जैसी विदेह वर राजकन्या मल्लीकुमारी है। तात्पर्य इसका यही है कि-मल्ली कुमारी जैसी कन्या लोकत्रय में भी नही है। इस प्रकार कुंडलयुगल के महत्व श्रवण से मल्लीकुमारी के विषय में जिसे अनुराग (भाव उत्पन्न हो चुका है ऐसे उस शंख राजाने दूतको बुलाया-बुलाकर उस से ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही मिथिला जाकर कुभक દેવાનુપ્રિયે ! બતાવે કુંભક રાજાની વિદેહવર રાજકન્યા મલી કુમારી કે જેને જન્મ પ્રભાવતીના ગર્ભથી થયો છે તે કેવી છે ?
(तएणं ते सुवनगारा संखराया एवं वासी-णो खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गंधवान्ना वा जारिसियाणं मल्ली विदेहवररायकन्नातएणं से संखे कुंडलजुयलजणितहासे दूयं सदावेई, जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए)
તેના જવાબમાં સનીએાએ શંખ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-હે સ્વામીન ! જેવી વિદેહવર રાજકન્યા મલીકુમારી છે તેવી તે દેવકન્યા પણ નથી, ગ ધર્વકન્યા પણ નથી, અસુર કન્યા પણ નથી, નાગકન્યા પણ નથી અને યક્ષ કન્યા પણ નથી. તાત્પર્ય એ છે કે-મલીકુમારી જેવી કન્યા ત્રણે લેકમાં પણ નથી.
આ રીતે કુંડળોના મહત્વ વિષે વાત સાંભળતાં જે મલી કુમારીના ઉપર જેના મનમાં અનુરાગ જન્મ પામ્યો છે એવા તે શંખ રાજાએ દૂતને બેલા અને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે મિથિલા નગરીમાં સત્વરે
शा० ५२
For Private And Personal Use Only
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
-
--
-
-
-
-
४१०
शाताधर्मकथागसूत्रे ब्रूहि-शङ्खः काशिराजस्तव कन्यकां मल्ली वाञ्छति' इत्यादि । तथैव पूर्वोक्त रुक्मिदूतवत् , प्राधारयद् गमनाय ततः शङ्खस्य काशीराजस्याज्ञया स दूतो रथा. रूढः सन् यौव मिथिलानगरी तत्रैव गन्तुं प्रवृत्त इत्यर्थः । इति चतुर्थस्य शङ्खस्य राज्ञः सम्बन्धः कथितः ॥ सू०२६ ॥ ___मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं कुरु जणवए होत्था, तत्थ णं हस्थिणाउरनयरे अदीणसत्तू नामं राया होत्था, जाव विहरइ, तत्थ णं मिहिलाए कुंभगस्त पुत्ते पभावईए अत्तए मल्लीए अणुजाणए मल्लदिन्नए नामकुमारे जाव जुवराया यावि होस्था तएणं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोडुबिय० सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे ममं पमदवर्णसि एग महं चित्तसभं करेह अणेग जाव पञ्चप्पिणंति, तएणं से मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! चित्तसभं हावभावविलास विब्बोयकलिएहिं रूवेहिं चित्तेह, चित्तित्ता जाव पच्चप्पिणह, तएणं सा चित्तगर सेणी तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सयाइं गिहाई तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता, तूलियाओ वन्नए य गिहिइ, राजासे कहो कि काशी देशाधिपति शंख राजा आपकी कन्या मल्ली कुमारी को चाहते हैं इत्यादि।
इस प्रकार अपने राजा काशी राज की आज्ञा से वह दूत रथ पर आरूढ होकर जहां मिथिला नगरी थी उस ओर चल दिया। इस तरह यह चतुर्थ शंख राजा का वृत्तान्त प्रकार कहा गया है । सूत्र " २६" પહોંચે અને કુંભક રાજાને કહે કે કાશી દેશાધિપતિ શંખ રાજા તમારી કન્યા મલીકુમારીને ચાહે છે વગેરે.
આ રીતે પિતાના રાજા કાશી રાજાની આજ્ઞા મેળવીને દૂત રથ ઉપર સવાર થયું અને જે તરફ મિથિલા નગરી હતી તે તરફ રવાના થશે. આ शते मा यथा ॥५ २०ny qयुन ४२वामा मान्छे । सूत्र "२६"।
For Private And Personal Use Only
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतषिणी टीका अ०८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम् गिण्हित्ता जेणेव चित्तसभा तेणेव अणुपविसइ, अणुपविसित्ता भूमिभागे विरंचइ, विरंचित्ता भूमि सज्जेइ, सज्जित्ता चित्तसमं हावभाव जाव चित्तेउं पयत्ता यावि होन्था, तएणं एगस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगरलद्धापत्ता अभिसमन्नागयाजस्स णं दुपयस्स वा चउप्पयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासइ, तस्स णं देसाणुसारेणं तयाणुरूवं रूवं निव्वत्तेइ, तएणं से चित्तगरदारए मल्लीए जवणियंतरियाए जालंतरेण पायंगुटुं पासइ, तएणं तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवे जाव सेयं खलु ममं मल्लीए एवि पायंगुट्टाणुसारेणं सरिसगं जाव गुणो ववेयं रूवं निव्वत्तित्तए, एवं संपेहेइ,संपेहित्ता भूमिभागं सजेइ, सज्जित्ता मल्लीएवि पायंगुहाणुसारेणं जाव निव्वत्तेइ, तएशंसा चित्तगरसेणी चित्तसभं हावभाव जाव चित्तेइ, चित्तित्ता जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव जाव एतमाणत्तियं पच्चप्पिणइ, तएणं मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि सकारेइ, सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणंदलेइ, दलित्ता पडिविसज्जेइ । तएणं मल्लदिन्ने अन्नया पहाए अंतेउरपरियालसंपरिखुडे अम्मधाईए सद्धिं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चिंत्तसभं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता हावभावविलास विब्बोयकलियाई रुवाइं पासमाणे२ जेणेव मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरूवे णिव्वत्तिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू०२७ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४१३
शाताधर्मकथाङ्गसूत्र टीका-अथ पश्चमस्यादोनशत्रुनाम्यो राज्ञः सम्बन्धप्रस्तावमाह-'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये कुरुजपदः कुरु नामको देशः, आसीत् , तत्र-तस्मिन् देशे, हस्तिनापुरे-नगरे अदीनशत्रुर्नाम राजाऽऽसीत्।यावद् विहरति --राज्यं पालयन् स आस्त स्मेत्यर्थः ।
इतश्च तत्र खलु मिथिलायां कुम्भकस्य पुत्रः प्रभावत्याः आत्मजः अङ्गजातः, मल्ल्या:-मल्लीकुमारिकाया अनुजातका लधुभ्राता, मल्लदत्तो नाम कुमारः, यावद्-राजनीतिकुशलो युवराजश्चाप्यभूत् । ततस्तदनन्तरं मल्लदत्तः कुमारः
___'तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यादि । टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समयमें (कुरु जणवए होत्था-तत्थणं हथिगाउरनयरे अदीग सतू नामं राया होत्था जाव विहरइ ) कुरु नाम का देश था-उस में हस्तिनापुर नाम के नगर में अदीन शत्रु नाम के राजा रहते थे। ये न्यान्य नीति के अनुसार अपने राज्य का परिपालन अच्छी तरह से करते थे । (तत्थ णं मिहि. लाए कुंभगस्स पुत्ते पभावइए अत्तए मल्लीए अणु जाणए मल्ल दिन्नए नाम कुमारे जाव जुवराया यावि होत्था ) उस मिथिला नगरी में कुंभक राजा के यहां प्रभावती से एक पुत्र और हुआ था-जिस का नाम मल्ल दत्त कुमार था यह मल्ली कुमारी का छोटा भाई था।
राजनीति में यह विशेष निष्णात था । अतः राजा ने इसे युवराज ' तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यादि।
साथ-( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) ते ४ाणे अने ते समये (कुरुजणवए होत्था तत्थणं हथिगाउरनयरे अदीणसत्तू नामं राया होस्था जाव विहरइ)
કુરૂ નામે દેશ હતું. તેમાં હસ્તિનાપુર નામે નગરમાં અદીનશત્રુ નામે રાજા રહેતા હતા. તે ન્યાય અને નીતિને અનુસરીને રાજ્ય-શાસન यसावतो तो..
( तत्थ णं महिलाए कुंभगस्स पुत्ते पभावइए अत्तए मल्लीए अणु नाणए मल्लदिन्नए नामकुमारे जाव जुवराया यावि होत्था )
તે મિથિલા નગરીમાં કુંભક રાજાને ત્યાં પ્રભાવતી રાણીના ગર્ભથી એક પુત્રને જન્મ થયે હતું તેનું નામ મલદત્તકુમાર હતું અને તે મલ્લીકુમારીને નાનો ભાઈ હતિ. રાજનીતિમાં તે ખૂબ જ નિષ્ણાત હતે. એથી રાજાએ યુવરાજપદે તેની નીમણુક કરી હતી.
For Private And Personal Use Only
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
"
अनंगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम्
४१३
6
3
"
अन्यदा=अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्समये, कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति = आइयति, शब्दयित्वा = आहूय एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - हे देवानुमियाः ! गच्छत खलु यूयं मम पमदवणंसि' प्रमदवने = अन्तःपुरस्थितोद्याने, एकां महतीं 'चित्तसमं ' चित्रसभां = चित्रगृहं 'करेह' कारयत चित्रसभाया विशेषणमाहअणेग' इति - अणेगखंभसयसंनिविद्व ' अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टम्, अनेकेअनेकप्रकारा नानावर्णदेदीप्यमानचाक चिक्यचञ्च चक्षुश्चित्ताहाद जनकमणिगतविचित्रशिल्परचना सुशोभिता ये स्तम्भाः सुवर्णमयस्तम्भाः तेषां शतैः संनिविष्टम् = समन्वितम् ' जाय पच्चष्पिणंति यावत् प्रत्यर्पयन्ति - कौटुम्बिक पुरुषास्तथैव चित्रसभां कृत्वा मल्लदत्तस्य पुरः समागत्य तदाज्ञां निवेदयंति, भवदाज्ञाऽनुसारेण सर्व साधितमस्माभिरिति कथयन्ति स्मेत्यर्थः । ततः खलु स मल्लदत्तश्चित्रका पद प्रदान कर दिया था । (तएणं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया को बिय सहावे सद्दावित्ता एवं वयासी- गच्छहणं देवाणुपिया ! तुम्भे ममं पमदवसि एवं महं चित्तसभं करेह अणेग जाव पच्चपिणंति ) एक दिन मल्लदिन्न कुमार ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया - बुलाकर उन से ऐसा कहा - हे देवानुप्रियों ! तुम जाओ और प्रमदोद्यान में - अन्तः पुरस्थित बगीचे में एक बड़ा चित्रगृह बनाओ ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वह अनेक सुवर्ण मय स्तंभशत से समन्वित हो । इन स्तंभों में नाना वर्ण के चमकीले मणि जड़े हुए हों। जो अपनी चाकचिक्य से चक्षु और चित्त के आह्लादक हो । इन मणियों द्वारा उन स्तंभों में विचित्र शिल्प रचना की गई हो। इस प्रकार मल्लदत्त कुमार की आज्ञा प्राप्त कर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी के अनुसार चित्र गृह की रचना (तणं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोडुंबिय ० सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी गच्छहणं देवापिया! तुरुभे ममं पमदवर्णसि एवं महं चित्तस करेह अणेग जान पञ्चष्पिणंति) એક દિવસે મલ્લદિનકુમારે કૌટુબિક પુરુષાને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને તેમને કહ્યું--કે હું દેવાનુપ્રિયે ! તમે પ્રમોદ્યાનમાં જાઓ અને ત્યાં રણુવાસના ઉદ્યાનમાં એક મેટુ ચિત્રગૃહ તૈયાર કરી.
ચિત્રગૃહ સે'કડા સેાનાના થાંભલાવાળું હાવું જોઈએ. તે થાંભલાઓમાં ચમકતા ઘણા મણિએ જડેલા હાવા જોઇએ. પાતાના પ્રકાશથી જોનારાની આંખાને આંજી દે તેવું તેમજ ચિત્તને આહ્લાદ આપનારૂ હેવુ જોઇએ. મણિએ વડે તેના થાંભલાએમાં જાતજાતના શિલ્પની રચના કરવામાં આવેલી હાવી જોઇએ. આ રીતે મલ્લદત્ત કુમારની આજ્ઞા મેળવીને કૌટુંબિક પુરુષાએ
For Private And Personal Use Only
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे करश्रेणि-चित्रकारान् शब्दयति, शब्दयित्वैवमवादीत- हे देवानुप्रियाः ! यूयं खलु चित्रसमां-चित्रगृहं 'हावभावविलासब्बिोयकलिएहि' हावभावविलासबिब्बोककलितः =शृङ्गारभावाभ्यां संजाता स्त्रीचेष्टा हावः, भावो मनोविकारः, विलासो हावभेदः विब्बीकः-अभिमतप्राप्तावपिगर्वादनादरः, अयमपि हावभेदः । अन्येत्वेवमाहुः
हावो मुखविकारः स्याद् भावश्चित्तसमुद्भवः।
विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भू समुद्भवः ॥इति।। करके उसे खबर दी कि आपकी आज्ञानुसार हमने सब काम कर लिया है। ___ (तएणसे मल्लदिन्ने चित्तगरसेणिं सद्दावेद,सदावित्ता एवं वयोसी) इसके बाद उस मल्लदत्त कुमार ने चित्रकारों को बुलवाया और बुला. कर उनसे इस प्रकार कहा-(तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! चित्तसभ हावभाव विलास विब्बोयकलिएहिं स्वेहिं चित्तेह चित्तित्ता जाव पच्चप्पिणह ) हे देवानुप्रियों ! तुम लोग चित्रगृह को हाव, भाव, विलास, एवं विन्योक युक्त चित्रो से चित्रित करो। स्त्रियों की जो चेष्टा शृंगार एवं मनो विकार जन्य होती है-उस का नाम हाव है । मानसिक विकृतिका नाम भाव है। विलास हाव का ही एक प्रकार है । अभि मत (इच्छित) की प्राप्ति होने पर भी जो गर्व से उस में अनादर होता है-उस का नाम विब्योक है। यह भी हाव का ही एक भेद है । इन हाव भावादिकों के विषय में कोई २ ऐसा भी कहते हैं कि मुख का जो विकार होता है वह हाव है, चित्त से जो विकार उत्पन्न होता है, वह भाव है । नेत्र તેમની આજ્ઞા પ્રમાણે જ ચિત્રગૃહનું નિર્માણ કરીને તેમને ખબર આપી કે આજ્ઞા મુજબ અમે એ બધું કામ પૂરું કરી નાખ્યું છે.
(तएणं से मल्लदिन्ने चित्तगरसेणिं सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी) ત્યારબાદ મલ્લદત્ત કુમારે ચિત્રકારોને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેમને કહ્યું કે
( तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! चित्तसभं हावभावविलासविनोयकलिएहिं रूवेहि चित्तेह, चित्तित्ता जाव पञ्चप्पिणह )
હે દેવાનુષિ ! તમે ચિત્રગ્રહને હાવ, ભાવ, વિલાસ અને બિકવાળા ચિથી ચિત્રિત કરે. સ્ત્રીઓની શૃંગાર અને મને વિકાર જન્યને ચેષ્ટાઓ હાવ કહે છે. માનસિક વિકૃતિનું નામ ભાવ છે. અમિત (ઈચ્છિત) ની પ્રાપ્તિ હેવા છતાં પણ ગર્વથી જે તે અનાદર હોય છે તેનું નામ વિબ્લેક છે. તે પણ હાવને જ એક પ્રકાર છે. આ હાવ, ભાવ વગેરેના વિશે કેટલાક આ પ્રમાણે પણ કહે છે કે મેંને વિકાર જ હાવ છે, ચિત્તથી જન્મે છે તે
For Private And Personal Use Only
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिण टीका अ० ८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम्
एतैर्हावादिभिः कलियुक्तैः, रूपैः-चित्रविशेषैः चित्रयत-चित्रितं कुरुत, चित्रयित्वा यावत् प्रत्यर्पयत-ममाज्ञा संपादितेति मां कथयतेत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु सा चित्रकारश्रेणिः तथेति=' तथाऽस्तु' इत्युक्त्वा प्रतिशणोति-स्वीकुरुते स्म। प्रतिश्रुत्य यत्रैव स्वकानि गृहाणि, तत्रैवोपागच्छति उपागत्य 'तूलियाओ वनए य' तूलिका वर्णकांश्च-तूलिकाः केशमप्यश्चित्रलेखनकूचिकाः, वर्णकान् पश्चवर्णकद्रव्याणि, च गृह्णाति, गृहीखा यत्रैव चित्रसभा तत्रैवानुप्रविशति, अनुपविश्य भूमिभागं-चित्रविरचनस्थानं' विरंचइ' वेवेक्तिप्रोत्थं चित्रगोयमिति कृत्वा रेखादिभिर्भित्त्यादौ विभागं करोति, 'विरंचित्ता' विविच्य=भूमि सज्जयति से जो भाव उत्पन्न होता है वह विलास एवं भ्र से जो उत्पन्न होता है वह विभ्रम है । जब इस प्रकार के चित्रों से वह चित्रगृह चित्रित हो जावे-तब हमें इस की खयर दो- (तएणं सा चित्तगरसेगी तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सयाइं गिहाई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तृलियाओ वन्नएय गिण्हह, गिणिहत्ता जेणेव चित्तसभा तेणेव अणुपविसइ ) इस के बाद उस चित्रकार श्रेणि ने " तथास्तु" इस प्रकार कहकर मल्लदत्त कुमार की आज्ञा को स्वीकार कर लियाऔर स्वीकार करके फिर वे सब के सब अपने २ घर आ गये-वहां आकर उन्हों ने अपनी २ तूलिकाओं को और वर्णकों-पंचवर्ण वाले द्रव्यों को लिया-लेकर जहां-वह चित्रगृह था उस ओर चल दिये। वहां आकर वे उस के अन्दर गये ( अणुपविसित्ता भूमिभागे विरंचेह विरंचित्ता भूमि सज्जेइ, सिज्जित्ता चित्तसभ हाव भाव जाय चित्ते ભાવ છે, નેત્રથી જે ભાવ ઉત્પન્ન હોય છે તે વિલાસ અને ભવાંથી જે ઉત્પન્ન હોય છે તે વિભ્રમ છે. જ્યારે આ પ્રમાણે તે ચિત્રગૃહ ચિત્રિત થઈ જાય ત્યારે અમને તમે સૂચિત કરજે
(तएणं सा चित्तगरसेणी तहत्ति पडिसुणेइ पडिसुणित्ता जेणेव सयाई गिहाई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तूलियाओ बन्नएयगिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव वित्तसभा तेणेव अणुपविसइ)
ત્યારપછી તે ચિત્રકારોએ ‘તથાસ્તુ' (સારૂ) આ પ્રમાણે કહીને મલદત્ત કુમારની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી અને ત્યારપછી તેઓ બધા પિતાપિતાને ઘેર આવી ગયા. ત્યાં આવીને તેઓએ પોતપોતાની પીંછીઓ અને વર્ણ એટલે કે પાંચ રંગવાળા દ્રવ્યોને સાથે લીધા અને લઈને જે તરફ ચિત્રગૃહ હતું તે તરફ રવાના થયા. ત્યાં પહોંચીને તેઓ તેમાં પ્રવિષ્ટ થયા
अणुणविसित्ता भूमिभागे विरंचेइ विरंचित्ता भूमि सज्जेइ, सज्जित्ता चित्त
For Private And Personal Use Only
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मार्जनादिभिः परिष्करोति, सज्जयित्वा चित्तसभा ' हावभाव-जाव' हावभावयावत् हावभावविलासविब्बोककलितैः, रूपैः चित्रविशेषैः, 'चित्तेउं 'चित्रयितुं 'पयत्ता' प्रत्ता चाप्यभवत् । सा चित्रकारश्रेणिचित्रगृहं हावभावादियुक्त चित्रविशेषैश्चित्रयितु प्रवर्ततेस्म ' इत्यर्थः । । ततः तत्र खलु एकस्य चित्रकारस्य इमेयारूवा' इयमेतद्रूपा-वक्ष्यमाणस्वरूपा चित्रकरलब्धि =चित्रकरणविशिष्टशक्तिः,मनसि यादृशं रूपं चिन्तयति तादृशं करोत्येवं भूना लब्धिः, लब्धा-उपानिता, प्राप्ता-स्वायत्तिकृता,अभिसमन्वा गता=सम्यगासेपयत्ता यावि होत्या ) अन्दर प्रविष्ट होकर सबसे पहिले उन्हों ने चित्र रचने के स्थान को रेखादि द्वारा अंकित किया
यहां इस प्रकार का चित्र काढना चाहिये इस प्रकार के विचार से भित्ति के ऊपर रेखा आदि खींचकर उन्हों ने उस का विभाग कियोविभाग कर के फिर वहां की भूमि को उन्हों ने साफ किया-साफ कर के फिर वे चित्रकार उस चित्रगृह को हाव भाव आदि वाले चित्र विशेषों से चित्रित करने में लग गये । (तएणं एगस्स चित्तगस्स इमे यारूवे चित्तगर लद्वी लद्धा, पत्ता अभि समन्नागया-जस्सणं दुपयस्स वा चउपयस्स वा अपयस्त वो एगदेसमवि पासइ, तस्सणं देसाणुसारेणं तयाणुरूवं रूवं निव्वत्तेइ) इन में एक चित्रकार ऐसा था जिसमें चित्र करने की विशिष्ट शक्ति थी । इस ने इस शक्ति को पहिले से ही सभं हाव भाव जाव चित्तेउं पयत्ता यावि होत्था)
તેમાં પ્રવેશીને તેઓએ સૌ પહેલાં ચિત્ર બનાવવાની જગ્યા ઉપર રેખાઓ બનાવી.
અહીં આ પ્રમાણે ચિત્ર તૈયાર કરવાનું છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને ભીંત વગેરે ઉપર રેખાઓ વગેરે દેરીને તેમને વિભાજન કર્યું, વિભાજન કરીને તે સ્થાનને તેઓએ સ્વચ્છ બનાવ્યું. સ્વચ્છ બનાવીને તે ચિત્રકારો ચિત્રગૃહને હાવ ભાવ વગેરેના વિશેષ ચિત્રોથી ચિત્રિત કરવા લાગ્યા.
( तएणं एगस्स चित्तगस्स इमेयारूवे चित्तगरलद्धी लद्धा, पत्ता अभिसमन्ना गया, जस्सणं दुपयस्स वा चउपयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासइ, तस्स गं देसाणुसारेणं तयाणुरुवं रूवं निव्वत्तेइ)
આ બધામાં એક ચિત્રકાર એ પણ હતું કે તેમાં ચિત્ર તૈયાર કરવાની વિશેષ શક્તિ હતી. તેણે પિતાની ચિત્ર બનાવવાની અસાધારણ શક્તિ
For Private And Personal Use Only
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनगारधर्मामृतयषिणी टीका अ०८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम् । ४१७ बिता, यस्य, खलु द्विपदस्य -मनुष्यादेवी चतुष्पदस्य गवादेर्वा, अपदस्य-चरणरहितस्य सपदीक्षादेर्वा, एकदेशमपि एकाङ्गमपि पश्यति तस्य खलु देशानुसारेण चक्षुर्गोचरीकृतैकदेशानुसारेण तयाणुरूवं' तदनुरूपं दृष्ट द्विपदादियोग्य, रूपं चित्रं 'निव्वत्तेई निवर्तयति-रचयति । ततस्तदनन्तरं खलु स चित्रकरदारको मल्ल्या := मल्लीकुमारिकायाः, 'जवणियंतरियाए' यवनिकान्तरितायाः यवनिकया - पर. दाख्येन आवरणपटेन, अन्तरितायाः-व्यवहितायाः परदाभ्यन्तरस्थिताया इत्यर्थः । जालान्तरेण-गवाक्षरन्ध्रेण पदाङ्गुष्ठं पश्यति-दृष्टवान् । ततः खलु तस्य चित्रकारस्य चित्रकारदारकस्य, अयमेतद्पः अयं वक्ष्यमाणस्वरूपः,याव-विचारः समुदपद्यतश्रेया श्रेयस्करम् अभ्युदयजनकं, खलु मम मल्ल्या अपि पादाङ्गुष्ठानुसारेण सदृशकमल्लीसमानं यावद्-गुणोपपेतंमल्ल्या अङ्गेषु यत्र ये सौन्दर्यादिगुणाः तैः समन्वितं, उपार्जित किया था-प्राप्त किया-था-उस में यह विशेष चतुर था, इस का इसे अच्छा अभ्यास था। - यह जिस मनुष्यके, चतुष्पद गवादिके, अपद सर्पादि अथवा वृक्षादि के जिस किसी एक एक भाग को देख लेता तो उसी के अनुसार यह उस का पूर्ण चित्र अंकित कर देता था। (तएणं से चित्तगरदारए मल्लीए जवणियंतरियाए जालंतरेण पायंगुटुं पासइ, तएणं तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवे जाव सेयं खलु मम मल्लीए वि पायंगुट्टाणुसारेण सरिसर्ग जाव गुणोववेयं रूवं निव्वत्तित्तए एवं संपेहेइ ) एक दिन इस चित्रकार ने परदा के भीतर बैठी हुई मल्लि कुमारी के पैर का अंगूठा गवाक्ष छिद्र से देख लिया था सो उम के मन में ऐसा विचार आया कि मेरे लिये यह श्रेयस्कर है कि मैं मल्ली कुमारीका भी पादा. डगुष्ठानुसार यावत् गुणोपपेन उसी के जैसा, चित्र बनाऊँ । પહેલેથી જ મેળવેલી હતી. ચિત્રકળામાં તે ખૂબ જ પ્રવીણ તેમજ તેને તે સારો અભ્યાસી હતો.
તે ચિત્રકાર માણસના, ગાય વગેરે ચેપગાઓના, સાપ વગેરે અપના અથવા તે વૃક્ષ વગેરેને કે ઈપણ એક ભાગ જોઈ લેતે અને ત્યારબાદ તે પ્રમાણેનાં જ આબેહૂબ તેમનાં ચિત્ર દેતે હતે.
(तएणं से चित्तगरदारए मल्लीए जवणियंतरियाए जालंतरेण पायंगटुं पासइ तएणं तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवे जाव सेयं खलु ममं मल्लीए वि पायंगुट्ठाणुसारेण सरिसगं जाव गुणोववेयं रूवं निव्वत्तित्तए एवं संपेहेइ)
એક દિવસ તે ચિત્રકારે પડદાની પાછળ બેઠેલી મલ્લીકુમારીના પગને અંગૂઠે ગવાક્ષના કાણામાંથી જોઈ લીધે ત્યારે તેના મનમાં એમ થયું કે હું મલીકુમારીના પગના અંગૂઠાના જેવું જ સુંદર ચિત્ર તૈયાર કરૂં.
का ५३
For Private And Personal Use Only
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
ટ
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
रूपं चित्र निर्वर्तयितुं = रचयितुम् । एवम् उक्तप्रकारेण, संप्रेक्षते=स चित्रकरदारको विचारयतिस्म । संप्रेक्ष्य=मनसि विमृश्य, भूमिभागं = चित्रकरणस्थानं सज्जयति= मार्जनले पादिना संस्करोति, सज्जयित्वा मल्ल्या अपि पादाङ्गुष्ठनुसारेण यावत् = सहकं गुणोपेतं रूपं निर्वर्तयति = रचयतिस्म । ततस्तदन्तरं खलु सा चित्रकारश्रेणिश्चित्रसभां ' होवभाव - जाव ' हाव भाव - यावत् = हावभाव विकास विब्बोककलितैः रूपैः, चित्रैः' चित्तेइ' चित्रयति, चित्रयित्वा यचैत्र मलदत्तः कुमारस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यावत् एतामाज्ञां प्रत्यर्पयति- हे स्वामिन्! भवदाज्ञानुसारेण चित्रगृहं
་
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मल्ली कुमारी के अंग में जहां २ जो जो सौन्दर्यादि गुण है उन सब गुणों को उस मल्ली कुमारी के चित्र में अंकित करूँ। ऐसा जब उस ने विचार किया - ( संपे हित्ता) तो उस विचार के अनुसार (भूमिभागं सज्जे, सज्जित्ता मल्लीए वि पायगुडानुसारेण जावि निव्वलेह, तरणं सा चित्तगरसेणी चित्तसभं हावभावजाव चित्ते, चिन्तिता जेणेव मल्ल दिन्ने कुमारे तेणेव जाव एतमाणत्तियं पच्चपिणइ ) उस ने वहां का भूमिभाग साफ किया मार्जन, लेप आदि द्वारा उसे संस्कारित किया - संस्कारित करके फिर उस ने वहाँ मल्ली कुमारी का भी दृष्ट पादांगुष्ठ के अनुसार बिलकुल हुबहू जैसे के तैसा गुणोपपेत रूप - चित्र अंकित कर दिया ।
इसके बाद उस चित्रकारों की श्रेणी ने उस चित्रगृह को हावभाव विलास एवं विब्बोक वाले रूपों से चित्रों से अंकित कर दिया - चित्रित कर दिया - चित्रित कर फिर वे सब के सब मलदत्त कुमार जहां बैठा
-
મલ્લી કુમારીના અંગમાં જ્યાં જ્યાં જે જે સૌના ગુણા છે તે બધા ગુણ્ણાને તે મલ્ટીકુમારીના ચિત્રમાં અંકિત કરૂ. આ પ્રમાણે જ્યારે તેણે वियार - ( संहिता ) अने ते विचार ने अनु सरतां ४
( भूमिभागं सज्जे, सज्जित्ता मल्लीए वि पायगुडानुसारेण जावि निव्वत्ते aणं सा चित्तगर सेणी चित्तसमं हावभाव जावचित्ते, चित्तित्ता जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव जाव एतमाणात्तियं पचपिणइ )
તેણે તે જગ્યાને સ્વચ્છ બનાવી અને માન લેપન વગેરેથી તે સ્થાનને સાફ કર્યું સાફ કર્યાં ખાદ તેણે પહેલાં જોયેલા મલ્લી કુમારીના પગના અંગૂઠા ના જેવું જ આખેષ ગુણેાપેત રૂપ ચિત્ર અંકિત કર્યું.
ત્યાર બાદ ચિત્રકારોએ જ્યારે ચિત્રગૃહને હાવભાવ વિલાસ અને વિમ્મેકનાં ચિત્રાથી ચિત્રિત કરી આપ્યુ. ત્યારે તે બધા જ્યાં મલદત્ત
For Private And Personal Use Only
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० ८ अदोनशत्रु नृपवर्णनम्
४१९
"
चित्रितमस्माभिरित्येवं चित्रकार श्रेणिः कथयति स्मेत्यर्थः । ततः खलु मल्लदत्तश्चित्रकारश्रेणि 'सक्कारेs ' सत्कारयति, वचनादिना, संमानयति = वस्त्रादिना । 'सक्कारित्ता' सहकार्य - सत्कारं कृत्वा ' सम्माणित्ता' संमान्य विपुलं विस्तीर्ण ' जीवि यारिहं जीविका - वृत्तियोग्यं, ' पीइदाणं ' प्रीतिदानं - परमहर्षहेतुकं दानं ददाति दवा प्रतिविसर्जयति । ततः खलु मल्लदत्तोऽन्यदा - अन्यस्मिन् कस्मिश्चित् समथे स्नातोऽन्तः पुरपरिवासं परिवृतः 'अम्मचाईए ' अम्बाधात्र्या = उपमात्रा सार्धं यचैव चित्रसभा - चित्रगृहं वर्तते तत्रैवोपागच्छति । उपागत्य चित्रसभामनुप्रविशति = चित्रगृहे प्रवेशं करोति, अनुप्रविश्य हावभावविलासविब्बोककलितानि रूपाणि = था वहां आये आकर के उन्होंने उससे कहा स्वामिन्! हमलोगों आपकी आज्ञानुसार चित्र गृह को चित्रित कर दिया है- (तएणं) इस प्रकार चित्रकारों के मुख से सुनकर ( मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगर सेणिसक्कारेइ, सम्माणेs, सकारिता सम्माणिप्ता, विपुलजीवियारिहं पीड़दाणं दलेइ, दलित्ता पडिविसज्जेइ ) मल्लदत्त कुमारने उस चित्रकार श्रेणी का सत्कार किया सन्मान किया। सत्कार सन्मान करके फिरउस ने उसे विपुल जीविका के योग्य प्रीतिदान दिया और बाद में उसे विसर्जित कर दिया । (तएणं मल्लदिन्ने अन्नया पहाए अंतेउरपरियाल संपरघुडे अम्माईए सद्धि जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छइ) इसके पश्चात् किसी एक दिन वह मल्लदत्त कुमार स्नान कर के अन्तः पुर परिवार से युक्त होकर अपनी अम्वाधात्री के साथ जहां चित्रगृह था वहाँ गया - ( उवागच्छित्ता चितसभं अणुपविसह अणुपविसित्ता हावभाव
કુમાર બેઠા હતા ત્યાં આવ્યા અને આવીને તેઓએ આ પ્રમાણે કહ્યું કે હૈ સ્વામિન્! તમારી આજ્ઞા મુજબ અમેએ ચિત્રગૃહ તૈયાર કરી દીધું છે. (तरण ) या रीते चित्रा ना भोथी सलगीने
(Heaदने कुमारे चित्तगरसेर्णि सकारेइ, सम्माणे, सकारिता सम्माणिता, विपुलजीवियारिहं पीइदाणं दलेइ, दलित्ता पडिविसज्जेइ )
મલ્લદત્ત કુમારે ચિત્રકારોનું સત્કાર તેમજ સન્માન કર્યું", સત્કાર અને સન્માન કરીને તેણે તેમને પુષ્કળ પ્રમાણમાં જીવિકાયાગ્ય પ્રીતિદાન આપ્યુ અને ત્યાર પછી તેઓને જવાની રજા આપી.
( तणं मल्लदिने अन्नया व्हाए अंते उरपरियाल संपरिवुडे अम्माईए सद्धिं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छइ )
ત્યાર પછી કોઇ એક દિવસ મલ્લદત્ત કુમાર સ્નાન કરીને રણવાસના પિરવારને સાથે લઈ ને પોતાની અમ્બાધાત્રીની સાથે જયાં ચિત્ર ગૃહ હતું ત્યાં ગયા
For Private And Personal Use Only
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Y
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
चित्राणि पश्यन् य मल्ल्या विदेहराजवरकन्यायाः, ' तयाणुरूवे ' तदनुरूपं= तत्सदृशं, रूप =चित्र 'णिव्त्रत्तिए ' निर्वर्तितं = रचित मासीत् तत्रैव प्राधारयद् गमनाय = गन्तु ं प्रवर्ततेस्म || मू० २७ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मूलम् - तणं से मल्लदिन्ने कूमारे मल्लीए विदेहरापरवकन्नाए तथाणुरूवे रूवे निव्वत्तियं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे अज्झथिए जावसमुपज्जित्था - एस णं मल्ली विदेहरायवरकन्नत्तिकहु लजिए वीड़िए विअडे सनियं२ पञ्च्चोसक्कइ । एणं मल्लिदिनं अम्मधाई पच्चीसकंतं पासित्ता एवं वयासी - किन्नं तुमं पुत्ता ! लजिए वीडिए विअडे समियं सणियं पच्चोसकइ ?,
तणं से मल्लदिन्ने अम्मधाई एवं वयासी - जो जुत्तं णं अम्मो ! मम जेट्टाए भगिणीए देवयभूयाए लज्जणिजाए मम चित्तगरणिव्वत्तियं सभं अणुपविसित्तए ?, तएणं अम्मधाई मल्लदिन्नं कुमारं एवं वयासी - नो खलु पुत्ता ! एस मल्ली, एस णं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए चित्तगरएणं तयाणुरूवे विलासविम्बोयकलियाई रुवाई पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेहरायवरsary तयारुवे णिव्यत्तिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए) वहां जाकर चित्रगृह में प्रविष्ट हुआ-प्रविष्ट होकर हावभाव, विलास एवं विबोक से युक्त उन रूपोंको चित्रों को - चार२ देखता हुआ वह जहां विदेह राजबरकन्या का तदनुरूप चित्र बना हुआ था उस ओर गया || सूत्र २७ ॥
( उवागच्छित्ता चितसभं अणुपविपड़ अणुपविसित्ता हावभाव विलासविब्बीय कलियाई वाई पासमाणे २ जेणेव मल्लीए विदेहरायवर कन्नाए तयाणुरूवेणिव्वत्तिय तेणेव पहारेत्थ गमणाए )
ત્યાં પહોંચીને તે ચિત્રગૃહમાં ગયા અને ખિમ્માકવાળા તે ચિત્રાને જોતાં તે જ્યા જ ચિત્ર દોરેલું હતું તે તરફ ગયેા ॥ સૂત્ર
८८
અને જઈ ને હાવભાવ વિલાસ વિદેહ રાજવર કન્યાના જેવું
""
२७ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४२१
अंगारधर्मामृतवषिणी टीका अ०८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम् रूवे णिव्वत्तिए । तएणं मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयमहं सोच्चा आसुरुत्ते एवं वयासी केसणं भो चित्तयरए अपस्थिय पत्थिए जाव परिवज्जए जेणं मम जेटाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए जाव निव्वत्तिए त्तिकटु तंचित्तगरं वज्झं आणवेइ,तएणं सा चित्तगरसेणीइमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव वद्धावेइ, वद्धावित्ता एवं वयासी--एवं खलु सामी ! तस्स चित्तग. रस्स इमेयारूवा चित्तगरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नगया, जस्स ण दुपयस्स वा जाव णिवत्तेइ, तं माणं सामी ! तुब्भे तंचित्तगरं वज्झं आणवेह, तं तुब्भे णं सामी! तस्स चित्तगरस्त अन्नं तया. गुरूवं दंडं निव्वत्तेह । तएणं से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेइ. छिंदावित्ता निव्विसयं आणावेइ ॥ सू०२८ ॥
टोका-'तएणं से ' इत्यादि ! ततस्तदनन्तरं खलु स मल्लदत्तः कुमारो मल्ल्या विदेहराजवरकन्यायाः स्वाग्रजाताया भगिन्याः' 'तयानुरूवं ' तदनुरूपंमल्लीसदृशं रूव-रूपं चित्र, नियत्तियं नितितं-चित्रकारदारकेण रचितं, पश्यति । दृष्ट्वा — इमे यारूवे' अयमेतद्रूपः अयं वक्ष्यमाणस्वरूपः, 'अज्झथिए' आध्यात्मिकः आत्मगतः, यावत्-संकल्पः, ' समुपज्जित्था ' समुदपद्यत-संजातः-एषा
'तएणं से मल्लदिन्ने कुमारे ' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से मल्लदिन्ने कुमारे ) उस मल्लदत्त कुमार ने (विदेहरायवरकन्नाए मल्लीए तयाणुरूवं निव्वत्तियं पासइ, पासित्ता हमेयारूवे अज्जथिए जाव समुपज्जित्था) विदेह राज की वर'तएणं से मल्लदिन्ने कुमारे ' इत्यादि ।
थ-( तएण)त्या२ मा ( से मल्लदिन्ने कुमारे ) ते भ६ इत्तमारे (विदेह रायवरकन्नाए मरहीर तयाणुरूवं निबत्तियं पासइ, पासित्ता इमेपारूवे अज्ज्ञथिए जाव समुपज्जित्था )
For Private And Personal Use Only
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासू खलु मल्ली विदेह राजवरकन्या, इति कृत्वा लज्जित: सामान्यतः, वीडित:-विशे. पतो लज्जितः, व्यदः सर्वथा लज्जा प्राप्तः सन् शनैः शनैः ‘पच्चीसकइ ' प्रत्यकबस्कते-तस्मात् स्थानात् पतिनिवर्ततेस्म । ततस्तदनन्तरं खलु मल्लदत्त-मल्लदत्त कुमारम्, 'अम्माधाई' अम्बधात्री मातृपतिनिधिरूया धात्रीस्तन्यादि दानेन पोषिका उपमातेत्यर्थः, 'पच्चोसकत' प्रत्यवश्वस्कमानं पश्चान्निवर्तमानं दृष्ट्वा एवं-वक्ष्यमाण प्रकारेणावादीत्-हे पुत्र ! किं-कस्मात्कारणात् खलु सं लज्जितो वीडितो व्यर्दः अत्यन्तं लज्जितः सन् शनैः शनै प्रत्यववस्कसे ? । ततः खलु स मल्लद तकुमारः अम्बाधात्रीमेवमवादीत्-' अम्मो!' हे अम्ब ! 'नो जुत्तं नो युक्तंनो कन्या मल्लीकुमारीका कि जो अपनी बडी बहिन थी तदनुरूप चित्र चित्रकार दारक के द्वारा अङ्कित किया गया ज्यों ही देखा तो देखकर उस के मन में इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ-(एसणं मल्ली विदेहरायवरकन्नत्तिकटूटु लज्जिए, वीडिए विउडे सणियं २ पच्चोसकह ) यहतो विदेहराज की वर कन्या मल्ली कुमारी है। ऐसा विचार करवह पहिले तो लज्जित हुआ-बाद में विशेषरूप से लज्जित हुआ। और इस तरह वह दुःखित होकर धीरे २ वहां से चलदिया। (तएणं मल्लदिन्नं अम्मधाई पच्चोसकंतं पासित्ता एवं वयासी-किन्नं तुम पुत्ता लज्जिए वीडिए विअडे सणियं २ पच्चोसक्का ? ) इस तरह मल्लीदत्त कुमार को वहां से धीमी २ चाल से जाता हुआ देखकर उसकी अम्बा धाय ने उससे ऐसा कहा-क्यों तुम लज्जित-व्रीडित एवं विशेष लजित होकर यहां से धीरे २ चले जा रहे हो- (तएणं से मल्लदिन्ने
જ્યારે પિતાની મોટી બહેન વિદેહવર કન્યા મલ્લીકુમારીનું ચિત્રકારવડે દેરાયેલું આબેહૂબ ચિત્ર જોયું ત્યારે તે જોતાં જ તેના મનમાં વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે (हसणं मल्ली विदेहरायवरकन त्तिकटूटु लन्जिए वीडिए विउडे सणियं२ पञ्चोसकइ)
આતે વિદેહરાજની વરકન્યા મલી કુમારી છે. આમ વિચારીને પહેલાતે તે લજિજત થયે અને ત્યાર બાદ તે ખૂબ જ લજિત થયે આ રીતે તે દુઃખી અવસ્થામાં ત્યાથી ધીમે ધીમે જતો રહ્યો.
(तएणं मल्लदिन्नं अम्मधाई पच्चोसक्कंतं पासित्ता एवं वयासी-किन्नं तुम पुत्ता लज्जिए वीडिए विऊडे सणियं २ पच्चीसकइ ? )
આ રીતે મલ્લીકુમારને ત્યાંથી ધીમે ધીમે તે જોઈને તેની અંબાધાયે કહ્યું કે-તમે કેમ લજિત-વીડિત અને સવિશેષ પીડિત થઈને અહીંથી धीमे धीमे ४६ २ छ. ( तएण से मल्लादिम्ने अम्मधाई एवं वयासी)
For Private And Personal Use Only
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतषिणी टीका अ०८ भदीनशत्रुनृपवर्णनम्
४क्ष चित्त खलु मम ज्येष्ठाया भगिन्या गुरुदैवतभूतायाः, पूज्यायाः, लज्जनीयायाः= लज्जते यस्याः सकाशात् सा लज्जनीया, 'कृत्य प्रत्ययस्य बालकत्वादपादानेऽनीयर प्रत्ययः' तस्या अग्रे मम चित्रकरनिवेर्तितां सभां-चित्रगृहम् अनुपवेष्टुम्. अत्र खलु चित्रगृहे मम पूज्या ज्येष्ठा भगिनी मल्लीकुमारी स्थिताऽस्ति, तस्मादत्र मम प्रवेशकरणं नोचित मित्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु अम्बाधात्रीमल्लदत्तं कुमार मेवादीत-हे पुत्र ! नो खलु-निश्चयेन एषा मल्लीवर्तते, किंतु एतत् खलु मल्ल्या विदेहराजवरकन्याया चित्रकरेग तदनुरूपं रूपं-चित्र निर्वर्तित रचितमस्ति । तस्मादत्र लज्जाकरणं तब नोचितमिति भावः । अम्मधाई एवं वयासी) इस प्रकार सुनकर उस मल्लदत्त कुमारने अम्बाधाय से ऐसा कहा-(णो जुत्तं णं अम्मो!मम जेठाए भगिणीए गुरूदेवभूआए मम चित्तगरणिव्वत्तियं सभं अणुपविसित्तए) मुझे चित्रकार से निवर्तित इस चित्रगृहमें प्रवेश करना उचित नहीं है, कारण यहां मेरी गुरुदेव जैसा-पूज्य तथा जिसके समक्ष मैं लजाता हूँ-जिनके सामने आते जाते मुझे लज्जा आती है-ऐसी बड़ी बहिन बैठी हुई हैं। ___ तात्पर्य इसका यह है कि इस चित्रगृह में मेरी पूज्य बहिन मल्ली कुमारी बैठी हुई है इसलिये उनके समक्ष मुझे यहां प्रवेश करते हुए लज्जा आती है। (तएणं अम्माधाई मल्लदिन्नं कुमारं एवं वयासी-नो खलु पुत्ता एस मल्ली-एसणं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए चित्त गरएणं तयाणुरुवे चित्ते णिव्वत्तिए ) ऐसा सुनकर अम्बाधात्री उपमाता में मल्लदत्त कुमारसे इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! ये स्वयं मल्ली कुमारी महीं है-यह तो विदेहराजकी उत्तम कन्या उन मल्ली कुमारी का चित्र આ પ્રમાણે સાંભળીને તે મલદત્ત કુમારે અંબાધાય ને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
( णो जुत्तं णं अम्मो ! मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवभूयाए लज्जणिजाए मम चित्तगरणिव्यत्तियं सभं अणुपविसत्तए) - ચિત્રકારે વડે ચિત્રિત કરવામાં આવેલા આ ચિત્રગૃહમાં પ્રવેશવું મારા માટે ઉચિત નથી કેમકે ગુરુદેવ જેવી પૂજનીય તેમજ જેમની સામે જતાં પણ હું લજિજત થાઉં છું એવા મારા મેટાં બહેન અહીં બેઠાં છે.
મતલબ એ છે કે આ ચિત્રગૃહમાં મારી પૂજ્ય-બહેન મલી કુમારી બેઠી છે. એથી તેમની સામે જતાં મને લજજા આવે છે
(तएणं अम्माधाई मल्लदिन्नं कुमारं एवं वयासी-नो खलु पुत्ता एसमल्ली एसणं मल्लीए विदेह रायवरकन्नाए चित्तगरएणं तयाणुरूवे चित्ते णिवत्तिए)
આ પ્રમાણે સાંભળીને અંધાત્રી ઉપમાતા એ મલદત્ત કુમારને કહ્યું કે કે હે પુત્ર! આ જાતે મલ્લીકુમારી નથી પણ આ તે વિદેહરાજની ઉત્તમ
For Private And Personal Use Only
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४२४
हाताधर्मकथागसत्र
ततस्तदन्तरं खलु मल्लदत्तः मल्लदत्तकुमारः, अम्बाधाच्या एतम्-उक्तरूपम्, अर्थ शृत्वा, आशुरुतः शीघ्रं क्रोधाविष्टः, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, आदीत-क एष खलु भोः! चित्रकरः ' अपत्थियपत्थिय' अार्थितपार्थितः यत् केनापि न प्रायते, तदप्रार्थितं मरणं तत् प्रार्थितं येन सोऽप्रार्थित प्रार्थितः मरणवाग्छक इत्यर्थः यावत् परिवर्जितः श्रीहीधृति कीति परिवर्जितः, एतदत्रैवाध्ययने माग व्याख्यातम् , येन खलु मम ज्येष्ठाया भगिन्या गुरु दैवतभूताया:=पूज्यायाः, यावत्-तदनुरूपं 'निमत्तिए तिकडे' निर्वर्तितम् ?, इतिकृत्वा प्रत्युक्त्वा, तं चित्रकारं वध्यं हन्तव्यम् आज्ञापयति येन मल्लीचित्रं लिखितं स चित्रकारो हन्तव्य इत्याज्ञां दत्तवानित्यर्थः । तत खलु सा चित्रकर श्रेणिरस्या उक्तरूपायाः कथायाकारने तदनुरूप चित्र बनाया है। इसलिये यहां लज्जो करना तुम्हे योग्य नहीं हैं । (तएणं मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयमद्वं मोच्चा आसुरते . एवं वयासी) अम्बाधाय के मुख से ऐसी बात सुनने के बाद मल्ल
दत्त कुमार ने उस अपनी अम्बाधाय से क्रोध में भरे हुए होकर इस प्रकार कहा:-(केसणं भो। चित्तथरए अपत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए जेणं मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवभूयाए जाव निव्वत्तिए) अरे! कौन ऐसा मरण वाञ्छक तथा श्री हीधृति, एवं कीर्ति से परिवर्जित चित्रकार हैं कि जिसने गुरुदेव जैसा-पूज्य मेरी ज्येष्ठ भगिनी का यहाँ तदनुरूप चित्र चित्रित किया है। (त्तिकटुतं चित्तगरं वज्झं आणवेइ) इस प्रकार कहकर उसने उस चित्रकार को वध्य घोषित कर दिया।
जिस चित्रकार ने मेरी पूज्य ज्येष्ठ भगिनी का यह चित्र यहां लिखा है-वह वध है इस प्रकार उसने आज्ञा देदी- (तएणं सा કન્યા મલકુમારીનું આબેહૂબ દેરાયેલું ચિત્ર છે. એથી અહીં લજજા તમારા तभा। माटे योग्य नथी. ( तएण' मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयमटुं सोच्चा आसुरत्ते एव वयासो) २माथाय ना माथी मा पात समान महत्त કુમારે તે પિતાની અંબાધાય ને કોધમાં ભરાઈને કહ્યું કે
(केसणं भो ! चित्तयरए अपत्थिय रथिए जाव परिवजिए जेणं मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवभूयाए जाव नियत्तिए )
અરે! એ કેણ મૃત્યુને ચાહનાર શ્રી, હી, ધૃતિ અને કીર્તિ રહિત ચિત્રકાર છે કે જેણે ગુરુદેવ જેવા પૂજ્ય મારાં મોટાં બહેનનું અહીં આબેહલ वित्र होयु छ. ( तिकटु त चित्रगर बज्ज्ञ आणवेइ ) या प्रमाणे हीन तेरी તે ચિત્રકારને વધ્ય (મારવા યેગ્ય) ઘેષિત કર્યો. | મારાપૂજ્ય મેટા બહેનનું જે ચિત્રકારે અહીં જે ચિત્ર દોર્યું છે તે વધ્ય છે. આ રીતે તેણે પોતાની આજ્ઞા ઘોષિત કરી
For Private And Personal Use Only
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अदीनशनृपवर्णनम् लब्धार्था-ज्ञातार्था सती यौत्र मल्लदतः कुमारस्तौगोपागच्छति, उपन्गत्य करतल परिगृहीतं यावत्-शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयविजय शब्देन वर्धयति अभिनन्दयति, वर्धयित्वा, एवमवादीत्-हे स्वामिन् ! एवं खलु तस्य चित्रकरस्य, इममेतरूपा वक्ष्यमाणस्वरूपा चित्रकरलब्धिलब्धा-अर्जिता प्राप्ता-स्वायत्तीकृता अभिसमन्वागतासम्यगासेविता, यस्य खलु द्विपदस्य वा यावत्-चतुष्पदस्य वा अपदस्य वा एकदेशमपि पश्यति तस्य खलु देशानुसारेण तदनुरूपं रूपं 'निव्वत्तेई' निवर्तयति-रचयति, तत्=तस्मात् हे स्वामिन् ! मा खलु यूयं तं चित्रकरं वध्यचितगरसेणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव बद्धवेद, वद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगरलद्धीलद्धा, पत्ता अभिसमन्नागया जस्सणं दुपयस्स वा जाव णिवत्तेइ ) इस प्रकार इस उक्त रूप कथा का हाल जब उस चित्रकार श्रेणी को मालूम हुआ-तब वह जहां मल्लदत्त कुमार था वहां पहुंची पहुँच कर उसने उसे दोनो हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर धरकर नमस्कार करते हुए जय विजय शब्दों द्वारा वधाई दी वधाई देकर फिर वह इस प्रकार कहने लगो-स्वामिन् ! उस चित्रकार को इस प्रकार की यह चित्रकार लब्धि प्राप्त हुई है-उस पर उसका अधिकार जम गया है-उस का उसे अच्छी तरह अभ्यास हो चुका है-कि जिसकी वजह से वह किसी भी द्विपद, चतुष्पद, अपद का एक देश भी देखकर उसके अनुमार तदनुरूप चित्ररच देता है । (तं माणं सामी।
(तएणं सा चित्तगरसेणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव बद्धावेइ, बद्धावित्ता एवं वयासी एवं खलु सामी ! तम्स चित्तगरस्स इमेयारूबा चित्तगरलद्धी लद्धा, पत्ता अभिसमन्नागया जस्सणं दुपयस्स वा जाव णिव्यत्तेइ )
આ રીતે ચિત્રકારોને ઉપરની બધી વિગતની જાણ થઈ ત્યારે જ્યાં મલદત્ત કુમાર હતા ત્યાં તેઓ પહોંચ્યા અને પહોંચીને બંને હાથની અંજલી બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કરતાં જ્ય વિજ્યના શબ્દ ઉચ્ચારતાં તેણે કહ્યું–કે હે સ્વામિન ! તે ચિત્રકારને આ પ્રમાણેની વિશેષ શકિત પ્રાપ્ત થઈ છે. તે કલા ઉપર તેને પૂરે પૂરે અધિકાર આવી ગયેલ છે. તે સારી પેઠે અભ્યસ્ત થઈ ગયેલ છે જેથી તે કોઈ પણ દ્વિપદ (માણસ) ચતુષ્પદ (પશુ) અને અપદ (સાપ વગેરે) ના કેઈ પણ એક દેશને
न ते भु४५ नेनारे यित्र होरी मापे छ. ( त माण सामी ! तुम्मे
For Private And Personal Use Only
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे माज्ञापयत-वधार्थमाज्ञां मा कुरुतेत्यर्थः, तत्-तस्मात् हे स्वामिन् ! यूयं खलु तस्य चित्रकरस्यान्यं तदनुरूपं चित्रकरापराधसदृश, दण्डं 'निव्वत्तेह ' निवर्तयत-कुरुत। तता-चित्रकरश्रेणिसविनयवचनश्रवणानन्तरं, खलु स मल्लदत्तस्तस्य - मल्लीचित्रं रचयितुः, चित्रकरस्य 'संडासगं' सन्दंशकम्-अरुजङ्घयोः सन्धि नाडीरूपमित्यर्थः, 'छिंदोवेइ ' छेदयति-कर्तयतिस्म यत्तु-- संडासंगति' हस्तौ छेदयतिस्म' इतिव्याख्यातं-तद ज्ञानविजम्भितम्-तेशैव चित्रकरेण हस्तिनापुरे नगरे गत्वा पुनर्मल्लीचित्र रचितमित्येतदर्थ पनिबोधकमूलपाठविरोधात् हस्ताभावे चित्रलेखनातुम्भे ते चित्तगरं वझं आणवेह ) इसलिये हे स्वामिन ! आप उस चित्रकार को मारने की आज्ञा प्रदान न कीजिये (तं तुम्भेणं सामो ! तस्स चित्तागरस्स अन्नं तयाणुरूवं दंडं निव्वत्तह, तएणं से मल्लदिन्ने तस्स चिगरस्स संडासगं छिंदावेइ, छिंदावित्ता निविसयं आणवेइ ) किन्तु हे नाथ ! आप उस चित्रकर को बताये गये इस चित्र के अनुसार किसी और दूसरे दंड का निर्धारणकर दीजिये-इस प्रकार चित्र कार श्रेणी के वचन सुनने के बाद मल्लदत्त कुमार ने उस मल्ली के चित्र बनाने वाले चित्रकार की उम और जंधाओं की संधि को छिदवा दिया-कतरवा दिया
(जो " संडासंगति" किसी २ टीकाकार ने ऐसा मान कर " उस के दोनों हाथ कटवा दिये" इस प्रकार का व्याख्यान किया है वह ठीक नही ज्ञात होता है-कारण " इसी चित्रकार ने हस्तिनापुर में जाकर मल्ली कुमारीका चित्र रचा है" ऐसा जो आगे मूलपाठ आनेवाला उस तं चित्त गर वज्झ आणवेह ) मेथी 3 वामिन् ! तमेत यि२२ भावानी આજ્ઞા માંડી વાળે.
(तं तुम्भेणं सामी ! तस्स चित्तागरस्स अन्नं तयाणुरूवं दंडं निव्वत्तेह, तएणं से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेइ, छिंदावित्ता निबिसयं आणवेइ)
અને હે નાથ ! તમે ચિત્રકારને તે ચિત્ર બદલ બીજી ગમે તે સજા કરે. આ પ્રમાણે ચિત્રકારોનાં વચન સાંભળીને મલદત્તકુમારે મલ્લીકુમારીનું ચિત્ર બનાવનાર ચિત્રકારના ઉરુએ-જાંધાઓના સાંધાઓને કપાવી દીધા.
"संडासंगति" 241 प्रमाणेना 48ना आधार ने टमाटरे। આમ માનતા થયા છે કે તે ચિત્રકારના બંને હાથ પણ કપાવવામાં આવ્યા હતા. પણ હકીકતમાં આ વાત સત્યથી વેગળી છે કેમકે એ જ ચિત્રકાર આગળ હસ્તિનાપુરમાં જઈને મલ્લકુમારીનું ચિત્ર દોરે છે. આ પ્રમાણે જે
For Private And Personal Use Only
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
__www. kobatirth.org
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनेगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम् संभवात् । छेदयित्वा 'निधिसयं' निर्विषयम्-विषयानिर्गतं स्वदेशात् बहिर्गन्तुमित्यर्थः, आज्ञापयति-आज्ञां दत्तवान् ॥ सू०२८॥
मूलम्-तएणं से चित्तगरए मल्लदिन्नेण णिव्विसए आणत्ते समाणे सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ णयराओ णिक्खमइ, णिक्खमित्ता विदेहजणवयं मझं मज्झेणं जेणेव कूरजणवए जेणेव हथिणाउरनयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडणिक्खेवं करेइ, करित्ता चित्तफलगं सज्जेइ, सजित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पायंगुवाणुसारेण एवं णिवत्तेइ, णिवत्तित्ता कक्खंतरांस छुन्भइ, छुब्भित्ता महत्थं जाव पाहुडं गिण्हइ, गिण्हिता हथिणापुरं नयरं मज्झं मझेणं जेणेव अदीणसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता तं करयल जाव बद्धाविता पाहुडं उवणेइ, उवणिता एवं वयासी-एवं खलु अहं सामी ? मिहिलाओ रायहाणीओ कुंभगस्स रन्नो पुत्तेणं पभावईए देवीए अत्तएणं मल्लदिनेणं कूमारेणं निविसए आणत्ते समाणे इह हव्वमागए तं इच्छामिणं सामी ! तुम्भं बाहच्छाया परिग्गहिए जाव परिवसित्तए, तएणं से अदीणसत्तू राया तं चित्तगरदारयं एवं का फिर विरोध आवेगा। हाथों के बिना चित्र लिखना कैसे घन सकता है । जंधा कटवा देने के बाद फिर उस ने उसे अपने देश से बाहर चले जाने की आज्ञा दे दी। " २८"
મૂળ પાઠ આગળ આવશે તેની સાથે હાથ કપાવવાની ઉક્ત વાત બંધ બેસતી નથી. હાથ વગર ચિત્ર દેરી જ કઈ રીતે શકાય?
મલ્લદત્તકુમારે જાંઘાએ કપાવવાની સજા કરીને તે ચિત્રકારને દેશવટે भा-यो. ॥ सूत्र " २८" ॥
For Private And Personal Use Only
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ધ્રુરત
शांताधर्मकथासूत्रे
वयासी - किन्नं तुमं देवाणुप्पिया ! मल्लदिपणेणं निव्त्रिसए आणते ? तएण से चित्तयरदारए अदीसत्तूरायं एवं वयासीएवं खलु सामी ! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाई चित्तगरसेणिं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी - तुब्भे णं देवाणुशुप्पिया ! मम चित्तसमं तं चैव सव्वं भाणियव्त्रं जाव मम छिंदावेइ, छिंदावित्ता निव्विसयं आणवेइ, तं एवं खलु सामी ! मल्लादणे कुमारेणं निव्विस आणते ।
तणं अदीणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं वयासी - से 'केरिसए णं देवाणुप्पिया ! तुमे मल्लीए तयाशुरूवे रूवे निव्वत्तिए ? तरणं से चित्तगरदारए कक्खंतराओ चित्तफलयं णीणेइ, पीणित्ता अदीणसत्तस्स उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासी - एसणं सामी ! मल्लाए विदेहराजवर कन्नाए तयाणुरुवस्स रूस केइ आगारभाव पडोयारे निव्वत्तिए, णो खलु सक्के केइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवरकण्णगाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए, तएणं अदोणसत्तू पडिरूवजणियहा से दूयं सदावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी - तहेव जाव पहारेत्थ गमणयाए ॥ सू० ॥
टीका- 'तरण से इत्यादि । ततस्तदन्तरं खलु स चित्रकारी मल्लदत्तेन निर्विपयः = देशनिर्गतो भवितुम् आज्ञाप्तः सन् सभाण्डामत्रोपकरणमादाय = स्वगृहमागत्य 'तएण से चित्तगरए ' इत्यादि ।
टीकार्थ - (एणं) इसके बाद (से चित्तगरए) वह चित्रकार (मल्ल दिन्ने णं णिविस आणते समाणे ) मल्लदत्त कुमारसे देशसे बाहिर निकल
"
तरणं से चित्तगरए' इत्यादि ।
टीडार्थ - (तएणं) त्यारमा ( से चित्तगरए) त्रिआर (मलहितेणं णिन्विसए आणत्ते समाणे ) मात्तङ्कुभार वडे व्ययामेसी हेश मडार भवानी माज्ञा सांलजीने
For Private And Personal Use Only
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ अदीनशत्रनृपवर्णनम्
२९ स्वकीय भाण्डाद्युपकरणं गृहीत्वा मिथिलातो नगरीतो निष्क्रामति-बहिनिस्सरति निष्क्रम्य विदेहं जनपद-विदेहदेशस्य मध्यमध्येन मध्ये भूत्वा प्राकृतत्वात् षष्ठवर्षे द्वितीया, यौव कुरुजनपद: कुरुनामको देशः, यौव हास्तिनापुर नगरं, तत्रोपागच्छति, उपागत्य 'भंडणिक्खे' भाण्ड निक्षेपं भाण्डाद्युपकरणानां स्थापनं करोति कृत्या 'चित्तफलग' चित्रफलकं चित्रगोयपट्टकं यस्मिन् पट्टके चित्र रचनीयं वदित्यर्थः, सज्जयति-मार्जनलेपादिना संस्करीति, सज्जयित्वा मल्ल्या विदेहरानजाने के लिये आज्ञप्त होता हुआ (सभंडमत्तोवगरणामायाए मिहिलाओ णयरीओ णिक्खमह णिक्खमित्ता विदेह जणवयं मन्झं मज्झेणं जेणेव कुरु जणवए जेणेव हत्थिणोउरनयरे तेणेव उवागच्छइ ) अपने घर आया-वहां आकर उसने अपने भाण्ड आदि उपकरणों को लिया
और लेकर फिर वह मिथिला नगरीसे बाहिर निकल गया-निकल कर वह विदेह जनपद के बीच से होकर जहां कुरु जनपद था और जहां हस्तिनापुर नगर था-वहां आये- ( उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करेइ, करित्ता चित्तफलगं सज्जेइ, सज्जित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पायंगुट्टानुसारेणं रूवं णिवत्तेइ ) वहां आकर के उस ने अपने मांड
आदि उपकरणों को यथास्थान रख दिया-रखकर के फिर उसने चित्र फलक को-जिस में चित्र रचा जाता है उस पटिये को-मार्जन लेप
ओदि से ठीक ठाक किया-अर्थात् पहिले उसने उस पट्टि को साफ किया पश्चात् उस पर रंग आदि का लेप लगाया।
( सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ णयरीओ णिकावमइ णिक्खमित्ता वि. देह जणवयं मझं मज्झेणं जेणेव कुरुजणवए जेणेव हथिणाउरनयरे तेणेव उत्रागच्छा તે પિતાને ઘેર આવ્યા અને ત્યાંથી તેણે ભાંડ-વાસણ વગેરે વસ્તુઓ લીધી. લઈને મિથિલા નગરીની બહાર નીકળે અને નીકળીને વિદેહ જનપદની વચ્ચે થઈને જ્યાં કુરુજનપદ હતું અને જ્યાં હસ્તિનાપુર નગર હતું ત્યાં ગયે.
(उवागच्छित्ता भंडनिक्खे करेइ, करित्ता चित्तफलगं सज्जेइ, सज्जित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पायंगुट्टानुसारेणं रूवं णिवत्तेइ )
ત્યાં જઈને તેણે પિતાની ભાંડ વગેરે વસ્તુઓને ઉચિત સ્થાને ગોઠવી દીધી અને ગોઠવીને ચિત્ર ફલકનું-એટલે કે જેમાં ચિત્ર દેરવામાં આવે છે તે પાટિયાન-માજન લેપન વગેરે કરીને તૈયાર કર્યું. મતલબ આ પ્રમાણે છે કે પહેલાં તેણે પાટિયાને સ્વચ્છ બનાવ્યું ત્યારપછી રંગ વગેરેને લેપ કર્યો.
For Private And Personal Use Only
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्र वरकन्यायाः पादाङ्गुष्ठानुसारेण रूपं तदीयं चित्र निवर्तयति । निवर्त्य ' कक्खंतरंसि' कक्षान्तरे-कक्षस्थ बाहोर्मूलस्य अन्तरे आभ्यन्तरे 'छुप्पइ' छुपति धरतीत्यर्थः । 'छुप्पित्ता' छुप्त्वा धृत्वा महत्थं जाव' महाथै यावत्-महाध, महाहै, 'पाहुडं' प्राभृतम्-उपहारं, गृह्णाति, गृहीत्वा हस्तिनापुरं नगरं-हस्तिना. पुरनगरस्य मध्यमध्येन यत्रैव-अदीनशत्रूराजा तौवोपागच्छति, उपआगत्य तं करतल -यावत् करतल परिगृहीतं शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयजयेति शब्देन वर्धयति-अभिनन्दयति, वर्धयित्वा प्राभृतमुपचयति-अग्रे स्थापयति उपनीय एव
बाद में विदेह राजवर कन्या मल्लिी कुमारी का उसके ऊपर पाद के अंगुष्ठ के अनुसार तदनुरूप चित्र रचा । (गिव्यत्तित्ता कक्खंतरंसि छुम्भइ, छुभित्ता महत्थं जाव पाहु गिण्हइ, गिछिहत्ता, हथिणा पुरं नयरं मन्झं मन्झेणं जेणेव अदीण सतूराया तेणेव उवागच्छइ ) चित्र रचकर के फिर उसने उसे अपनी कांख में दबाया-दवा कर महार्थ यावत् महार्ध प्राभृत ( बहु मूल्य भेट ) लिया, और लेकर हस्तिनापुर नगर के बीचों बीच से होकर वह जहां अदीन शत्रु राजा थे वहां गया( उवागच्छित्ता तं करयल जाव बद्धावेइ, वद्धावित्ता पाहुडं उवणेह, उवणित्ता एवं वयासी) वहां जाकर उसने दोनों हाथों की अंजलि बना कर और उसे मस्तक पर रख कर राजा को नमस्कार किया बाद में जय विजय आदि शब्दों छोरा उन्हें बधाई दी । बधाई देकर उस ने लाये हुए भेंट को उन के समक्ष रख दिया । रख देने के बाद फिर उस - ત્યારબાદ ચિત્રકારે પગના અંગુઠાને અનુરૂપ વિદેહ રાજવર કન્યા મલીકુમારીનું આબેહુબ ચિત્ર દોર્યું.
(णिबत्तित्ता कवखंतरंसि छुब्भइ, छुब्भित्ता महत्थं जाव पाहूडं गिण्हइ गिण्हित्ता, हस्थिणापुरं गयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव अदीणसत्तूराया तेणेव उवागच्छइ)
ચિત્ર દોર્યા પછી ચિત્રને બગલમાં દબાવીને મહાર્થ સાધક-બહુ જ મૂલ્યવાન ભેટ લીધી અને લઈને હસ્તિનાપુર નગરની વચ્ચે થઈને જ્યાં અદીનશત્રુ રાજા હતા ત્યાં ગયો. उवागच्छित्तातं करयल जाव वद्धावेइ बद्धावित्ता पाहुडं उबणेइ उवाणित्ता एवं वयासी
ત્યાં જઈને તેણે બંને હાથની અંજલી બનાવીને તેને માથે મૂકીને રાજા ને નમન કર્યા અને ત્યાર બાદ તેણે “જય વિજ્ય” વગેરે શબ્દથી રાજા ને વધામણી આપી. વધામણી આપીને ચિત્રકારે પિતાની પાસેની ભેટ રાજાની સામે મૂકી. ભેટ અર્પણ કર્યા બાદ તેણે રાજાને આ પ્રમાણે વિનંતિ કરી કે
For Private And Personal Use Only
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ अदोन शत्रुनृपवर्णनम्
४३१
मवादीत् - हे स्वामिन् ! एवं खलु अहं मिथिलातो राजधानीतः कुम्भकस्य राज्ञः पुत्रेण प्रभावत्या देव्या आत्मजेन = अङ्गजातेन, मल्लदत्तेन कुमारेण निर्विषय: = देशान्निर्गन्तुम्=आज्ञप्तः सन् इह = अस्मिन स्थाने, हव्यं =शीनम् आगतः । तत्= तस्मात् हे स्वामिन्! इच्छामि खलु युष्माकं बाहुच्छाया परिगृहीतः- भुजवला अयं गृहीत्वेत्यर्थः यावत् परिवस्तुम् अत्र - यावच्छब्देन - निर्भयः, निरुद्विग्नः सन् सुख सुखेन, इतिबोध्यम् । ततः खलु सोऽदीनशत्रूराजा तं चित्रकरदारकमेवमवादीत् हे देवानुप्रिय ! किं=कुतः, खलु स्वं मल्लदत्तेन निर्विषय:- देशाद् बहिर्गन्तुम्, ने उन से इस प्रकार कहा- एवं खलु अहं सामी ! मिहिलाओ राय हाणीओ कुंभगस्स रण्णो पुतेणं, पभावईए देवीए अत्तएणं मल्ल दिग्नेणं कुमारेणं निव्विस आणते समाणे इह हवनागए ) हे स्वामिन् ! मिथिला राजधानी से वहां के कु भक राजा के पुत्र और प्रभावती के अंगज मल्लदत्त कुमार से देश से निर्वासित किया गया यहां आये हैं ।
( तं इच्छामिणं सामी ! तुभं बाहुच्छाया परिग्गहिए जाव परि वत्तिए) अतः हे स्वामिन् ! मैं आपकी भुजच्छाया का आश्रय लेकर यहां रहना चाहते हैं। यहां " यावत् " शब्द से " निर्भयः " निरु द्विग्नः सन् सुखं सुखेन " इस पाठ का संग्रह किया गया है । (तएणं से अदीसत्तू राया तं चित्तगरदारयं एवं व्यासी- किन्नं तुमं देवाणुपिया ! मल्ल दिन्नेणं निव्विस आणते ) उस की इस प्रकार बात सुनकर अदीन शत्रु राजा ने उस चित्रकर दारक से इस प्रकार पूछा
( एवं खलु अहं सामी ! महिलाओ रायहाणीओ कुंभगस्स रण्णो पुत्तेणं पभावईए देवीए अत्तएणं मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणते समाणे इह हन्त्रमा गए) હે સ્વામીન! મિથિલા રાજધાનીના પ્રભાવતી દેવીના ગાઁથી જન્મ પામેલા કુંભક રાજાના પુત્ર મલ્લદત્તકુમારે મને દેશવટો આપ્યો છે તેથી હું અહીં તમારે શરણે આવ્યેા છે.
( तं इच्छामि णं सामी ! तुब्भं बाहुच्छाया परिग्गहिए जाव परिवसित्तए)
એથી હે સ્વામી ! હું તમારી બહુચ્છાયાના આશ્રયમાં અહીં રહેવા याहु छु. अड्डी' ' यावत्' पहथी ' निर्भयः ' ' निरुद्विग्नः सन् सुखं सुखेन આ પાઠના સગ્રહ કરવામાં આવ્યે છે.
,
( तरणं से अदीण सत्तूराया तं चित्तगरदारयं एवं वयासी किन्नं तुमं देवाणु - पिया ! मल्लदिन्ने निव्विसर आणते )
આ વાત સાંભળીને દીનશત્રુ રાજાએ ચિત્રકારદ્વારકને આ પ્રમાણે કહ્યું
For Private And Personal Use Only
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५३२
शाताधर्मकथासूत्र आजप्तः ? ततः स चित्रकरदारकः, अदीनश राजानमेवमवादीत-हे स्वामिन् ! एवं खलु मल्लदत्तः कुमारोऽन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित समये, चित्रकरश्रेणिं चित्रकारान् शब्दयतिआहूतवान् । शब्दयित्वा एवमवादीत-हे देवानुप्रियाः! यूयं खलु मम चित्रसभां चित्रयत तं चेत्र सम्भाणियव्वं ' तदेव सर्व भणितव्यम्-इह चित्रकर विषयकं सकलं पूर्वोक्तमेव वृत्तान्तं वाच्यमित्यर्थः, 'जाव मम संडासछिदावेइ' यावन्मम सन्देशकं छेदयति । चित्रयत' इत्यादि, हे देवानुप्रिय ! तुम किस कारण से मल्लदत्तकुमार से निर्वासित होने के लिये आज्ञप्त किये गये हो (तएणं से चित्तयरदारए अदीण सतू राय एवं वयाती-एवं खलु सामी ! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाई चित्तारसेणि सदावेइ, महावित्ता एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणुप्पिया! मम चित्तसभ त चेव सव्वं भाणियव्वं जाव मम संडासगं छिंदावेइ छिदावित्ता निविसयं आणवेह तं एवं खलु सामी ! मल्ल दिन्नेणं कुमारेणं निविसये आणत्ते ) उस चित्रकर दारक ने तब अदीन शत्रु राजा से कहा-हे स्वामिन् ! मल्लदत्त कुमार ने किसी एक समय चित्रकारों की श्रेणी को बुलाया और धुलोकर उस से ऐसा कहा कि हे देवानुप्रियों ! तुम लोग मेरे इस चित्रगृह को चित्रित करो इस तरह पहिले की सब घटना उस चित्रकार ने अदीनशत्रु राजा को उरू और जंघाओं को छेदने तक की सुना दो। छिदवा कर फिर उन्होंने मुझे કે હે દેવાનુપ્રિય ! મલ્લદત્ત કુમારે તમને શા કારણથી દેશમાંથી નિર્વાસિત થઈ જવાની આજ્ઞા આપી છે? - (तएणं से चित्तयरदारए अदीण सत्तूरायं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाई चित्तगरसेणि सदावेइ सदावित्ता एवं क्यासीतुब्भे णं देवाणुप्पिया! मम चित्तसमं तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव मम संडाएगं छिदावेइ छिंदावित्ता निम्चिसयं आणवेइ तं एवं खलु सामी ! मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निबिसये आणत्ते )
ચિત્રકારદારકે જ્યારે અદીનશત્રુ રાજાને કહ્યું કે હે સ્વામીન ! મલદત્ત કુમારે એક વખતે ચિત્રકારને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેમને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે મારા ચિત્રગૃહને ચિત્રિત કરે. આ રીતે ચિત્રકારે અદીનશત્રની સામે ઉ –જધાઓને કપાવવા સુધીની બધી વિગત રજૂ કરી. અને તેણે અંતે આ પ્રમાણે કહ્યું કે જઘાઓને કપાવીને મલદત્તકુમારે મને પિતાના
For Private And Personal Use Only
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ अदीनशत्रुनृपवर्णनम्
४३३ छेदयित्वा निर्विषयम् देशनिष्कासनमाज्ञापयति' तदेवं खलु हे स्वामिन ! अहं मल्लदत्तन कुमारेण निर्विषय आज्ञप्तः ।।
ततस्तदनन्तरं खलु अदीनशन राना तं चित्रकारमेवं वक्ष्यमाण प्रकारेण, अवादीत् – हे देवानुप्रिय ! तत् कीदृशं खलु त्वया मल्ल्यास्तदनुरूपं रूपं =चित्र निवर्तितम् ?, ततः खलु स चित्रकरदारकः कक्षान्तरात् = बाहुमूलाभ्यन्तराद् चित्रफलकं यस्मिन् मल्ल्याश्चित्र लिखितमासीत् तदित्यर्थः, ‘णीणेई' नयति = बहिर्नयति बहिष्करोतीत्यर्थः, 'णीणिता ' नीत्वा अदीनशयोः राज्ञ उपनयति अग्रे स्थापयति, उपनीय, एवंप्रक्ष्यमाणप्रकारेण, आदीत्-हे स्वामिन् ! एष खलु मल्ल्या-विदेहरानवरकन्यायाः पादाङ्गुष्ठानुसारेण तदनुरूप. स्य तत्सदृशस्य रूपस्य चित्रस्य ' केइ' कोऽपि कश्चित्, किश्चिन्मात्र: 'आगार देश से बाहर निकल जाने के लिये आज्ञा दे दी। इस तरह मल्लदत्त कुमार से निर्वासित होता हुआ-मैं यहां आया हूँ। ___ (तएणं अदीण सत्तूरायातं चित्तगरं एवं वयासी-से केरिसएणं देवाणुप्पिया! तुमे मल्लीए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए ? तएणं से चित्तगर दारए कक्खंतराओ चित्तफलयं णीणेइ, णीणित्ता अदीणसत्तुस्स उबणेइ) चित्रकर की इस बात को कर्णपथ करके अदीनशत्रु राजा ने उस चित्रकार से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ? मल्लीकुमारी का चित्र तुमने तदनुरूप कैसा बनाया था। इस प्रकार राजा को वचन सुनकर उस चित्रकरदारक ने अपनी कक्षा के भीतर से दवे हुए उस चित्र फलक को कि जिसमें मल्लीकुमारीका चित्र अंकित किया हुआ था बाहर निकाला और बाहर निकालकर उसे अदीनशत्र राजा के समक्ष रख दिया । ( उवणित्ता एवं वयासी) रखकर वह फिर इस દેશમાંથી બહાર જતા રહેવાનો હુકમ કર્યો છે. ત્યાંથી તેમની આજ્ઞા પ્રમાણે બહાર નીકળીને હું અહીં આવ્યો છું. ___ (तएणं अदीण सत्तूराया तं चित्तगरं एवं वयासी-से केरिसएणं देवाणुप्पिया! तुमे मल्लीए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए ? तएणं से चित्तगरदारए कक्खंतराओ चित्तफलयं णीणेइ, णीणित्ता अदीणसत्तुस्स उवणेइ) - ચિત્રકારની વાત સાંભળીને અઢીનશત્રુ રાજાએ તે ચિત્રકારને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! મલલીકુમારીનું આબેહુબ ચિત્ર તમે કેવું દેર્યું હતું? આ રીતે રાજાના વચને સાંભળીને ચિત્રકારદારકે મલીકુમારીનાં ચિત્રવાળું ફલક બગલમાંથી બહાર કાઢયું અને તેને અદીનશત્રુ રાજાની સામે મૂકી દીધું. ( उव णित्ता एवं वयासी) भूटीने तेथे ने यूं--
शा ५५
For Private And Personal Use Only
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे भावापडोयारे ' आकारभावमत्यवत्तार:=आकृतिचेष्टयोराविर्भावः, निव्वत्तिए' निवर्तितः, पादाङ्गुष्ठामात्रदर्शनानुमितत्वेन मत्कृतचित्रेण पूर्णरूपेणाकृति चेष्टयोराविर्भावः किंतु स्वल्स एव प्रकटोकृत इत्यर्थः नो खलु शक्यं केनापि देवेन व यावत्-दानवेन वा गन्धर्वेण वा यक्षेण वा मल्ल्या विदेहरानवरकन्यायास्तदनुरूपं रूपं निर्वर्तयितुम्, तस्या मल्ल्या विदेहराजवरकन्यायाः स्वरूपं लोकोत्तरं वर्णनातीत मस्ति, दर्शनादेव तत्स्वरूपस्य पूर्ण ज्ञानं भवितुं शक्यते, इति भावः । ततः खलु अदीनशत्रुः 'पडिरूवजणियहासे' प्रतिरूप जनितहर्षः पतिरूप-चित्र तेन जनितस्तदर्शनसमुत्पन्नः, हर्षः सुखं कार्ये कारगोपचारादनुरागोऽपि हर्ष इत्युच्यते, मल्लीविषयकानुराग इत्ययः, स यस्यास्ति स तथा, मल्लीचित्र दर्शन प्रकोर बोला-(एसणं सामी! मल्लीए विदेहराजवरकन्याए तयाणुरुवस्स रुवस्स केइ आगारभावपडियारे निव्वत्तिए,णो खलु सके केणइ देवे. ण वा जाव मल्लीए विदेहरायवरकण्णाए तयाणुरुवे रुवे निव्वत्तिए) हे स्वामिन् ! मैंने विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी के इस पादांगुष्ठानुसार से अंकित किये गये चित्र का थोड़ा साही-किश्चिन्मात्र-आकृ. तिएवं चेष्टाका आविर्भाव चित्रण किया है-मैंने यह चित्र मल्लीकुमारी का अंकित किया है-वह उनके अंगुष्ठ को देखकर अवशिष्ट अङ्गादि का अनुमान लगाकर बनाया है।
इसलिये इस चित्र में किश्चिन्मात्रा में ही उनके आकारादिका अं. कन हुआ है पूर्णरूप से नहीं । पूर्णरूप से उन विदेहराजवरकन्या मल्ली कुमारी के तदनुरूप चित्र बनाने में न कोई देवता समर्थ है, न कोई दानव समर्थ है, न कोई गन्धर्व समर्थ है और न कोई यक्ष ही समर्थ (एसणं मामी ! मल्लीए विदेह राजवरकन्नाए तयाणुरूवस्स रूवस्म केइ आगार भाव पडोयारे निव्वत्तिए णो खलु सक्के केणइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवरकण्णाए तयाणुरूवे रुवे निव्वत्तिए ) - હે સ્વામીન ! વિદેહરાજ વર કન્યા મલીકુમારીનું તેમના પગના અંગુઠાને જોઈને જ તેમની આકૃતિ અને ચેહરાઓને આછો ખ્યાલ આપતું ચિત્ર એ દોર્યું છે. તેમના અંગુઠાને જોઈને જ બાકીના બધા અંગોનું ચિત્રણ અનુમાનથી કરવામાં આવ્યું છે.
એથી આ ચિત્રમાં તેમના આકાર વગેરેનું અંકન ઓછી માત્રામાં જ થયું છે. વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારીનું આબેહૂબ ચિત્ર બનાવવાનું સામર્થ્ય કોઈ દેવતામાં નથી કે નથી કેઈ દાનવમાં, નથી કઈ ગાંધર્વમાં કે નથી કોઈ યક્ષમાં,
For Private And Personal Use Only
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ जित नृपवर्णनम् समुत्पन्न तद्विषयकानुरागवानित्ययः। एवंभूतः सन् दुतं शब्दयति शब्दयित्वा एवमवा दीत्-'तहेव' तथैव-काशीराजः शङ्खः स्वदूतमुक्तवान् , तद्वदित्यर्थः, यावत् प्राधारयद् गमनाय अदीनशत्रो राज्ञ आज्ञया स दूतो रथारूढः सन् यौव मिथिला नगरी तत्रैव गन्तुं प्रवृत्त इत्यर्थः । इति पञ्चमस्यादीनशत्रुनामकस्य राज्ञः सम्बन्धः कथितः ।। सू० २९॥
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं पंचाले जणवए कंपिल्ले पुरे नयरे, तत्थणं जियसत्तू नामं राया पंचालाहिवई होत्था, तस्सणं जियसत्तस्स धारिणी पामोक्खं देविसहस्सं ओरेहे होत्था, तत्थणं मिहिलाए चोक्खा नाम परिव्वाइया रिउव्वेद जाव परिणिठिया यावि होत्था, तएणं साचोक्खा परिवाइया मिहिलाए बहणं राईसर जाव सत्थवाह पभिइणं पुरओ दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवे. है। (तएणं अदीणसत्तू पडिरूवजणियहासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी तहेव जाव पहारेत्थ गमणाए) इस प्रकार चित्रकर के मुख से सुनकर राजा ने उसे अपने राज्य में रहने के लिये खुशी से आज्ञा प्रदान कर दिया। चित्र के देखने से जिन्हें मल्लि विषयक अनुराग उत्पन्न हो गया है ऐसे उन कुरूदेशाधिपति अदीन शत्रु राजा ने अपने दूत को बुलाया-और, बुलाकर जिस प्रकार काशीराजा शंख ने अपने दूत से कहा था-उसी तरह इन्होंने भी उससे कहा ! की आज्ञा प्राप्त कर वह दूत रथ पर आरूढ हो जहाँ मिथिला नगरी थी उस और चल दिया ।। सूत्र २९॥ ___तएणं अदीणसतू पडिरूवजणियहासे दूयं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी तहेव जाव पहारेस्थ गमणाए)
આ રીતે ચિત્રકારના મથી બધી વિગત સાંભળીને રાજાએ તેને પિતાના રાજ્યમાં રહેવાની આજ્ઞા આપી દીધી. ચિત્રને જોઈને જ અદીનશત્રુ રાજાના મનમાં મલ્લિકુમારી માટે અનુરાગ ઉત્પન્ન થઈ ગયા. રાજાએ તુરત એક હતને બોલાવ્યા અને જેમ કાશીરાજ શંખે પિતાના દૂતને કહ્યું હતું તે પ્રમાણે જ તેણે પણ પિતાના દૂતને કહ્યું. આજ્ઞા મેળવીને દૂત રથ ઉપર સવાર થયે અને જે તરફ મિથિલા નગરી હતી તે તરફ રવાના થશે. સૂત્ર “૨૯”
For Private And Personal Use Only
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
tarahara
माणी परुवेमाणी उवदंसेमाणी विहरइ, तरणं सा चोक्खा परिवाइया अन्नया कयाई तिदंडं च कुंडियं च जाव धाउरचाओ य गिoes, गिण्हित्ता परिव्वाइगाव सहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पविरल परिव्वाइया सद्धि संपरिवुडा मिहिलं रायहाणि मज्झमज्झेणं जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव कण्णंतेउरे जेणेव मल्ली विदेहरायवरकन्ना तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उदयपरिफासियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसियइ, निसियित्ता मलए विदेहरायवरकन्नाए पुरओ दाणधम्मं च जाव विहरइ, तपणं मल्ली विदेहरायवर कन्ना चोक्खं परिव्वाइयं एवं वयासो-तुब्भेणं चोक्खे किंमूलए धम्मे पन्नत्ते ? तएणं सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लिं विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी - अम्हं णं देवाणुप्पिए ! सोयमूलए धम्मे, जणं अहं किंचि असुइ भवइ, तपणं उदएण य महियाए जाव अविग्घेणं सग्गं गच्छामो, तएणं मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्खं परिव्वाइयं एवं वयासी - चोक्खा ! से जहानामए केई पुरिसे रुहिरकथं वत्थं रुहिरेण चेत्र घोवेज्जा अत्थिणं चोक्खा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं घोव्यमाणस्स काई सोही ?, मो इणट्टे समट्ठे, एवामेव चोक्खा ! तुब्भेणं पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं नत्थि काई सोही, जहावतस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव घोवमाणस्स, तरणं सा चोक्खा परिव्वाइया मलए विदेहरायकन्नाए एवं वृत्ता समाणा संकिया कंखिया विइगिच्छिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था.
1
For Private And Personal Use Only
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मेनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ जितशत्रुनृपवर्णनम् मल्लीए णो संचाएइ किंचि वि पामोक्खमाइक्खित्तए तुसि. णिया संचिट्ठइ, तएणं चोक्खं मल्लीए बहुओ दासचेडीओ हीति निंदंति खिसंति गरहंति अप्पेगइया होरुयालंति अप्पेगइया मुहमकडियाओ करेंति, अप्पेगइया वाघाडीओ करेंति, अप्पेगइया तजमाणीओ निच्छुभंति ।
तएणं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायकरकन्नाए दासचेडियाहिं जाव गरहिज्जमाणी हीलिजमाणी आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणी मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पओसमावजइ, भिसियं गिण्हइ, गिण्हित्ता कणंतेउराओ पडिनिक्खमइ, परिनिक्खमित्ता मिहिलाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता परिवाइया संपरिवुडा जेणेव पंचालजणवए, जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंपिलपुरे बहूर्ण राईसर० जाव परवेमाणी विहरइ ॥ सू० ३०॥
टीका-अथ षष्ठस्य जितशत्रुनाम्नो राज्ञः सम्बन्धास्तावमाह-' तेणे कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पञ्चालः अधुना पंजाबनाम्ना
इस तरह यह पञ्चमराजा का संबंध प्रकट किया है। अब छठेराजा का सम्बन्ध प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं:
तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि ।।
टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय में (पंचाले जणवए कंपिल्ले पुरे नयरे) पञ्चाल नामका देश (जो अभी पंजाब
આ રીતે પંચમરાજાનો સંબંધ પ્રકટ કરવામાં આવ્યો છે. હવે છઠ્ઠા રાજાને સંબંધ સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે –
'तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यादि Als-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते आगे मने ते समये (पंचाले जणवर कपिल्ले पुरे नयरे ) ५यार नामे देश-7 सत्यारे ५५ नामे प्रसिद्ध छ,
पनि
For Private And Personal Use Only
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्र प्रसिद्धः जनपद: देशः आसीत् तत्र तस्मिन् देशे 'कंपिल्लपुरे' काम्पिल्यपुरे' =काम्पिल्यपुरनामके, 'नयरे' नगरे, जितशत्रुर्नाम राजा पश्चालाधिपतिरासीत्, तस्य खलु जितशत्रो राज्ञो धारिणीप्रमुखा देवोसहस्रम् ‘ओरोहे ' अरोधे अन्तः पुरे आसन् । ___इतश्च मिथिलायां नगयां खलु चोक्खा' चोक्षाचोक्षानाम्नी परिव्राजिका ऋग्वेद-यावत्-चतुर्वेद परिनिष्ठिता श्रुतिस्मृत्यादिसकलशास्त्राभिज्ञा चाप्यासीत् । ततस्तदन्तरं सा चोला परिव्राजिका मिथिलायां नगयों बहूनां राजेश्वर-यावत् राजेश्वरतलवरकौटुम्बिकमाण्ड विकश्रेष्ठिसार्थवाहमभृतीनां पुरतः = अग्रे, दानधर्म च शौचधर्म च तीर्थाभिषेकं तीर्थजलस्नानधर्म च आख्यापयन्ती-आख्यानम् -आख्यातां कुर्वती कथयन्तीत्यर्थः, प्रज्ञापयन्ती सम्यग बोधयन्ती, प्ररूपयन्ती नामसे प्रसिद्ध है) था। उस देशमें कांपिल्यपुर नामका नगर था। उसमें पंचाल देश के अधिपति जित शत्रु राजा रहते थे। (तस्सणं जियस. तुस्स धारिणी पामोक्खं देवीसहस्सं ओरेहे होत्था ) उस जित शत्रु राजा के अन्तः पुर में धारिणी प्रमुख ? एक हजार देवियां थीं। (तत्थ णं मिहिलाए चोक्खानामं परिव्वाइया रिउव्वेय जाव परिणिढिया यावि होत्था) इस तरह मिथिला नगरी में ऋग्वेद आदि चारों वेदों की तथा स्मृति आदि समस्त शास्त्रों की परिज्ञाता चोक्षा नाम की परिव्रा. जिका भी रहती थी-(तएणं सा चोक्खा परिवाइया मिहिलाए बहणं राइसर जाव सत्यवाहपभिइणं पुरओ दाणधम्मंच सोयधम्मंच तित्था भिसेयंच आघवेमाणी पण्णवेमाणी परवेमाणी उवदंसेमागी, विहरह) હતો. તે દેશમાં કાંપિલ્યપુર નામે નગર હતું. તેમાં પંચાલ દેશના અધિપતિ જિતશત્રુ રાજા રહેતા હતા. ( तस्सणं जियसत्तुस्स धारिणी पामोक्ख देविसहस्सं ओरहे होत्था)
જિતશત્રુ રાજાના રણવાસમાં ધારિણી પ્રમુખ એક હજાર રાણીઓ હતી. (तत्थणं मिहिलाए चोक्खानामं पहिव्वाइया रिउव्वेय जाव परिणिट्ठिया याविहोत्था)
મિથિલા નગરીમાં સર્વેદ વગેરે ચારે વેદે તેમજ સ્મૃતિ વગેરે બધા શાને જાણનારી ચક્ષા નામે એક પરિત્રાજિકા રહેતી હતી.
(तएणं सा चोक्खा परिवाइया मिहिलाएं बहूणं राई सरजाव सत्यवाहपभिइणं पुरओ दाणधम्गं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च अधवेमागी पण्णवे माणी परूवेमाणी उवहंसेमाणी विहरइ)
For Private And Personal Use Only
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४३९
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टोका १०८ जितशत्रुनृपवर्णनम् दान स्वशास्त्रानुसारेण शौचादि धर्माणां विधि नियमभेदादि प्ररूपणां कुर्वती उपदशेयन्ती-स्वाचरणेन साक्षात् कारयन्ती, विहरति-आस्तेस्म ।
ततस्तदनन्तरं सा चोक्षा परिबाजिना अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मि श्चित् समये त्रिदण्ड-दण्डत्रयं च कुण्डिकांकमण्डलु च यावत्-धातुरक्तानि वस्त्राणि गृह्णति, गृहीत्वा 'परिव्वाइगावसहायो' परिवाजिकावसथात्-परिवाजिकानां मठात् ' पडिनिक्खमइ' प्रतिनिष्क्रामति-निर्गच्छति, प्रतिनिष्क्रम्य 'पविरल परिवाइया' प्रविरलपरिव्राजिकाभिः = अल्पसंख्यकसंन्यासिकाभिः सार्ध-सह, संपरिहतायुक्ता मिथिला राजधानी भिथिलाया राजधान्या इत्यर्थः मध्यमध्येन यौव कुम्भकस्य राज्ञो भवनं यत्र · कण्णते उरे' कन्यान्तः पुरं, यौव मल्ली विदेवरावरकन्या, तौवोपागच्छति, उपागत्य — उदयपरिफासियाए ' उदकपरि वह चोक्षा परिव्राजिका मिथिला नगरी में अनेक राजेश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माण्डविक, श्रेष्ठी, सार्थवाह आदिकों के समक्ष दान धर्म शौच धर्म, और तीर्थाभिषेक का कथन करती थी, उन्हें अच्छी तरह समझाती थी उस शौचोदि धर्मो की अपने शास्त्रानुसारविधि नियम आदि के भेद से प्ररूपणा करती थी और अपने आचरण से साक्षात उन का प्रदर्शन भी करती थी । ( तएणं सा चोक्खो परिवाइया अन्नया कयाई तिदंडं च कुंडियं च जाव धाउरत्तोओ य गिण्हह, गिाण्हत्ता परिव्वाइगावसहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्तो पविरलपरिवाइयासद्धि संपरिघुडा मिहिला रायहोणि मज्झं मज्झेणं जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव कण्णंतेउरे जेणेव मल्ली विदेह रायवरकना-तेणेव उवागच्छद) एक दिन वह चोक्षा परिबाजि का अपने त्रिदंड कमण्डलु, तथा गैरिक धातु से रक्त हुए वस्त्रों को लेकर - મિથિલા નગરીમાં ચક્ષા પરિત્રાજિકા ઘણા રાજેશ્વર, તલવર, કૌટુંબિક માંડલિક, શ્રેષ્ઠિ, સાર્થવાહ વગેરેની સામે દાનધમ, શૌચધર્મ અને તીર્થસ્થાન વિષે ધર્મ ચર્ચા કરતી હતી. તેમને તે સારી પેઠે શૌચ વગેરે ધર્મો તેમજ શાસ્ત્રાનુસાર વિધિ નિયમ વગેરેના ભેદની બાબતમાં સમજાવતી હતી. અને જાતે બધા શૌચ વગેરે આચરણોને આચરીને પ્રત્યક્ષ રૂપમાં તેને દેખાવ કરતી હતી. (तएणं सा चोक्खा परिवाइया अन्नया कयाई तिदंडं च कुंडियं च जाव धाउर. ताओ य गिण्हइ, गिहित्ता परिघाइगावसहाओ पडिनिकाखमइ, पडि निक्वमित्ता पविरलपरिवाइया सद्धि संपरिखुडा मिहिला रायहाणि मज्ज्ञं मज्ज्ञंण जेणेव कुंभगस्स रनो भवणे जेणेव कण्णंते उरे जेणेष मल्ली विदेहरायवर कनातेणेव उवागच्छइ)
એક દિવસ ચક્ષા પરિત્રાજિકા પિતાના ત્રિદંડ, કમંડલુ તેમજ ગેરથી
For Private And Personal Use Only
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्र स्पृष्टायां जलपक्षेपेण सिक्ता, दर्भोपरि 'पञ्चुत्थुयाए ' प्रत्यस्तृतायां प्रसारितायां 'मिसियायां' वृषिकायाम् आसने निषीदति-उपविशति, निषध मल्ल्या विदेहराजवरकन्यायाः पुरतो दानधर्म च यावद् विहरति दानधर्मशौचधर्मादि. कमाल्यापयन्ती प्रज्ञापयन्ती सा चोक्ला परिव्राजिका आस्ते स्म ।
ततः खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या चोक्षां परिव्राजिकामेवमवादीत्-हे चोक्षे ! तब खलु किं मूळो धर्मः प्रज्ञप्तः ? ततः मल्लीवचन, श्रवणानन्तरं खलु सा परिव्राजकों के मठ से निकली और कितनीक परिव्राजिकायों को साथ लेकर मिथिला राजधानी के बीचों बीच से होकर वह जहां कुंभक राजा का भवन था तथा उस में जहां कन्यान्तः पुर और उस में भी विदेह राज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी थी वहां आई- ( उवागच्छित्ता उदय परि फासियाए दाभोवरि पच्चत्थुयाए भिसियाए निसियइ वहां आकर वह जल से सिञ्चित हुए तथा दर्भ के ऊपर विछाये गये आसन पर बैठ गई । (निसियित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पुरी दोणधम्मं च जाव विहरइ ) बैठकर उसने विदेह रोयवर कन्याके समक्ष दान, धर्म शौचधर्म आदि की कथा की-प्ररूपणा की (तएणं मल्ली विदेहरायवर कन्ना-चोक्खं परिव्वाइयं एवं क्यासी) बाद में विदेह राज की उत्तम कन्या मल्लीकुमारी ने उस चोक्षा परिव्राजिका से इस प्रकार कहा-( तुन्भेणं चोक्खे किं मूलए धम्मे पण्णत्ते ? ) हे चोक्षे! तुम्हारे यहां धर्म किं मूलक ( किस मूलक ) प्रज्ञप्त हुआ है।
ગેલા વસ્ત્રોને લઈને પરિવ્રાજકના મઠથી બહાર નીકળી અને કેટલીક પરિ વારિકાઓની સાથે મિથિલા રાજધાની વચ્ચે થઈને જ્યાં કુંભકરાજાને મહેલ હતું તેમજ જ્યાં કન્યાન્તઃપુર અને તેમાં પણ વિદેહરાજાની ઉત્તમ કન્યા મલ્લીકુમારી હતી ત્યાં પહોંચી. (उवागच्छित्ता उदय परिफासियाए दभोवरिपञ्चत्थुयाए भिसियाए निसियइ)
ત્યાં આવીને તે પાણી છાંટેલા દર્ભના ઉપર પાથરવામાં આવેલા આસન ઉપર બેસી ગઈ. __ (निसित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पुरओ दाणधम्मं च जाव विहरह) બેસીને તેણે વિદેહરાજવર કન્યાની સામે દાનધર્મ, શૌચધર્મ વગેરેની વ્યાખ્યા 3री. (चोक्खं परिवाइयं एवं वयासी) त्या२५छी
विनी उत्तम न्या भसी. शुभाशय याक्षा परिवाने मा प्रभारी अधु-तुमेणं चोक्खे िलए धम्मे पण्णत्ते ?) या! तमारामा धमभूय प्रापित ४२वामा मा०यो छे.
For Private And Personal Use Only
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवषिणो टी० अ०८ मितशत्रुनृपवर्णनम् चोक्षा परिव्राजका मल्ली विदेहराजवरकन्या मेवमवादीत्-हे देवानुप्रिये ! अस्माकं खलु शौचमूलको धर्मः प्रज्ञप्तः, यत् खलु अस्माकं किंचिदशुचिभवति, तत् खलु उदकेन-जलेन च मृत्तिकया-यावत्--शुचिभवति,एवं खलु वयं जलाभिषेकपूता. मानः अविघ्नेन स्वर्ग गच्छामः। ___ ततः चोक्षापरित्राजिकावचनश्रवणानन्तरं खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या चोक्षा परिव्राजिकामेवं वक्ष्यमाणपकारेण, अवादीत-हे चोक्षे ! तद् ययानामकंइदं दृष्टान्तोपन्यासे-दृष्टान्तं पदर्शयामि तावदित्यर्थः-यथा कोऽपि पुरुषो रुधिर___ (तएणं सा चाक्खो परिव्वाइया मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी ) प्रत्युत्तर में उस चोक्षा परिवाजिका ने विदेह राजवर कन्यो उस मल्ली कुमारी से ऐसा कहा
( अम्हंणं देवाणुप्पिए ! सोयमूलए धम्मे, जाणं अम्हं किंचि असुइ भवइ तएणं उदएण य मट्टियाए जाव अविग्घेणं सगं गच्छामो तएणं मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्खं परिवाइयं एवं वयासी) हे देवानुप्रिये ! हमारा धर्म शौच मूलक प्रज्ञप्त हुआ है। इसीलिये हमारी कोई वस्तु जब अशुचि हो जाती है-तब हम लोग उसे जल एवं मृत्तिका से पवित्र कर लेते हैं । इस तरह हम लोग जल स्नान से पवित्रात्मा होकर विनो किसी विघ्न के शीघ्र ही स्वर्ग पहुँच जाते है। ___ इस प्रकार चोक्षा का कथन सुनकर विदेह राज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी ने उस चोक्षा परिव्राजिका से ऐसा कहा- ( चोक्खा-से (तएणं सा चोक्खा परिव्दाइया मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी)
જવાબમાં ચક્ષા પરિત્રાજિકાએ વિદેહ રાજવર કન્યાને આ પ્રમાણે
(अम्हणं देवाणुप्पिए । सोयमूलए धमे जण्णं अम्हं किं चि असुइ भवइ, तएणं उदएणं य मट्टियाए जाव अविग्धेणं सग्गं गच्छामो तएणं मल्ली विदेहराय वरकन्ना चोख परिवाइयं एवं वयासी)
દેવાનુપ્રિયે ! અમારે ધર્મ શૌચ મૂલક પ્રજ્ઞમ થયું છે. એટલા માટે અમારી ગમે તે વસ્તુ જ્યારે અશુચિ થઈ જાય છે ત્યારે અમે તેને પાણી અને
માટીથી પવિત્ર કરીએ છીએ. આ રીતે અમે પાણીમાં સ્નાન કરીને પવિત્રાત્મા થઈ જઈએ છીએ અને નિર્વિન રૂપે જલદી સ્વર્ગમાં પહોંચી જઈએ છીએ.
આ રીતે ક્ષાનું કથન સાંભળીને વિદેહરાજાની ઉત્તમ કન્યા મલિકુમારીએ ચક્ષા પરિત્રાજિકાને કહ્યું કે–
For Private And Personal Use Only
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
-
-
-
हाताधर्मकथाको कृतं शोणितलिप्तं वस्त्रं रुधिरेणैव शोणितलिप्तस्य वस्त्रस्य रुधिरेण धाव्यमानस्यप्रक्षाल्यमानस्य काऽपि शोधिः ? नायमर्थःसमर्थः रुधिरलिप्तवस्त्रस्य रुधिरेण कापि शुद्धिर्न भवतीत्यर्थः । चोक्षे! एवमेव-रुधिरसंसृष्टवस्त्रदृष्टान्तेनैव युष्माकं खलु माणातिपातेन यावन्मिथ्यादर्शनशल्येन अष्टादशपापस्थानसेवनेन. नास्ति शुद्धिःन भवति काचिदपि शुद्धि रात्मन इत्यर्थः, यथैव तस्य रुधिरकृतस्य वस्त्रस्य रुधिरेणैव धाव्यमानस्य प्रक्षाल्यमानस्य नास्ति शुद्धिः । ततः खलु तत्पश्चात् सा चोक्षा परिव्राजिका मल्ल्या विदेदराजवरकन्या एवमुक्ता सति 'संकिया' शङ्किता 'कंखिया' कांक्षिता=यदि मनसि विचार्योत्तरंन दास्यामि तत्समीचीनं भविध्यति नवा ? ' इति संशययुक्ता। 'यदि मद्विचारितमुत्तरं सम्यग् न भवेत्चहि जहा नामए केई पुरिसे रुहिरकयं वत्थं रुहिरेणं चेव धोवेज्जा अस्थिणं चोक्खा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं धोव्वमाणस्स काई सोही? नो इणटे समटे एवामेव चोक्खा ! तुन्भेणं पाणाइवाएणं जाव मिच्छादं सणसल्लेणं नस्थि काई सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं घेव घोव्वमाणस्स) चोक्षे ! जैसे कोई पुरुष रुधिर (खून ) से लिप्त हुए वस्त्र को रुधिर (खून ) से ही धोवे-तो क्या चोले ! उस रुधिर लिप्त वस्त्र की रुधिर से धोये जाने पर कोई शुद्धि हो सकती है । रुधिर से लिप्त वस्त्र की रुधिर से धोने पर शुद्धि होती है-यह बात तो कोई भी समझदार प्राणी नहीं मान सकता है। उसी तरह हे चोक्षे!. प्रोणातिपात यावत् मिथ्या दर्शन शल्य के सेवन से-अष्टादश पापस्थानों के सेवन से-आप लोगों की आत्मा की भी किसी तरह से शद्धि नही हो सकती है। जैसे उस रुधिर से सने हुए वस्त्र की रुधिर
(चोक्खा ! से जहा नामए केई पुरिसे रूहिरकयं वत्थं रूहिरेणं चेव धोवेज्जा, त्थिणं चोक्खा ! तस्स रूहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं धोव्यमाणस्स काईसोही? नो इण, समठे एवामेव चोक्खा ! तुम्भेणं पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं नस्थिकाई सोही, जहा तस्स रूहिरकयस्स वत्या रुहिरेणं चेव धोबमाणस्स)
હે આક્ષે ! જેમ કઈ માણસ લેહીથી ખરડાએલા વસ્ત્રો લેહીથી જ ધોવે તે શું લેહીથી ખરડાએલા વસ્ત્રો લેહીથી જ દેવડાવવામાં આવે તો તેની શુદ્ધિ થઈ ગઈ કહેવાય ? આ વાત તે ગમે તે વ્યક્તિ પણ સમજી શકે તેમ છે. આ પ્રમાણે હે ચેક્ષે ! પ્રાણાતિપાત યાવત્ મિથ્યાદર્શન શલ્યના સેવનથી તમારા જેવા લેકેની શુદ્ધિ કેઈપણ રીતે સંભવી શકે તેમ નથી. જેમ પિલા લેહીથી ખરડાએલા વસ્ત્રની શુદ્ધિ લોહીથી થઈ શકતી જ નથી તેમજ મિથ્યાદર્શન શલ્યના સેવનથી પણ શુદ્ધિ થતી નથી,
For Private And Personal Use Only
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामुतवर्षिणी टोका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
किमन्यदुत्तरं दास्यामी ' त्येवमुत्तर विषयक वाञ्छायुक्ता । ' विहगिच्छिया विचिकित्सिता = ' अस्मिन्नुत्तरे दत्ते सति किं मल्ल्या अत्र श्रद्धोत्पत्यस्यते किं वा नोत्पत्स्यते ' इत्येवं विचिकित्सा = संशयः, संजाता यस्या सा विचिकित्सिता, तथा - ' भेयसमावण्णा' भेदसमापन्ना = अत्र भेदो मतेर्भङ्गः - मयाऽधुना किं कर्तव्यमिति निर्णयाभवाद् व्याकुलतारूपस्तं समापन्ना संप्राप्ता, जाताचाप्यभवत् शङ्कितेत्यादि विशेषणचतुष्टयेन चोक्षा परिव्राजिका मल्ल्याः समुचित दृष्टान्तेन eetतं प्रभं समाधातुं व्याकुलीजाता, इति भावः मल्ल्या: ' णो संचाएइ ' नो से धोने पर किसी भी प्रकार की शुद्धि नही होती है । (तएणं सां चोक्खा परिवाइयो मल्लीए विदेह रायवर कन्नाए एवं वृत्ता समाणा संकिया कंखिया बिगिच्छिया भेय समावण्या जाया यावि होत्या ) इस प्रकार विदेह राज की वर कन्या मल्ली कुमारी के द्वारा समझाई गई वह चोक्षा परिव्राजिका शंका से युक्त बन गई, कांक्षा से युक्त बन गई, विचिकित्सा ( फलके प्रति संदेह और भेद ( अपने मंतव्य का विच्छेद) से समापन हो गई । मनसे सोचकर यदि मैं मल्ली कुमारीको उत्तर दूंगी तो न मालूम वह उत्तर सच्चा होगा कि नहीं होगा इस प्रकारका उसके हृदय में द्वैधी भाव आनेसे वह चोक्षाशंकित बन गई ।
यदि मेरा दिया हुआ उत्तर ठीक नही होगा तो उस का उत्तर मैं क्या दूंगी - इस प्रकार वह उत्तर विषयक वाञ्छा से युक्त बन गई । मल्ली कुमारी को उत्तर देने पर भी कौन जाने उस में उस की श्रद्धा होगी या नही होगी इस तरह वह विचिकित्सा से युक्त बन गई ।
For Private And Personal Use Only
४४३
( तणं सा चोक्खा परिवाइया मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए एवं वुत्ता संकिया कंखिया विइगिच्छिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था )
આ પ્રમાણે વિદેહરાજવર કન્યા મલ્લીકુમારી વડે સમજાવવામાં આવેલી ચાક્ષા પરિત્રાજિકા શ’કાથી યુક્ત થઈ ગઈ, કાંક્ષાથી યુક્ત થઈ ગઈ, વિચિકિત્સા ( ફળપ્રાપ્તિ વિશે સ ંદેહ યુક્ત) અને ભેદ ( પેાતાની માન્યતાને નાશ) સમાપન થઈ ગઇ. મલ્લીકુમારીને જવાખમાં હું કોઈ પણ વસ્તુ રજૂ કરીશ તે તે સાચી હશે કે કેમ ? આ જાતની મુંઝવણથી ચાક્ષાનું મન શકિત થઈ ગયું.
"L
“જો મારા જવાબ ખરાબર નહિ હોય તા ખીએ શેા જવાખ હૂ આપીશ ? આ પ્રમાણે તે જવાબના વિશે વાંાયુક્ત થઈ ગઇ. “ મલ્ટીકુમારીને જવાબ આપ્યા છતાં પણ તેને મારા જવાબ ઉપર વિશ્વાસ બેસશે કે કેમ ?” આ રીતે તે વિચિકિત્સા યુક્ત થઈ ગઈ. આ પરિસ્થિતિમાં મારે શું... કરવું.
46
"
ܕ
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्र शक्रोति कंचिदपि ' पामोक्वं' प्रमोक्षम्प्रमुच्यते प्रश्नबन्धनादने नेति-प्रमोक्षः प्रश्नस्य परिहारम्, उत्तरमित्यर्थः · आइक्खित्तए ' आख्यातुं-कथायितुम्, यदाचोक्खा परिनाजिका मल्ल्याः प्रश्नस्योत्तरं वक्तुमसमर्था जाता, तदा सा 'तुसि णीया ' तूष्णीका-मौनावलम्बिनी भूखा ‘संचिट्ठइ' संतिष्ठते संस्थिता । ततस्तदन्तरं खलु तां चोक्षां मल्ल्यावहव्यो दासवेटिका:-दासपुञ्यः 'हीलेंति' हिलन्ति-अवमानयन्ति, निन्दन्ति-जात्यायुद्धाटनेन कुत्सन्ति, खिसन्ति-दोषकीतनेनोपहसन्ति, गर्हन्ते सर्वसमक्ष निन्द्रां कुर्वन्ति, अप्येकिकाः एकाः काश्चित्लोधयन्ति तस्याः कोपमुद्भावयन्ति, अप्येकिकाः एकाः काश्चित-'मुहमकडियंओ' मुखमर्कटिकाः मुखानां तिर्यकानि. कुर्वन्ति, अप्येकिको एकाः काश्चित् ' वग्धा. अब इस समय मुझे क्या करना चाहिये इस तरह का वह निर्णय नही कर सकने के कारण व्याकुल बन जाने से भेद समापन्न बन गई।
(मल्लीए णो संचाएइ किं चि वि पामोक्खा माइक्वित्तए तुसि. णीया संचिटइ, तएणं चोक्खं मल्लीए बहुभो दास चेडीओ हीलेंति, निंदंति, खिसंति गरहंति ) अतः वह मल्ली कुमारी को कुछ भी प्रमोक्षा प्रश्न का उत्तर-नहीं दे सकी, किन्तु चुपचाप बैठी रही। जब चोक्षा की ऐसी हालत मल्ली कुमारी की दास चेटियों ने देखी तो वे उसका अपमान रूप हीलना करने लग गई । जाती आदि के उद्घाटन से उस से घृणा रूप निंदा करने लगी। दोषों के कीर्तनसे उस का उपहास रूप खिसना करने लगीं। सबके समक्ष उसके अवर्ण वादरूप गर्हणा करने लगी (अप्पेगइया हेरूयालंति, अप्पेगइया मुहमक्कडियाओ करेंति अप्पेगइया वग्घाडीओ करेति, अप्पेगइया तज्जमाणीओ निच्छुभंति) इन જોઈએ? ” આ જાતના વિવેકની શક્તિ પણ તેની નાશ પામી હતી એથી તે વ્યાકુળ થઈને ભેદ સમાપન્ન બની ગઈ હતી.
( मल्लीए णो संचाएइ किंचि वि पामोकावामाइक्खित्तए तुसिणीया संचिट्ठइ, तएणं चोख मल्लीएं बहुओ दासचेडीओ होलेंति, निदंति, विसंति गरहंति) એથી મલ્લીકુમારીને તે જવાબમાં કંઈ પણ કહી શકી નહિ. તે સાવ મૂંગી થઈને બેસી જ રહી. મલ્લીકુમારીની દાસ ચેટીઓએ ચેલાની આ પ્રમાણેની સ્થિતિ જોઈ ત્યારે તેઓ તેની અપમાનરૂપ હીલને કરવા લાગી જાતિ વગેરેનું ઉદ્દઘાટન કરીને તેની ધૃણું રૂપ નિંદા કરવા લાગી. તેના દેને કહેતી ઉપહાસ રૂપ ખિસના કરવા લાગી બધાની સામે તેની અવર્ણવાદ રૂપ ગહણ કરવા લાગી.
(अप्पेगया हेरूयालंति, अप्पेगइय मुहमक्कडियाओकरेंति अप्पेगइया वग्धाडीओ करेंति, अप्पेगइया तज्जमाणीओ निच्छंभंति)
For Private And Personal Use Only
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भिनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम् डीओ' व्याघ्राटिका-उपहासार्थ शब्दविशेषान् कुर्वन्ति, अप्ये किकाः एकाः काश्चित् 'तज्जमाणीओ' तर्जयन्त्यः - दुर्वचनतः, 'मम प्रश्नस्योत्तरं देहि, नो चेत् पश्चाद् ज्ञास्यसि ' इत्यादिना भीषयन्त्य इत्यर्थः । निच्छुभंति निक्षिपन्ति=निस्सारयन्ति । __ततस्तदन्तरं सा चोक्षा परिव्राजिका मल्ल्या विदेहराजरकन्यायाः दासचेटिकाभिः । यावत्-हिल्यमाना निन्द्यमाना गमाणा, आशुरुप्ता-शीघ्रं क्रोधाविष्टा यावत् 'मिसमिसेमाणी' मिससमिन्ती क्रोधानलेन जाज्वल्यमाना मल्ल्यां विदेह राजवरकन्यायां 'पओसमावज्जइ ' प्रद्वेषमापद्यते-परमद्वेषवती जाता । ततः सा में से किसी एक ने उसे क्रोध उद्भावित-किया, किसी एक ने उस के सोमने अपना मुख मोड लिया, किसी एक ने उस की हँसी उड़ाने के लिये विशेष शब्दों का प्रयोग किया, किसी एक ने दुर्वचनों से उसे तर्जित किया, किमी एक ने " मेरे प्रश्न का उत्तर दे, नही तो पीछे तुझे मालूम पडेगी" इस तरह कहकर उसे डराया और वहां से निकाल दिया । (तएणं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहिं जाव गरहिज्जमाणी हीलिजमाणी आसुरुत्ता जाव मिसि भिसे माणी मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पओसमावजइ, भिसियं गिण्हइ, गिणिहत्ता कण्णंतेउराओ पडिनिक्खमइ ) इस तरह विदेह राज कि वरकन्यामल्ली कुमारी की दास चेटियों से अपमानित घृणित, और निन्दित होतो हुइ वह चोक्षा परिव्राजिका, क्रोध से लाल हो गई, और मिसमिमाती हुई क्रोध से जाज्वल्यमान होती हुई-वह विदेह राज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी के ऊपर परम द्वेषवती बन गई। તેમાંથી કેઈકે તેને ક્રોધિત કરી, કેઈએ તેની સામેથી માં ફેરવી લીધું. કેઈએ તેની મશ્કરી કરવા વિશેષ શબ્દોને પ્રયોગ કર્યો, કેઈએ દુર્વચનોથી તેને તિરસ્કાર કર્યો, કેઈએ તેને “મારા સવાલનો જવાબ આપ નહિતર તારી ખબર લઈ લઈશું” આ રીતે બીક બતાવી અને ત્યાંથી બહાર કાઢી મૂકી. (तएणं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहिं जाव गरहिज्ज माणी हीलिज्जमाणी, आसुरुता जाव मिसि मिसे माणी मल्लोए विदेह रायवरकनाए पओसमावज्जइ, भिसियं गिण्डइ, गिहित्ता कण्णं तेउराओ पडिनिक्खमइ)
આ રીતે વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારીની દાસ ચેટીથી અપમાનિત, ઘણિત અને નિદિત થતી ચેક્ષા પરિત્રાજિકા કોધમાં લાલચોળ થઈ ગઈ અને ક્રોધમાં સળગતી તે વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારી પ્રત્યે ખૂબ જ ઈર્ષાળુ-લેષ કરનારી થઈ ગઈ
For Private And Personal Use Only
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
,
चोक्षा परिव्राजिका 'भिसियं ' हृषिका = आसनं स्वकीयमितिभावः, गृह्णाति गृहीत्वा 'कण्jतेउराओ' कन्यान्तः पुरात् मल्ल्या भवनात् प्रतिनिष्क्रामति = निःसरति, प्रतिनिष्क्रम्य मिथिलातो निर्गच्छति, निर्गत्य परिव्राजिका संपरिवृता विरल संन्यासिकाभिर्युक्ता, यत्रैव पश्ञ्चालजनपदः = पञ्चानामको देशोऽस्ति, यत्रैव = यस्मिन् देशे काम्पिल्यपुर नाम नगरं तत्र = तस्मिन् नगरे उपागच्छति, उपागत्यच काम्पिल्यपुरे नगरे बहूनां राजेश्वरादीनां पुरतः स्वमतं यावद् - आख्यापयन्ती प्रज्ञापयन्ती प्ररूपयन्ती विहरति = आस्तेस्म || सू० ३० ॥
मूलम् - तणं से जियसत्तू अन्नदा कयाइं अंतेउर परियाल संपरिवुडे एवं जाव विहरइ, तरणंसा चोखा परिव्वाइया संप
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उस ने उसी समय वहां से अपना आमन उठाया और उठाकर वह कन्यान्तः पुर से - मल्ली कुमारी के भवन से बाहिर निकल आई । ( पड़ि निक्खमित्ता) बाहिर निकलकर (मिहिलाओ निग्गच्छड, निग्गच्छित्ता परिवाइया संपरिघुडा जेणेव पंचाल जणवए, जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता कंपिल्लपुरे बहणं राईसर० जाव पवेमाणी विहरइ ) फिर वह मिथिला नगरी से चल दी ।
चलकर परिव्राजिकाओं को साथ में लिये हुए जहां पांचाल देश और उसमें जहां कांपिल्य नगर था वहां आई। वहां आकर वह अपने मत की अनेक राश्वजेर आदिकों के समक्ष आख्यापना और प्ररूपण (करती हुई रहने लगी || सू० ३० ॥
તેણે તરત જ પોતાનું આસન ત્યાંથી ઉપાડી લીધુ અને કન્યાન્તઃપુરથી गोटखे } मस्ती डुभारीना भडेअथी ते महार नीजी गई. ( पडिनिक्खमित्ता) બહાર નીકળીને
( महिलाओ निगच्छ निग्गच्छित्ता परिव्वाइया संपरिवडा जेणेव पंचाल जणवए, जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव उवागच्छर उवागच्छित्ता कंपिल्लपुरे बहूणं राई सर० जाव परूवेमाणी विरह )
તે મિથિલા નગરીમાંથી ચાલતી થઇ.
66
પરિત્રાજિકાઓની સાથે તે ચાલતી ચાલતી હૈ જ્યાં પાંચાલ દેશ અને તેમાં પણ જ્યાં કાંપિયનગર હતું ત્યાં આવી. ત્યાં આવીને તે પેાતાના ધની ઘણા રાજેશ્વર વગેરેની સામે આખ્યાપના, પ્રજ્ઞાપના અને પ્રરૂપણા કરતાં રહેવા લાગી. ॥ સૂત્ર
३० " ॥
For Private And Personal Use Only
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारामृतवषिणी टीका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम् रिवुडा जेणेव जितसत्तस्स रण्णा भवणे जेणेव जितसत्त तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जियसत्तुं जएणं विजएणं वद्धावेइ। तएणं से जियसत्त चोक्खं परिवाइयं एजमाणं पासइ,पासित्ता सीहासणाओ अब्भुटेइ, अब्भुट्टित्ता चोक्खं सकारेइ,सकारिता आसणेणं उवणिमंतेइ, तएणं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव भिसियाए निसीयइ, जियसत्तुं रायं रज्जे य जाव अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ, तएणं सा चोक्खा जियसत्तस्स रनो दाणधम्मं च जाव विहरइ, तएणं से जियसत्त अप्पणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्खं एवं वयासी-तुमंणं देवाणुप्पिया! बहुणि गामागार० जाव अडसि, बहुणि य राईसर० गिहाई अणुपविससि, ते अत्थियाइ ते कस्सवि रन्नो वा जाव कहिंचि एरिसए ओरोहे दिपुत्वे जारिसए णं इमे मह अवरोहे ? तएणं . सा चोक्खा परिव्वाइया जियस ईसिंअवहसियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-एवं च सरिसए णं तुमं देवाणुप्पिया ! तस्त अगडददुरस्स ?, केणं देवाणुप्पिए से अगडदद्दुरे ?जियसत्त! से जहानामए अगडददुरे सिया तथेव वुड्डे अण्णं अगडं वा तलागं वा सरंवा सागरंवा अपासमाणेचेवंमण्णइ-अयं चेव अगडे वाजाव सागरे वा। तएणं तं कूवं अण्णे सामुदए दद्दुरे हव्वमागए, तएणं से कूबददुरे तं सामुद्ददद्दुरं एवं वयासी-से केसणं तुमं देवाणुप्पिया ! कत्तो वा इह हव्वमागए ? तएणं से सा. मुद्दए दददुरे तं कूबददुरं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया !
For Private And Personal Use Only
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४४८
शानाधर्मकथागसूत्रे अहं सामुद्दए दद्दरे, तएणं से कूवददुरे तं सामुद्दयं ददरं एवं वयासी-के महलए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?, तएणं से सामुद्दए ददरेतं कूवद दरं एवं वयासी-महालए णं देवाणुप्पिया! समुद्दे ! तएणं से दद्दरे पाएणं लीह कड्डेइ, कड्डित्ता एवं वयासी -एमहालएणं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?, णो इणटे समटे, महालएणं से समुद्दे ! तएणं से कूबददुरे पुरमथिमिलाओ ताराओ उम्फिडित्ता णं गच्छइ, गच्छित्ता एवं वयासी-ए महालएणं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?, णो इणटे समढे, तहेव एवामेव तुमंपि जियसतू अन्नसि बहूणं राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं भज वा भगिणीं वा धूयं वा सुण्हं वा अपासमाणे जाणेसि जारिसए मम चेवणं ओरोहे तारिसए णो अण्णस्स, तं एवं खलु जियस मिहिलाए नयरीये कुंभगस्स घूया पभावतीये अत्तया मल्ली नामंति रूवेण य जुवणेण जाव नो खल्लु अण्णा काई देयकन्ना या जारिसिया मल्ली, मल्लीए विदेह राययरकन्नाए छिण्णस्स वि पायंगुट्टगस्स इमे तवो रोहे सयसहस्स तमंपि कलं न अग्घइत्तिक१ जामेय दिसं पाउन्भूया तामेव दिसंपडिगया, तएणं से जियसत्तू परिव्याइयाजणियहासे दूयं सदायेइ, सद्दावित्ता जाव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ३१ ।। टीका-'तएणं से ' इत्यादि । ततस्तदन्तरं स जितशत्रुः अन्यदा कदाचित् 'तएणं से जियसत्तू अन्नया कयाइं ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं)इसके बाद(से जियसत्तू वह जिनशत्रु (अन्नया कयाई) (तएणं से जियसत्तू अन्नया कयाई। इत्यादि A-(तएणं) त्या२ मा६ (से जियसत्त) Cशत्रु (अन्नया कयाइं) आई
For Private And Personal Use Only
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
ર
= अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् समये 'अंतेउरपरियालसं परिबुडे' अन्तः पुरपरिवार संपरिवृतः=अन्तः पुरस्य परिवारेण = स्त्रीजनैः संपरिवृतः युक्तः, एवं यावद् विहरतितिष्ठति । ' तए ' ततः = तदा, खलु सा चोक्खा परिव्राजिका परिवृता=स्वशिष्यसंन्यासिका सहित यत्रैव जितशत्रो राज्ञो भवनं प्रासादः, यत्रैव = यस्मिन्नेव स्थाने. जितशत्रुः, तत्रैवोपागच्छति, जितशत्रु जयेन - विजयेन जय विजय शब्द कीर्तनेन ' वद्भावे ' वर्धयति । ततः खलु स जितशत्रुचोक्षां परित्राजिकाम् एजमानाम् = आगच्छतीं पश्यती, दृष्ट्वा सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय चोक्षां सत्करोति, सत्कृत्य आसनेन ' उवणिमंतेइ ' उपनिमन्त्रयति उपवेशनार्थं पार्थकिसी एक दिन (अते उरपरियाल संपरिवडे) अपने अन्नः पुर परिवार के साथ ( एवं जाव विहर इ) बैठा हुआ था (तरणं सा चोक्खा परिव्वाइया) इतने में वह चोक्षा परिव्राजिकाओंके साथर ( जेणेव जितसत्तस्स roणो भवणे जेणेव जियसत्तू तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जियसत्तुं जणं विजपणं वद्धावेह ) जहां जितशत्रु रोजा का महल था और जहाँ वे जितशत्रु राजा विराजमान थे वहां आई आकर उसने उन्हें जय विजय शब्दोंसे धन्यवाद दिया- (तएण से जियसत्तू चोक्खं परिव्वाइयं एजमाणं पासह, पासित्ता सीहासणाओ अन्भुट्ठेह, अन्भुट्टित्ता बोक्खं सकारेह, सक्कारिता आसणेण उवणिमंतेइ ) जब चोक्षापरिव्राजिका को जितशत्रु राजाने आते हुए देखा था तो वह देखते ही अपने सिंहासन से उठ बैठा था और उठकर उसने चोक्षा परिव्राजिका का आदर सत्कार किया था। आदर सत्कार करके उसने उसे आसन पर
हिवसे ( अतेउरपरियाल संपरि वुडे ) पोताना वासना परिवारनी साथै ( एवं जाव विहरइ ) मेठो तो (तएणं सा चोक्खा परिवाइया) तेटलाभां ચાક્ષા પરિવજિકાઓની સાથે
( जेणेव जितसत्तूस्सरण्णो भवणे जेणेत्र जितसत्तू तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता जियसत्तुं जएर्ण विजएणं बद्धावे )
જ્યાં જિતશત્રુ રાજાના મહેલ હતા અને જ્યાં જિતશત્રુ રાજા બેઠા હતા ત્યાં ગઇ. ત્યાં પહોંચીને તેણે રાજાને જય વિજય શબ્દોથી વધાવ્યા.
( तरणं से जियसत्तू चोक्खं परिव्वाइयं एज्जमाणं पासह, पासित्ता सीहासणाओ अoys, अभुट्टित्ता चोक्खं सक्कारेड, सक्कारित्ता आसणेणं उवणिमंतेड) જિતશત્રુ રાજાએ જ્યારે ચેાક્ષા પરિવ્રાફ્રિકાને આવતી જોઇ ત્યારે તેઓ પેાતાના સિંહાસન ઉપરથી ઊભા થયા અને ઉભા થઇને ચેાક્ષા પરિવ્રાજિકાના તેઓએ આદર સત્કાર કર્યાં. આદર સત્કાર કરીને રાજાએ તેને આસન ઉપર એસવા માટે કહ્યુ. ज्ञा ५७
For Private And Personal Use Only
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५५०
हाताधर्मकथागर यति। तएणं चोक्षा 'उदगपरिफासियाए , उदकपरिस्पृष्टायां जाल प्रक्षेपेग सिक्तायां यावत्-दर्भोपरि प्रत्यास्तृतायां 'भिसियाए' वृषिकायां निसीयइ' निषीदति-उपविशति । जितशत्रु राजानं राज्ये च यावदन्तः पुरे च कुशलोदन्तं कुशलसमाचारं पृच्छति, ततः खलु सा चोक्षा जितशत्रो राज्ञः पुरतो दानधर्म च यावद-शौचधर्मादिकमा. ख्यापयन्ती प्रज्ञापयन्ती प्ररूपयन्ती विहरती आस्ते स्म । ततस्तदनन्तरं खलु स जितशत्रुः, आत्मानः स्वस्य, 'ओरोहंसि ' अबरोधे अन्तः पुरे यावद् विस्मिता आश्चर्ययुक्तः सन चोक्षाम् एवं वक्ष्याणपकारेण, अादीत्-हे देवानुपिये ! त्वं खलु-बहूनि, ग्रामाकरण्यावत् ग्रामाकरखेटकवटादीनि अटसि-गच्छसि बहूनि बैठ जाने के लिये कहा- (तएणं सा चोख्खा उदगपरिफासियाए जाव भिसियाए निसीयह) अतः वह चोक्षा परिव्राजिका जलसे सिश्चित हुए यावत् आसन पर बैठ गई।
(जियसत्तू रायं रज्जे य जाव अतेउरेय कुसलोदंतं पुच्छइ, तएणं सा चोक्खा जियसत्तुस्स रणो दाणधम्मंच जाव विहरइ) बैठने के बाद उसने जितशत्रु राजा से राज्य एवं अंतः पुर की कुशलवार्ता पूछी याद में उसने जितशत्रु राजा के समक्ष दान धर्म शौच धर्म आदिका कथन किया, प्ररूपणा किया प्रज्ञापन किया, (तएणं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्खं एवं वयासी) इसके बाद उस जितशत्रू राजा ने अपने अन्तः पुर में विस्मित होकर उस चोक्षा परिव्राजिका से इस प्रकार कहा-(तुमंणं देवाणुप्पिया ! यहूणि गामागर० जाव अडलि. बहणि य राईसर० गिहाई अणुपविससि) हे देवाणुप्रियों! तुम अनेक (तएणं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव भिसियाए निसीयह )
ક્ષા પરિવ્રાજક પાણી છાંટેલા આસન ઉપર બેસી ગઈ. (जियसत्तूराय रज्जे य जाव अंते उरेय कुंसलोदत पुच्छइ तएणं चोक्खा जियसत्तूस्स रण्णो दागधम्मं च जाव विहरइ)
ત્યાર બાદ તેણે રાજાને રાજ્ય તેમજ રણવાસની કુશળ વાર્તા પછી અને પરિવ્રાજકાએ આ બધું કરીને જિતશત્રુ રાજાની સામે દાનધર્મ, શૌચધર્મ વગેરેનું કથન કર્યું, પ્રરૂપણ કર્યું અને પ્રજ્ઞાપન કર્યું.. (तएणं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्ख एवं वयासी)
રણવાસમાં બેઠેલા રાજા જીતશત્રુએ તેની વાત સાંભળીને વિસ્મય પામતા પરિવ્રાજકાને કહ્યું કે
(तुमणं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामागर० जाव अडसि बहूणि य राईसर० गिहाई अणुपविसिस)
For Private And Personal Use Only
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम् च 'राईसर०गिहाई' राजेश्वरादीनां गृहाणि अनुपविशसि, तत्-तस्मात् कथयअस्ति चापि, 'ते ' त्वया कस्यापि राज्ञो वा यावत्- ईदृशोऽवरोधो दृष्टपूर्वः, यादृशः खलु अयं ममावरोधः ? अन्तःपुरम् ततस्तदनन्तरं खलु सा चोक्षा परिवाजिका जितशत्रुमीषदपहसितं करोति, कृत्वा एवं वयासी ।
हे देवानुपिय ! एवं च सदृशः खलु त्वं तस्य 'अगडददुरस्स' अवटदर्दुरस्य -कूपमण्डूकस्य । चोक्षाया वचनं श्रुत्वा जितशत्रुश्चोक्षां पृच्छंति-'केणं' इत्यादि। कः खलु हे देवानुप्रिये ! सोऽवटदर्दुरः-कूपमण्डूकः ?, चोक्षा परिव्राजिका कथ. यति-तद् यथानामकम् = यथानामकमितिपदं दृष्टान्तं प्रदर्शयामि तावदित्यर्थः ग्राम, आकर, खेट कर्वट आदिस्थानों में जाती रहती हो, तथा अनेक राजेश्वर आदि जनों के गृहों में प्रवेश भी करती रहती हो (तं अत्थियाइते कस्स विरन्नो वा जाव कहिं चिं एरिसए आरोहे दिटिपुग्वे जारिसए णं इमे मह अवरोहे ) तो कहो तुमनेकिसी राजा आदि का ऐसा अन्तः पुरपहिले कभी कहिं देखा है ? कि जैसा मेरा यह अन्तः पुर हैं। (तएणं सा घोक्खा परिव्वाइया जियसत्तू ईसि अवहासेयं करेइ, करित्ता एवं वयासी) इस प्रकार सुनने के बाद उस चोक्षा परिव्राजिकाने पहिलेतो राजा को कुछ हँसाया बाद में हँसाते हुए उनसे ऐसा कहा-एवं च सरिसए णं तुमं देवाणुप्पिया! तस्स अगडदुरस्स) हे देवानुप्रिय ! तुम तो उस कूपमंडूक के समान हो ऐसी चोक्षा की बात सुनकर बीच मे ही राजा ने उससे कहा (केणं देवाणुप्पिए से अगडदहुरे ? देवानु
હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે ઘણા ગ્રામ,આકર, ખેટકર્બટ વગેરે સ્થાનમાં અવર –જવર કરતા રહે છે તેમજ ઘણા રાજાઓ વગેરેના મહેલમાં પણ જાએ છે.
तं अत्थियाइ ते कस्स वि रन्नो वा, जाव कहिं चिं एरिसए आरोहे दिट्ठपुग्वे जारिसएं णं इमे मह अवरोहे )
તે બતાવે કે મારા જે રણવાસ કેઈપણ રાજા વગેરેને તમે नयो छे. (तएणं सा चोक्खा परिवाइया नियसत्तू ईसिं अवहासेयं करेइ, एवं करित्ता वयासी)
આ રીતે સાંભળીને ચેક્ષા પરિવ્રાજકાએ પહેલાં તે રાજાને છેડે હસાવ્યો ત્યાર પછી હસાવતાં તેમને કહ્યું કે( एवं च सरिसए णं तुमं देवाणुप्पिया ! तस्स अगडदद् दुरस्स)
હે દેવાનુપ્રિય ! તમે તે પેલા કૂવાના દેડકા જેવા છે ! ચેક્ષિાની આ पात समान २००१मे १२येथी। तेने (के णं देवाणुप्पिए से अगर
For Private And Personal Use Only
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथाङ्गसूत्र यथा-एकः कूपमण्डूक्रः स्यात् आसीत्, स खलु तत्थ ' तत्र-तस्मिन् कूपे जातः, तौव कूपे एव 'वुड़े' वृद्धः वृद्धिंगतः, अन्यम्-'आगड' अवटं= कूपं वा, 'तलागं' तडागं कमलयुक्तागाधजलाशयं वा, 'दहं ' इदं प्रसिद्धं, 'सरं- सर: सरोवरं वा, सागरं वा, अपश्यन्नेवं मन्यते-अयमेवावटो वा यावत् सागरो वा । एतस्मात् कूपान्महाजलस्थानमन्यन्नास्तीत्येवं मनसि जानातीति भावः । ततस्तदनन्तरं खलु तं कूपंपति, ' अण्णे ' अन्यः सामुद्रका समुद्रे जातः 'ददुरे' दर्दुरः मण्डूकः, हव्यमागतः सहजगत्या समागतः । ततः खलु स कूपदर्दु। कूपमण्डूकः तं 'सामुद्दददुरं' सामुद्रनिवासिनं मण्डूकम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-यथा क एष खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! ' कत्तो' कुतः कस्मात् प्रिय ! वह कूपमंडूक कैसा होता है ! (जियसत्तू ! से जहानामए अगडदद्दुरे सियासे णं तत्थ जाए तथैव वुड्डे अन्नंअगडं वा तडागं वा दहं वा सरं वा सागरं वा अपासमाणे चेव मण्णइ अयं चेव अगडे वा जाव सागरे वा ) इस प्रकार जितशत्रु राजा की बात सुनकर चोक्षा परिव्रा. जिका ने उससे कहा-जितशत्रों सुनो मैं तुम्हें समझाती हूँ-जैसे कोई एक कूपका मेंढक कि जो उसी में उत्पन्न हुआ हो और उसी में पलपुष कर वढा हुआ हो वह जैसे अपने कुए के सिवाय और किसी-कुए को, तडाग कमलयुक्त अगाध-सरोवर को द्रह को जलाशय विशेष को, अथवा समुद्रको कभी नहीं देखता हुआ ऐसा ही मानता है कि यही मेरा कुआ और दूसरा कुआ है ? यावत् सागर है।
इस कुए के सिवाय और दुसरा कोई बड़ा भारी जलस्थान कहीं पर नहीं हैं (तएणं तं कूवं अण्णे सामुद्दए दद्दुरे हवमोगए-तएणं दुरे ?) वानुप्रिय ! पाना है। ३ सय छ ?
(जियसत्त ! से जहानामए अगडदद्दुरे सिया से णं तत्थ जाए तथैव बुड़े. अन्नं अगडं वा तडाग वा दहं वा सरं वा सागरं वा अपासमाणे चे मण्णइ अयं चेव अगडेचा जाव सागरे वा)
આ પ્રમાણે જીતશત્રુ રાજાની વાત સાંભળીને ચોક્ષા પરિવ્રાજકાએ તેને કહ્યું કે જીતશત્રે ! સાંભળો તમને હું બધી વાત સમજાવું છું. જેમ કેઈ એક કવાને દેડકે કે જે કૂવામાં તે જન્મે છે અને તેજ ત્યાંજ ઉછર્યો છે તે જેમ પિતાના કૂવા સિવાય બીજા કોઈ પણ કૂવા, તડાગ-કમળવળું અગાધ સરોવર, દ્રહ જલાશય વિશેષ અને સમુદ્રને કેઈપણ વખત ન જેવાથી એમ જ માને છે કે આ મારે કૂ જ બીજે કૂવે છે યાવત સાગર છે.
આ મારા કૂવા સિવાય બીજું કઈ મેટું સરોવર કે જળસ્થાન Ani नथी. (तएणं त कूव अण्णे सामुदर दद्दुरे हव्यमागए) मा प्रमाणे
For Private And Personal Use Only
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधर्मामृतपणी टीका अ०८ जितशत्रुनृपवर्णनम
स्थानाद् वा इह हव्यमागतः ?, ततः खलु स सामुद्रको दर्दुरः तं कूपदर्दुरमे = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - हे देवानुप्रिय ! अहं सामुद्रको दर्दुर: = समुद्रनिवासी मण्डूकोऽस्मि । ततः खजु स कूप दर्दुरस्तं सामुद्रं दर्दुरमेवमवादीत -' के महालए' कियन्महालय = कियान विशालः खल हे देवाणुमियस समुद्रः ?, ततस्तदनन्तरं खलु स सामुद्रो दर्दुरस्तं कूपदर्दुरमेवमवादीत् महालयः =अति विस्तीर्णः, खलु देवासे कूदद्दुरे तं सामुद्दददुरं एवं वयासी) इस प्रकार की मान्यता वाले उस मेढ़क के कुएपर उसी समय में कोई दूसरा समुद्र में रहने वाला मेंढक ओगया - उसे आया हुआ देखकर कूप के मेढक ने उस समुद्र निवासी मेढक से कहा - ( से केसणं तुमं देवाणुपिया ! कत्तो वा इह हव्वमागए ? ) हे देवानुप्रिय ! यह तुम कौन हो - इस समय कहां से आरहे हो ? (तएणं से सामुद्दे ददुरे तं कूवदद्दुरं एवं वयासी प्रत्युत्तर में उस समुद्र निवासी मेंढक ने उस कूप मेंढक से ऐसा कहा ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! अहं सामुद्दए ददुरे) हे देवानुप्रिय ! मैं समुद्र का रहने वाला मेंढक हूँ ( तरणं से क्रूव दद्दुरे तं सामुद्दयं
दुरं एवं वयासी) उस के ऐसे वचन सुन कर कूप मेंढक ने उस समुद्र के निवासी ददुरे से इस प्रकार पूछा ( के महालए णं देवाणुपिया ! से समुद्दे ? ) हे देवानुप्रिय वह समुद्र कितना बड़ा हैं ? ( तरणं से सामुद्दए ददुरे तं कूवदुरं एवं वयासी ) प्रत्युत्तर में उस समुद्र निवासी दर्दुर ने उस से ऐसा कहा - ( एवं खलु देवाणुपिया महालएणं
સંકુચિત વિચાર ધરાવતા ફૂવાના દેડકાની પાસે બીજો કાઇ સમુદ્રમાં રહેનાર દેડકા આવ્યા. તેને આવેલા જોઇને કૂવાના દેડકાએ સમુદ્રના દેડકાને કહ્યું— ( से केसणं तुम देवाणुप्पिया ! कस्तो वा इह हव्वमागए ? ) डे हेवानुप्रिय १ तभे अष्णु छो ? अत्यारे तमे ज्यांथी भावो छ। ? (तएणं से सामुद्दे ददुरे त कूवदुरं एव वयासी) श्वामां ते समुद्रमां रडेनारा हेडअो इवाना हेडाने या प्रभाषे म्ह्युं ( एवं खलु देवाणुनिया ! अहं सामुहए दवदुरे ) डे કે हेवानुप्रिय ! डु समुद्रमा रहेनारो हेडओओ छु' ( तएणं से कूत्रददुरे त सामुद्दय दुरं एवं व्यासी) तेनी या प्रमाणे वात सांलजीने वाना हेडा ते समुद्रमां रडेनाश हेडाने या प्रमाये ऽधुं ( के महालणं देवाणुपिया ! से समुद्दे १ ) हे देवानुप्रिय ? ते समुद्र डेटा भोटो छ ? ( तएण से सामुहए ददुरे त क्रूषददुरं एवं वयासी ) श्वाणभां सभुद्रना हेडअो तेने या प्रमाणे - ( एवं खलु देवाणुप्पिया, महालए णं देवाशुप्पिया ! समुद्दे,
पण से दवदुरे
For Private And Personal Use Only
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्भकथाङ्गसूत्र नुप्रिय ! समुद्रः, ततस्तदनन्तरं खलु स दर्दुरः कूपमण्डूकः, पादेन रेखां कर्षति, कृष्ट्वा, एवमवादीत्-इयन्महालया एतावान् विस्तीर्णः खलु हे देवानुप्रिय ! स समुद्रः ?, तदा समुद्रमंडूक आह-' नायमर्थः समर्थः' इति अयं रेखया निर्दिष्टो विस्तारः समुद्रविस्तारं बोधयितुं न शक्तइत्यर्थः । उक्तार्थे हेतुमाह- महालय खलु स समुद्रः ' खलु-निश्चेन स समुद्रो महालयोऽति विस्तीर्णः समुद्रस्य महत्त्वं न केनापि निर्देष्टुं शक्यत इतिभावः । ततस्तदनन्तरं खलु स कूपदर्दुरः पौरस्त्यात् =अग्रवर्तिनः, तीरादुत्पत्य-कूदयित्वा खलु गच्छति, = कूपस्य द्वितीयतीरमितिभावः । गत्वा एवमवादीतू-इयन्महालयः एतावान्विशालः खलु हे देवानुपिय ! देवाणुप्पिया ! समुद्दे, तएणं से दद्दुरे पाएणं लीहं कडेइ, कत्तिा एवं वयासी, ए महालएणं देवाणु प्पिया ! से समुद्दे णो इणढे समढे महालएणं से समुद्दे ) हे देवानुप्रिय ! वह समुद्र तो बहुत बड़ा है। इस बात को सुनकर उस कूप मेढक ने अपने पैर से एक रेखा खेंची और खेचकर बोला हे देवानुप्रिय ! वह समुद्र इतना भारी विशा. ल है । प्रत्युत्तर में उस समुद्रवासी मेंढक ने उस कूप मेंढक से कहानहीं वह इतना बड़ा नहीं है-वह तो इस से भी अधिक बड़ा है अर्थात् रेखा से निर्दिष्ट जो विस्तार है वह समुद्र के विस्तार को बतलाने में समर्थ नहीं हो सकता है-उस का विस्तार तो क्या कहे-बहुत ही अधिक है। (तएणं से कूवदद्दुरे पुरथिमिल्लाओ तीराओ उप्फिडित्ता णं गच्छइ, गच्छित्ता एवं वयासी ए महालएणं देवाणुपिया ! से समुद्दे णो इणढे समढे ) समुद्रवासी मेंढक की बात सुनकर वह कूप मेंढक अपने अग्नवर्ती तोर से कूए के दूसरे तोर पर उछल गया-वहां पाएणं लीहं कड़ेइ, कत्तिा एवं वयासी. ए महालएणं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे णो इण? समढे महाँलएणं से समुद्दे ) ।
હે દેવાનુપ્રિય ! સમુદ્ર તે બહુ વિશાળ છે.
આ વાત સાંભળીને કૂવાના દેડકાએ પિતાના પગથી એક લીટી દેરી અને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તે સમુદ્ર આટલે વિશાળ છે? ત્યારે જવાબમાં સમુદ્રના દેડકાએ કહ્યું કે નહિ, તે આટલો મટે નથી તે તે એના કરતાં પણ વિશાળ છે એટલે કે લીટી દેરીને જે વિસ્તાર બતાવવામાં આવ્યું છે તે સમુદ્રની વિશળતાને અંકિત કરવામાં અશક્તિમાન છે તેને વિસ્તાર તે
ખૂબ જ વિશાળ છે. .(तएणं से कूवाद्दुरे पुरथिमिल्लाभो तोराओ उफिडित्ता णं गच्छइ गच्छित्सा . एवं क्यासी, ए महालए णं देवाणुप्पिया! समुद्दे णो इणढे समढे)
For Private And Personal Use Only
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणो टीका. अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम्
४५५ स समुद्रः १, एवं कूपमण्डूकस्य वचः श्रुत्वा समुद्रमण्डूकः पुनराह-' नायमर्थः समर्थः, इति दर्शनादेव समुद्रस्य महत्त्वं ज्ञातं भवति नतु तत् कथमपि निर्देष्टुं वक्तुं च शक्यं केनापीति भावः । तथैव यथा स कूपमण्डकस्तद्वदेव, एवमेव = उक्त प्रकारेणैव, त्वमपि हे जितशत्रो ! अन्येषां बहूनां राजेश्वर-यावत् सार्थवाहप्रभृतीनां भायां वा भागिनी वा दुहितरं वा स्नुपां वा अपश्यन् जानासि-यादृशं ममैव खलु अवरोधः
अन्तःपुरं, तादृशं नो अन्यस्य । जाकर कहने लगा-हे देवानुप्रिय ! तुम्हारे द्वारा निर्दिष्ट वह समुद्र क्या इतना बड़ा है ? इस प्रकार कूप मेंढ़क के वचन सुन कर उस सोमुद्रिक मेंढक ने कहा
. भाई क्या बतलावें देखने से ही उस की महत्ता ज्ञात हो सकती है। यह कहने की और निर्दिष्ट करने की बात नही हैं । उस का निर्देश
और कथन तो कोई कर ही नहीं सकता है । ( तहेव एवामेव तुमंपि जियसत्तू ! अन्नेसिं बहणं राईसर जाव सत्थवाह पभिईणं भज्जं वा भगिणीं वा घूयं वा सुण्इं वा अपासमाणे जाणेसि-जारिसए मम चेव. णं ओरोहे तारिसए णो अण्णस्स ) इसी तरह हे जितशत्रो ! तुमने भी कभी और किसी राजेश्वर ओदि सार्थवाह प्रभृतियों की भार्या को, भगिनी को, दुहिता को, स्नुषा को देखा नहीं है-इसीलिये ऐसा मान रहे हो कि जैसा अन्तः पुर हमारा हैं-वैसा और किसी का कहीं पर સમુદ્રમાં રહેનારા દેડકાની વાત સાંભળીને તે કૂવાને દેડકે પિતે જ્યાં બેઠે હતે તે કૂવાના કિનારા ઉપરથી કૂવાના બીજા કિનારા ઉપર કૂદી ગયે અને ત્યાં જઈને કહેવા લાગ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે જે સમુદ્રની વાત કરે છે તે શું આટલે. મોટે છે? આ રીતે કૂવાના દેડકાની વાત સાંભળીને સમુદ્રના દેડકાએ કહ્યું –
ભાઈ શું કહીએ? સમુદ્રને જેવાથી જ તેની વિશળતાનું જ્ઞાન થઈ શકે તેમ છે. મુખેથી કહેવાની અને લીટીઓ વગેરેથી નિર્દોષ તે થઈ શકે તેમજ ણાતું નથી.
( तहेव एवामेव तुमंपि जियसत्तू ! अन्नेसि बहूर्ण राई सरजाच सत्यवाह पभिईणं भज्जवा भगिणी वा धृयं वा अपासमाणे जाणेसि जारिसए मम चेवणं ओराहे तारिसए णो अण्णस्स )
આ પ્રમાણે જ હે જિતશત્રે ! તમે પણ કઈ દિવસ બીજા કેઈ રાજેશ્વર વગેરે તેમજ સાર્થવાહ વગેરેની સ્ત્રીઓને, બહેનને, દુહિતાને, અનુષા (પુત્રની વહુ) ને જોઈ નથી. એટલે જ તમે આમ માને છે કે મારા જે રણવાય બીજે કયાંય હાય જ નહિ,
For Private And Personal Use Only
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्रे तदेवं खलु हे नितशत्रो ! मिथिलायां नगयों कुम्भकस्य राज्ञो दुहिता-पुत्री, प्रभावत्या आत्मजा-अङ्गनाता मल्ली नाम इति, रूपेग-सुन्दराकृत्या च यौवनेन च यावत् नो खलु अन्या कापि देवकन्या वा तादृशी विद्यते, यादृशी मल्ली। मल्ल्या विदेहराजवरकन्यायाच्छिन्नस्यापि पादामुष्ठस्यायं तवावरोधः शतसहस्रतमामपि कलां लक्षांशमपि नार्हति' इतिकृत्या=इत्युक्त्वा, सा चोक्षा परिवानिका यस्या दिशः प्रादुर्भूता, तामेव दिशं प्रतिगता । ततः खलु स जितशत्रुः परित्राभी नहीं है । (तं एवं खलु जियसतृ मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स घूया पभावतीए अत्तया मल्ली नामंति-रूवेण य जोव्वणेण जाव नो खलु अण्णा काई देवकन्ना वा जारिसिया मल्ली) इसलिये हे जितशत्रो! सुनो- मिथिला नगरी में कुंभक राजा की पुत्री जो प्रभावती की कुक्षि से उत्पन्न हुई है मल्ली कुमारी है । वह रूप और यौवन से इतनी अधिक सुन्दरी है कि उस के समक्ष ऐसी कोई देव कन्या आदि कोई भी कन्या सुन्दरी नहीं है-(मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए छिण्णस्स वि पायंगुट्ठस्स इमे तवारोहे सयसहस्सतमंपि कलं न अग्धइ, त्ति कटु जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया तएणं से जियसत्तू परि. वाइया जणियहासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्तो जाव पहारेत्थ गमणोए) उस विदेह राज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी के कटे हुए पादांगुष्ठ के एक लाख वें अंश बराबर २ भी यह आपका अवरोध अन्तपुर नहीं है। ___ इस प्रकार कहकर वह चोक्षा परिव्राजिका जिस दिशा से आई (तं एवं खलु जियसत्तू मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स धूया पभावतीए अत्तया मल्ली नामति रूवेण य जोवणेण जाव नो खलु अण्णा काई देवकन्ना वा जारिसिया मल्ली) એટલા માટે છે જીતશત્રે ! સાંભળો, મિથિલા નગરીમાં પ્રભાવતીના ગર્ભથી જન્મેલી કુંભક રાજાની પુત્રી મલીકુમારી પોતાના રૂપ અને યૌવનથી એટલી બધી સુંદરી છે કે તેની સામે તે દેવકન્યા પણ કંઈ જ નથી.
( मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए छिण्णस्स वि पायगुठस्स इमे तोरोहे सय सहस्सतमं पि कल न अग्धइ, त्ति कटु नामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया तएणं से जियसत्तू ! परिधाइया जणियहासे दुयं सदावेइ सदावित्ता जाव पहारेत्थ गमणाए)
વિદેહ રાજાની ઉત્તમ કન્યા મલ્લીકુમારીના કપાએલા અંગૂઠાના એક લાખમાં ભાગ બરાબર પણ આ તમારે અવરોધજન (રણવાસ) નથી.
આ પ્રમાણે કહીને ચેક્ષા પરિવ્રાજકા જે દિશાથી આવી હતી તે દિશા
For Private And Personal Use Only
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ षडूराजयुद्ध निरूपणम्
४५७
1
जिका जनितहर्ष : = चोक्षा परिव्राजिका वचनश्रवणानन्तरसंजातमल्ली विषयकानुरागः, दूतं शब्दयति, शब्दयित्वा' जाव पहारेत्थगमणाए यावत् मिथिलां गन्तुमादिष्टवान् ततः स दूतस्तदाज्ञानुसारेण प्राधारयद् गमनाय मिथिलां गन्तु प्रवृत्तः । इति षण्णामपि राज्ञां सम्बन्धः पृथक् २ प्रोक्तः ॥ ०३१ ॥
मूलम् - तणं तेसिं जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तरणं छप्पि - यदूया जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छिंति, उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुजाणंसि पत्तेयं २ खंधावारनिवेस करेंति, करिता मिलिं रायहाणि अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पत्तेयर करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं दसनहं मत्थए अंजलिं कट्टु साणं२ राईणं वयणाई निवेदेति, तपणं से कुंभए तेसिं दूयाणं अंतिए एयमहं सोच्या आसुरुते जाव तिवलियं
थी उसी दिशा तरफ वापिस चली गई । चोक्षा परिव्राजिका के वचन सुनने के बाद जिसे मल्ली कुमारी के विषय में अनुराग उत्पन्न हो गया है ऐसे उस जितशत्रु राजा ने दूत को बुलाया और उस से मिथिला जाने के लिये कहा - वह दूत भी अपने राजा की आज्ञानुसार मिथिला नगरी तरफ जाने के लिये वहां रवाना हो गया। सूत्र ३१
"6
For Private And Personal Use Only
"
તરફ પાછી જતી રહી. ચેાક્ષા પરિત્રાછકાના માંથી મલ્લીકુમારીના સૌંદર્ય વિશે પ્રશ’સાજનક શબ્દો સાંભળીને જેના મનમાં તેના માટે અનુરાગ ઉત્પન્ન થયા છે એવા તે જિતશત્રુ રાજાએ કૂતને ખેલાવ્યે અને તેને મિથિલા જવા માટે આજ્ઞા કરી. કૃત પેાતાના રાજાના હુકમ પ્રમાણે મિથિલા નગરી તરફ ४वा उपडी गयो. ॥ सूत्र ‘“ ३१” ॥
ब्रा ५८
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
४५८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
भिउंड एवं वयासी- न देमिणं अहं तुब्भं माल्लं विदेहरायवरकण्णं तिकट्टु ते छप्पिए असक्कारिय असम्माणिय अवहारेणं णिच्छुभावेइ । तरणं जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया कुंभएणं रन्ना असक्कारिया असम्माणिया अवहारेणं णिच्छुभाविया जेणेव सगार जाणवया जेणेत्र सयाई २
गराई जेणेव सगार रायाणो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल परि० एवं वयासी एवं खलु सामी ! अम्हे जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवदारेणं निच्छुभावेइ, तं ण देइणं सामी ! कुंभए महिं विदेहरायवरकन्नं साणं २ राईणं एमट्टं निवेदेति ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तणं ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणो तेसिं दूयाणं अंतिए एयम सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता अण्णमण्णस्स दूयसंपेसणं करेंति, करित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! अहं छण्हं राईणं दूया जमगसमगं चेव जाव निच्छूडा, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं कुंभगस्स जत्त गेण्हित्तए त्तिकहु अण्णमण्णस्स एयमटुं पडिसुर्णेति, पडिसुणिता पहाया सण्णा हत्थिखंधव र गया सकोरंट मल्लदा मेणं छत्तेर्ण धरिजमाणेणं, उद्घव्वमाणाहिं सेयवरचामराहिं महयाहयगयर हपवरजोहक लियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा सविडीए जाव रखेणं सरहिं२ नगरेहिंतो जाब निग्गच्छति
For Private And Personal Use Only
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ पराजयुद्ध निरूपणम्
४५९
निग्गच्छित्ता एगयओ मिलायंति, मिलायित्ता जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ३२ ॥
टीका- ' तरणं तेर्सि' इत्यादि । ततस्तदन्तरं तेषां जितशत्रुप्रमुखाणां षण्णां राज्ञा दूता यत्रैव मिथिला नगरी तत्रैव 'प्राधारयद् गमनाय ' गन्तुमुद्यताः । ततः खलु षडपि दूता यत्रैव मिथिला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य मिथिलाया अग्गुज्जाणंसि ' अग्रोधाने = प्रधानोद्याने, प्रत्येकं २ 'खंधावारनिवेस ' स्कन्धावारनिवेशं=शिविरस्य ' छावनी ' इति भाषा प्रसिद्धस्य निवेश स्थापनं कुर्वन्ति, कृत्वा, मिथिला राजधानीमनुप्रविशन्ति, यत्रैव कुम्भको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागस्थ
"
'तएणं तेसिं जियसत् पामोक्खार्ण ' इत्यादि ।
टीका (i) इसके बाद ( तेसिं जियसत्तू पामोक्खाणं छण्ह राईणं ) उन जितशत्रु प्रमुख छहो राजाओं के (दुयों) दूत ( जेणेव मिहिला ) जहां वह मिथिला नगरी थी ( तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) उस ओर अपने २ स्थान से चल दिये (तएणं छप्पियदूद्या जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति ) चलते २ वे छहों ही दूत एक ही साथ जहां मिथिला नगरी थी वहां आये । ( उवागच्छिसा मिहिलाए अग्गुज्जाणंसि पत्तेयं २ खंधावारनिवेस करेंति, करिता मि. हिलं रायहाणि अणुपविसंति) वहां आकर मिथिलानगरी प्रधान उद्यान में सबने अलग २ अपनी २ छावनी डाल दी । छावनी डालकर फिर वे मिथिला नगरी में प्रवेश किया - ( अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए
तएण तेसिं जियसत्तू पामोक्खाण' इत्यादि ||
टीडार्थ- (तएण ं) त्या२पछी ( तेलिं जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हं राईण ) लितशत्रु प्रभु छमे रामसोना ( दूया) इतो ( जेणेव मिहिला) नयां मिथिला नगरी हुती ( तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) ते तर पोतपोताना स्थानेथी उपडी गया. (तएण छप्पिय दूया जेणेव मिहिला तेणेत्र उत्रागच्छति ) ते छो इत ચાલતા ચાલતા એકી સાથે જ જયાં મિથિલા નગરી હતી ત્યાં આવી પહેાંચ્યા.
( उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जाणं सि पत्तेयं २ खंधावार निवेस करेंति, करिता महिलं रायहाणि अणुपविसंति )
ત્યાં પડેચીને ખધાએ મિથિલા નગરીના પ્રધાન ઉદ્યાનમાં પોતપોતાને पडाव नाथ्यो. पडाव नाभीने तेथे। मिथिता नगरीमां गया. ( अणुपविसिता जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छति ) भने न्याभरात त्यांच्या
For Private And Personal Use Only
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
પ્રઃ
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
(
प्रत्येकं २ करतल परिगृहीतं शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा स्वेगं स्वेषां राज्ञां aणाई' वचनानि= कथनानि निवेदयन्ति स्म । ततस्तदनन्तरं स कुम्भको राजा तेषां दुतानामन्तिके - समीपे, एतमर्थ ' जितशत्रप्रमुखाः पडपि राजानो मल्ली ञ्छन्ति ' इत्येतद्रूपं वृत्तान्तं श्रुत्वा ' आसुरुते ' आशुरुप्तः = शीघ्रं क्रोधाविष्टः, यावत् त्रिवलिकां= रेखात्र पयुतां भ्रुकुटिं=भ्रुवः कौटिल्यं ललाटे कुर्वन् एवं वक्ष्य माणप्रकारेण, अवादीत् = हे दूताः 'नो दास्यामि खलु अहं युष्माकं राजभ्यो मल्लीं विदेहराजवरकन्याम्' इति कृत्वा = इत्युक्त्वा तान् षडपि दूतान् असत्कृत्य, तेणेव उवागच्छंति) प्रवेश कर जहां कुंभक राजा थे वहां आये (उवागच्छत्ता पत्तेयं २ करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं दसनहं मत्थए अंजलि कट्टु साणं २ राईणं वयणाणि निवेदेति ) वहां आकर उन सबने भिन्न २ रूप से कुंभक राजा को दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर नमस्कार किया - नमस्कार कर के फिर उन्हों ने क्रमश अपने २ राजा का कथन उसे सुनाया - ( तरणं से कु भए तेसिं योणं अन्तिए एयम सोच्चा आसुरुत्ते जाव तिवलियं भिउडिं एवं बयासी ) जितशत्रु प्रमुख छहों ही नृपति मेरी पुत्री मल्लीकुमारी को चाह रहे हैं इस प्रकार का समाचार उन दूतों के पास से सुनकर वह कुंभक राजा इकदम क्रोधित हो गया और उसी समय उसकी त्रिवलियुक्त भ्रकुटि मस्तक पर चढ़ गई।
इसी आवेश में उसने उन दूतों से इस प्रकार कहा - ( न देमि णं अहं तु मल्ली विदेह रायवरकण्णं त्ति कटुते छप्पिदुए असक्का( उवागच्छित्ता पत्तेये २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं दसनहं मत्थर अंजलि कहुँ साणं र राईणं वयणाणि निवेदेति )
ત્યાં જઈને તેઓ બધાએ જુદા જુદા રૂપમાં કુભક રાજાને અને હાથની અંજલિ પતાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યા અને નમસ્કાર કરીને તેઓએ વારાફરતી પાતપોતાના રાજાનો સ ંદેશા તેમને કહી સંભળાવ્યે.
( त से कुंभए तेर्सि दूयाणं अंतिए एयमहं सोच्चा आसुसत्तेजाव तित्र लियं भिउडिं एवं दयासी )
જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ છ રાાએ મારી પુત્રી મલ્ટીકુમારીને ચાહે છે આ જાતને સ ંદેશ તેના માંથી સાંભળીને કુંભક રાજા એકદમ ગુસ્સે થઈ ગયા અને ત્રણે રેખાઓવાળી તેમની ભ્રકુટી ભમરા વર્ક થઇ ગઈ.
ક્રાધના આવેશમાં રાજાએ તે તેને કહી સંભળાવ્યુ` કે~~
( न देमि णं अहं तु मल्ली विदेrरायवर कण्णं त्ति कहु ते छप्पिए
For Private And Personal Use Only
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ षड्राजयुद्धनिरूपणम्
પ્રદર્શ
असमान्य, च 'अवदारेणं' अपद्वारेण= भवनपश्चाद्भागस्थित लघुद्वारेण ' णिच्छुभावेइ ' निःसारयति ।
,
ततस्तदनन्तरं खलु ते जितशत्रुप्रमुखानां षण्णां राज्ञां दूताः कुम्भकेन राज्ञा, असत्कारिताः असन्मानिता अपद्वारेण निःसारिता सन्तः यत्रैव स्वकाः २ = आत्मीयाः २, ' जाणवया' जानपदाः = देशाः, यत्रैव स्वकानि २ नगराणि, यचैव स्वकाः २ राजान आसन्, तत्रैवोपागच्छंति, उपायुगत्य करतलपरिगृहीतं दशनखं शिर आवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा, एवमवादिषुः - हे स्वामिन् ! रिय अवद्दारेणं णिच्छुभावेह ) हे दूतों ! मैं अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी तुम्हारे राजाओं के लिये नही दूंगा " ऐसा कहकर उसने उन दूतों का न कोई सत्कार किया और न कोई सन्मान ही किया किन्तु उन्हें भवन के पीछे भाग के छोटे से दरवाजे से बाहिर निकाल दिया । (तपणं जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हं राईण दूधा कुंभएण रन्ना असक्कारिया असम्माणिया अवहारेण णिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगार जाणवया जेणेव सयाई२ णगराई जेणेव सगा २ रायाणो तेणेव उवागच्छंति ) इस तरह उन जितशत्रु प्रमुख राजाओं के वे दूत कुंभक राजा से असत्कृत एवं असंमानित होते हुए जब महल के पिछले छोटे से द्वार से बाहिर निकाल दिये गये तब वे वहां से प्रस्थित होकर जहां अपना २ जनपद था, वहां अपने २ नगर थे, और उन में भी जहां अपने २ राजा थे वहां आ गये ।
असक्काfरय असम्माणिय अवदारणं णिच्छुभावेइ )
“ હું દૂતે મારી પુત્રી વિદેહરાજવર કન્યા મલ્ટીકુમારી તમારા રાજાઆને આપીશ નહિ. ” આ પ્રમાણે કહીને રાજાએ તાના કોઈ પણ રૂપમાં સત્કાર અને સન્માન ન કરતાં તેએને પેાતાના મહેલના પાછળના નાના મારણેથી બહાર કાઢી મૂક્યા.
(तरणं जियसत्तू पामोक्खाणं छन्हें राईणं दुया कुंभरणं रन्ना असक्कारिया असम्माणिया अवदारणं णिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगार जाणवया जेणेव साई २ नगराई जेणेव सगार रायाणो तेणेव उवागच्छंति )
આ પ્રમાણે જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાએના તે તે કુંભકરા વડે અસત્કૃત અને અસમાનિત થતાં જ્યારે મહેલના પાછલા બારણેથી બહાર કાઢી મૂકવામાં આવ્યા ત્યારે તેઓ ત્યાંથી રવાના થઇને જ્યાં તેમનેા જનપદ (દેશ) હતા, જ્યાં તેમનું નગર હતું અને તેમાં પણ જ્યાં તેમના રાજા હતા ત્યાં પહોંચ્યા.
For Private And Personal Use Only
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ફર
श्राताधर्मकथासूत्रे
एवं खलु वयं जितशत्रु ममुखाणां षण्णां राज्ञां दूता: ' जमगसमगं' युगपत् = एकस्मिन् काल एव, यत्रैव मिथिला यावत् ata rear स्वेषां स्वेषां राज्ञां वचनानि निवेदितवन्तः, तदा स कुम्भकः शीघ्रं क्रोधाविष्टः सन् 'न दास्याम्यहं मल्ली ' मित्युक्त्वाऽस्मान सत्कृत्यासंमान्य, अपद्वारेण 'निच्छुभावे ' निःसा रयति = निष्कासयति स्मेत्यर्थः । तत = तस्माद् न ददाति हे स्वामिन्! कुम्भको मल्ली विदेर राजवरकन्याम् इत्युक्त्वा पडपि दूताः स्वेषां स्वेवां राज्ञामेतमुक्तमर्थ निवेदयन्ति कथयन्तिस्म ।
(उवागच्छिता करयलपरि० एवं वयासी) वहां आकर उन्होंने उन्हें दोनों हाथों की अंजलि बनाकर नमस्कार किया ( एवं खलु सामी ! अम्हें जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हं राईण दूया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवद्दारेण निच्छुभावेइ ) हे स्वामिन्! हम सब जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं के दूत एक ही समय जहां मिथिला नगरी थी - वहां पहुँचे वहां पहुँचकर कुंभक राजा के दर्शनार्थ उनके राजमहल में गये वहां जाकर हमलोगों ने सविनय अपने २ राजाओं के वक्तव्य उन्हें कहकर सुनाये सुनते ही वे कुंभक राजा क्रोध से भर गये और कहने लगे-हम अपनी पुत्री मल्ली कुमारी किसी को नहीं देंगे ऐसा कहते हुए उन्हों ने बाद में हमलोगों को असत्कृत एवं असंमानित कर अपने महल से उसके पिछले छोटे से दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया।
( उवागच्छता करयल परि०" एवं क्यासी) त्यां भावीने तेमले माने હાથેાની અજલી મતાવીને નમન કર્યાં.
( एवं खलु सामी ! अम्हे जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हं राईणं या जमगसमगं चेत्र जेणेव मिहिला जाव अवहारेणं निच्छुभावेइ )
અને કહ્યું હું સ્વામિન્! અમે બધા જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ છ રાજાઓના તે એક જ સમયમાં જ્યાં મિથિલા નગરી હતી ત્યાં પહેાંચ્યા, ત્યાં પહોં ચીને કુંભકરાજાના દર્શન માટે અમે રાજમહેલમાં ગયા. ત્યાં પહોંચીને અમે લેાકેાએ વિનયની સાથે પાતપેાતાના રાજાને સ ંદેશ તેમને કહી સ`ભળાવ્યેા. કુંભકરાજા તે સ ંદેશાઓને સાંભળતાં જ ગુસ્સે થઇ ગયા અને કહેવા લાગ્યા કે હું મારી પુત્રી મલ્ટીકુમારી કોઈને ય આપીશ નહિ. આમ કહેતાં તેમણે અમને અસત્કૃત તેમજ અસ'માનિત કરીને પેાતાના મહેલના પાછળના નાના બારણાંથી બહાર કાઢી મૂક્યા.
For Private And Personal Use Only
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणो टी० अ०८ पराजयुद्धनिरूपणम
vi __ ततः खलु ते जितएत्रुप्रमुखाः षडपि राजानस्तेषां दतानामन्तिके समीपे, एतमर्थ श्रुत्वाकर्णगोचरीकृत्य निशम्य अर्थमवगम्य' आशुरुप्ताः-शीघ्र क्रोधाविष्टाः ' अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य दूतसंप्रेषणं कुर्वन्ति, कृत्वा एवंवक्ष्यमाणमकारेण, अवादिषुः-हे देवानुप्रिया ! एवं खलु अस्माकं पण्णां राज्ञां दताः युगपदेव यावदसत्कृत्यासंमान्यापद्वारेण ‘णिच्छूढा' निक्षिप्ताः= निः
(तं ण देइण सामी! कुंभए मल्लि विदेहरायवरकन्न साणं २ राइणं एयमह नि वेदेति) अतः हे स्वामिन् ! आप निश्चय समझें-कुंभकराजा अपनी विदेह राजवरकन्या मल्लीकुमारी को नहीं देता है। ऐसा कहकर उन छहों दूतों ने इसी उक्त अर्थ की पुष्टी अपने २ राजा ओं के समक्ष की। (तएणं से जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणो तेसिं याणं अन्तिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म असुरुत्ता अण्णमण्णस्म दूय संपेसणं करेंति ) इसके बाद उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने दूतों के मुखसे इस बात को सुनकर और उसे समझ कर क्रोधित हो अपने २ दूतों को एक दूसरे राजा के पास भेजा ( करित्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ? अम्हं छह राईण या जमगसमगं चेव जाव णिच्छूडा) भेज कर उन दूतों से यह समचार कहलवाये-हे देवानुप्रियों ! देखों हम छहों राजाओ के दूत एक ही समय कुंभक राजा के पास __ (तं ण देइणं सामी ! कुंभए मल्लिं विदेहरायवरकन्नं साणं २ राईणं एयमढे निवेदेति)
એથી હે સ્વામિન ! તમે ચોક્કસપણે આ જાણુંલે કે કુંભક પિતાની વિદેહરાજવર કન્યા મલ્લીકુમારી આપશે નહિ આ પ્રમાણે કહીએ છીએ તો એ પિતાપિતાના રાજાઓની સામે પિતાના મતની પુષ્ટિ કરી. .
( तएणं से जियसत्तू पामोक्खा छप्पि रायाणो तेसिं दूयाणं अंतिए एवमटुं सोच्चा निसम्म आसुरूत्ता अण्ण मण्णस्स दूयसंपेसणं करेंति ) ।
ત્યારબાદ જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએ દૂતના મુખેથી આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને અને તેને બરાબર સમજીને ગુસ્સે થયા અને પિતાપિતાના તેને એક બીજા રાજાની પાસે મોકલ્યા.
(करिता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं राईणं या जमगसमगंचेव जाव णिच्छूढा)
તેઓએ તે તેની સાથે આ જાતને સંદેશ મોકલ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! આપણું એ રાજાઓને તે એક વખતે કુંભકરાજાની પાસે ગયા. ત્યાં તેણે
For Private And Personal Use Only
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्र सारिताः । तत्-तस्मात् श्रेयः खलु हे देवानुपियाः ! अस्माकं कुम्भकाय कुम्भकपराजयाय 'जत्तं' यात्रां-युद्धयात्रां ग्रहीतुं-स्वीकर्तुं श्रेय इति पूर्वसम्बन्धः । इति कृत्वा-इति परामृश्य-विचार्य, परस्परस्यैतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति, स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य, ते जितशत्रुप्रमुखाः षडपि राजानः स्नाताः सनद्धाः युद्धोपकरण-कावादि धारणेन सज्जीकृतशरीराः, हस्तिस्कन्धवरगताः-गजोपरिसमारूढाः, 'सकोरंट पहुँचे-घहां उसने हमलोगों के दूतों का कोई भी सत्कार और सन्मान नहीं किया-किन्तु उन्हें अपमानित कर अपने महल के पिछले छोटे दरवाजे से बाहिर निकलवा दिया-तं) अतः-(सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्ह कुंभगस्सजत्तं गेण्हित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणित्ता, बहाया, सण्णद्धा हत्थिकंधवरगया सकोरंटमल्ल दामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं उधुयमाणाहिं सेयवरचामराहिं महयो हयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिषुडा सव्विडीएजाव निग्गच्छति) हम लोगोंको अब यही कर्तव्य श्रेयस्कर है कि हम लोग कुम्भक राजा को पराजित करने के लिये उन पर चढाइ कर दें।
इस प्रकार का जब उन सब का परामर्श हो चुका तब सब ने एक मत हो इस बात को मान लिया। मन लेने के बाद वे जितशत्रु प्रमुख सय ही राजा नहा धोकर युद्धोपकरणों से सुसज्जित हो गये । और हाथियों के स्कंधों पर आरूढ होकर महान २ हयों से-गजों से रथों से આપણા દૂતનો સત્કાર કે સન્માન કંઈજ કર્યું નથી, અને તેમને અપમાનિત કરીને પિતાના મહેલના પાછલા નાના બારણેથી બહાર કાઢી મુકાવ્યા છે (૪) એથી
( सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं कुंभगस्स जत्तं गेण्हित्तए तिकटु अण्ण मण्णस्स एयमढे पडिसुणेति,परि सुणित्ता, हाया सण्णद्धा, हत्यिकंधवरगया सको. रटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं उद्धयमाणाहिं सेयवरचामराहिं महया हय. गयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिखुडा सविडीए जाव रवेणं सएहिं २ नगरेहितो जाव निग्गच्छंति )
હવે અમારા માટે એક જ કર્તવ્ય શ્રેયસ્કર લાગે છે કે અમે કુંભક રાજાને હરાવવા માટે તેમના ઉપર આક્રમણ કરીએ. . જ્યારે આ પ્રમાણે બધાએ વિચાર કર્યો ત્યારે સહુએ એકમત થઈને આ નિર્ણય સ્વીકારી લીધું. ત્યારપછી જીતશત્રુ પ્રમુખ બધા રાજાઓ સ્નાન કરીને યુદ્ધ માટેનાં બધાં સાધનોથી સુસજજ થઈ ગયા અને તેઓ બધા
For Private And Personal Use Only
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४६५
- naranasi ीका श्र० ८ षड्राजयुद्धनिरूपणम् मल्लदामेणं' सकोरण्टमाल्यदाम्ना=कोरष्ट पुष्पमात्मदामयुक्तेन 'छत्तेणं धरिज्जमाणेणं उदधुत्रमाणाहिं सेवरचामराहि' छत्रेण ध्रियमाणेन स्वस्वभृत्येन उद्घयमानैः श्वेतवरचामरैश्व युक्ताः, 'मध्याह्यगयरहपवर जोहकलियाए महाहय' गजरथमवर योधकलितया = महान्तश्च हयगजरथप्रवरयोधाश्चेति समाहारद्वन्द्वः महाहयगजरथप्रवरयोधं, सेनाङ्गत्वादेकवद्भावः तेन कलितया = युक्तया, अतएव - चतुरङ्गिण्या सेनया सार्धं संपरि कृताः 'सब्बिड्डीए' सर्वद्धर्घा = राजचिह्नादि रूपया युक्तः यावद् -- रवेण = युद्धोत्साहवर्धकतुर्यादि शब्देन स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यो यावद् निर्गच्छन्ति, नित्य, एकत: एकत्र - एकस्मिन् स्थाने मिलन्ति, मिलित्वा ते जितशत्रुममुखाः पडपि राजानो यत्रैव मिथिलानगरी, तत्रैव प्राधारयन् गमनाय = गन्तुं प्रवृत्ता इत्यर्थः ॥ मू० ३२ ॥
"
प्रवर योधाओंसे कलित चतुरंगिणी सेना को साथ लेकर अपने २ नगरों से बाहर निकले । हाथी पर जब ये राजा जन बैठे हुए थे उस समय इन के ऊपर छत्रधारी भृत्यों ने कोरंटक पुष्प माल्य दाम से युक्त छत्र ताना हुआ था। चामर ढोरने वाले भृत्यजन उस समय इन के ऊपर श्वेतवर चामर होर रहे थे । ये समस्त राजाजन राज्यार्थ आह्लाद जनक रूप सर्वद्धि से युक्त होकर ही उत्साह वर्धक तुर्यादि के शब्दों द्वारा संस्तुत होते हुए - अपने २ नगरों से निकले थे । ( निग्गच्छित्ता एगयाओ मिलायंति - मिलायित्ता, जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) निकल कर ये सब एक स्थान पर मिल गये। मिलने के बाद ये सब जितशत्रु प्रमुख - छहों राजा फिर वहांसे मिथिला नगरीकी ओर चल दिये । सू. ३२ |
હાથીઓના ઉપર સવાર થઇને મેાટા ઘેાડાઓ, હાથીએ, રથા અને બહાદૂર ચાદ્ધાઓની ચતુર'ગિણી સેના સાથે લઈને પાતપેાતાના નગરની બહાર નીકળ્યા. હાથીઓ ઉપર જયારે બધા રાજાએ બેઠા હતા તે વખતે છત્રધારી ભ્રત્યે એ તેમના ઉપર કારટક પુષ્પમાલ્ય દામવાળું છત્ર ધર્યું હતું.. ચામર ભૃત્યજને તે સમયે તેમના ઉપર સફેદ ચામા ઢાળતા હતા. તે બધા રાજ રાજ્યાં આહ્લાહિરૂપ સદ્ધિયુક્ત થઈને ઉત્સાહ વધારનાર તુર્યાદિના શબ્દો વડે સસ્તુત થતા પાતપાતાના નગરાથી બહાર નીકળ્યા હતા.
ઢાળનારા
( निग्गच्छित्ता एगयाओ मिलायंति-मिलायित्ता, जेणेव मिहिला तेणेत्र पहारेत्थ गमणाए )
ખહાર નીકળીને તે બધા એક સ્થાને એકઠા થયા. એકઠા થઇને તેઓ બધા જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએ ત્યાંથી મિથિલા નગરી તરફ રવાના થયા.ાસૢ૦૩૨ા
क्षा ५९
For Private And Personal Use Only
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्भकथासूत्रे मूलम्-तएणं से कुंभए राया इमीसे कहाए लद्धटे समाणे बलवाउयं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव० हय जाव सेण्णं सन्नाहेह जाव पच्चप्पिणइ, तएणं कुंभए बहाए सण्णद्धे हत्थिखंध० सकोरंट० सेयवरचामरहिं० महया मिहिलं मज्झमज्झेणं णिजाइ, णिजित्ता विदेहं जणवयं मझमज्झेणं जेणेव देस अंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्तो खंधावरनिवसं करेइ, कृत्वा, जियसत्तपामो. क्खा छप्पियरायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिटइ. तएणं ते जियसत्तपामोक्खा छप्पिय रायाणो जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुभएणं रन्ना संद्धि संपलग्गा यावि होत्था, तएणं ते जियसत्तूपामोक्खा छप्पि रायाणो कुंभयं रायं हयमहियपवरवीरघाइयनिविडियचिधद्धयप्पडागं किच्छप्पाणोवगयं दिसो दिसिं पडिसहिंति, तएणं से कुंभए जियसत्तूपामोक्खेहिं छहिं राईहिं हयमहित जाव पडिसेहिए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए जाव अधारणिज्जमितिकट्टु सिग्धं तुरियं जाव वेइयं जेणेव मिहिलातेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिहिलं अणुपविसित्ता मिहिलाए दुवाराइं पिहेइ, पिहित्तारोहसज्जे चिट्रइ ।।सू०३३॥ टीका-'तएणं' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु स कुम्भको राजाऽस्याः _ 'तएणं से कुंभए राया' इत्यादि । टीकार्य-(तएणं इसके बाद (से कुंभए इमीसे कहाए लढे समाणे पल
तएणं से कुभएराया इत्यादि । A-(त एण) त्या२ पछी (से कुभए इमीसे कहाए लट्ठे समाणे बल
For Private And Personal Use Only
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नगर
after टीका अ०८ कुंभकराजयुद्ध निरूपणम्
-
कथाया लब्धार्थः = ज्ञातार्थः सन् 'बलवाउयं ' बलव्यापृतं सैन्यव्यापारपरायणंसैन्यनायकमित्यर्थः शब्दयति, शब्दयित्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् मो देवानुभिय! क्षिममेव ' इयजात्र सेष्णं' हय०यावत् सैन्यं - हयगजरथमवरयोगकलितं चतुरङ्गयुक्तं सैन्यं 'सन्नाद्देह' संनाहय = सन्नद्धं कुरु - सज्जीकुर्वित्यर्थः । यावत् प्रत्यर्पयति, ततोऽसौ सेनापतिः सैन्यं सज्जीकृत्य, कुम्मकं राजानं निवेदयति-हे स्वामिन् ! सैन्यमस्माभिः सन्नद्धीकृतमिति । ततस्तदनन्तरं स कुम्भको राजा स्नातः सन्नद्धः = युद्धोपकरणशस्त्रास्त्रकवचादि धारणेन सज्जीकृतशरीरः हस्तिस्कन्धवरगतः सकोरण्टमाल्यदाम्ना= कोरण्ट पुष्प रचितमालायुक्तेन छत्रेण स्वभृत्येन वाउयं सद्दावेइ ) कुंभक राजा को जब यह पता चला तब उस ने अपने सेना नायकको बुलाया - ( मद्दावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उससे ऐसा कहा - ( खिप्पामेव० हय गय जाव सेण्णं सन्नाहेह जाव पच्चपिणह ) भो देवानुप्रिय ! तुम जल्दी से जल्दी हय- गज-रथ एवं प्रवर योधाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना को सजाओ। और इस की हमे पीछे आकर खबर दो - सेना नायक ने ऐसा ही किया सेना सजा कर राजा को खबर दी कि हे स्वामिन् ! हमने आप की आज्ञानुसार सैन्य सज्जित कर दिया है । (तरणं कुंभए पहाए सन्नद्ध हत्थि खंत्र० सकोरंट० सेयवर चामराहिं महया मिहिलं मज्झ मज्झेणं णिज्जाइ ) इस के बाद कुंभक राजा ने स्नान कर अपने शरीर को युद्धोपकरणों से- शस्त्र अस्त्र एवं कवचादि के धारण से सज्जित किया । बाद में हाथी के स्कंध पर
For Private And Personal Use Only
૨૨૭
वाख्य' सहावेइ ) 'ल' रामने न्यारे या वातनी लय थह त्यारे तेथे पोताना सेनापतिने गोसाव्या ( सदावित्ता एवं वयासी ) मसावीने तेने उधुं -
( खिपामेव० हय गय जात्र सेण्णं सन्नाहेर जाव पच्चादिपणह ) હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે સત્વરે ઘેાડા, હાથી, રથ અને બહાદૂર યાદ્ધાએ વાળી ચતુર'ગિણી સેના તૈયાર કરે અને અમને ખબર આપે. સેનાપતિએ પોતાનું કામ પુરૂ કર્યું, અને રાજાને સૂચના આપી કે હે સ્વામિન્! તમારી આજ્ઞા પ્રમાણે અમે સેના તૈયાર કરી દીધી છે.
( तणं कु भए हाए सन्नद्र हत्थि खंध० सकोरंट० सेयवरचामराहि महया मिहिलं, मज्झ मज्झेणं णिज्जाइ )
ત્યારબાદ કુંભક રાજાએ સ્નાન કર્યું અને પછી પેાતાના શરીરને યુદ્ધના સાધનાથી સુસજ્જ કર્યું. એટલે કે રાજાએ શસ્ત્ર, અન્ન, ડવચ વગેરે ધારણ કર્યાં. તે હાથીની ઉપર સવાર થયા, રાજાને હાથી ઉપર સવાર થયેલા
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्र प्रियमाणेन युक्तः, तथा-उधूयमानः वीज्यमानैः श्वतवरचामरैर्युकः तथा-महा: हयगजरथादियुक्तया चतुरङ्गिण्या सेनया संपरिव्रतः, सर्वर्या संपन्नः तूरीभेर्यादिवाथमहानादेन मिथिलानगर्या मध्यमध्येन ‘णिज्जाइ' निर्याति-निर्गच्छति । निर्याय विदेहजनपदस्य मध्यमध्येन यौव देशान्तः स्वदेशस्य सीमा वर्तते, तवोपागच्छति, उपागत्य ‘खंधावारनिवेसं ' स्कन्धावारनिवेशं स्कन्धावारस्य शिबिरस्य 'छावनी ' इति भाषाप्रसिद्धस्य निवेशं-स्थापन, कुर्वन्ति । कृत्वा स कुम्भको राजा जितशत्रुप्रमुखान् षडपि राज्ञः 'पडिवाले माणे प्रतीक्षमाणः, युद्धसज्जःयुद्धाय सज्जः शस्त्रास्त्रकवचबन्धेन युद्धार्थमुद्यतः सन्प्रतितिष्ठति । ततस्तदनन्तरं 'विराजमान हो गये। उन के बैठते हो। छत्र धारियों ने उन के ऊपर कोरंट पुष्पों की माला से विराजित छत्र धारण किया चभर ढोर ने वालों ने उन के ऊपर श्वत चमर ढोर ना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार महागज, हय, रथादि से युक्त चतुरंगिणी सेना से घिरे हुए अपनी पूर्ण तैयारीके साथ मिथिलो नगरी के बीचसे होकर निकले। (णिगच्छि. त्ता विदेहं जणवयं मज्झं मज्झेणं जेणेव देस अंते तेणेव उवागच्छह ) निकल कर विदेह जनपद के बीच से होकर जहां अपने देश की सीमा थी वहां पहुंचे।
(उवागच्छित्ता खंधावारनिवेसं करेइ ) वहा पहुँच कर उन्होंने वहीं अपनी छावनी स्थापित कर दो-( करित्ता जियसत्तू पामोक्खा छप्पिय रायाणो पडिवालेमाणे जुन्झसज्झे पडिचिट्ठइ ) बादमें जितशत्रु प्रमुख જઈને છત્રધારીઓએ કરંટ પુષ્પની માળાથી શોભતું છત્ર ધર્યું. ચામર ઢળનાર ભુએ ચામર ઢળવાનું શરૂ કર્યું. આ રીતે મહાગજ ય ર વગેરે તેમજ ચિતરંગિણી સેના યુક્ત થઈને પિતાનિ પૂરી તૈયારી સાથે મિથિલા નગરીની વચ્ચેના રાજમાર્ગ ઉપરથી બહાર નીકળ્યા. (णिगच्छित्ता विदेहं जणवयं मज्झं मज्झणं जेणेव देस अंते तेणेव उवागच्छइ )
નીકળીને વિદેહ જનપદની વચ્ચે થઈને જ્યાં પિતાના દેશની હદ હતી ત્યાં પહોંચ્યા. • उवागच्छित्ता खंधावारनिवेस करेइ) त्यां पांयीन तेयामे त्यां सेनानी छी
नामी (करिता जियसत्तू पामोक्खा छप्पिय रायाणो पडिवालेमाणे जुझसज्झे पडिचिट्ठइ) . ત્યારબાદ જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓની પ્રતીક્ષા કરતાં તેઓ ત્યાં જ યુદ્ધને માટે કમ્મર કસીને રોકાયા,
For Private And Personal Use Only
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
गारममृतवर्षिणी टीका अ०८ कुंभककराजयुद्धनिरूपणम्
કહું
खलु ते जितशत्रुममुखाः षडपि राजानो यत्रैव कुम्भकस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य कुम्भकेन राज्ञा सा ' संपलग्गा ' संपलग्नाः - युद्धं कर्तुं प्रवृत्ताचाप्यभवन् । ततस्तदनन्तरं खलु जितशत्रुममुखाः पडपि राजानः कुम्भकं राजानं ' हयमहियपवरवीरघाइयनिविडियचिषद्धयछत्तपडागं । हतमथितमवरवीरघातित-निपतित चिह्नध्वजच्छत्रपताकं - हताः = मारिताः, मथिताः = विलोडिताः - ताडिताः तथा घातिताः घातम् आघातं व्यथां प्राप्ताः प्रवरवीराः = महाभटाः, यस्य स हतमथित प्रवरवीरघातितः, आपत्वाद् घावितशब्दस्य परमयोगः, निपातिताश्चिह्नध्वजपताका यस्य स निपतितचिह्नध्वजछत्रपताकः, ततः कर्मधारयः, तमेवंभूतं नष्टसैन्यsuryara मित्यर्थः ' किच्छप्पाणोवगयं कृच्छ्रमाणोपगतं कृच्छ्रे-कष्टे, माणा
'
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उन छहों राजाओं की प्रतीक्षा करते हुए वे वहीं पर युद्ध के लिये कटिबद्ध होकर ठहरगये । (तणं ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पियरायाणो जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति ) इतने में वे जितशत्रु प्रमुख छहों राजा जहां वे कुंभक राजा पहुँचे हुए थे - वहां आ गये ।
( उवागच्छित्ता कुंभएणं रन्ना सद्धि संपलग्गा यावि होत्था) आते ही उन लोगोंने कुंभकराजा के साथ युद्ध करना प्रारंभ कर दिया । ( तरणं ते जियसत्तू पमोक्खा छप्पि रायाणो कुंभयं रोयं हयमहियपवरवीर घाइयनिवडियचिंधद्वयप्पडागं किच्छप्पाणोवरायं दिसो दिसि पडि से हिंति ) युद्ध में उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने कुंभकराजा के कितनेक वीरों को जान से मार डाला, कितनेक वीरों को बूरी तरह पीटा, और कितनेक वीरों को घायल कर दिया । तथा राजचिह्न रूप ध्वज पताका एव छत्र उसके जमीन पर गिरादिये। इस तरह उसके (तरणं ते जियस पामोक्खा छप्पियरायाणो जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छति ) એટલામાં તેઓ છએ જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાએ જ્યાં કુંભકરાજા હતા ત્યાં પહેાંચ્યા.
( उवागच्छित्ता कुंभणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था ) भने तेथे તરત જ યુદ્ધ શરૂ કરી દીધું.
तणं ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणो कुंभयं रायं हयमहिय पत्ररवीर धाइय निविडिय चिंधड्यपडागं किच्छप्पाणोवगयं दिसोदिसिं पडिसेर्हिति ) યુદ્ધમાં તેએ જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ કુંભક રજાના કેટલાક વીરાને જાનથી મારી નાખ્યા, કેટલાક વીરાને ભયંકર રીતે ટીપી નાખ્યા, અને કેટલા વીરાને જખમી બનાવી દીધા તેમજ રાજ ચિહ્ન રૂપ ધ્વજ
For Private And Personal Use Only
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ધૃત
शाताधर्मकथासूत्रे
उपगता यस्य स कृच्छ्रमाणोपगतस्तं प्राणसंकटापन्नम् ' दिशः दिशं ' = एकस्या दिश:- अपरां दिशं -' पडिसेहेंति ' प्रतिषेधयंति - निवारयन्ति ततस्तदनन्तरं खलु स कुम्भको राजा जितशत्रुप्रमुखैः षड्भीराजभिर्हतमथित- यावत् प्रवरवीरघातित चिह्नध्वजछत्रपताकः कृच्छप्राणोपगतः प्रतिषिद्धः सन् अस्थामा = आत्मबलरहितः, अबल: = सैन्यरहितः अत एव ' अवोरिए ' - अवीर्यः = उत्साहरहितः । यावत्'आधारणिज्जं' अधारणीयम् - आत्माधार्यते स्थाप्यते यत्र तद् धारणीयं, न धारणीयमिति विग्रहः, अधारणीयं परबलम् - अत्र शत्रुसैन्ये ममात्मधारणमशक्त्रमित्यर्थः । इतिकृत्वा - एवं विचार्य, शीघ्रं स्वरितं यावत् चलितं वेगितं यत्रैव मिथिला तत्रैवोप्राण बहुत अधिक संकट में पड़ गये । वह वहां से दूसरी तरफ भागना भी चाहता था तो भी उन्हों ने उसे दूसरी ओर भागने नहीं दिया । (तएण से कुंभए जियसत्त पामाक्खेहिं छहिं राहहिं हयमहित० जांब पडिसेहिए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए जाव आधारणिजमित्तिकड सिग्धं तुरियं जाव वेइयं जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छद्द) इस तरह जितशत्र आदि छहों राजाओ से हत मथित तथा धातित प्रवरवीर वाला और निपातित चिह्न ध्वज पताका वाला वह कुंभक राजा जब संकट युक्त प्राणवाला बन गया और युद्धभूमि से दूसरी और भागने के लिये असमर्थ हो गया तब आत्मबल और सैन्यबल से रहित बना हुआ वह उत्साह रहित हो गया । एवं परबल को अजेय मान कर वहां से शीघ्र ही त्वरा युक्त, वेगयुक्त चाल से जहां मिथिला नगर थी
उस तरफ आया ।
પતાકા-અને છત્રને જમીન ઉપર નાખી દીધાં. આ રીતે તેના પ્રાણ આફતમાં ફસાઈ ગયા. ત્યાંથી તે બીજી તરફ નાસી જવાની તૈયારી કરતા હત! ત્યારે જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાએએ તેને નાસી જવા દીધેા નહિ.
(तरण से कुंभए जियसत्तू पामोक्खेहिं छहिं राईहिं हयमहित० जाव पडि सेहिए समाणे अत्थामे अवले अवीरिए जाव आधारणिज्जमित्ति कट्टु सिग्धं तुरियं जात्र वेइयं जेणेव महिला तेणेत्र उवागच्छर )
આ રીતે જીતશત્રુ વગેરે છએ રાજાએથી હત, મથિત તેમજ ઘાતિત સૈદ્ધાઓવાળા અને નિાતિત ચિહ્ન ધ્વજા પતાકાવાળા તે કુ ંભક રાજાના પ્રાણ પણ જ્યારે આફતમાં ફસાઈ ગયા અને રણભૂમિમાંથી નાસી જવાની પણ તક ગુમાવી બેઠા ત્યારે આત્મબળ અને સૈન્યબળ વગર અનેલા તેએ સાવ નિરૂસાહી થઇ ગયા. આખરે તેએએ શત્રુપક્ષને અજેય સમજીને એકદમ જલ્દી વેગયુક્ત ઝડપભેર ચાલથી જ્યાં મિથિલા નગરી હતી તે તરફ રવાના થયા.
For Private And Personal Use Only
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ मिथिलानिरोधवर्णनम् ४७१ पागच्छति उपागत्य मिथिलामनुप्रविशति, अनुमविश्य मिथिलाया द्वाराणि 'पिहेइ' पिदधाति आवृणोति । पिधाय 'रोहसज्जे ' रोधसज्जः रोधेन शत्रुभयात् गमनागमनमार्गमवरुध्य सज्जः=रक्षां कुर्वन् तिष्ठति ॥ सू० ३३ ॥
मूलम्-तएणं ते जियसत्तूपामोक्खा छप्पिरायाणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता मिहिलं रायहाणि णिस्संचारं णिरुच्चारं सव्वओ समंता ओरंभित्ताणं चिट्ठति, तएणं से कुंभए राया मिहिलं रायहाणिं रुद्धं जाणित्ता अब्भंतरियाए उवट्टाणसालाए सीहासणवरगए तेसि जियसत्तूपामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणिय छिद्दाणिय विरहाणियमम्माणि य अलभमाणे बहूहिआएहि य उवाएहिं य उप्पत्तियाहि य वेणइया एहि य कम्मयाहि य परिणामियाहि य बुद्धीहिं परिणामेमाणे२ किंचि आयं वा उवायं वा अलभमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झिया, यह । इमं च णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना बहाया जाव बहहिं खुज्जाहिं संपरिवुडा जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुंभगस्स पायग्गहणं करेइ । तएणं कुंभए मल्लिं विदेहरायवरकन्नं णो आढाई नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ । तएणं ___ वहां आते ही वह मिथिला नगरी में प्रविष्ट हो गया । (अणुपविसित्ता मिहिलाए दुवाराई पिहेह, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठइ) प्रविष्ट होकर उसने मिथिला के द्वारों को बंद करवा दिया और शत्रु के भय से आने जाने के मार्ग को रोक कर अपनी रक्षा करने में तल्लीन हो गया ॥ सूत्र ३३ ॥
ત્યાં આવતાં જ મિથિલા નગરીમાં તેઓ પ્રવિષ્ટ થયા (अणुपविसित्ता मिहिलाए दुवाराई पिहेइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठइ)
પ્રવેશીને તેમણે મિથિલાના દરવાજાઓને બંધ કરાવી દીધા અને શત્રુની બીકથી આવવા જવાના માર્ગોને પણ રોકીને પોતાની રક્ષા માટે તેઓ તત્પર थ६ गया. ॥ सूत्र " ३३"
For Private And Personal Use Only
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४१२
हाताधर्मकथागस
मल्ली विदेहरायवरकन्नाकुभगं एवं वयासी-तुब्भेणं ताओ अण्णदा मम एज्जमाणं जाव निवसेह, किण्णं तुब्भं अज्ज ओहय मण संकप्पे जाव झियायह?, तएणं कुंभए मल्लिं विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता तव कज्जे जियसत्तूप्पमुखहिंछहिं राईहिं दूया संपेसिया, तेणं मए असकारिया जाव निच्छुढा, तएणं ते जियसनपामोक्खा तेसिं दूयाणं अंतिए एयम सोच्चा परिकुविया समाणा मिहिलं रायहाणिं निस्संचारं जाव चिट्ठति । तएणं अहं पुत्ता तेसिं जियसत्तपामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणि४ अलभमाणे जाव झियामि, तएणं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुंभयं रायं एवं वयासी-माणं तुम्भं ताओ ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह, तुब्भेणं ताओ तेसिं जियसत्तूपामोक्खाणं छण्हं राईणं पत्तेयं रहसियं दूयसंपेसे करेह, एगमेगं एवं वदह-तव देमि मल्लिं विदेहरायवरकण्णं तिकट्ट संझाकालसमयंसि पविरलमणुसांस निसंतंसि पत्तेयं २ मिहिलं रायहाणि अणुप्पवेसेह अणुप्पवेसित्ता गन्भघरएसु अणुप्पवेसेह, मिहिलाए रायहाणीए दुवाराइं पिहेह, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठह, तएणं कुंभए एवं० तं चेव जाव पवेसेह, रोहसज्जे चिट्टइ ॥ सू० ३४ ॥
टोका- 'तएणं ते ' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु जियशत्रुप्रमुखाः षडपि राजानो यौव मिथिला नगरी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य मिथिलां राजधानी
'तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा' इत्यादि ॥ टोकार्थ-(तएणं) इसके बाद (जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणो जेणेव
(तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा ) इत्यादि
टीकार्थ-(तएणं ) त्या२ मा (जियसत्त पामोक्स्वा छप्पिरायाणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति )
For Private And Personal Use Only
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवषिणो टीका अ०८ मिथिलानिरोधवर्णनम् 'णिरसंचारं' निः संचारं यथा जनानां प्रवेशनिर्गमरूपः संचारस्तत्र न स्यात् तथा; 'णिरुच्चारं ' निरुच्चारं-उन-उर्ध्व चरण-माकारस्योपरिभागेन गमनागमनरूपं जनानां यथा न भवेत् तथा, इदं दूयं क्रिया विशेषणं यद्वा-निरुच्चारम्-उच्चार। पुरीषं तद्विसर्थ यज्जनानां वहिर्गमनं तद्रहितं यथा स्यात् तथा, सर्वतः सर्वदिक्षु-समन्तात् सर्वविदिक्षु ' ओलंभित्ताणं ' अवरुध्य वेष्टयित्वा तिष्ठन्तिस्म । .. ततस्तदन्तरं खलु स कुम्भको राना मिथिलां राजधानीमवरुद्धां ज्ञात्वा 'अभंतरियाए ' आभ्यन्तरिकायाम् = अभ्यन्तरवर्तिन्याम् उपस्थानशालायामूआस्थानमण्डपे सभास्थान इत्यर्थः, सिंहासनवरगत:-राज्ञः प्रधानासनसमुपविष्टः, तेषां जितशत्रुप्रमुखाणां षण्णां राज्ञाम् अन्तराणि-अवसराणि, छिद्राणि-दूषणानि, विवरान् एकान्तान्, मर्माणि गुप्तदोपान् अत्र चकारो वाक्यालङ्कारपरः, अलममिहिला-तेणेव उवागच्छंति ) जितशत्रु प्रमुख वे छहों राजा जिस तरफ मिथिला नगरी थी उस ओर बढे ( उवागच्छित्ता मिहिलं रायहाणि णिसंचारं णिसंच्चारं सवओं समंता ओरंभित्ताणं चिट्ठति ) वहां आकर उन्हों ने उस मिथिला राजधानीको सघ ओरसे घेर लिया-इससे मनुष्योंका आना जाना रुक गया-यहां तक हो गया कि कोई भी व्यक्ति कारण सर भी बाहर नहीं निकल सका (तएणं से कुंमए राया मिहिलं रायहार्णि रुद्रं जाणित्ता अब्भतरियाए उवट्टाणसालाए सीहासंणवरगए) इस के अनन्तर कुंभक राजा ने अपनी राजधानी मिथिला नगरी को शत्रुओं द्वारा रुद्ध जाना-तय किले की भीतर रहे हुए सभामंडप में स्थित सिंहासन पर बैठकर वह (तेसिं जियसत्तू पामीक्खाणं छण्हं राईण अंतराणि छिद्दाणि य विरहाणि य मम्माणि य अलभमाणे) उन જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજઓ મિથિલા નગરી તરફ વધ્યા.
(उवागच्छित्ता मिहिलं रायहाणि णिस्संचारं णिसंचार सबओ समंता ओसंमित्ताणं चिट्ठति )
ત્યાં મિથિલા નગરીની પાસે આવીને ચોમેર તેઓએ ઘેરો નાખ્યો. આ રીતે માણસની અવર જવર સદંતર બંધ થઈ ગઈ.
तएण से कुंभए गया मिहिलं रायहाणि रुद्धं जाणित्ता अन्भंतरियाए उवहोणसालाए, सीहासणवरगए ) । ત્યારબાદ જયારે કુંભક રાજાએ પોતાની રાજધાની મિથિલા નગરીને શત્રુઓ વડે ઘેરાએલી જોઈ ત્યારે તેઓ કિલ્લાની અંદર સભાખંડમાં સિંહાસન ઉપર બેસીને
( तेसि जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणि छिद्दाणि य विरहाणि य मम्माणि य अलभमाणे)
पा ६०
For Private And Personal Use Only
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१७४
खाताधर्मकथागसूत्रे मानः अप्राप्नुवन् , बहुभिः=ः, आयैः इष्टसिद्धिउपायैः-साधनैश्च ' उप्पत्तियाहि' औत्पत्तिकाभिः स्वाभाविकीभिः-शास्त्राभ्यासेन पिनेव समुत्पन्नाभिरित्यर्थः, 'वेणइयाहि ' वैनयिकीभिा-विनयतः प्राप्ताभिः, ' कम्मयाहि' कामिकाभिः अभ्यास लब्धाभिश्च अत्रापि चकारा वाक्यालङ्कार बोधकाः, बुद्धिभिः 'परिणामेमाणे २' परिणमयन् परिणमनकुर्वन्-अमात्यैः सह विचारयन्नित्यर्थः, कमपि आयं वा उपायं वा अलभमानः 'ओहयमणसंकप्पे ' अपहतमनः संकल्या विध्वस्तमनोरथः सन् यावत् — झियायइ ' ध्यायति आर्तध्यानं कुर्वन्नास्तेस्म । जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं के अवसरों को, दूषणों को विवरों को.... ....एवं गुप्तदोषों को देखने की ताक में रहने लगा-परन्तु जब अपने इन शत्रुओं के उसे अवसर दूषण आदि देखने में नहीं आये तब उसने पहूहि, आयेहिं य, उवाएहिं य, उप्पत्तियाहिं य, वेणइयाहि य, कम्मयाहि य परिणामियाहि य बुद्धीहिं परिणामेमाणे २) अनेकविध इष्ट सिद्धिकारक उपायों से उन्हें परास्त करने की बात सोची तथा औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं परिणामि की बुद्धियों से मंत्रियों के साथ बैठकर बार २ इस बात का विचार भी किया परन्तु इस स्थिति में उसे (किं चि आयं वा उवायं वा अलभमाणे) जब इष्ट सिद्धिकारक कोई भी उपाय नजर नहीं आया तब वह (ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ) अपहत मनः संकल्प होकर अर्तध्यान करने लग गया
જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓના અવસરોને, દૂષણેને, વિવરને અને ગધ દેને જોવા માટે લાગ જોતા બેસી રહ્યા. પણ જ્યારે આ કામમાં પણ તે સફળ થઈ શક્યા નહિ એટલે કે શત્રુ પક્ષના દૂષણે વગેરે તે જાણી શક્યા નહિ ત્યારે તેમણે
(बहूहि, आएहिं य उवाएहिं य उप्पत्तियाहिय, वेणइयाहिय, कम्मयाहिय, परिणामियाहिय, बुद्धीहिं परिणामे माणे २)
જાતજાતના ઈષ્ટ સિદ્ધિ કરનારા ઉપાયથી તેઓને હરાવવાની વાત ઉપર વિચાર કર્યો, તેમજ ઔત્પાતિકી, વિનચિકી, કાર્મિક અને પરિણામિક બુદ્ધિએથી મંત્રીઓની સાથે બેસીને વારંવાર આ સમસ્યા ઉપર મંત્રણ પણ ४१ ५५५ मेवी भी२ तभी तमान (किं चि आय वा उपाय वा अलभमाणे ... न्यारेट सिद्धि माटेने। ७ ५] Bायणाय नहि त्यारे (ओहयमण संकप्पे जाव झियायइ) भी इन आत ध्यान ३२१. सा.
For Private And Personal Use Only
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
गोरधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ मिथिलानिरोधवर्णनम्
४७५
' इमं च णं' अस्मिन् काले खलु, अत्रार्षत्वात्सप्तम्यर्थे द्वितीया मल्ली विदे हराजवरकन्या स्नाता यावद् बह्वीभिः ' खुज्जाहिं ' कुब्जाभिः = वक्रसंस्थानाभि दसीभिः संपरिवृता यत्र कुम्भको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य राज्ञः पादग्रहणं - चरणस्पर्शपूर्वकं नमनं करोति । ततस्तदनन्तरं खलु कुम्भको राजा मल्लीं विदेहराजवरकन्यां ' णो आढाइ ' नो आद्रियते नो परिजानाति, ' मल्ली समागता ' इत्यपि न जानाति तूष्णीकः मौनभावसहितः संतिष्ठतेस्म । ततस्तदन्तरं दुःखित होने लगा (इमं च णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना, व्हाया जाव बहूहिं खुज्जाहिं संपरिवडा जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छह ) इसी समय विदेह राजवरकन्या मल्ली कुमारी स्नान कर वस्त्राभरणों से अलंकृत शरीर होकर अनेक वक्र संस्थान वाली दासियोंके साथ जहाँ कुंभकराजा थे वहां आई । (उवागच्छित्ता कुंभगस्स पायग्गहण करेइ ) आकर उसने अपने पिता कुंभक राजा के चरणों में नमे ( तरणं कुंभए मल्लि विदेहरायवरकन्नं णो आढाइ णो परियाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठा) परन्तु व्यग्रचित्त होने से विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी का कुंभक राजा ने कोई आदर नही किया और उसे इस बातका ही पता चला कि मल्लीकुमारी आई है । केवल वह मौन भाव धारण किये हुए चुपचाप बैठा रहा (तएणं मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुंभगं एवं वयासी ) पिता की इस परिस्थिति
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( इमं चणं मल्ली विदेहरायवरकन्ना व्हाया जावबहूहिं खुज्जाहिं संपरि बुडा जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ )
આ અરસામાં વિદેહરાજવર કન્યા મલ્ટીકુમારીએ સ્નાન કયું. અને ત્યાર પછી વસ્ત્રો, આભરણે તેમજ અલકારોથી અલંકૃત થઈને ઘણી વક્ર સંસ્થાનવાળી દાસીએની સાથે કુંભક રાજાની પાસે ગઈ.
( उवागच्छित्ता कुंभगस्स पायग्गहण करेइ ) मने त्यां भ्ाने तेथे पोताना પિતા કુંભક રાજાના ચરણેામાં નમન કર્યું.
( तरणं कुंभ मल्लिं विदेहरायवरकन्नं णो आढाइ, णो परियाणा, तुसिणीए संचिवइ )
વ્યાકુળ ચિત્તવાળા કુંભક રાજાએ આદર કર્યો નહિ. કે સત્કાર કર્યો નહિં થયું કે મલ્લીકુમારી આવી છે.
વિદેહરાજવર કન્યા મલ્ટીકુમારીને રાજાને તે માત્ર આટલું જ ભાન
રાજા साव भूगा थाने मेसी ४ २ह्या. ( तपणं मल्ली विदेहरायवर कन्ना कुंभ एवं वयासी) पितानी भावी डास लेने विदेशवर इन्या મલ્ટીકુમારીએ તેમને પૂછ્યું કે
For Private And Personal Use Only
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
E
शाताधर्मकथासूत्र मल्ली विदेहरानवरकन्या कुम्भ राजानमेवं वक्ष्यमागप्रकारेण, अब हो-हे तात! यूयं खलु अन्यदा अन्यस्मिन् समये माम् ' एज्जमाणं ' एजमानाम् आगच्छन्ती यावत् -दृष्ट्वा, आदियधे, परिजानीय, उत्सङ्गे निवेसेह ' निवेशयथ, किं-केन कारणेन खलु यूयमद्योपहतमनः संकल्पो यावत्-ध्यायथ आर्तध्यानं कुरुथ ? ततः
मल्लीवचनश्रवणानन्तरं कुम्भको राजा मल्ली विदेहराजवरकन्यामेवमवादीहे पुत्रि ! एवं खलु तव कार्ये विवाहरूपं कार्य निमित्तीकृत्यर्थः, जितशत्रप्रमुखैः षड्भीराजभिताः संप्रेषिताः, ते खलु मया 'असकारिया' असत्कृताः अनादृता को देखकर उस विदेहवरराजकन्या मल्लिकुमारी ने उन से पूछा-(तुम्मे गं ताओ अण्णया ममं एज्जमाणं जाव निवेसेह, किण्ण तुम्भ अज्जे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायह ) हे तात ! पहिले जब कभी आप मुझे आती हुई देखते थे तो उस समय मेरा आदर करते थे-मुझे जानलेते थे, और अपनी गोद में बैठा लेते थे-परन्तु आज क्या कारण है जो आप अपहतमनः संकल्प होकर चिन्ताग्रस्त बैठे हुए है।
(तएणं कुंभए मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं क्यासी) इस प्रकार सुन कर राजाने अपनी विदेह राजवर कन्या मल्लोकुमारी से कहा( एवं खलुपुत्ता। तब कज्जे जिय सत्तूप्पमुखेहिं छहिं राई हिं दूया संपे सिया तेणं मए असक्कारिया जाव निच्छूडा, तएणं ते जियसत्तू पामो. क्खा तेसि दयाणं अंतिए एयमढे सोच्चा परिकुविधा- समाणा मिहिलं रायहाणिं निस्संचारं जाव चिट्ठति ) हे पुत्रि! तुम्हारे साथ वैवाहिक
( तुब्भे णं ताओ अण्णया ममं एज्जमाणं जाव निवेसेह किणं तुभं अज्जे ओहयमण संकप्पे जाव झियायह
હે પિતા! પહેલાં ગમે ત્યારે મને આવી જતા ત્યારે મારો તમે આદર કરતા હતા, મને જાણી લેતા હતા અને મને પોતાના ખેળામાં બેસાડતા હતા પણ આજે શું કારણ છે કે તમે ઉદાસ થઈને આર્તધ્યાનમાં બેઠા છે, ( तरण कुंभएमल्लि विदेहरायवरकन्न एवं बयासी) मा रीते राग वि. રાજવર કન્યાની વાત સાંભળીને તેણે કહ્યું કે –
(एवं खलु पुत्ता तब कज्जे जियसत्तूप्पमुखें हिं छहिं राईहिं दूया संपेसिया,तेणे मए असक्कारिया जाव निच्छुढा, तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा तेसिं याणं अंतिए एयमढे सोच्चा परिकुत्रिया समाणा मिहिलं रायहाणि निस्संचारं जाव चिहति)
For Private And Personal Use Only
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ८ मिथिलानिरोधवर्णनम् यावत्-असमानिता अपद्वारेण 'निच्छूढा' निक्षिप्ताः-निः सारिताः । ततः खलु ते जितशत्रुप्रमुखास्तेषां दूतानामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा 'परिकुत्रिया' परिकुपिता। =अतिशयेन क्रोधाविष्टाः 'समाणा' सन्तः, मिथिला राजधानी निःसंचार यावत्-निरुच्चारं सर्वतः समन्तादवरुध्य 'चिट्ठति' तिष्ठन्ति । ततस्तस्मात् कारणात् खल्लहं हे पुत्रि! तेषां जितशत्रु प्रमुखाणां षण्णां राज्ञां अन्तराणि४ अलभमानो यावद् बहुभिरायैरुपायैरौत्पत्तिक्यादिबुद्धिभिश्च परिणमयन कमप्यायमुपायं वा अलभमान अपहतमनः संकल्पः सन् 'झियामि' ध्यायामि-आर्तध्यानं करोमि । सबन्ध जोडने के लिये जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओंने अपने २ दूत मेरे पास भेजे थे
मैंने उनके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और उनके उन दूतोंको अनाहत एवं असंमानित कर महल के पीछे के दरवाजे से बाहिर निक लवा दिया उन दूतों से जब इन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने इस परिस्थिति को सुना तो वे बहुत अधिक कुपित हुए। और इसी लीये उन्हों ने अब मिथिला राजधानी को सब तरफ घेर लिया है । जिस का परिणाम यह हुआ कि लोगों का आना रुक गया और वह कारणवश बाहिर नही आती जाती है । (तएणं अहं पुत्ता तेसि जियसत्तू पामो. क्खाणं छण्हं राईणं अतराणिं ४ अलभमाणं जाव झियामि ) इसलिये हे पुत्रि ! मैं अभी तक उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं के अन्तर आदि को-अवसर आदि को देखने की ताकमें रहा आया-परन्तु मुझे उसका
હે પુષ્યિ! જિતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ તમારી સાથે લગ્ન કરવાના વિચારથી મારી પાસે તે નેકલ્યા હતા.
મેં તેમના પ્રસ્તાવને સ્વીકાર્યો નહિ અને તેમના દતેને અનાદર અને અસંમાન કરીને મહેલના પાછળના નાના બારણેથી તેઓને બહાર કઢાવી મૂક્યા. પિતાના ફતેની પાસેથી આ બધી વિગત જાણુને જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓ ખૂબ જ ગુસ્સે થયા, અને હવે તેઓએ મિથિલા નગરીને ચારે બાજુથી ઘેરી લીધી છે. તેના પરિણામે લેકની અવર જવર બંધ થઈ ગઈ છે. કેઈપણ કારણસર લોકો બહાર જઈ શક્તા નથી એવી ભયંકર પરિસ્થિતિ
ली छे. (तएणं अह पुत्ता तेसिं जियसत्तू पामोक्खाण छण्हं राईण अंतराणि अलभमाणे जाव झियामि)
એટલા માટે હે પુત્રિ ! હજી સુધી પણ હું જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓના અન્તર વગેરેને એટલે કે અવસર વગેરેની લાગમાં રહ્યો પણ મને
For Private And Personal Use Only
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
४७८
शांताधर्मकथासूत्रे
ततस्तदनन्तरं खलु सा मल्ली विदेहराजवरकन्या कुम्भकं राजानम् एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - हे तात ! यूयं खलु मा अपहृतमनः संकल्पो यावत्ध्यायथ, हे तात ! यूयं खलु तेषां जितशत्रुममुखाणां षण्णां राज्ञां प्रत्येकं रहसि दूतसंप्रेषणं कुरुत, एकैकं प्रत्येवं वदत - ' तव तुभ्यं दास्यामि मल्लीं विदेहराजवरकन्याम् ' इति कृत्वा = इत्युक्त्वा, सन्ध्याकालसमये - सूर्येऽस्तंगते सति 'पविरलमणूसंसि ' प्रविरलमनुष्ये मार्गादौ काचिद् क्वचिद् प्रविरला अल्पा मनुष्या यत्र स तथा तस्मिन्, रात्रिसद्भावे सतोत्यर्थः तथा निशान्ते=जन कलकले ध्वनिर्जिते, कोई भी छिद्र आदि नहीं मिल रहा है। मैंने अनेक विध उपायों से उन्हें परास्त करने का विचार भी किया - औत्पत्ति की आदि बुद्धियों से सचिवों के साथ उन्हें वश करने की मंत्रणा भी की परन्तु मुझे कछ भी उपाय इन्हें वश यो परास्त करने का नजर नहीं आ रहा है-अतः अपहृतमनः संकल्प वाला बना हुआ मैं इस समय चिन्ताग्रस्त हो रहा हूँ । (तएणं सा मल्ली विदेहरायवर कन्ना कुंभयं रायं एवं वयासी) इस प्रकार अपने पिता कुंभक राजा की बात सुनकर उस विदेहराजवर कन्या ने उन से कहा - ( माणं तुभे ताओ ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह) हे तात ! आप अपहृत मनः संकल्प होकर यावत् चिन्तित न बने मैं इस विषय में आपको उपाय बतलाती हूँ (तुम्भेणं ताओ तेसिं जिय सत्तू पामोक्खाणं छह त्यागं पत्तेयं रहसियं दूय संपेसे करेह ) हे पिताजी ! वह उपाय यह है कि आप उन जितशत्रु प्रमुख राजाओं में से प्रत्येक राजा के पास एकान्त में अपना दूत અત્યાર સુધી તેમનું એક પશુ છિદ્ર ( ખામી ) ની જાણ થઈ શકી નહિ. ઘણા ઉપાયાથી તેમને હરાવવાના વિચારો પશુ મેં કર્યો છે, ઔત્પત્તિકી વગેરે બુદ્ધિએથી મંત્રીએની સાથે વિચારણા પણ કરી છે પણુ મને તેને સ્વાધીન મનાવવા કે હરાવવા માટેના કોઈ એક પણ ઉપાય જણાતા નથી. એથી અપહતમન: સંકલ્પવાળા હું આધ્યાનમાં તલ્લીન થઇને બેઠો છું. ( સર્વાં सा मल्ली विदेहरायवर कन्ना कुंभय राय एवं व्यासी) मा રીતે પેાતાના પિતા કુંભક રાજાની વાત સાંભળીને વિદેહરાજવર કન્યાએ તેમને કહ્યું કે( मा णं तुब्भे ताओ ! ओहयमणसं कंपा जोव झियायह ) डे તાત ! અત્યારે તમે ચિંતામગ્ન છે. એટલે તેને દૂર કરવા માટે હું એક ઉપાય બતાવું છું. (तुब्भेण ताओ तेसिं जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हें रायाणं पत्तेय रहसिय दूयस पेसे करेह ) हे पिता ! तुभे शत्रु प्रमुख शब्नमे।भांधी हरे राजनी પાસે એકાંતમાં પેાતાના દૂત માલે.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० ८ मिथिलानिरोधवर्णनम्
४५९ पति निशान्ते जनानां निद्रोपगतत्वेन सर्वथा जनध्वनिसंचाररहिते यस्मिन् काले कोऽपि मार्गे दूतं न पश्येदिति भावः, प्रत्येकं मिथिला राजधानीमनुप्रवेशयत, अनुप्रवेश्य गर्भगृहेषु अभ्यन्तरवर्तिभवनेषु अनुप्रवेशयत, तत्तो मिथिलाया राज. धान्या द्वाराणि पिधत्त, आच्छादयत पिधाय रोधसज्जा-रोधेन प्रतिरोधेनाऽऽत्मरक्षां कुर्वन् तिष्ठत । ततः=मल्लीवाक्यश्रवणानन्तरं खलु कुम्भको राजा मल्ल्या भेजिये ( एगमेगं एवं यदह-तव देमि मल्लिं विदेहरायवरकण्णं त्तिकटु संझाकालममयंसि पविरल मणूसंमि निसंतसिं पडि निसंतंसि पत्तेयं २ मिहिलं रायहाणिं अणुप्पवेसेह) वह दूत जाकर उन प्रत्येक से ऐसाकहे कि हम अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी तुम्हें देंगें। ऐसा कहकर ( दूतों से कहलवा कर ) फिर उन राजाओं में से प्रत्येक राजा को आप ऐसे संध्याकाल के समय में-जब कि सूर्य बिलकुल अस्त हो गया हो-रात्रि का समय आ गया-हो मार्ग में भी कहीं कहीं पर ही थोड़े से मनुष्य का संचार हो रहा हो-मकान भी मनुष्यों की कल कल ध्वनि से रहित हो चुके हों-सबों के निद्राधीन बन जाने से जिन में से जन ध्वनि बिलकुल ही नहीं प्रकट हो रही हो अपनी मिथिला नगरी में घुलवाई ये-उन्हें प्रवेश कराईये (अणुप्पवेसित्ता गम्भघरएस्सु अणुप्पवेसेह, मिहिलाए रायहाणीए दुवाराई पिहेह पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठह तएणं कुंभए एवंतं चेव जाव पवे सेह, रोहसज्जे चिट्ठह ) प्रवेश करवा कर उन्हें आप गर्भ गृहों में-ठहरा दीजिये । (एगमेगं एवं वदह तब देभि मल्लि विदेहरायवरकण्णं तिकटु संझाकाल समयसि पविरलमणूसंसि निसंतसिं पडिनिसंतसि पत्तेयं २ मिहिलं रायहागि अणुप्पवेसेह ) તે દૂત તેમની પાસે જઈને દરેકને આ પ્રમાણે કહે કે અમારી કન્યા વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારી તમને આપીશું. આ પ્રમાણે દૂત વડે દરેકની પાસે સંદેશ મોકલીને તે રાજાઓમાંથી દરેકને તમે સંધ્યાકાળના સમયે જ્યારે સુરજ બરોબર અસ્ત થઈ ગયે હાય, રાત્રિનો વખત થઈ ગઈ હોય, માર્ગમાં બહુ જ થોડા માણસની અવર જવર થવા માંડી હોય, માણસના ઘોંઘાટથી ઘરે પણ જ્યારે શાંત થઈ ગયા હોય ત્યારે મિથિલા નગરીમાં બોલાવે.
( अणुप्पवेसित्ता गब्भघरएसु अणुप्पवेसेह, मिहिलाए रायहाणीए. दुवाराई पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठह तएणं कुंभए एवं० तं चेव जाव पवेसेह, रोहसज्जे चिट्ठइ) બેલાવીને તેઓને તમે ગર્ભગૃહમાં રોકે,
For Private And Personal Use Only
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५८०
हाताधर्मकथास
विदेहराजवरकन्याया एवम् उक्त प्रकारेणोक्तः सन् तदेव-तथैव कृत्वा यावत्मितशत्रुममुखान् षडपि राज्ञः प्रवेशयति, प्रोश्य रोधसज्जस्तिष्ठति ॥मू०३४॥
मूलम्-तएणं ते जियसत्तूपामोक्खा छप्पियरायाणो कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जलंते सूरिए जालंतरेहिं कणगमयं मत्थयाछिड्डे पउमुप्पलपिहाणं पडिमं पासइ, एसणं मल्ली विदेहरायवरकण्णत्तिकद्द मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए रूवे य जोवणे व लावण्णे य मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा अणिमिसाए दिट्टीए पेहमाणा२ चिट्ठति ।
तएणं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना पहाया जाव सव्वालंकारविभूसिया बहहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए जेणेव कणयपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ तं पउमं उवणेइ, तएणं गंधे णिद्धावइ, से जहानामए अहिमडेति वा जाव असुभतराए
चेव । तएणं ते जियसनूपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभि___ बाद में मिथिला राजधानी के द्वारों को बन्द करवा दीजिये । इस प्रकार उन्हें यहां रोक कर आप अपनी आत्म रक्षा करिये । मल्ली कुमारी के इन वचनों को सुनने के बाद कुंभक राजा ने विदेह राजवर कन्या उस अपनी पुत्री मल्लीकुमारी के कहे अनुसार वैसा ही किया । अर्थात् दतों द्वारा उन सब को अपने यहां बुलवा लिया एवं उन्हें तल घरों में ठहरा दिया । सूत्र " ३४"
ત્યાર પછી મિથિલા રાજધાનીને દરવાજા બંધ કરાવડાવી દે, આ રીતે તેઓને અહીં બંધ કરીને તમે આત્મરક્ષા કરે. વિદેહરાજવર કન્યા મલ્લીકુમારીના વચને સાંભળીને કુંભક રાજાએ તેણીએ કહ્યું તે મુજબ જ કર્યું. એટલે કે તે વડે તે બધાને પિતાને ત્યાં બોલાવી લીધા અને ગર્ભગૃહમાં तमान शही सीधा. ॥ सूत्र “ ३४ " ॥
For Private And Personal Use Only
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
કી
अनगारधर्मामृतवर्षिण टी० अ० ८ कनकमयपु लिस्वरूपनिरूपणम् भूया समाणा सएहिं २ उत्तरिजएहिं णासाई पिति, पिहित्ता परम्मुहा चिट्ठति, तएणंसा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसतृप्पामोक्खे एवं वयासी - किष्णं तुब्भं देवाणुपिया ! सरहिं२ उत्तरिज्जेहिं जाव परम्मुहा चिट्ठह ?, तएणं ते जियसत्तूपामोक्खा मल्ली विदेहरायवरकन्नं एवं वयंति - एवं खलु देवाणु - प्पिए ! अम्हे इमेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सपरि जाव चिट्ठामो ।
तणं मल्ली विदेहरायकन्ना ते जियसत्तूपामोक्खे एवं वयासी - जइ ता देवाणुपिया ! इमीसे कणग० जाव पडिमाए कल्ला कल्लि ताओ मणुण्णाओ असण पाण खाइमसाइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे २ इमेयारूवे असुभे पोग्गल परिणामें इम्मस्स पुण ओरालिय सरीरस्स खेलासवस्स वंतासव्वस्स पित्तासवस्त सुक्क सोणिय प्रयासवस्स दुरूव ऊसासनीसासस्स दुरूवमुत्तइयपुरिसपुण्णस्स सडणापडण विद्धंसणधम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सइ ?, तं मा णं तुब्भे देवाणुपिया ! माणुस्स एसु कामभोगेषु सजह रज्जह गिज्झह मुज्झह अज्झोववज्जह, एवं खलु देवाप्पिया ! तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावइंसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महबलपामोक्खा सत्तवि य बालवयंसया रायाणी होत्था, सहजाया जाव पव्वइया, तरणं अहं देवाणुप्पिया ! इमेणं कारणेणं इत्थीना मगोयं कम्मं निव्वत्तेमि जइणं तुब्भं चोत्थं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, तरणं अहं छद्धं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि,
शा: ६१
For Private And Personal Use Only
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्म थासूचे सेसं तहेव सव्वं, तएणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! कालमासे कालं किच्चा जयंते विमाणे उववण्णा, तत्थं णं तुब्भे देसूणाई बत्तीसाइं सागरोवमाइं ठिई, तएणं तुब्भं ताओ देवलोयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबूद्दीवेजाव साइं२ रजाइं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, तएणं अहं देवाणुप्पिया! ताओ देवलोयाओ आउ. क्खएणं जाव दारियत्ताए पञ्चायाया।
किं थ तयं पम्हटुं जं थ तया भो जयंत पवरांम । वुत्था समयं निबद्धं देवा ! तं संभरह जाइ ॥सू०३५॥ टीका-'तएणं ते' इत्यादि । ततस्तदनन्तर खलु ते जितशत्रुप्रमुखाः षडपि राजानः कल्ये-द्वितीयदिवसे पाउप्पभायाए' पादुः प्रभातायां प्रादुर्भूतः संजातः, प्रभातः-प्रातः कालो यस्याः सा प्रादुः प्रभाता तस्याम् अवसानं प्राप्ता. यामित्यर्थः रजन्यां-रात्रौ, ' जलंते सुरिए ' ज्वलति-उदिते सूर्ये, सुवर्णनिर्मितां मस्तकछिद्रां-मस्तकोपरिभागे छिद्रयुक्तां 'पउमुप्पलपिहाणं' पद्मोत्पलपिधाना= छिद्रोपरि कमलाच्छादनयुक्तां, प्रतिमां-प्रतिकृतिं पश्यन्ति, दृष्ट्वा, ' एषा-खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या वर्तते ' इति कृत्वा इतिज्ञात्वा, मल्ल्या विदेहराजवर... तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पियगयाणो कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जलंते सूरिए) उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने दूसरे दिन जब रात्रि समाप्त हो चुकी और सूर्य का उदय अच्छी तरह हो चुका तब ( जालं तरेहिं ) खिडकियों के रन्ध्रों से (कणगमयं मत्थयछिइडं पउमुप्पलपिहाणं पडिमं पासइ) कनक मय उस प्रतिकृति को कि जिस के मस्तक में छिद्र था और वह छिद्र जिस
( तएण जियसत्तू पामोक्खा इत्यादि ।
साथ-(तएण) त्या२४ (ते जियसत्तू पामोक्खा छप्पियरायाणो कल्ल पाउप्पभयाए रयणीए जलते सुरिए) ततश प्रभुभ छ राजमाये भीर हिवसे न्यारे रात पूरी 45 अने सूर०८ मध्य पाभ्यो त्यारे ( जाल'तरेहि) मारीमोना आयामोमांथी (कणगमयं मत्थयछिड्डू पऽमुष्पलपिहाण पडिम पासइ) रेना भायामi sie. तुती सोनानी प्रातति (भूति) २४.
( एसणं मल्ली विदेहरायवरकण्णत्तिकदु मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए स्वे य
For Private And Personal Use Only
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारधर्मामृतवषिणी टी० भ०८ कनकमयपुतलिस्वरूपनिरूपणम् l कन्याया रूपे मनोहाराकारे च यौवने वयसि लावण्ये-यौवनवयोजनितकान्तिविशेषे च मूर्छिता-रूपयौवनलावण्यदर्शनेन मोहिताः, 'गिद्धा' गृद्धाः लोलुपाः, 'गढिया' ग्रथिताः-निबद्धचित्ता, अध्युपपन्ना अत्यन्तासक्ताः अनिमेपया निमेषपातरहितया दृष्टया प्रेक्षमाणाः २ अनुक्षणं पुनः पुनर्विलोकयन्तस्तिष्ठन्ति स्म ।
ततस्तदनन्तर खलु सा मल्ली विदेहराजवरकन्या स्नाता यावत्-सलिंकारविभूषिता वहीभिः कुब्जिकाभि वित्-दासीभिः 'परिक्खित्ता' परिक्षिता परिवेष्ठिता यत्रैव जालगृहं गवाक्षयुक्तं गृहं, यत्रैव कनकप्रतिमा स्वकीया सुवर्णका पद्मोत्पल से ढका हुआ था देखा (एसणं मल्ली विदेह रायवर कण्ण त्ति कटु मल्लीए विदेह रायवरकन्नाएं रूवे य जोवणे य लावण्णे य मु. च्छिया गिद्धागढिया अज्झोववण्ण अणिमिसाए दिट्ठए पेहमाणा रचिटुंति
देख कर अरे ! यह तो विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी हैं, ऐसा जान कर वे सब उस विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी के रूप यौवन एवं लावण्य पर मूञ्छित हो गये-मोहित हो गये, लोलुप हो गये। उन में उन का चित्त बंध गया। इस तरह अत्यंत आसक्त होकर वे सब के सब अनिमेष दृष्टि से बार २ उस की तरफ देखते रहे । (तएण सा मल्ली विदेहरायवरकना बहाया जाव सव्वालंकारविभूसिया बहहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्तो जेणेव जालघरए जेणेव कणयपडिमं तेणेव उवागच्छइ ) इस के पश्चात् विदेह राजवर कन्या मल्लीकुमारी स्नान आदि कर के समस्त अलंकारों से विभूषित शरीर हो अनेक कुब्जक संस्थान वाली दासियों के साथ २ जहां वह जाल गृह और उस में भी जोवणे य लावण्ये य मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा २ चिट्ठति )
જોઈને “અરે આ તે વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારી જ છે.” આમ જાણીને તેઓ બધા વિદેહરાજવર કન્યા મલ્લીકુમારીના રૂપ યોવન અને લાવશ્યના પ્રભાવથી મૂછિત થઈ ગયા. મેં હિત થઈ ગયા. લેલુપ થઈ ગયા. તેમાં તેમનું ચિત્ત ચોંટી ગયું. આ રીતે ખૂબજ આસક્ત થઇને તેઓ બધા વારંવાર તેની તરફ જતા રહ્યા. (तएणं सा मल्ली विदेहरायवरकना बहाया जाव सव्वालंकारविभूसिया बहूहि खु. ज्जाहि जाव परिक्खित्ता जेणेव जालधरए जेणेव कणयपडिमं तेणेव उवागच्छइ)
ત્યારપછી વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારીએ નાન વગેરે પતાવીને બધા અલંકારોથી પિતાના શરીરને શણગારીને ઘણુ કુક (કુબડા) સસ્થાનવાળી હાસીઓની સાથે જ્યાં તે જાલ હ અને તેમાં પણ જ્યાં તે સેનાની પ્રતિમા
For Private And Personal Use Only
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथा मयी प्रतिकृतिः, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तस्याः कनकमतिमायाः मस्तकात् तत्-पिधानरूपं पद्मम् 'अवणेइ' अपनयति-दुरीकरोति, पद्मापसारणेन कनकमय. प्रतिकृतेमस्तकोपरिस्थितरन्ध्रमुद्घाटयतीत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु गन्धः-दुरभिगन्धः, “णिद्धावइ' निर्धावति शीघ्र बहिनिःसरति, तद् यथा नामकम्तथाहि-यथा-'अहिमडेति वा ' अहिमृतक इति वा मृतसर्पस्य तीव्रदुर्गन्धः प्रस. रति, तद्वदित्यर्थः, स यावत्-गोमृतकत्र, श्वमृतकइवेत्यादिबोध्यम् ‘एतोवि' एतस्मादपिदुर्गन्धात् अशुभतर एव-अत्यन्तं मनो विकृतिजनकस्तीव्रतरो दुःसहश्चैव वर्त्तते । तत खलु ते नितशत्रुप्रमुखास्तेनाशुभेन गन्धेनाभिभूताः सन्त स्वकै स्वकैरुत्तरीयैः उत्तरीयवस्त्रैः, 'णासाई' नासिकाः पिदधति-आच्छादयति पिधाय “परम्मुहा' पराङ्मुखाः परावर्तितमुखास्तिष्ठन्तिस्म । जहां वह सुवर्णमयी प्रतिमा थी वहां आई । (उवागच्छित्ता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ तं परम अवणेइ) वहां आकर के उस ने उस कनक मय पुतली के मस्तक से उस कमल को हटाया (तएणं गंधे णिद्धावइ ) ढक्कन के हटते ही उस में से बहुत भारी दुर्गन्ध निकली ( से जहानामए अहिमडेति वा जाव असुभतराए चेव ) वह दुर्गध ऐसी अशुभतर थी कि जैसी मरे हुए सर्प के सड़े शरीर की होती है तथा गोमृतक एवं श्वमृतक, की होती है । (तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा तेणं असुभेण गंधेण अभिभूया समाणा सएहिं २ उत्तरिज्जेहिं णासाई पिहेंति ) उस दुर्गध के निकलते ही उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने अपने २ उत्तरीय वस्त्रांचलों से अपनी २ नांक को ढक लिया। (भूति) ती त्यां 5. (आगच्छिता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ तपउम) अवणे) त्यां मावीन तो ते सोनानी प्रतिभा५२ २ सोनाना भगवा aisey Gघाउ (तएण गंध णिद्धावइ ) i ६२ थतin तेमांथी सत्यत भ२५ दुध नीज सामी. से जहानामए अहिमडेति वा जाव असुभतराए थेव) તે ગધ એટલી ખરાબ હતી કે મરેલા સાપના સડી ગયેલા શરીરની તેમજ ગેમૃતક અને શ્વમૃતકની હોય છે.
(तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सए. हिं २ उत्तरिज्जेहिं णासाई पिहेंति )
દુર્ગધ બહાર આવતાની સાથે જ જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ પિતાના ઉત્તરીયવસ્ત્રના છેડાથી પિપિતાનું નાક ઢાંકી દીધું.
For Private And Personal Use Only
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधर्मामृतपणी टी० अ० ८ कनकमयपुत्तलिस्वरूपनिरूपणम्
મ
ततस्तदन्तरं खलु सा मल्ली विदेहराजवरकन्या तान् जितशत्रुप्रमुखान् राज्ञ एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत् हे देवानुप्रियाः ! किं= केन कारणेन खलु यूयं स्वकैरुत्तरीयै यावत्-नासिकाः पिधाय पराङ्मुखास्तिष्टथ ?, ततः खलु ते जितशप्रमुखाडा मल्लों विदेहराजवरकन्याम्, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदन्ति हे देवानुप्रिये ! एवं खलु वयमनेनाशुभेन-अनिष्टतरेण दुरभिणा गन्धेन, अभिभूताः सन्तः स्त्रकैः २ यावत् - उत्तरीयैः स्वस्त्र नासिकां पिदाय पराङ्मुखाः, 'चिट्ठामो ' तिष्ठामः स्थिताः स्मः ।
(पिहित्ता परम्मुद्दा चिति' तरणं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तू पामोक्खे एवं वयासी) और दूसरी तरफ मुख करके बैठ गये । जब मल्ली कुमारी विदेहराजवर कन्या ने उन्हें इस प्रकार देखा तो वह बोली- (किष्ण तुम्भं देवाणुप्पिया ! सऍहिँ २ उत्तरिज्जेहिं जाव परम्हा चिट्ठह तण ते जियसत्तू पामोक्खा मल्ली विदेह रायवर कन्नं एवं वयंति ) हे देवानु प्रियो ! आप लोग क्यों अपने अपने उत्तरीय वस्त्रों से अपनी २ नाक को ढक कर और पुतली की और से मुँह फेरकर बैठ गये हैं । मल्ली कुमारी विदेहराजवर कन्या की इस प्रकार बात सुन कर उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने उससे ऐसा कहा
( एवं खलु देवाणुप्पिए अम्हे इमेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहिं २ जाव चिट्ठामो ) हे देवानुप्रिये ! हमलोगो से यह अशुभ गंध सहन नही हो रही है अतः हम लोग अपने २ उत्तरीय (पिहित्ता परम्मुद्दा चिति तएणं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना तं जियसत्तू पामोक्खे एवं वयासी )
અને તેઓ બધાં માં ફેરીને બેસી ગયા. જ્યારે વિહરાજવર કન્યા મલ્લીકુમારી તેઓને આ પ્રમાણે કરતાં જોયા ત્યારે તેણે કહ્યું—
( कि तु देवाणुपिया ! सएहि २ उत्तरिज्जेहिं जाव परम्मुहा चिट्ठह तरणं ते जियसत्तू पामोक्खा मल्लिं विदेहरायवर कन्नं एवं वयंति )
હે દેવાનુપ્રિયા:! તમે લેાકેા શા કારણથી પેાતાનું નાક ઉત્તરીયવસ્રના છેડાથી દાખીને પ્રતિમાના તરફથી માં ફેરવી બેસી ગયા છે?
વિદેહરાજવર કન્યા મલ્ટીકુમારીની આ વાત સાંભળીને જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ તેને કહ્યું—
( एवं खलु देवाशुप्पिए अम्हे इमेणं असुभेणं घेणं अभिभूया समाजा सहि २ जाव चिह्नामो )
For Private And Personal Use Only
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथाहिने - ततस्तदनन्तर तेषां राज्ञां वचनं श्रुत्वा खलु मल्लो विदेहराजवरकन्या तान् जितशत्रुप्रमुखान् राज्ञः प्रत्येवमवादी-हे देवानुपियाः ! यदि तावत् अस्यां कनक मय्यां यावत्-मतिमायां 'कल्लाकल्लि' कल्याकल्ये प्रतिदिवसं तस्माद् मनोज्ञाद् अशनपानखाद्यस्वाद्यात्-चतुर्विधाऽऽहाराद् एकैकः पिण्डः-प्रासः प्रक्षिप्यमाणः' अयमेतद्रूपः मनोविकृतिकारकस्तीव्रतरो दुःसहो दुर्गन्धः, अशुभः अनिष्टतरः पुद्गलपरिणामो जातः, तर्हि पुनरौदारिकशरीरस्य श्लेष्मास्रवस्य यस्मात् कफपस्रावो भवति तस्य, वान्तास्रवस्य वान्तम्-उद्गीणं तस्यास्रवः प्रस्रावो यस्माद् भवति तस्य, पित्तास्रवस्य-पित्तस्यास्रो निः सरणं यावत् तस्येत्यर्थः। तथा शुक्रशोणितपूयास्रवस्य दूरुपोच्छ्वास निःश्वासस्यबाह्यवायुग्नहणमुच्छ्वासः, शरीरान्तर्गतस्य वनाचलों से नाक ढक और इस तरफ मुँह कर फेर कर पैट गये हैं। (तएणं मल्लो विदेहरायवर कन्ना ते जियसत्तू पामोक्खे एवं वयासी) ईस के अनन्तर विदेहराजवर कन्या मल्ली कुमारी ने उन जितशत्रु प्रमुख राजों से कहा-(जइता देवाणुप्पियो! इमीसे कणग • जाव पडिमाए कल्ला कल्लि ताओ माणुणगाओ असणपाणखाइमसाइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे२ इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणामे) हे देवानुप्रियो ! इस कनकमयी पुतली में मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य एवं स्वाय रूप चतुर्विध आहारका डाला गया एकर ग्रास जब इस प्रकारका मनोविकृति जनक अशुभ तर पुद्गल परिणामरूप दुर्गधवाला बन गया है तो।
(इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खेलासबस्स वतासवस्स पित्तासवस्म सुक्कसोणियपूयासवस्स ऊमासनीसासस्स दुरूवमुत्तपुड्य
હે દેવાનુપ્રિયે ! આ ખરાબ ગંધ અમારા માટે અસહ્ય થઈ પડી છે. એથી અમે પિતાના ઉત્તરીયના છેડાથી નાક દબાવીને અને આ તરફથી भावाने मेसी गया छीमे. (तएणं मल्ली विदेहराजयर कन्ना ते जियसत्तू . पामोक्खे एवं वयासी) त्या२५छी विहरा२ न्या भसी भारी तश પ્રમુખ રાજાઓને કહ્યું કે
(जइता देवाणुप्पिया ! इमीसे कणग० जाव पडिमाए कल्ला कल्लि ताओ मणुण्गाओ असण पाणखाइम साइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे २ इमेयास्वे अनुभे पोग्गलपरिणामे ) .. वानुप्रियो ! मा सोनानी पूतीमा भनोस मशन, पान, माध
અને સ્વાદ રૂપ ચાર જાતના આહારને નંખાએલે એક એક કેળીયે જયારે : આ પ્રમાણે અને વિકૃતિજનક અશુભતર પુદ્ગલ પરિણામ રૂપ દુર્ગધવાળે
થઈ ગયા છે ત્યારે
For Private And Personal Use Only
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ०८ कनकमयपुत्तलिस्वरूपनिरूपणम् १८७ वायोनिर्गमनं निः श्वासः तौ दूरूपावनिष्टौ यस्य स तथा, तस्य दरूपमूत्रपूतिकपुरीष पूर्णस्य-रूपेण पूतिकेन अनिष्टगन्धवता पुरीषेण पूर्णस्य, तथा तत्रशटनपटनविध्वंसनधर्मस्य-शटनं-कुष्ठादिरोगामुल्यादेः पतनं जरादिना शैथिल्यं, विध्वंसनं नाशः एते शटनादयो धर्माः स्वभावा यस्य स तस्य, कीदृशः परिणामो भविष्यति? अशनायाहारादुध्धृतस्यैकैकग्रासस्य प्रतिदिवसं प्रतिकृतौ प्रक्षिप्तस्य यदि पुरिस पुण्णस्स मडण पडण विद्धंसण धम्मस्स के रिसए परिणामे भवि. स्सा) इस औदारिक शरीर का पुद्गल परिणमन उसकी अपेक्षा भी अधिकतर अनिष्ट दुर्गध वाला नहीं होगा क्या ? अवश्य होगा-क्योंकी यह कफ का आश्रय भूत है । समय २ पर इससे वमन का निस्सरण होता रहता है । पित्त भी इस से निकलता रहता है । शुक्र, शोणित, एवं पीव इस में बाहिर बहता है। इसका जो श्वास और उच्छ्वास हैं वे महा दुरूप-अनिष्टनर हैं। यह दुरूप मूत्र एवं अनिष्ट गंध वाले मल से सदा भरा रहता है । यह शदन, पटन, तथा विध्वंसन धर्म वाला हैं । कुष्ठादि रोग द्वारा जो इस के अंगुलि आदि अवयव गिर जाते हैं उस का नोम शटन है । ज्वरादि अवस्था से जो इसमें शिथिलता आ जाती है उस का नाम पतन है। नाश होने का नाम विध्वंसन है। कारण इस का इस प्रकार है कि अशनादि रूप चतुर्विध आहार से उत्पन्न हुए एक २ ग्रास का जो प्रतिदिन इस प्रतिकृति में प्रक्षिप्त किया जाता है
. ( इमस्स पुण ओरालिय सरीरस्स खेलासवस्स बत्तासवस्स पित्तासवस्स सुक्क सोणिय पूयासवस्स दुरूव उसासनीसासस्स दुरूवमुत्त पूइयपूरिस पुण्णस्स सडणपडण विद्धंसण धम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सइ) ।
આ દારિક શરીરનું પુદ્ગલ પરિણમન તેના કરતાં પણ વધુ અનિષ્ટ દુધવાળું થશે નહિ? અરે ! ચક્કસ થશે. કેમકે આ કફનું આશ્રય છે. આમાંથી વારંવાર વમનનું નિસ્સરણ થતું રહે છે. પિત્ત પણ આમાંથી નીકળતું રહે છે. શુક્ર, શેણિત (લોહી) અને પરૂ આમાંથી બહાર વહેતું રહે છે. આમથી એના શ્વાસોચ્છવાસ મહા દુરૂપ અનિષ્ટતર છે. આ શરીર દુરૂપ મૂત્ર અને અનિષ્ટ દુધવાળા મળથી હમેશા ભરાએલું રહે છે. આ શરીર શટન, પતન, તેમજ વિધ્વંસન ધર્મવાળું છે. કોઢ વગેરે રોગ વડે જે શરીરના આંગળી વગેરે અવયવો ખરી પડે છે તેનું નામ શટન છે. ઘડપણને લીધે શરીરમાં જે શિથિલતા આવે છે તેને પતન કહેવાય છે. નાશ થવું તે વિધ્વંસન કહેવાય છેઆનું કારણ બતાવવામાં આવેલ કેળિયો જે એક એક કરીને દરરોજ આ પૂતળીમાં નાખવામાં આવ્યો છે. તે જ્યારે આવું તીવ્ર અનિષ્ટતર દુર્ગંધ
For Private And Personal Use Only
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Ma
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
4
6
पुलपरिणामस्तीव्रतरोऽनिष्टतरोदुर्गन्धः प्रसरति, तर्हि पुनरस्यौदारिकशरीरस्य श्लेष्मा दिनानाविधमलपूर्णस्य शटनपतनध्वंसन स्वभावस्य पुलपरिणामस्तस्मादtosधिकतरोऽनिष्टदुर्गन्धो भविष्यतीत्यर्थः । तस्मात् हे देवानुप्रियाः । यूयं खड मानुष्यकेषु कामभोगेषु मा ' सज्जह' मा सज्जत - सङ्ग नो कुरुत, इत्यस्य प्रत्येकमपिसम्बन्धः । ' रज्जह' रज्यत - रागं मा कुरुत, गिज्झह ' गर्धध्वम् गृद्धिं तृष्णां मा कुरुत, 'रुज्झह' मुह्यत मोहं नो कुरुत विषयदोष मा विस्मरतेत्यर्थः, ' अज्झोववज्जह ' अध्युपपद्यध्यम् = कामभोगानां ध्यानं मा कुरुते - स्पर्थः । हे देवानुप्रियाः । एवं खलु यूयं वयमितस्तृतीये भवग्रहणे अपरविदेहवर्षे पश्चिमीय महाविदेहक्षेत्रे सलिलावत्यां सलिलावतीनामके विजये वीतशोकायाँ राजधान्यां महाबलप्रमुखाः सप्तापि च बालवयस्या राजानः = राजकुलगृहीत जन्मानः यदि इस प्रकार का तीव्र अनिष्टतर दुर्गंध रूप पुद्गल परिणाम है तो फिर इस औदारिक शरीर का कि जो इलेष्मादि नाना विध मल से परिपूर्ण हो रहा है तथा शटन पटन एवं विध्वंसन जिस का स्वाभाविक धर्म है पुद्गल परिणाम इस से भी अधिक तर अनिष्ट दुर्गंध वाला ही होगा
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मा
,
!
( तं माणं तुग्भे देवाणुपिया | माणुस्सएसु कामभोगेषु सज्जह, रज्जह गिज्झह, मुज्झह, अज्झोववज्जह) इसलिये हे देवानुप्रियों । तुम लोग मनुष्य भव संबधी काम भोगों में मत फँसो, उन में राग भाव मत करो तृष्णा मत बढाओ, मुग्ध मत बनो और न इन का ध्यान ही करो । ( एवं खलु देवाणुपिया ! तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवर विदेहवा से सलिलाबाईसि विजए बीयसोगाए रायहाणीए मह कल पामोक्खा सत्तविय बालवयंसया रायाणो होत्था ) हे देवानुप्रियों !
For Private And Personal Use Only
રૂપ પુદ્ગલ પિરણામવાળું થાય ત્યારે આ ઔદારિક શરીરનું કે જે શ્લેષ્મ વગેરે ઘણા મળેાથી ભરાએલું છે—અને શટન, પતન, અને વિધ્વંસન જેનું સ્વાભાવિક ધમ છે-પુદ્ગલ પિરણામ એના કરતાં પણ વધુ અનિષ્ટ દુ ધવાળું હશે જ.
( तं मा णं तुभे देवाणुपिया | माणुस्सरस कामभोगेसु सज्जद; रज्जह गिज्झह, मुज्झह, अज्झोववज्जह )
એથી હુ દેવાનુપ્રિયે ! તમે મનુષ્યભવના કામ ભેણેમા ફસાશે નહિ, તેમાં રાગ ઉત્પન્ન કરે નહિ, તેના પ્રતિ તૃષ્ણાનું વદ્ધન કરી નહિ, મુગ્ધ થાઓ નહિ અને તેના કોઇ દિવસ પણ વિચાર કરે જ નહિ.
( एवं खलु देवाणुपिया ! तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भरगहणे अवरविदेह बासे सलिलावईसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महव्वलपामोक्खा सत्तविय बालवयंसया रायाणो होत्था )
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कनकमयपुप्त लिस्वरूपनिरूपणम्
"
होत्था' संजाताः कीदृशाः ? इत्याह- ' सहजाया" सहजाता = सहोपमाः, यावत् सहवर्धिताः सहक्रीडितकाः, 'पब्वइया ' मत्रजिताः सहैव दीक्षां गृहीतवन्त इत्यर्थः । ततः खलु हे देवानुप्रियाः ! अहं 'इमेणं कारणेणं' वक्ष्यमाणेन कारणेन स्वनामगोत्रं कर्म निव्यत्तमि' निर्वर्तयामि भर्जयामि तस्मिन् भवे मया खीनामगोत्रं कर्म गित्यर्थः । येन वारणेन खीनामगोत्र कर्म निर्वर्तितं तदाह-' जड़णं' इत्यादि । यदि रूल यूयं चतुर्थ = चतुर्थभक्त तपः, उपसंपद्य विहरथ, ' तए ' ततः = तदा खलु अहं षष्ठं = षष्ठभकरूपः उपसंपद्य विहरामि = तिष्ठामि । शेषं तथैव सर्वम्,
,
"
97
हम तुम आज से तीसरे भव में पश्चिम महा विदेह क्षेत्र में सलिलावती नाम के विजय में वर्तमान वीतशोका नाम की राजधानी में " बालव यस्य सात राजपुत्र थे । उस समय हम लोगों का नाम महाबल आदि था ( सहजाया जाव पव्वइया ) हम सब साथ ही उत्पन्न हुए थेऔर साथ ही बढे हुए थे। साथ ही धूलि क्रीडा में रत रहा करते थे । निमित्त पाकर हम सातों ने ही उस समय दीक्षा धारण की थी । ( तरणं अहं देवाणुपिया ! इमेणं तुभं चोत्थं उवसंपज्जिन्ताणं विहर ई. तरणं अहं छष्टुं उदसंपत्तिाणं विहरामि सेसं तहेव सव्यं ) मैंने उस भव में इस कारण से स्त्री नाम गोत्रकर्म का बंध किया कि तुम सब लोग यदि चतुर्थ भक्त करते तो हम भी तुम्हारे साथ चतुर्थ भक्त ही करते परन्तु कोई बहाना बनाकर पारणा के दिन भी छट्ट आदि तपस्या कर लिया करते | यह सब विषय इसी अध्ययन में पहिले स्पष्ट किया जा चुका है ।
હૈ દેવાનુપ્રિયે ! હું અને તમે આજથી ત્રીજા ભવમાં પશ્ચિમ મહાવિદેડક્ષેત્રમાં સલિલાવતી નામના વિજયમાં વિદ્યમાન વીતશેકા નામની રાજधानीभां ' માલવયસ્ય * સાત રાજપુત્રા હતા તે સમયે અમારા નામેા મહાખલ वगेरे ता. ( सजाया जाव पव्वइया) अभे अधा साथै ४ मन्भ्या हता. અને સાથે સાથે જ મોટા થયા હતા. માટીમાં પણ આપણે ધા સાથે સાથે જ રમ્યા હતા. સમય આવતાં આપણે સાતે જણાએ દીક્ષા ધારણ કરી હતી.
( तरणं अहं देवाशुप्पिया हमेणं कारणं इत्थीनाम गोयकम्मं निव्वतेमि जर तुम्भं चोत्थं उनसंपज्जित्ताणं विहरई तपणं अहं हं उपसंपज्जित्ताणं बिहरामि सेसं तहेव सव्वं )
:
તે ભવમાં આ કારણથી સ્રનામ ગેાત્ર કમના ખંધ કર્યો. તમે બધા જ્યારે ચતુર્થાં ભક્ત કરતા ત્યારે હું પણ તમારી સાથે ચતુ ભક્ત તા કરતાજ પદ્મ ગમે તે બહાના હેઠળ પારણાના દિવસે પણ છઠ્ઠું વગેરે તપસ્યા કરતા રહેતા હતા. (આ વિષેનું બધું વર્ણન આ અધ્યયનમાં પહેલાંજ કરવામાં આવ્યું છે.)
ज्ञा ६२
For Private And Personal Use Only
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शांताधर्मक. थासूत्रे
अस्मिन्नेवाध्ययने प्रागुक्तषन्दोध्यम् । ततस्तदनन्तरं खलु हे देवानुप्रियाः । यूर्य कालमासे कालं कृत्खा जयन्ते विमाने उत्पन्नाः = देवभवं प्राप्ताः, तत्र खलु युष्माकं देशोनानि द्वात्रिंशत्सागरोपमानि स्थितिः, ततः खलु यूयं तरमादेवलोकादनन्तरं वयं देवशरीरं त्यक्त्वा इहैव = अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे जन्मलब्धा यावत्रखानि २ राज्याभ्युपपद्य विरथ, ततस्तदनन्तरं खल्वहं हे देवानुप्रियाः । तस्माद् देवलोकादायुःक्षयेण युत्वा यावत्- 'दायित्ताए' दारिकतया पुत्रीभावेन पच्चायाया' प्रत्यायाता=संजाता - अथ तान् जितशत्रुममुखान् पडपिराज्ञः पुनः
( तरणं तुम्भे देवाणु पिया ! कालमासे कालं किच्या जयते विमाणे बंबवण्णा-तत्थणं तुन्भे देणाई बत्तीसाई सागरोवमाई टिई, तरणं तुम्भे ताओ देवलोयाओ अनंतरं चयं चन्ता हेव जंबूद्दीवे २ जावं साइं२ रज्जाई उवसंपजित्ताणं विहरइ ) हे देवानुप्रियों ! आप लोग काल मास में मृत्यु के अवसर में काल कर-जयन्त विमान में देव पर्याय से उत्पन्न हुए। वहां आप सब की कुछ कम ३२ बत्तीस सागर की स्थिति हुई । जब यह स्थिति समाप्त हो चुकी तो उसी समय आप लोग वहां से चक्कर इसी जंबूद्वीप में उत्पन्न हो गये और अपने २ राज्यों का भोग करने लगे । ( तणं अहं देवाणुप्पिया ! ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दारियन्ताए पच्चायाया ) तुम लोगों के च्युत होने के बाद हे देवानुप्रियों। मैं भी उस देवलोक से आयुक्षय हो जाने के कारण च्युत हुआ और च्युत होकर कन्या रूप से उत्पन्न हो गया हूँ ।
( तणं तुभे देवाणुपिया ! कालमासे कालं किच्या जयंते विमाणे उववण्णा तत्थणं तुभे देणाई बत्तीसाई सागरोवमाई ठिई, तरणं तुब्भे ताओ देवलोयाओ अनंतरं वयं चत्ता इहेव जंबूद्दीवे २ जाव साई२ रज्जाई उवसंपज्जित्ताणं विहरइ )
હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે કાળ માસમાં મૃત્યુના વખતે કાલ કરીને જયંત વિમાનમાં દેવપર્યાયથી જન્મ પામ્યા. ત્યાં તમારી બધાની ખત્રીસ (૩૨) સાગરની સ્થિતિ કરતાં કઈક આછી એટલી સ્થિતિ થઇ. જ્યારે આ સ્થિતિ પૂરી થઈ ત્યારે તરત જ તમે ત્યાંથી ચવીને આ જમૂદ્રીપમાં ઉત્પન્ન થયા છે અને પાતપેાતાનાં રાજ્યાનું શાસન ચલાવવા લાગ્યા છે.
(तरणं अहं देवाणुप्पिया? ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दारियत्ताए पच्चायाया) ત્યારખાઇ હૈ દેવાનુપ્રિયા ! હુ પણ દેવલેાકમાંથી આયુક્ષમ હાવા બદલ' આવીને અહીં પુત્રી રૂપમાં જન્મ પામી છું.
For Private And Personal Use Only
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भमगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० ८ पहाजमातिस्मरणादिनिरूपणम् पूर्वजन्मवृत्तान्त स्मारयन्ती मल्ली यदवोचत् तद् गाथया प्राइ-किं थ तयं इत्यादि। भो राजानः किं तद् विस्मृतं युष्माभिः तदा तस्मिन् काले पूर्वभवे जयन्तप्रवरेजयन्तनामकेऽनुत्तरविमाने 'देवाः ' देवाभूत्वा 'वुत्था' यूयन् उपितः = निवास कृतवन्तः, 'थ' इति वाक्यालङ्कारे' समयनिबद्धां-वयं परस्परेण प्रतिबोधनीया' इत्येवं संकेतेन निबद्धा = परिगृहीतां, तां देवसम्बन्धिनी जाति जन्म. “संभरह' संस्मरतेति ॥ मू० ३४ ॥
मूलम्-तएणं तेर्सि जियसत्तपामोक्खाणं छण्हं रायाणं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अंतिए एयम सोचा णिसम्म सुभेणं परिणामेणं पसत्थेणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं० कम्माण खओवसमेणं ईहावोहमग्गणगवेसणं करेमाणाणं सणिज्जाइस्सरणे समुप्पन्ने. एयमह सम्मं अभिसमागच्छंति, तएणं मल्लो अरहा जियसत्तपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्णजाइसरणे जाणित्ता गब्भघराणं दाराइं विहा. डावेइ, तएगं ते जियसत्तपामोक्खा जेणेव मल्ली अरहा तेणेक ___ इसी पूर्वोक्त-पूर्व जन्मके वृत्तान्त को उन छह जितशतृ प्रमुख राजाओं को याद करातो हुई मल्ली कुमारीने जो कुछ कहा वही गाथा द्वारा सूत्र. कार प्रदर्शित करते हैं-वह गाथा " किं थ तयं पम्हुई ' इत्यादिः यह है । इसका तात्पर्य यह है-हे रोजाओं ! क्या आपलोग वह पूर्वभव भूल गये कि जिसमें हम सपलोग जयन्त नामके अनुत्तर विमान में देव होकर रहे हैं । सो " हम परस्पर में एक दूसरे को प्रतियोधित करेंगे" ऐसी प्रतिज्ञाले प्रतिबद्ध उस देव भवसम्बन्धी जन्मको अब याद करो।सू०३५॥
આ પૂર્વજન્મની વિગત છએ જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓને બતાવતી મલીકુમારીએ જે કંઈ કહ્યું છે તે અહીં સૂત્રકાર ગાથા દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે( किंथ तयं पम्हुई ) छत्यादि
એને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે કે, હે રાજાઓ શું તમે લેકે પૂર્વ ભવને ભૂલી ગયા છે કે જ્યારે અમે બધા જયન્ત નામના અનુત્તર વિમાનમાં तु न २ ता. तो “समे से भागने प्रतियोपित शु." मा : પ્રમાણે પ્રતિજ્ઞાબત થઈને મેળવવા તે દેવભવના જન્મને તમે યાદ કરો. સ ૩૫
For Private And Personal Use Only
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्रे
उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तएणं महब्बलपामोक्खा सत्तविय बालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागयायावि होत्था तएणं मल्ली अरहा ते जियसत्तप्पामोक्खे छप्पियरायाणो एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! संसारभयडविग्गा जाव पव्वयामि, तं तुब्भेणं किं करेह किं च ववसह जाव किं भे हियसामत्थे ?, तणं जियसज्ञप्पा मोक्खा महिं अरहं एवं वयासी - जइणं तुभे देवाणुप्पिए संसार जाव पव्वयह अम्हे णं देवाणुपिए! के अपणे आलंबणे वा आहारे वा पडिबंधे वा जह चेत्र णं देवापिए ! तुभे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कज्जेसु य मेढी पमाणं जाव धम्मधुरा होत्था, तहा चेव णं देवाणुप्पिये ! इण्हिपि जाव भविस्सह, अम्हे वि य णं देवाणु ! संसार भयविग्गा जाव भीया जम्मणमरणाणं देवाणुप्पियाणं सद्धिं मुंडा भविता जाव पव्वयामो । तरणं मल्ली अरहा ते जियसतपामोक्खे एवं वयासी जपणं तुब्भे संसार जात्र मए सद्धिं पव्वयह, तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया सएहिं२ रजेहिं जेट्ठे पुत्ते रज्जे ठावेह, ठावित्ता पुरिससहस्तवाहिणीओ सीयाओ दुरूहह दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउब्भवह, तरणं ते जियसत्तपामुक्खा मल्लिस्स अरहओ एयमठ्ठे पडिसुर्णेति, तएणं मल्ली अरहा ते जियसत्त० गहाय जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुंभगस्स पाएसु पाडेइ, तरणं कुंभए ते जियसत्तूपामेक्खे विपुलेणं असण४ पुष्कवत्थगंधमल्लालंकारेणं
For Private And Personal Use Only
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०८ पहरानजातिस्मरणादिनिरूपणम् ४३ सकारेइ जाव पडिविसजेइ, तएणं ते जियसत्तपामोक्खा कुंभएणं रण्णा विसज्जित्ता समाणा जेणेव साइं२ रजाइं जेणेव नगराइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगाई रजाइं उवसंपजित्ता विहरंति, तएणं मल्ली अरहा 'संवच्छरावसाणे निक्खमिस्सामि' ति मणं पहारेइ ॥ सू० ३६ ॥ - टीका-'तएगं तेसिं' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु तेषां जितशत्रुप्रमुखाणां पण्णां राज्ञां, मल्ल्या विदेहराजवरकन्याया अन्तिके समीपे ' एयम' एतमर्थ= पूर्वभववृत्तान्तरूपमुक्तमर्थ श्रुत्वा-आकर्ण्य, निशम्य-हृद्यपधार्य, शुभेन परिणामेन प्रशस्तेनाध्यवसायेन लेश्याभिः 'विसुज्झमाणीहिं' विशुध्यन्तीः 'तयावरणिज्जाणं' तदावरणीयानां ज्ञानावरणीयादीनां, कर्मणां क्षयोपशमेन ' ईहावोहमग्गगगवेषणं' इहाऽपोहमार्गग गवेगम्-ईहा- अर्थ विशेष विषयकसमालोचनाभिमु वो मतेा
__ 'तएण तेसिं जियसत्तू पामोक्खाण' इत्यादि ।
(तएणं ) इस के बाद (तेसिं जियसत्तूपामोक्खाणं छण्हं रायाणं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अंतिए एयमलु सोच्चा णिसम्म, सुभेणं परिणामेणं पसत्थेणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहि तयावर णिज्जाणं. कम्माणं खओवसमेणं ईहावोयमग्गणगवेसणकरेमाणाणं सण्णि जइस्सरणे समुप्पन्ने ) उम जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं को जब उन्हों ने विदेहराजवर कन्या मल्ली कुमारी से इस प्रकार सुना और उसका मन से अच्छी तरह विचार किया-तो शुभ परिणाम से प्रशस्त अध्यवसाय से लेश्याओं की विशुद्धि से, तथा तदावरणीयकर्मों के
'तएणं तेसि जियसत्तू पामोक्खाणं' इत्यादि ।
टीकार्थ-(तेसि जियसत्तू पामोक्खाणं छण्हं रायाणं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अंतिए एयमदं सोचा णिसम्म, सुभेणं परिणामेणं पसत्येणं अज्झरसाणेणं लेसाहि विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं० कम्माणं खओवसमेणं ईहावोयमगणगवेसण करेमाणाणं सण्णिजाइस्सरणे समुप्पन्ने )
જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓએ જ્યારે વિદેહરાજવર કન્યા મલી. કુમારીના મુખથી આ બધી પૂર્વભવની વિગત સાંભળી અને મનમાં તેના ઉપર સારી પેઠે વિચાર કર્યો ત્યારે શુભ પરિણામથી, પ્રશસ્ત અધ્યવસાયથી લેયાઓની વિશુદ્ધિથી તેમજ તદાવરણીય કર્મોના ક્ષપશમથી, ઈહા, અહિ
For Private And Personal Use Only
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पाताधर्मकथाजसे पारः, विचार इत्यर्थः । स चात्र-"किं मल्लो कथित पूर्वभवत्तान्तस्तथा संजातः, अपिच देवमवं प्राप्य जयन्तविमाने किं वयमवस्थिता आस्मे " त्येवंरूपो बोध्यः । अपोहः-निश्चयः, स चेत्थम्-उक्तविचारे निरन्तरसंलग्नाया बुद्धेः परिणामः खल्वेवमभवत्-" मल्ल्युक्तरीत्या निश्चयेन वयं सप्तानगाराः पूर्वभवे तपोऽनुष्ठानं कृतवन्तः, तत्प्रभावाच्च जयन्तविमाने देवत्वेन संजाता" इति । ईहापोहाभ्यां क्षयोपशम से ईहा, अपोह मार्गण एवं गवेषण करने पर संज्ञि जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। अर्थ विशेष को विषय करने वाली समालोचना की तरफ झुकता हुआ जो मति व्यापार रूप विचार होता है उसका नाम ईहा हैं। यहां इसका समन्वय इस तरह से समझना चाहिये-मल्ली कुमारी ने जो पूर्वभवीय वृत्तान्त कहा है वह क्या उसी तरह से हुआ है ___ क्या देव भव को प्राप्तकर हम लोग जयन्त विमान में साथ रहे हैं ? ईहा के बाद जो निश्चय रूप बोध होता है उसका नाम अपोह है-इसका संबंध यहां इस प्रकार से जानना चाहिये-जय उक्त विचार में घुद्धि संलग्न हो गई तो उसका परिणाम इस प्रकार निकला-ठीक है-मल्ली कुमारी के कथनानुसार हम सातों अनगारों ने तपोअनुष्ठान नियमतः किया है-इससे उसके प्रभाव से हम लोग काल मास में कालकर जयन्त विमान में देव की पर्याय अवश्य उत्पन्न हुए हैं । इस प्रकार का ईहित अर्थ में जो निश्चयात्मक विचार होता है वही अपोह है। માર્ગણ અને ગવેષણ કરવાથી તેમને સંસી -જાતિ સ્મરણ જ્ઞાન થયું. અર્થ વિશેષને વિષમ બનાવીને સમાલોચના તરફ વળતે જે મતિવ્યાપાર રૂપ વિચાર હોય છે તે ““હા” છે. અહીંયા ઈહા વિષેનો સંબંધ આ રીતે સમજ જોઈએ કે મલીકુમારીના મુખેથી પૂર્વભવની વિગત સાંભળીને રાજાઓના મનમાં જે આ પ્રમાણેના વિચારે ઉત્પન્ન થયા કે મલીકુમારીએ જે પૂર્વભવનું વૃત્તાન્ત કહ્યું છે તે શું ખરેખર તેમજ હશે ! | દેવભવ મેળવીને શું અમે બધા એકી સાથે જયંત વિમાનમાં રહ્યા છીએ? ઈહા પછી જે નિશ્ચય રૂપ બંધ થાય છે તેનું નામ અપહ છે, તેને સંબંધ અહીં આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ કે જયારે પૂર્વભવના વિચારમાં બુદ્ધિ સંલગ્ન થઈ ગઈ ત્યારે તેના પરિણામમાં તેઓના મનમાં આ પ્રમાણેને નિશ્ચય થયું કે “ઠીક છે ” મલીકુમારીના કહેવા મુજબ અમે સાતે અનગાએ મળીને નિયમ પૂર્વક તપસ્યા કરી છે તેના પ્રભાવથી અમે લોકો કાળ માસમાં કાળ કરીને જયંત વિમાનમાં દેવની પર્યાયથી ચક્કસપણે જન્મ પામ્યા હોઈશું. આ રીતે ઈહિત અર્થમાં જે નિશ્ચયાત્મક વિચાર ઉત્પન્ન હોય છે તે જ અપેહ છે.
For Private And Personal Use Only
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारघामृतवषिणी टी० अ०८ षड़राजजातिस्मरणादिनिरूपणम् ४९५ निश्चितीर्थों मार्ग गवेषणाभ्यां ढीभवतीत्यतआह - ' मग्गणगवेसणं' इति, मार्गणं-ईहापोहाभ्यां निश्चितार्थेऽस्यधर्मालोचनं अन्वयः-सद्भावः-यथा-अस्मासु सप्तम पररपर सहद्भाव विषयदिशगदर्शनेन पूर्वभवे सहावस्थानपूर्वकं तपश्चरणं, सदनु जयतविमानावस्थानं दृढ निश्चीयते, गवेषणम्-ईहापोहाभ्यां निवितेऽर्थे व्यतिरेकधर्मालोचनम् व्यतिरेको नाम-अभावः, यथा- अस्मासु सप्तमु यदि पर. स्परसद्भावो न स्यात् , तथा यदि विषय विरागो न स्यात् , तर्हि पूर्वभवसम्बन्धि सहावस्थानपूर्वकं तपश्चरण जयन्त विमानावस्थानं च न स्यातू , इत्येवमन्वयव्यतिरेकधर्मालोचनादुक्तार्थस्य निश्चयो दृढतरो भवतीति तदेवमी हाऽपोहमार्गण गवेषण
ईहा और अपोह से निश्चित किया गया पदार्थ मार्गण और गवेषण से दृढ हो जाता है। मार्गण शब्द का अर्थ है ईहा। और अपोह से निश्चित हुए अर्थ में अन्वय धर्म की पर्यालोचना करना । जैसे ऐसा वि. चार आताकि इन सोतोमें जय परस्पर में सुहृद्भाव (मैत्री भाव ) और विषय विराग देखा जाता है तो इम से यह बात दृढरूप से निश्चित हो जाती है कि इन लोगों ने सहावस्थान पूर्वक तपश्चरण किया है और बाद में जयन्त विमान में ये उत्पन्न हुए हैं । गवेषण शब्द का अर्थ है ईहा
और अपोह से निश्चिन हए पदार्थ में व्यतिरेक धर्म की आलोचना करना । जैसे इन सातों में यदि परस्पर में सुहृद्भाव तथा विषय विराग नहीं होता तो पूर्वभव में हन का साथ २ रहकर तपश्चरण करना, तथा जयन्त विमान में उत्पन्न कोनो भी नहीं होता।
इस तरह अन्वय और व्यतिरेक धर्म की आलोचना से उक्तार्थ का निश्चय दृढतर हो जाता है। संज्ञी जीवों के पूर्व भव का ही स्मरण इस
ઈડા અને અપહથી નિશ્ચિત કરાએલે પદાર્થ માગણ તેમજ ગવેષણથી દૃઢ થઈ જાય છે. માર્ગણ શબ્દનો અર્થ આ પ્રમાણે છે કે ઈહા અને અપહથી નિશ્ચિત થયેલા અર્થમાં અન્વય ધર્મની પર્યાચના કરવી. જેમકે અત્યારે સાતેમાં પરસ્પર મિત્રભાવ અને વિષથ વિરાગ (વિશેષ રાગ) જેવાય છે ત્યારે એનાથી આ વાત ચોક્કસપણે પુષ્ટ થાય છે કે આ લેકએ સહાવસ્થાનપૂર્વક પૂર્વભવમાં તપશ્ચરણ કર્યું છે અને ત્યારબાદ તેઓ જયંત વિનમાં ઉત્પન્ન થયા છે. “ગવેષણ' શબ્દને અર્થ છે, ઈહા અને અહિથી નિશ્ચિત થયેલા પદાર્થમાં વ્યતિરેક ધર્મની આલોચના કરવી. જેમકે આ સાતેમાં હમણું એક બીજા માટે સહદભાવ તેમજ વિષય વિરાગ હોત નહિ તે પૂર્વભવમાં તેમનું સાથે રહીને તપ કરવું તેમજ જયંત વિમાનમાં જન્મ પામવું પણ થાત નહિ.
આ રીતે અન્વય અને વ્યતિરેક ધર્મની આલોચનાથી ઉપર વર્ણવવામાં આવેલા અર્થનો નિશ્ચય દૃઢ રૂપે થઈ જાય છે. સંજ્ઞી જીના પૂર્વભવનું સ્મર
For Private And Personal Use Only
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
कुर्वत 'सगिज्जाइस्सरणे' संज्ञिजातिस्मरणं = सज्ञिनां मनोयुक्तानां जातिः प्राक्तनं जन्म तस्याः स्मरणं, जातिस्तरणं संज्ञिनामेव भवति नत्वसंजिनामिति बोधयितुं संज्ञीति विशेषर्ण प्रयुक्तमितिभावः । समुत्पन्नं = संजातम्, ईहापोहादिकरणेन जितशत्रुप्रमुखाणां षण्णां राज्ञां पूर्वमवसम्बन्धि सकलवृत्तान्तस्मरणमभूदिति संक्षेपः । 'एम' इत्यादि । एतमर्थ सम्यगभिसमागच्छन्ति तेन जातिस्मरणेन पूर्वभव सम्बन्धि सकलवृत्तान्तं सम्यग् ज्ञातवन्त इत्यर्थः ।
,
66
ततस्तदनन्तरं मल्ली 'अरहा ' अर्हन् जितशत्रुमुखान् षडपि राज्ञः समुत्पन्नजातिस्मरंगात् ज्ञात्वा गर्भगृहस्य द्वाराणि 'बिहाडावे' विघाटयति-उद्घाटयति ततस्तदनन्तरं खलु ते जितशत्रुममुखाः यचैव मल्ली अर्हन् तत्रोपागच्छति, उपा जातो स्मरण ज्ञानी जीव को होता है अर्थात् जाति स्मरण ज्ञानी संज्ञी जीव को ही होता है-असंज्ञी जीव को नहीं । इसी बात को प्रकट करने के लिये " संज्ञी " यह विशेषण दिया है। इस प्रकार ईहा, अपोह आदि के करने से उन जिनशत्रु प्रमुख छहों राजाओं को पूर्वभव संबंधी सकल वृत्तान्त स्मृत हो गया । यही बात एयमहं सम्मं अभिसमागच्छंति " इस सूत्रांश द्वारा सूत्रकार ने प्रकट की है ( तरणं मल्ली अरहा जियमन्तू पामोक्खे छप्परायाणी समुप्पनजाइसरणे जाणिस्ता गन्धराई दाराई बिहाडावे ) इस के बाद मल्ली अरिहंत ने उन जितशतृ प्रमुख छहों राजाओं को उत्पन्न जाति स्मरण ज्ञान वाला जान कर गर्भगृहों के द्वारों को उद्घाटन करवा दिया । (तएणं ते जियसत्त पामोक्खा मल्ली अरहा तेणेत्र उवागच्छति ) द्वारों के उद्घाटित होते ही जितशत प्रमुख मत्र ही राजा जहां मल्ली कुमारी थी वहां आये । આ જાતિસ્મરણ જ્ઞાના જીવના હાય છે એટલે કે જાતિસ્મરણ જ્ઞાન સત્તી જીવાને જ થાય છે, અસ`ી જીવાને નહિ. એ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે જ અહીં ‘સન્ની વિશેષણ આપામાં આવ્યું છે. આ રીતે ઈા અપેાહ વગેરેથી જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓને પૂર્વભવ સંબંધી બધું જ્ઞાન થઈ ગયું. એ જ वात (मट्ठसम्म अभिसमागच्छति ) या सूत्र वड़े सूत्र अरे स्पष्ट पुरी छे.
શુ જ
"
( तरणं मल्ली अहा जियसत्तू पामोक्खे छप्परायाणो समुत्पन्न जासरणे जाणित्ता गन्भधराई दाराई विहाडावेइ )
For Private And Personal Use Only
ત્યારબાદ મલ્લી અરિહતે છએ જીતશત્રુ પ્રર્મુખ રાજાએને જાતિસ્મરણજ્ઞાનથી યુક્ત થયેલા જાણીને ગર્ભગૃઢાના ખારણાઓ ઘડાવી દીધા. (तरणं ते जियसत्तू पामोक्खा जेणेव मल्ली अरहा तेणेत्र उत्रागच्छति ) ખારણાએ ઉઘડતાંજ જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએ મલ્લીકુમારી પાસેઆવી ગયા.
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारपर्मामृतवषिणी टी० अ० ८ पदराजजातिस्मरणादिनिरूपणम् १९७ गत्य तदनु पूर्वभवस्य महावलप्रमुखाः सप्ताऽपि बालवयस्याः बालमित्राणि 'एगयो' एकत्र एकस्मिन् स्थाने 'अभिसमन्नागया' अभिसमन्वागताः संमि. लिताश्चाप्यभूवन ' ततस्तदनन्तरं खलु मल्ली अर्हन् तान् जितशत्रुममुखान् घडपि राज्ञः प्रत्येवमवादीत्-हे देवानुपियाः ! एवं खलु अहं संसारभयोद्विग्ना-चतुर्गतिक भवभ्रमणभयाव्याकुला, यावत् प्रवजामिन्दीक्षा ग्रहीष्यामि तत्-तस्माद्, यूर्य खलु 'किं करेह' किं कुरुष किं करिष्यथ, वर्तमानसामीप्ये भविष्यति वर्तमानवत्मयोगः। "किं च ववसह' किं च व्यवस्यथ, कं व्यवसायम् उद्यमं करिष्यथ, यावत्कि मे हियसामस्थे कि गृहे निवत्स्यथ, कामसुखानि कि भोक्ष्यथ किं वा प्रजिष्यय, किं युष्माकं हृदयसामर्थ्यम्-कीदृशं मनोबलं युष्माकम् । ततस्तदनन्तरं खलु जितशत्रुममु वाः षडपि राजानो मल्लोमर्हन्तं प्रत्येवमवदन्-हे देवानुप्रियाः ! यदि ( उषागच्छित्ता तएणं महब्यलपामोक्खा सत्तविय बालवयंसा एगयओ अभिसमन्ना गयायावि होत्था ) वहां जाकर पूर्वभव के महायल प्रमुख सातों ही बालवयस्य इस तरह एकस्थान पर संमिलित हो गये ( तएणं मल्ली अरहा ते जियसत्तू पामोक्खे छप्पियरायाणो एवं वयासी ) इस के बाद मल्ली कुमारी अरिहंत ने उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं से इस प्रकार कहा ( एवं खलु देवाणुप्पिया संसारभय उद्विग्गा जाव पव्वयामि ) हे देवानुप्रियों ! संसारभय से उद्विग्न बनी हुई मैं तो दीक्षित होती हूँ-(तं तुम्भेणं किं करेह किंच ववमह जाव किंभे हियमामत्थे ) अब-तुम सब कहो क्या करोगे क्या उद्यम करोगे घर में रहोगे-काम सुखों को भोगोगे या संगम लोगे ? कहो तुम्हारा मनोबल कैसा है ? (तपणं जियससचू पामोक्खा मल्लिं अरहं एवं वयासी ) मल्ली अरिहंत
( उवागच्छित्ता तएणं महब्बलपामोक्खा सत्तरिय बालवयंसा एगयो अभिसमन्नागया यावि होत्था) આ રીતે પૂર્વભવના મહાબળ પ્રમુખ સાતે બાળમિત્રે એક સ્થાને ભેગા થયા.
(तएणं मल्ली अरहा ते जियसत्तू पामोक्खे छप्पियरायागो एवं वयासी) ત્યારબાદ મલીકુમારી અરિહંતે છતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઓને આ પ્રમાણે, रघु एवं खलु देवा गुपिया संसारभय उठिवग्गा जाव पव्वयामि ). દેવાનુપ્રિય સંસારના ત્રાસથી કંટાળીને હું તે હવે દીક્ષા ગ્રહણ કરું છું. तुम्भेणं किं करेह किं च वरसह जाा कि भे हियसामत्थे ) ।
પણ હવે તમે બધા શું કરશે ? શો ઉદ્યમ કરશે? ઘરમાં રહેશે, કામ સુખે ભગવશે કે સંયમ ગ્રહણ કરશે? બતાવો તમારું સામર્થ્ય કેવું છે? (तएणं जियसत्त पामोक्खा मल्लि अरहं एवं वयासी) भ ६३
For Private And Personal Use Only
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वाताधर्मकथासो यं संसारभयोद्विग्ना यावत् प्रवजथ-प्रव्रजिष्यथ, अस्माकं खलु हे देवानुप्रियाः ! किमन्यदालम्बनं वा सहायो वा कोऽन्य आधारो वा=आश्रयो वा, कः प्रतिबन्धो
कार्यकरणे प्रतिरोधकः सन्मार्गे स्थापयितुं धर्मोपदेशक इत्यर्थः वा, यथैव खलु हे देवानुप्रियाः ! यूयमस्माकमितस्तृतीयभवग्रहणे बहुषु कार्येषु च मेधिः मेधिवदालम्बनम्-आधारो वा किं च यूयं प्रमाण-युष्माननुसृत्य वयमास्मेत्यर्थः, शवद्चक्षुर्भूतः नेत्रवत् समविषममार्गदर्शकाः, धर्मधुराः-धुर व धुरः धर्मस्य धुरः पाएका धर्मप्रवर्तका इत्यर्थः । अस्माकै धर्मरक्षका यूयमास्त, तथैव खलु हे देवानुप्रियाः ! की ऐसी यात सुनकर उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने उन मल्ली अरिहंत से इस प्रकार कहा-( जइणं तुम्भे देवाणुप्पिए संसार जाव पवयह, अम्हे णं देवाणुप्पिए ! के अण्णे आलंबणे वा आहारे वा पडिबंधे वा तह चेवणं देवाणुप्पिए ! तुम्भे अम्हे इओ तच्चे भवगहणे बहुसु कज्जेसु य मेढीपमाणं जाव धम्मधुरा होत्था ) हे देवानुप्रिये! जब तुम संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत् दीक्षा संयम अंगीकार करना चाहती हो तो हे देवानुप्रिये ! कहो फिर हमे तुम्हारे सिवाय अब और कौन दूसरा सहाय करने वाला होगा-कौन हमारा आलंबनभूत होगा कौन हमारा आधार होगा कौन हमें अकार्य करने से मना करने वाला होगा-कौन सन्मार्ग में स्थापित करने के लिये धर्म का उपदेश दाता होगा। जिस प्रकार आप आज से तीसरे भव में हमारे लिये अनेक कार्यों में मेधि की तरह आलंबन रूप हए आधार भूत हुए प्रमाणभूत हुए, सम विषम मार्ग का दर्शक होने से चक्षुभूत
મલી અરિહંતના આ પ્રમાણે વિચારો સાંભળીને તે જીતશત્ર પ્રમુખ છએ રાજાઓએ મલ્લી અરિહંતને કહ્યું કે
( जइणं तुम्भे देवाणुप्पिए संसार जाव पव्ययह, अम्हे णं देवाणुप्पिए ! के अण्णे आलंबणे वा आहारे वा पडिबंधे वा तह चेव णं देवाणुप्पिए ! तुम्भे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कज्जेमु य मेढी पमाणं जाव धम्मधुरा होत्था) -
હે દેવાનુપ્રિય! સંસાર ભયથી વ્યાકુળ થઈને જ્યારે તમે પિતે દીક્ષા . સંયમ સ્વીકારવા ઇચ્છે છે ત્યારે હે દેવાનુપ્રિયે ! બતાવે તમારા વગર અમારે સહાયક બીજો કોણ હશે? અમારે આલંબન કોણ હશે? અમારો આધાર કેણ હશે ? ખોટાં કામ કરતાં અમને રોકનાર કોણ હશે? અમારા જેવા ને સમાર્ગ તરફ વાળનાર ધર્મના ઉપદેશક કેણ હશે? જેમ આજથી પહેલાંના ત્રીજા ભવમાં અમારા માટે ઘણાં કામમાં તમે મેધિની જેમ આલંબન રૂપ થયા, આધાર ભૂત થયા પ્રમાણ ભૂત થયા, સમવિષમ માર્ગને બતાવનાર હોવા બદલ ચકુભૂત થયા, ધર્મની ધુરારૂપ થયા, ધર્મના માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનાર
For Private And Personal Use Only
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० ८ षइराजजातिस्मरणादिनिरूपणम् ४९९ 'इण्हिपि' इदानीमपि यावद् भविष्यथ । वयमपि खलु हे देवानुपियाः ! संसार भयोद्विग्नाः यावद् मीता 'जन्मणमरमाणं ' जन्ममरणेभ्यः आपत्वात्पञ्चम्यर्थे षष्ठी, ' देवाणुप्पियाणं ' देवानुप्रियैः युष्माभिः साई मुण्डा भूत्वा यावत्-प्रत्रजामा दीक्षा ग्रहीष्यामः, ततः-जितशत्रुग्रमुखागां तेषां वचनं श्रुत्वा, खलु मल्ली अहेन् तान् जितशत्रुप्रमुखान् एवमवादी-यदि खलु यूयं संसारभयोद्विग्नाः यावद् मया साध प्रवजथ, तत्-तस्मात् गच्छत खलु यूयं हे देवानुपियाः ! स्वेषु स्वेषु राज्येषु ज्येष्ठान् पुत्रान् राज्ये स्थापयत, स्थायित्वा पुरुषसहस्रवाहिनीः शिविकाः दूरोहत आरोहत, दुरूहाः सन्तो ममान्तिकंपार्भवतः आगच्छत । ततस्तदनन्तरं हुए, धर्म की धुरा रूप हुए-धर्ममार्ग में प्रवृत्ति कराने वाले हुए (तहा चेव णं देवाणुप्पिए ? इहिंपि जाव भविस्सह ) उसी प्रकार इस भव में भी आप ही होवे ( अम्हे वि य णं देवाणु संसारभयउविग्गा जाव भीया जम्ममरणाणं देवाणुप्पियाणं सद्धि मुंडा भवित्ता जाव पव्वयामो) इसलिये-हम भी हे देवाजुप्रिये ! संसारभय से उद्विग्न बने हुए यावत् जन्म मरण से भीत हुए आप देवानुप्रिय ! के साथ ही मुंडित होकर यावत् जिन दीक्षा ग्रहण करेंगे। ___ (तएणं मल्ली अरहा ते जियसत्तू पामोक्खे एवं वयासी-जण्णं तुन्भे संसार जाव मए सद्धिं पव्वयह, त गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! सरहिं २ रज्जेहिं जे पुत्ते रज्जे ठावेह ठावित्ता पुरिससहस्स वाहिणी
ओ सीयाओ दुरूहह ) इस के बाद गल्ली अरिहंत ने उन जितशत्रु प्रमुख राजाओं से इस प्रकार कहा-यदि तुम सब संसारभय से उद्विग्न थया ( तहा चेव णं देवाणुपिए ! इहिंपि जाव भविस्सह ) ते प्रमाणे मा ભવમાં પણ તમે જ અમને ધર્મમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનાર થાઓ. __(अम्हे वि य णं देवाणु० संसारभयउब्बिग्गा जाव भीया जम्ममरणाणं देवाणुपियाणं सद्धि मुंडा भविता जाव पव्ययामो)
એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! સંસાર ભયથી વ્યાકુળ તેમજ જન્મ મરણના ભયથી ત્રસ્ત થયેલા અમે પણ હે દેવાનુપ્રિય તમારી સાથે જ મુંડિત થઈને
ही। स्वीअरी. __ (तएणं मल्ली अहा ते जियसतू पामोक्खे एवं वयासी- जणं तुम्भे संसार जाव मए सद्धिं पव्ययह, तं गच्छह णं तुम्भे देवरणुप्पिया ! सएहिं २ रज्जेहिं जेट्टे पुत्ते रज्जे ठावेह, ठावित्ता पुरिससहस्स वाहिणीओ सीय ओ दुरूहइ)
ત્યાર પછી મલ્લી અરિહંતે જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓને આ પ્રમાણે કહાં કે જે તમે બધા સંસાર ભયથી વ્યાકુળ થઈને મારી સાથે જિન દીક્ષા ગ્રહણું
For Private And Personal Use Only
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्म यात्र खलु ते जितशत्रुप्रमुखाः 'मल्लिस्स अरहतो' मल्ल्या अईतः, एतमर्थ=उक्तरूपमर्थ प्रतिशृण्वन्ति, स्वीकुर्वन्ति स्म । ___ ततः खलु मल्ली अर्हन् , तान् जितशत्रुपमुखान् षडपि राज्ञो गृहीत्वा= साधनीत्वा यौव कुम्भकी राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य कुम्भकस्य पादयोः 'पाडेइ' पातयति-प्रणमयति, ततः खलु कुम्भको राजा तान् जितशत्रप्रमुखान् विपुलेन-प्रचुरेण, अशनपानखाद्यस्वाधेन-चतुर्विधाऽऽहारेण, पुष्पवस्त्रामाल्यालहोकर मेरे साथ जिन दीक्षा धारण करना चाहते हो तो हे देवाणुप्रियो ! जाओ और अपने अपने राज्य में पहिले अपने अपने ज्येष्ठ पुत्र को स्थापित करो-स्थापित करके फिर पुरुष सहस्र वाहिनी शिविकाओं पर पेठो- (दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउभवह ) उन पर बैठे हुए फिर हमारे पास आओ। (तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा मल्लिस्स अरहओ एयम पडिसुणेति ) इस प्रकार उन जितशत्रु प्रमुख राजाओं ने मल्ली अरिहंत की इस बात को स्वीकार कर लिया। (तएणं मल्ली अरहा-ते जियसत्तू गहाय जेणेव कुंभए-तेणेव उवाच्छइ, उवागच्छि. साकुंभगस्स पाएसु पाडेह, तएणं कुभए ते जियसत्तू पोमोक्खे विपुलेणं असण ४ पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ ) इस के पश्चात् उन मल्ली अरिहंत ने उन जितशत्रु प्रमुख राजाओं को अपने साथ लिया
और लेकर वे जहां कुंभक राजा थे वहां पहुंचे वहां पहुँच कर उन्हों ने कुंभक राजा के चरणों में झुका कर उन से वंदना करवाई। કરવા ઈચ્છતા હે તે હે દેવાનુપ્રિયો ! પોત પોતાના રાજ્યમાં તમે જાઓ અને ત્યાં પહેલાં રાજગાદીએ પોતપોતાના મોટા પુત્રને બેસાડે અને પછી પુરુષ सालिनी पासणीसामा मेसो. (दुढा समाणा मभ अंतिय पाउन्भवह) અને મારી પાસે આવે.
(तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा मल्लिस्स अरहओ एयमढे पडिसुणेति) મલ્લી અરિહંતની આ વાતને બધા જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓએ સ્વીકારી લીધી.
तएणं मल्ली अरहा ते जियसत्त० गहाय जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुंभगस्स पाएसु, पाडेइ, तएणं कुभए ते जियसत्तू पामोक्खे विउ. लेणं असण ४ पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सरकारेइ ) '
ત્યારબાદ મલી અરહંતે જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓને પિતાની સાથે લીધા અને લઈને તેઓ જ્યાં કુંભક રાજા હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને કુંભક રાજાના ચરણોમાં વંદન કરાવ્યાં.
કુંભક રાજાએ પણ જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાઓને વિપુલ અશન વગેરે ચાર
For Private And Personal Use Only
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारागीटी अ० ८ पइरानजातिस्मरणादिनिरूपणम् ॥ कारेण सत्करोति, यावत्-प्रतिविसर्जयति । ततः खलु ते नितशत्रुप्रमुखाः कुम्भकेन राज्ञा विसनिताः सन्तः, यत्रैव स्वनि २ राज्यानि, यौव नगराणि तवोपागच्छन्ति, आगत्य स्वानि २ राज्यान्युसंध विहरन्ति । ततः खलु मल्ली अन् संवच्छरावसाणे' संवत्सरावसानेातौं सत्यां । निक्ख मिस्सामि ति' निष्क्रमिष्यामोति दीक्षा ग्रहीयामोति मनसि धारयतिनिश्चिनोति स्म ।। सू० ३६।। ___ कुंभक राजाने भी उन जितशत्रू प्रमुख राजाओं का विपुल अशनादि रूप चतुर्विध आहार से तथा पुष्प; वस्त्र; गंध माल्यादि से सत्कार किया। ( जाव पडिविलम्जेइ ) यावत फिर उन्हे विसर्जित कर दिया। (तरणं ते जियसत्तू पामोक्खा कुंभरणं रणगा विसज्जित्ता समाणा जेणेव साइं साइं रज्जाइं जेगेव नगराइं तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सगाइ रज्जाइं उवसंपन्जिता विहरंति तएणं मल्ली अरहा संवच्छ रावसाणे णिक्खमिस्सामि त्ति मणं पहारेइ ) कुंभक राजा के द्वारा वि. सर्जित होते हुए जितशत्र प्रमुख राजा जहाँ अपने २ राज्य और उन में भी जहां अपने ५ महल थे वहां आये । वहां आकर वे सब अपने २ राज्य कार्यों में संलग्न हो गये। __वर्ष समाप्त होने पर दीक्षा धारण करूँगा ऐसा मल्लि प्रभुने निश्चित विचार कर लिया । सून्न " ३६" माथी तमा पु०५, १२, मध, भाक्ष्य पोथी सला२ ४या. (जाव परिविसज्जेइ ) त्या२मा तेमाने विहाय ४ा.
(तएणं ते जियसत्तू पामोक्खा कुंभए ण रण्णा विसज्जित्ता समाणा जेणेव साई साई रज्जाई जेणेव नगराइं तेणेव आगच्छंति, उवागच्छित्ता सगाई रज्जाइं उत्रसंपज्जित्ता विहरंति, तएणं मल्ली अरहा संवच्छरावसाणे णिक्खमिस्सामि त्ति मणं पहारेइ)
કુંભક રાજાને ત્યાંથી વિદાય થઇને જીતશત્રુ પ્રમુખ રાજાએ જ્યાં પિતપિતાનું રાજય અને તેમાં પણ જ્યાં પિતપોતાના મહેલે હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેઓ બધા પોતપોતાના રાજકાજમાં પરોવાઈ ગયા.
એક વર્ષ પછી દીક્ષા ધારણ કરીશ, મલી પ્રભુએ આ જાતને ચિક્કસ विया२ ४२ बीघा तो. ॥ सूत्र "3" ॥
For Private And Personal Use Only
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५०२
शाताधर्म कथाङ्गसूले मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं सकस्सासणं चलइ, तएणं सके देविंदे३ आसणं चलियं पासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता मल्लि अरहं ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपजित्था-एवं खलु जंबूद्दीवे दोवे भारहे वासे मिहिलाए कुंभगस्स रन्नो भवसि मल्ली अरहा निक्खमिस्साइ ति मणं पहारेइ, तं जीयमेयं तीयपच्चुप्पन्नमणागयाणं सकाणं३ अरहंताणं निक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थ संपयाणं दलित्तए, तं जहा
तिण्णेव य कोडिसया अटासीतिं च होंति कोडिओ। असितिं च सयसहस्सा इंदा दलयंति अरहाणं ॥ १ ॥
एवं संपेहेइ, संहिता वेसमणं देवं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी -एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबद्दोवे दीवेभारहे वासे जाव असीति च सयसहस्लाइं दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! जंबुदीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुंभगभवणंसि इमेयारूत्रे अत्थसंपदाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेवमम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि, तएणं से वेसमाणे देवे सकेणं देविदेणं देवराएणं एवं वुत्ते हढे करयल जाव पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जंभए देवे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासो-गच्छह गंतुब्भे देवाणुप्पिया! जंबूद्दोवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणि कुंभगस्त रन्नो भवणंसि तिन्नेव य कोडिसया अटासीयं च कोडीओ
For Private And Personal Use Only
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० ८ मल्लीभगवहीमावसरनिरूपणम् .. ५०॥ आसियं च सयसहस्साई अयमेयारूवं अस्थसंपयाणं साहरेइ, साहरित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणेह, तएणं ते जंभगा देवा वेसमणेणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव पडिसुति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकमंति, अवक्कमित्ता जाब उत्तरवेउठिवयाई रुवाइं विउव्वांत, विउव्वित्ता ताए उकट्ठाए जाव वीइवयमाणा जेणेव जंबहीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी जेणे कुंभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुंभगस्स रन्नो भवणंसि तिन्नि कोडिसिया जाव साहति, साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव पञ्चप्पिणंति, तएणं से वेसमणे देवे जेणेव सके देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणइ, तएणं मल्ली अरहा कल्लाकल्लि जाव मागअहो पायरा सो त्ति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडिं अट्ठ य अणूणाई सयसहस्साई इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलयइ, तएणं से कुंभए मिहिलाए रायहाणीए तत्थर तहिं२ देसे २ बहूओ महाणससालाओ करेइ, तत्थ णं बहवे मणुया दिगभइभत्तवे. यणा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडति, उवक्खाडित्ता जे जहा आगच्छंति तं जहा-पंथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पडिया वा पासंडत्था वा गिहित्था वा तेसिं य तहा
For Private And Personal Use Only
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
५०४
वाताधकियानसूत्रे
आसत्थस्स वीसत्थस्स सुहासणवरगयस्त तं विपुलं असणं४ परिभाएमाणा परिवसे माणा विहरांति, तएणं मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइवखइ एवं भासइ, एवं पन्नवेइ, एवं परू, एवं खलु देवाणु ! कुंभगस्स रण्णो भवणंसि सव्वकामगुणियं किमिच्छयं विपुलं असणं४ वहुणं समणाण य जाव परिविसज्जइ ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
" वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिजइ बहुविहीयं । सुरअसुरदेवदानव नरिंद महियाणं निक्खमणे ॥१॥ तपूर्ण मल्ली अरहा संवच्छरणं तिन्निकोडिसया अट्ठासीतिं च होंति कोडिओ असितिं च सय सहस्साइं इमेयारूवं अत्थ संपयाणं दलइत्ता निक्खमामित्ति मणं पहारेइ ॥ सू० ३७ ॥
टीका- ' तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सौधर्म कल्पे शक्रस्य = इन्द्रस्य, आसनं चलनस्म, ततः खलु शको देवेन्द्रः = देवानां मध्ये परमेश्ववान् देवराज आसतं चरितं पश्यति दृष्ट्वा 'ओहिं' अवधि' परंज' प्रयुङ्क्ते, केन कारणेन ममासनं चलतीत्येतस्मिन् विषये स्वकीयो रोग नयति स्मेत्यर्थः । प्रयुज्य = अवधिज्ञानेन 'आभोएइ ' आभोगयति = विलोकयति, मल्लो अर्ह संपति
,
' तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि ।
टीकार्य - ( तेणं कालेणं तेणं समए) उस काल और उस समय में (सक्का चलइ ) इन्द्र का आसन चलायमान हुआ (तएण सक्के देविंदे देवराया आसणं चालियं पासर, पासित्ता ओहिं परंजइ, परंजिमल्लि अरहं ओहिणा आभोएइ) देवों के बीच में परम ऐश्वर्यवान्
" तेणं कालेणं तेणं समएणं " इत्यादि ॥
टीडार्थ - (तेण कालेन तेण समरण ) ते अजे भने ते वच्यते ( सक्क राण चइ ) न्द्रनुं आसन रासी उउयु.
( तणं सक्के देविंदे देवराया आसणं चालियं पास, पासिता ओहिं परं जइ, परंजित्ता मल्लि अरहं ओहिणा आभोएइ )
For Private And Personal Use Only
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
1
hot
ज्ञाताधर्मकथा
w
हृति । तत्= तस्मात् 'जीयमेयं' जीतमेतत् - जीतं मर्यादा- परम्पराऽऽगत आचारः एतत् एवमस्ति यद्- 'तीयप चुप्पन्नमगा गयाणे' अतीत प्रत्युत्पनानागतानां =भूतवर्तमान भाविनां कालत्रय वर्तिनामित्यर्थः शक्राणं देवेन्द्राणां देवराजानाम् यद् अईतां भगवतां निष्क्रामतामिमामेत गं वक्ष्यमाणाम् ' अत्थ संपयार्ण' अत्थसंपया ' इति लुप्त द्वितीयान्तम्- अर्थसंपद् खलु दातुम् यदा- अर्हन्तो भगवन्तो निष्क्रमणाभिमुखा भवन्ति, तदा तेषां मातापित्रोर्गृहेऽर्थसंपदमुपनयन्ति देवेन्द्रा इति मर्यादाऽस्तीत्यर्थः । इन्द्राः कियद्रव्यं ददतीत्याकाङ्क्षायामाह तं जहाइत्यादि - तद्यथा ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तिष्णेव य कोडिसया अट्ठासीति च होति कोडीओ । असिति च सयसहस्सा इंदा दलयंति अरहाणं ॥ १ ॥ श्रीण्येव च कोटिशतान्यष्टाशीतिश्च भवन्ति कोटयः । अशीतिश्च शतसहस्राणि इन्द्रा ददति अर्हताम् ॥ १ ॥
श्रीणि कोटिशतात्रि, अष्टाशीति कोटयः, अशी तिशतसहस्राणि वर्णदीनाराणि aresarf निष्क्रमणे वार्षिकदानाय दातव्यानि भवन्ति तानीन्द्रा अर्हतां भवमे ददति = अर्पयन्ति ।
में मल्ली नाम के अरिहंत प्रभु " में दीक्षा धारण करूँगा " ऐसा विचार -कर रहे हैं (तं जीयमेयं तीयपच्चुप्पन्नमणागयाणं सक्काणं ३ अरहंताणं भगवंताणं निक्खममागानां इमेयारूवं अस्थ संपयाणं दलितए ) इस लिये कालत्रयवन्त देवेन्द्रों का परम्परागत यह आचार है कि वे दीक्षा लेने के लिये तत्पर हुए तीर्थकर प्रभुओं के माता पिताओं के घर अर्थ संपत्ति प्रदान करें देवेन्द्र जो अर्थ संपत् प्रदान करते हैं ( तं जहा ) उस का प्रमाण इस प्रकार है तीन सौ करोड, अट्ठासी करोड, और अस्सी लाख स्वर्ण दीनारें । वार्षिक दान में तीर्थकरों के निष्क्रमण के समय में इतना द्रव्य इन्द्र उन के भवन पर लाकर रखते हैं।
( तं जीयमेयं तीय पच्चुपन्नमणा गयाणं सक्कार्ण ३ अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणानां इमेयाख्वं अस्थसंपयाणं दलितए)
એટલા માટે કાળત્રયવતી ધ્રુવેન્દ્રોના પરપરાથી ચાલતા આવેલા આ પ્રમાણેના આચાર છે કે તેઓ દીક્ષા લેવા માટે તૈયાર થયેલા તીથ કર પ્રભુના માતા-પિતાઓને અથ સપત્તિ અપણુ કરે તે પ્રમાણે ઇન્દ્ર અ સંપત્તિ અપે छे (सं जहा) तेनुं प्रमाणु या प्रमाणे छे. “त्रखुसी रोड, हरियाशी रोड भने એશી લાખ સ્વણુ મુદ્રાએ, વાર્ષિક જ્ઞાનમાં, તીર્થંકરાના નિષ્ક્રમણના વખતે આટલું દ્રવ્ય ઇન્દ્ર તેમને ઘેર પહેાંચાડે છે,
66
For Private And Personal Use Only
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतषिणी टी० भ० ८ मल्लीभगवदोमायसरणनिरूपणम् ५०
एवं संपेक्षते-विचारयतिस्म । संपेक्ष्य वैश्रमणं देवं शब्दयति, शब्दयित्वा, एवं वक्ष्यमाणपकारेण, अवादीत्-हे देवानुप्रिय ! एवं खलु जम्बूद्वीपे दीपे भारते वर्षे भरतक्षेत्रे 'यावत्-अशीतिशतसहस्राणि दातुम् ' अंतां भगवतां निष्कमतां त्रीणि कोटिशतानि अष्टाशीति कोटीः अशीतिशतसहस्राणि दातुं सर्वेषामिंद्राणां मर्यादाऽस्तीति भावः । तत्-तस्माद् गच्छ खल देव नुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे मिथिलायां राजधान्यां कुम्भकमाने इमामेत पामर्थसंपदं खलु 'साहराहि' संहर-पापय । संहत्य क्षिप्रमेव शीध्रमेव मम ' एयमागत्तियं ' आनतिका प्रत्यर्पय=ममाज्ञायाः प्रत्यर्पणं कुरु । - ततस्तदनन्तरं खलु स वैश्रमगो देवः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेनैवमुक्तो हष्टः करतलपरिगृहीत दशनखं शिर आवतै मस्तकेऽजलिं कृत्वा यावर 'पडिमुणेइ.' प्रतिशृणोति एवं “ करिष्यामि” इत्युक्त्वा स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य, जुम्भकात्
( एवं संपेहेह, संपेहित्ता वेसमणं देवं सहावेइ, सदायित्ता एवं वयासी) ऐसा विचार उस शक्र देवेन्द्र ने किया । कर के फिर उसने वैश्रमणदेव-कुवेर-को बुलाया-धुलाकर उससे ऐसा कहा-( एवं खलु देवाणुप्पिया । जंबूद्दीवे दोवे भारहे वासे जाव असीतिं च सयसहसाई दलइसए) हे देवानुप्रिय ! इस जंबूद्वीप नाम के द्वीप में भारत वर्ष क्षेत्र में मिथिला नाम की नगरी है। उस के राजा कुंभक के महल में मल्ली नाम की तीर्थकर प्रभु हैं वे दीक्षा लेने का विचार कर रहे हैं। इसलिये इन्द्रों का यह परम्परागत नियम है कि वे उन के निष्क्रमण महोत्सव के समय तीन सौ करोड़, अट्ठासी करोड, और अस्सी लाख स्वर्ण दीनारें वार्षिक दान में देने के लिये उन के माता पिता के भवन । (एवं संपेहेइ, संपेहित्ता वेसमपं देवं सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी)
તે શક દેવેન્દ્ર આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો અને ત્યારબાદ તેણે વૈશ્રમણદેવ मेरने माखाव्यो, मेहावीन तेने धु
( एवं खलु देवाणुपि या ! जूबंदीवे दीवे भारहे वासे जाव असीति च सय सहस्साई दलइत्तए) ' હે દેવાનુપ્રિય ! આ બૂઢીપ નામના દ્વીપમાં ભારતવર્ષ ક્ષેત્રમાં મિથિલા નામની નગરી છે. ત્યાંના રાજા કુંભકના મહેલમાં મલ્ટી નામના તીર્થકર પ્રભુ છે. તેઓ દીક્ષા લેવાને વિચાર કરી રહ્યાં છે. એટલા માટે ઈન્દ્રોને આ
તને પરંપરાથી ચાલતે આવતે નિયમ છે કે તેઓ તેમના નિષ્ક્રમણ મહેત્સવના વખતે ત્રણ કરોડ, ઈકયાશી કરોડ અને એંશી લાખ સોના મહોર વાર્ષિક કાનના રૂપમાં તેમને ત્યાં ઘેર પહોંચાડે.
For Private And Personal Use Only
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०८
शाताधर्मकथासूत्रे
देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - हे देवानुप्रियाः ! गच्छत खलु यूर्य जंबूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे = भरतक्षेत्रे मिथिलायां राजधान्यां कुम्भकस्य रातो
,
- त्रीणि कोटिशतानि, अष्टाशीतिकोटीः, अशीतिशतसहस्राणि इमामेतद्रूपासूर्थसंपदं "साइरह " संहरत = प्रापयत संहृत्य ममाज्ञशिकां प्रत्यर्पयत । ततः खलु तेज़म्मका देवा:, ' वेसणेण वैश्रमणेन = एवमुक्ताः सन्तो हृष्टतुष्टा यावत् प्रतिग्रति स्वीकुर्वन्ति प्रतिश्रुत्य = स्वीकृत्य, 'उत्तरपुरत्थिमं' उत्तर पौरस्त्यम् - ईशानकोप्ररूपं 'दिसोभागं दिग्भागम् ' अत्रकर्मति ' अवक्रामन्ति, गच्छन्ति, अवक्रम्य गत्वा यावत्- 'उत्तरवेउच्त्रियाई रुवाई' ' उत्तरवैक्रियाणि रूपाणि विकुति त्रिकुर्वणां कुर्वन्ति' विकुर्वित्ता' विकुर्वित्ता, ' त्रिकुत्रे ' इति सौत्रो धातुः, तेन लपव न भवति । तयोत्कृष्टया गया दिव्यगत्या देवसम्बन्धि 'वीवयमाणा ' व्यतिव्रजन्तः आगच्छन्तः यत्रैव जम्बूद्वीप द्वीपः, भारतं वर्षे, यत्रैव मिथिला राजधानी, यत्रौत्र कुम्भकस्य राज्ञो भवनं, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य कुम्भकस्य रातो भवने त्रीणि कोटिशतानि यावत् - अष्टाशीतिकोटीः, अशीतिलक्षाणि इमामेतद्रूपामर्थसम्पदं ' साहरंति संहरन्ति प्रापय । संहृत्य - यत्रैव वैश्रमणो देवस्तचैत्रोपागच्छन्ति, उपागत्य करतलपरिगृहीतदशनखं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं पर पहुँचायें ( तं गच्छहणं देवोणुप्पिया ! जंबूद्दीवें दीवे भारहे वाले मिहिलाए कुंभगभवणंस इमेयारूवे अत्य संपदाणं साहराहि ) अतः हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और जंबूद्वीप नाम के द्वीप में स्थित भारत वर्ष क्षेत्र में वर्तमान मिथिला नगरी के कुंभक राजा के भवन पर इतनी पूर्वोक्त अर्थ संपत्ति को पहुँचाओ ( साहरिता खिप्पामेव मम एयमाणतियं पञ्चपिणाहि ) पहुँचा कर पीछे हमें इस की खबर दो । ( तरणं से वेसमणे देवे सक्केणं देविदेणं देवराएणं एवं वुत्ते हट्ठे करयल जाव पडि सुणे ) शक्र देवेन्द्र देव राज के द्वारा इस प्रकार आज्ञापित किये ( तं गच्छ देवाणुपिया जंबू दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुंभग भवसि मेरूवे अथसंपदाणं साहराहि )
"
એટલા માટે હું દેવોનુપ્રિય ! તમે જાએ અને જબુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં સ્થિત ભારતવષ ક્ષેત્રમાં વિદ્યમાન મિથિલા નગરીના કુંભક રાજાના ભવન ઉપર उह्या भुम्म अर्थं संपत्ति भेट द्रव्य तेमने त्यां पडेगा. ( साहरिता विप्पमेव मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि ) पडथाडीने तमे अमने सूचित !!. ( तएण से वेसमणे देवे सक्के णं देविंदेणं देवराएणं एवं वृत्ते हट्ठे करयल जाव पडिसृणे )
For Private And Personal Use Only
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधामृतवर्षिणी टी० अ०८ मल्लीभगहीक्षावसरणनिरूपणम् ०९ कृत्वा यावत्-प्रत्यर्पयन्ति, भवदीयाज्ञानुसारेण सर्वसाधितमस्माभिरिति निवेदयन्ति स्म । ततस्तदनन्तरं खलु स वैश्रमणो देवो यौव को देवेन्द्रो देवराजस्तत्रैवोपागछति, उपागत्य करतवपरिगृहीत दशनवं यावत् प्रत्यर्पयन्ति । गये उस वैश्रवण देव ने हर्षित एवं संतुष्ट होते हुए अपने दोनों हाथों की अंजलि बना कर उसे मस्तक पर रक्खा और नमस्कार कर देवेन्द्र की बात स्वीकार कर ली । “ मैं ऐसा ही करूँगा" इस प्रकार कह कर उस ने उन की आज्ञा मान ली।
(पडि सुणित्ता भए देवे सद्दावेह सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया! जंबूद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणि कुंभ. गस्स भवणंसि तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीयं च कोडीओ आसे यं च सयसहस्साइं अयमेयारूवं अस्थ संपयाणं साहरेइ) आज्ञा मानकर फिर उस ने मुंभकदेवों को बुलाया और बुला कर उन से ऐसा कहाहे देवानुप्रियों ! तुम जंबूद्वीप नाम के इस द्वीप में स्थित भारत वर्ष क्षेत्रान्तर्गत मिथिला नाम की राजधानी में जाओ-और जाकर वहां के कुंभक राजा के महल में तीन सौ अट्ठासी करोड़ ८०, अस्सी लाख सुवर्ण दीनारे पहुँचाओ ( साहरित्ता) पहुँचा कर (मम एयमाणात्तिय पच्चप्पिणेह ) फिर मुझे इस आज्ञा पूर्ति की पीछे खबर दो । (तएणं
શક દેવેન્દ્ર દેવરાજ વડે આ પ્રમાણે આજ્ઞાપિત થયેલા વૈશ્રવણદેવ-કુબેર હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈને પિતાના બંને હાથની અંજલી બનાવીને તેને મસ્તકે મૂકીને નમસ્કાર કર્યા અને દેવેન્દ્રની આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી. “હું આમ જ કરીશ” આ પ્રમાણે કહીને તેમની તેણે આજ્ઞા સ્વીકારી
(पडिमुणित्ता भए देवे सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी गच्छह गं तुन्भे देवाणुप्पिया! जंबूहीवं दी भारहं वासं मिहिलं रायहाणि कुंभगस्स भवणंसि तिन्नेव य. कोडिसया अट्ठासीयं च कोडीओ आसे यं च सयसहस्साई अयमेवारूच अस्थसंपयाण साहरेइ)
આજ્ઞા સ્વીકારીને તેણે ગ્રંભક દેવોને બેલાવ્યા અને બેલાવીને તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે જબૂદ્વીપ નામના દ્વીપમાં સ્થિત ભારતવર્ષ ક્ષેત્રમાં વર્તમાન મિથિલા નામની રાજધાનીમાં જાઓ અને જઈને ત્યાંના કુંભક રાજાના મહેલમાં ત્રણસો કરેડ, ઈક્યાશી કરોડ, એંશી લાખ सोना मारे। ५डयाड.. ( मम एयमाणात्तिय पच्चप्पिणेह ) पयाया माह મારી આજ્ઞા પ્રમાણે સંપૂર્ણપણે કામ પૂરું થઈ ગયું છે તેની મને ખબર આપે,
For Private And Personal Use Only
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-...
बाताधर्मकथाहरणे ते भगा देवा वेसमणेणं एवं धुत्ता समाणा हट्ट तुट्ठा जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता जाव उत्तर वेउब्धियाइं, रुवाइं विउव्वंति) इस के बाद वैश्रमण देव के बारा इस तरह अज्ञापित हुए उन जंभक देवो ने हर्षित एवं संतुष्ट होकर उस की आज्ञा को मान लिया-स्वीकार कर लिया-। स्वीकार कर वे ईशान कोण की ओर गये । वहां जाकर उन्हों ने उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की-(विउन्वित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव वोइवयमाणा जेणेव जंबूहीवे दीवे भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी, जेणेव कुंभगस्स रमोभवणे तेणेव उवागच्छंति) विकुर्षणा करके फिर वे उस देव गति संबन्धी उत्कृष्ट गति से यावत् चलते हुए जहां जंबूद्वीप नाम का द्वीप भारत वर्ष नाम का क्षेत्र, उस में भी जहां मिथिला नाम की राजधानी उसमें भी जहां कुंभक राजा का राज प्रासाद था-वहां आये।
(उवागच्छित्ता कुंभगस्स रण्णो भवणसि तिन्नि कोडिसया जाव साहरंति) वहां आकर उन्हों ने कुंभक राजा के भवन में तीनसौ अट्ठासीकरोड और ८०लाख सुवर्ण दीनारसे भंडार भर दिया। (साहरि
(तएणं जंभगा देवा वेसमणेण एवं वुत्ता समाणा हट्ठ तुट्ठा जाव पडिसुणे ति, पडिमुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीमागं अवक्कमंति अबक्कमित्ता जाव उत्तरवे उब्वियाई रूपाई विउबति)
ત્યારબાદ વૈશ્રવણ દ્વારા આજ્ઞાપિત થયેલા ઝભક દેવેએ હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થઈને તેની આજ્ઞાને માની લીધી એટલે કે તેની આજ્ઞા સ્વીકારી. સ્વીકાર્યા બાદ તેઓ ઈશાન કેણુ તરફ ગયા. ત્યાં જઈને તેઓએ ઉત્તર વૈકિય રૂપની વિકુણા કરી.
(विउव्बित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव वीइवयमाणा जेणेव जंबूहीवे दीवे भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी, जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छंति)
વિમુર્વણા કર્યા પછી તેઓ દેવગતિ સંબંધી ઉત્કૃષ્ટ ગતિથી ચાલતાં જ્યાં જબૂઢીપ નામે દ્વીપ, ભારતવર્ષ નામે ક્ષેત્ર અને તેમાં પણ જ્યાં મિથિલા નામની રાજધાનીમાં કુંભક રાજાને મહેલ હતું ત્યાં ગયા.
(उबागच्छित्ता कुंभगस्स रण्णो भवणंसि तिन्नि कोडिसया जाव साहरं ति) ત્યાં જઈને તેઓએ કુંભક રાજાના મહેલમાં ત્રણ ઈર્ષાશીકરોડ અને એંશી લાખ સોનામહેર ભંડાર–ખાનામાં મૂકી દીધી.
For Private And Personal Use Only
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मगारधामृतषिणी टी० म०८ मल्लीभगवडीभावसरणनिरूपणम
ततस्तदनन्तरं खलु मल्ली भईन् 'कल्लाकल्लि ' कल्याकरये प्रतिदिवस 'जाय मागहो पायरासोत्ति' योवत्-मागधकं प्रातराशं, मगधदेशसम्बन्धिनं प्रातराशे -पाभातिकं भोजनकालं यावत् आरभ्म प्रहरद्वयपर्यन्तं पहुभ्यः 'सणाहाण य' सनाथेभ्यः-स्वस्वामिकेभ्यश्च ' अणाहाण य ' अनाथेभ्यश्चरकेभ्यश्च, ' पंथियाग य' पान्थिकेभ्यः पन्थानं नित्यं गच्छन्तीति पान्यास्त एव पान्थिकास्तेभ्यश्च, 'पहियाण य' पथिकेभ्यः-पथि गच्छन्तीति पाथिकास्तेभ्यश्च, 'करोडियाण य' कारोडिकेभ्यः करोटथा कपालेन चरन्तीति करोटिकास्तेभ्यश्र, 'खप्परधारी' इतिभाषाप्रसिद्धेभ्यश्च, 'कप्पडियाण य' कार्पटिकेभ्यः-कर्पटेश्वरन्तीति कार्पटि कास्तेभ्यः, कन्याधारि-भिक्षुकेभ्यः, एकमेकहिरण्यकोटिम् , तथा-' अष्ट च साजेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्सा करयल जाव पच्चण्पिणंति) रखकर फिर वे जहां वैश्रमण देव था वहां गये वहा जाकर उन्हों ने हाथ जोडकर " आपकी आज्ञानुसार हमने कुंभक राजा के भवन अर्थ संपदा पहुँचा दी है, ऐसी खपर उसे पीछे कर दी । (तएणं मल्ली अरहा कल्लाकल्लि जाव मागहओ पायरासोत्ति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पंथिया य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडिं अट्ठय अणूणाई सयसहस्साई इमेयारूवं अस्थ संपदाणं दलया) इसके बाद मल्ली अरिहंत प्रभु ने कल्याकल्य-प्रतिदिन प्रात: समय से लेकर दोपहर तक अपने सनाथों को, अनाथों को, पन्थिकों को, पथिकों, खप्पर धारियो को, कन्था धारियों को प्रतिदिवस १ वर्ष तक १ करोड ८० अस्सी लाख स्वर्ण दीनारें दीं।
(साइरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता करयल भाव पचप्पिणति) - મૂક્યા પછી તેઓ જ્યાં વૈશ્રમણ દે હતા ત્યાં ગયા, ત્યાં જઈને તેઓએ હાથ જોડીને તમારી આજ્ઞા મુજબ અમોએ કુંભક રાજાના ભવનમાં અર્થ, સંપત્તિ પહચાડી દીધી છે. “આ પ્રમાણેની સૂચના કરી.
(तरण मल्ली अरहा ! कल्लाकल्लि जाव मागहओ पायरासोत्ति बहणं सणाहाणा य अणाहाण य पंथियाणय परियाण य करोडियाण य कप्पडियाणय एगमेगं हिरण्णकोडिं अट्ठ य अणूणाई सयसहस्साई इमेयारूवं अत्थसंपदार्ण दलयइ) ત્યારબાદ મલ્લી અરહંત પ્રભુએ કલ્યાકલ્પ દરરોજ સવારના વખતથી માંડીને બરસુધી ઘણા સનાથને, અનાથને, પાંથાને અને પથિકને, ખપ્પરધારીઓને, કન્યાપારીઓને એક વર્ષ સુધી એક કરોડ એંશી લાખ સેના મહેરે આપી.
For Private And Personal Use Only
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथा अन्यूनानि पूर्णानि शतसहस्रागि'लक्षाणि एककोटिमष्टलक्षाणि च स्वर्णदीनारागि इमामेतद्रूपामर्थसम्पदं 'दलयइ' ददाति ।
ततस्तदनन्तरं खलु कुम्भको राजा मिथिलायो राजधान्यां तत्र तत्र अवान्तर पुरादौ, तथा तस्मिन् तस्मिन् देशेदेशे शृङ्गाटकादौ बढीमहानसशालाः ओदनादीनां पाकगृहाणि-कारयति । ततः खलु बहवो मनुष्याः ते कथंभूता इत्याह-'दिष्ण भइभत्तवेयणा' इति, दतभृतिभक्तवेतना:-दत्तं भृतिभक्तलक्षणं द्रव्यं भोजनस्वरूपं वर्तनं मूल्यं येभ्यस्ते तथा, यद्वा-भृत्तिभरणं पोष्यवर्गार्थमन्नादिकं, भक्त-स्व. भोजनार्थ, वेतनं -अशनादि संस्कारकरणपारिश्रमिकं च तानि दत्तानि भृतिभक्तवेतनानि येभ्यस्ते तथा, विपुलमशनपानखाद्यखाद्यम्-' उपक्खडेंति' उपस्कुर्वन्ति चतुर्विधाहारं निष्पादयन्ति, उपस्कृत्य, ये यथाऽऽगच्छन्ति ' तंजहा' तद् यथा... प्रतिदिन-नित्य-मार्ग चलने वाले व्यक्ति यहां पान्धिक शब्द से, तथा जब कभी मार्ग चलने वाले व्यक्ति पथिक शब्द से गृहीत हुए है। लएण से कुंभए मिहिलाए रायहाणीए नत्थ २ तहिं २ देसे २ बही माणससालाभो करेइ, तत्वणं बहवे मणुया, दिन्नभइभत्तवेयणी निपुलं असंण पाणं खहमं साइमं उपक्खडेंति उवक्खडित्ता जे जहा
आगच्छह ) इस के अनन्तर उन कुंभक राजा ने मिथिला राजधानी में जहां तहां अवान्तर पुर आदि में-उस प्रदेश में शृंगाटक आदि रास्तों में अनेक रसोई घर स्थापित करवा दिये, उनमें अनेक रसोइये अज्ञात पान आदी रूप चतुर्विध आहार विपुल मात्रा में बनाते थे। - इसके उपलक्ष्य में उन्हे तथा उनके पोष्य वर्ग के लिये वहां से भो. जन मिलता था और उन भोजन बनाने वालों के लिये वहां से वेतन भी मिलता था। वे विपुल मात्रा में अशन पान, खाद्य, स्वाद्य तथा रूप
દરરોજ નિત્ય રસ્તે ચાલતા રહેનારાઓ અહીં “પથિક' શબ્દથી તેમજ કઈક દિવસ રસ્તે ચાલનારાઓ “પથિક' શબ્દથી સમજવાં જોઈએ.
(तएण से कुंमए मिहिलाए रायहाणीए तत्थ २ तर्हि २ देसे २ बहूओ महाणससालाओ करेइ, तत्वणं बहवे मणुया, दिन्नभइभत्तवेयणा बिपुलं असण पाणं खाइमं साइमं उवकवडे ति, उवक्खडित्ता जे जहा आगच्छइ)
ત્યારબ દ કુંભક રાજાએ મિથિલા નગરીમાં બધે અવાન્તરપુર વગેરેમાં તે પ્રદેશમાં શૃંગાટક વગેરે રસ્તામાં ઘણું રસોઈ ઘર સ્થાપિત કરાવડાવ્યાં. તેઓમાં ઘણા રાઈયાએ અશન, પાન વગેરે રૂપમાં પુષ્કળ પ્રમાણુમાં ચાર જાતના આહાર તૈિયાર કરતા હતા.
એના બદલ તેઓને તથા તેમની સાથેના બીજા માણસને ત્યાંથી ભજન મળતું હતું અને રસોઈ તૈયાર કરનાર માણસે ને પગાર પણ મળતું હતું. તેઓ પુષ્કળ પ્રમાણમાં અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્યના રૂપમાં ચાર જાતના
For Private And Personal Use Only
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ मल्लीभगहीक्षाघसरणनिरूपणम् ५५४ पान्थिका वा, पथिका वा कारोटिका वा कार्पटिका वा 'पासंडत्था वा पारखण्डस्थाः पाखण्डधर्मस्थिता', तथा-गृहस्था वा, तेसिं च तेषाम् आगतानां, चकार:समुच्चयार्थः, तथा तत्र तत्र देशे देशेऽवस्थितस्य च-आश्वस्थस्य विश्वस्थस्थ सुखासनवरगतस्य तद् विपुलमशनं पानं खाद्यं खाद्यं परिभाएमाणा' परिभाजयन्तः विभागं कुर्वन्तः 'परिवेसेमाणा' परिवेषयन्तः भोजनपात्रे स्थापयन्तः विह. रन्ति ये खलु मिथिलानगयों तत्र तत्र देशे देशे वहवो मनुष्या विपुलस्याशनादि चतुर्विधाऽऽहारस्य निष्पादका आसन , ते पान्थिकादिभ्यः तत्तद्देशावस्थितेभ्यश्च विपुलस्याशनाधाहारस्य परिवेषणं कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति स्मेत्यर्थः । . ततस्तदनन्तरं खलु मिथिलायां शृङ्गाटकादौ देशे देशे यावत्-बहुजनोन्यस्य -परस्परमेवम् आख्याति कथयतिस्म, एवं 'भासइ ' भाषत्ते, साश्चर्य वक्ति, अपूर्व चतुर्विध आहार को पका कर वहाँ जो जैसे आते थे (तंजहा) यथा -चाहे वे ( पंथियावा पहिया वा करोडिया वा, कप्पडिया वा पासंडस्था वा गिहत्था वा ) पांथिक जन हो चाहे पथिक जन हो, खपर धारी भि. क्षुक हो चाहे कंथाधारी भिक्षुक हो पाखंडी धर्म में स्थित हो, चाहें गृह स्थजन हो, (तेसिंय-तहा आसत्थस्स, वीसत्थस्स सुहासणवरगयस्स तं विपुलं असणं ४ परिभाएमाणा परिवेसे माणा विहरंति) उन सबको तथा अन्य और भी उस उस देश में रहें हुए मनुष्यों को, आश्वस्थों को, विश्वस्तों को, एवं सुवासनवरगतों को उस विपुल अशनादिरूप आहार को घाँट देते थे तथा वहीं पर जिमा देते थे।
(तएणं मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइ. क्खइ, एवं भासह एवं पनवेइ, एवं परूवेह, एवं खलु देवाणु० !
माहारी तयार ४शन त्यां गमे ते॥ भासा माता (तं जहा) २ (पंथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पडिया वा पासंडत्था वा गिहत्था वा) પથિક જન, બપધારી ભિક્ષુક, કંથાધારી ભિક્ષુક, પાખંડી ધર્મને અચરનારા અને ગૃહસ્થીઓ ગમે તે જાત પંથના લેકે ત્યાં આવતા. . (तेसिंय तहा आसत्थरस, सुहासणवरगयस्स तं विपुलं असणं ४ परिभाए माणा परिवेसेणा विहरति)
તેઓ બધાને તેમજ તે દેશમાં રહેનારા બીજા ઘણા માણસેને, આશ્વ સ્થાને, વિશ્વસ્ત અને સુખાસનવર તેને તે પુષ્કળ પ્રમાણમાં બનાવવામાં આવેલો આહાર વહેંચવામાં આવતું હતું તેમજ તેઓને ત્યાંજ જમાડવામાં પણ આવતા હતા.
(तएण मिहिलाए सिंघाडग जाव बहु जणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ,एवं
For Private And Personal Use Only
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथासूत्र भोजनदानं, न श्रुतं नापिटष्टमित्याश्चर्यपूर्वकं वर्णयतीत्यर्थः । एवं ' पनवेइ' प्रज्ञापयति विस्तारेण बोधयति, एवं 'परूवेइ' प्ररूपयति-सदृष्टान्तं वर्णयति, किमाख्यातीत्याह-' एवं खलु ' इत्यादि-एवं खलु हे देवानुपियाः ! कुम्भकस्य राज्ञो भवने ' सव्वकामगुणियं ' सर्वकामगुणितं सर्वेन्द्रियमुखजनक किमिच्छयं' किमिच्छकम्-इच्छानुसारं विपुलमशनपानखाद्यस्वाधं बहुभ्यः श्रमणेभ्यो ब्रामणे. भ्यश्च, यावत् यथा समागतेभ्यः सनाथानाथपान्थिकादिभ्यः परिवेष्यते ।
"वरवरिया घोसिज्जइ किमिच्छयं दिज्जए बहरिहीयं । सुरअसुरदेवदाणव नरिंदमहियाण निक्खमणे ॥१॥"
'वरवरिया' वरवरिका-वर वा-याचस्त्र याचस्त्र इति घोषणा, घोसिज्जा' कुंभगस्स रण्णो भवणंसि सव्व कामगुणियं किमिच्छियं विपुलं असणं ४ षहणं समणाणंय जाव परिवेसिज्जेह ) इस कारण मिथिलो नगरी में शृंगाटक आदि स्थानों पर अनेक जन मिल २ कर एक दूसरे से ऐसा कहने लगे, आश्चर्य युक्त होकर इस प्रकार घोलने लगेविस्तार पूर्वक इस प्रकार एक दूसरे को समझाने लगे, तथा दृष्टान्त देकर २ इस प्रकार वर्णन करने लगे-हे देवानुप्रियों। कुंभक राजा के भवन पर सर्वेन्द्रिय सुख जनक, अशन पान, खाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार अनेक श्रमणों के लिये, ब्राह्मणों के लिये यावत् समागतों के लिये, सनाथों अनाथों के लिये और पांथिकोदिकों के लिये इच्छोनुसार दिया जाता है (वरवरिया घोसिज्जा, किमिच्छियं दिज्जए पहू विहीयं, सुर असुर देव दाणवनरिंद महियाण निक्खमणे) सुर असुर, देव, दानव, एवं नरेन्द्रों द्वारा पूज्य तीर्थकरों के निष्क्रमण के भासइ एवं पन्नवेइ. एवं परूवेइ, एवं खलु देवाणु ? कुंभगस्स रणो भवर्णसि सव्वकामगुणिय किमिच्छियं विपुलं असणं४ बहूणं समणाणं य जोव परिवेसिज्जेइ)
એના લીધે મિથિલા નગરીના શૃંગાટક વગેરે સ્થાનમાં નાગરિકોનાં ટેળે ટેળાં એકઠાં થઈને આશ્ચર્ય પામતાં વિસ્તારપૂર્વક એક-બીજાને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યાં, સમજાવવા લાગ્યાં તેમજ દૃષ્ટાન્ત આપીને આ પ્રમાણે વર્ણન કરવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિયે ! કુંભક રાજાના મહેલમાં સેન્દ્રિય સુખજનક અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્યરૂપ ચાર જાતને આહાર ઘણા શ્રમણ, બ્રાહ્મણે, સમાગતે, સનાથ, અનાથ અને પાંથિઓ વગેરેને માટે ઈચ્છા મુજબ આપવામાં આવે છે.
वरवरिया धोसिज्जइ, किमिच्छियौं दिज्जए बहुविहीय, सुर असुर देव, दाणवनरिदं महियाण निक्खमणे)
સુર, અસુર, દેવ, દાનવ અને નરેન્દ્રોવડે પૂજ્ય તીર્થકરોના નિષમણના સમયે “માંગ, માંગ” આ જાતની ઘોષણા કરવામાં આવી છે અને ઘણી
For Private And Personal Use Only
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५१५
arraran टीका भ० ८ मल्लीभगद्दीक्षोत्सव निरूपणम् घोष्यते किमिच्छयं-किमिच्छकम् इच्छानुसारं दीयते बहुविधिकम् । सुरासुरदेव दानवनरेन्द्र महितानां =अर्हतां तीर्थंकराणां निष्क्रमणे ॥ १ ॥
ततः खलु मल्ली अर्हन् अस्य - ' मणं पहारेह ' मनसि प्रधारयति, इत्यनेन सम्बन्धः । किं मधारयतीत्याह- 'संवच्छरे' संवत्सरे खलु त्रीणि कोटिशतानि अष्टादश च भवन्ति कोटयः । अशीतिशतसहस्राणि स्वर्णदीनाराणि तीर्थकर निष्क्रमणे दातव्यानि भवन्ति इमामेतद्रूपामर्थसंपदं खलु दत्वा निष्क्रमामि दीक्षां ग्रहीष्यामि इति ॥ सू० ३७ ॥
मूम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्टे विमाणे पत्थडे सएहिं२ विमाणेहिं सरहिं२ पासायवडिसएहिं पत्तेयं२ चउहिं सामाणियसाहस्सीहि तिहिं परिसाहिं सतहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं य बहूहिं लोगंतिएहिं देवेहिं सहिं संपवुिडा महया हयनदृगीयवाइय जाव खेणं दिव्वाई भोग भोगाई समय में " मांगो मांगो " ऐसी घोषणा कराई जाती है और अनेक प्रकार का किमिच्छक ( तुम्हारी क्या इच्छा है ) दान भी दिया जाता है । (तएण मल्ली अरहा संवच्छरणं तिन्नि कोडिसया अट्ठासीतिं च होति कोडीओ असितिं च सयसहस्साइं इमेयारूवं अत्थ संपयाणं दलहत्ता निक्खमोमित्ति मणं पहारेइ ) अबमल्ला अरिहंत ने एक साल में तीन सौ करोड़-तीन अरब अट्ठासी करोड़ ८० लाख स्वर्ण दीनारें तीर्थंकर निष्क्रमण ( दीक्षा अवसर पर ) में दातव्य होती हैं सौ मैं इतनी अर्थ संपत्ति देकर दीक्षा ग्रहण करूँगा " ऐसा मन में निश्चित विचार किया। सूत्र ३७
16
"
15
જાતનું ‘ કિમિચ્છક ’ (તમારી શું ઈચ્છા છે ? ) દાન પણ આપવામાં આવે છે. ( aणं मल्ली अरहा संच्छरेण तिन्नि कोडिसया अट्ठासीति च होंति कोडीओ असिति च सयसहस्साई इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलइत्ता निक्खमो मिचिमणं पहारे)
હવે મલ્લી અરહતે “ એક વર્ષમાં ત્રણસેા કરાડ, ત્રણ અબજ, અઠયાશી કરોડ એંશી લાખ સેાના મહેારા તીર્થંકર નિષ્ક્રમણ ( દીક્ષાના સમયે ) માં આપવામાં આવે છે તે હું આટલી અર્થ સપત્તિ આપીને જ દીક્ષા ગ્રહણુ કરીશ ” આ પ્રમાણે મનમાં ચાસપણે વિચાર કર્યો. ॥ સૂત્ર
"(
""
३७
For Private And Personal Use Only
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूब भुंजमाणा विहरंति, तं जहा-'सारस्सयमाइच्चा वह्नि-वरुणा य गदतोया य । तुसिया अव्वाबाहा अग्गिच्चा चेव रिट्ठाय ॥१॥” तएणं तेसि लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं२ आसणाई चलंति तहेव जाव अरहंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करेत्त एत्ति तं गच्छामो णं अम्हेवि मल्लिस्स अरहओ संबोहणं करेमि त्तिकट्ठ एवं संपेहेंति, संपेहित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभायं अवकमंति, अवकमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं संमोहणंति, समोहणित्ता संखिज्जाइं जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवन्ना सखिखिणियाइं जाव वत्थाई पवरपरिहिया करयल० ताहिं इट्ठाहिं जाव वग्गूहिं एवं वयासी-बुज्झाहिं भयवं! लोगनाहा! पवत्तेहि धम्मतित्थं जीवाणं हियसुहनिस्सेयसकरं भविस्सइ त्तिकदृ दोच्चपि तरचपि एवं वयंति, वयित्ता मल्लि अरहं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। तएणं मल्ली अरहा तेहि लोगतिएहिं देवेहिं संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवा० करयल० इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुज्णाए समाणे मुंडे भवित्ता जाव पव्वइत्तए, अहासुहं देवा० ! मा पडिबंध करेहि, तएणं कुंभए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव असहस्सं सोवणियाणं जाव भोमे
For Private And Personal Use Only
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ८ मल्लीभगवहीझोत्सवनिरूपणम् ५९७ जाणंति, अण्णं च महत्थं जाव तित्थयराभिसेयं उवट्वेह जाव उवट्ठति, तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चुयपज्जवसाणा आगया, तएणं सक्के३ आभिओगिए देवे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवणियाणं जाव अण्णं च तं विउलं उवहवेह जाव उवट्वेंति, तेवि कलसा ते चेव कलसे अणुपविटा, तएणं से सक्के देविंदे देवराया कुंभराया य मल्लि अरहं सीहासणं पुरत्थाभिमुहं निवेसेइ अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं जाव अभिसिंचइ, तएणं मलिस्स भगवओ अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया देवा मिहिलं च सभितरबाहिरियं जाव सव्वओ समंता परिधावति, तएणं कुंभए राया दोच्चंपि उत्तरावकमणं जाव सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव मणोरमं सीयं उवट्टवेह, ते उक्टूवेति. तएणं सक्के ३ आभिओगिए. खिप्पामेव अणेगखंभ० जाव मणोरमं सीयं उववेह जाव साविसीया तं चेव सायं अणुपविट्रा ॥सू०३६॥
टीका-' तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये लोका. न्तिका देवा ब्रह्मलोके कल्पे रिष्टविमानप्रतरे स्वकेषु स्वकेषु विमानेषु स्वकेषु
'तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यादि । टीकार्थ-(तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में ( लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पेरिट्ठविमाण पत्थडे ) लोकान्तिक देवों के जो ब्रह्मलोक नाम के कल्प में स्थिन रिष्ट विमान पाथडे में वर्तमान
( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) इत्यादि। टी -(तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते णे अने. ते समये (लोगतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्रविमाणपत्थडे ) खोsiति है। यो प्रसार नामना કલ્પમાંસ્થિત રિટ પાથડામાં રહેલા.
For Private And Personal Use Only
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्भकथासून स्वकेषु मासादावतंसकेषु प्रत्येकं२ चतुर्थिः सामानिकसहः, तिमृभिः परिषद्भिः सप्तभिरनीकैः इस्त्यश्वस्थपदातिमहिषगन्धर्वनाट्यरूपैः सप्तकटकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, षोडशभिरात्मरक्षकदेवसहस्रः, अन्यैश्च बहुभिलोंकान्तिकै वैः सार्ध संपरिवृताः, ' महया ' महता ' अहयनट्टगीयवाइय रवेणं ' अहत नृत्यगीतवादित्ररवेण अहस: अप्रतिहतः, नृत्यगीतवादित्राणां यो रवः = मधुरध्वनिस्तेन भोग. भोगान्-दिव्यमुखभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति-आसते। तद्यथा-तेषां नामान्याह__ " सारस्सयमाइच्चा, वहि वरुणा य गद्दतोया य।
तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेवरिट्टा य ॥१॥” इति ॥ (१) सारस्वताः, (२) आदित्याः, (३) वह्नयः, (४) वरुणाच, (५) गर्ततो. (सएहिं २ विमाणेहिं, सरहिं २ पासायडिंसरहिं पत्तेयं २ चाहिं सामाणियसाहस्सीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणिया हिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं बहूहिं लोगंतएहिं देवेंहिं सहिं संपरिघुडा) अपने २ विमानों में रहे हुए अपने २ श्रेष्ठ प्रासादों में अलग २ चार २ हजार सामानिक देवों के साथ, तीन २ परिषदाओं के साथ, सात २ अनीकों के साथ, सात २ अनीकाधिपतियों के साथ सोलह २ आत्म रक्षक देवों के साथ तथा और भी अन्य लोकान्तिक देवों के साथ रहते हैं ( महया हयनदृगीयवाहय जाव रवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति ) एवं जो नृत्य गीत, तथा याजों की अप्रितिहत ध्वनि पूर्वक दिव्य भोगों भोगा करते हैं । (तं जहा ) इन लौकान्तिक देवों के आठ भेद होते हैं वे आठ भेद ये हैं१ सारस्वत २ आदित्य, ३ बह्नि, ४ वरुण-५ गततोय, ६ तुषित, - (सएहिं, २ विमाणेहिं २ पासायवडिसएहिं पत्तेयं २ चउहि समाणिय साहस्सीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिबई हिं आयरक्खदेव साहस्सीहिं अन्नेहिं बहूहि लोगंतएहि देवे हि सहि सं परिवुडा)
પિતપતાના વિમાનમાંના ઉત્તમ પ્રાસાદમાં જુદા જુદા ચાર હજાર સામાનિક દેવની સાથે, ત્રણ ત્રણ પરિષદાઓની સાથે, સાત સાત અનકની સાથે, સાત સાત અનીકાધિપતીઓની સાથે, સેળ સોળ આત્મરક્ષક દેવની સાથે તેમજ બીજા પણ લૌકાંતિક દેવની સાથે રહે છે (महया हयनदृगीय वाइय जाव रवेणं दियाई भोगभोगाई भुजमाणा विहति)
અને જેઓ નૃત્ય, ગીત તેમજ વાજાઓની અપ્રહિત ધ્વનિપૂર્વક દિવ્ય लगाना पले ४२॥ २९ छ. (तं जहा) मा aiति हेवी मा દે હોય છે તે આ પ્રમાણે છે-૧ સારસ્વત, ૨ આદિત્ય, ૩ વહિ, ૪ વરૂણ,
For Private And Personal Use Only
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
-
-
---
-
अपमारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ मल्लीभगवाहीक्षोरसवनिरूपणम् ५६५ याथ, (६) तुषिताः, (७) अव्यावाधाः, (८) आग्नेयाश्च, एतेऽष्टौ कृष्णराज्य काशान्तरस्थायि-विमानाष्टकवासिनः, तथा (९) रिष्टाश्च = रिष्टाख्यविमानमतरवासिनः।
ततस्तदनन्तरं खलु तेषां लोकान्तिकानां देवानां प्रत्येकंर आसनानि चलन्ति तथैव यावत्-सौधर्मेन्द्रवदेवावधिं प्रयुञ्जते, प्रयुज्य मल्लीमहन्तमाभोगयति ततः खल्वेवं संकल्पः समुदपद्यत-मल्ली अर्ह निष्क्रमितुमिच्छति, एवं मर्यादाऽस्ति ७ अव्यायाध ८ आग्नेय ये आठ लोकान्तिक देव कृष्ण राज्य............ भिन्न २ आठ विमानों में रहते हैं। तथा जो रिष्ट हैं वे रिष्ट नामक विमान प्रतर में रहते हैं । (तएणं ) सो (तेसि लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं २ आसणाई चलंति) इन लौकान्तिक देवों के प्रत्येक के आसान कंपित हुए।
(तहेव जाव अरहत्ताणं देवाणं निक्खममागाणं संबोहणं करेत्तए त्तितं गच्छामोणं अम्हे विमल्लिस्स अरहओ संयोहण करेमि त्तिकटूटु एवं संपेहेंति ) अतः इन्हों ने सब ने अपने २ अबधिज्ञान से विचार किया कि हमारे आसन कंपित क्यों हुए हैं सो जिस तरह से सौध. मेन्द्र ने अपने आसन कंपित होने का कारण जान लिया था उसी प्रकार इन्हों ने भी जोन लिया। इस तरह कारण जानकर इन्हों के मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि मल्ली अर्हन् घर से निकल ने की-दीक्षा अंगीकार करने की इच्छा कर रहे हैं -सो हम लौकान्तिक देवों की ऐसी ૫ ગાય, ૬ તુષિત, ૭ અવ્યાબાધ, ૮ આગ્નેય. એ આઠ લેકાંતિક દેવ કૃષ્ણરાજ્ય જુદા જુદા આઠ વિમાનમાં રહે છે. તેમજ જે રિપ્ટ છે તેઓ रिट नाम विमान प्रतरमा २ छ. (तएण) तामा प्रमाणे (तेसि लोयंति याणं देवाणं पत्तेयं २ आसणाइ चलंति ) 21 m asiति: हेवामाथी हरेना આસને ડેલવા માંડયાં.
( तहेव जाव अरहंताणं देवाणं निक्खममाणाणं संबोइणं करेत्तए ति तं गच्छामोणं अमेवि मल्लिस्स अरहओ संवोहणं करेमि त्ति कटु एवं संपेहेति)
એટલા માટે આ બધા દેએ પિતા પોતાના અવધિજ્ઞાન વડે વિચાર કર્યો કે અમારા આસને શા માટે છેલવા માંડયા છે? તે જેમ ઈન્ડે પિતાના આસનને ડોલવાનું કારણ જાણ્યું હતું તે પ્રમાણે આ બધાએ એ પણ જાણી લીધું.
આ પ્રમાણે કારણની ખાત્રી કરીને તેમના મનમાં આ જાતનો વિચાર ઉદુભ કે મલ્લી અહન ઘેરથી નીકળી જવાની દીક્ષા સ્વીકારવાની ઈચ્છા કરી રહ્યાં છે, તે આ સમયે અમારા જેવા બધા લેકાંતિક દેવની એવી
For Private And Personal Use Only
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५९०
हाताधर्मकथाङ्गले छोकान्तिकदेवानां, यद् अर्हता निष्कामतां संबोधनं कर्तु मिति = दीक्षावसरं बोधयितुमित्यर्थः, तद्-तस्माद् गच्छामः खलु वयमपि मल्ल्या अहं तो संबोधन कुर्म इति कृत्वा एवं संप्रेक्षन्ते-विचारयन्ति संप्रेक्ष्य, उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् ईशानकोणम् अवक्रामन्ति, अवक्रम्य वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति उत्तरवैक्रिय कुर्वन्ति । समवहत्य संख्यातानि योजनानि यावत्-दण्ड निःसारयन्ति, दण्डं रत्नमयं कुर्वन्ति-कृत्वा च एवं यथा जृम्भकाः-जुम्भकदेववद् देवलोकसम्बन्धि दिव्यगत्या यावत्-यौव मिथिला राजधानी यसैव कुम्भकस्य राज्ञो भवनं यत्रैव मल्ली अन तत्रैवं पागच्छन्ति ओगत्य अन्तरिक्षप्रतिपन्नाः गगनस्थाः, सकिमर्यादा हैं कि वैराग्य की मन में भावना ज्यों ही तीर्थकरों को आवेतब उन्हें संबोधन करना-यह कहना कि भगवान् ! यह दीक्षा के लिये उचित अवमा है। इमलिये हम लोग भी चलें और मल्ली अहंत को संषोधन करें । ऐसा विचार कर (उत्तरपुरस्थिमं दिसीभायं अवश्कमंति, श्वामित्ता वेउवियममुग्घारणे समोहणति, समाहणित्ता संखिज्जाई जोयगाइं एवं भगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे, जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति) वे सब के सब लोकान्तिक देव ईशान कोण में गये-वहां जाकर उन्हीं ने वैक्रिय समदान से उत्त वैक्रिग की विकुर्वणा की-विकुर्वणो कर के उन्हों
को समय दण्डाकार रूप में बाहर निकाला। बाद में जंभक देवों की तरह वे मय देव लोक संबन्धी उत्कृष्ट गति से जहां मिथिला राजधानी थी-उम में भी जहां कुंभक राजा का भवन મર્યાદા (પ્રણાલિકા) હોય છે કે તીર્થકરોના મનમાં જ્યારે વૈરાગ્યની ભાવના ઉદ્દભવે કે તરત જ મને સંબોધન કરવું–એટલે કે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરવી કે હે ભગવન! દીક્ષા ગ્રહણ કરવાનો આ ઉચિત અવસર (સમય) છે. એટલે અમે પણ ત્યાં જઈએ અને તેઓને સંબોધન કરીએ. આમ વિચાર કરીને
(उत्तर पुरत्थिमं दिसीभाय अवक्कमंति. अवक्कमित्ता, वेउब्बिय समुग्धाएणं समोहणति, समोहणित्ता, संखिज्जाई जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे, जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उबागच्छंत्ति )
તેઓ બધા લૌકાંતિક દે ઈશાન કેણમાં ગયા, ત્યાં જઈને તેમણે વૈકીય સમુઘાતથી ઉત્તર વૈક્રિયની વિકુર્વણા કરી, વિર્વણા બાદ તેમણે પોતાના - આત્મપ્રદેશોને રત્નમય દંડાકાર રૂપમાં બહાર કાઢયા.
ત્યારપછી ગ્રંભિક દેવેની જેમ તેઓ બધા દેવલોક સંબંધી ઉત્કૃષ્ટગતિથી જ્યાં મિથિલા રાજધાની હતી તેમાં પણ જ્યાં કુંભક રાજાને મહેલ અને મલ્લી અહત વિરાજમાન હતા ત્યાં પહોંચ્યા.
For Private And Personal Use Only
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारांमृतवर्षिणी टीका म. ८ मल्लीभगवदीक्षोत्सवनिरूपणम् ५१ किणीकानि क्षुद्रमण्टिकायुक्तानि यावद् वस्त्राणि 'पवर परिहिया' प्रवरेण विधिना परिहिताः दिव्यवस्त्रधारिण इत्यर्थः, करतलपरिगृहीतदशनवं शिर आवतं मस्तके. ऽञ्जलिं कृत्वा ताभिरिष्टाभि कमनीयाभिवाग्भिरेवमवादीत्-हे भगवन् ! हे लोकनाथ ! ' बुज्झाहि ' बोधय, भव्यजीवान प्रवर्तय धर्मतीर्थचतुवर्षिसंन्धरूपं धर्मतीर्थप्रवर्तनस्य फलमाह-'जीवाणं' इत्यादि, जीवानां 'हीयसुहनिस्सेय. सकर' हितसुखनिश्रेयसकरं, हितकर - नरकनिगोदादि दुःखनिवारकत्वात् , था-उस-में भी जहां मल्ली अर्हत विराजमान थे वहां आये । ( उवा गंच्छित्ता अंतलिखपडिवन्ना सखिखिणियाइं जाव वत्थाई पवरपरि हिया करयल० ताहिं इट्ठाहिं जाव वागूहिं एवं वयासी-बुज्झाहिं भयवं । लोगनाहा ! पवत्ते हिं धम्मतित्थं जीवाणं हियमुहनिस्सेयसकरं भवि स्सइ) वहां आकर भी वे नीचे नहीं उत्तरे किन्तु आकाशमें अधर खड़े बोले । उस समय उन्हों ने बड़े सुन्दर वस्न जो कि क्षुद्र किंकिणियों से युक्त थे पहिर रखे थे। अधर रहे हुर ही उन्होंने दोनों हाकी अंजुलि पना और उसे मस्तक पर रख वहीं से मल्लि अहंत को नमस्कार किया पाद में वडी मीठी २ मनोहर वाणियों द्वारा उन से इस प्रकार कहा-हे भगवान् हे लोक नाथ! भन्यजीवों को आप समझाओ चतुर्विध संघरूप धर्मतीर्थ की आप प्रवृति करो। इससे जीवों नरक निगोद आदि के दुःखों से छुटकर वह धर्मतीर्थ हितकारी होगा। स्वर्ग आदि
(उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवन्ना सखिखिणियाई जाव वत्थाई पवरपरिहिया करयळ० ताहिं इटाहि जाव वग्गहि एवं वयासी मुज्झाहिं भयवं ! लोगनाहा पवत्तेहिं धम्मतित्थं जीवाणं हिय मुय निस्सेयसकर' भविस्सइ)
ત્યાં પહોંચીને તેઓ નીચે ઉતર્યા નહિ પણ આકાશમાં જ અદ્ધર ઊભા રહીને બોલ્યા-દેવોએ તે વખતે સુંદર વસ્ત્રો પહેરેલાં હતાં. તેમનાં વસ્ત્રો નાની નાની ઘૂઘરીઓથી શોભતાં હતાં. આકાશમાં અદ્ધર રહીને જ તેઓએ પિતાના બંને હાથની અંજલી બનાવી અને તેને મસ્તકે મૂકીને ત્યાંથી જ મલી અહં તને નમસ્કાર કર્યો. ત્યારપછી પૂબ જ મીઠાં અને મને હર વચને દ્વારા તેઓ તેમને વિનંતી કરતાં કહેવા લાગ્યા- હે ભગવાન! હે લોકનાથ ! તમે ભવ્યજીને જ્ઞાન આપે. ચતુર્વિધ સંધ રૂપ ધમતીથેની તમે પ્રવૃત્તિ કરે. એનાથી જીવોને નરક નિગઢ વગેરેના દુઃખોથી મુક્ત કરાવીને હિતકારી ધર્મ તીર્થ તરફ તેમને ઉમુખ કરે. તે ધર્મતીર્થ તે લોકોના માટે સ્વર્ગ વગેરેને અમદ (અતીવ) આનંદ આપનાર હોવાથી સુખકર થશે. તેમજ મુક્તિ
For Private And Personal Use Only
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथा सुखकर स्वर्गायमन्दानन्दजनकत्वात् , निःश्रेयसकर-मोक्षमापकत्वात् , भविष्य तीति कृत्वा-उक्त्वा, द्वितीयवारमपि, तृतीयवारमपि एवं वदन्ति, उक्त्वा, मल्लीम् 'महन्तं वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नत्वा यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूतास्तामेवं प्रतिगताः।
ततस्तदनन्तर खलु मल्ली अर्हन तैलोकान्तिकैर्देवैः संबोधितः सन् यत्रेव मातापितरौ तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरआवर्त मस्तका अमन्द अत्यन्त अनन्द का प्रदाता होने से वह धर्मतीर्थ उन्हें सुख कर होगा। तथा मुक्ति प्राप्ति का कारण होने से वह धर्मतीर्थ उन भव्य जीवों को निःश्रेयसकर होगा (तिकटु दोच्चपि तच्चपि एवं वयंति, वयित्ता मल्लि अरहं वंदति, नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया ) इस प्रकार कह कर उन लोकान्तिक देवों ने दुवारा तथा तिवारा भी ऐसा ही कहा-कह कर फिर उन्हों ने मल्ली अरिहंत को वंदना की-नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा की तरफ चले गये।
(तएणमल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहिं देवे हिं संगहिए समाणे जेणेव अम्मा पियरोतेणेव उवागच्छंति-उवागच्छित्ता करयल इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मुंडे भवित्ता जाव पवह तए, अहाप्सुहं देवाणु०मा पडिपंधं करेहि ) इस प्रकार उन लोकान्तिक देवों द्वारा संबोधित होते हुए वे मल्ली अरहंत जहां अपने माता पिता મેળવવાનું કારણ હવા બદલ તે ધર્મતીર્થ તે ભવ્ય જીવેના માટે નિઃશ્રેયસ્કર થશે.
(तिक दोच्चंषि एवं वयंति, वयित्ता मल्लि अरहं वंदंति, नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया)
આ રીતે કહીને તે લેકાંતિક દેએ બીજી અને ત્રીજી વખત પણ આ પ્રમાણે જ વિનંતી કરી વિનંતી કરીને મલ્લી અહં તને તે દેએ વંદન અને નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેઓ જે દિશા તરફથી પ્રગટ થયા હતા તે દિશા તરફ જ જતા રહ્યા.
(तएणं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहिं देवेहि संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छंति-उवागच्छित्ता करयल० इच्छामि णं अम्मयाओ तुम्भेहि अन्मणुण्णाए समाणे मुंडे भवित्ता जाव पन्चइत्तए, अहा मुहं देवाणु० मा पडिबंध करेहि)
આ પ્રમાણે લોકાંતિક દે વડે સંબંધિત થતાં મહિલા અરહંત જ્યાં પિતાના માતાપિતા હતાં ત્યાં આવ્યાં. ત્યાં આવીને તેઓએ સૌ પહેલાં પિતાના
For Private And Personal Use Only
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी दी० अ० ८. मल्लीभगयोमोत्सवनिरूपणम् ५॥ केशलिं कृत्वा, एवमवादीत्-इच्छामि खलु हे अम्ब ! हे तात ! युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् मुण्डो भूत्वा यावत् प्रत्रजितुम् , मातापितरावृचतुः-हे देवानुपिय ! यथासुखं भवेत् तथा कुरु, मा प्रतिबन्ध-विलम्ब मा कुरु। ततः मल्लीमहन्त मेवमुक्त्वा, खलु स कुम्भकः कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत क्षिममेवाष्टसहस्रम्-अष्टाधिकसहस्र(१००८) सौर्गिकानां यावद् अत्र यावदित्य ये-वहां आये। यहां आकर उन्हों ने पहिले उन्हें दोनों हाथ जोड कर चरणों में नमस्कार किया। बाद में वे बोले-कि हे अम्ब हे तात ! मैं आप लोगों से आज्ञा लेकर मंडित हो यावत् दीक्षा लेना चाहती हूँआ. पकी आज्ञासे मुझे दीक्षा लेना है इस प्रकार मल्लीअरिहंतकी बात सुन कर उन के माता पिता दोनों ने उन से " यथामुख देवानुप्रिय।" जैसे तुम्हें सुख हो-तुम वैसा करो-देरी मत करो ऐसा कहा । (तएण कुंभए कोडुंबिय पुरिसे सहावेह, सदावित्ता एवं क्याली खिप्पामेव अह सहस्सं सोवणियाण जाव भोमेज्जाणंति, अण्ण च महत्थं जाव तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह जाव उवटुति ) इस के बाद कुंभक राजाने अपने कौटुम्धिक पुरूषों को बुलाया और घुला कर उनसे ऐसा कहा-हे देवानु प्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही १००८ सुवर्ण निमित कलशों को रूप्यमय कलशोंको मणिमय कलशों को सुवर्ण रुप्य निर्मित कलशोंको, सवर्ण मणि निर्मित कलशों को, रूप्यमणि निर्मित कलशों को, स्वर्ण, માતાપિતાના ચરણોમાં નમસ્કાર કર્યા. ત્યારબાદ તેઓ કહેવા લાગ્યાં કે હે માતાપિતા ! હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને મુંડિત થઈને દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ચાહ છે. ” મલી અહંતના મોંથી આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને તેમના માતા पितामा तेमने ४युं " यथासु वानुप्रिय !" मेट वानप्रिये! તમને જેમ સુખ પ્રાપ્ત થાય તેમ કરે અને મોડુ કરે નહિ.
(तएणं कुंभए कोडुंबियपुरिसे सहावे, सहावित्ता एवं क्यासी खिप्पामेच अहसहस्सं सोवणियाणं जाव भोमेजाणंति, अण्णं च महत्थं जाब तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह जाव उवटुति )
ત્યારપછી કુંભક રાજાએ પોતાના કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તમે લેકે સત્વરે એક S२ मा8 (१००८) सोनाना शो, याहीन शी, मणिमय सी, સોના અને ચાંદીથી બનાવેલા કળશે, સેના અને મણિએથી બનાવવામાં
For Private And Personal Use Only
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५२४
शाताधर्मकथाङ्गो नेनेदं बोध्यम्-रूप्यमयाणां, मणिमयानां सुवर्णरूप्यनिर्मितानां सुवर्णमणिनिर्मितानां, रूप्यमणिनिर्मितानां, स्वर्णरूप्यरत्नमयानामिति । भौमेयानाम् पार्थिवानां घटानामिति अन्यच्च महार्थ यावत्-तीर्थकराभिषेकम् तीर्थकरनिष्क्रमणाभिषेकसाधनम् ' उवट्ठवेह ' उपस्थापयत, प्रापयत, यावत् - उपस्थापयन्ति ।।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये चमरोऽसुरेन्द्रः यावद्-अच्युत पर्यवसाना:चमरेन्द्रादारभ्याच्युतेन्द्रपर्यन्ताश्चतुः षष्टि संख्यका इन्द्राः, आगताः । ततस्तदनन्तरं खलु शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सौधर्मेन्द्रः, आभियोगिकान् देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेवाष्टसहस्रं सौवर्णिकानां यावत्-अन्यच्च तद् रूप्य, मणि निर्मित कलशों को मिट्टी के कलशों को तथा और भीमहार्थ-महा प्रयोजन साधक भूत-तीर्थ कर-निष्क्रमणाभिषेक (दिक्षाके) साधनों को उपस्थित करो। राजा की इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर उन लोगो ने आज्ञानुसार सय साधनों को उपस्थित कर दिया।
(तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असरिंदे जाव अच्चुयपज्जव साणा आगया, तएणं सक्के ३ आभियोगिए देवे सदावेइ, सद्दोवित्ता एवं पयासी) उस काल में और उस समय में चरमेन्द्र से लेकर अच्यु तेन्द्र पर्यन्त ६४ इन्द्र आ गये। इस के अनन्तर शक देवेन्द्र देव राज ने-सौधर्मेन्द्र ने-आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उन से इस प्रकार कहा-(खिप्पामेवअट्ठसहस्स मोवणियोणं जाव अण्णं च तं विउलं उवट्ठवेह, जाव उवट्ठवेंति ) तुम लोग शीघ्र ही १००८, सुवर्ण आदि के निमित्त कलशों को तथा और भी विपुल मात्रा में तीर्थंकर આવેલા કળશે, સોના ચાંદી અને મણિઓથી બનાવેલા કળશે, માટીના કળશે તેમજ બીજા પણ મહાઈ–મહાપ્રયજન સાધકભૂત-તીર્થકર નિષ્કમણુભિષેકના સાધને લાવે. રાજાની આ પ્રમાણે આજ્ઞા મેળવીને તેઓએ આજ્ઞા મુજબજ બધા સાધને લઈ આવ્યા.
(तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चूयाज्जवसाणा आगया. तएणं सक्के ३ अभियोगिए देवे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी)
તે કાળે અને તે સમયે ચરમેન્દ્રથી માંડીને અય્યતેન્દ્ર સુધીને ચૂસકે - ઈદ્રો આવી પહોંચ્યા.
ત્યારબાદ શક દેવેન્દ્ર અને દેવરાજે-સૌધર્મો- આભિયૌગિક દેને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે(खिप्पामेव असहस्स सोवणियाणं जाव अण्णं च तं विउलं उवटवेह जाव उपवेति) તમે લોકે સત્વરે એક હજાર આઠ (૧૦૦૮) સેના વગેરેથી બનાવવામાં આવેલા કળશે તેમજ બીજા પણ તીર્થકરોના અભિષેક માટેનાં સાધને પુષ્કળ
For Private And Personal Use Only
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बेमेपारधर्मामृतवर्षिणी रीका अ० ८ मल्लीभगवडीमोत्सवनिरूपणम् ५२५ विपुलं तीर्थकराभिषेकसाधनमुपस्थापयत, यावद्-उपस्थापयन्ति । तेऽपिदेवो. पस्थापिताः सर्वेऽपि कलशास्तानेव-कुम्भकोपस्थापितानेव कलशान् अनुप्रविष्टाः, दिव्याः कलशा दिव्यानुभावेन कुम्भककलशेषु प्रविष्टास्तेन कुम्भककलशाना शोभतिशयः संजात इति भावः । ___ततस्तदन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः कुम्भको राजा च मल्लोमन्तिं सिंहासने पौरस्त्याभिमुख-पूर्वदिशाऽभिमुखं निवेशयति-उपवेशयति । अष्टसहस्रेणअष्टाधिकसहस्रेण, सौवणिकानां यावत् अभिषिञ्चति, अष्टाधिकसहस्रसंख्यकैः प्रत्येकं कलशैः सौवर्णिकादि स्नपयतीत्यर्थः ततस्तदनन्तरं खलु मल्ल्या भगवतोके अभिषेक के साधनों को उपस्थित करो। उन सब ने वैसा ही किया। (ते वि कल सा तेचेव कलसे अणुपविट्ठा, तएणं से सक्के देविंदे देवराया कुंभराया य मल्लि अरहं सीहातणं पुरस्थाभिमुहं निवेसेइ.) इस तरह कुंभक राजा द्वारा उपस्थापित कलशों के साथ २ वे सब दिव्य कलशएक जगह मिलाकर रख दिये गये।
इससे कुंभक राजा के कलशों की शोभा और अधिक बढ़ गई। बाद में शक्र देवेन्द्र देवराज ने और कुंभक राजा ने मल्ली अर्हन्त को सिंहासनके उपर पूर्वाभिमुख करके बैठा दिया । (अट्ठसहस्सेणं सोवणिः याणं जाव अभिसिंचइ, तएण मल्लीस्स भगवओ अभिसेए वद्यमाणे अप्पेगइया, देवा मिहिलं च समितरवाहिरियं जाव सव्यओ समंता परिधावंति ) बैठा ने के बाद फिर उन्हों ने उन १००८, सुवर्ण आदि के प्रत्येक कलशों से उनका अभिषेक किया। પ્રમાણમાં લાવે. તેઓ બધાએ તેમ જ કર્યું.
(ते वि कलसा ते चेव कलसे अणुपविट्ठा, तएणं से सक्के देविंदे देवराया कुंभराया य मल्लि अरहं सीहासणं पुरत्थाभिमुहं निवेसेह )
આ રીતે કુંભકરાજા વડે મૂકાએલા કળશોની સાથે જ તે દિવ્ય કળશે પણ એક જ સ્થાને ગોઠવી દીધા.
એનાથી કુંભક રાજાના કળશેની શોભા ખૂબ જ વધી ગઈ. ત્યાર પછી શક દેવેન્દ્ર દેવરાજ અને કુંભક રાજાએ મલ્લી અહં તને સિંહાસન ઉપર પૂર્વ દિશા તરફ મેં રાખીને બેસાડી દીધાં.
( अट्ठ सहस्सेणं सोपणियाणं जाव अभिसिंचा, तएणं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया, देवा मिहिलं च सभितरवाहिरियं जाब सबओ समंता परिधावति)
બેસાડીને તેઓએ એક હજાર આઠ સેના વગેરેના દરેકે દરેક કળશથી તેમને અભિષેક કર્યો.
For Private And Personal Use Only
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
বাঝাথায়, ऽभिषेके वर्तमानेऽप्येकका: अप्येके-केचन देवाः मिथिला राजधानी च साभ्यन्तरं वाह्य अन्तर्बहिश्च यावत्-सवर्तः समन्तात्-दिक्षु विदिक्षु परिधावन्ति हातिशयेन कूर्दन्ति स्म । ततस्तदनन्तरं कुम्भको राना द्वितीयवारमपि — उत्तरा वक्रमणं' उत्तरावक्रमणम्-उत्तराभिमुख मल्ली निवेश्य यावत्-सर्वालङ्कारविभूषितां करोति । कृत्वा, कौटुम्बिकपुरुषान् शन्दयति, शन्दयित्वा, एवमवादी-हे देवा. नुमिया ! सिममेव मनोरमां शिबिकामुपस्थापयत । ततस्तदनन्तरं खलु शको देवे.
इस प्रकार जब मल्ली अहैत का अभिषेक हो रहा था-तब कितनेक देव हर्षातिशयके वशवर्ती होकर मिथिला नगरीमें भीतर और बहार सब ओर इधर से उधर कूद रहे थे । (तएणं कुभए रोया दोच्चपि उत्तराव क्कमणं जाव सन्चालंकारविभूसियं करेइ करित्ता कोडुषियपुरिसे सदावेद सावित्ता एवं वयासी) जब अभिषेक क्रिया समाप्त हो चुकी-तष कुंभक राजाने दूसरी बार फिर मल्ली अरिहंत को पूर्वकी ओर मुख करके सिंहा सन पर बैठाया और उन्हें समस्त अलंकारो से विभूषित किया बाद में कौडम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे ऐसा कहा-(खिप्पामेव मनोरमं सो. 2. उववेह, ते उवट्ठति तएण सक्के २ आभियोगिए • खिप्पामेव अणेव खंभ • जाव मनोरम सोयं उवट्ठवेह जाव सा वि सीया तं चेव सीय अणुपविट्ठा) तुमलोग शीघ्र ही अनेक स्तम्भ शत युक्त एक शिविका को उपस्थित करो- उन लोगों ने भी राजा की आज्ञानुसार शीघ्र वैसीही शिक्षिका लाकर उपस्थित कर दी । इस के अनन्तर शक देवेन्द्र
આ પ્રમાણે જ્યારે આબાજુ મલ્લી અર્વતને અભિષેક થઈ રહ્યો હતો ત્યારે મિથિલા નગરીની બહાર અને અંદર ચોમેર હર્ષાતિરેકથી કેટલાક દેવતાઓ આમતેમ કૂદી રહ્યા હતા.
(तएणं कुंभए राग दोच्चंपि उत्तरावकमणं जाव सन्यालंकारविभूसियं करेइ, करिता कोदुवियपुरिसे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी)
જ્યારે અભિષેકની વિધિ પૂરી થઈ ત્યારે કુંભક રાજાએ બીજી વખત મહલી અને પૂર્વની તરફ મોં રાખીને બેસાડયા અને તેમને બધાં ઘરે ણાંઓથી શણગાર્યા. ત્યારપછી કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવીને તેઓને હુકમ કર્યો કે । (खिप्पामेव मनोरमं सीयं उववेह, ते उवट्ठवेंति, तएणं सक्के ३ आभियो. (निए विप्पामेव अणेग खंभ० जाव मनोरमं सीयं उबटवेह जाव सावि सीया तं वेव सीयं अणुपविट्ठा)
- તમે લેકે સેંકડે થાંભલાઓવાળી એક પાલખી સત્વરે લા. કૌટુંબિક પુરૂષે પણ જલદીથી રાજાની આજ્ઞા મુજબ પાલખી લઈ આવ્યા. ત્યારબાદ
For Private And Personal Use Only
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अगाधर्षिणी टीका भ० ८ मलीभगवद्दक्षोत्सवनिरूपणम् द्रो देवराजः - अभियोग्यान् देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा, एवमवादीत् हे देवासुप्रियाः क्षिममेव ' अणेगखंभ० जाव मणोरमं सीयं उवद्यवेद्द ' अनेकस्तम्भशत संनिविष्टां यावद् - मनोरमां शिबिकाम् उपस्थापयत, यावत् सापि शक्रो देवेन्द्रो - पस्तापितापि शिविका तामेव- कुम्भकोपस्थापितामेवशिबिकामनुप्रविष्टा दिव्यानुभाषेनेति भावः । सू०३८ ।।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मूलम् - तणं मल्ली अरहा सीहासणाओ अब्भुट्ठेइ अन्भुद्विता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मनोरमं सीयं अणुपयाहिणी करेमाणा मणोरमं सीयं दुरूहड़, दुरूहित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाहिमुहे सन्निसन्ने, तरणं कुंभए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सहावेइ सदावित्ता एवं वयासीतुम्भे णं देवाणुप्पिया ! पहाया जाव सव्वालंकारविभूसिया महिस्स सीयं परिवहह. जाव परिवहंति, नए मक्के दाबदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लं उवलिं बाहं गण्हइ, ईसाणे उत्तरिल्लं गेण्हइ, चमरे दाहिणिल्लं हेट्टिल्लं, बलो उत्तरिल्लं हेटिल्लं, अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहति ।
61
पुवि उक्खित्ता माणुस्सेहिं तो हहरोमकूवेहिं । पच्छावहंति सीयं, असुरिंदसुरिंद नागिंदा ॥ १ ॥ चलचत्र लकुंडलधरा,
देवराज ने भी अभियोगिक देवों को बुलाया और उनसे अनेक स्तम्भशत युक्त शिविका ( पालखी) ले आने को कहा - उन्होंने भी शीघ्र वैसी दी शिबिका (पालखी) लाकर वहाँ उपस्थित कर दी । वह शिबिका अपने दिव्य प्रभाव से कुंभक राजाकी शिबिका के साथ मिल गई। सूत्र " " ३८ "
("
-
શક્ર દેવેન્દ્ર દેવરાજે પણ આભિયાનિક દેવાને મેલાવ્યા અને તેમને સેકડા ચાંભલાઓવાળી પાલખી લાવવાના હુકમ કર્યાં. તે લેકા પણ સત્વરે પાક્રૃખી લઈ આવ્યા, દેવાજની તે પાલખી પેાતાની દિવ્ય પ્રભાથી કુંભક રાજાની પાલખી સાથે ભળી ગઇ. ા સૂત્ર
३८ " ॥
For Private And Personal Use Only
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
५२८
सच्छंदवि उव्वियाभरणधारी । देविंददाणविंदावहंति सीयं जिदिस्स ॥ २ ॥ " तरणं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्टमंगलगा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिया एवं निग्गमो जहा जमालिस्स, तरणं मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पे० देवा मिहिलं सब्भितरबाहिरियं आसियसंमज्जिओवलित्तं जहा उववाईए जाव परिधावति, तणं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उत्रागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चीरुहइ पच्चोरुहित्ता आभरणालंकारं मुंबइ, तं पभावई पडिच्छाई । तरणं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ । तणं सक्के देविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता खीरोदगसमुद्दे पक्खिवइ । तएणं मल्ली अरहा 'णमोऽत्थुर्ण सिद्धाणं तिकट्टु सामाइयचरितं पडिवज्जइ, जं समयं वर्ण मल्ली अरहा चरितं पडिवज्जइ तं समयं च णं देवाणं माणुस्साण य णिग्घोसे तुरियनिणायगीयवाइयनिग्घोसे य सक्कल वेयणं संदेसेणं णिलुक्के यावि होत्था । जं समयं चणं मल्ली अरहा सामाइय चरितं पडिवन्नं तं समयं चं णं मल्लिस्स अरहओ माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपजवनाणे समुप्पन्ने । मल्लीणं अरहा जे से हेमंताणं दोच्चे मासे उत्थे पक्खे पोससुद्धे, तस्स र्ण पोससुद्धस्स एकारसीपक्खेणं पुव्वण्हकालसमयसि अट्टमेण भत्तेणं अपाणएणं अस्सिणीहिं नक्खतेणं
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
ܐܕ
५२९
अनगारधर्मातर्षिणी टीका अ०८ मलीभगवदीक्षोत्सव निरूपणम जोगमुवागणं तिहि इत्थीसएहि अभितरियाए परिसाए, तिहिं पुरिसस एहिं बाहिरियाए परिसाए सद्धि मुंडे भविता पवइए । मरिहं इमे अट्ठ रायकुमारा अणुपव्वसु-सं जहा - " णंदेय दिमित्ते सुमित बलमित्त भाणुमित्ते य । अमरवर, अमरसेणे, महसेणे, चेव अट्टमए ॥ १ ॥ " तएण से भवणबइ४ मल्लिस अरहओ निक्खमणमहिमं करेंति, करित्ता जेमेव नंदी सरवरे० अट्टाहियं करेंति करिता जाव पडिगया । तपणं मही अरहा जं चेव दिवसं पव्वाइए तस्सेव दिवसस्स वरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहासनसवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहि पसः स्थाहिं साहिं विसुज्झमाणीहि तयावरणकम्मरयविकरणकरं अवकरणं अणुपविट्टस्स अनंते जाव केवलवर नाणदंसणे समुन्ने || सू० ३९ ॥
टीका' तरणं मल्ली ' इत्यादि । ततस्तदनन्धरं खलु मल्लीं अईन सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय यत्रैत्र मनोरमाशिविका तत्रैत्रोपागच्छति उपागत्य मनोमां शिविकां 'अणुपाहणी करेमाणा' अणुप्रदक्षिणी कुर्वाणा=आनुकूल्येन तणं मली अरहा- इत्यादि । '
"
टीकार्थ - (ए) इसके बाद (मल्ली अरहा सीहासणाओ अग्मुर) मल्ली अर्हत सिंहासन से उठे (अभुट्ठित्ता जेजेब मनोरमा सीया तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता मणोरमं सीयं अणुपयाहिणी करेमाणा मणोरमं सीयं दुरुह दुरुहिता सोहासणवरगये पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने) "तपणं मल्ली अरहा टीअर्थ - (तपणं) त्यारभाट (मल्ली अग्हा सीहासणाओ अब्भुट्टेइ) भब्दी ईत સિંડાસન ઉપરથી ઉભા થયાં.
इत्यादि
( अब्भुट्टित्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता मणोरमं सी अणुपयाहिणी करे माणा मगोरमं सीयं दुरूहिता सीहासणवरगए पुरस्थाभि सन्निसन्नि)
ब्रा ६७
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५३०.
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
स्वशुभवाच्छया - स्वदक्षिणभागे कुर्वती, मनोरमां शिविकां ' दुरुहइ ' दरोहति= आरोहति, दुरुह्य सिंहासनवरगतः पौरस्त्याभिमुखः = पूर्वदिङ्मुखः सन् सन्निषण्णः। ततः खलु कुम्भकोऽष्टादश ' सेणिप्पसेणीओ ' श्रेणि प्रश्रेणीः=शिविकावाहकान् - अवान्तरजातीयपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीद= हे देवानुप्रियाः ! यूयं खलु स्नाता यावत् - सर्वालङ्कारविभूषिताः मल्ल्याः शिविकां परिवहत, स्कन्धोपरिधारयत यावत् - परिवहन्ति ।
उठकर वे जहां वह मनोरम शिबिका थी वहां गये। वहां जाकर वे उस मनोरम शिबिका को अपने शुभ की वाञ्छा से अपने दक्षिण भाग में करते हुए उस शिबिका पर आरूढ हो गये आरूढ हो कर फिर वे पूर्व दिशा की तरफ मुख कर के उस पर रखे हुए सिंहासन पर बैठ गये। (तरणं कुंभए अट्ठारससेणिप्प सेणीओ सहावेह, सद्दावित्ता एवं बयासी) इस के बाद कुंभक राजा ने १८, श्रेणी प्रश्रेणी जनों को-शिबिका वाहक १८ प्रकार के अवान्तर जातीय पुरुषों को बुलाया और बुला कर उन से ऐसा कहा - (तुम्भेणं देवाणु पियो ! व्हाया जाव सव्वालंकार विभूसिया मल्लीस्स सीयं परिवहह, जाव परिवहति ) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग स्नान कर तथा समस्त अलंकारों से विभूषित होकर मल्ली अर्हत की पालखी को उठाओ राजा की इस प्रकार आज्ञा पाकर उन लोगों ने उस पालखी को अपने २ स्कंधो पर उठा कर रख लिया (तरणं सक्के देविंदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्ल उवरिल्लं
અને ઉભા થઇને જ્યાં મનેારમ પાલખી હતી ત્યાં પહોંચ્યાં. ત્યાં પહેાંચીને તેઓ તે મનેરમ પાલખીને આત્મશ્રેયની ઇચ્છાથી પેાતાની જમણી માજુએ રાખીને તે મનેારમ પાલખી ઉપર ચઢીને તે પૂર્વાંઈશા તરફ માં કરીને તેના ઉપર મૂકેલા સિંહાસન ઉપર બેસી ગયાં.
( तरणं कुंभए अट्ठारस से णिपसेणीओ सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी ) ત્યાર પછી કુંભક રાજાએ અઢાર શ્રેણી પ્રશ્રેણીજનાને પાલખી ઉચકનારા અઢાર પ્રકારના અવાંતર જાતિના પુરૂષાને મેલાવ્યા અને ખેલાવીને તેઓને આદેશ
याच्या } -
――
( तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! व्हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया मल्लिम्स सोयं परिवहह जाव परिहंति )
હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે સ્નાન કરેા અને ત્યારબાદ બધા અલ'કારેાથી અલકૃત થઈને મલ્લી અર્હ તની પાલખીને ઉંચકે. રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે જ લેાકેાએ તરત સ્નાન કરીને પાલખીને પાતપેાતાના ખભા ઉપર ઉચકી લીધી.
For Private And Personal Use Only
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतषिणी टीका 80 ८ मल्लीभगवदीक्षोत्सवनिरूपणम् ५३१
ततः खलु शक्रो देवेन्द्रो देवराजो मनोरमायाः शिबिकाया दक्खिणिल्लंदाक्षिणात्यं-दक्षिणदिग्भागस्थमः, ' उवरिल्लं' उपरितनं उपरिभागस्थं 'बाह' बाहुंदण्डं गृह्णाति ईशानः-ईशानेन्द्रः-'उत्तरिल्लं' उत्तरदिग्भास्थम् उपरितनं बाहुं दण्डंगृह्णाति, चमरः-चमरेन्द्रः 'दाहिणिल्लं' दाक्षिणात्य दक्षिणदिग्भागस्थं 'हेटिल्लं' अधस्तनं दण्डं गृह्णाति, बली-बलोन्द्रः " उत्तरिल्लं' उत्तरीयम्उत्तरभागस्थम् अधस्तनं दण्डं गृह्णाति अवशेषा देवाः भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्कवैमानिकेन्द्राः, 'जहारिहं ' यथाऽहं-यथायोग्य स्व स्व योग्यताऽनुसारं मनोरमां शिविकां परिवहन्ति। ... "पुछि उक्खित्ता माणुस्से हिं तो हट्ठरोमकूवेहि ।
पच्छा वहति सीयं असुरिंद-सुरिन्द-नागिंदा ॥ १॥ वाहं गेण्हइ, ईसाणे उत्तरिल्लं बाहं गेण्हइ चमरे दाहिणिल्लं हेटिल्ल, बली उत्तरिल्लं हेदिल्लं अवसेसा देवा जहारिहं मनोरमं सीयं परिवहति ) बाद में शक्र देवेन्द्र देव राजा ने उस मनोरमा शिविका के दक्षिण दिग्भागवर्ती ऊपरके दण्डे को पकडा, ईशानेन्द्र ने उत्तर दिग्भा गस्थ ऊपर के दण्डे को पकड़ा चमरेन्द्र ने दक्षिणदिग्भोगवर्ती नीचे के दण्डे को पकड़ा। ____ अवशिष्ट भवन पति, व्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानिक इन्द्रों ने अपनी २ योग्यताके अनुसार उस शिविका का परिवहन किया । (पुब्धि उक्खित्ता माणुस्से हितो हट रोमकूवेहिं ! पच्छावहंति सीयं असुरिंद सुरिंद नागिंदा) सब से प्रथम हर्षके वश से रोमाञ्च युक्त हुए मनुष्यों ने उस शिविका को अपने स्कंधो पर रखा-बाद में असुरेन्द्रों ने, सुरेन्द्रों
___ (तएणं सक्के देविंदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लं उरिल्लं वाहं गेण्हइ, ईसाणे उत्तरिल्लं बाहं गेहइ चमरे दाहिणिल्लं हेडिल्लं बली० उत्तरिल्लं हटिल्ल अवसेसादेवा जहारिहं मनोरमं सीयं परिवहति) ।
ત્યાર બાદ શક દેવેન્દ્ર દેવરાજે તે મને રમ પાલખીના દક્ષિણ બાજીના દડાને ઝા, ઈશાનેન્દ્ર ઉત્તર દિશા તરફના ઉપરના દંડાને ઝાલ્ય, અમરેન્દ્ર દક્ષિણ દિશા તરફના નીચેના દંડાને ઝા, બલીન્કે ઉત્તર દિશા તરફના
ने आक्ष्य. | બાકીના બધા ભવનપતિ, વ્યંતર, તિષ્ક અને વૈમાનિક ઈન્દ્રિોએ પિત પિતાની યેગ્યતા મુજબ પાલખીનું પરિવહન કર્યું. (पुबिउकिवत्ता माणुस्सेहितो हट्ठरोम कूवेहिं पच्चा वहति सीयं असुरिंदमुन्दिनागिंदा)
પુલકિત અને હર્ષઘેલા થયેલા માણસેએ સૌથી પહેલાં પાલખીને પોતાના
For Private And Personal Use Only
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
खाताधर्मकथाङ्गसूत्र चलचवलकुंडलधरा सच्छंद विउनियाभरणधारी। देविंद दाणविंदा वहति सीयं जिणिदस्स ॥ २ ॥
'पुचि' पूर्व 'उक्खित्ता' उत्क्षिप्ता स्कन्धोपरिनीता मनुयैः, सा शिविका, मनुष्यैः कथंभूतैरिस्याह-' हट्ठरोमकूवेहिं ' हृष्टरोमकूपैः हर्षवशेन रोमाञ्चयुक्तैः, पश्चात्-असुरेन्द्र-सुरेन्द्र-नागेन्द्राः शिविका बहन्ति-स्कन्धोपरिनयन्तिस्म ॥१॥ देवेन्द्र-दानवेन्द्राः जिनेन्द्रस्य शिविकां वहन्ति ' इत्यन्वयः । ते देवेन्द्रादयः कथं. भूता इत्याह-चलेत्यादि चलचाल कुण्डलधरा:-चलाश्च ते चपल कुण्डलधराश्चेति विग्रहः । पुनः किं भूता इत्याह-' सच्छंदविउब्धियाभरणधारिणः" स्वच्छन्दविकुर्विताभरणधारिणः स्वच्छन्देन-स्वेच्छया विकुर्वितानि-वैक्रिय शक्तिसमुत्पादितानि आभरणानि-भूषणानि धारयितुं शीलं येषां ते तया भूताः ॥ २ ॥
ततः खलु मल्ल्या अर्हतो मनोरमां शिविका दुरूढस्य-समारूढस्य सतः 'तप्पढमयाए' तत्पथमतया सर्वतः पूर्वम् इमानि अष्टाष्टमङ्गलकानि-अष्टगणितानि ने और नागेन्द्रों ने रखा । (चलचवलकुंडलधरा सच्छंद विउनिया भरणधारी, देविदं दाण विंदा वहंति सीयं जिणिदस्म) इन देवेन्द्रा दिकों के कुंडल उस समय इधर से उधर अत्यन्त चंचल हो रहे थे। उन्हों ने जो आभरण धारण कर रखे थे वे अपनी इच्छानुसार वैक्रिय शक्ति से समुत्पादित किये हुए थे। इस तरह देवेन्द्रों और दानवेन्द्रों ने जिने. न्द्र की शियिका को अपने २ स्कंधों पर रखा। (तएणं मल्लीस्स अरहओ मनोरमं सीयं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अह टमंगलगा पुरओ अहाणुपुबीए संपट्ठिया) इस के अनन्तर उस मनोरम शिविका पर ખભા ઉપર ઉચકી, ત્યારપછી અસુન્દ્રોએ, સુરેન્દ્રો અને નાગેન્દ્રોએ ઉચકી.
(चलचवल कुंडलधरा, सच्छदविउब्धियाभरणधारी, देविदं दाणविंदा वहति सीयं जिणिंदस्स) તે વખતે દેવેન્દ્ર વગેરેના કુંડળે આમ તેમ ખૂબ હાલી રહ્યા હતા.
ધારણ કરેલા આભરણેને દેવેએ પિતાની ઈચ્છા મુજબ વૈક્રિય શક્તિ વડે ઉત્પન્ન કરેલાં હતાં. આ પ્રમાણે દેવેન્દ્રો અને દાનવેન્દ્રોએ જિનેન્દ્રની પાલખી પોતપોતાના ખભે ઉચકી હતી.
(तएणं मल्लिस्स अरहाओ मनोरमं सीयं दुरूढस्स समाणस तप्पढमयाए इमे अट्ट अट्ठमंगलगा पुरभो अहाणुपुबीए संपटिया)
- ત્યારબાદ મરમ પાલખી ઉપર બેઠેલા મલી અર્હતની સામે સૌ પ્રથમ અનુક્રમે આઠ આઠ મંગળ દ્રવ્ય મૂકવામાં આવ્યાં–તે દ્રવ્યોના નામે આ प्रभारी छ,
For Private And Personal Use Only
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका ०८मलीमाहीनाशयनिरूपणम् ५३३ अष्टसंख्यकानि मङ्गलानि पुरतः अग्रे ' अहाणुपुबीए' यथानुपूर्या-अनुक्रमेणं संपस्थितानि-चलितानि, एवं तेषां नानानि-(१) सोवत्थिय ' स्वस्तिकः, (२) सिरिवच्छा' श्रीवत्सः, (३) णदियावत्त ' नन्द्यावर्तः, (४) बद्धमागग' वर्धमानः (५) भदासण' भद्रासनम् (६) ' कलस' कलशः, (७) 'मच्छ' मत्सयुग्मम् , (८) 'दप्पग' दर्पणश्चेति । एवं निर्गमो यथाजमालेः जमालिवनिर्गमनं निर्गमन वर्णनं विज्ञेयम् । ___ ततः खलु मल्ल्या अर्हतो निष्कामतः=निष्क्रमणं कुर्वतः, अप्येककाः-केचनदेवा स्वस्त्रक्रियशक्त्या मिथिला राजधानीम्-' सम्भितरबाहिरियं ' साभ्यन्तरवायाम् = अन्तर्वहिः 'आसित्तसमन्निओवलित्तं ' आसिक्तसंमार्जितोपलिप्ताम् आसिक्तांपूर्वनलकणैरभिषिक्ताम् , पश्चात् समार्जिताम्-कचराधपनयनेन संशोधिताम् , ततः उपलिप्तां खटिका चूर्णादिना संलिप्तां कुर्वन्ति, कृत्वा यावत्-परिधावन्ति हर्षोत्कर्षणेतस्ततः कुर्वन्ति । आरूढ हुए मल्ली अहंतके आगे सब से पहिले क्रमानुसार आठ २ मंगल द्रव्य उपस्थित हुए। उनके नाम ये हैं
(१) सोवत्थिय-स्वस्तिक (२) सिरिवच्छा-श्री वत्स (३) गंदियावत्त -नन्दिकावर्त (४) वद्धमाणग-वर्धमान (५) भदासण-भद्दासन (६) कलस-कलश (७) मच्छ-मत्स्य युग्म (८) और दप्पण-दर्पण ( एवं निग्गमो जहा जमालिस्स) मल्ली अहंत के निर्गम का वर्णन ज. मालिके निर्गम की तरह ही जानना चाहिये । (तएण मल्लीस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पे • देवा मिहिलं सभितरवाहिरियं आसिय संमज्जिवलितं जहा उववाईए जाव परिधावंति) जब मल्लि अहंत का निष्क्रमण हो रहा था उस समय कितनेक देवों ने अपनी वैक्रियश.
. (१) सोपास्थिय,-२पस्ति, (२) सिरि१२७।-श्रीवत्स, (3) यापत्तपित्त (४) वृद्धभा-भान, (५) महास-मद्रासन, (6) ४१स४॥श, (७) भ२७-भत्रययुम, (८) भने ४५-४ (मरीस). ( एवं निगमो जहा जमालिस ) भी मत नि भर्नु qणुन मसिना निश મની જેમ જ જાણવું જોઈએ
(तएणं मल्लिस्स अरहो निक्खममाणस्स अप्पे० देवा मिहिलं सम्भितर. बाहिरियं आसियसमज्जिवलितं जहा उववाईए जाच परिधावति) .
જ્યારે મલ્લી અહંતની નિષ્ક્રમણુવિધિ ચાલતી હતી ત્યારે કેટલાક દેએ પિતાની વક્રિય શક્તિ વડે મિથિલા રાજધાનીની અંદર અને બહાર બધે જળ
For Private And Personal Use Only
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शांताधर्मकथासूत्र ततः खलु मल्ली अन् यत्रैव सहस्राम्रवणमुद्यानं यौवाशोकवरपादपः, तोपागच्छति. उपागत्य शि बिकातः प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्याभरणालंकारं मुश्चति तदाभरणालंकारं प्रभावती-मल्ल्या जननी प्रतिीच्छति वस्त्राञ्चले धारयति ततः खलु मल्ली अर्हन् स्वयमेव-स्वहस्तेनैव पञ्चमुष्टिकं लोचं शिरः केशलुश्चनं करोति । क्ति से मिथिला राजधानी को भीतर बाहिर मे जलकणों से सिश्चित कर दिया था, कूडा करकट के अपनयन से उसे बिलकुल साफ सुथर कर दिया था और चूना आदी से उसे लीप पोत दिया था। यावत् हर्षोत्कर्ष सेवे इधर उधर उसमें इच्छानुसार खूब कूदे और उछले थे।
औपपातिक सूत्र में निष्क्रमण का जैसा वर्णन यहां भी जानना चाहिये । (तरगं मल्ली रहा जेगेर सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेय उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहर, पच्चोरुहित्ता आभरणालंकार मु चइ, तं पभावई पडिच्छई ) चे मल्ली अर्हत जहां सहस्राम्रवन नामका उद्यान और उसमे जहां अशोक वृक्ष था वहां पहुंचे वहाँ पहुँच कर वे उस शिविका से नीचे उतरे उतर कर उन्होंने अपने आभरण और अलंकारों को उतारा-उतारे हुए उन आभरण और अलंकारों को उनकी माता प्रभावतो ने अपने वस्राचल में रख लिया (तएणं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ ) इसके पाद उन मल्ली अहंत ने अपने केशों का पंचमुष्टि लोच किया। સિંચન કર્યું હતું. કચરે વગેરે વાળીને તેને સાચ્છ બનાવી અને ચુના વગેરેથી પેળી નાખ્યું હતું. યાવત્ હર્ષઘેલા થઈને તેઓ ખૂબ ઈચ્છા મુજબ ઉછળ્યા અને કુદ્યા હતા.
પપાતિક સૂત્રમાં નિષ્ક્રમણનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, અહીં પણ તે મુજબ જ સમજી લેવું જોઈએ. - (तएणं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उन्नाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उबागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरूहइ, पचोरुहिता आभरणालंकार मुंचा, तं पभावई पडिच्छई ) ।
મલી અહંત જ્યાં સહુ સામ્રવન નામે ઉદ્યાન અને તેમાં પણ જ્યાં અશોક નામે વૃક્ષ હતું ત્યાં પહોંચ્યાં, ત્યાં પહોંચીને તેઓ પાલખીમાંથી નીચે ઉતર્યા, નીચે ઉતરીને તેમણે પોતાનાં આમરણ અને ઘરેણુઓ ઉતાર્યા. મલ્લી અર્વતના આભરણ અને ઘરેણુઓને તેમના માતા પ્રભાવતીએ પિતાના વસ્ત્રના છેડામાં Reli. (तएणं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुहिय लोय करेइ) त्या२५छी भी ખહંતે પિતાના વાળનું પંચમુષ્ટિ લુચન કર્યું.
For Private And Personal Use Only
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवषिणो टीका अ० ८ मालीभगवद्दीक्षोत्सवनिरूपणनम ५५ ततः सलु श्क्रो देवेन्द्रो देवराजो मल्ल्या अईतः केशान् प्रती छति लुचिताम् केशान ने धरति प्रतिय, क्षरोदर मुद्रधिपति । ततः स्लु महली अन'णमोऽथुण सिद्धाणं ' नमोऽस्त हल रिद्धेश्यः :ति कृत्वा सामायिक चारित्र पतिपद्यतेप्राप्नोति । यस्मिन समये च र लु मल्ली अर्हन चारित्रं प्रतिमा, तस्मिन्नेव समये र लु देवानां मनुष्याणां च ‘णियोसे' निर्घोषः शब्दः, 'तरिय णिणाय गीयवाश्य निधोसे य तूर्यनिनाद गीतवादित्र निर्घोषश्च वाघगीतध्वनिश्च, शक्रवचनसंदेशेन-केन्द्राज्ञया, 'पि.लु के निलीना तिरोहितः निवृत्तः चाप्यभवत् । ... (तएणं सक्के दविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ पडिच्छि. सा खीरोदग समुद्दे पविखवइ ) उन मल्लि प्रभुके लुचित केशोंको शक देवेन्द्र देवराज ने अपने वस्त्र में रख लिया और रखकर क्षीर सागर में उन्हे प्रक्षिप्त कर दिया । (तएणं मल्ली अरहा " णमोत्थुण सिद्धाणंतिकटु सामाइयचरित्तं पड़िवज्जइ ) मल्ली अर्हतने" सिद्धों को नमः स्कार हो " ऐसा पाठ बोल कर सामायिक . चारित्र को धारण किया । (जं समयं च णं मल्ली अरहा चरितं पडिवज्जइ तं समयं च णं देवाणंमागुस्साण य णिग्धोसे तुरिय निणाय गीयवाइयनिग्धोसे य सक्कस्स वयणसंदेसणं णिलुक्के यावि होत्था) जिस समय मल्ली. अर्हत ने चारित्र को अंगीकार किया था उस समय देयों और मनुष्यो का निर्घोष हुआ था तथा बाजों एवं गीतों की जो ध्वनि हुई थी वह सब शक्रेन्द्र की आज्ञा से बन्द कर दी गई।
(तएणं सक्के देविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ पडिच्छित्ता खीरोदगसमुद्दे पक्विवइ)
તે મલ્લી પ્રભુના કુંચિત વાળને શક દેવેન્દ્ર દેવરાજે પિતાના વસ્ત્રમાં લઈ લીધા અને લઈને ક્ષીર સાગરમાં તેઓને નાખી દીધા. (तएणं मल्ली अरहा " णमोत्थुणं त्ति कटु सामाइय चारित्तं पडिविसज्जइ)
મલ્લી અહલે “સિદ્ધોને મારા નમસ્કાર ” આ પાઠનું વાંચન કરતાં સામાયિક ચારિત્ર ધારણ કર્યું
(जं समयं च णं मल्ली अरहा चरित्तं पडिवज्जइ, तं समयं च णं देवाणं माणुस्साण य णिग्घोसे तुरिय निणाय गीयवाइयनिग्धोसे य सक्कस्स वयण संदेसणं णिलुक्के याविहोत्था)
જ્યારે મલ્લી અહ તે ચારિત્રને સ્વીકાર કર્યો ત્યારે દેવે અને માણસેના થયેલા હર્ષ નિર્દોષને તેમજ વાજાંઓ અને ગીતેના ધ્વનિને કેન્દ્ર પિતાના હુકમથી બંધ કરાવી દીધું.
For Private And Personal Use Only
Page #592
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SD
माताधर्मकथासूत्रे यस्मिन् समये च खलु मल्ली अर्हन् सामायिक चारित्रं प्रतिपन्नः प्राप्तवान् । तस्मिन् समये च मल्ल्या अर्हतो मानुष्यधर्मादुत्तारं प्रधान मनःपर्यवज्ञानं समुरपत्रम्, गृहस्थदशायां ज्ञानत्रयमासीत् बारित्रगृहणानन्तरं तु तदानीमेव चतुर्थज्ञानमभवदिति भावः । मल्ली खलु अईन् 'जेसे ' यः सः हेमन्तानां मार्गशीर्षादि मासचतुष्टयात्मकानां शीतकालानाम् द्वितीयो मासः चतुर्थः पक्षः-मार्गशीर्षस्याघपक्षतचतुर्थः पक्षः पोस सुध्धे' पौष शुद्धः, पौषमासस्य शुक्ल पक्षः, तस्य खलु पौषशुद्धस्य एकारसीपकखणं' एकादशीपक्षे खलु एकादशीतिथेः पक्षः-अधों __(जं समयं च णं मल्ली अरहा चरित्तं पडिवजह तं गं मल्लिस्स अरहामओ माणुसधम्मामो उत्तरिए मणपज्जवगाणे समुप्पन्ने) सामायिक चारित्र को अंगीकार करले ही मल्ली अर्हतको चौथा मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया ! गृहस्थ अवस्था में मल्ली अहंत के मतिज्ञान. श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान जन्म जात थे। परन्तु ज्यों ही इन्होंने चारित्र ग्रहण किया उसी समय इनको मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया। ( मल्ली ण अरहाजे से हेमंताणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खेपोस सुद्धे, तस्म णं पोससुद्धस्स एक्कारसीपक्खेणं पुवाहकालसमयसि अट्टमेणं भत्तेण अपाणएणं अस्सिणीहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं तिहिं इत्थी माहिं अभितरियाए परिसाए तिहिं पुरिससरहिं बाहिरियाए परिसाए सद्धिं मुंडे भविता पव्वइए) मल्ली अर्हत ने जिस समय सर्व विरतिरूप चारित्र अंगीकार किया था उस समय हेमंतकालका द्वितीय मास था, चौथा पक्ष था उसका नाम पौष मास था-पौष मासका शुक्ल
(जं समयं च णं मल्ली अरहा चरित्तं वडिवज्जइ तं समयं च णं मल्लिस्स अरहओ माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुपन्ने )।
સામાયિક ચારિત્રને સ્વીકારતાની સાથે જ મલ્લી અતને ચોથું મન પર્યાવજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ ગયું. ગૃહસ્થ અવસ્થામાં મલ્લી અહંતને મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાન આ ત્રણે જ્ઞાન જન્મજાત હતાં. પણ જ્યારે તેઓએ ચારિત્ર ગ્રહણ કર્યું ત્યારે તેમને મન:પર્યવજ્ઞાન થઈ ગયું. _ (मल्ली गं अरहा जेसे हेमंताणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे पोससुद्धे तस्स णं पोससुद्धस्स एकारसी पक्खे णं पुव्वण्हकालसमयंसि अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं अस्सिणी हि नक्खत्तणं जोगमुवागएणं तिहिं इत्थीसएहि बाहिरियाए परिसाए सद्धिं मुंडे भवित्ता पचइए)
મલી અરહતે જ્યારે સર્વવિરતિ રૂપ ચારિત્ર સ્વીકાર્યું, ત્યારે હેમંત કાળને બીજે મહીને હતે. ચોથું પખવાડિયું હતું. તે મહિનાનું નામ પિષ
For Private And Personal Use Only
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५३७
tantraमृतवर्षिणी टी अवका ८ मलीभगहीशोत्सव निरूपणम् शकाले, पूर्वाह्नकालमये, अष्टमेन भक्तेन ' अपाणएणं' अपानकेन जलरहितेन अश्विनीनक्षत्रेण ' जोगं ' योगं चन्द्रयोगत् उपागतेन त्रिभिः स्त्रीशतैः आभ्यन्तरकया परिषदा, सार्धं तथा-त्रिभिः पुरुषशतैः बाह्यया परिषदा सार्धं मुण्डो भूला मत्रजितः = दीक्षां गृहीतवान् । मल्ल्या अर्हत् अभ्यन्तरिका परिषद स्त्रीभिः, अन्येषां तीर्थंकराणां पुरुषैराभ्यन्यरिका परिषत संजाता | मल्लीमन्तमिमे वक्ष्यमाणा अस्ट राजकुमारा अनुवजिताः, तद् यथा - तेषां नामान्ये बम् णंदे य दिमित्ते, सुमित्त वलमित भाणुमिते य । अमरवर अमर सेणे, महसेणे चैव अट्टमए ॥ १ ॥
पक्ष था एकादशी का दिन था, पूर्वाह्नकालका समय था । अपानक चौविहार अष्टम भक्त इन्हों ने धारण कर रखा था अश्विनी नक्षत्रका चन्द्रमाके साथ शुभ योग वर्त रहा था ।
तीन सौ इनकी अभ्यन्तर परिषदकी आर्यिका थी और बाह्य परिषद के तीन सौ पुरुष थे । सो उन सबके साथ इन्होंने दीक्षा धारण की थी । अन्यतीर्थंकरो की आभ्यन्तर परिषद में स्त्रियां नहीं रहीं हैं ये तो इन्हीं की आभ्यन्तर परिषद में कही गई हैं। वहां तो आभ्यन्तर परिषदा में पुरूष ही रहे हैं । (मल्लि अरहं इमे अट्ठ रायकुमारा अणुपव्वसु-तं जहा - णंदे य णंदिमिते सुमित बलमित्त भाणुमितेय, अमरवइ अमरसेणे महसेणे चैव अट्ठमए) मल्ली अर्हत ने जिस समय दीक्षा धारण की उस समय इनके साथ जो आठ राजकुमार दीक्षित हुए थे उनके नाम ये हैं ।
तुं पोष महिनानो शुद्ध पक्ष तो, भगियारसना हिवस तो, पूर्वाह्न કાળના વખત હતા, અપાનક અષ્ટમ ભક્ત તેમણે ધારણ કરેલુ હતુ. અશ્વિની નક્ષત્રના ચન્દ્રની સાથે શુભયાગ થઇ રહ્યો હતા,
તેમની આભ્યંતર પરિષદાની ત્રણસે આયિકા હતી અને બાહ્ય પરિષદાના ત્રણસે પુરૂષ હતા. તેઓ બધાની સાથે તેમણે દીક્ષા ધારણ કરી હતી. બીજા તીર્થં કરાની આભ્ય'તર પરિષદામાં સ્રીએ ન હતી. એમની આભ્યતર પરિષદામાં સ્ત્રીએ વિષે વર્ણન કરેલ છે. બીજા તીર્થંકરાની પરિષદામાં માત્ર પુરુષા જ રહ્યા છે.
( मल्लि अरहं इमे अट्ठरायकुमारा अणुपव्वसु तं जहां णंदेय दिमित्ते सु मित्तल मित्तभाणुमित्तेय | अमरवर, अमरसेणे महसेणे चैव अट्टमए )
જે વખતે મલ્લી અહીં તે દીક્ષા ધારણ કરી હતી તે સમયે તેમની સાથે જ દીક્ષિત થયેલા આ રાજકુમારના નામે આ પ્રમાણે છે—(૧) નન્દકુમાર,
ज्ञा ६८
For Private And Personal Use Only
Page #594
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५३८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
(१) नन्दः - नन्दकुमारः, (२) नन्दिमित्रः - नन्दिमित्रकुमारः, (३) सुमित्रःसुमित्रकुमार:, (४! बलमित्रः - बलमित्रकुमारः, (५) भानुमित्र : - भानु मित्रकुमारः, (६) अमरपतिः, - अमरपतिकुमारः, (७) अमर सेन :- अमर सेनकुमार:, (८) महासेन:- महासेनकुमार इति ।
ततस्तदनन्तरं खलु ते भवनपत्यादयश्चतुर्विधा देवा मल्ल्या अर्हतो निष्क्रमणमहिमानं कुर्वन्ति कृत्वा यचैव नन्दीश्वर' नामाद्वीपस्तत्राष्ठाह्निकाम् = अष्टाहसाध्यमुत्सवं कुर्वन्ति कृत्वा च यावत् - यस्यादिशः प्रदुर्भूतास्तां दिशं प्रतिगताः, ततः खलु मल्ली अर्हन् यस्मिन्नेव दिवसे मत्रजितः = दीक्षां गृहीतवान् तस्यैव दिवसस्य पश्चाद् पराह्नकाल समये - पश्चिमे महरे, अशोकवरपादपस्याधः पृथिवीशिलापट्ट के
( १ ) नन्दकुमार ( २ ) नन्दिमित्र कुमार ( ३ ) सुमित्र कुमार ( ४ ) बालमित्र कुमार ( ५ ) भानुमित्र कुमार ( ६ ) अमरपति कुमार (७) अमरसेन कुमार और (८) महासेन कुमार । ( तरणं से भवणवह ४ मल्लिस्स अरहओ निक्खमणमहिम करेंति, करिता जेणेव नंदी सरबरे० अट्टाहियं करेंति, करिता जाव पडिगया ) भवनपति आदि चारों प्रकार के देवों ने मल्ली अहंत के निष्क्रमण महोत्सव की खूब २ महिमा की और करके फिर वे आठवां जो नंदीश्वर द्वीप है वहाँ गये - वहां जाकर उन्हों ने अष्टान्हिक महोत्सव किया। यह महोत्सव आठ दिनतक लगातार होता है । अष्टाह्निक महोत्सव करके फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा तरफ वापिस चले गये । (तएणं मल्ली अरहा जं चेव दिवसं पव्वाइए तस्सेव दिवसस्स वरण्हकाल समयंसि असोगवर पायवस्स अहे पुढविसिलापट्ट्यंसि सुहासणवरगं
(२) नहि भित्रकुमार, (3) सुभित्रकुमार, (४) मासभित्र कुमार, (4) लानुभित्र कुमार, (६) अमरपति कुमार, (७) अमरसेन कुमार, (८) भडासेन कुमार.
( तरणं से भवणवइ ४ मल्लिस्स अरहओ निक्खमणमहिमं करेति, करिता जेणेव नंदीसरवरे० अद्राहियं करेति करिता जाव पडिगया )
ભવનપતિ વગેરે ચાર જાતના દેવાએ મલ્લી અહતના નિષ્ક્રમણ મહાત્સવના ખૂબ જ મહિમા ગાયા અને ત્યારપછી તેઓ આઠમા નંદીશ્વર દ્વીપમાં ગયા. ત્યાં પહેાંચીને તેમણે અષ્ટાદ્ધિક મહાત્સવ ઉજન્મ્યા. આ મહાત્સવ આઠ દિવસ સુધી સતત ઉજવાય છે. અાહ્નિક મહાત્સવ જ્યારે પૂરા થયા ત્યારે તેઓ જે દિશા તરફથી પ્રગટ થયા હતા તે દિશા તરફ જતા રહ્યા.
( तरणं मल्ली अरहा जं चेत्र दिवसं पव्वाइए, तस्सेव दिवसस्स वरण्हकाल समयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्ट्यंसि सुहासणवरगयस्स मुद्देणं परिणा
For Private And Personal Use Only
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणो टीका अ० ८ मल्लीभगदीशोत्सवनिरूपणम् ५३२ मुखासनवरगतस्य शुभेन परिणामेन 'पसत्थेहिं ' प्रशस्तैः श्रेष्ठैः-शुभैः, 'अज्झवसाणे' अध्यवसानः आत्मपरिणामैः, प्रशस्ताभिः लेश्याभिः 'विसुज्झमाणीहि' विशुध्यन्तीभिः · तयावरणकम्मरयविकरणकरं' तदावरणकर्मरजोविकरणकरं-ज्ञानावरणीयादिकर्मरजोविक्षेपकं 'अपुठधकरणं' अपूर्वकरणम् अष्टमगुणस्थानकम् अनुप्रविष्टस्यानन्तं विषयानन्तत्वात् , यावत्-अनुत्तरं-समस्तज्ञानप्रधान, निर्व्याघातम्अपतिहतं, निरावरणं क्षायिकं, कृत्स्नं सर्वार्थग्राहकत्वात् , प्रतिपूर्ण-सकलांशयुक्तत्वात् पूर्णचन्द्रवत् , 'केवलवर नाणदसणे' केवलवर ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्।मु०३९।। यस्स, सुहेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अन्झवसाणेहिं पसत्याहिं लेसाहि विसुज्झमाणीहिं तयावरणकम्मस्प्त विकरणकरं अपुचकरणं अणु. पविट्ठस्स अणते जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पान्ने ) मल्ली अहंत ने जिस दिन दीक्षा धारण की उसी दिन पश्चिम प्रहर में अशोक वृक्षने नोचे रहे हुए पृथिवी शिलापट्टक पर सुखासन से विराजमान उन्हें शुभ परिणाम प्रशस्त अध्यवसान-आत्म परिणाम-एवं विशुद्ध -प्रशस्त-लेश्याओ के प्रभावसे समस्त ज्ञानावरणीय दर्शनावणीय मोहनीय और अन्तराय कर्मरूप रजके विक्षेपक अनन्त केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो गये । अर्थात् दीक्षा लेते ही एक प्रहरके बाद केवलज्ञान पाए । क्षपकश्रेणी पर आरूढ हुई आत्माओं को ही ये दोनों केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होते हैं अन्य को नहीं -तथा यह श्रेणी ८वे अपूर्वकरण गुणस्थान से ही प्रारंभ होती है अन्य गुणस्थान से नहीं मल्ली अहंत ने भी इसी श्रेणी पर आरोहण मेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं पसत्याहिं लेसाहिं विसुज्झमाणी हि तयावरणकम्मरयविकरणकरं अपुवकरणं अणुपविट्ठस्स अणते जाव केवलबरनाणदसणे समुप्पन्ने)
જે દિવસે મલ્લી અને દીક્ષા ધારણ કરી તે જ દિવસે છેલ્લા પહેરમાં અશેક વૃક્ષની નીચે પૃથ્વી શિલાપટ્ટક ઉપર સુખાસન પૂર્વક બેઠેલા તેઓને શુભ પરિણામ પ્રશસ્ત અધ્યવસાન આત્મપરિણામ અને વિશુદ્ધ પ્રશસ્ત લેસ્યાઓના પ્રભાવથી સમસ્ત જ્ઞાનાવરણીય દર્શનાવરણીય મેહનીય અને અંતરાય કર્મ રૂપ રજનું વિક્ષેપક અનંત કેવળ જ્ઞાન અને કેવળ દર્શન ઉત્પન્ન થયું. પક શ્રેણું ઉપર આરૂઢ થયેલા આત્માઓને જ આ કેવળ જ્ઞાન અને કેવી દર્શન મળે છે બીજાઓને નહીં, તેમ જ આ શ્રેણ આઠમા અપૂર્વકરણ ગુણ સ્થાનથી જ આંરભે છે, બીજા કોઈ પણ ગુણસ્થાનથી નહીં. મલ્લી અર્હતે પણ આ શ્રેણી
For Private And Personal Use Only
Page #596
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथासूत्रे
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समर्पणं सव्वदेवाणं आसणाई चलति समोसढा केवलमहिमं करेंति करिता जेणेव नंदीसर० अट्टाहिय महामहिमं करेंति करिता जामेव दिसं पाउ० परिसाformer कुंभव निग्गच्छइ । तएणं ते जियसत्तूपा० छप्पि - जेपुते रज्जे ठावेत्ता पुरिससहस्तवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा सविडीए जेणेव मल्ली अ जाव पज्जुवासंति । तएणं मल्ली अ० तीसे महइ महालयाए० कुंभगस्स तेसिं च जियसत्तू पामुक्खाणं धम्मं कहेइ | परिसा जामेव दिसीं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया । कुंभए समणोवासर जाए । पभावईय । तएणं जियसत्तूप्पा० छप्पिराया धम्मं सोच्चा एवं वयासी - आलित्तेणं
>
कर दिया था तभी जाकर उन्हें इनकी प्राप्ति हुई यही बात " अपुव्वकरन अणुपविस्स' इन पदोंद्वारा प्रदर्शित की गई है। " अणंते जाव " यहां जो "जाव" पद रखा गया है उससे "अनुत्तरं निर्व्याघातम् निरावरणं कृत्स्नं, प्रतिपूर्ण ' इन पदों का ग्रहण किया गया है। ये दोनों अनंत विषयों को जानते हैं और देखते हैं इसलिये ये अनंत हैं । समस्त ज्ञान और दर्शनों में ये प्रधान हैं इसलिये अनुत्तर हैं । अप्रतिहत होने से ये दोनों निर्व्याघात, क्षायिक होने से निरावरण सर्वार्थ ग्राहक होने से कृत्स्न, सकलांश युक्त होने से पूर्ण चन्द्र की तरह प्रतिपूर्ण कहे गये हैं । सूत्र ३९ ।।
,
ઉપર આરહણ કરી દીધુ હતું ત્યારે જ તેમને એમની પ્રાપ્તિ થઈ હતી. એ જ वात-" अपुव्वकरण अणुपविट्ठस्स " मां यहोवडे दर्शाविवामां आवी छे. " अणवे आव " महीं ? ' जाव यह छे तेनाथी “ अनुत्तर' निर्व्याघात निरावरण ं, कृत्स्ने, प्रतिपूर्ण, या यह अवाम माव्यां छे, मामने अनंत विषયાને જાણે છે અને જુએ છે એટલા માટે તે અનત છે. સમસ્ત જ્ઞાન અને દશનામાં તેઓ પ્રધાન છે એટલા માટે અનુત્તર છે. અપ્રતિહત હાવા મદલ આ બંને નિર્વ્યાઘાત, ક્ષાયિક હોવાથી નિરાવરણ, સર્વો ગ્રાહક હાવાથી કૃત્સ્ન, સકલાંશયુક્ત હાવાથી પૂ ચન્દ્રની જેમ પ્રતિપૂર્ણ કહેવામાં આવ્યા છે. ૩૯
For Private And Personal Use Only
Page #597
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधर्माणी टी० २०८ जितशंत्र्यादिराशांदीक्षाग्रहणादिनिरूपणम् ५४१
भंते ! लोए पलित्तेणं भंते लोए जाव पव्वइया, चोइसपुत्रिणो अनंते केवले० सिद्धा ।
तणं मल्ली अरहा सहसंबवणाओ निक्खमइ, निक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरह | मलिस्सणं भिसगपामोक्खा अट्ठावीसं गणा, अट्ठावीसगणहरा होत्था । मल्लिस्सणं अरहओ चत्तालसिं समणसाहस्सीओ उक्कासेणं, बधुमइपामोक्खाओ पणपण्णं अजिया साहस्सीओ उक्को०, सावयाणं एगा सायसाहसी, चुलसीइं सहस्सा सावियाणं तिन्नि सय साहसीओ पण्णडिं च सहस्सा, छस्सया चोहसपुव्वीणं, वीससया ओहि - नाणीणं, बत्तीसं सया केवलणाणीणं, पणतीणं सया वेडव्वियाणं, अट्ठसयामणपज्जवणाणीणं, चोइससया वाईणं, वीसंसया अणुत्तरोववाइणं । मल्लिस्स अरहओ दुविहा अंतगडभूमी होत्था तं जहा - जयंत करभूमी, परियायतकरभूमी य। जाव वीसइमाओ पुरिसजुगाओ जुयंतकरभूमी । दुवासपरियाए अंतमकासी । मल्लीणं अरहा पणुवसिं धणूइ मुङ्कं उच्चत्तेणं । वपगेणं पियंगुस मे. समचउरससंठाणे, वज्जारिसभणारायसंघयणे, मज्झदेसे सुहं सुहणं विहरित्ता जेणेव सम्मए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता संमेयसेलसिहरे पाओवगमणुववण्णे । मल्लीणं अरहा एगं वासस्यं अगारवा समज्झे वसित्ता पणपणं वाससहस्साइं वाससयऊणाई केवलि परियागं पाउणित्ता पणपण्णं वाससहस्साइंसव्वा उयं पालइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत्तसुद्धे, तस्स णं
For Private And Personal Use Only
-
Page #598
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१४६
-
बीताधमकथाम चेतसुद्धस्स चउत्थीए भरणीए णक्खत्तेणं अद्धरत्तकालसमयंसि पंचहिं अजियासएहिं अभितरियाए परिसाए, पंचहि अणंगार सएहिं बाहिरियाए परिसाए, मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं वग्धारियपाणी खीणे वयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे। एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियब्वा जहा जंबुद्दीवे पण्णत्तीए नंदी सरे अट्ठाहिया महिमा जाव पडिगया। एवं खलु जंबू ! समें णेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नामज्झेयणस्त अयम? पपणते तिबेमि ॥ सू० ४०॥
टीका-'तेणं कालेणे' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सर्वदेवना= क्रिस्य देवेन्द्रस्य तथाऽन्येषां सर्वेषामिन्द्राणां च, आसनानि चलन्ति स्म । तदा. ऽवधि प्रयुज्य मल्ल्या अर्हतः केवलोत्पति ज्ञात्वा यौव मल्ली अर्हन् तर 'समो.
'तेणं कालेणं तेन समएणं' इत्यादि । टीकार्थ-( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में ( सम्वदेवाणं आसणाई चलंति, समोसढा केवलं महिमं करेंति) करिता जेणेव नंदीसरे० अट्टाहिय महामहिमं करेंति, करित्ता जामेव दिसंपाउ० परिसा णिग्गया कुभएवि निग्गच्छइ ) समस्त देवों के शक देवेन्द्र के तथा अन्य समस्त इन्द्रों के आसन कंपायमान हुए। आसनोंके कंपित होने का क्या कारण है इस प्रकार जब जानने को उन्हीं ने इच्छा की तो उसी समय उन्हों ने अपने ३ अवधिज्ञान से देखा ' तेणं कालेग तेणं समएणं ' इत्यादि ।।
टीआय-तेणं कालेणं तेणं समएणं ते णे मने त समये ... (समदेवाणं आसणाई चलंति, समोसढा केवलमहिमं करेंति करिता जेणे नंदी सरे० अट्ठाहिय महामहिमकरेंति, करित्ता जामेव दिसं पाउ०परिसाणिग्गया कुंभए वि निग्गच्छइ)
બધા દેવતાઓના, શક દેવેન્દ્રના તેમજ બીજા બધા ઇન્દ્રોના આસને ડેલવા માંડ્યાં. તેમનાં આસને શા કારણથી ડગમગવા માંડયા છે ? આ જાતની ત્યારે તેમના મનમાં જિજ્ઞાસા ઉત્પન્ન થઈ ત્યારે તરત જ તેમણે પિતપિતાને
For Private And Personal Use Only
Page #599
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
धर्मामृतवर्षिणी टी०अ०८ जितशत्र्वादिराज्ञांदीक्षाग्रहणादिनिरूपणम् ५६३
सुहा' समवसृताः=आगताः, आगच्त्य ' केवलम हिमं ' केवलज्ञानोत्सवं कुर्वन्ति, कृत्वा यचैव नन्दीश्वरो द्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य 'अट्टाहिमं ' अष्टाहिकामहिमानं अष्टदिवस साध्यमुत्सवं कुर्वन्ति कृत्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दिशं प्रतिगताः । तदनन्तरं परिषत् - मिथिलाराजधान्या जनसमूहः मल्ल्या आईतो ब्रन्दनार्थं निर्गता- मिथिलाराजधानीतो निःसृता । कुम्भकोऽपि निर्गच्छति स्म ।
ततः खलु ते जितजत्रुप्रमुखाः पिडप राजानः स्वं स्वं ज्येष्ठपुत्र राज्ये स्थापयित्वा पुरुषसहस्रवाहिनीः शिविकाः समारूढाः सर्वऋद्धया सर्वैश्वर्येण सकलबलेन सहिता यत्रैव मल्ली अर्हन् तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यावत् पर्युपासते ।
इस
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
की मल्ली अहंत को केवल ज्ञान की उत्पत्ति हुई है। सो जहां सल्ली अर्हत थे वे सब वहां पर आये आकर उन्हों ने केवलज्ञान की महिमा का उत्सव किया उत्सव कर जहां नंदीश्वर द्वीप था फिर वे वहां आये बुहां आकर उन्हों ने लगातार आठ दिन तक उत्सव किया। उत्सव क फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा की तरफ चले गये । बाद मिथिला राजधानी से जन समुदाय मल्ली अर्हत को वंदना करने के लिये निकला । कुंभक राजा भी निकले 1 (तरुणं ते जियस तूपा० छप्पि जेपुते रज्जे ठावेत्ता पुरिससहस्त्रवाहिणीओ सीयाओ आरूढ़ा सब्बिाडीए जेणेव मल्लीं अ०जाव पज्जुबासंति) इसके अनंतर
-
जितशत्रु प्रमुख छहों राजा अपने २ ज्येष्ठ पुत्रको राज्यपद में स्थापित कर पुरुष सहस्र वाहिनी शिबिकापर आरूढ हो सर्व ऋद्धि एवं सकलबल
અવધિજ્ઞાન જોયું. અવિધજ્ઞાનથી તેઓએ જાણ્યુ કે મલ્લી અર્હતમાં કેવળ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થઈ છે. તેઓ બધા જ્યાં મલ્લી અર્હત હતાં ત્યાં આવ્યાં. ત્યાં પહોંચીને તેઓએ કેવળજ્ઞાનના મહિમાના ઉત્સવ ઉજવ્યે. ઉત્સવ ઉજવ્યા પછી તે નંદીશ્વર દ્વીપમાં ગયા, ત્યાં જઈને તેએએ સતત આઠ દિવસ સુધી ઉત્સવા ઉજ. ઉત્સવની સમાપ્તિ પછી તેઓ જે દિશા તરફથી પ્રગટ શ્યા હતા તે દિશા તરફ જતા રહ્યા. ત્યારમાદ મિથિલા રાજધાનીથી મલ્લી અહુ તનાં વંદન માટે જનસમુદાય નીકન્યા. કુંભક રાજા પણ નીકળ્યે.
(तएणं ते जियसत्तूपा० छप्पि जेट्टे पुत्ते ठावेत्ता पुरिससहस्रवाहि पीओ सीयाओ दुरूढा सच्चिङ्गीए जेणेव मल्ली अ० जाव पज्जुवासंति)
ત્યારપછી જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાએ પોતપાતાના મેટા પુત્રને રાજ ગાદીએ બેસાડીને પુરુષ સહસ્રવાહિની પાલખીમાં બેસીને સઋદ્ધિ અને
For Private And Personal Use Only
Page #600
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधकथासूचे ततः खलु मल्ली अर्हन् तस्या महाति महालयायाः-अतिविस्तीर्णायाः पर्षदोऽग्रे कुम्भकस्य राज्ञस्तथा तेषां च नितशत्रुप्रमुखाणां राज्ञां धर्म कथयति, परिषद् यस्या एव दिशः प्रादुर्भूताः, तामेव दिशं प्रतिगता। कुम्भकः श्रमणोपासको जातः, देशविरतिरूपं धर्म स्वीकृतवान् , प्रतिगतः । प्रभावती च श्रमणो पासिका जाता, मतिगता प्रभावती कुम्भको स्वस्थानं गतवन्तौ । ततः खलु जितशत्रुपमुखाः षडपि राजानो धर्म श्रुत्वा, प्रतिबुद्धा एवमवादिषुः 'आलित्तेण भंते लोए पलितेणं भंते के साथ जहां मल्ली अर्हत विराजमान थे वहां आये वहां आकर उन सपने मल्ली अर्हत की अच्छी तरह उपासना की। (तएणं मल्ली तीसे मह इमहालयाए ०००० धम्मं कहइ ) इसके बाद मल्ली अर्हत ने उस अति विस्तीर्ण जनमेदिनी के समक्ष कुभक राजा तथा जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं के समक्ष श्रुतचारित्र रूप धर्मका उपदेश दिया। (पारिसा जामेव दिसिं पा०तामे दिपडि० ) उपदेश सुनकर वह जनमे दिनीरूप परिषदा जिस दिशासे आई थी उसी दिशा तरफ वह वापिस चली गई। (कुभए समणोवासए जोए) कुंभक राजा श्रमणोपासकवन गये। अर्थात् देशपिरतिरूप धर्म उन्होंने स्वीकार कर लिया। (पभावईय) प्रभावती भी श्रमणोपासिका धन गई। .. ... (तएण जियसत्तूप्पा० छप्पि राया धम्म सोच्चा एवं वयासी) इसके बाद उस जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं धर्म का उपदेश सुनकर प्रतिबुद्ध हो इस प्रकार, कहा-( अलित्तेणं भंते । लोए पलिते णं સકળ બળની સાથે જ્યાં મલ્લી અર્હત વિરાજમાન હતા ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેઓ બધાએ મલ્લી અહંતની સારી પેઠે ઉપાસના કરી
(तएणं मल्ली अ०तीसे महइ महालयाए०.......धम्मं कहइ) त्या२ ५७। મલ્લી અહંતે તે વિશાળ જન સમુદાય, તેમજ કુંભક રાજા અને જિતશત્રુ પ્રમખ તે છએ રાજાઓની સામે શ્રત ચારિત્ર રૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપે. (परिसा जामेव दिसिं पा. तामेव दिसि पडि०) ७५देश सामणीन समुदाय
हिशा त२५थी माव्यो त त हिश त२३ पाहे तो रह्यो. ( कुभए समणोवासए जाए.) म २. श्रमास गया ता. मेरो
श विति३५ धमना तमामे स्वी॥२ या तो.. (पभावईय) प्रभावती પણ શ્રમણે પાસિકા થઈ ગયા.
(तएणं जियसत्तू पा. छप्पिराया धम्म सोच्चा एवं वयासी) त्या२ पछी शत्रु પ્રમુખ છએ રાજાઓએ ધર્મના ઉપદેશથી પ્રતિબદ્ધ થઈને આ પ્રમાણે કહ્યું કે. ( आलित्तण भंत ! लोए पलितेणं मंते ! लोए जाव पव्वइया, चोदस पुब्धि
For Private And Personal Use Only
Page #601
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
aritrailer fift टी०अ०८ जितशज्वादिषडूराशांदीक्षाग्रहणादिनिरू० ५४५ लए ' इति है मदन्त | भगवन् ! ' अलीते' आदीप्तः = या = समन्ताद् दीप्तः =ज्ञलितः खल्वयं लोकः, तथा हे भदन्त ! 'पलिते' प्रदीप्तःप्रकर्षेण चलितःखदिर कार्पासकाष्ठाग्निज्वालयेव तीव्रज्वालया युक्तः खल्वयं लोकः, जन्मजरामरणादिदुःखानि वहस्तीव्रज्वाला इवास्मिन लोके जीवान् प्रदहन्तीत्यर्थः । यावत् प्रब्रजिताः यथा कश्चिदादीप्ते गृहे प्रसुप्तं नरं बोधयेत् तथा हे भगवन्आदीप्ते लोके मोहनिद्रावशगतानस्मान् प्रतिबोध्य युष्माभिः श्रेयस्करो मोक्षमार्ग प्रदर्शितः तस्माद् भवतामन्तिके प्रव्रजिष्यामः ' इत्युक्त्वा ते पडपि राजानः प्रत्रजितादीक्षां गृहीतवन्तः । ततचतुर्दशपूर्विण: चतुर्दशपूर्वधारिणो भूत्वाऽनुक्रमंत लोए जाव पव्वइया चोहसपुब्विणो अणते केवले सिद्धी ) हे मदत ! यह चतुर्गति रूप लोक आ समन्तात् - ज्वलित हो रहा है। भदंत ! यह लोक अत्यंत ज्वलित हो रहा है। कार्पास काष्ठ की अग्निज्वालाके समान तीव्र ज्वालासे यह लोक व्याप्त हो रहा है अग्नि की तीव्र ज्वाला जैसे जन्म, जरा एवं मरण आदि के दुःख जीवोको सदा उस लोक में जलाते रहते हैं। है भगवान ! जैसे कोई व्यक्ति घर में आग लग जाने पर उसमें सुप्त हुए व्यक्ति को सचेत कर देता है - इसी तरह आदीप्त हुए इस लोक में मोहनिद्राधीन बने हुए हम लोगों को प्रतियोधित कर आपने श्रेयस्कर मोक्षमार्ग प्रदर्शित किया है- इसलिये हम आपके पास दीक्षा अंगीकार करेंगे। इस प्रकार कह कर उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने मल्ली अर्हत के समीप दीक्षा धारण करली। चौदह पूर्व के पाठी होकर उन्हों ने निरतिचार णो अनंते केवले० सिद्धा )
હે ભદન્ત ! સમંતાતૂ ( ચામેર) આ ચતુર્થાંતિરૂપ લેાક સળગી રહ્યો છે. હે ભદન્ત ! આ લેાક અત્યંત જ્વલિત થઇ રહ્યો છે. રૂ અને લાકડાની અગ્નિ જ્વાળાઓની પેઠે તીવ્ર વાળાએથી આ લેક બ્યામ થઇ રહ્યો છે. અગ્નિની તીવ્ર જ્વાળાએની જેમ હમેશા જન્મ, જરા (ઘડપણું ) મરણુ વગેરેના દુઃખા આ લોકને સગાવતા રહે છે. હે ભગવન્ ! જેમ કેાઇ માણસના ઘરમાં અગ્નિ સળગી ઉઠે ત્યારે સૂતેલા માણસને બીજો કાઇ જાગ્રત કરે છે તે પ્રમાણે જ પ્રજ્વલિત થતા આ લેાકમાં માહ નિદ્રાવશ થયેલા અમારા જેવા લાકોને આધ આપીને તમે શ્રેયસ્કર મેાક્ષ માગ ખતાન્યેા છે તેથી અમે હવે તમારી પાસેથી દીક્ષા ધારણ કરીશું. આ પ્રમાણે વિનતિ કરીને જીતશત્રુ પ્રમુખ છએ રાજાઆએ મળેલી અહતની પાસેથી દીક્ષા સ્વીકારી લીધી. ચૌદ પૂર્વના પાડી થઈને તેમણે નિરતિચાર ચારિત્રનું પાલન કર્યું. અને આ પ્રમાણે ધીમે ધીમે અનુક્રમે
ज्ञा ६९
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथागसूत्रे मेण निरतिचारं चारित्रं पालयित्वाऽनन्तं केवलं केवलवरज्ञानदर्शनं यावत्-सिद्धाः सिद्धिस्थानं गताः।
ततस्तदनन्तरं खलु मल्ली अर्हन् सहस्राम्रवणाद् निष्क्रामति-निर्गच्छति, निष्क्रम्म बहिर्जनपदविहारं विहरति । मल्ल्याः खलु भिषगप्रमुखाः अष्टाविंशतिगंणाः, अष्टाविंशतिर्गणधराअभवन् । मल्ल्याः खलु अर्हतश्चत्वारिंशत् श्रमणसहस्राणि 'उक्कोसेणं' उत्कर्षेण उत्कृष्टा श्रमणसंपदभवत् । तथा-बन्धुमतिप्रमुखाः पञ्चचारित्र का पालन किया। और इस तरह धीरे२ क्रमशः वे छहोंके छहों केवल ज्ञान और केवल दर्शनके अधिकारि बन गये और अन्तमें सिद्धस्थान पर पहुँच गये । -(तएणं मल्लो अरहा सहसंबवणाओ निक्खरह) मल्ली अहंत उस सहस्रान वनसे बाहर निकले (निवखमित्ता पहिया जणवयविहारं विहरइ ) निकलकर उन्होंने बाहरके जनपदों में तीर्थकर परम्पराके अनुसार विहार करना प्रारंभ करदिया । (मल्लिस्सणं भिसगपामोक्खा अट्ठावीसं गणा, अट्ठावीस गणहरा, होत्था मल्लिस्सणं अरहओ चत्तालीस समणसाहस्सीओ उक्कोसेणं बंधुमहपामोक्खाओ पणपनअज्जिया साहस्सीओ उक्कोसेणं सावयाणं एगासाय साहस्सी चुलसीइं सहस्सो सावियाणं तिन्निसयसायसीओ पण्णटुं च सहस्सा) इन मल्ली अहंत के भिषग प्रमुख २८, गण ( गच्छ ) थे और २८, गणधर थे । उत्कृष्ट से इन मल्ली अरहंत प्रभु की श्रमण संपत्ति ४० हजार की थी । तथा उत्कृष्ट की अपेक्षा बंधुमती તેઓ છએ છ રાજાઓ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન માટે અધિકારી થઈ ગયા भने छवटे सिद्धस्थाने पाया गया. (तएणं मल्ली अरहा सहसंबवणाओ निक्खमइ) भसी मत ते ससाभवनथी महा२ नीय. (निक्खमित्ता बहिया जणवय विहारं विहरइ) नीजान मारना नपोमा तभो तथ४२ ५२ ५२भु४५ વિહાર કર શરૂ કર્યો.
( मल्लिस्स णं भिसगपामोक्खा अट्ठावीसं गणा, अट्ठावीसं गणहरा, होत्था मल्लिस्सणं अरहओ चत्तालीसं समण सोहस्सीओ० उको सेणं बंधुमइ पामोक्खाओ पणपण्ण अजियासाहस्सीओ उक्कोसेणं सावयाणं एगा साय साहस्सी, चुल सीई सहस्सा सावियाणं एगा. साय साहस्सी चुलसीई सहस्सा सावियाणं तिन्निसय सायसीओ पण्णटुं च सहस्सा)
भकी मतने मिष प्रभुम मावीश (२८) गर (१२७ ) उता અને અઠ્ઠાવીશે (૨૮) ગણધર હતા. ઉત્કૃષ્ટથી મલ્લી અહંત પ્રભુની શ્રમણ સંપત્તિ ચાળીસ હજાર હતી તેમજ ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ બંધુમતી પ્રમુખ પપ
For Private And Personal Use Only
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
,
,
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी०अ०८ जितशत्र्यादिषड्राज्ञांदीक्षाग्रहणादिनिरू० ५४७ पञ्चाशत् अर्थिकासहस्राणि उत्कर्षेण, उत्कृष्टा साध्वीसम्पत् पञ्चपञ्चाशत्सहस्रपरिमिता जातेत्यर्थः तथा श्रावकाणामेकशतसहस्राणि एकं लक्षम् ' चुलसीतिं ' चतुरशीतिः सहस्राणि श्रमणोपासक संपदभूत् । तथा-श्राविकाणां त्रीणिशतसहस्राणि त्रीणि लक्षाणि पञ्चषष्टिसहस्राणि उत्कर्षेण तथा षट्शतानि चतुर्दश पूर्विणां - चतुर्दश पूर्वधारिणां तथा - विंशतिशतानि अवधिज्ञानिनां तथा - पञ्चत्रिशत् - शतानि ' वेउन्त्रियाणं' वैकुर्विकाणां = वेक्रियलब्धिधारिणां तथा - अष्टशतानि - मनः पर्ययज्ञानिनां तथा चतुर्दशशतानि वादिनां तथा विंशतिशतानि अनुत्ततरोपपातिकानाम् । मल्ल्या अर्हतः ' अंतगडभूमी ' अन्तकृद्भूमिः = अन्तकृतः - आदि ५५ हजार आर्यिकाएँ थी । इनके श्रावकों की संख्या १ लाख ८४ हजार थी । श्राविकाएँ इनकी ३ लाख ६५ हजार थी । (छस्सया चोहस पुवीण, वीससया ओहिनाणीणं बत्तीस सया केवलणाणीण पणतीण सया वेडन्वियाण, अट्ठसया मणपज्जवणाणीणं चोइस सयाबाईणं वीस सया अणुत्तरोववाइणं ( ६००, चतुर्द्दश पूर्व के धारी मुनि गण थे । बीस सौ अर्थात् २०००, अवधिज्ञानीं थे । ३२ सौ अर्थात् ३, हजार दो सौ केवल ज्ञानी थे ३५ सौ वैक्रिय लब्धि के धारी थे । ८००, सौ मन पर्य व ज्ञानी थे । चौदह सौ वादी थे । बीप्त सौ अनुत्तरोपपातिक थे । ( मल्लिस्स अरहओ दुबिहा अंतगडभूमी य जाव बीसइमाओ पुरिस जुगाओ जयंतकर भूमी ) इन मल्लीअर्हत की अतः कृदभूमि-उसी भव से मोक्ष जानेवलों का काल-दो प्रकारकी थी - ( १ ) युगान्तकर भूमि હજાર આયિકા હતી. તેમના શ્રાવકેાની સખ્યા એક લાખ ચારાશી હજાર હતી. અને ત્રણ લાખ પાંસઠ હજાર તેમની શ્રાવિકાઓ હતી.
(छपया चोद्दस पुत्रीणं वीससया ओहिनाणीणं बत्तीस सया केवलणाणीणं पणतीस सया वेउन्त्रियाणं अट्ठ सया मण पज्जवणाणीणं, चोइस सया वाई णं वीसं सया अणुत्तरोववाइयाणं )
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
,
For Private And Personal Use Only
છસેા ચતુર્દેશ પૂનાધારી મુનિગણા હતા. ૨૦ સે! એટલે કે એ હજાર અવધિજ્ઞાની હતા. ૩૨ સે એટલે કે ત્રણ હજાર મસા કેવળજ્ઞાની હતા. ૩૫ સા વૈક્રિય લબ્ધિનાધારી હતા. આડસે. મન:પર્ય વજ્ઞાની હતા. ૧૪ સેા વાદી हुता. २० सेो अनुत्तरोपयाति हुता.
(मल्लिस अरहओ दुविहा अंतगडभूमी य जात्र बीसइमाओ पुरिसजुगाओ जुयंतकरभूमी )
મલ્લી અહુ "તથી અંતઃકૂભૂમિ-તે ભવમાં જ મેક્ષ મેળવનારાઓના आज मे प्रारनी हुती. (1) युगान्तपुर भूमि (२) पर्यायान्तर भूमि, भूमि
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
be
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
"
भवान्तकारिणः तस्मिन्नेव जन्मनि मुक्तिगामिनः तेषां भूमिः कालः, कालस्य चाधारत्वेन कारणत्वाद् भूमित्वेन व्यपदेशः । द्विविधा - द्विप्रकारा, अभवत् तद् यथा - युगान्तकरभूमिः, पर्यान्तकरभूमिश्च । यावद् - विंशतितमात् पुरुषयुगाद् युगा न्तकरभूमिः - अत्र द्वितीयार्थे पञ्चमी यावद् विंशतितमं पुरुषयुगं - विंशतितमं शिष्यं यावदित्यर्थः । युगानि - कालमानविशेषाः, तानि क्रमानुसारिणि, युगानीव युगानि, युगसादृश्याद् गुरुशिष्यमशिष्यादिरूपाः पुरुषाअपि युगानि व्यवद्दियन्ते तैः प्रमितायाऽन्तकरभूमिः स, युगान्तकर भूमिः । मल्ली जादारभ्य तत्तीर्थे पट्टानुप क्रमेण विंशतितमं पट्टपुरुषं यावत् साधवः सिद्धा अभूवन् ततः परं सिद्धिगमनव्यवच्छेदोऽभूदितिभावः । पर्यायान्तकर भूमिमाह - ' दुवास परियार अन्तमकासी ' इति द्विवर्षपर्यायेऽन्तमकार्षीत् इति अनेन वाक्येन पर्यायान्तकर भूमिः प्रोच्यते । पर्यायस्तीर्थकरस्य केवलिएव कालस्तमाश्रित्य याऽन्तकभूमिः सा पर्यायान्तकर ( २ ) पर्यायान्तकर भूमि । भूमि शब्द से काल तथा युग शब्द से गुरू शिष्य प्रशिष्यादि रूप पुरुषों का ग्रहण हुआ है । अतः इन गुरु शिष्य प्रशिष्यादि रूप पुरुषों को आरंभ कर जिस मैं उसी भव से मोक्ष जाने वालों का प्रमाण प्रमित किया जावे वह युगान्तकर भूमि है ऐसा युगान्तकर भूमि शब्दका वाच्यार्थ निकलता है मल्ली जिनसे लगाकर इनके तीर्थ में पट्टानुपह क्रम से विंशतितम पट्टपुरुष तक ( वीसपेढि ) साधु सिद्ध हो चुके हैं। उसके बाद सिद्धि में जानेका व्यवच्छेद हो गया। (दुवासपरियाए अंतमकासी) इस वाक्यसे पर्यायान्तकर भूमि सूत्रकार ने प्रकट की है ।
,
तीर्थकर की केवली अवस्था के पर्यायरूप समय को लेकर जो अन्त कर भूमि होती है उसका नाम पर्यायान्तकर भूमि है ऐसा इस शब्दका
શબ્દથી કાળ તેમજ યુગ શબ્દથી ગુરુ-શિષ્ય પ્રશિષ્ય વગેરે પુરૂષાનું ગ્રહણ થયુ છે. એથી આ બધા ગુરુ શિષ્ય પ્રશિષ્ય વગેરે પુરૂષોને આભીને જેમાં તે ભવથી જ મેક્ષ મેળવનારાઓનું પ્રમાણ પ્રમિત ( કેટલું છે તેની ગણત્રી ) કરવામાં આવે તે યુગાંતકર ભૂમિ શબ્દને વાચ્યા થાય છે. મહીજીનથી માંડીને એમના તીંમાં પટ્ટાનુપટ્ટ ક્રમથી વિશતિતમપટ્ટ પુરૂષ સુધી સાધુએ સિદ્ધપદ્મ पाभी यूञ्ज्या छे. त्यारपछी सिद्धियां वा भाटे व्यवच्छे था गयो ( दुबासं परियाए अंतमकासी ) आ वास्यथी सूत्रअरे पर्यायान्त५२ भूमि अउट मेरी छे.
તીર્થંકરની કેવળી અવસ્થાના પર્યાયરૂપ સમયથી લઇને જે અન્તકર ભૂમિ હાય છે, તેનું નામ પર્યાયાન્તર ભૂમિ છે. આ શબ્દના વાચ્યા આ પ્રમાણે જ
For Private And Personal Use Only
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनमारधर्मामतपषिणी टी० अ०८ जितशञ्चादिषडाक्षादीक्षाग्रहणादिनिरू० ५४२ भमिः । मरल्या अर्हतः केवलज्ञानस्य द्विवर्ष-पर्यायेसती तत्तीर्थ साधुः अन्तमका. पीव-भवान्तमकरोत् न ततः पूर्व कश्चिदपीत्यर्थः । .. मल्ली खलु अईन् पञ्चविंशतिधषि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन मल्ल्या अर्हतः शरीरमुच्चस्वेन पञ्चविंशतिधनुः परिमितमासौदित्यर्थः । वर्णेन भियङ्गुसमः नीलवर्णइत्यर्थः । समचतुरस्रसंस्थानः, वज्रऋषभनाराचसंहमन मध्यदेशे ग्रामानुग्रामं सुखंसुखेन विहत्य अनैव समेतः पर्वतस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, समेतशैलशिखरे पादपोपगमनोपपत्रः पादपोपगमन संस्तारकं स्वीकृतवान् । मल्ली खलु अर्हन् एकं वर्षशतम् अगारवासमध्ये बाच्चार्थ निकलता है। मल्ली अहंत को केवल ज्ञान उत्पन्न हुए जब दो वर्ष हो गये तब उसके बाद ही उनके तीर्थ में अपने भवको अन्त कर साधुजनों ने मुक्ति लाभ किया। इसके पहिले कोई साधु मुक्ति में नहीं गया। यही पर्यायान्त करभूमि है । ( मल्ली गं अरहा पणुवीस धण्इ मुडं उच्चत्तणं) इन मल्ली अरहंत के शरीरकी ऊँचाई २५ धनुष प्रमाण थी । ( वण्णे ण पियंगुसमे, समचउरंससंठाणे, वज्जरिसभणा राय संघयणे) शरीर का वर्ण प्रियंगु के समान नील था। संस्थान सम चतुरस्र था। संहनन वज्र ऋषभ नाराच था (मज्झ देसे सुहं सुहेणं विहरित्ता जेणेव सम्मेए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्सा संमेय सेलसिहरे पाओवगमणुववण्णे) मध्य देश में सुख शान्ति पूर्वक विहार कर ये प्रभु जहाँ समेत पवर्त था वहाँ आये । आकर उसी समेत शैल शिखर पर पादपोपगमन संथारा उन्हों ने धारण किया । ( मल्ली गं अ થાય છે. મલ્લી અહં તને કેવળજ્ઞાન ઉદ્દભવ્યું, તેના બે વર્ષ પછી જ તેમના તીર્થમાં પિતાના ભવમાં અંતકર સાધુજનેએ મુક્તિ લાભ મેળવે. એના घडेसा | साधुसे भुति मेजवी नथी, मे पर्यायान्तर भूमि छ. मल्ली णं भरहा पणुवीस घणूइ मुट्ठ उच्चत्तेणं ) भी मन ARनी या २५ धनुष प्रमाण ती. ( वण्णेणं पियंगुसमे, समचउर'ससंठाणे; वज्जरिसभणाराय सघयणे) शरीरने। २ प्रिय शुना वो नासाडतो. संस्थान समयतुर હતું. સંહનન વજ રાષભ નારાચ હતું.
(मझदेसे सुहं सुहेणं विहरित्ता जेणेव सम्मेए पचए तेणेत्र उवागच्छा उवागच्छित्ता संमेयसेलसिहरे पाओवगमणुवषण्णे)
સુખ શાંતિપૂર્વક મધ્ય દેશમાં વિહાર કરીને મલ્લી પ્રભુ સમેત પર્વત ઉપર પહોંચ્યાં. ત્યાં પહોંચીને તેઓશ્રીએ સમેત શિલ શિખર ઉપર પાદપેપગમન સંથારે ધારણ કર્યો.
For Private And Personal Use Only
Page #606
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५५०
शाताधर्मकथासूत्रे
उषित्वा = स्थित्वा पञ्चपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि वर्षशतोनानि यावत् - केवलिपर्यायं पालयित्वा, पञ्चपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि सर्वायुष्कं पालयित्वा यः सः ग्रीष्माणां ग्रीष्मकालानां चैत्रादिमासचतुष्टयरूपाणां प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षः चैत्रशुद्धः चैत्रशुक्लः, तस्य खलु चैत्रशुद्धस्य चतुभ्यां भरण्यां नक्षत्रे भरणीनामकनक्षत्रे खलु चन्द्रयोगमुपागते= चन्द्रे भरणी नक्षत्रस्थिते सतीत्यर्थः । अर्धरात्रकालसमये पञ्चभिरायिकाशतैराभ्यन्तरिकया परिषदा, पञ्चभिरनगारशतैर्बाह्यया परिषदा सह, मासिकेन भक्तेन भक्तरहा एवं वासस्यं अगारवास मज्झे वसित्ता पर पगबोस सहस्सोई वासस्य ऊणाई केवल परियागं पाउणित्ता पापण्णवास सहस्साइं सव्वा उयं पालता ) ये मल्ली अर्हत प्रभु १ सौ वर्ष घर में रहे बाद में दीक्षित होकर सौ वर्ष कम ५५ हजार वर्षतक केवल पर्याय में रहे। इस तरह ५५ हजार वर्ष तक समस्त आयु को भोग कर ( जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत्त सुद्धे, तस्सणं चेतसुद्धस्स चत्थीए भरणीए नक्खत्ते णं अद्धरत्ता कालसमयंसि पंचहि अज्जिया साहिं अभितरियार परिसाए पं वहिं अगगारसएहिं बाहिरियाए परिसाए मासि एर्ण भत्ते अपाणएण वग्धारियपाणी खेणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे ) उन्होंने ग्रीष्म काल के प्रथम मास में द्वितीय पक्षमें अर्थात चैत्र शुक्ल पक्ष में उस में भी चतुर्थी तिथि के दिन जब कि भरणी नक्षत्र का चंद्रमा के साथ योग हो रहा था - अर्द्ध रात्रि के समय में आभ्यन्तर परिषदा थी पांचसौ अनगारों के साथ १ महिने का पानर
( मल्ली णं अरहा एगं वाससयं अगारवासमज्झे वसित्ता पण पण्णवाससहस्साई वासणाई केवलि परियागं पाउणित्ता पणपण्णत्रास सहरसाई सन्चा उयं पोलइत्ता )
મલ્ટી અ`ત પ્રભુ ૧ સે। વર્ષ ઘરમાં રહ્યા ત્યારપછી દીક્ષા ગ્રહણ કરીને ૫૫ હજાર વર્ષોંમાં એકસા વર્ષે આછા એટલે કે ૪૯૦૦ વર્ષનું આયુષ્ય ભાગવીને કેવલી પર્યાયમાં રહ્યા આ રીતે ૫૫ પંચાવન હજાર વર્ષનું આયુષ્યભાગવીને
(जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे चेत सुद्धे, तस्स णं चेत सुद्धस्स arrate भरणी णक्खत्ते णं अद्धरत्तकालसमयंसि पंचहि अज्जिया सरहिं अतिरिया परिसाए पंचहि अणगारसयेहिं बाहिरियाए परिसाए मासिणं भत्तेणं अपाणएणं वग्धारि य पाणी खेणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे) તેમણે ગ્રીષ્મકાળના પહેલા મહિનાના બીજા પખવાડીયામાં એટલે કે ચૈત્ર શુકલ પક્ષમાં તેમાં પણ ચેાથના દિવસે જ્યારે ભરણી નક્ષત્રના ચંદ્રની સાથે ચાગ થઈ રહ્યો હતેા, અદ્ધ રાત્રિના વખતે આભ્યતર પરિષદ હતી ત્યારે પાંચસો આયિકાઓની સાથે ૧ મહિનાનું પાન હિત ભક્ત પ્રત્યાખ્યાન કરીને
For Private And Personal Use Only
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०८ जितशवादिष राक्षादीक्षा ग्रहणादिनिरू० ५५१ प्रत्याख्यानेन, अपानकेन-पानरहितेन चतुर्विधाहारपरित्यागेनेत्यर्थः, व्याधारितपाणिः-प्रलम्बितभुजद्वयः, क्षीणे प्रणप्टे सति वेदनीये आयुष्के नाम्नि गोत्रे च कर्मणि-सिद्धः सिद्धिं गतः । एवं परिनिर्वाणमहिमाणितव्या-यथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्त्याम् , यथा ऋषभस्य निर्वाणमहिमा मोक्तस्तथा मल्लिजिनस्यापि बोध्यइत्यर्थः । नन्दीश्वरे नन्दीश्वरद्वीपे अष्टाहिका महिमा अष्टाहसाध्यमहोत्सवः देवः कृतः । कृत्वा यावत्-प्रतिगताः यस्यादिशः प्रादुर्मुतास्तां दिशं प्रतिगताःप्रतिनिवृत्ताः। . हित भक्त प्रत्याख्यान करके दोनों हाथ फैलाये हुए अवशिष्ट वेदनीय आयु नाम एवं गोत्र कर्म के नष्ट होते ही सिद्धि अवस्था प्राप्त करली ! ( एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियन्या जहा जंबूद्दीवपण्णत्तीए ) जिस प्रकार जंबूदीप प्रज्ञप्ति में ऋषभ देव के निर्वाण का महिमा प्रकट की गई है उसी तरह इन मल्ली भगवान के निर्वाण की भी महिमा जान नीचाहिये । ( नंदीसरे अट्टाहिया महिमा जाव पडिगया) देवताओं ने मल्ली प्रभु के इस निर्वाण कल्याणक की महिमा नंदीश्वर द्वीप में ८ दीन तक लगातार उत्सव कर के मनाई। बादमें वे वहांसे जिस दिशासे प्रकट हुए थे उस दिशाको वापिस चले गये अब सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं (एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते तिबेमि ) हे जम्बू! श्रमण भगवान् महवीर ने कि जो सिद्धिस्थान के अधिपति बन चुके हैं इस आठवें ज्ञाता ध्य. બંને હાથ ફેલાવતાં અવશિષ્ટ વેદનીય, આયુ, નામ અને ગેત્ર કર્મને નાશ થતાં જ સિદ્ધિ અવસ્થા મેળવી લીધી, (एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियबा जहा जंबूद्दीवपण्णत्तीए)
જે પ્રમાણે જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિમાં ઋષભદેવને મહિમા આલેખવામાં આવ્યો છે તે પ્રમાણે જ મલી ભગવાનના નિર્વાણને મહિમા પણ જાણ જઈએ. (नदीसरे अट्टाहिया महिमा जाव पडिगया ) भही प्रभुना मा निना स्याકારક મહિમાને ઉત્સવ દેવતાઓએ નંદીશ્વર દ્વીપમાં સતત આઠ દિવસ સુધી ઉજવ્યો. ત્યારપછી તેઓ ત્યાંથી જે દિશામાંથી પ્રગટ થયા હતા તે દિશા તરફ પાછા જતા રહ્યા. હવે સુધર્માસ્વામી જંબુસ્વામીને કહે છે –
( एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिबेमि)
હે જંબૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે-કે જેઓ સિદ્ધિસ્થાનના અધિપતિ
For Private And Personal Use Only
Page #608
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथा - सुधर्मास्वामी प्राह-' एवं खलु जंबू ' इत्यादि । एवं खलु हे जम्बूः ! श्रम णेम भगवता महावीरेण-यावस् सिदिगतिमामधेय स्थान समाप्तेन, अष्टमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयमर्थः उक्तरूपो भावः प्राप्तः कथितः इति ब्रवीमि अस्य व्याख्यानं पूर्ववत् ॥ सू० ४०॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छ. अपतिकोल्हापुरराजदत्त- जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालप्रतिविरचितायां 'ज्ञाताधर्मकथाङ्ग' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
विण्याख्यायां व्याख्यायां अष्टममध्ययनं संपूर्णम् ॥ ८ ॥ धन का यह पूर्वोक्त रूप अर्थ प्ररूपित किया है । अतः जेसा प्रभुने अपमे मुखारविन्द से कहां और जैसा उनसे मैंने सुना-वैसा ही यह तुम से कहा है । सू० ॥ ४०॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासी लालजी महाराज कृत "ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का आठवा
अध्ययन समाप्त ॥८॥
થઈ ગયેલા છે–આઠમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ ઉપર લખ્યા મુજબને અર્થ નિરૂ પિત કર્યો છે. એટલા માટે પ્રભુએ પિતાના મુખારવિંદથી જે પ્રમાણે મને मुद्यो मन में सामन्यात प्रभारी १ तमन में यो छ. ॥ सूत्र ४० ॥
આઠમું અધ્યયન, સમાપ્ત.
For Private And Personal Use Only
Page #609
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ अथ नवमम् अध्ययनम् ॥ . गतमष्टरमध्ययनं, साम्प्रतं नवमं प्रारभ्यते, अस्य पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-- पूर्वस्मिन् मायावतोऽनर्थः प्रोक्तः, इह च भोगेष्वविरतिमतोऽनों विरतिमतश्चार्थः पोच्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रम्-'जइणं भंते ' इत्यादि । - मूलम्-जइणं भंते! समणेणं जाव संपत्सेणं अट्ठमस्सणायज्झयणस्स अयमटे पण्णत्ते नवमस्त णं भंते ! नायज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तणं के अटे पण्णते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं२ चंपा नामं नयरी पुण्णभद्दे चेहए तत्थणं माकंदी नामं सत्थवाहे परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए, तस्स णं भहा
-नववा अध्ययन प्रारंभ___ अष्टम अध्ययन समाप्त हुआ । अब नौवां अध्ययन प्रारंभ होता है इस अध्ययनका पूर्व अध्ययनके साथ इस तरहसे संबंध है पूर्व अध्ययन में कहा गया है कि जो साधु मायावी होते है वे अनर्थ के पात्र होते हैं अर्थात् यदि उसके महाव्रतों में थोड़ा सा भी माया शल्य है तो वे उसे यथावत् फल जनक नहीं होते हैं-अय सूत्र कार इस अध्ययन द्वारा यह प्रकट करेंगे कि जो साधु भोगों से विरक्त नही होता है वह अनर्थका स्थान होता है और जो विरक्त होता है वह अपने प्रयोजनरूप अर्थको प्राप्त कर लेता है । इसी संबन्धको लेकर प्रारंभ हुए इस अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है (जइणं भंते ! समणेणं जाव संत्तणं) इत्यादि ।
છે નવમું અધ્યયન પ્રારંભ છે આઠમું અધ્યયન પુરૂં થયું છે. નવમું અધ્યયન હવે આરંભ થાય છે. આઠમા અધ્યયનની સાથે આ અધ્યયનને સંબંધ આ પ્રમાણે છે કે આઠમા અધ્યયનમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે જે સાધુઓ માયાવી હોય છે તેઓ અનર્થના પાત્ર હોય છે એટલે કે જે તેના મહાવતેમાં થોડું પણ માયાશલ્ય (માયા રૂપ કોટે) હોય ત્યારે તેઓ તેમાં એગ્ય ફળના અધિકારી થતા નથી. હવે સૂત્રકાર આ અધ્યયનમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરવા ઇચ્છે છે કે જે સાધુ ભેગોથી વિરક્ત થતો નથી તે અનર્થનું સ્થાન થઈ પડે છે અને જે વિરક્ત હોય છે તે પિતાના પ્રજન રૂપ અર્થને મેળવી લે છે. આ વિષયને લઈને પ્રારંભ થતા નવમા અધ્યયનનું આ પહેલું સૂત્ર છે
ज्ञा ७०
For Private And Personal Use Only
Page #610
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
नामं भारिया, तीसेनं भद्दाए अत्तया दुवे सत्थवाहदारया होत्था, तं जहा - जिणपालिए य जिणरक्खिए य, ततेणं तेसिं मागंदियदारगाणं अन्नया कयाई एगयओ साहियाणं इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था - एवं खलु अम्हे लवणसमुद्द पोयवहणेणं एक्कारसवारा ओगाढा सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयका अणहसमग्गा पुणरवि निययघरं हव्वमागया तं सेयं खलु अम्हे देवाणुपिया ! दुवालसमंपि लवणसमुद्दं पोतवहपेणं ओगाहित्तए - तिकट्टु अण्णमण्णस्स एयमहं पडिसुर्णेति पडिसुणित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी - एवं खलु अम्हे अम्मयाओ ! एक्कारस वारा तं चैव जाव निययं घरं हव्वमागया, तं इच्छामो णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुष्णाया समाणा दुवालसमं लवसमुद्दे पोयवहणेणं ओगाहित्तए । तरणं ते मागंदियदारए अम्मापियरो एवं वयासी- इमे य ते जाया! अज्जग जाव परिभाएतए तं अणुहोह ताव जाया ! विउले माणुस्सए इड्डी सक्कारसमुदए, किं भे सपच्चवाएणं निरालंबणेणं लवणसमुहोत्तारेणं ?, एवं खलु पुत्ता ! दुवालसमी जत्ता सावसग्गा यावि भवइ, तं माणं तुब्भे दुवे पुत्ता ! दुवालसमंपि लवण० जाव ओगाहेह, माहु तुब्भं सरीरस्स वावती भविस्सइ, तपणं मागंदियदारगा अम्मापियरो दोच्चंपि तचंपि एवं वयासी - एवं खलु अम्हे अम्मयाओ ! एक्कारसवारा लवणं जाव ओगाहित्तए,
For Private And Personal Use Only
Page #611
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५५५ तएणं ते मार्गदीदारए अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहुहिं आघवणाहिं पण्णवणाहिं य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा ताहे अकामा चेव एयमह अणुजाणिस्था। तएणं तं मार्गदियदारगा अम्मापिऊहिं अब्भYण्णाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च जहा अरहण्णगस्स जाव लवणसमुई बहुइं जोअणसयाई ओगाढा ॥ सू० १॥ ___टीका-श्री जम्बूस्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन-अष्टमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः, नवमस्य खलु भदन्त ! ज्ञाताध्ययनस्य श्रनणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? श्री सुधर्मास्वामी पाह-एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पानामनगरी । पूर्ण भद्रे चैत्यम् । तत्र खलु माकन्दीनाम सार्थवाहः परिवसति 'अड़े' आढयः = प्रभूतधनधान्यसंपन्नः, 'जाव अपरिभूए' यावदपरिभूतः केनाऽप्यपरिभवनीयः-सर्वजनमान्य इत्यर्थः । तस्य खलु भद्रानाम भार्या । तस्याः ख भार्याया आत्म नौ द्वौ सार्थवाहदारको
टीकार्थ-जंबूस्वामी श्री सुधर्मास्वामीसे पूछते हैं कि (भते) भदन्त ! (जइणं समणेणं जाव संपत्तेणं अहमस्स णायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते नवम स्सण केअट्टे पण्णत्ते) यदि श्रमण भगवान् महवीरने कि जो सिद्धि स्थान के भोक्ता बन चुके हैं अष्टम ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रतिपादित किया है तो हे भदंत ! उन्ही श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धिस्थान के अधिपति बन चुके हैं नौवें ज्ञाताध्ययन का क्या भाव अर्थ प्रतिपादित किया है ? ( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेग २ चंपा नम नयरी, पुण्णभद्दे चेहए, तत्थणं माकंदी नामं सत्थवाहे ___ --- जइण भते ! समणेण जाव संपत्तेण । इत्यादि ।
यू स्वामी सुधारणामीने प्रश्न 3रे छे , (भते ! ) 3 word ! ( जइणं समणे णं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अयमढे पण्णते नवमस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णते ?) ।
જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર-કે જેઓ સિદ્ધસ્થાનના ઉપલેતા થઈ ચૂક્યા છે-આઠમા જ્ઞાતાધ્યયનને અર્થ ઉપર કહ્યા મુજબ નિરુપિત કર્યો છે તે નવમા જ્ઞાતાધ્યયનને અર્થ તેઓએ કેવી રીતે પ્રગટ કર્યો છે? . (एवं खलु जंबू ! तेणं कालेगं २ चंया नाम नयरी पुण्णभरे चेहए, तस्य
For Private And Personal Use Only
Page #612
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
साताधर्मकथागसूत्र आस्ताम् , ' तं जहा' तथथा तथाहि-जिनपालितश्च जिनरक्षितश्च । ततः खलु तयोर्माकन्दिकदारकयोरन्यदा कदाचित् एकतः सहितानामयमेतद्रूपो मिथः कथासमुल्लापः समुदपद्यत-एवं खलु आवां लवणसमुद्रं पोतवहनेन एकादशवारान् परिवसइ अड्डे जाव अपरिभूए, तस्त भद्दा नामं भारिया ) इस प्रकार जंबू स्वामी का प्रश्न सुन कर श्री सुधमी स्वामी उन्हे समझाते हैं कि जंबू ! सुनों-तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस तरह से हैं, उस काल और उस समय मे चंपा नामकी नगरी थी । उसमें पूर्णभद्र नामका उद्यान या । उस चंपा नगरी में माकंदी नामका सार्थवाह रहता था। यह धनधान्य से खूब पूर्ण था। अतः अपरि भवनीय था। कोई भी मनुष्य इसका तिरस्कार नहीं कर सकता था-सर्वजन मान्य था । इनकी भार्याका नाम भद्रा था। (तीसेणं भद्दाए अत्तया दुवे सत्यवाह दारया होत्या तं जहा जिणपालिएय जिण रक्खिए व) उस भद्रा के दो पुत्र थे १) जिन पालित (२)जिनरक्षित (तत्तणं तेसिं मागंदिय दारगाण अन्नया कयाई.एगयओ सहियाणं इमे. यारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था ) एक दिन की बात हैं कि जब ये दोनो माकंदी सार्थवाह के पुत्र एक जगह मिलकर बैठे हुए थेतब इनमें परस्पर में इस प्रकार की बातचीत चली-( एवं खलु अम्हे मादीनामं सत्थवाहे परिवसइ अड़े जाव अपरिभूए, तस्सणं भदा नाम भरिया)
આ રીતે જંબૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને શ્રા સુધર્મા સ્વામી તેમને સમજાવતાં કહે છે કે હે જંબૂ! સાંભળો, તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે ચંપા નામે નગરી હતી. તેમાં પૂર્ણભદ્ર નામે ઉદ્યાન હતું. માર્કદી નામે એક સાર્થવાહ તે ચંપા નગરીમાં રહેતે હતે. તે ધનધાન્યથી પૂર્ણ રૂપે સમૃદ્ધ હતા, એટલા માટે તે અપરિ ભવનીય હતે. કેઈ પણ માણસની શક્તિ નહોતી કે તેને તિરસ્કાર કરી શકે. તે સર્વજન માન્ય હતું. તેમનાં પત્નીનું નામ ભદ્રા હતું.
(तीसेणं भदाए अत्तया दुवे सत्यवाह दारया होत्था तं जहा जिणपालि. एय जिणरक्खिए य)
તે ભદ્રાને બે પુત્રો હતા-જિનપાલિત અને જિન રક્ષિત. ( तत्तेणं तेसिं मागंदियदारगाणं अनया कयाई एगयओ साहियाणं इमेया रूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था)
એક દિવસે માર્કદી સાર્થવાહના બંને પુત્રે એક જગ્યાએ બેઠા હતા ત્યારે તેઓ પરસપર વાત ચીત કરવા લાગ્યા કે
For Private And Personal Use Only
Page #613
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भगारामृतवषिणी टीका म० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५५७ 'ओगाढा' अवगाहितवन्तौ उत्तीणी, सर्वत्रापि च खलु सर्व यात्रासु आवां 'लठ्ठा' लब्धा-प्राप्तप्रचुरधनौ, ‘कयकज्जा' कृतकायौं-साधितधनोपाजनादिसकलकार्यो, 'अणहसमग्गा ' अनघसमग्रौ = तस्करादिहेतुकविघातरहितसर्वस्वी सती पुनरपि निजगृहं हव्यमागतौ-सर्वथा सकुशलं समायातो, तत्= तस्मात् ' सेयं ' श्रेयः उचितं खलु आवयोः देवानुप्रियः ? 'दुवालसमंपि' द्वादशमपि वार लवणसमुद्रं पोतवहनेनावगाहितुम् , 'त्तिकट्ठ' इति कृत्वा इति विचार्याऽन्योन्यस्यैतमर्थ प्रतिशृणुतः = स्वीकुरुतः प्रतिश्रुत्य यत्रैव अम्बापितरौं भद्रा माकन्दी च स्तः, तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्यैवमवादिष्टाम्-एवं खलु आवां लवणसमुद्धं पोयवहणेणं एक्कारसवारी ओगाढा सव्वत्थ वियणं लट्ठा कयकजा अणहसमग्गा पुणरवि निययघरं हव्वमागया ) जहाज द्वारा हम लोग लवण समुद्र से होकर ११ बार परदेश जा चुके है-जब २ हम लोग बाहर परदेश गये-तब २ हमने वहां पर प्रचुर धन कमाया है और कृत कार्य होकर वहाँ से निर्विघ्न रूप में अपने घर पापिस सकु शल आये हैं-(तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया । दुवाल समपि लवण समुहं पोतवहणेणं ओगाहित्तए ) इसलिये हे देवाणुप्रिय अब १२वी बार भी हम लोग जहाज द्वारा लवण समुद्र से होकर बाहर व्यपार कर ने के लिये चले-तो अच्छा है । (त्तिक? अण्णमण्णस्स एयम पडि सुणेति ) इस प्रकार का विचार कर उन दोनों ने एक दूसरे की बात को मान लिया ( पडिसुणित्ता जेणेव अम्मा पियरो तेणेव उवागच्छइ उवा गच्छित्ता एवं वयासी एवं खलु अम्मयाओ एक्कारस वारा तं चेव जाव ___(एवं खलु अम्हे लवणसमुदं पोयवहणेणं एक्कारसवारा ओगाढा सव्वत्थ वि य णं लट्ठा कयकज्जा अणह-समग्गा पुणरवि निययघरं हब्धमागया )
વહાણ વડે અમે લોકો ૧૧ વખત દેશાવર ખેડવા નીકળ્યા હતા અને આ પ્રમાણે ત્યાંથી પુષ્કળ ધન મેળવ્યું છે. અમે પિતાના વેપારમાં પૂર્ણરૂપે સફળ થઈને સકુશળ પાછા ઘેર ફર્યાં છીએ. (तै सेयं खलु अम्हं देवाणुपिया! दुवाल समंपि लवणसमुदं पोतवहणेणं ओगाहित्तए)
એટલા માટે હે દેવાણુપ્રિય ! ૧૨મી વખત પણ આપણે વહાણમાં બેસીને લવણ સમુદ્રમાં થઈને વેપાર કરવા દેશાવર માટે નીકળી પડીએ તે સારું થાય. सि कटु अण्णमण्णस्स एयमé पडिसुणेति)
આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેઓએ એક મત થઈને આ વાત સ્વીકારી લીધી. (पडिसुणित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी
For Private And Personal Use Only
Page #614
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५५८ ......
शाताधर्मकथागसूत्र हे अम्बतातौ ! एकादशवारान् तदेव यावत् निनकं गृहं हव्यमागतो, तद् इच्छावः खलु हे अम्बतातौ ! युष्माभिरभ्यनुज्ञातौ सन्तौ द्वादशं वारं समुद्रं पोतवहनेनअवगाहितुं समुत्तत् समुद्रयात्रां कर्तुमभिलपाव इत्यर्थः ।। ____ ततः खलु तौ माकन्दिकदारको अम्बापितरौ एवमवादिष्टाम्-इदं च ते 'जाया' जातो हे पुत्रौ ! 'ते' युवयोः अज्जग जाव' आर्यक यावत् , अत्र यावच्छन्देन 'अन्जयपज्जय-पिउपज्जयागए य बहु हिरण्णे य सुवण्णे य कंसे य दूसे य विउलधणकणगरयणमणिमोत्तिय संखसिलप्पवालरत्तरयणमाइए संतसारसावएज्जे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलसाओ पकामं दाउं, पाम भोत्तुं, पकामं " इति निययं धरं हव्व मागया-तं इच्छामो ण अम्प्रयाओ तुम्भे हिं अन्भणु ण्णाया समाणा दुवालसमं लवणसमुइं पोयवहणेण ओगाहित्तए ) मान कर फिर वे दोनों जहाँ माता पिता थे वहा गये वहां जाकर उनसे इस प्रकार कहा-हे मात तात । हम लोग ११ वार पोतवहन बारालवण समुद्र से होकर बाहर परदेश में व्यापार करने के लिये जा चुके हैं वहां हमने अच्छी तरह से प्रचुर धन कमाया है और विनो किसी विघ्न बाधा के वहां से वापिस घर सकुशल लौट आये हैं अब हमारा विचा र १२ वी बार भी पोतवहन द्वारा लवण समुद्र को पार कर बाहर परदेश में व्यापार करने के लिये जाने का हो रहा है सोहम आपकी इस विषय में आज्ञा चाहते हैं-(तएणं ते मागदियदारए अम्मापियरो एवं घयासी-इमेय ते जाया ! अज्जगं जाव परिभाएत्तए तं अणुहोह ताव जाया । विउले माणुस्सएइड्रीसक्कारसदए, किं भे सपच्चवाएणं एवं खलु अम्मयाओ एककारसबारा तं चे। जार निययं धरं हयभागया तं इच्छामोणं अम्मयाओ तुम्भेहि अनगुमाया सभाणा दुवालस लगसमुदं पोय. वहणेणं ओगाहित्तए)
એક મત થઈને તેઓ બંને ત્યાંથી માતા પિતાની પાસે ગયા અને તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે માતા પિતા ! અમે અત્યાર સુધીમાં અગિયાર વખત વહાણ વડે લવણુ સમુદ્રમાં થઈને બહાર પરદેશમાં વેપાર કરવા ગયા છીએ. ત્યાં જઈને અમે એ પુષ્કળ પ્રમાણમાં ધન મેળવ્યું છે અને ત્યાંથી પાછા ક્ષેમ કુશળ નિર્વિન રૂપે ઘેર આવવા છીએ. હમણાં અમારો વિચાર વહાણ વડે જ ૧૨ મી વખત લવ સમુદ્રને પાર કરીને પરદેશમાં વેપાર કરવા માટે જવાને થઈ રહ્યો છે, તે એ માટે અમે તમારી આજ્ઞા માંગીએ છીએ.
(तएणं ते मागंविदारए अनापियो एi मा इमे ते जाया ! अज्जगं जाव परिभाएत्तए तं अगुहोह ताव जाया ! विउले माणुस्सए इड्रि सरकार
For Private And Personal Use Only
Page #615
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ९ मान्दिदारकचरितनिरूपणम् ५५९ सङ्ग्रहः, अस्य छाया- 'आर्यकार्यकपितृप्रार्यकागतं च बहु हिरण्यं च सुवर्ण च कांस्यं च दृष्यं च विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्खशिलाप्रवालरक्तरत्नादिकं सत्सारस्वापतेयम् , अलं यावत् आसप्तमात् कुलवंश्या प्रकामं दातुं, प्रकामं भोक्तु, प्रकामं " इति । · अज्जयपज्जयपिउपज्जयागए 'आर्यकमार्यकपितृप्रार्यकागतम् , आर्यकः-पितामहः, पार्यका-पितुः पितामहः, पितृप्रार्यकः = पितुः प्रपितामहः, तेभ्यः सकाशाद् आगतं-वंशपरम्परया प्राप्तं, 'बहु' प्रमाणतो बहुलं 'हिरण' हिरण्यं रजतं, ' सुवणं ' सुवर्ण-प्रतीतं, 'कसं ' कांस्यं धातुविशेषः, उपलक्षणं ताम्रादीनाम् , 'दूसं'दृष्यं वस्त्रं चीनांशुकादिकं विउलं ' विपुलं प्रचुरं धणक'णग' धनं गवादि, कणक-धान्यं, 'रयण' रत्नानि = कर्केतनादीनि, 'मणि' मणयः चन्द्रकान्तायाः, 'मोत्तिय ' मौक्तिकानि प्रतीतानि, 'संखा' शङ्खा-दक्षि. णावर्ताः, प्रसिद्धाः, यत्प्रभावाद् विघ्न निवृत्तिः कुशलप्रवृत्तिश्च भवति 'सिलप्प बाल ' शिलाप्रवालानि-विद्रुमाणि, 'रत्तरयण' रक्तरत्नानि पझरागाः, तान्यादौयस्य तत्तादृशं 'संतसारसावएज्जे ' सत्सारस्वापतेयं, सत्-विद्यमानं स्वाधीन. मित्यर्थः, 'सार' प्रधानं स्वापतेयं-द्रव्यं, ' अलाहि ' अलं-परिपूर्णम् अस्ति कियत्परिमितम् ? इत्याह-'जाव ' इत्यादिना, 'जाव' यावत्-यावत्परिमितम् 'आसत्तमाओ कुलवंसाओ' आसप्तमात् कुलवंश्यात् अद्यतनादारभ्य भविष्यत्सनिरालंधणेणं लवणसमुद्दोत्तारेण ) इस प्रकार अपने दोनों पुत्रों के वचन सुनकर उनसे माता पिता ने इस प्रकार कहा-हे पुत्रों अपने यहां आर्यक, प्रार्थक एवं पितृप्रार्यकों से चला आया बहुत सा हिरण्य सुवर्ण, कांसा तांबा आदि तथा चीन आदि के वस्त्र, गाय भैस आदि धन, गेहूँ आदि धान्य, कके तनादि रत्न, चन्द्रकान्त आदि मणिगण, मौक्तिक, दक्षिणावर्त शंख, मूंगा, पद्मराग आदि उत्तम से उत्तम द्रव्य खूब भरा पड़ा है-इस पर अपने सिवाय किसी और दूसरे का अधि. कार नहीं हैं। वह प्रमाण में इतना अधिक है कि आजकी पीढीसे लेकर समुदए कि भे सपञ्चवाएणं निरालंबणेणं लवणसमुद्दोत्तारेणं)
આ પ્રમાણે પિતાના બંને પુત્રની વાત સાંભળીને માત પિતાઓએ આ રીતે કહ્યું કે હે પુત્ર! આપણે ઘેર આર્યક, પ્રાર્થક અને પિતૃ પ્રાર્થકેથી એકઠું કરેલું ખૂબ જ સોનું, કાંસુ, તાંબુ વગેરે તેમજ ચીન વગેરે દેશોનાં વસ્ત્રો, ગાય, ભેંસ વગેરે ધન, ઘઉં વગેરે ધાન્ય, કાન વગેરે રત્ન, ચંદ્રકાંત વગેરે મણિઓ, મતીઓ, દક્ષિણાવર્તી શંખ, પરવાળાં પદ્મરાગ વગેરે ઉત્તમોત્તમ દ્રવ્ય પુષ્કળ પ્રમાણમાં ભર્યું છે. આ સંપત્તિ ઉપર બીજા કેઈને અધિકાર નથી. અને તે પ્રમાણમાં એટલી બધી છે કે તમારી આજની પેઢીથી
For Private And Personal Use Only
Page #616
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
---
-
-
---
साताधर्मकथागसमे समपुरुषपर्यन्तं 'पकामं दाउं' प्रकामं दातुम् दीनदुःखिभ्योऽत्यर्थ वितरीतुम् , एवं प्रकामं भोक्तुम् अत्यर्थ स्वस्योपभोगार्थम् , प्रकामम्=अत्यर्थ - परिभाएत्तए' परिभाजयितुन्दायादादिभ्यो विभागं कर्तुम् , पूर्वपरम्पराप्राप्तमिदं द्रव्यं हे पुत्रौ । युवयोर्भविष्यत्सप्तमपुरुषपर्यन्तं भकामदानाद्यर्थ परिपूर्णमस्तीति भावः । 'तं' तत्-तस्माद् युवाम् ' अणुहोह ' अनुभवतं ' ताव ' सावत्-प्रथमं 'जाया' जातो हे पुत्रौ ! विपुलं प्रचुर मानुष्क-मनुष्यसम्बन्धीकम् ' इड्डीसकारसमुदए' ऋद्धिसत्कारसमुदयम् , ऋद्धया-वस्त्र सुवर्णादिना, सत्कारः जनकृतबहुमानस्तस्य समुदयः-बाहुल्यं तम् , मनुष्यसम्बन्धिन ऋद्धिसत्कारसमुदायस्यानुभवं कुरुतं युवामिति भावः, अत: 'भे' युवयोः 'सपच्चवाएण' समत्यपायेन-विघ्नबहुलेन 'निरालंबणेणं' निरालम्बनेन=निष्कारणेन, विघ्नबाधोपस्थितौ त्राणार्थमालम्बनीयतुम्हारी सात पीढी तक के लोग उसे दीन दुःखियों को दान में देवें बैठे २ इच्छानुसार खावें पीवें हिस्सेदारों में उसका विभाग भी कर देवें सौभी वंश परम्परा से चला आया हुआ यह द्रव्य कभी समाप्त नहीं हो सकता है-हे पुत्र! तुम्हारी सात पीढी तक के पुरुषों को यह दानादिक में वितरण करने के लिये पर्याप्त हैं। पितामह-दादा का नाम आर्यक है। पिता के पिता के पिता को नाम प्रार्यक है। पिता के प्रपितामह का नाम पित प्रायक हैं यह सब पाठ "परिभाएत्तए" के पहिले का यावत् शब्द से यहां गृहीत . हुआ है। इस लिये हे पुत्रों ! तुम दोनों पहिले मनुष्य भवसम्बन्धी ऋद्धि सत्कार समुदाय का अनुभव करो। विघ्न बहुल तथो विघ्नबाधां के उपस्थित होने पर त्राण के लिये आलम्बनीयवस्तु से वर्जित ऐसे लवण समुद्र के उत्तरण से क्या तात्प માંડીને સાત પેઢી સુધીના લેકે ગરીબ તેમજ દુઃખી માણસોને દાનમાં આપે, બેસીને ઈચ્છા મુજબ ખાય, પીવે ભેગવે અને ભાગ પડાવનારાઓમાં પણ તેની વહેંચણી કરે છતાએ વંશપરંપરાથી સંગ્રહાયેલી સંપત્તિ સમાપ્ત થઈ જવાની નથી. હે પુત્ર! તમારી સાત સાત પેઢી સુધીના પુરૂષને માટે આ સંપત્તિ દાન વગેરેના રૂપમાં વિતરણ કરવા માટે પણ પર્યાપ્ત છે. પિતામહ એટલે કે દાદાને આર્યક કહે છે. પિતાના પિતા અને તેને પણ પિતાનું નામ પ્રાર્યક છે. પિતાના પ્રપિતામહનું નામ પિતૃ પ્રાર્યક છે. આ પાઠ અહીં "परिभाएत्तए" न पडताना यावत्' ५४१ र ४२पामा माव्य। छ. એટલા માટે હે પુત્રે ! તમે બંને પહેલાં મનુષ્ય ભવના ઋદ્ધિ સત્કાર સમુ દાયને અનુભવ કરે. બહુ વિશ યુક્ત તેમજ વિશ્નો બાધાઓ આવી પડે
For Private And Personal Use Only
Page #617
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
-
-
भनगारधर्मामृतषिणी टीका भ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५५ वस्तुवजितेन वा 'लवणसमुद्दोत्तारेणं' लवणसमुद्रोत्तारेण = लवणसमुद्रोत्तरणेन 'कि' किं प्रयोजनम् ? न किमपीत्यर्थः, युवाभ्यामवस्थातव्यं न कुत्रापि गन्तव्यमिति भाः। पुनश्च-एवं खलु 'पुत्ता' हे पुत्रौ ! द्वादशी यात्रा 'सोवसग्गा' सोपसर्गा-सोपवा विघ्नबहुला चापि भवति तं' तत्=तस्मात् मा खलु हे पुत्री युवां द्वावपि द्वादशं ' लवण जाव' लवण यावत्-लवणसमुद्रं पोतवहनेन अवगाहेथाम् , युवाभ्यां द्वादशवारं समुद्रावगाहनं न कर्तव्यमित्या , माहु ' न खलु युवयोः शरीरस्य ' वावत्ती' व्यापत्तिः विनाशः 'भविस्सइ' भविष्यति, 'युवयोः शरीरे काऽपि व्यापत्तिन भवतु ' इत्यभिप्रायोऽस्माकमिति भावः।
ततः खलु माकन्दिकदारको अम्बापितरौ द्वितीयमपि तृतीयमपि , वारमेवमवादिष्टाम्-एवं खलु आवां हे अम्बतातौ ! एकादशवारान् ' लवण जाव' लवण र्य है। कारण इसका यही है कि तुम दोनों यहीं पर रहो कहीं भी मत जाओं। (एवं खल पुत्ता ! दुवालसमी जत्ता सोवसग्गा यावि भवइ तं माणं तुम्भे दुवे पुत्ता दुवोलसमंपि लवण० जाव ओगाहेह माहु तुम्भं सरीरस्स बावती भविस्सइ) दूसरी बात एक यह भी है कि हे पुत्रों ! बारहवीं यात्रा सोपसर्ग-विन्धवहुल-भी होती है। इसलिये हे पुत्रो ! तुम अब १२ वीं बार लवणसमुद्र की पोत वहन से यात्रा मत करो। मत तुम्हारे शरीर पर किसी भी प्रकार की व्यापत्ति आओ। यही हमारी भावना है । (तएणं मागंदियदारगा अम्मापियरो दोच्चपि एवं वयासी) ऐसा सुनकर उन माकंदि दोरकों ने अपने उन माता पिता से दुवारा तिवारा भी ऐसा ही कहा-(एवं खलु अम्हे अम्मयाओ ત્યારે તેમાંથી રક્ષા મેળવી શકાય તેવા આધારોને પણ જ્યાં સદંતર અભાવ છે એના લવણ સમુદ્રને એ ગીને વેપાર કરવાથી શું લાભ છે? મતલબ
એ છે કે તમે બંને પુત્રે અહીં જ રહે, કયાંએ જાઓ નહિ. (एवं खलु पुत्ता ! दुवालसमीजत्ता सोवसग्गा यावि भवइ तं माणं तुम्भे दुवे पुत्ता! दुवालसमंपि लवण० जाव ओगाहेह माहु तुब्भं सरीरस्स वावत्तों भविस्सइ)
અને બીજું એ કે હે પુત્રો ! ૧૨ મી યાત્રામાં વિદને પણ બહુ જ નડતા રહે છે. એથી હે પુત્રો! હવે તમે ૧૨મી વખત પિત વહનથી લવણ સમુદ્રની યાત્રાને વિચાર માંડી વાળે. તમારા શરીર ઉપર કઈ પણ જાતની આફત આવે નહિ અમારી એજ ભાવના છે. (तएणं मागंदियदारगा अम्मापियरो दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी)
આ પ્રમાણે સાંભળીને માર્કદી દારકેએ બીજી અને ત્રીજી વાર પણ પિતાના માતા પિતાને એમ જ કહ્યું કે
झा ७१
For Private And Personal Use Only
Page #618
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे यावस्-लवणासमुद्रमरगाहितवन्तौ यावत् तच्छ्रेयः खलु आवयोादशं वारं पोतबहनेन लवणसमुद्रमवगाहितुमिति ॥
ततः खल्लु तौ माकन्दिकदारको अग्यापितरौ यदा नो शक्नुतः बहीभिः 'आषवमाहि' आख्यापनाभिः सामान्योक्तिभिः, “पप्णवणाहि य' प्रज्ञापनाभि-विशेषोक्तिभिश्च ' आघवित्तए वा' आख्यापयितु सामान्यतः प्रतिबोधपितुंबा 'पण्णवित्तए वा' प्रज्ञापयित-विशेषतः प्रतिबोधयितुं या लवणसमुद्रोसरणको निवर्तयितुं न शक्नुत इत्यर्थः, तदा 'अकामाचेव' अकामैव-इच्छारहितैव सती एतम्-उक्तमर्थम् 'अणुजाणिस्था' अनुजानीतः स्वीकृतवन्तौ । ततः खलु एक्कारसवारा लवणं जाव ओगाहित्तए) कि हे मात तात ! जब हम लोगों ने लवण समुद्र की ११ बार पोत वहन द्वारा यात्रा करली है-तो अब १२ वीं बार उसकी यात्रा करने में क्या भय है। इसलिये १२ वीं बोर उसकी पोत बहन द्वारा यात्रा करना भी हम लोगों के लिये श्रेय. स्कर ही है। आप हमारी कोइ चिन्ता न करें। (तएणं ते मागंदीदारए अम्मापियरो जाहे नो संचाए ति बहहिं आघवणाहिं पण्णवणाहि य आधवित्तए वा पन्नवित्तए वा ताहे अकामा चेव एयमढे अणुजाणिस्था) इस तरह जब अपने दोनों पुत्रों को वे माता पिता अनेक विध आख्यापनाओं से, सामान्य कथन से, प्रज्ञापनाओं से-विशेष कथन से समझाने बुझाने में समर्थ नहीं हो सके लवण समुद्र की यात्राके उनके विचार को नहीं बदल सकें तब उन्हों ने उन्हें इच्छा नही होने पर भी इस अर्थ की-लवण समुद्र की पोत वहन द्वारा यात्रा करने की स्वीकृती ( एवं खलु अम्हे अम्मयाओ ! एक्कारसवारालवणं जाव ओगाहित्तए)
હે માતા પિતા ! અમે ૧૧ વખત લવણ સમુદ્રની યાત્રા કરી આવ્યા છીએ તે ૧૨ મી વખત યાત્રા કરવામાં ભય શાને હેય ? ૧૨ મી વખતની વહાણ વડે યાત્રા અમારા માટે તે મંગળકારી જ થશે. અમારી તમે કઈ પણ જાતની ચિંતા કરતા નહિં
(तएणं ते मगंदीदारए अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहूहिं आध वणाहिं पण्णवणाहि य आधवित्तए वा पनवित्तए वा ताहे अकामा चेव एयमटुं अणुनाणिस्था)
આ પ્રમાણે પિતાના બંને પુત્રોને તેઓ અનેકવિધ આખ્યાનોથી સામાન્ય કથનથી–અને પ્રજ્ઞાપનાથી–વિશેષ કથનથી સમજાવવામાં અસમર્થ થઈ ગયા, લવણુ સમુદ્રની યાત્રા કરવાના તેમના નિશ્ચયને તેઓ ફેરવી શકયા નહિ ત્યારે તેઓએ પિતાની ઈચ્છા ન હોવા છતાં વહાણ વડે લવણસમુદ્રની યાત્રા કરવાની આજ્ઞા આપી દીધી.
For Private And Personal Use Only
Page #619
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
,
अगर
मृतवर्षिणी टी० अ० ९ मान्दियदारकच रितनिरूपणम्
,
aौ मान्दिकदारकौ अम्बापितृभ्यामभ्यनुज्ञातौ सन्तौ एकद्वित्रिचतुरादिसंख्याक्रमेण गणयित्वा दीयमानं क्रयाणकं = नालिकेर पूगीफलादिकम् ' मेज्जं च मे च = यत् पल - सेटिका - हस्तादिना मानं कृत्वा दीयमानं वस्तुजातं - दुग्धधृततैलवस्त्रादिकम् 'पारिच्छेज्न' परिच्छेधं च प्रत्यक्षतो निकषादि परीक्षया यद्दीयमानं तत्-सुवर्णमणिमुक्तादिकं च एतत्सर्वं गरिमधरिमादिकं वस्तुजातं गृहीत्वा ' जहा अरणगस्स ' यथा अरहन्नकस्य यथा = येन प्रकारेण अरहनकस्य =अस्यैवाष्टमाध्ययने वर्णितस्य श्रावकस्य वर्णनं तथैवात्र विज्ञेयं, ' जाव' यावत् लवणस
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
देदी। (तएण ते मागंदिय दारगा अम्मा पिऊहिं अन्भणुष्णाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च जहा अरहण्णगस्स जाव लवणसमुद्दे बहूई जोयणसयाई ओगाढा) इस तरह माता पिता से आज्ञापित हुए वे दोनों माकंदी सार्थवाह के पुत्र, गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रयाक वस्तुओं को पोतमें भरकर अरहन्नक सार्थवाह की तरह अनेक योजनों तक लवण समुद्र में निकल गये । एक दो तीन चार इस रूप से गिनकर जो वस्तु दी जाती है वह गणिम है जैसे नारिकेल, सुपारी आदि । जो तौल कर दी जाय वह घरिम है और नापकर दी जाती है वह मेय-जैसे दुग्ध, घृत, तेल, वस्त्र, आदि । जो प्रत्यक्ष से परीक्षित कर या कसौटी आदि पर कस कर दी जाती है वह परिच्छेद्य है-जैसे सुवर्ण मणि मुक्ता आदि । अरहनक श्रावकका वर्णन इसी ज्ञाताध्ययन के अष्टन अध्ययन में किया है ॥सू १ ॥
( तणं ते मागंदिवदारगा अम्माविऊहिं अमणुग्णाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च जहा अरहण्णगस्स जाव लवण समुद्र बहु जोयणसयाई ओगाढा )
આ રીતે અને માર્કદી સાથવાહના પુત્રો માતાપિતાની આજ્ઞા મેળવીને ગણિમ, ધરમ, મેય અને પરિચ્છેદ્ય રૂપ વેચાણુ માટેની વસ્તુએને વહાણુમાં ભરીને અરહન્નક સાવાહની જેમ ઘણા યેજને સુધી લવણુ સમુદ્રમાં પહેાંચી ગયા. ગણત્રી કરીને જે વસ્તુઓ આપવામાં આવે છે તે ‘ ગણિમ ' છે જેમ કે નારિયેર, સાપારી વગેરે. જે તાલ કરીને અને માપ કરીને આપવામાં आवे छे ते ' धरिम' छे, भाष पुरीने भवाय ते भेय छे-प्रेम हे दूध, घी, તેલ, અને વસ્ત્ર વગેરે જે પ્રત્યક્ષ રૂપે પરીક્ષા કરીને કસેાટી વગેરે ઉપર કસીને ध्याय छे ते परिद्वेध छे-प्रेम सोनुं, भषि, भोती, वगेरे. भरभ श्रावनुं ભ્રૂણૅન જ્ઞાતાશ્ર્ચયનનાજ આઢમાં અધ્યયનમાં કરવામાં આવ્યુ છે. ॥ સૂત્ર ૧૫
For Private And Personal Use Only
Page #620
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मुद्रं बहूनि योजनशतानि 'ओगाढा' अवगाढौ अवगाहितवन्तौ नौकाया तेन गतवन्तावित्यर्थः ।। मू० १॥ ___मूलम्-तएणं तेसिं मागंदियदारगाणं अणेगाइं जोयणस. याइं ओगाढाणं समणाणं अणेगाइं उप्पाइयसयाई पाउब्भूयाति, तं जहा-अकाले गजियं जाव थणियसद्दे कालियावाए तत्थ समुट्टिए, तएणं सा गावा तेणं कालियावाएणं आहुणिजमाणी२ संचालिजमाणी२ संखोभिजमाणी२ सलिलतिक्खवेगेहिं आयहिज्जमाणी२ कोटिमंसि करयलाहए विव तेंदूसए, तत्थेवर ओवयमाणी य उप्पयमाणी य, उप्पयमाणीविव धरणीयलाओ सिद्धविज्जाविज्जाहरकन्नगा, ओवयमाणीवित्र गगणतलाओ भट्टविज्जाविज्जाहरकन्नगा, विपलायमाणीविव महागरुलवेगवित्तासिया भुयगवरकन्नगा, धावमाणीविवमहाजणरसियसदवित्तत्था ठाणभट्टा आसकिसोरी, णिगुंजमाणीविव गुरुजणदिहा वराहा सुयणकुलकन्नगा, घुम्ममाणीविव वीचोपहार• सयतालिया गलियलंबणाविव गगणतलाओ रोयमाणिविव सलिलगंट्ठिविप्पइरमाणघोरंसुवाएहिं णक्वहू उवरमयभत्तुया विलवमाणीविव परचकरायाभिरोहिया परममहन्भयाभिदृया महापुरवरी झायमाणाविव कवडच्छोभप्पओगजुत्ता जोगपरिव्वाइया णिसासमाणीविव महाकंतारविणिग्गयपरिस्संता परिणयवया अम्मया सोयमाणाविव तवचरणखीणपरिभोगा चयणकाले देववरवहूसंचुपिणयककूवरा भग्गमेढीमोडियसहस्समाला सूलाइयवंकपरिमासा फलहंतरतडतडेंतफुटुंतसंधिवियलंतलोहकीलिया सव्वंगवियांभयापरिसडियरज्जविसरं
For Private And Personal Use Only
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
व टी० अ० ९ माकविदारक चरितनिरूपणम् तसव्वगत्ता आमगमलग भूया अकयपुण्णजणमणोरहोविव चिंतिमाणगुरुई हाहाकयकण्णधारणावियवाणियगजणकम्मगारविलविया णाणाविहरयणपणियसंपुष्णा वहूहिं पुरिसस एहिं रोयमाणेहिं कंद० सोय० तिप्प० विलवमाणेहिं एगं महं अंतो जलगयं गिरिसिहरमासायइत्ता संभग्गकूवतारणा मोडियझयदंडा वयस्यखंडिया करकरकरस्स तत्थेव विद्दवं उवगया, तणं तीए णावाए भिज्जमाणीए बहवे पुरिसा विपुलपणियं भंडमायाए अंतोजलंमि णिमज्जावि य होत्था ॥ सू० २ ॥
टीका - ततः खलु तयोर्माकन्दिकदारकयोरनेकानि योजशतानि यावलवणसमुद्रमवगाहितयोः सतोः ' अणेगाई' अनेकानि नानाविधानि ' उपपाइयसयाई ' उत्पात शतानि उपद्रशतानि प्रादुर्भूतानि, 'तंजहा ' तद्यथा-' अफालेगज्जिए ' अकाले गर्जितम् = असमये मेघगर्जनम् १, ' जाव' यावत्- ' अकाले विज्जुए ' अकाले विद्युत् समये विद्युद्विद्योतनम् २, ' अकाले थगियसदे' अकाले स्तन -
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
'तणं तेसिं मागंदिय दारगाणं' इत्यादि ॥
टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद (तेसिं मागंदियदार गाणं) उन माकंदीके पुत्रों को जब कि वे (अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समणाणं) लवण समुद्र में अनेक योजनों तक निकल चुके थे ( अणेगाई उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाई) अनेक सैकड़ों उत्पात प्रादुर्भूत हुए (तं जहा ) जैसे (अकाले गज्जियं जाव धणियसद्देकालियावाए तत्थ समुट्ठिए ) असमय में मेघगर्जना हुई ! यावत्-अकाल में बिजली चमकने लगी । विना समय के
I
( तरणं तेसिं मागंदियदारगाणं ' इत्यादि ॥
टीडअर्थ - ( तणं ) त्यास्पछी ( तेसिं मागंदियारगाणं ) भाईही पुत्रोने - है न्यारे तेथे ( अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समणाणं सत्र समुद्रमां ઘણા ચેાજના સુધી દૂર પહેાંચી ગયા હતા ( अणेगाई उत्पाइयसयाई पउच्भूयाई ) धणु। सेडोनी संख्यामा उत्पातो थवा भांडया ( तं जहा ) भ } ( अकाले गज्जियं जाव थणियसद्दे कालियावाए तत्थ समुट्ठिए ) आि મેઘ ગર્જના થવા માંડી, ચાવતા-અકાળે આકશમાં વીજળી ઝબૂકવા માંડી. વર્ષાકાળ હેતે નાહુ છતાંએ ભયંકર ગર્જનાઓ થવા માંડી. અકાળે જ ભયંકર વાવાઝોડાથી વાતાવરણુ આક્રાંત થઈ ગયું.
For Private And Personal Use Only
Page #622
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
६६६
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
तशब्द: = असमये निष्ठुरगर्जनम् ३, 'कालियावाए कालिकावातः = असमयेमहावातच ४, तत्र समुत्थितः । ततः खलु सा 'णात्रा' नौका = यस्यां माकन्दिक - दारकौ स्थितौ तेन कालिकावातेन 'आहुणिज्नमाणी २' आधूयमाना २ पुनः पुनः कम्पमाना' संचालिज्जमाणी २' सञ्चाल्यमाना २ = स्थानात् स्थानान्तरनयनेन मुहुर्मुहुः प्रचाल्पमाना, ' संखोभिज्जमाणी ' सङ्क्षोभ्यामाना=अधोनिप
1
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
"
पुनरुत्पतनेन पुनः पुनः क्षोभं प्राप्यमाणा 'सलिलतिक्ख वेगेहिं ' सलिलतीक्षणवेगैः - जलतीत्रतरङ्गवेगेः ' आयट्टिज्जमागी २ आवर्त्त्यमाना २ इतस्ततो वारं वारं चक्राकारेण भ्राम्यमाणा ' कोहिमे कुट्टिमे = पापाणबद्धभूमौ 'करयलाहए ' करतलाहतः=हस्ततलास्फालितः ' तेंदूसए वित्र ' कन्दुकइव ' तत्थेव २ ' तत्रैवतत्रैव - ' ओवयमाणीए ' अवपतन्ती = अधः पतन्ती ' उप्पयमाणीय ' उत्पतन्ती=
"
,
ही घनघोर गर्जना होने लगी। बिना कालके ही भयंकर आंधी आ गइ । (तएणं सा णावा तेणंकालियावाएणं आहुणिज्जमाणी २ संचालिज्जामाणी संचालिज्जमाणी संखोभिज्ञमाणी २ सलिलतिक्ख वेगेहिं आयडिज्माणी २ कोहिमंसि करयलाहए विव तें दूसए तत्थेवर ओवयमाणी उप्पयमाणी ) इस कारण वह नौका उस अकालिक भयंकर आंधी से बार बार कंपित हो उठी बार २ एक स्थान से दूसरे स्थान पर डगमगाती हुई आने जाने लगी। बार बार कभी वह नीचे आती तो कभी ऊपर उठती ।
जल के तीक्ष्णवेग से वह कभी २ बार २ चक्राकार से इधर उधर घूमने लग जाती । जिस प्रकार पाषाणवद्ध भूमि ऊपर गेंद हाथसे आहत होकर नीचे ऊँचे बार २ उछलती है उसी तरह वह नौका भी कभी
For Private And Personal Use Only
( तणं सा णात्रा तेणं कालियावाएणं आहूणिज्जामाणी २ संचालिज्जमाणी संचालिज्माणी संखोमिज्जमाणो २ सलिलतिक्खवेगेहिं आयट्टिज्जमागी कोमिंस कलाविव तेंदूसए तत्थेव २ ओवयमागीय उपवनागोय ) અસમયના વાવાઝોડાથી વહાણુ સતત ડગમગવા લાગ્યું, વારવાર એક જગ્યાએથી ખસીને બીજા સ્થાને ડગમગતું જવા લાગ્યું, સતત રૂપમાં કાઇ વખત તે નીચે તે કાઇ વખત ઉપર આ રીતે નીચે ઉપર થવા માંડયુ.
પાણીના તીવ્ર વેગથી કયારેક તે નાત્ર વારંવાર પૈડાની જેમ આમતેમ ફરવા માંડી. જેમ પથ્થરવાળી નક્કર જમીન ઉપર દડા હાથ વડે ફૂંકાય અને તે વારવાર નીચે ઉપર થાય તેમજ નાવ પણ નીચે ઉપર ઉછળવા માંડી.
Page #623
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नगारधर्मा मृतवर्षिणी ४० अ० ९ मा कन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५७ अध्र्वगच्छन्तीच, तथा सिद्धविद्याविद्याधरकन्यकेच धरणीतलाद् उप्पयमाणी' उत्प.. न्ती-ऊर्ध्वमुच्चलन्ती, 'भट्टविज्जा' भ्रष्टविद्या विस्मृतविद्या विद्याधरकन्यकेव गगनतलाद् 'ओवयमाणी' अवपतन्ती अधोनिपतन्ती, 'महागरुलवेगवित्तासिया महावरुड वेगवित्रासिता-महागरुडवेगेन भयाक्रान्ता 'भुयगवरकन्नगाविव' भुजगवरकन्यकेव नागकन्येव 'विपलायमाणी' विपलायन्यी, 'महाजणरसियसदवित्तस्था' महाजनरसितशब्दवित्रस्ता-जनसमूहकोलाहलशब्देनभीता — ठाणभट्ठा ' स्थानभ्रष्टा
स्वस्थानच्युता 'आसकिसोरीविव' अश्वकिशोरीव-अश्ववत्सावत् ' धावमाणी' धावमाना, गुरुजणदिट्ठावगहा' गुरुजनदृष्टापराधा-गुरुजनैः मातापितृ-श्वशुरा२ वहीं २ वार २ नीचे ऊँचे उछलने लगती। (सिद्धविज्जाधरणीयला.
ओ उप्पयमाणी विज्जाहरकन्नगा इव) उस समय वह नौका ऐसी ज्ञात होती थी कि मानो सिद्ध विद्यावाली कोई विद्याधर कन्या ही धरणीतल से निकलकर ऊपरको उठ रही है ( भट्ट विज्जाहरकन्नगागगणतलाओ ओवयमाणी विव) या जिसकी विद्याभ्रष्ट हो चुकी है जिसे विद्या विस्मृत हो गई है-ऐसी कोइ विद्याधर कन्या मानों आकाश से नीचे उतर रही है-(महागरुलवेगवित्तामिया विपलायमाणी भूयग घरकमगाइव) या गरुड़ के भयोत्पादक वेगसे आक्रान्त हुइ मानों कोई नागकन्या ही इधर उधर भाग रही है (महानणरसियसद्दवित्तत्था ठाणभट्ठा धावमाणी आस किसोरी विव ) या जनसमूह के कोलाहल से भय भीत होकर मानों कोई घोडी की यछेरी ही अपने स्थान से भ्रष्ट होकर इधर उधर दौडती फिर रही है (गुरुजणदिठ्ठावराहा णिगुज माणी
(सिद्धविज्जाधरणीयलाओ उत्पयमाणी विज्जाहरकन्नगा इव ) ते १ते મોજાંઓમાં ઉછળતી તે નાવ સિદ્ધ વિદ્યાવાળી કે વિદ્યાધર કન્યા પૃથ્વી 6५२थी नीजी 6५२ ती हाय तेम सागती ती. (भद्र विज्जा विज्जाहर कन्नगा गगणतलाओ ओवयमाणीविव अथवा त। विद्याभ्रष्ट थयेसी, विद्या विरभूत थयेटी वी विद्याधर न्या मामाथी नीये उतरती डाय, (महागरू
वेगवित्तासिया विपलायमाणी भूयगवरकन्नगा इव ) 2424 तो १२॥ ભત્પાદક વેગથી આકાંત થયેલી કેઈ નાગકન્યા જ આમતેમ નાસભાગ ४२तीय, ( महाजणरसियसद्दवित्तत्था ठाणभट्ठा धावमाणी आसक्रिसोरी विव ) अथवा तो माणुसोना intथी भयभीत ७ घडीनुछे३ त..
माथी नासीन मामतेम तुं तु डाय, ( गुरुजणदिवा वर हा णिगुज माणी सुयणकुलकनगा विव ) मथा तो मुटुमना पासमानु
For Private And Personal Use Only
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथागतो दिभिदृष्टा=अवलोकितः अपराधः असत्यवचनादिरूपो यस्याः सा तथोक्ता 'सुयणकुलकन्नगाविच ' सुजनकुलकन्यकेव-कुलवतीकन्येव ‘णिगुंजमाणी' विगुञ्जन्ती =अव्यक्तशब्दकुर्वती, अधोनमन्ती वा, 'वीचीमहारसयतालियाविव' वीचीपहारशतताडितेव=भनेकशतजलतरङ्गमहारैस्ताडितेव ‘घुम्ममाणी' घूर्णमाना=थरथरेति कम्पमाना, 'गगणतलाओ ' गतनतलात् 'गलियबंधणाविव ' गलितबन्धनेव-त्रुटितवन्धनेव-आकाशात् टित्वा पतितेवदृश्यमानेत्यर्थः, रोयमाणीविव सलिलगंठिविप्पइरमाणघोरंसुवाए है णवबहू उवरयभत्तुया ' रूदतीवसलिलग्रन्थिविपकिरद् घोरांश्रुपातैनववधूरुपरतभर्तका, ‘उवरयभत्तुया' उपरतभर्तृका-मृतभतुका नववधूरिव-नवपरिणीता वनितेव-सलिलभिन्नाग्रन्थियः सलिलग्रन्थिय!= सलिलार्द्रग्रन्थयः, तेभ्योविकिरन्तः क्षरन्तिः, जलबिन्दवः तएव घोराश्रुपातास्तैः सुयण कुलकन्नगाविव ) या गुरुजनों द्वारा जिसका असत्य वचनादिरूप अपराध देख लिया गया है ऐसी कोई कुलवंती कन्या ही मानों लज्जावश नीचे की ओर झुकी जा रही है। (वीचीपहार सयतालीया विव घुम्ममाणी) हजारों जलतरंगो के प्रहोरों से ताडित होने की वजह से ही मानो थर थर कैंपती हुई वह नौका (गगणतलाओ गलियवंधणा विव) ऐसी दिखलाई दे रही थी कि बन्धन टूट जाने से आकाश से गिर सी पड़ी हो।
अर्थात्-जिस प्रकार बंधन टूट जाने से कोई वस्तु ऊपर से नीचे गिर पड़ती है-उसी तरह यह नौका भी अपना बंधन टूट जाने से मानों आकाश से-ऊपर से-नीचे गिर पड़ी हैं। (रोयमागीविव सलिल गठि विप्पइरमाण धोरंसुवाएहिं णवबहू उपर यभत्तुया ) जिस प्रकार अपने पतिदेव के मरजाने पर नवोढा आँसुओं को वहाती हुई रोती है એલવું વગેરે અપરાધ જાણી ગયા છે તેવી કોઈ લાજથી મેં નીચું ઘાલીને
गवती अन्या ती जय, (वीचीपहारसयतालिया विव घुम्ममाणो) | मानसाना प्रशिथी मथने २२ २२ ती ते नाव (गगणातलाओ गलिय वधणा विव) वी सागती खती हरी तूटरी पाथी मामाथी નીચે પડી ગઈ હોય.
એટલે કે જેમ બંધન તૂટી જવાથી કોઈ વસ્તુ ઉપરથી નીચે આવી પડે છે તેવી જ રીતે જાણે કે આ નાવ પણ બંધન તૂટી જવાથી આકાશમાંથી નીચે પડી ગઈ ન હોય? (रोयमाणीविव सलिल गंठिविप्पइरमाणा घोरंमुवाएहिं णवबहू उपरयभत्तुया)
પિતાના પતિના મૃત્યુ પામ્યા બાદ જેમ કોઈ નવોઢા-જુવાન પત્ની
For Private And Personal Use Only
Page #625
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतषिणी टी० अ० ९ माकग्दिकदारकवरितनिरूपणम ५६९ रुदतीव, 'विलवमाणी. विव परचक्करायाभिरोहियापरममहन्भयाभिहुयामहापुरवरी' विलपन्तीव एरचक्रराजाभिरुद्धा परममहाभयाभिश्रुतामहापुरवरी-शत्रुभूतैः परचक्रराजैरभितः सर्वतो रुद्धा परिवेष्टिता, अतएव परममहाभयादभिद्रुता तत्रत्यजनानांभयार्तानां सर्वदिक्षु कोलाहलपूर्वकं यद् अभिद्रवणं पलायनं तेनाभिद्रुता अतएव विलपन्ती जनानां सभयकोलाहलैः विलापं कुर्वतीय यथा महापुरवरी महानगरी उसी प्रकार उस नौका से भी सलिल से आई हुई संधियों से जल वि. न्दु समूह टपटप बरस रहा था-अतः मालूम पड़ता था कि मानों यह आंसुओं को छोड़ती हुइ रोही रही है। (विलवमाणी विव परचवक्क रायाभिरोहिया परममहरूमयाभिद्या महापुरवरी ) जिस प्रकार शत्रू भूत परचक्र राजाओं से सर्व ओर से घिरी हुइ कोई महानगरी बहुत अधिक भयसे अभिद्रुत होती हुई विलाप करती है अर्थात् जब कोई म. हानगरी शत्रु भूत राजाओं के द्वारा चारों ओर से घेरली जाती है तब वहां का प्रत्येक जन भय से आर्त होकर जहां जिस से भागते बनता है वह वहां रोता बिलपना हुआ भाग जाता है-जनता में इस से अधिक अधिक विक्षोभ उत्पन्न होकर हाय २ आदिका शब्द उसके मुख से स्वतः निकलने लगता है अतः वह नगरी जैसे उससे आकुल व्याकुल बनजाती है-उसी प्रकार इस नौका में बैठे हुए यात्रियों के मुख से भी इस आपत्ति के समय मे हाय २ आदि शब्दों के कोलाहल से वहां का घातावरण आकुल व्याकुल बन रहा था अतः सूत्र कार ने इस नौका के આંખોમાંથી શ્રાવણ, ભાદરવાની જેમ આંસુઓની ધારા વહાવતી ઉભી હોય તેમજ તે વહાણ પણ પાણીથી ભીનું થઈને સાંધાઓમાંથી સતત જળપ્રવાહ વહાવી રહ્યું હતું એટલે એમ જણાતું હતું કે તે રડતું જ ન હોય ! (विलवमाणीविव परचक्करायाभिरोहिया परममहब्भया भिया महापुरवरी)
શત્રુ બની ગયેલા બીજા બહારના ઘણા રાજાઓથી ઘેરાયેલી કોઈ મહાનગરી અત્યંત ભયગ્રસ્ત થઈને વિલાપ કરવા માંડે છે એટલે કે જ્યારે કોઈ મહાનગરી શત્રુ રાજાઓથી મેર ઘેરાઈ જાય છે ત્યારે નગરીમાં રહેનારી દરેક વ્યક્તિ જેમ ભયભીત થઈને જ્યાં જેને નાસી જવાનું સરળ પડે છે ત્યાં તે રડતી વિલાપતી સી જાય છે, પ્રજાજનેમાં એનાથી ખૂબ જ ત્રાસ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે અને તેઓના મેંથી “હાય” “હાય” ના શબ્દો પોતાની મેળે નીકળવા માંડે છે. આ પ્રમાણે તે નગરી જેમ વ્યાકુળ થઈ જાય છે તેમ જ નાવમાં બેઠેલા યાત્રીઓના મોંથી નીકળતા “હાય”, “હાય” ના શબ્દોથી ત્યાંનું વાતાવરણ વ્યાકુળ થઈ રહ્યું હતું. સૂત્રકારે આ નાવને અનેક દુશમન
शा ७२
For Private And Personal Use Only
Page #626
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५७०
Face
भवति, तद्वत्, 'झायमाणविव कवडच्छोभप्पओगजुत्ता जोगपरिव्वाइया ' कपटछद्मप्रयोगयुक्ता योग परिव्राजकाध्यायन्तीव कपटध्यानं=कुर्वन्तीच, अतएव परमकपटप्रयोगयुक्तायोगपरिवाजि के व=योगिनीव दृश्यमाना, 'णीसासमाणीविव महाकंतार विणिग्गयपरिस्संता परिणयवया अम्मया' निःश्वसतीव महाकान्तारविनिर्गतपरिश्रान्ता परिणतवयस्का अम्वा यथा-महाकान्तारविनिर्गतेन महावनविनिर्गमनेनापरिश्रन्ता = खिन्ना परिणतवयस्का=वृद्धावस्थापन्ना अम्बेव = पुत्रवती मातेव निःश्वसतीव ऊर्ध्वाधोविषय में ऐसी कल्पना की है कि मानों यह नौका परचक्र के राजाओं से सर्व ओर से रोकी हुई महानगरी के समान अत्यन्त भय से अभि दूत बन कर विलाप ही कर रही है । ( झायमाणी विव कवडच्छोभबप्पओगजुत्ता जोगपरिव्वाइयो ) यह नौका बकवत् कपट ध्यान करने वाली योग परिव्राजिकाके समान दिखलाई देती थी जिस प्रकार कपट से ध्यान करने वाली परिव्राजिका क्षण भर के लिये कभी स्थिर हो जाती है और कभी अस्थिर - एक सी वृत्ति उसकी नहीं रहती इसी तरह तरोड़ों से चंचल बना हुई वह नौका भी क्षण भरके लिये स्थिर हो जाती थी और फिर अस्थिर बन जाती थी एक सी वृत्ति उसकी नहीं थी ।
( णीसासमाणी विव महा कंतार विणिग्गय परिस्संता परिणयवया अम्मया ) महा भयंकर जंगल में ऊची नीची भूमि पर चलने से परि श्रान्त हुई जैसे वृद्धावस्थापन्न पुत्र वती माता दीर्घ निश्वासो को छोड़રાજાએથી આક્રાંત થયેલી તેમજ ભયંત્રસ્ત થયેલી મહાનગરીની સરખામણી એટલા માટે જ કરી છે.
( झायमाणी विव कवडच्छोभप्पओगजुत्ता जोग परिव्वाइया )
આ નાવ અગલાની જેમ કપટ ધ્યાન કરનારી ચેગ પરિવ્રાજીકાની જેમ લાગતી હતી એટલે કે જેમ કપટ ધ્યાન કરનારી પરિવ્રાજીકા ઘેાડી ક્ષણા માટે સ્થિર થઈ જાય છે અને પછી તરત જ અસ્થિર મનવાળી થઈ જાય છે. તે સ્થિરતાપૂર્વક મનને સ્થિર રાખી શકતી નથી તેમ આ નાવ પણ મેાજાંઓથી ચ'ચળ થઇને થાડી ક્ષણા સ્થિર બની જતી અને પાછી તરત જ અસ્થિર થઈ જતી હતી, એક સરખી સ્થિતિમાં રહી શકતી જ નહોતી.
(णीसासमाणी चित्र महाकतारविणिग्गयपरिस्संता परिणयवया अम्मया)
મહા ભ’કર વનવગડામાં ઉંચી નીચી ધરતી પર ચાલનારી પરિશ્રાન્ત થયેલી, ઘરડી થયેલી પુત્રવતી માતા જેમ દીર્ઘ નિશ્વાસ બહાર કાઢતી લથ
For Private And Personal Use Only
Page #627
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
"
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारक चरितनिरूपणम्
६७१
गमनवती, 'सोमाणी विव तव चरणखीणपरिभोगा चयणकाले देववरवहू' शोचन्तीव तपश्चरणक्षीणपरिभोगा च्यवनकाले देववरवधूः- तपश्चरणक्षीणपरिभोगा=भुक्ततपवरणफला च्यवनकाले= देवभवस्थितिक्षयसमये देववरवधूरिव शोचन्ती = तद्वस्थितजनविषादयोगात् शोकं कुर्वतीव दृश्यते । पुनः सा नौका कीदृशी जाता इत्याहसंचयिकदुकबरा' इत्यादि । ' संचुण्यिकटुकूबरा ' संचूर्णितकाष्टकूवरा संचूर्णितानि= अत्यर्थं चूर्णी भूतानि काष्ठानि कुबरं च मुखं यस्याः सा तथा, 'भग्गमेढी ' भग्नमेधिः भग्नः = टिवः मेधिः =सकल नौकाधारभूतः स्तम्मो यस्याः सा तथा, 'मोडियसहस्रमाला ' मोटितसहस्रमाला - मोटितः =भग्नः सहस्रमाला = सहस्रसंख्याजनाधारभूतो माल: = उपरितनभागो यस्याः सा तथा, 'सुलाइयर्वक परिमासाळाचितवक्रपरिमासा शूलावितइव=शूलारोपितइव वक्रः = कुब्जः परिमासः
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ती हुई लड़खड़ाने लग जाती है उसी प्रकार यह नौका भी तरंगो से आहत होकर मानों थकावट की वजह से ही चलने में लड़खड़ा रही थी । ( सोयनाणी विव तवचरणखीणपरिभोगा चयणकाले देवरवहू ) तपश्चरणका जिसने फल भोग लिया है और अब जिसके च्यवन का समय आ गया है ऐसी देवाङ्गना जिस प्रकार शोक से व्याकुल- चंचल -बन जाती है उसी प्रकार यह नौका भी बिलकुल चंचल बन गई थी । ( संचुण्णिय कबरा) उस समय इस नौका के कष्ट और कूपर मुख-चूर्णी भूत बन चुके थे । ( भग्गमेढी ) इसका अपना सकल आधार भूत स्तंभ टूट चुका था । ( मोडिय सहस्स माला ) सहस्रसंख्यजनों का आधार भूत उपरितन भाग इसका भग्न हो चुका था । (सूलाइ यक परिमासा) शूल पर आरोपित किये हुए के समान इसका परि
ડીયાં ખાવા માંડે છે તેમજ તે નાવ પણ માએથી અથડાઇને જાણે થાકીને લથડીયાં ખાવા ન માંડી હાય !
(सोयमाणी विव तवचरणखीणपरिभोगा चयणकाले देववर वहू )
તપનુ ફળ જેણે ભેગવી લીધું છે અને હવે પતન થવાના સમય આવવાથી દેવાંગના જેમ શાક વ્યાકુળ-ચંચળ થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે જ मी नाव पशु यंभज मनी गई डती. ( सं चुण्णियककूवरा ) भोलंगोथी અથડાતાં અથડાતાં ત્યાં સુધી નાવના કાષ્ટ અને કૃષર-મુખ નાશ પામ્યાં डा. ( भगामेंढी ) नावनो आधार भूत स्तल ( थांलो ) तूटी पडयेो हतो. ( मोडिय सहरसमाला ) डुमरो भाणुसो नयां माश्रय भेजनी शडे तेथे नावनो ६५२नो लाग तूटी गयो हतो. ( सुलाइयव कपरिमासा ) शूझ ५२ भूम्यामां
For Private And Personal Use Only
Page #628
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे काष्ठविशेषो यस्याः सा तथा, 'फलहंतरतडतडेंतफुटुंतसंधिविगलंतलोहकीलिया' फलकान्तरेषु संयोजितफलकविवरेषु ' तडतडे ' ति शब्दं कुर्वन्त्यः, स्फुटन्तो विघटमानाः सन्धयः, अतएव विगलन्त्यो निस्सरन्त्यो लोहकीलिका यस्याः सा तथा, 'सव्यंगवियंभिया' सर्वाङ्ग विजृम्भिता सर्वाङ्गैः सर्वावयवैः वि.म्भिता= विवृतमुखा जाता या सा तथा, 'पडिसडियरज्जू' परिशटितरज्जुः गलितरज्जुवती अतएव — विसरंतसव्वगत्ता' विसरत्सर्वगात्राविशीर्यमागसर्वावयवा, आमगमल्लगभूया' आमकमल्लभूता-अपयशरावसदृशा, 'अकयपुग्णजणमणोरहो विव' अकृतपुण्यजनमनोरथ इव, अकृत पुण्यः हीनपुण्यो यो जनस्तस्य मनोरथ इव 'चिंतिज्जमाणगुरुइ' चिन्त्यमानगुर्वी चिन्त्यमाना-'कथमेतामापदं तरिष्यामी ' तिविचार्यमाणेव गुर्वी-चिन्ताभारेणेव गुरुका, ' हाहाकयकगधारणावियवाणिय. मास काष्टविशेष टेढा हो गया था। (फलहंतरतडतडेंतफुटतसंधिविगलंतलोहकीलिया) काष्टके पटियोंको परस्पर जोडने के लिये जो संधियों में लोहे के बडे२ कीले लगे हुए थे वे सब जब उसकी संधिया-जोड विघटित हो गई तब उनमें बाहर निकल आये थे (सव्यंगवियंभिया) अतः समस्त इसके जुड़े हुए अवयव खुल गये थे । ( परिसडियरज्जू ) जित नी भी इस में रस्सियां लगी हुई थी वे सब की सब गल चुकी थी। (विसरंतसव्वगत्ता) इससे समस्त जोड़ खुल गये थे। ( आम गमल्लक भूया ) यह कच्चे मिट्टी के शरवाके समान हो गइ थी। (अकय पुण्ण जणमणोरहो विव ) अकृत पुण्ण वाले मनुष्य के मनोरथ के समान यह निष्फल बन गई थी । ( चिंतिज्जमाण गुरुई ) मैं इस आपत्ति को अब कैसे पार करूँगी इस चिंता से ही मानों यह बहुत भारी
मावेशानी भ परिभास नामनु ४८ विशे५-त्रांसु थ5 आयु तु. ( फल हतर तडतडेंत फुत संधि विगलतलोहकीलियो ) 11ना पाटीयामाने मे બીજાની સાથે તેનો સાંધા મેળવવા જે લેખંડના મોટા ખીલાઓ કામમાં લેવાય છે તે બધા પાટિયાએ જ્યારે જુદા જુદા થઈ ગયા ત્યારે બહાર નીકળી આવ્યા उता. ( सव्वग वियभिया) मा प्रमाणे नावना मना मेरा सांधा। नुहा : गया . (परिसडियरज्जू ) तेनी सधी होरीमा हावा यूडी उती. ( विसरतसव्वगत्ता) तेना या सांधाये। ५ी या ता. ( आम गमल्लकभूया ) ते भाटीना या यांनी रेभ 25 ती. ( अकयपुण्ण जण मणोरहाविव ) ओ/ ५४ हिवसे रणे सय पुश्यनु म नथी सेवा मसना भनाथनी २ ते नि 5 ती. ( चितिज्जमाण गुरुई ) मावी ५७सी मातनो सामना की रीत ४२ ? तो मा
For Private And Personal Use Only
Page #629
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् .५७३ गनणकम्मगारविलविआ ' हाहाकृतकर्णधारनाविकवाणिजकजनकर्मकरविलपिता हाहाकृतैः हाहाकारयुक्तैः कर्णधारः निर्यामकैः, नाविकैः पोतवाहकैः, वाणिजकजनै व्यापारिजनैः, कर्मकरैः भृत्यैः विलपिता-विलापयुक्ता-कर्णधारादीनां हाहा कारेण विलापं कुर्वतीवेत्यर्थः ‘णाणाविहरयणपणियसंपुण्णा' नानाविधैः रत्नैःपण्यैश्वविक्रप्यवस्तुजातैः सम्पूणा सम्भृता, बहुभिः पुरुषशतैः रुदभि कन्दद्भिः शोचद्भिः, 'तिप्पमाणेहि तेपमानैः अश्रुणि मुञ्चद्भिः विलपद्भिः, विलापं कुर्वद्भिः, एकं महत 'अंतोजलगयं ' अन्तर्जलगत जलमध्यस्थितं गिरिशिखरमासाद्य-संघट्य 'संभग्गः कवतोरणा' संभग्नकूपतोरणा-संभग्नः त्रुटितः कूपः कूपस्तम्भः-यत्र सितपटो बन गई थी (हा हा कयकण्णधारणा विव वाणियगजणकम्मगार विलविया) इस में जो कर्ण धार, नाविक, व्यापारिजन एवं नौकरचाकर बैठे हुए थे वे सब के सब हाहाकार करते हुए विलाप कर रहे थे- अतः ऐसा मालूम होता था कि उनके हाहाकार विलापों से यह नौको स्वयं विलाप कर रही है । (णाणा विहरयणपणिय संपुण्णा) अ. नेक प्रकार के रत्नों से एवं पण्य द्रव्यों से-विक्रेय्यवस्तुओं से-यह नौका भरी हुई थी। (रोयमाणेहिं कंद सोय तिप्प० विलवमाणेहिं पहहिं पुरिसरहिं एगं महं अंतोजलगयं गिरिसिहरमासायइत्ता ) रुदन करनेवाले, आक्रन्दन करनेवाले, शोक करनेवाले, आंसुओं को वहानेवाले ऐसे सैंकड़ों पुरुषों से भरी हुई यह नौका एक बड़े भारी जलके भीतर रहे हुए गिरिके शिखर से टकरा गई-टकराते ही (संभग्गकूवजतनी तिथी ते. नाप मारे पहा२ २४ ५डी उती. ( हा हा कय कण्णधारण विव वाणियगजणकम्मगारविलविया )
તેમાં બેઠેલા કર્ણધાર, નાવિક, વેપારીઓ અને બીજા નોકર ચાકરે હાય, હાય, કરીને વિલાપ કરી રહ્યા હતા એથી એમ લાગતું હતું કે જાણે તેઓના वाथी १ मा नाप पाते विसा५ ४२ती नाय ! (णाणाविहरयण पणिय संपुण्णा ) तनi २त्ने। मन वेयाशुनी पस्तुमाथी मा ना१ पूरेपूरी नरी उती. (गेयमाणेहि कद० सोय. तिप्प० विलवमाणेहि बहूहि पुरिसएहिं एगं महं अंतोजलगय गिरिसिहरमासायइत्ता )
રડનારા, કરુણ આક્રંદ કરનારા, શેકથી પીડાતા, ચોધાર આંસુએ વહેવડાવનારા, વિલાપ કરનારા એવા સેંકડો માણસેથી ચિક્કાર ભરેલી તે નાવ આખરે પાણીની અંદરના જ પર્વત શિખર (ખડક) સાથે અથડાઈ પડી અને मातांनी साथै ४ ( संभगकूवतोरणा तना ५२तसो भने त तूटी
For Private And Personal Use Only
Page #630
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૧૭૪
शताधर्माङ्गसूत्रे
बध्यते सः, तथा तोरणानिच त्रुटितानि यस्याः सा तथा - 'मोडियझयदंडा ' मोटितध्वजदण्डा = त्रुटितध्वजकाष्ठा, ' वलयसयखंडिया ' वलकशतखण्डिता वलकानां= दीर्घदारूण शतानि खण्डितानि यस्याः सा, ' करकस्स ' करकरेति शब्दं कुर्वाणा तत्रैव समुद्रे ' विद्दवं = विलयम् उपगता = प्राप्ता जले बुडितेत्यर्थः । ततः खलु तस्यां नौकायां भिद्यमानायां =बुडितायां सत्यां बहवः पुरुषाः 'विउलपाणियं ' विपुलपणितं विपुलं = प्रचुरं पणितं = पण्यद्रव्यं विक्रय द्रव्यम् यस्मिन् तत् तादृशं भाण्डमादाय ' अंतोजलंसि' अन्तर्जले - जलमध्ये 'निमज्जाविय' निमग्नाः- बुद्धिता अपि चाभूवन् ।। ०२ ॥
मूलम् - तणं ते मागंदियदारगा छेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी णिउणसिप्पोवगया बहुसु पोतवहणं परासु कयकरण लद्धविजया अमूढा अमूढहत्था एगं महं फलगखंडं आसादेंति, जंसि च णं पदेसंसि से पोयवहणे विवन्ने तंसि च णं पदेसंसि एगे महं रयणदीवे णामं दीवे होत्था अणेगाई जोयणाई आयामविवखंभेणं अणेगाई जोअणाई परिक्खेत्रेणं
तोरणा ) इसके कूपस्तंभ और तोरण भग्न हो गये ( मोडियझयदंडा ) ध्वजा दंड टूट गया ( वलयसवखंडिया) पडे २ लंबे २ सैकड़ों काष्ठखंडित हो गये ( करकरस्सतत्थेव विद्दवं उवगया) और यह कर २ शब्द करती हुई वहीं पर डूब गई। (तरणं तीए णावाए भिमाणीए बहवे पुरिसा विपुलपणियं भंडमायाए अंतोजलंमि णिमज्जाविय होत्था ) इस तरह उस नौका के डूब जाने पर अनेक पुरुष प्रचुरपण्य द्रव्यवाले भाण्ड को लेकर जलके बीच में निमग्न हो गये || सूत्र २ ||
गयां ( मोडियझयदंडा ) भोटां विशाण सांभां से उडो
धन्न 63 तूटी गयो ( वलयसयखंडिया ) भोटो श्रेष्ठ तूटी गयां ( करकररस तत्थेव विदवं उवगया ) શબ્દ કરતી ત્યાં પાણીમાં ડૂબી ગઈ.
,
અને તે નાવ
" કર કર
(तर ती गावा भिज्जमागीए बढ़वे पुरिसा त्रिपुलपणियं भंडमायाए अंतो जलमिणिमज्जाविय होत्था )
આ રીતે નાવ ડૂબી જવાથી ઘણા માણસે પુષ્કળ પ્રમાણમાં દ્રબ્યાથી ભરેલા વાસણા સાથે પાણીમાં મગ્ન થઈ ગયા. ૫ સૂત્ર
<<
૨ 11
For Private And Personal Use Only
ܙܕ
Page #631
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
--
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी भ० ८ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५७५ णाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाइए ४, तस्स णं बहुमज्झदेसभाए तत्थ णं एगे महं पासायव.सए होत्था अब्भुग्गयमूसियए जाव सस्सिरीए सुरूवे पासाईए ४, तत्थणं पासायव.सए रयणदीवे देवया नामं देवया परिवसति पावा चंडा रुदा साहसिया, तस्स णं पासायवडिंसयस्स चउदिसि चत्तारि वणसंडा किण्हा किण्हाभासा, तएणं ते मागैदियदारगा तणं फलयखंडेणं उव्वुज्झमाणा२ रयणदीवं तेणं संवूढा यावि होत्था, तएणं ते मागंदियदारगा थाहं लभंति लभित्ता महत्तंतरं आससंति आससित्ता फलखंडं विसज्जेंति विसजित्ता रयणदावे उत्तरंति उत्तरित्ता फलाणं मग्गणगवेसणं करेंति करित्ता फलाई गिण्हति गिण्हित्ता आहात आहारित्ता णालिएराणं मम्गणगवेसणं करेंति करित्ता नालिएराइं फोडोंत फोडित्ता नालिएरतेल्लेणं अण्णमण्णस्स गत्ताई अब्भंगेति अब्भंगित्ता पोक्खरणी ओगाहिति ओगाहित्ता जलमजणं करेंति करित्ताजाव पच्चुत्तरंति पच्चुत्तरित्ता पुढविसिलापट्टयसि निसीयांत निसोइत्ता आसत्था वसिस्था सुहासणवरगया चंपानयरिं अम्मापिर आपुच्छणं च लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवायसमुत्थणं च पोतवहणविवत्ति च फलयखंडस्स आसायणं च रयणदोवुत्तारं च अणुचितेमाणा२ ओहयमणसंकप्पा जाव झियायेन्ति, तएणं सा रयणद्दीवदेवया ते मार्गदियदारए ओहिणा आभोएइ आभोइत्ता असिफलगवग्गहत्था सत्तट्टतालप्पमाणं उड्डे वेहासं
For Private And Personal Use Only
Page #632
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५७६
माताधर्मकथागसूत्रे उप्पयइ२ ताते उक्किट्ठाए जाव देवगईए वोइवयमाणी२ जेणेव मागंदियदारए तेणेव आगच्छइ आगच्छित्ता आसुरुत्ता ते मागंदियदारए खरफरुसनिट्टरवयणेहि एवं वयासी-हं भो मागंदियदारया ! अप्पत्थियपत्थया जइ णं तुब्भे मए सद्धिं विउलाइंभोगभोगाइं भुंजमाणा विहरह तो भे अत्थि जीविअं, अहण्णं तुब्भे मए सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणा नो विहरह तो भे इमेणं निलप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासेणं असिणा खुरधारेणं असिणा रत्तगंडमंसुयाइं माउयाहि उवसोहियाइं तालफलाणीव सीसाइं एगंते एडेमि, तएणं ते मागंदियदारगा रयणदीव देवयाए अंतिए सोचाभीया करयल. एवं जण्णं देवाणुप्पिया ! वइस्ससि तस्स आणाउववायवयणनिदेसे चिट्ठिस्तामो, तएणं सा रयणदीवदेवया ते मागदिय. दारए गेण्हति२ जेणेव पासायवडिसए तेणेव उवागच्छइ२ असुभपोग्गलावहारं करेइ२ सुभपोग्गलपक्खेवं करेइ करिता पच्छा तेहिं सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरति कल्लाकल्लि च अमयफलाइं उवणेइ ॥ सू०३ ॥
टीका-ततः खलु तौ माकन्किदारको 'छेया' छकौ चतुरौ 'दक्खा' दक्षौनिपुणौ, 'पत्तट्ठा' प्राप्ताौँ-माप्तः-ज्ञातः अर्थः=भावो याभ्यां तौ 'कुसला'
'तएणं ते मागंदिय दारगा' इत्यादि ॥
टीकार्थ-तएणं) इसके बाद (ते मागंदियदोरगा ) उनदोनों माकंदि यदारकों ने कि जो (छेया,दक्खा,पत्तट्ठा, कुसला, मेहावी, निउणसिप्पो. 'तएणं ते मागंदियदारगा' इत्यादि ॥
214-(तएणं ) त्या२ मा ( ते मागं दियदारगा ) त ने भाग लिय દારકેએ-કે જેઓ
For Private And Personal Use Only
Page #633
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकम्विदारकचरितनिरूपणम् ५७७ कुशलौ-सकलकलाविज्ञौ । मेहावी' मेधाविनौ-सुधियो णिउणसिप्पोवगया' निपुणशिल्पोपगतौ-तरणादिविद्यानिपुणौ बहुषु अनेकेषु 'पोयवहणसंपरायेषु' पोतवहनसंपरायेषु = पोतवहनस्य-नौकातरणस्य संपरायेषु = विघ्नेषु समुपस्थितेषु 'कयकरगा' कृतकरणौ-कृतकायौँ बहुशोऽनुभूतसंतरणकायौं, 'लद्धविजया' लब्धविजयौ-समुद्रपारगमनेन प्राप्तविजयो 'अमूहा' अमूढौ-तरणादि क्रिया विवेकसम्पन्नौ — अमृढहत्था' अमूढहस्तो-तरणक्रियाकुशलहस्तौ एकंमहत् फलकखण्डं काष्ठमयम् ' आसादेंति' आसादयतः=आलम्बितवन्तौ । यस्मिंश्च खलु प्रदेशे तत् पोतवहनं प्रवहणं 'विवन्ने' विपन्न भग्न तस्मिंश्च खलु तस्मिन्नेव प्रदेशे एको महान् रत्नद्वीपो नाम द्वीपः 'होत्था' आसीत् , स कीदृशः ? इत्याहवगया, बहुतु पोतवहणसंपराएसु कयकरणा, लद्धविजया अमूढा, अमूदहत्था एगं महं फलगखंडं आसादेंति) बडे चतुर थे, दक्ष थे, भावों को जानने वाले थे, सकल कलाओं के ज्ञाता थे, मेधावी थे, तरणादि विद्या में विशिष्ट योग्यता संन्न थे, पोत संचालन मे उपस्थित हए विश्नों को पार करने वाले थे, अर्थात् ऐसी स्थितिमें जिन्होंने संस्तरण कार्य अनेक बार अभ्यस्त कर रखा था, ममुद्रपार करने में जिन्हें विजय मिली थी, तरणादि क्रिया का विवेक जिन्हें बहुत अच्छी तरह था, जिनके हाथ तैरने में कभी थकते नहीं थे-जो तरण क्रिया में बडे कुशल थे, एक बडे भारी काष्टफलक खंड को प्राप्त कर लिया। (सिंच णं पदेसंसि से पोयवहणे विवन्ने तंसिंच णं पदेसंसि एगे महं रयणद्दीवेणाम दीवे होत्था,अणेगाइं जीणाति आयामविक्खंभेणं अणेगाइं जोभ
(छेया, दक्खा पत्तट्ठा, कुसला मेहावी निउण सिप्पोवगया बहुसु पोतवहण संपराएमु कयकरणा, लद्धविजया अमूढा अमूढहत्था एगं महं फलग खंडं आसादेंति
ખૂબ જ ચતુર હતા. દક્ષ હતા, ભાવને જાણનારા હતા, બધી કળાઓમાં નિષ્ણાત હતા, મેઘાવી હતા, તરવા વગેરેની કળાઓમાં નિપુણ હતા, પિત સંચાલનમાં વચ્ચે આવી પડેલા વિને દૂર કરી શકવાની શક્તિ ધરાવતા હતા એટલે કે એવી પરિસ્થિતિમાં પણ હિંમત ન હારતાંગમે તે રીતે તરીને પણ સમુદ્ર પાર કરવામાં શક્તિશાળી હતા. તરવાની ક્રિયામાં જેઓ વિશેષ કુશળ હતા, તરતી વખતે પણ જેમના હાથે કઈ પણ સ્થિતિમાં થાકતા જ નહિ. તરવામાં જેઓ ખૂબ જ કુશળ હતા–એક મેટા લાકડાના પાટિયાને પકડી લીધું
(जसिं च ६ पदेससि से पोयवहणे विवन्ने तं सि च णं पदेससि एगेमह रयणद्दीवे णामं दीवे होत्था, अणेगाई जोअणाई परिक्खेवेणं णाणा दुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाइए ४)
शा ७३
For Private And Personal Use Only
Page #634
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
हाताधर्मकथासूमे 'अणेगाई' इत्यादि-अनेकानि योजनानि आयामविष्कम्भेण दैर्ध्यपरिणाहेन, अनेकानि योजनानि परिक्षेपेण-परिधिना, नानामषण्डमण्डितोद्देशः अनेकवनपण्डमण्डितप्रदेशः सश्रीका-शोभासम्पन्नः, प्रासादीय?-मनः प्रसन्नता हेतुत्वात् , दर्शनीयः-नेत्राहादकत्वात् , अभिरूपः अपूर्वसौन्दर्यवत्वा, प्रतिरूमा-प्रशस्ताकृतिफत्वात् । तस्य खलु द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे-मध्यस्थले तत्र खलु एको महान् मासादावतंसकःश्रेष्ठपासादो आसीत्। स कीदृशः ? इत्याह-अभुगय ! इत्यादि -'अभुगयं ' अभ्युद्गतः विशालः 'असियए' उच्छ्रितका गगनतलस्पर्शी यावत् सश्रीकः-सुरूपः शोभनाकारः प्रासादीयः ४ । तत्र खलु प्रासादावतंस के रत्न. द्वीपदेयता नाम देवता ‘रयणादेवी' इति प्रसिदा देवी परिवसति-निवास णाइं परिक्खेवेणं णाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाइए ४ ) जिस प्रदेश में वह पोतवहन भग्न हुआ था, उसी प्रदेश में एक बड़ा भारी रत्नद्वीप नाम का द्वीप था। इसका आयाम और विष्कंभ अनेक योजन का था। परिधि भी इसकी अनेक योजन की थी। नोना प्रकार के वृक्षों के समूह से इस का भीतरी बाहिरी प्रदेश हरा भरा बना हुआ था। यह द्वीप बहुत ही शोभासंपन्न था। मन को प्रसन्न करनेवाला था। दर्श नीय था। तथा अपूर्व सौन्दर्य से युक्त था। एवं आकृति में भी यह बड़ा अभिराम था। (तस्स णं बहुमज्झदेसभाए तत्थणं एगे महं पासा. यवडेंसए होत्या-अब्भुग्गयमूसियए जाव सस्सिरीए सुरूवे पासाईए ४) इस द्वीप के ठीक.मध्य भाग में एक विशाल श्रेष्ठ प्रासाद था! यह बहुत अधिक ऊँचा था। अपनी ऊँचाई से यह आकाश तक को स्पर्श करतो था। बहुत सुन्दर था। दर्शनीय आदि विशेषणों वाला था। (तत्थ णं
નાવ જ્યાં ડૂબી હતી તેની આસપાસના પ્રદેશમાં એક બહુ મોટે રત્નદ્વીપ નામે દ્વીપહતે. આ દ્વીપનો આયામ અને વિષ્કભ ઘણું પેજના સુધી વિસ્તાર પામેલ હતા. આ દ્વીપની પરિધિ પણ ઘણું જ સુધીની હતી. ઘણી જાતના વૃક્ષોના સમૂહથી તે દ્વીપને અંદર અને બહારના ભાગ લીલો છમ દેખાતે હતો. તે દ્વીપ ખૂબ જ સુંદર હતું. મનહર હિતે, મનને પ્રસન્ન કરે તે હો, દર્શનીય હતે. અપૂર્વ સૌંદર્યથી તે યુક્ત હતા તેમજ આકારમાં પણ તે અત્યંત સુંદર હતા.
( तस्स णं बहुमज्झदेसभाए तत्थणं एगे महं पासायव.सए होत्था-अब्भुग्गय मूसियए जाव सस्सिरीए सुरूवे पासाईए ४)
તે દ્વીપની વચ્ચે એક વિશાળ ઉત્તમ મહેલ હતું. તે ખૂબ જ ઊંચે હતો. પિતાની ઊંચાઈથી તે આકાશને પણ સ્પર્શતું હતું તે ખૂબ જ સુંદર હતો. દર્શનીય વગેરે વિશેષતાઓથી યુક્ત હતે.
For Private And Personal Use Only
Page #635
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम्
करोति । सा कशी ? इत्याह- ' पात्रा' इत्यादि - ' पावा' पापा=पापकर्मकर्त्री स चण्डा=अत्यन्त कोप शीला, रौद्रा = हिंसादिक्रूरकर्मकारिणी, साहसिका अविचार्यकारिणी । तस्य खलु प्रासादावतंसकस्य चतुर्दिक्षु चत्वारो वनषण्डा आसन्, कीदृशाः ? इत्याह- ' किव्हा ' इत्यादि - कृष्णाः = नूतनमेववर्णाः, कृष्णावभासाः= अतिहरितत्वेनावभासमानकृष्णकान्तयः, इत्यादि । ततः खलु तौ माकन्दिकदारकौ तेन फलकइण्डेन 'उच्बुज्झमाणा २१ उदुद्यमानौ २ उपरिजले वहन्तौ २ तरन्तौर, रत्नद्वीपान्ते खलु रत्नद्वीपसमीपे 'संबुडा संग्यूढौ = समागतौ चाप्यास्ताम् ।
"
ततः खलु तत्र तौ माकन्दिकदारकौ 'थाई' रतार्थ समुद्रतलं लभेते = पादाभ्यां स्पृष्टवन्ती लब्ध्वा मुहूर्तान्तिरम् = अन्तर्मुहूर्त्तम् आश्वस्त = विश्रामं कुरुतः, आश्वस्य पासायवडेंसए रमणदीवे देवया नामं देवया परिवसति, पावा, चंडा रुद्दा, साहसिया तस्स णं पासायवर्डिसयस्स चउदिसिं चत्तारिवणसंडा किन्हा, किण्हाभासा, तएणं ते मागंदियदारगा तेणं फलयाखंडेणं उच्बु ज्झमाणा २ रयणदीवंतेणं संबूहा यावि होत्था ) उस श्रेष्ठ प्रासाद में रत्न द्वीप देवता नाम की एक देवी कि जिस का प्रसिद्धनाम 'रत्नदेवी' " ऐसा था " रहती थी ॥
यह अत्यंत पापकर्म करती थी, सदा गुस्से में भरी रहती थी, हिंसादिक्रूरकर्म करने में बड़ी निपुणमति थी जो मन में आता वही कर डालती थी । उस श्रेष्ठ प्रासाद की चारों दिशाओं में चार वनखण्ड थे । वे नवीन मेंघ के वर्ण समान काले थे और सदा हरे भरे रहने के कारण इनकी कांति भी काली ही निकलती थी। ये दोनों माकंदी दारक उस फलक खंड की सहायता से जल पर तैरते हुए उस रत्नद्वीप के
For Private And Personal Use Only
५७९
·
( तत्थणं पासाथवडेंसए रयणदीवे देवया नामं देवया परिवसति, पावा चंडा रुदा साहसिया तस्सणं पासायवर्डिसयस्स चउदिसिं चत्तारि वणसंडा, किव्हा frogrभासा, एणं ते मागंदियदारगा तेणें फलयखंडेणं उब्वुज्झमाणा २ रणदीवं तेगं बूढा यानि होत्था )
તે શ્રેષ્ઠ મહેલમાં રત્નદ્વીપ દેવતા નામની એક દૈવી કે જે ‘ રયા દેવી ’ નામે પ્રઋિદ્ધિ પામેલી હતી રહેતી હતી. હુંમેશા તે ગુસ્સામાં જ રહેતી હતી. તે હિંસા વગેરે ક્રૂર કાં કરવામાં ખૂબ જ ચતુર હતી. તે ઈચ્છા મુજખ આચરણ કરતી હતી. તે ઉત્તમ મહેલની ચારે દિશાએ તરફ ચાર વનખંડો હતા ડો. નવા વાદળના ર`ગના જેવા શ્યામ હતા અને હંમેશાં લીલા છમ રહેવા હૃદલ તેમની કાંતિ પશુ શ્યામ રંગની જ હતી. અને માર્કદી દારકા લાકડા ઉપર તરતા-તરતા રત્ન દ્વીપની પાસે આવી પહોંચ્યા હતા.
Page #636
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५८०
शाताधर्मकथासूत्र फलकखण्ड 'विसज्जेति' लिसर्जयतः परित्यक्त मन्तौ, विमृज्य रत्नद्वीपम् उत्तरता प्राप्तौ उत्तीर्य-प्राप्य फलानां मार्गणगवेषणं कुरुतः इतस्ततः फलानि गवेषितवन्तौ, कृत्वा फलानि गृहीतः, गृहीत्वा आहारतः भुक्तवन्तौ, तदनु नालिकेराणां मार्गणगवेषणं कुरुतः, कृत्वा नालिकेराणि स्फोटयतः, ततः नालिकेरतैलेन अन्योन्यस्य पास में आ पहुँचे। (तएणं ते मागंदियदारगा थाहं लभंति, लभित्ता मुहुतंतरं आससंति, आससित्ता फलाखंडं विसज्जेंति,विसज्जित्तारयणद्दी उत्तरंति, उत्तरित्ता फलाणं मग्गणगवेसणं करेंति ) वहां आते ही उन्हें स्थल मिल गयो-थाह मिलते ही उन्होंने वहां एक मुहूर्त तक विश्राम किया, विश्राम करके फिर उस काष्ठ खंड को छोड दिया। छोड़ करके फिर वे दोनों रत्नद्वीप में उतर-गये-वहां जाकर उन्हांन फलों की इधर उधर मार्गणागवेषणा की-(करित्ता फलाई गिण्हति, गिणिहत्ता आहा. रेंति आहारित्ता णालिएराणंमागणगवेसणं करेंति, करित्ता नालिएराई. फोडेंति, फोडित्ता नालिएरतेल्लेणं-अण्णमाण्णस्स गत्ताइंअभंगेति, अ. उभंगित्ता पोक्खरणी ओगाहिंति, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेंति, करिता जांव पच्चुत्तरंति,पच्चुत्तरित्ता पुढविसिलापट्टयंसि निसीयंति निसीहत्ता आसत्था वीसत्था) मार्गणा गवेषणा करने से उन्हें फल मिल गये। मिलते ही उन्होंने उनका आहार किया। जब उनका पेट अच्छी तरह भर चुका तब फिर उन्होंने नारिकेल फलों को-नारियलों की तलाश
(तएणं ते मागंदियदारगा थाहं लभंति, लभित्ता मुहत्तंतरं आससंति, आससित्ता फलगखंडं विसज्जेति, विसज्जित्तारयणद्दीवं उत्तरंति उत्तरित्ता फलाणं मग्गणगवेसणं करेंति)
ત્યાં પહોંચતાં જ તેઓને સ્થળ મળી ગયું, સ્થળ મળતાં જ તેઓએ એક મહત્ત ત્યાં વિસામે લીધે અને ત્યાર પછી લાકડાને છેડી દીધું. પાણી માંથી તેઓ બંને રન દ્વીપમાં આવ્યા અને આમ તેમ ફળો શોધવા લાગ્યા.
( करित्ता फलाइं गिण्हंति, गिण्हित्ता आहाति आहारित्ता णालिएराणं मग्गणगवेषणं करेंति करिता नालिएराई फोडेंति फोडिता नालिएरतेल्लेणं अण्णमण्णस्स गत्ताई अभंगति अभंगित्ता पोखरणी ओगाहिति, ओगाहित्ता जलमज्झणं करें ति, करिता जाव पच्चुत्तरंति, पच्चुत्तरित्ता पुढविसिलापट्टयंसि नीसीयंति, निसीइत्ता आसत्था वीसत्या)
ધ કરતાં કરતાં તેમને ફળે મળી ગયાં. તેમણે ફળને આહાર કર્યો જયારેફળને આહારથી તેઓ ધરાઈ ગયા ત્યારે નાળિયેરના ફળની શોધ કરવા લાગ્યા. આખરે નાળિયેરનાં ફળ તેઓએ મેળવ્યાં અને તેને ફેડીને અંદરથી
For Private And Personal Use Only
Page #637
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दियदारकचरितनिरूपणम्
५८९
,
परस्परस्य ' गत्ताई' गात्राणि= अङ्गोपाङ्गानि अभ्यञ्जयतः = मर्दयतः, तदनु पुष्करिणीं =वापीं अवगाहेते = अन्तः प्रविशतः, अवगाह्य जलमज्जनं स्नानं कुरुतः, कृत्वा यावत् प्रत्युत्तरतः = वापीतो बहिर्निस्सृतौ प्रत्युत्तीर्य = बहिर्निस्सृत्य पृथिवीशिलापट्टे निषीदत: - उपविष्टौ निषद्य ' आसत्था ' आस्वस्थौ = ईषत्स्वस्थौ ' वीसत्था ' ferent रमणीयनिर्भयस्थानं मत्वा विशेषेण विश्रामं प्राप्तौ सुखासनवरगतौ = सुखदासने समुपविष्टौ सन्तौ चम्पानगरम् अम्बापित्रा पृच्छनम् = समुद्रोत्तरण विषये पद्वित्रिवारं तदाज्ञायाचनंच, लवणसमुद्रोत्तारं च कालिकावातसमुत्थानं की तलाश करने पर वे भी उन्हें मिल गये । मिलते ही उन्होंने उन्हें फोड़ा - फोड कर उनमें से तेल निकाला - तेलनिकाल कर परस्पर में उन्हेंने एक दूसरे के शरीर पर उससे मर्दन कीया मर्दन करनेके बाद फिरवे पुष्करिणी में प्रविष्ट हुए -: -प्रविष्ट होकर उसमें उन्हों ने स्नान किया स्नान करके फिर वे उससे ऊपर आये । ऊपर आकर पृथिवी शिलापटुक पर बैठ गये । बैठकर वे वहाँ अश्वस्त बने । बाद में (सुहासणवरगया) सुखद आसन से बैठ कर उन दोनों ने ( चंपानयरिं अम्मापिड आपुच्छणं लवणसमु होत्तारणं च कालियवायसमुत्थणं च पोत वहणविवर्त्तिच फलयखंडस्स आसायण च रयणद्दीनुसारं च अणुचिते माणा २ ओहयमण संकष्पा जाव झियायेति ) चंपानगरी का माता पिता से पूछने का - लवण समुद्र कि यात्रा करने के विषय में पूछने पर और उनके निषेध करने पर पुनः दुबारा तिवारा उनसे आज्ञा प्राप्त करने का - लवण समुद्र में उतरने का कालिका वायु के उत्थान का पोतके डूब जानेका फलक खंड की प्राप्ति તેલ કાઢીને ખૂમ જ સરસ રીતે એક ખીજાના શરીરે તેલ ચાળવા લાગ્યા. ખરેખર તેલની માલિશ કરીને તેએ પુષ્કરણીમાં ઉતર્યાં અને ઉતરીને તેઓએ સ્નાન કર્યું સ્નાન કરીને તેએ બહાર આવ્યા અને એક શિલા ઉપર બેસી गया. त्यां मेसीने तेथे आश्वस्त विश्वस्त मन्या मने त्यार पछी ( सुहासण घर गया ) सुभासन पूर्व मेसीने तेथेो मने
(चंपानगरि अम्मा पिउआपच्छणं लवणसमुद्दोत्तारणं च कालिय वाय समुत्थर्ण च पोतवहणविवर्त्ति च फलयखंडस्स आसायणं च रयणदीबुत्तारं च अणुचिं ते माणा २ ओहमण संकष्पा जाव झियार्येति
ચંપા નગરીને, લવણ સમુદ્રની યાત્રા કરવા માટે માતાપિતાએ ચાકખી ના કહેવા છતાં એ ત્રણ વખત તેની તેજ વાત તેમની સામે મૂકીને આજ્ઞા મેળવવાના, લવણુ સમુદ્રમાં ચાત્રા કરવાને, અકાળે વાવાઝોડાથી નાવ ડૂબી
For Private And Personal Use Only
Page #638
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५८२
ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे च, पोतवहनविपत्तिंच, फलकखण्डस्याऽऽपादनं स्वीकरणंच, रनद्वीपोत्तारंच 'अणुचिंतेमागा' अनुचिन्तयन्तौ-पुनः पुनः स्मरन्तौ ' ओहयमणसंकप्पा' अपहतमनः संकल्पो-आर्त्तध्यानसम्पन्नौ यावत् ‘झियाएंति' ध्यायतः पूर्ववृत्तान्त स्मृतवन्तौ। ततः खलु तस्मिन् समये सा रत्नद्वीपदेवता तो माकन्दिकदारको 'ओहिणा' अवधिना=अवधिज्ञानेन 'आभोएइ' आभोगयति-पश्यति, आभोगयित्ता दृष्ट्वा 'असिफलगवग्गहत्ता' असिफलकव्यग्रहस्ता-असिना तीक्ष्णखड्ड्रेन फलकेन='ढाल' इति प्रसिद्धेन व्यग्रौ = चश्चलौ हस्तौ यस्याः सा तथा, सत्ततालप्पमाणं' सप्ताष्टतालप्रमाणे, सप्ताष्टताडपक्षपरिमितम् , ' उड्डूं' ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वभागं 'वेहासं' वैहायसंगगनसम्बन्धिकम्-अत्युच्चैराकाशे 'उप्पयइ' उत्पतति, उच्छलति, उत्पत्य तया प्रसिद्धया उत्कृष्टया यावद् देवगत्या — वीइवयमाणी' व्यतिव्रजन्नी २ = का और उसके सहारे से रत्न द्वीपमें आकर उतर जानेका बार२ विचा र-स्मरण किया । स्मरण करते २ अपने मनोरथ की पूत्ति न होनेके कारण वे दोनों आतं ध्यान मे पड़ गये । (तएणं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदिदारए ओहिणा आभोएइ, आमोइत्ता असिफलगवग्गहत्था सत्तट्टतालपमाणं उड्ढे वेहासं उप्पयइ २ ताहे उक्किट्ठाए जाव देव गईए वीहवयमाणी २ जेणेव मागंदियदारए तेणेव आगच्छइ, आगच्छित्ता आसुरूत्तो ते मागंदियदारए खरफरुसनिठुरवयणेहिं एवं वयासी) इतने में उस रत्नद्वीप की देवी ने उन दोनों मागंदिदारकों को अपने अवधिज्ञान से देखा-देग्य कर वह तलवार और डाल को हाथों में लेकर आकाश में सात आठ ताल वृक्ष प्रमाण ऊपर तक उछली उछल कर फिर वह उस उत्कृष्ट देव संबंधि गति से शीघ्रता पूर्वक चलती २ જવાનો. લાકડું મેળવીને તેની સહાયથી તરતાં તરતાં રત્નદ્વીપમાં આવીને ઉતરવા સુધીને વારંવાર તેઓ વિચાર કરવા લાગ્યા. આ બધી ઘટનાઓનું તેઓ સ્મરણ કરવા લાગ્યા. આમ સમરણ કરતાં કરતાં જ્યારે પોતાના મનોરથ સફળ થતા ન જોયા ત્યારે તેઓ આર્તધ્યાનમાં ડૂબી ગયા.
(तएणं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिदारए ओहिणा अभोए इ, अमोइत्ता असिफलगवग्नहत्था सत्तद्रुतालपमाणं उड्डूं वेहासं उप्पयइ २ ताहे उकिट्ठाए भाव देवगईए वीइयमाणी २ जेणेव मागंदियदारए तेणेव आगच्छइ, आगच्छित्ता आसुरूत्ता ते मागंदियदारए खरफरुस निट्टुरवयणेहिं एवं वयासो)
એટલામાં તે રત્ન દ્વીપની દેવીએ તે બંને માર્કદી દારકને પિતાના અવધિજ્ઞાનથી જોઈ લીધા અને જોઈને તે તરવાર અને ઢાલ હાથમાં લઈને આકાશમાં સાત આઠ તાલ વૃક્ષ પ્રમાણુ ઉપર ઉછળી અને ત્યારબાદ તે
For Private And Personal Use Only
Page #639
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
reगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकदिदार कारितनिरूपणम्
५८३
"
,
शमभिगच्छन्ती यत्रैव माकन्दिकदारकौ तत्रैवशेपागच्छति, उपागत्य 'आसु· रुशुरुमा शीघ्रं क्रुद्धा सती तौ माकन्दिकदारकौ खरदरपनिष्ठुरवचनैः= कर्कशकठोर रूक्षवचनैरेवमवादी- 'हंभो ' इति सर्वमामन्त्रणम्, हंभो माकन्दिकदारकौ । युम् 'अप्पत्थियपस्थया ' अपार्थिमार्थ कौ=मरणवाञ्छक रतः, यदि खलु युवां मया सार्द्धं विपुलान् भोगभोगान् = शब्दादिविषयान् भुञ्जानौ विहरतं ' तो ' तदा ‘भे ' युवयोरुभयोरस्ति जीवितम्, अथ खलु युवां मया सार्द्धं विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जानौ नो विहरन्तं ' तो ' तदा ' भे' युवयोर्द्वयोरपि अनेन ' नीलुप्पलगवलगुलिय- अय सिकुसुमप्यगासेण ' नीलोत्पलगवलगुलिकाs. तसीकुसुमप्रकाशेन नीलोत्पले= नीलकमल, गवलं = महिषशृङ्ग, गुलिका= नीली 'गुली' इति प्रसिद्धा, अतसीकुसुमम् - 'अलसी' इति प्रसिद्ध धान्यवि जहां वे दोनों मकंदी सार्थवाह के दारक थे वहां आई वहाँ आकर वह कोच से कोवित हुई और उन माकंदीदारकों से कर्कश कठोर एवं रूक्ष वचन बोलती हुई इस प्रकार कहने लगी- ( हं भो मागंदिदारया ! अपस्थिय पत्थिया जण तुम्भे मए सद्धिं विउलाई भोग भोगाई भुंज माणा नो विहरह तो भे इमेण नीलुप्पलगवलगुलियअयसियकुसुम भासेण असिणा खुरधारेण असिणा रत्तगंडमंसुयाई माउयाहि सोहिया ताल फलाणीवसी साई एगंते एडेमि ) अरे ओ मागंदी के दारको ! मालूम पड़ता है कि तुम दोनों अप्रार्थित मृत्यु के प्रार्थकबाच्छक बन रहे हो । यदि तुम लोग मेरे साथ विपुल शब्दादि विषयों को भोगो तब ही तुम दोनों का जीवन सुरक्षित बच सकता है यदि मेरे साथ विपुल शब्दादि विषयोंको नहीं भोग सकते हो तो देखो-नील
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
ઉત્કૃષ્ટ દેવની ગતિથી ઝડપથી ચાલતી ચાલતી જ્યાં તેઓ મને માકઢી સાવાહના પુત્રા હતા ત્યાં આવી પહેાંચી. અને કર્કશ-કંઠાર તેમજ રુક્ષ વનાને પ્રયાગ કરતી માર્કદી દારકાને આ પ્રમાણે કહેવા લાગી કે~~
( हं भो मार्गदिदारया ! अपत्थियपत्थिया जाणं तुम्भे मए सद्धिविलाई भोगभोगाई माणा नो विहरह तो भे इमेणं नीलुप्पलगवलगुलिय अयसिय कुसुमपगासे णं असिणा खुरधारेणं आसिणा रत्तगंड मंनुयाई माउयाहि उबसोहि याई ताल फलाणीव सीसाइ एगते एडेमि )
For Private And Personal Use Only
અરે એ માર્કદી દારકે ! મને લાગે છે કે તમે અપ્રાર્થિત મૃત્યુને ઈચ્છી રહ્યા છે. હવે જો તમે મારી સાથે રહીને પુષ્કળ પ્રમાણમા શખ્વાદિ વિષયાને ભેગવવા માટે તૈયાર થાએ તા જ તમારું જીવન બચી શકે તેમ છે, જો તમે મારી સાથે શબ્દ વગેરે વિષયાને ભાગવામાં
અસમર્થ હા તે
Page #640
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथागसूत्रे शेषपुष्पं, तद्वत् प्रकाश अतिश्यामवर्णों यस्य स तथा, तेन 'खुरधारेण ' शुर. धारेण क्षुरवत्तीक्ष्णधारेण ' असिणा' असिना=बङ्गेन 'रत्तगंडमंसुयाई' रक्तगण्डश्मश्रुके रक्तौ-तरुणावस्थत्वेन लालिमायुक्तौ गण्डौ-कपोलौ, श्यामानि श्मश्रूणि च ययोस्ते, 'माउयाहिं' मातृकाभ्यां स्वस्व मातृभ्यां ' उवसोहियाई.' उपशोभिते श्रृङ्गारार्थसमारचितकेशवेशत्वादपूर्वशोभासम्पन्ने 'सीसाई' शीर्ष-उभयोमस्तको 'तालफलाणीव' ताडफलेइत्र छित्वा एकान्ते ' एडेमि' प्रक्षिपापि । ततः खलु तौ माकन्दिकदारको रत्नद्वीपदेवतया अन्तिके एतद्वचनं श्रुत्वा भीतौ करतलपरि. कमल, महिष शृंग, नीली, अलमी पुष्प के समान अतिशय श्याम वर्ण वाली इस तलवार से कि जो छुरा की धार के समान तीक्ष्ण धार वाली है तुम दोनों के मस्तकों को कि जो तरूणाई से लाल हुए कपोलों से युक्त हैं, तथा अपनी २ जननियों-माताओं-द्वारा जिन पर शोभा निमित्त समारचित केशवेश से अपूर्व सौंदर्य वाला है, ताड फल के समान काटकर एकान्त स्थान में फेंकदंगी (तएणते मागंदिय दारगा रयणदीव देवयाए अंतिए सोच्चा भीया करयल • एवं जण्णं देवाणु पिया! वहस्ससि तस्स आणा उववायवयणनिइसे चिहिस्सामो-तएणं सा रयणदीवदेवया ते मार्ग दियदारए गेण्हति, २ जेणेव पासायव डिसए तेणेव उवागच्छह २ असुभ पोग्गलावहारकरेइ २ सुभगोग्गल पक्खेवं करेइ करित्ता पच्छाते हि विउलाई भोगभोगई भुंजमाणि विहरह कल्लाकल्लिं च अमय फलाइं उवणेइ ) इस प्रकार वे दोनों माकंदो दारक જુએ નીલકમળ, મહિષગ, નીલી અળશીના પુષ્પની જેમ ખૂબજ શ્યામ રંગવાળી આ તરવારથી-કે જે છરાની ધારના જેવી તીક્ષણ ધારવાળી છે–તમારા બંનેના માથાઓ કે જેઓ જાનીથી લાલ લાલ થયેલા કપિલવાળા છે, કાળી દાઢી અને મૂછોથી શોભી રહ્યા છે તેમજ પોતપોતાની માતાઓ વડે કેશ વિન્યાસ કરવાથી અપૂર્વ સૌંદર્યથી જેઓ દીપી રહ્યા છે તાડફળની જેમ કાપીને હું નિર્જન સ્થાન ફેકી દઈશ - (तएणं ते मागंदियदारगा रयणदीवदेवयाए अंतिए सोचा भीया करयल. एवं जण्णं देवाणुप्पिया ! वइस्ससि तस्स आणा उववायवयणनिदेसे चिटिम्सामो तएणं सा रयणदीवदेवया ते मागंदियदारए गेहति २ जेणेव पासायवडिसए तेणेव उबागच्छइ २ असुभपोग्गलावहारं करेइ २ सुभपोग्गलपक्खेवं करेइ करित्ता पच्छाएहिं विउलाई भोग भोगाई भुजमाणी विहरइ कल्लाकल्लि च अमयकलाई उवणेइ)
For Private And Personal Use Only
Page #641
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनगारधर्मामृतवषिणीटी० ० ९ माकान्ददारकरितनिरूपणम् ५५ गृहीतं शिरआवर्त दशनखं मस्त केऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादिष्टाम्-एवंच यं खलु कश्चित्प्रेष्याणामपि प्रेष्यं हे देवानुपिये। त्वमस्मदर्थ वदिष्यसि यदुत 'युवयोरयमाराध्यः' इति, तदा 'तस्स ' तस्यापि ' आणाउववायवयणनिदेसे' आज्ञोपपातवचननिर्देशे-आज्ञा=विधेयतयाऽऽदेशः, उपपातः सेवा, वचनम् अनियत आदेशएव निर्देशः=नियतार्थमुत्तरम् , एतेषां समाहारः, तत्र स्थास्यावः-उपस्थास्यावः किं पुनर्भवत्याः ? बदनुमत्या तव दासानुदासस्यापि दासत्वं स्वीकरिष्याव इति भावः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता तो माकन्दिकदारको गह्नाति, गृहीत्वा यौव स्वस्य पासादावतंसका प्रधानवास भवनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तयोः शरीरे अशुभपुङ्गलापहारं करोति, कृत्वा शुभ पुद्गलप्रक्षेपं करोति कृत्वा पश्चात् ताभ्यां रयण देवी ( रत्नदीपदेवी ) के वचन सुनकर भयभीत हो गये । पश्चात् उन्हों ने दोनों होथोंकी अंजलि बनाकर और उसे अपने मस्तक पर रख. कर उससे ऐसा कहा-हे देवोनुप्रिये । आपका यदि कोई नौकर का भी नौकर होगा और आप उसकी सेवा करनेके लिये भी हमसे कहेंगी-तो हम उसकी भी आज्ञा सेवा, आदेश और निर्देश करने के लिये कटि. पद्ध हैं तो फिर आपकी सेवा करने आदि की तो बात ही क्या है। ___ आपकी आज्ञा से तो हम आपके दासों के भी दासों की दासता स्वीकार करने के लिये तैयार है । तो फिर आपकी दासता के लिये तो कहना ही क्या है। इस प्रकार माकंदी-दारकों की बात सुनकर उस रयणादेवी ( रत्न कोप देवी ) ने उन्हें अपने साथ लिया और लेकर वह अपने श्रेष्ट प्रासाद में आगई । वहां आकर उसने उन दोनों के शरीर में से अशुभ पुद्गलों को दूर किया और शुभ पुद्गलों को डाल दिया।
રયણાદેવીના વચને સાંભળીને બંને માર્કદી દારકે ભયભીત થઈ ગયા. તેઓ બંનેએ હાથની અંજલી બનાવી અને તેને મસ્તકે મૂકીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમારા નેકર ને પણ કેઈ નેકર હોય અને તમે અમને તેની નોકરી પણ કરાવશે તે અમે તેની પણ આજ્ઞા, આદેશ અને હુકમ પ્રમાણે અનુસરવા તૈયાર છીએ તે તમારી સેવાની વાત જ શી કહેવી?
તમારા હુકમથી તે અમે તમારા દાસના દાસેની દાસતા સ્વીકારવા તૈયાર છીએ. તે તમારી દાસતા માટે હવે અમારે કહેવાનું જ શું રહે? આ પ્રમાણે માર્કદી દારકોની વાત સાંભળીને યણ દેવી ( રત્ન દીપ દેવી) એ તેઓને પિતાની સાથે લીધા અને લઈને તે પિતાના એક સૌથી સારા મહેલમાં ગઈ ત્યાં જઈને તેણે તેમના શરીરમાંથી અશુભ પુદ્ગલે દૂર કર્યા અને શુભ :
चा ७४
For Private And Personal Use Only
Page #642
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूचे साई विपुलान्-भोगमोगान्-शब्दादिविषयान् भुजाना विहरति-आस्तेस्म, 'कल्लाकल्लिंच' कल्याकल्यि-प्रतिदिनं च अमृतफलानि-अमृततुल्यफलानि 'उव
इ' उपनयति आनीय ददाति, तौ च प्रतिदिन तानि फलानि भुजानौ तया साधं कामभोगान् सेवमानौ तिष्ठतः इतिभावः ।। सू०३ ॥ ।
मूलम्-तएणं सा रयणदीवदेवया सक्कवयणसंदेसणं सुट्रिएणं लवणाहिवइणा लवणसमुहे तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्रियव्वेत्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कयवरं वा असुई पूतियं दुरभिगंधमचोक्खं तं सव्वं आहुणिय२ तिसत्तखुत्तो एगंते एडेयव्वंतिकटुणिउत्ता, तएणं सा रयणदीवदेवया ते मागंदियदारए एवं क्यासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! सक० सुट्रिएणं तं चेव जाव णिउत्ता, तं जाव अहं देवा० ! लवणसमुद्दे जाव एडेमि ताव तुब्भे इहेव पासायवडिसए सुहंसुहेणं अभिरममाणा चिट्टह, जइ णं तुन्भे एयंसि अंतरंसि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह, तत्थणं दो ऊऊ सया साहीणा तं जहा-पाउसे य वासारत्तेय,-(गाहा) तत्थ उ कंदलसिलिंधदंतो णिउरवरपुप्फपीवरकरो । कुडयज्जुणणीवसुरभिदाणो पाउसउपश्चात् उन दोनों के साथ विपुल भोग भोगों-शब्दादि विषयों को -भोगने लगी । प्रतिदिन वह उन्हें अमृत फलों को लाकर देती और वे दोनों उन्हें खाते । इस प्रकार वे दोनों सार्थवाह दारक उसके साथ वहां कामभोगों को भोगते हुए रहने लगे। "सू०३" । પુદ્ગલેને મૂકી દીધા. ત્યાર પછી રયણ દેવી તેઓ બંનેની સાથે વિપુલ કામ ભેગે શબ્દ વગેરે વિષયને ઉપભેગ કરતી રહેવા લાગી. હંમેશા તે તેઓ બંનેને અમૃત ફળ લાવીને આપતી અને તેઓ પણ ફળો ખાતા. આ રીતે બને સાર્થવાહ અને તેની સાથે કામ ભેગે જોગવતાં રહેવા લાગ્યા. સૂત્ર ૩ .
For Private And Personal Use Only
Page #643
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारामृतवर्षिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५८ ऊगयवरो साहिणो ॥१॥ तत्थ य-सुरगोवमणिविचित्तो ददुर कुलरसियउज्झररवो । बरहिणविंदपरिणद्धसिहरो वासारत्तो उऊपवतो साहिणो ॥२॥ तत्थणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! बहुसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु बहुसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सुहं सुहेणं अभिरममाणा विहरेजाह, जइणं तुब्भे एत्थवि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे उत्तरिलं वणसंडं गच्छेजाह, तत्थ णं दो ऊऊ सया साहीणा तं० सरदोय हेमंतो य, तत्थ उ सणसत्तवण्णकउओ नीलुप्पलपउमनलिणसिंगो। सारसचक्कवायरवितघोसो सरयऊऊगोवती साहीणो ॥१॥ तत्थ य सियकुंदधवलजोण्हो कुसुमितलोद्धवणसंडमडलतलो । तुसारदगधारपीवरकरो हेमंतऊ ऊससी सया साहीणा ॥ २॥ तत्थणं तुब्भे देवाणुपिया ! वावीसु य जाब विहरेज्जाह, जइणं तुब्भे तत्थवि उठिवग्गा वा जाव उस्सुया वा भवेजाह तो णं तुन्भे अवरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह, तत्थणं दो ऊऊ साहीणा, तं जहा वसंते य गिम्हे य, तत्थ उ सहकारचारुहारो किंसुयकण्णियारासोगमउडो । ऊसिततिलगवउलायवत्तो वसंतउऊणरवती साहीणो ॥ १॥ तत्थ य पाडलसिरीससलिलो मालियावासंतियधवलवेलो । सीयलसुरभि अनिलमगरचरिओ गिम्हऊऊसागरो साहीणो ॥ २ ॥ तत्थ णं बहुसु जाव विहरेज्जाह, जइ णं तुब्भे देवा० ! तत्थ वि उव्विग्गा उस्सुया भवजाह तओ तुब्भे जेणेव पासायवडिसए तेणेव उवागच्छेज्जाह, ममं पडिवालेमा
For Private And Personal Use Only
Page #644
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथासूत्र णार चिट्रेज्जाह, माणं तुम्भे दक्खिणिलं वणसंडं गच्छेज्जाह, तत्थणं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे महाविसे अइकाय महाकाए जहा तेयनिसग्गे मसिमहिसामूसाकालए नयणवि. सरोसपुण्णे अंजणपुंजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमलजुयलचंचलचलंतजीहे धरणियलवेणिभूए उक्कडफुडकुडिलजडिलकक्खडवियडफडाडोवकरणदच्छे लोगाहारधम्ममाणधमधमेतघोसे अणागलियचंडतिव्वरोसे समुहिं तुरियं चवलं धमधमंतदिट्ठीविसे सप्पे य परिवसति, माणं तुब्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ, ते मागंदियदारए दोच्चंपि तच्चंपि एवं बयइ वइत्ता वेउव्वियसमुग्याएणं समोहइ समोहणित्ता ताए उकिटाए लवणसमुहं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेयं पयत्ता यावि होत्था ॥ सू०४ ॥
टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता-रत्नद्वीपदेवी ' सकवयणसंदेसेण ' शक्रवचनसंदेशेन शक्रेन्द्राज्ञयो 'मुट्ठिएणं' सुस्थितेनसुस्थितनामकदेवेन, 'लवणाहिवडणा' लवणाधिपतिना-लपणसमुद्रस्वामिना नियुतेत्यन्वयः नियोजनप्रकारमाह-लवणसमुद्रः · तिसत्तखुत्तो' त्रिसप्तकृत्वः-एकविंशतिवारम् 'अणुपरियट्टियत्वे ' अनुपर्यटितव्यः समन्तात्परिभ्रमणीयः इति,
"तएणं सा रयण दीव देवया" इत्यादि। टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सक्वयणसंदेसेण) देवेन्द्रकी आज्ञासे ( लवणाहिवाणा ) लवणाधिपति (सुट्टिएण) सुस्थित देवने ( सारयणद्दीवदेवया) उस रत्नद्वीप देवता-रयणा देवी को (लवणसमुद्दे तिसत्तक्खुत्तो अणुपरियट्ठिय व्वेत्ति ) लवणसमुद्र के तुम २१ बार (तएणं सा रयणदीव देवया 'इत्यादि ॥
-(तएणं) त्या२ मा (सक्कायणसंदेसेणं) हेवेन्द्रनी आज्ञाथा (लवणाहिवइणा) Aqए समुद्रना अधिपति (सुटिएण) सुस्थित हेवे (सा रयणदीवदेवया) ते २त्न द्वीप-हेपता-२५५। हेवीन लवणसमुहे ति सत्त वुत्तो अणुपरियट्टियव्वेत्ति) કહ્યું કે લવણુ સમુદ્રની ચારે બાજુએ તમે એકવીશ વખત ચક્કર લગાવે
For Private And Personal Use Only
Page #645
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
धर्मामृतवर्षी टीका अ० ९ माकन्दिदारक चरितनिरूपणम्
५८९
किमर्थ ? मित्याह - ' जंकिंचि ' इत्यादि । यत्किञ्चित्तत्र तृणं वा पत्रं वा, काष्ठं वा, कचत्ररं वा, अशुचि = विष्टा, पूतिकं = अर्धपकशोणितं, दुरभिगंधं= दुर्गन्धयुक्त वस्तुजातम् ' अचोक्खं ' अचोक्षम् = अपवित्र तिष्ठति तत्सर्वम् ' तिसत्तखुतो ' त्रिसप्तकृत्वः = एकविंशतिवारम्० 'आहुणिय २ आधूय २ अपनीय २ एकान्ते 'एडेयच्वं ' त्यक्तव्यम् इति कृत्वा इत्थं कर्त्तुं ' णिउत्ता ' नियुक्ता=अधिकृता= आज्ञप्तेत्यर्थः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता तौ माकन्दिकदारकौ एवमवादीत्एवं खलु देवानुमियौ ! शक्रवचनसंदेशेन सुस्थितेन० तदेव यावत् - अहं नियुक्ता, तद्यावदहं देवानुप्रियो ! लवणसमुद्रे ' जाव' यावत् - यावच्छब्देन तत्र गत्वा चारों तरफ से चक्कर लगाओं ( जं किंचि तत्थतणंवा पन्तं वा कठ्ठे वा कवर वा असुरं पूतियं दुरभिगंधमचोक्खं तं सव्वं आहुणिय आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगंते एडेयम्बंति कट्टु निउत्तो) उसमें जो कुछ भी तुम्हें वहां तृण, पत्र, काष्ठ, कूडा, विष्टा अर्धपक शोणित अथवा दुर्गंधित वस्तु अदि अपवित्र पदार्थ नजर आयें उन सबको तुम एकबीस बार में वहां से हटा २ कर एकान्त में डाल देना " इस काम पर नियुक्त किया । (एणं सा रयणद्दीवदेवया ते मगंदियदारए एवं वयासीएवं खलु अहं देवाणुपिया ! सक्क० सुट्ठिएण तं चैव जाव णिउत्तो) इसके बाद उस रत्न द्वीप देवता- रयणा देवीने उन माकंदी दारकों से ऐसा कहा -देवानु प्रियों ! मैं सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से लवणाधिपति सुस्थित देवके द्वारा २१ बार लवण समुद्र के चारो ओर चक्कर लगाने के लिये आज्ञप्त की गई हूँ अतः ( तं जाव अहं देवाणु • लवणसमुद्दे
०
( जं किं चि तत्थ तवा पत्तंवा कई वा कयवरं वा अमुई पूतियं दुरभिगंध मचोक्खं तं सव्वं आहुणिय आहुणिय ति खुत्तो एगंते एडेयब्व ति कट्टु निउत्ता) અને તેમાં ગમે ત્યાં તૃણુ, પત્ર, કાષ્ઠ, કચરા, વિષ્ટા અધપકવ શેાણિત ( લેહી ) અથવા તે। દુધિત વસ્તુ અપવિત્ર પદાર્થ દેખાય તે તેને તમે એકવીશ વખત ફરતાં ફરતાં ત્યાંથી લઇને એકાંતમાં દૂર ફેંકી દો. સુસ્થિત ધ્રુવે દેવન્દ્રની આજ્ઞાથી આ કામ યણાદેવીને સોંપ્યું.
(तपणं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए एवं वयासी एवं खलु अहं देवाप्पिया सक्क० सुट्टिए णं तं चैव जाव णिउत्ता )
ત્યાર પછી તે રત્નદ્વીપ દેવતા રયા દેવીએ માકદીદારકાને કહ્યું કે હું દેવાનુપ્રિયા ! મને સૌધર્મેન્દ્રની માજ્ઞાથ લવણાધિપતિ સુસ્થિત દેવ વડે લવણુ સમુદ્રની ચારે બાજુએ એકવીશવાર ચક્કર મારવાની આજ્ઞા મળી છે. એટલા માટે
For Private And Personal Use Only
Page #646
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
harasङ्गसूत्रे
खे
,
"
तृणादिकमपनीय चैकान्ते त्यजामि तावद् युवाम् इहैव प्रासादावतंस के नाभिरनमाणौ तिष्ठतम्, यदि खलु युवाम् एतस्मिन्नतरे ' उच्चिरगावा ' उद्विनौवा = अत्रावस्थानेन खिन्नौ, 'उस्सुया वा उत्कण्ठितौ मनोरञ्जनमनस्कावित्यर्थः, उपुया वा' उत्प्लुतौ क्रीडोत्कण्ठितमानसौ वा 'भवेज्जाह ' भवेतम् यद्यत्रास्थानेन युवयोर्मनस्युद्वेग उत्कण्ठ क्रीडनेच्छा वा भवेत् ' तोणं ' तदा खलु युवां ' पूरत्थिमिल्लं ' पौरस्त्यं पूर्वदिशासंस्थितं वनपण्डम् = उद्यानं 'गच्छेज्जाह' गच्छतं युवाभ्यां रम्यं पूर्वदिशोद्यानं गन्तव्यमित्यर्थः यतोहि तत्र खलु द्वौ ऋतू सदा ' साहीणा' स्वाधीनौ = वर्त्तमानौस्तः, तद्यथा - ' पाउसेय वासारतेय ' प्रवृड्व वर्षारात्रश्च । तत्र प्रावृड्र - अषाढ श्रावणौ वर्षारात्रः- भाद्रपदाश्विनौ, तस्मिन् वनपण्डे जाव एडेमि ताव तुभे इहेब पासापवर्डिसए सुहं सुहेणं अभिरनमाणा चिट्ठह जइर्ण तुम्भे एयंसि अंतरंसि उब्विग्गा वा उस्सुया वा उपया वा भवेज्जाह तोणं तुभे पुरच्छिमिम्लं वणसंडं गच्छेज्जाह मैं जयतक २१ बार चक्कर लगाकर वहां तृण काष्ठ आदि दूर फेंकने के काम में लगी रहूं तब तक हे देवानुप्रियो । तुम दोनों इसी श्रेष्ठ प्रासाद में आनन्द से रहना । यदि यहां रहते२ तुम्हारे चित्त उद्विग्न हो जावे अथवा मनोरंजन के लिये उत्कं ठित हो जावे अथवा क्रीडाकरने के लिये लालायित बन जावे तो तुम दोनों पूर्व दिशा में संस्थित उद्यान में चले जाना ( तत्थणं दो ऊ ऊ सया साहीणा तजहा पाउसेय वासारते य) वहां सद| दो ऋतुएँ वर्तमान रहती हैं । एकतो प्रावृड् ऋतु दूसरी वर्षा रात - आषाढ श्रावण ये नो महिने प्रावृड ऋतु के हैं तथा भाद्रपद एवं आश्विन ये दो मास
1
( तं जाव अहं देवाणु० लवणसमुद्दे जान एडेमि - तात्र तुम्भे इहेव पसायबर्डस सु सुहेणं अभिरममाणा चिठ्ठह जइणं तुम्भे एयंसि अंतरंसि उब्बिग्गावा अस्या वा उपयात्रा भचेज्जाह तो णं तुब्भे पुरच्छिमिल्लं वणसडं गच्छेजाह )
હું જ્યાં સુધી સમુદ્રના એકવીશ ચકકર મારીંત્યાંના તૃણુ કાષ્ઠ વગેરેને દૂર ફેકવાના કામમાં પરાવાઈ રહુ ત્યાં સુધી હે દેવાનુપ્રિયા ! તમે મને આજ શ્રેષ્ઠ મહેલમાં સુખેથી રહેજો. અહીં રહેતાં જો તમને કટાળા આવવા લાગે, મન તમારૂ ઉદ્વિગ્ન થઈ જાય મનેારંજન કરવાની તમારી ઈચ્છા થાય કે ક્રીડા કરવાની ઉત્કટ અભિલાષા તમારામાં ઉત્પન્ન થાય તા અને પૂર્વ દિશાના उद्यानमां नता रखेले. ( तत्थ णं दो ऊ ऊ सया साहीणा तं जहा पाउसेय वासा रस्तेय) ते उद्यानमा रमेशा मे ऋतु हार रहे छे. खेड प्रवृडू ऋतु અને બીજી વર્ષો. અષાઢ શ્રાવણુ આ બે મહિના પ્રાવૃત્ ૠતુના છે અને સાદરવેા અને આસે આ બે મહિના વર્ષા ઋતુના છે.
For Private And Personal Use Only
Page #647
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०८ मान्दिदाश्वखरितनिरूपणम्
५९१
"
श्रावणादि मासचतुष्टयसदृशो रमणीयः समयः सदा वर्त्तत इतिभावः । अत्र वनपण्डे मार्गजरूपकेण वर्ण्यते - तंत्र तु तस्मिन् ' पाउस ऊऊगयवरो' माइऋतुगंजवरः : ' साहीणो ' स्वाधीनः अस्तिस्त्वेन स्वायत्तः सदा वर्त्तते । स कीदृशः ? इत्याह-' कंदलसिलिघदंतो कंदल सिलिन्प्रदन्तः- कन्दला:- नूतनलताः, तत्प्रधानाः सिलिन्धाः ये मातृषि पुष्यन्ति श्वेतकुसुमयुक्ताश्च भवन्ति तएव धवलवसाधर्म्यात् दन्ता यस्य स तथोक्ता, पुनः णिउरवर पुप्फपीवरकरो' निकुरवरपुष्पपीवरकरः निकुरः = वृक्षविशेषस्तस्य वरपुष्पाणि= आयामत्वेन - एकैको परि निस्सृतानि शुण्डाकारेण परिणतानि तान्येव पीवर: =स्थूलः करः = शुण्डा यस्य स तथोक्तः । पुनः 'कुडयज्जुणणीवसुरभिदाणो ' कुटलार्जुननीवसुरभिदान:- कुटजार्जुननी पट्टक्षपुष्पाणि तेषां सुरभिः सुगन्धः स एवदानं=मदजलं यस्य स तथोक्तः । एतादृशो वर्षा ऋतु गजराजः सदैव तत्र वर्त्तत इतिभावः ॥ १ ॥ अथ वर्षाऋतुः पर्वत, वर्षा रात के हैं । ( तत्थउ - कंदला सिलिंघदंतो णिउरवरपुष्पपीवर करो, कुडयज्जुणणीव सुरभिदाणो पाउस ऊऊ, गयवरो साहीणो “ इन चार महिनों में जैसा समय रमणीय रहता है वैसा समय वहां सदा रमणीय बना रहता है। सूत्रकार बनषंड वर्तमान प्रावृड ऋतु का गज के रूपक से वर्णन करते हुए कहते हैं कि कंदल - नवीन लताएँ और सिधि- जो वर्षा में फूलते हैं और फूल जिनका सफेद होता है - ये दोनों ही जिसके दांत हैं। निक्कुर-वृक्ष विशेष - के उत्तम पुष्प ही जिसके पीवर शुण्डादंड हैं तथा कुटज अर्जुन एवं नीप वृक्षोंके पुष्पोंकी सुगंधि ही जिसका मदजल है ऐसा वर्षाऋतु रूप गजराज उस वन में सदा विचरण करता रहता है । निकुरवृक्षके पुष्प एक एकके ऊपर निकलते हैं।
१
( तत्थ उ कंदलसिलिघदंतो णिउरवरपुप्फपीवरकरो कुडयज्जुणणीव सुरभिदाणो पाउस ऊ ऊ गयवरो साहीणो ॥ १ ॥
એ ચાર મહિનામાં વાતાવરણ જેવું સાહામણું રહે છે. તેવું ત્યાં હરહંમેશા સેહામણું રહે છે. સૂત્રકાર વનખંડમાં વર્તમાન પ્રા‰ડૂ ઋતુનું હાથીના રૂપકથી વષ્ણુન કરતાં કહે છે કે-ક દલ-નવી લતાએ-અને સિલિંધ્ર-કે જે વર્ષી કાળમાં ફૂલે છે અને જેના ફૂલ સફેદ હાય છે આ બંને જ જેના દાંતા છે. નિકુરવૃક્ષ વિશેષ-ના ઉત્તમ પુષ્પા જ જેની સુડોળ સૂંઢ છે. તેમજ કુટજ, અર્જુન અને નીપ વૃક્ષેાના પુષ્પોની સુવાસ જ જેને મદ છે. વર્ષા ઋતુ રૂપી એવે ગજરાજ તે વનમાં હુંમેશા વિચરણા કરતા જ રહે છે. નિકુર વૃક્ષના પુષ્પા
એક એકનાઉ પર નીકળે છે.
For Private And Personal Use Only
Page #648
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५९२
हाताधर्मकथासूत्रे
रूपकेण वर्ण्यते-' तत्थय ' तत्रच तत्रैव वनपण्डे वर्षाऋतुपर्वतः स्वाधीनो वर्त्तत इत्यग्रेण सम्बन्धः । सकीदृशः १ इत्याह- ' सुरगोवमणिवितो ' सुगोपमणिविचित्र:- सुरगोपाः = इन्द्रगोपाः वर्षाकाले समुत्पद्यमाना रक्तवर्णा जीत्र विशेषास्तएव मणयः पद्मरागादयस्तैर्विचित्रः = कर्बुरो यः स तथा । 'दद्दूरकुलसियडज्झररवो ' ददुम्कुलर सितोष्झरस्वः = द दुग् कुलं = मण्डूकसमूहस्तस्य रसितं = निरन्तरं शब्दः, तदेव उज्झररवः = निर्झरशब्दो यत्र स तथा । ' बरहिणविंद परिणद्ध सिहरो' बर्हिवृन्दपरिणद्ध शिखर:- बर्हिवृन्देन मयूरसमूहेन परिषद्धाः = युक्ताः वृक्षास्मएव शिखराणि यत्र स तथा । एतादृशो वर्षांरात्रपर्वतस्तत्र सदैव वर्त्तत इतिभावः ॥ २ ॥ तत्र खलु
:
इस लिये वे लंबाई में शुण्डादंड जैसे प्रतीत होते है। (तत्थ य - सुरगोव मणिविचिन्तो ददुर कुलरसिय उज्झररयो । वरहिणविंद परिणद्धसिहरो वासारतो ऊऊ पव्वतो साहीणो ) इस आर्या द्वारा सूत्रकार वर्षाऋतु का पर्वत के रूपक से वर्णन करते हैं वे कहते हैं कि वर्षा काल में इन्द्रगोप नामक कीडा उत्पन्न होकर इधर उधर चमकते हुए रात्रि में दिखलाई पड़ते हैं । सो ये इन्द्रगोप कीडे ही जिस वर्षां ऋतु रूप पर्वत में पद्मराग आदि मणियों के स्थानापन्न हैं । तथा पर्वत निर्झरों (झरना) के शब्दों वाला होता है सो इस वर्षा ऋतु रूप पर्वत में दर्दुरों का जो निरन्तर शब्द होता रहता है वही मानो निर्झरों का शब्द हैं। वर्षा ऋतु में मयूरों से वृक्ष युक्त रहा करते हैं क्यों कि वृष्टि होनेपर वे उन पर उड़ कर बैठ जाते हैं-सो ये मयूर युक्त वृक्ष ही जिस वर्षा ऋतु रूप पर्वत की चीटियां हैं। ऐसा वर्षा रात्र रूप पूर्वत उस वन में सदा काल रहता है। यह बात उन दोनों सार्थवाह
એટલા માટે નિકુરવૃક્ષના પુષ્પા લબાઇની દૃષ્ટિએ સૂંઢ જેવા લાગે છે. ( तत्थ य सुरगोव मणिविचित्तो दददरकुलर सियउज्झरस्वो । बरहिण विदपरिणद्धसिहरो बासारतो ऊऊ पचतो साहीणो )
આ આર્યાં વડે સૂત્રકાર વર્ષા ઋતુનુંપતના રૂપકથી વર્ણન કરે છે. તેઓ કહે છે કે વર્ષાકાળે ઇન્દ્રગાપ નામે કીડા ઉત્પન્ન થાય છે અને તે આમ તેમ ચમકતા રાતમાં દેખાય છે. આ ઈન્દ્રગાપ કીડાઓ જ વર્ષાઋતુરૂપ પર્વતમાં પદ્મરાગ વગેરે મણિએના રૂપમાં છે. પર્વતમાં નિઝર ( ઝરણાએ ) ને ધ્વનિ થતા રહે છે. તે આ વર્ષાઋતુ રૂપ પર્વત ઉપર દેડકાએના જ નિરતર શબ્દ થતા રહે છે. તેજ ઝરણાંઓના શબ્દના રૂપમાં છે. વર્ષાઋતુમાં વૃક્ષા ઉપર મારી ઉડી ઉડીને બેસી જાય છે તા એ મારી જેના ઉપર બેઠાલા છે એવા વ્રુક્ષા જ વર્ષાઋતુ રૂપ પર્વતના શિખરી છે. એવા વર્ષાઋતુ રૂપી પવત તે વનમાં હમેશા નિવાસ કરતા રહેતા હતા. આ વાત તેઓ મને સાથે વાહ
For Private And Personal Use Only
Page #649
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी०अ०८ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम्
५९३
"
युवां देवानुमियौ : बह्वीषु वापीषु च यावत् 'सरसरपंतियासु' सरः सरः पङ्क्तिकासुपर लग्नेषु बहुषु सरःसु यत्रैकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन् तस्मादपरस्मिन्, एवं संचरण, परम्परयोदकं संचरति तासु । बहुषु ' आलिधरपसु य ' आलिगृहेषु आलिः=रम्यवनस्पतिविशेषस्तस्य गृहेषु ' जाव ' यावत्- यावच्छन्देन - कदलीगृहेषु च लतागृहेषु च -अच्छणगृहेषु च प्रेक्षणगृहेषु च प्रसाधनगृहेषु च मोहनगृहेषु च शाला (शाखा) गृहेषु च जालगृहेषु च इति संग्रहः, कुसुमगृहेषु = पुष्प गृहेषु च सुखसुखेन= सुखपूर्वकम् ' अभिरममाणा ' अभिरममाणौ = क्रीडां कुर्वाणौ विद्द रतं=विष्ठतम् ।
पुत्रों को वह रयणादेवी समझा रही है । और साथ में यह भी कह रही है, कि ( तत्थणं तुब्भे देवाणुपिया ! बहुसु वावी सुय जाव सरसरपंतियासु बहुसु आलीवरएसु य मालीघर एसु य जाब कुसुमघर व सुहं सुहेणं अभिरममाणा विहरेज्जाह ) हे देवानुप्रियो । वहां तुम अनेक वापिकाओं में यावत् अनेक सर सर पंक्तियों में अलघरों में कदली गृहों में लता गृहों में अच्छण गृहों में प्रक्षण गृहों में, प्रसाधन गृहों में, मोहन घरों में, शाखा गृहों में, जाल गृहों में, तथा पुष्प गृहों में, सुखपूर्वक क्रीडा करते हुए अपने संयम को व्यतीत करते रहना । अनेक तालाब जहां पंक्ति बद्ध श्रेणी में स्थित रहते हैं उस का नाम सरपंक्ति है। इन पंक्ति आकार स्थित तालावों में एक एक दूसरे तालाब का जल आता जाता रहता है । रम्यवनस्पति विशेष के जो गृह होते हैं उनका नाम आलि गृह है । ( जइणं) यदि (तुन्भे
પુત્રાને રયણા દેવી સમજાવી રહી હતી–અને આ પ્રમાણે આગળ કહેવા લાગી હતી કે (तस्थणं तुभे देवाणुपिया ! बहुसु वात्रीसु य जान सरसरपंतियासु बहुसु आलीधरसुय मालीघदसु जाव कुसुमधरएसुय सुहं सुहेणं अभिरममाणा विहरेज्जाह ) હૈ દેવાનુપ્રિયા ! ત્યાં તમે ઘણી વાપિકાએ ( વાવે! ) માં યાવત્ ઘણી सरः सरपंक्तियो ( सशव। ) भां, याविधरोमां, उसीगृहमां, बतागृहमां, अभ्छगुगृहमां, प्रेक्षणगृडामां, प्रसाधनगृडे मां, भोडुनधशभां, शामागृहेोभां, જાલગૃહામાં તેમજ પુષ્પગૃહમાં સુખેથી ક્રીડા કરતાં પોતાના સમયને પસાર કરો, જ્યાં ઘણાં તળાવા એક પછી એક આમ અનુક્રમે પતિબદ્ધ હાય છે તેનું નામ સરઃ સરપતિ છે. આ પંકિત આકારમાં સ્થિત તળવામાં એક બીજાના તળાવનું પાણી આવતું જતું રહે છે. રમ્ય વનસ્પતિ વિશેષના જે ગૃહે હાય छेते विजुवाय छे. ( जइणं ) ले
शः ७५
For Private And Personal Use Only
Page #650
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
----
--
-
हाताधर्मकथासूत्र यदि खलु पुनर्युवाम् ' तस्थवि' तत्रापि-पूर्व दिशावनपण्डेऽपि उद्विग्नौ वा, उत्सुकौ वा, उत्प्लुतौ क्रीडार्थिनौ वा भवतं तदा खलु युवां द्वावपि ' उत्तरिल्लं' उत्तरीयम्-उत्तरदिक्संस्थितं वनषण्डं 'गच्छेज्जाह' गच्छतम् , युवाभ्यां तत्र गन्तध्यमित्यर्थः तत्र खलु द्वौ ऋतू सदा स्वाधीनौ वर्त्तते, तद्यथा-शरच्च हेमन्तश्च तत्र शरदऋतुः कार्तिकमार्गशीर्षरूपः, हेमन्त च-पौषमाघरूप इति । अथ शरदऋतुं वृषभरूपकेण वर्णयति-तत्र तु वनषण्डे ' सरयउउ गोवई ' शरदऋतुगोपतिः शरद्अनुरूपोटषभः ' साहिणो' स्वाधीनः स्वायतः सदा वर्तेते, इत्यग्रेण समन्वयः । स कीदृशः ? इत्याह- सणसत्तवण्णकउओ ' सनसप्तपर्णककुद्, सनः वल्कलपधानो वनस्पतिविशेषः, सप्तपर्णः सप्तच्छदाभिधवनस्पतिविशेषः तयो पुष्पाण्यपि एत्थवि उन्विग्गा वा उस्लुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह, तोणं तुम्भे उत्तरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह, तत्थ गं दो ऊऊसया साहीणा, तं सरदो य हेमंतो य, तत्थ उ-सणसत्तवण्णक उओ नीलुप्पलपउमनलिणसिंगो। सारस चक्कवायरवितघोसो सरय ऊऊ गोवती साहीणो) तुम शेनोंजनों का पूर्वदिशा के वनषंड में मन न लगे, चित्त उद्विग्न बन जाय, मनोरंजन न हो अथवा और अधिक क्रीड़ा करने के लिये मन उत्कंठित धन जाय तो तुम वहां से उत्तर दिशा में रहे हुए वनखंड में चले जाना। वहां सदा दोऋतुएं वर्तमान रहती है-१ शरद ऋतु २. हेमंत ऋतु, कातिक और मार्गशीर्ष ये दो महिने शरदऋतु केहैं, पौष और भाग ये दो महिने हेमन्तऋतु के हैं । रयणादेवी शरदऋतु का वृषभ के रूपक से और हेमंतऋतुका चन्द्रमाके रूपकसे वर्णन करती हुई उन्हें समझाती है
(तुम्भं एत्यपि उब्बिग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेजाह तो गंतुन्भे उत्तरिल्लं वणसंड गच्छेज्जाइ, तस्थ णं दो ऊऊ सया साहीणा तं० सरदो य हेमंतो य तत्थ उ सणसत्तवण्णकउओ नीलुप्पलपउमनलिणसिंगो। सारस चकवायरवित घोसो सरय ऊऊ गोवती साहिणो)
પૂર્વ દિશા તરફના વનખંડમાં તમને ગમતું ન હોય, ચિત્ત ઉદ્વિગ્ન થઈ જતું લાગતું હોય, ત્યાં તમારું મનોરંજન થતું ન હોય, કે વધારે કીડા કરવા માટે મન ઉત્કંઠિત થઈ જતું હોય તો તમે ત્યાંથી ઉત્તર દિશા તરફ આવેલા વનખંડમાં જતા રહે છે ત્યાં હર હંમેશ બે ઋતુએ હાજર રહે છે-(૧) શરદઋતુ અને (૨) હેમંતઋતુ. કાર્તિક અને માર્ગશીર્ષ આ બે માસ શરદઋતુના છે. તેમજ પિષ અને માઘ આ બે માસ હેમંતઋતુના છે રણું દેવી તેઓને શરદઋતુ વૃષભના રૂપકથી અને હેમંતઋતુ ચન્દ્રમાના રૂપથી નિરૂપિત કરતાં
For Private And Personal Use Only
Page #651
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
=
अगर
५९५
टी० अ० ८ माकन्दिदारकच रित निरूपणम् नपर्णानि तान्येव गोलाकारोन्नतत्वसाधर्म्यात् ककुत्-स्कन्धदेशो यस्य स तथोक्ताः । पुनः ' नीलुप्पलपउमनलिणसिंगो ' नीलोत्पलपद्मनलिनशृङ्गः- नीलोस्पलपद्म नलिनानि= नीलकमलविशेपास्तान्येव तीक्ष्णोभततया शृङ्गाकारपरिणतस्वात् श्रृङ्गे यस्य स तथोक्तः । पुनः - 'सारसचक्कवायर वियघोसो' सारसचकवाकरुतघोषा - सारसचक्रवाकपक्षिणां रुतमेव शब्द एवं उच्चैस्त्वगाम्भीर्य सादृश्याद् घोषो ध्वनिर्यस्य स तथोक्तः । एतादृशः शरदऋतु वृषभस्तत्र सदैव विद्यत इतिभावः ॥ १ ॥
=
सम्पति हेमन्तऋतु राशिरूपकेण माह- 'तत्थउ' तत्र तु वनषण्डे ' हेमंत ऊऊ ससी' हेमन्तऋतु शशी - हेमन्त रूपचन्द्रः सदा स्वाधीन इत्युत्तरेण सम्बन्धः । स Area: ? इत्याह- ' सियकुंदधवल जोहो ' सितकुन्दधवलज्योत्स्नः - सितकुन्दानि = श्वेतपुष्पाणि तान्येव धवला = उज्ज्वल ज्योत्स्ना = चन्द्रिका यस्य स तथोक्तः । पुनः - कुसुमियलोद्भवणसंड मंडलतलो कुसुमित लोधवन षण्डमण्डलतलः - कुसुमितः = पु· ष्पितः लोधरनपण्डः, स एव श्वेतत्वसाधर्म्यात् - मण्डलतलं = बिम्बं यस्य स तथोक्तः । ' तुषारदगधारपीवरकरो' तुपारदकधारा पीवरकरः - तत्र तुषारा = हिमकणाः, ' दकधाराः = जलबिन्दु प्रवाहास्ता एव दैर्ध्य शैत्यसादृश्यात् पीवराः = पुष्टाः कराः किरणा यस्य स तथोक्तः । एवं भूतो हेमन्तर्त्तुरूपचन्द्रस्तत्र सदैव वर्त्तत इत्यर्यः ॥ २ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कहती है कि देखो शरऋतुको हमने वृषभका रूप इसलिये दिया है कि इस ऋतु में सन और सप्तपर्ण फूलते हैं इनके फूल गोल आकारके और ऊँचे होते हैं । सोपे पुध ही जिस ऋनुरूप वृषभ के ककुद (खंदौला) है। fiorea आदि कमल ही जिस के शृंग हैं। सारस और चक्रवाक पक्षियों के शब्द ही जिसकी ध्वनि हैं ऐसा शरदऋतु रूप वृषभ उस वन में सदा विचरण करता रहता है। (तत्थ य सिय कंद धवलजोहोकुसुमिय लोद्धवणसंडमंडल तलो साहीणो ) सितकुंद - श्रेतपुष्प - ही जिस की धवलज्योत्स्ना (चांदनी) है, कुसुमित लोधवनखंडी जिसका मंडल है, हिमकण और विन्दु प्रवाह ही जिस की पुष्ट किरणें हैं ऐसा
સમજાવે છે કે જીએ શરદઋતુને અમે વૃષભનું રૂપ એટલા માટે આપ્યુ કે આ ઋતુમાં શણ અને સપ્તપણુ ખીલે છે. એમના પુષ્પા ગોળાકારના તેમજ ઊંચા હોય છે. તે આ પુષ્પાજ શરદઋતુ રૂપ વૃષભની ખાંધ ( કકુ; ) છે. નીલેાત્પલ વગેરે કમળે! જ જેના સિંગડા છે. સારસ અને ચક્રવાક પક્ષીઓ ના શબ્દો જ જેના ધ્વનિ છે એવા શરદઋતુ રૂપ વૃષભ તે વનમાં હુંમેશા वियरत ४ २७ छे. ( तत्थ य सियकंद घवल जोहो कुसुमितलोद्धत्रणसंड Ács aðì........agini ) luaz's-ufɛ yoûı oy doll 29219 alası ( 218 ) છે, ખીલેલું લેાધ વનજ જેના મડળ છે, હિમકણુ અને પાણીના વહેતાં ટીપાંમાં
For Private And Personal Use Only
Page #652
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथाङ्गो ___ तत्र स्खलु युवा हे देवानुप्रियौ ! वहोषु वापीषु च यावद् अभिरममाणौ विहरतम् = तत्र क्रीडां कुर्वन्तौ तिष्ठतम् । ___ यदि खलु युवां तत्रापि-उत्तरीयवनषण्डेऽपि उद्विग्नौ वा यावद् उत्प्लुतौ वा भवेतं तवा खलु युवाम् ' अवरिल्लं ' अपरीयं = पश्चिमदिशासम्बन्धिकं वनषण्डं गच्छतम् , तत्र खलु द्वौ ऋतू स्वाधीनौ स्वायत्तौ सर्वदा वर्तमानौ स्तः, तद्यथावसन्तश्च ग्रीष्मश्च, वसन्तः फाल्गुनचैत्रलक्षणः, ग्रीष्मा वैशाखज्येष्ठलक्षणः । पूर्व वसन्तऋतुं नरपतिरूपकेण वर्णयति-तत्थउ' तत्र तु पश्चिम दिवर्तियनषण्डे वसन्तर्तुहेमंतऋतु रूप चन्द्रमा उसवन में सदा प्रकाशित रहता है । (तत्थ णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! वावीसु य जाव विहरेज्जाह) हे देवानुप्रियों! वहां अनेक वापिकाएँ यावत् पुष्पघर भी हैं। सो तुम उनमें भी आनंद से विहार करना। (जहणं तुम्भे तत्थ उब्धिग्गा वा जाव उस्सुया वा भवेज्जाह तो णं तुम्भे अविरिल्ल वणसंडं गच्छेज्जाह-तत्थ णं दो ऊऊ साहीणा) यदि तुम दोनों जनों का मन उत्तरीयवनषंड में भी न लगेवहां वह उद्विग्न यावत् उत्प्लुत हो जावे-तो तुम दोनों पश्चिम दिशा सम्बन्धी वनखंडमें चले जाना। वहां दो ऋतुएँ सदा वर्तमान रहती है (तं जहा-वसन्ते गिम्हे य, तत्थ उ-सहकार चारुहारो, किंसुय कण्णिया रासोगमउडो, उसित तिलग पउलायवत्तो वसंत उऊणरवह साहिणो) वे दो ऋतुएँ ग्रीष्म और वसन्त हैं।
फाल्गुन चैत्र ये दो महिने वसन्तऋतु के है । वैशाख और ज्येष्ठ ये दो मास ग्रीष्मऋतु के हैं। इस पश्चिमदिशा संबन्धी वनखंड में वस. જેની પુષ્ટ કિરણે છે. એ હેમંતઋતુ રૂપ ચંદ્ર તે વનમાં હંમેશા પ્રકાશિત २९ छे. ( तत्थ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! वावीसु य जाब विहरेज्जा ह वानु. પ્રિયે ! ત્યાં ઘણું વા યાવત પુષ્પગ્રહો પણ છેતમે તેમાં પણ વિહાર કરજે.
(जइणं तुब्भे तत्थ उबिग्गा वा जाव उस्सु या वा भवेज्जाह तो णं तुम्भे अविरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह-तस्थ णं दो ऊऊ साहिणा)
ઉત્તરના વનખંડમાં પણ જે તમને બરોબર ગમે નહિ, ઉદ્વિગ્ન થઈ યાવતુ ઉસ્તુત થઈ જાય ત્યારે તમે બંને પશ્ચિમ દિશાના વનખંડમાં જતા રહેજે. ત્યાં બે ઋતુઓ સદા મોજુદ રહે છે.
(तं जहा वसन्ते गिम्हे य, तत्थ उ सहकार चारूहारो, किंस्य कणिया रासोगमउडोउसित तिलग बउलायवत्तो वसंत ऊऊ णरवइ साहीणो)
તે છતઓ ગ્રીષ્મ અને વસંત છે. ફાગણ અને રૌત્ર આ બે માસ વસંત ઋતુના છે. જ્યારે વૈશાખ અને જેઠ આ બે માસ ગરમીની ઋતુના
For Private And Personal Use Only
Page #653
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पीटी० अ० ८ मोकन्दिहारकरितनिकरणम्
५९७
नरपति: वसन्त ऋतु रूपो राजा स्वाधीनो वर्त्तत इति सम्बन्धः । स कीदृशः १ इत्याह'सहकारचारुहारो' सहकारचारुहारः - सहकाराणि - सहकार पुष्पाणि - आम्रमञ्जयः, तान्येवबहुत्वसद्भावेन हाराकार परिणतत्वाच्चारुः = सुन्दरी हारो यस्य स तथा पुनः -' किंसुयकणियारासोगमउडो किंशुककर्णिकाराशोक मुकुटः - किंशुकानि=पलाशकुसुमानि, कर्णिकाराणि कर्णिकारपुष्पाणि, अशोकानि = अशोकपुष्पाणि तान्येव मुकुटाकारपरिणतत्वान्मुकुटं = किरीटं यस्य स तथा । 'ऊसियतिलगबउलायवत्तो ' उच्छ्रिततिलकबकुलातपत्र:- उच्छ्रितानि = उन्नतानि तिलकबकुलानि = तिलक बकुलपुष्पाणि, तान्येव आतपं = छत्राकारपरिणतत्वेन छत्रं यस्य स तथोक्तः । एतादृशो वसन्तत्तनरपतिस्तत्र स्वाधीनः सदा वर्त्तते ॥ १ ॥ अथ ग्रीष्मऋतुः सागररूपकेण वयसे - ' तत्थय ' तत्र च पश्चिमदिग्वनपण्डे ' गिम्हउउसागरो ' ग्रीष्मर्तुरूपः सागरः =समुद्रः स्वाधीनः = स्वायत्तत्वेनानवरतं वर्त्तमानोऽस्ति । स कीदृश: ? इत्याह-' पाडलसिरीससलिलो ' पाटलशिरीषसलिल:- पाटलशिरीषाणि= पाटला शिरीषपुष्पाणि, तान्येव जल सादृश्यात्सलिलं= जलराशिरूपं यस्य स तथा । 'मल्लि यवासंतियधवलवेलो' मल्लिकावासन्तिकाधवलवेल :- मल्लिका वासन्तिका चलतान्तऋतु नरपति के समान सदा विचरण करती रहती है - सहकार ( आ) की मंजरियां ही इस वसन्तऋतु रूपी राजा के सुन्दर हार हैं। किं शुक-कर्णिकार एवं अशोकके पुष्प ही इस राजा के मुकुट हैं । उन्नत तिलक वृक्ष एवं बकुल वृक्ष के पुष्प ही इसके छत्र है । (तत्थ य- पाडल सिरीसलिलो मल्लियवासंतियधवलवेलो, सीयलसुरभिअनिल मग. रचरिओ गिम्हऊऊ सागरो साहीणा ) उस पश्चिमदिशा सम्बन्धी बनपंड में ग्रीष्मऋतु समुद्र के सामान सदा पसरा रहता है- गुलाब और शिरीष पुष्प ये इस ग्रीष्म ऋतु रूप समुद्र के जल हैं। मल्लिका एवं वास
છે, આ પશ્ચિમ દિશાના વનમાં વસંતઋતુ નરપતિ (રાજા) ની જેમ હંમેશા વિચરણ કરતી રહે છે સહકાર ( ખા ) ની મંજરીએજ આ વસંત ઋતુ રાજાના સુંદર હારા છે. શુક કર્ણિકાર ( કનેર ) અને અશેાકના પુષ્પા જ આ રાજાના મુકુટ છે ઊ'ચા તિલક વૃક્ષો અને બકુલ વૃક્ષાના પુષ્પાજ એના છત્ર છે,
तत्थ य पाडलसिरीससलिलो मल्लिया वासंति य धवलवेलो सीयलसुरभि अनिलमगरचरिओ गिम्ह ऊऊ सागरो साहिणो )
તે પશ્ચિમ દિશાના વનખ'ડમાં ગ્રીષ્મૠતુ સમુદ્રની જેમ હંમેશા પ્રસરાયેà રહે છે. ગુલાખ અને શિરીષના પુષ્પાજ મા ગરમીની ઋતુ રૂપ સમુદ્રના પાણી છે. મલ્લિકા અને વાસ'તિકા લતા જ જેના કિનારાએ છે. ઠંડા અને સુવાસિત
For Private And Personal Use Only
Page #654
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६९८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
विशेषः, ता एव तरङ्गाकारपरिणतत्वाद् धवला = शुभ्रा वेला यस्य स तथा । 'सीयसुरभि अनिलमगरचरियो' शीतलसुरभ्यनिलमकरचरितः - शीतलः सुरभिव योऽनिलः = वायुः स एव इतस्ततोभ्रमण सादृश्यात् मकरचरितं = मकरसञ्चारो यत्र स तथोक्तः । एवंविधो ग्रीष्मऋतुसागरस्तत्र सदैव विद्यत इति । तत्र खलु बद्दीषु वापीषु यावद् अभिरममाणौ विहरतम् = क्रीडन्तौ तिष्ठतम् । लोके तु मार्गशीर्षादिक्रमेण द्वौ द्वौ मास हेमन्त शिशिर वसन्तग्रीष्म- वर्षा - शरत्संज्ञकाः षड् ऋतवो गण्यन्ते । यदि खलु युवां देवानुपयौ । तत्रापि = पाश्विमदिग्वनपण्डेऽपि उद्विग्नौ उप्लुतौ न्ति का लताये ही जिस की वेलाएँ हैं-तट हैं - शीतल सुरभि पवन ही जिसमें मगरों का संचार हैं। ऐसा ग्रीष्मऋतु रूप सागर उस वनखंड में सदा वर्तमान रहता है । (तत्थ णं बहुसु जाव विहरेज्जाह ) वहीं पर अनेक वाfपकाएँ आदि भी हैं । सो उन में भी तुम दोनों आनन्द के साथ विचरण करते रहना । ( जहणं तुन्भे देवो०- तत्थ विउच्चग्गा, उस्सुया भवेज्जाह, तओ तुभे जेणेव पासासिए तेणेव उवागच्छेज्जाह, ममं पडिवाले माणा २ चिट्ठेज्जाह, माणं तुन्भे दक्खिणिल्लं वनसंडं गच्छेज्जाह तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे, महाविसे, अइकाय महाकाए जहा तेय निसग्गे मसिमहि सामूसा कालए नयणविसरोसपुण्णे अंजणपुंजनियरप्यगासे रसच्छे जमलजुगल चंचलचलंनजीहे, धरणियलवेणिभूए, उक्कडवुडकुडल जडिलकक्खडविडफणाडोवकरणदच्छे, लोगाहारघम्ममाणधमधर्मेतघोसे अणागलिय चंडतिव्वरोसे समुहिं तुरियं चवलं घम
પવન જ જેમાં મગરોનું સંચરણ છે. એવા ગ્રીષ્મ ઋતુ રૂપ સાગર તે નખંડમાં सहा ४२ २ छे. ( तत्थ णं बहुसु जाव विहरेज्जाह ) त्यां धी पावे। વગેરે છે. તમે અને તેમાં પણ સુખેથી વિહાર કરતા રહેશે.
( जणं तुभे देवा० तत्थ वि उव्त्रिग्गा उस्सुया भवेज्जाह तभो तुन्भे जेणेव पासाय वडिसए तेणेव उवागच्छेज्जाह, ममं पडिवाले माणा २ चिट्ठेज्जाह माण तुभे दक्खिणिल्लं वनसंड गच्छेज्जाह तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे महाविसे अकायमहाकाए जहा तेय निसग्गे मसि महिसा मूसाकालए नयण विसरोपुणे अंजणपुंजनियरप्पगा से रसच्छे जमलजुयलचंचलचलंत जी है, धरणियलवेणि भूए उक्कड पुडकुडिल जडिलककखड वियफ गाडोव करण वच्छे लोगाहार धममाणधम्मधर्मेतघोसे अनागलियचंडतिरोसे समुहिं तुरियं चल घमघमंत दिवीविसे सप्पे य परिवसह )
હું દેવાનુપ્રિયે ! ત્યાં પણુ તમને જો ગમે નહિ તમે આજ ઉત્તમ મહેલમાં
For Private And Personal Use Only
Page #655
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतषिणी टी० ० ८ मान्दिदारकपरित निरूपणम् ५५९ वा भवेतं तदा खलु युवा यत्रैव मासादावतंसका स्वावासभवनं तत्रैव उपागच्छतं पुनः स्वप्रासादावतंसके समागत्य स्थातव्यमित्यर्थः, 'मम' मां च 'पडिवाले. माणा २' प्रतिपालयन्तौ २-प्रतीक्षमाणौ २ तिष्ठतं, किन्तु मा खलु युवा 'दक्खिणिलं ' दाक्षिणात्य दक्षिणदिशासम्बन्धिकं वनषण्डं गच्छतं-युवाभ्यां दक्षिणदिग्पत्तिवनषण्डे न गन्तव्यमित्यर्थः । कस्मात् ? इत्याह-तत्र खलु महानेक:'उग्गत्रिसे' उग्रं विषं यस्य स तथोक्तः । विषस्य-उग्रत्वं दुर्जरत्वात् । एवमग्रेऽपि संयोज्यम् । एवं 'चंडविसे ' चण्ट विषः, चण्डत्वं झटिति प्रतिपदेश व्यापकत्वात् । 'घोरविसे ' घोरविषः, घोरत्वं परम्परातः पुरुषसहस्रस्यापि घातकस्वात् । 'महा. विसे' महाविषः, महत्त्वं जम्बूद्वीप परिभितशरीरस्यापि विनाशकत्वात् । ' अइ. काए ' अतिकायः-अन्यसापेक्षया दीर्धशरीरत्वात् , महाकायः-अन्यसापेक्षया स्थूल शरीरत्वात् । 'मसिमहिसमूसाकालए' मषीमहिषभूषाकालक:-मपी-कज्जल, महिपः प्रसिद्धः, मूपा-सुवर्ण द्रावणपात्रविशेषः, एतेषां द्वन्द्वे मषीमहिपमूषाः, घमंदिट्ठीविसे सप्पेय परिवसइ) यदि हे देवानुप्रियों तुम्हारा वहां न लगे-उद्विग्न एवं उत्सुक बन जावे तो फिर तुम अपने इसी श्रेष्ट प्रासोद में वापिस आ जाना और यही पर रहते हुए हमारी प्रतीक्षा करना । दक्षिण दिशा संबन्धी वनषंड में मत जाना। कारण वहां एक ऐसा बड़ो भारी सर्प रहता है कि जिस का विष बहुत अधिक दुर्जर होने से उग्र है । बहुत शीघ्र प्रति प्रदेशमें फैल जाने से चण्ड है। परम्परा से पुरुष सहस्र का घातक होने से घोर है, जंबूद्वीप के परावर शरीर का भी विनाशक होने से महान हैं। अन्य सर्पो की अपेक्षा यह सर्प बहुत लंबा है । तथा बहुत स्थूल है। मषी-कज्जल-महिषभैसा और मूषा-सुवर्ण के पिघलाने का पात्र विशेष के समान यह अत्यन्त श्यामवर्ण वाला है। इस की दोनों आँखो में विष रहता है પાછા આવતા રહે છે અને અહીં જ રહીને મારી રાહ જે જે દક્ષિણ દિશાના વનખંડમાં તમે જતા નહિ. કેમ કે ત્યાં એક બહુ મેટે સાપ રહે છે. તેનું ઝેર પૂબ જ દુર્ધર હવા બદલ ઉઝ છે. પ્રતિ પ્રદેશમાં તે સત્વરે પ્રસરી જાય છે. એટલા માટે તે ચંડ છે. પરંપરાથી જ તે પુરુષ સહસને મારનાર હોવાથી ઘર છે. જમ્બુદ્વીપ જેટલા પ્રમાણુના શરીરને પણ તે નાશ કરી શકે તેમ છે. તેથી તે મહાન છે. બીજા સાપ કરતાં તે બહુ જ લાંબે તેમજ ખૂબ જ માટે छे. भषी-४५, महिप-सो, अने भूषा-सानाने साजा भाटेनु पात्र વિશેષ-ની જેમ તે ખૂબ જ કાળા રંગ વાળે છે. તેની બંને આંખમાં પણ
For Private And Personal Use Only
Page #656
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६००
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
,
ताइव कालकः = श्यामवर्ण: ' नयणविसरोसपुण्णे' नयनविष रोषपूर्णः - नयनयो विष रोपश्च ताभ्यां पूर्णः ' अंजणपुंज नियरप्पगासे' अञ्जनपुञ्जनिकरमकाशःकज्जलपुआनां निकर:- राशिः तद्वत्मषाशः = कान्तिर्यस्य स तथोक्तः - अत्यन्त श्याम इत्यर्थः । ' रत्तच्छे ' रक्ताक्षः = रक्तनेत्रः । ' जमलजुयल चंचलचलंतजी हे ' यमल्युगलचञ्चलचलज्जिह्वः - यमले - सहवर्त्तिनौ युगले = उभे चञ्चले=चपले चलन्त्यौ • पुनः पुनर्बहिर्निस्सरन्स्यौ जिह्वे यस्य स तथा । ' धरणीयल वेणिभूए' घरणितलवेणी भूतः अतिदैर्ध्य श्यामत्यादिसादृश्यात् पृथिव्याः केशपाशसदृश: ' उक्कडफुड कुडिबडिल.खड विडफडाडोवकरणदच्छे' उत्कटस्फुटकुटिलजटिल कर्कश - विकटस्फटाटोपकरणदक्षः - उत्कटः = बलवता पि ध्वंसयितुमशक्यः स्फुट: व्यक्तः कुटिलः = वक्रः, जटिल:- सिंहवत् शटायुक्तः, कर्कशः = कठोरः, विकटच = भयङ्करो यः फटाटोप = फणाडम्बरः तस्य करणे विस्तारणें दक्षः निपुणः । लोहाधम्माणमंत घोसे' लोहाकरध्मायमान धमधमायमान घोषः - लोहा
यह बड़ा गुस्से बाज है। कज्जल पुंज की राशि के समान यह बिलकुल काला है। इस के दोनों नेत्र सदा लाल रहते हैं । इस की साथ २ रही हुई दोनों चंचल जिह्वाएँ बार २ बाहर निकलती रहती हैं । अत्यन्त दीर्घ एवं श्याम होने के कारण यह देखने में ऐसा लगता है कि जैसे मानो पृथिवी रूप स्त्री की वेणी चोटी ही हो । बलवान् पुरुष भी जिसे नष्ट नहीं कर सकता है जो व्यक्त है, कुटिल - वक्र - है, सिंह के समान aat संपन्न है, कर्कश है, और विकट - भयंकर है-ऐसी अपनी फणा के फैलाने में यह बड़ा भारी दक्ष है । भट्टी में तपते हुए लोहे का जैसे धमधम शब्द होता है उसी प्रकार इस से निकला हुआ शब्द भी धम धम ऐसी आवाज करता हुआ ही निकलता है । इस का अत्यन्त जो
ઝેર રહે છે. તે બહુ જાધી છે. કાજળના સમૂહની જેમ સાવ કાળા છે. તેના ખને નેત્રા હમેશા રાતાં રહે છે. તેની સાથે રહેનારી બને છÀા ચચળ તેમજ વારવાર બહાર નીકળતી રહે છે. મહુ લાંબા અને કાળા હાવાથી તે જોવામાં એવે લાગે છે કે જાણે પૃથ્વી રૂપી સ્ત્રીની વેણી ( ચાટી ) જ ન હાય. ખળવાન પુરુષ પણ જેને નષ્ટ કરી શકતા નથી, જે વ્યક્ત છે, કુટિલ वडे-छे, सिंहनी प्रेम शटा संपन्न ( ऐशवाजी ) छे, ईश छे, भने विष्टભયંકર-છે એવી પેાતાની ફણાને ફેલાવવામાં તે ભારે દક્ષ છે. ભઠ્ઠીમાં તપાવવામાં આવેલા લેખડના જેમ ધમ ધમ • ધ્વનિ થાય છે તે પ્રમાણે જ તેમાંથી નીકળતા ધ્વનિ પણુ ધમ ધમ " અવાજ કરતા નીકળે છે. તેને
6
For Private And Personal Use Only
Page #657
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ मान्दिदारकचरितनिरूपणम्
६०१
"
करे = लोहतापनस्थाने 'भट्टी ' इति भाषाप्रसिद्धे ध्मायमानः = परिताप्यमानो कोह: तद्वद् यद् घमघमायमानो = धम - धमेति कुर्वन् घोषः = शब्दो यस्य स तथा । ' अणागलियचंड तिब्बरो से अनाकलितचण्डतीत्रशेषः, अनाकलितः = अपरिमितः चण्डतीव्र:= अत्यन्तोग्रो रोषो यस्य स तथा । ' समुद्दि ' श्वमुखिकां= मुखवाssचरणं न इव भूषणम्, 'तुरियं त्वरितम्, ' चत्रलं ' चपल यथा स्यात्तथा ' धमधमेतदिद्विविसे ' धमधमायमानदृष्टिविषः - धमधमायमानं =जाज्व ल्यमानम् दष्टौ विषं यस्य स तथोक्तः, एतादृशः सर्पश्च तत्र परिवसति, तस्माद् माणं ' मा खलु युवां तत्र गच्छतमिति सम्बन्धः । अन्यथा - तत्र गमने - युवयोः शरीरस्य व्यापत्ति भविष्यति । एवं सा तौ माकन्दिकदारकौ ' दोच्चंपि तच्चपि ' द्वितीयमपि तृतीयमपि वारं द्वित्रिवारमित्यर्थः एवं वदति, एवमुक्त्वा वैक्रियसमुद्रातेन ' समोहण' समवदन्ति वैक्रियसमुद्रातं करोतीत्यर्थः, 'समोहणित्ता समवहस्य= समुद्वातं कृत्वा तया=देवमसिद्धया उत्कृष्टया गत्या लवणसमुद्रं त्रिससकृस्वः = एकविंशतिवारम् ' अणुपरियट्टेउ ' अनुपर्यटितुं परितोऽटितुं प्रवृत्ता चाप्यासीत्. ॥ ० ४ ॥
"
"
रोष है वह अनाकलिन अरिमित है। कुत्ते के भौंकने के समान इस की आवाज निकलती है । यह स्वरा संपन्न और बहुत ही चपल है । इस की दृष्टि में विष सदा जाज्वल्यमान रहता है ( माणं तुभं सरीरगस्स वावती भविस्सह, ते मागंदियदारए दोच्चपि तच्चपि एवं aur२ उच्चियसमुग्धाएणं समोहणहर ताए उक्किट्ठाए लवणसमुहं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेयं पवता यावि होत्था ) इस लिये तुम दोनों वहाँ मत जाना। नहीं तो तुम्हारे शरीर की कुशलता नहीं रहेगी । इसी प्रकार उस रयणा देवी ने उन माकंदि दारकों को दुवारा भी- तिबारा भी समझायो बुझाया फिर समझा बुझाकर उस ने वैक्रिय समुद्धात ઉગ્નીષ અનાકલિત-અપરિમિત-છે. કૂતરાની ભસવાની જેમ તેના અવાજ નીકળતા હું છે. આ વરા સંપન્ન અને ખૂબ જ ચપળ છે. એની આંખમાં ઝેર હમેશા જાજ્વલ્યમાન રહે છે.
( माणं तुभं सरीरगस्स वावती भविस्सर ते मागंदिपदारए दोच्चपि तच्चपि एवं वय २ देउव्वयसमुग्धारणं समोहणति २ ताए उक्किद्वार लवणसमुतिसत खुत्तो अणुपरियट्टेयं पयत्ता यात्रि होत्था )
એટલા માટે તમે બને ત્યાં જતા નહિ. નહિતર તમારા શરીરનું કુશળ રહેશે નહિ. આ પ્રમાણે જ તે રયણા દેવીએ માક દીદારકાને એ વાર ત્રણ વાર સમજાવ્યા અને સમજાવવાનું કાષ પતાવીને તેણે વૈક્રિય સમુદ્દાત કર્યાં.
डा ७६
For Private And Personal Use Only
Page #658
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
মাথায় मूलम् ---तएणं ते मागंदियदारिया तओमुहत्तंतरस्स. पासायवडिंसए सई वा रइं वा धिई वा अलभमाणा अण्णममण्ण एवं वयासो-एवं खलु देवाणुप्पिया! रयणदीवदेवया अम्हे एवं वयासी--एवं खलु अहं सकवयणसंदेसेणं सुट्टिएणं लवणाहिवइणा जाव वावत्ती भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिहं वणसंडं गमित्तए, अण्णमण्णस्स एयम पडिसुणेति२ जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति२ तत्थ णं वावीसु य जाव अभिरममाणा आलीघरएसु य जाव विहरंति, ततेणं ते मागंदियदारया तत्थवि सई वा जाव आलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे तेणेव उवा०२ तत्थ णं वावीसु यजाव आलिघरएसु य जाव विहरंति, ततेणं ते मागंदियदारया तत्थवि सतिं वा जाव अलभ० जेणेव पञ्चथिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवा०२ जाव विहरति, तएणं ते मा. गंदिय० तत्थवि सतिंवा जाव अलभ० अण्णमण्णं एवं वयासी --एवं खल्लु देवाणुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवया एवं वयासी-- एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! सक्कस्स वयणसंदेसेणं सुट्रिएण लवणाहिवहिणा जाव माणं तुम्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सति तं भवियत्वं एत्थकारणेणं, तं सेयं खलु अम्हं दक्खिणिलं किया। समुद्धात करके फिर वह उस प्रसिद्ध देवगति से २१ घार लवण समुद्र के चारों ओर पर्यटन करने में प्रवृत्त हो गई ॥ मू० ४ ॥ સમુદ્દઘાત કરીને તે પોતાની પ્રસિદ્ધ દેવ ગતિથી એકવીશ વખત લવણસમુદ્રની ચારે બાજુએ ભ્રમણ કરવામાં પ્રવૃત્ત થઈ ગઈ છે સૂત્ર “ ” !!
For Private And Personal Use Only
Page #659
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतषिण टी० अ० ९ मान्दिदारकरितनिरूपणम् ॥ वणसंडं गमित्तए त्तिकडे अण्णमण्णस्स एयमढें पडिसुणेति २ जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं गंधे निद्धाति से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अणिट्टतराए घेव, तएणं ते मागंदियदारया तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सरहिं२ उत्तरिज्जेहिं आसातिं पिहेतिर जेणेव दक्खिजिल्ले वणसंडे तेणेव उवागया तत्थणं महं एगं आघायणं पासंति अद्वियरासिसयसंकुलं भीमदरिसणिजं एगं च तत्थ सूलायतयं पुरिसं कल्लुणाई कट्टाइं विस्सराइं कुजमाणं पासंति, पासित्ता भीता जाव संजातभया जेणेव से सूलातियपुरिसे तेणेव उवागच्छंति२ ते सूलाइयं एवं क्यासी-एसणं देवाणुप्पिया! कस्साघयणे तुमं च णं के कओ वा इहं हवमागए केण वा इमेयारूवं आवत्ति पाविए ?, तएणं से सूलाइयए पुरिसे मागंदियदारए एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! रयणदीवेदेवयाए आघयणे अहण्णं देवाणुप्पिया ! जंबूदीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ कागंदीए आसवाणियए विपुलं पणियभंडमायाए पोतवहणेणं लवणसमुदं ओयाए, तएणं अहं पोय. वहणविवत्तीए निम्बुड्डभंडसारे एगफलगखंडं आसाएमि,तएणं अहं उवुज्झमाणे२ रयणदी वंतेणं संवूढे, तएणं सा रयणदीवदेवया ममं ओहिणा पासइ२ ममं गेण्हइ२ मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरति, तएणं सा रयणदीवदेवया अण्णया कयाई अहालहुसगंप्ति अवराहसि परिकुविया समाणी मम एयारूवं आवति पावइ, तं ण णजति णं देवाणुप्पिया !
For Private And Personal Use Only
Page #660
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
on
भाताधर्मकथास्ते तुम्हंपि इमेसि सरीरगाणं का मण्णे आवत्ती भविस्तइ ?, तएणं ते मागंदियदारया तस्स सूलाइयगस्त अंतिए एयमत्थं सोचा णिसम्म बलियतरं भीया जाव संजायभया सूलाइतयं पुरिसं एवं वयासी-कहण्णं देवाणुप्पिया! अम्हे रयणदीवे देवयाए हत्थाओ साहत्थि णित्थरिजामो ?, तएणं से सूलाइयए पुरिसे ते मागंदिय० एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिल्ले वणसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नामं आसरूवधारी जक्खे परिवसति, तएणं से सेलए जक्खे चोदसटमुद्दिट्रपुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमये महयार सद्देणं एवं वदति के तारयामि के पालयामि ?, तं गच्छह ण तुब्भे देवागुप्पिया ! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फच्चणियं करेह करित्ता जाणुपायवडिया पंजलिउडा विणएणं पज्जुवासमाणा चिट्ठह, जाहेण से सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एवं वदेज्जा-कं तारयामि के पालयामि?, ताहे तुब्भे वदह-अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि, सेलए भे जक्खे परं रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थि णित्यारेज्जा, अण्णहा भेन याणामि इमेसि सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ ॥सू०५॥ ___टीका-' तएणं ते' इत्यादि-ततः खलु तौ माकन्दिकदारको ततः
_ 'तएणं ते मागंदिय दारया' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) उस रयणा देवीके चले जाने के बाद (ते मागंदिय ( तएणं ते मागंदिय दारया 'इत्यादि Ast-(नएण) त्या२ ५७ (ते मागंदियदारया) ने भावी पुत्रीय
For Private And Personal Use Only
Page #661
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मैनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० ९ माकन्दिवारकरितनिरूपणम् ०५ 'पश्चात मुहूर्तान्तरात् घटिकाद्वयरूपमुहूर्तानन्तरमियः प्रासादासतंसके 'सईवा' स्मृति अतिव्याकुलचित्ततया भविष्यकालिकसुवबाहुल्यरूपां चा, 'रई वा , रति मनोमुदं वा 'धिइंवा' धृति-चित्तस्वास्थ्यं वा 'अलभमाणा' अलभमानौ सन्तौ अन्योन्यमेवमवादिष्टाम्-एवं खल हे देवानुप्रिय ! रत्नद्वीपदेवता आवामेवमवादीत्-एवं खलु अहं शक्रवचनसंदेशेन सुस्थितेन लवगाधिपतिना यावद् व्यापत्तिर्भविष्यति, 'तं' तत्-तस्मात्कारणात् श्रेयः खलु आवयो हे देवानुप्रिय! पौरस्त्य-पूर्वस्यां दिशिस्थितं वनपण्डं गन्तुम् । अन्योन्यस्यैतम प्रतिश्रृणुतः= दारया ) उन दोनों माकंदी के पुत्रो ने ( तो मुहूत्तरस्स पासाय. डिसए सई वा रइं वा धिई वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी) एक मूहूर्त भी उस श्रेष्ठ प्रासाद में अति व्याकुलित चित्त होने के कारण भविष्यत्कालिक सुख बाहुल्य रूप स्मृति को मनोमुद (मनको प्रसन्न करने वाला ) रूप रति को और चित्तस्वास्थ्य रूप धृति को नहीं पाते हुए परस्पर में ऐसा विचार किया- ( एवं खलु देवाणुप्पिया। रयणदीवदेवया अम्हे एवं क्यासी ) हे देवानुप्रिय ! रयणा देवी ने हम लोगों से ऐसा कहा है कि ( एवं खलु अहं सक्कवयणसंदेसेणं सुट्टिएणं लवणाहिवाणा जाव वावत्ती भविस्सह-तं सेयं खलु अहं देवाणुपिया! पुरच्छि मिल्लं वणसंडं गमित्तए ) " मुझे शक्रेन्द्र की आज्ञानुसार लवण समुद्राधिपति सुस्थित देव ने ऐसा आदेश दिया है कि मैं २१ बार लवण समुद्र की प्रदक्षिणा करूँ" इत्यादि से लेकर
(तओ मुहुत्तरस्स पासायवडिंसए सई वा रई वा धिई वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी)
તે મહેલમાં એક મુહુર્ત જેટલા પ્રમાણના સમયમાં પણ શાંતિ મેળવી નહિ તેઓ વ્યાકુળ ચિત્ત હોવાથી ભવિષ્યમાં પ્રાપ્ત થનારા સુખરૂપ સ્મૃતિને મનેમુદ (મનને આનંદિત કરનાર ) રૂપ રતિને અને ચિત્ત સ્વાચ્ય રૂપ पति स न ४२तां गे भीतनी साथे पिया२ १२वा सान्या. ( एवं खल देवाणुप्पिया ! रयणदीव देवया अम्हे एवं व्यासी) हेवानुप्रिय ! २य! पीने અમને કહ્યું છે કે
( एवं खलु अहं सक्कवयण संदेसेणं सहिएणं लवणा हिवइणा जाव वावत्ती भविस्सइ- तं सेयं खलु अहं देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गमित्तए)
મને કેન્દ્રની આજ્ઞાથી પ્રેરાઈને લવણસમુદ્રના અધિપતિ સુસ્થિત દેવે - હકમ કર્યો છે કે મારે એકવીશ વખત લવણું સમુદ્રની પ્રદક્ષિણા કરવી વગેરેથી
For Private And Personal Use Only
Page #662
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शांताधर्मकथासो स्वीकुरुतः, प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य यत्रैव पौरत्यो वनपण्डस्तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्य सत्र खलु वापीषु च यावद् अभिरममाणौ आलिगृहेषु च यावद् विहरतः । ततः खलु तौ माकन्दिकदारको तत्रापि स्मृतिं वा यावद् अलभमानौ यौवोत्तरीयो शरोर का विध्वंस न हो यहां तक का रयणा देवी का सब कथन यहाँ इन दोनों की बात चीत में लगा लेना चाहिये । इमलिये हे देवानुप्रिय! हम लोगों को यही अब उचित है कि हम लोग पूर्व दिशा संबन्धी वनखंड में चलें । ( अण्ण मण्णस्स एयमढे पडिसुणेति २ जेणेव पुरच्छि मिल्ले वनसंडं तेणेव उवागच्छंति २ तत्थ णं यावील य जाव अभिरममाणा आलीघरएसु य जाव विहरंति ) इस प्रकार परस्पर में किये इस विचार को उन दोनों ने मान लिया और मान कर जहां पूर्वदिशा संपन्धी वनषंड था वहाँ गये-वहाँ जाकर उन्हों ने बावड़ी आदि में खूब मन चाहा क्रीडा की बाद में वे रम्य वनस्पति विशेष के घरों आदि में क्रीडा करने लगे। (तएणं मगदियदारया तत्थ वि सति वा जाव अलभ० जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति तत्थ . बावीसु य जाव आलिघरएस्तु य जाव विहरंति) परन्तु उन माकंदी
दारकों को वहां जब भविष्यत्कालीन सुख बाहुल्य रूप स्मृति आदि कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ तो वे वहां से निकल कर जहां उत्तर दिशा માંડીને તમારું શરીર નષ્ટ થાય નહિ ત્યાં સુધીની રણુ દેવીની ઉપર કહ્યા મુજબની બધી વિગત અહીં સમજાવવી જોઈએ એવી હે દેવાનુપ્રિય ! હવે અમને એજ ગ્ય દેખાય છે કે અમે પૂર્વ દિશાના વનખંડમાં જઈએ.
(अण्ण मण्णस्स एयमढे पडिसुर्णेति २ जेणेव पुरच्छिमिल्ले वनसंडे तेणे उवागच्छति २ तत्थ णं वावीसु य जाव अभिरममाणा आलिधररसु य जार विहरंति)
આ પ્રમાણે બંને એક બીજાના વિચારોથી સંમત થયા અને ત્યાર પછી જ્યાં પૂર્વ દિશાનો વનખંડ હતો ત્યાં ગયા, ત્યાં જઈને તેઓએ વા વગેરેમાં | ખૂબ જ પ્રમાણમાં કીડાઓ કરી અને પછી તેઓ ત્યાંના જ રમ્ય વનસ્પતિ વિશેષના ગૃહ વગેરેમાં કીડા કરવા લાગ્યા.
(तएणं मागंदियदारया तत्थ वि सतिं वा जान अलभ० जेणे उत्तरिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छति तत्थणं वावीसु य जाव आलिधरए सु य जाब विहरंति)
પણ માર્કદી દારકેને ત્યાં પણ જયાને ભવિષ્યનું સુખ બાહુલ્ય રૂ૫ મતિ વગેરે કઈ મળ્યું નહિ ત્યારે તેઓ ત્યાંથી નીકળીને ઉત્તર દિશાના
For Private And Personal Use Only
Page #663
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० २०९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् वनचण्डस्तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्य तत्र खलु वापीयु च यावद् आलिगृहेषु व विहरतः । ततः खलु तौ माकन्दिकदारकौ तत्रापि स्मृतिं वा यावद् अलभमानौ यचैव पाश्चात्य वनपण्डस्तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्य यावद् विहरतः । ततः ae at मान्दिकदारकौ तत्रापि स्मृतिं वा यावद् अलभमानौ अन्योन्यमेत्रमत्रादिष्टाम् एवं खलु दे देवानुप्रिय ! आवां रत्नद्वीप देवता- एवमवदत् एवं खलु अहं देवानुप्रियो । शक्रस्य वचन मन्देशेन सुस्थितेन लवणाधिपतिना यावत् मा खलु युवयोः संबन्धी वनषंड था वहां आये। वहां आकर उन्हों ने बावडिओं में स्नान किया - यावत् आलिघरों में क्रीडा किया। (तरणं ते मार्गदिपदारगा तत्थ वि सई वा जाव अलभ० जेणेव पच्चत्थिमिल्ले वणसंडे तेणेब उवा० २ जाव विहरति ) परन्तु जब उन्हें वहां भी स्मृति आदि रूप कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ तो वे वहाँ से निकल कर पश्चिम दिशा संबन्धी चनषंड था वहां आये ।
वहां आकर उन्होंने बावड़िओ में स्नान किया और आलिघरों आदि में परिभ्रमण किया । ( तएणं ते मांगदिय० तत्थ वि स वा जाव अलभ० अण्णमण्णं एवं वयासी ) फिर भी उन माकंदी के उन दोनों पुत्रों को वहां शांति आदि कुछ भी नही मिला जब इस प्रकार की परिस्थिति उन्हों ने देखी तो परस्पर में ऐसा विचार किया ( एवं खलु देवाणुपिया ! अम्हे रयणद्दीवदेवया एवं वयोसी एवं खलु अहं देवाप्पिया ! सक्कस्स वयणसंदेसेणं सुट्टएण लवणाहिवणा जाव माणं વનખંડમાં પહોંચ્યા. ત્યાં પહાંચીને તેઓએ વાવામાં સ્તન કયુ" યાવત આલિઘરામાં ક્રીડાએ કરી
For Private And Personal Use Only
१००
( तरणं ते मार्गदियदारगा तत्थ सई वा जाव अलभ० जेणेव पञ्चस्थिमिल्ले वणसंडे तेणेत्र उवा० २ जाव विहरंति )
પણ ત્યાં પણ તેમને જ્યારે સ્મૃતિ વગેરે રૂપ કઈ પણ સુખ મળ્યુ નહિ ત્યારે તેઓ ત્યાંથી નીકળીને પશ્ચિમ શિાના વનખડમાં પહેચ્યા.
પશ્ચિમ દિશાના વનખંડમાં જઈને તેઓએ વાવામાં સ્નાન કર્યું" અને આતિઘરા વગેરેમાં વિચરણા કર્યું.
(तपणं ते मागंदिय० तत्यवि सई वा जान अलभ० अणामण्णं एवं वयासी)
ત્યાં પણ પહેલાંની જેમજ માક'દી પુત્રાને કાઇ પશુ જાતની શાંતિ વળી નહિ. આવી પરિસ્થિતિમાં તેએ એ પરસ્પર મળીને વિચાર કર્યાં ક
( एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे रयणद्दीवदेवया एवं वयासी एवं खल म देवाणुपिया ! सक्कल्स वयणसंदेसेणं सुट्टपण लवणादिवरणा जात्र माणं
-
Page #664
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०८.
हाताधर्मकथागस शरीरस्य व्यापत्तिभविष्यति, ' तं ' तत्-तस्मात्-कारणाद् भवितव्यमत्र कारणेन, तच्छ्रेयःखलु आवयो दाक्षिणात्यं वनपण्डं गन्तुम् , 'इतिकर्ट्स' इतिकृत्वा इतिनिचार्य अन्योन्यस्यैतमर्थ प्रतिश्रृणुतः, प्रतिश्रुत्य यौव दाक्षिणात्यो वनपण्डस्तत्रैव 'पहारेत्य गमणाए ' प्रधारयतो गमनाय गन्तुं प्रतौ मस्थितावित्यर्थः । ततः खलु-तदनु तुम्भं सरीरगस्स वायत्ती भविस्सइ तं भवियत्वं एत्य कारणेणं तं सेयं खलु अम्हं दक्विजिल्लं वणमंडं गमित्तए तिकटु अण्णमण्णस्स एय. मलु पडिप्सुणेति ) हे देवानुप्रिय यह तो तुम्हें ज्ञात ही है कि रयणद्वीप देवता-रयणादेवी-ने जो हमलोगों से ऐमा कहा था कि मुझे शक्रन्द्र की आज्ञा से लवणाधिपति सुस्थित देवने लवणसमुद्र की २१ पार पर्यटना करने के लिये कहा है इत्यादि २ । मो तुम दक्षिणदिशा मम्बन्धी वनषंड के सिवाय तीन दिशा सम्बन्धी वनषंडों में ही चित्त के उद्विग्न आदि होने पर जाना वहां की वावड़िओं आदि में भी स्नान आदि कर अपने मन को आनंदिन करना दक्षिणदिशा सम्बन्ध वनपंड में नहीं जाना वहां एक महाकाय विकराल सर्प रहता है। कहीं ऐमा न हो कि वहां जाने पर उसके द्वारा तुम्हारी मृत्यु हो जाय-सो उसके इस कथन में कोईन कोई कारण अवश्य होना चाहिये। अतः इस कारण की जांच के लिये हमें दक्षिणदिशा सम्बन्धीवनखंड में जाना श्रेय स्कर है। ऐसा उन्होंने परस्पर में विचार किया। और इस विचार को तुभं सरीरंगस्स वायत्ती भविस्सइ तं भवियव्यं एत्थ कारमेणं तं सेयं अलु अम्हं दक्खिणिल्लं वणसंडं गमित्तए ति कट्टु अण्णमण्णस्स एयमह पडिसुणेति )
| હે દેવાનુપ્રિય! એ વાત તમે જાણતા જ હશે કે રત્નદ્વીપના દેવતા રયા દેવીએ અમને આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે કેન્દ્રની આજ્ઞાથી પ્રેરાઈને લવણ સમુદ્રના અધિપતિ સુસ્થિત દેવે એકવીશ વાર સમુદ્રની ચારે બાજુ મારે પરિભ્રમણ કરવું છે વગેરે. તે તમે દક્ષિણ દિશા તરફના વનખંડ સિવાય બાકીના ત્રણે દિશાના વનખંડમાં ચિત્ત ઉદ્વિગ્ન થાય ત્યારે જ ત્યાંની વા વગેરેમાં
નાન વગેરે કરીને પોતાના મનને પ્રસન્ન કરજો દક્ષિણ દિશા તરફના વનખંડમાં તમારે જવું નહીં કેમ કે ત્યાં એક મોટો મહાકાળ વિકરાળ સાપ રહે છે. કંઈ એવું થાય નહિ કે તમે ત્યાં જાઓ અને તેની લપેટમાં આવીને તમારું મૃત્યુ થઈ જાય. તે તેને આ વાતમાં કંઈક રહસ્ય ચે ક્કસ હોવું જોઈએ. એટલા માટે આ રહસ્ય વિશે ત્યાં જઈને આપણે કંઈક જાણવું તે જોઈએ જ, આમ પરસ્પર વિચાર કરીને તેઓએ ત્યાં જવાને મકકમ વિચાર પણ કરી જ લીધે.
For Private And Personal Use Only
Page #665
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारक वरितनिरूपणम्
६०९
तंत्र - गमनमार्गे गन्धः 'गिद्धाइ ' निर्घावति=सावेगं समायाति कीदृशो गन्धः १ इत्याह-' से जहानामए ' तद् यथनामकम् - तथाहि - ' अहिमडेइ वा ' अहिमृतक इंति वा=मृतसर्वकलेवर मिति वा यात्रत् ' एतो वि ' तस्मादपि मृतसर्पादिकलेनरादपि ' अणित्तराए चेत्र' अनिष्टतर एव = यन्नामश्रवणेऽपि मनोऽतिविकृतं जायते । ततः खलु तौ माकन्दिकदारकौ तेनाशुभेन गन्धेन 'अभिभूयसमाणा ' अभिमृतौ व्याकुल सन्तौ स्वकेन उत्तरीयेण= उत्तरासङ्गेन 'दुपट्टा' इति प्रसिद्धेन आस्यं = मुखैकदेशरूपं स्वस्व नासिकामित्यर्थः 'पिति ' विधत्तः =समाच्छादयतः, पिधाय = नासिकामाच्छाद्य यत्रैव दाक्षिणात्यो वनपण्डस्तत्रैवोपागनौ । तत्र खलु उन्होंने आपस में निश्चित भी कर लिया। ( पडिणित्ता जेणेव दक्खि पिल्ले वणसंडे तेणेव पहारेत्य गमणाए - तरणं गंधे निद्धाति से जहा नामए अहिमडेइवा जाव अतिराए चेव, तरणं ते मागंदियदारया तेणं असुभेण गंधेगं अभिभूषा समाणा भएहि २ उत्तरिज्जेहिं आसाति पिहेति २ जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेव उवागया तत्थणं महं एगं आघायणं पासंति ) विचार निश्चित कर फिर वे दोनों जहां दक्षिणदिशा सम्बन्धी यनषंड था उस ओर चल दिया। चलते २ उन्हें मार्ग में बहुत बडी दुर्गन्ध आई। जैसो दुर्गंध मृत सर्प आदि सड़े हुए कलेवर से आती है उससे भी अधिक अनिष्टतर वह दुर्गन्ध थी ।
इस के अनन्तर उन दोनों माकंदिके दारकों ने उस अशुभ गंध से व्याकुल होकर अपने अपने मुख के एक देशरूप भाग नासिका को दुपंटू के एक देश से ढक लिया। ढ़क कर फिर वे दक्षिण दिशा संबन्धी
( पडिणित्ता जेणेत्र दाक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेत्र पहारेत्थ गमणार - तरणं गंधे, निद्धाति से जहा नामए अदिमडेइवा जाव अणिद्वतराए चेत्र तरणं ते मार्गदिय दारया ते असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहिं२ उत्तरिज्जेहिं आसातिं पिहेंति २ जेणेत्र दाक्खिणिल्ले वडे तेणेव उवागया तत्थणं महं एगं आधायणं पासंति) અને ત્યાર પછી તે અને જે તરફ દક્ષિણ દિશા સંબંધી વનખંડ હતા તે તરફ રવાના થયા. રસ્તામાં ચાલતાં ચાલતાં તેને એકદમ ખરાબ દુધ આવી. મરીને સડી ગયેલા સાપના શરીરની જ જેવી અનિષ્ટતા દુધ હાય છે તેવી જ તે દુર્ગંધ પણ હતી. માકદી દારકેાએ તે અશુભ ગધથી વ્યાકુળ થઈને પોતાના મેાંના એક દેશ રૂપ ભાગ નાકને ખેસના છેડાથી ઢાંકી દીધું. ઢાંકીને તેઓ આગળ દક્ષિણ દિશાના વનખંડમાં ગયા. ત્યાં જતાં જ તેઓએ એક શૂળી ચઢાવવાની જગ્યા જેઈ.
या ७७
For Private And Personal Use Only
Page #666
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
१
६१०
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
=
,
मदेकम् ' आघायण' आघातनम् = आघातस्थानं वधस्थानमित्यर्थः पश्यतः, तत् स्थानं कीदृशम् ? इत्याह- 'अडियरासिसयसंकुलं ' अस्थिरा शिशतसकुलम्-अस्थनां राशिः = पुञ्ज:, तेषां शत नि, तैः कुलं व्याप्तम् भीमदरिसणिज भीमदर्शनी यम् - दर्शनमात्रेऽपि भयजनकम् । पुनश्च तत्रैकं 'सुलाइतयं' शूलाचितकं =शूलारोपितं पुरुषं 'कलुगाई' करुणानि करणाजनकानि कट्टाई' कष्टानि हृदयदुःखोत्पादकानि ' विरमराई' ' विस्वराणि=विकृतध्वनिकानि वचनानि 'कुज्जमाणं ' कूजन्तम् = अव्यक्तरूपेणोच्चरन्तं पश्यतः । दृष्ट्वा च भीतौ ' जाव' यावत् - यावच्छ- स्तौतित्रा प्राप्तौ उद्विग्नौ इति, 'संजायभया ' सञ्जातभयौ प्राप्तभयौ तौ यत्र स शुचित पुरुषस्त्रोपागच्छतः उपागत्य तं शूलाचितं पुरुषइस वनषंड में गये। वहां जाते ही उन्हों ने एक शूली चढानेका का स्थान देखा । (अपरासिसयसंकुलं भीमदरिसणिज्ज एगंच तत्थ सूलाइतर्य पुरिसं कलुगाई कट्ठाई विस्सराई कुज्जमाणं पासंति पासित्ता भीया जाब संजातभया जेणेव से सूलातियपुरिसे तेणेव उवागच्छंति) जिस में सैकडों हड्डियों के ढेर लगे हुए थे। एवं जो देखने में बड़ा भयप्रद था। वहीं पर उन्हों ने शूली पर चढे हुए एक पुरुष को देखा जो बहुत बुरी तरह चिल्ला चिल्ला रहा था । उसके इस चिल्लाने की आवाज को सुनकर हृदय में दया का प्रवाह बहने लग जातो था । साथ २ में चित्तमें दुःख भी होने लगता था । उसको देखकर ये दोनों भयभीत हो गये । श्रास एवं उद्वेग से युक्त बन गये। इसी स्थिति में ये दोनों जहां वह शूलीपर चढा हुआ पुरुष था, वहां पहूचे ( उवागच्छित्ता) वहां पहुँच कर (तं सुलाइयं एवं बयासी) उन्हों ने उस शूलारोपित मनुष्य से इस
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( अयि सिसयसंकुलं भीमदरसणिज्जं एगं च तत्थ सूलाइतयं पुरिसं कलुणाई कट्ठाई कुज्नमाणं पासंति पासित्ता भीया जात्र संजातमया जेणेव से सूलातियपुरिसे तेणेत्र नगच्छंति )
ત્યાં સેકડા હાડકાંઓના ઢગલા પડ્યા હતા. ત્યાંનું દૃશ્ય એકદમ ભયપ્રદ હતું. તેઓએ ત્યાં શૂળી ઉપર ચઢેલા એક માણસને જોયે કે જે બહુજ ખરાબ રીતે કરુણુ ક્ર ંદન કરી રહ્યો હતા. તેની કરુણા ભર્યા અવાજને સાંભળીને હૃદયમાં દયાના પ્રવાહ વહેવા લાગતા હતા. અને સાથે સાથે તેની એવી દુર્દશા જોઈને મનમાં દુઃખ પશુ થતું હતું. તેએ અને તેને જોઇને ડરી ગયા. ત્રાસ અને ઉદ્વેગ યુક્ત થઈ ગયા. આ પ્રમાણે તેએ અને જ્યાં તે માણસ શૂળી ઉપર बटडी रह्यो हतो त्यां गया. ( उबगच्छता ) त्यां बहने ( तं सूल इयं एवं बयासी ) तेथे शूजी उपर सटता माणुसने या प्रभाो उछु }
For Private And Personal Use Only
Page #667
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० ९ मान्दिदारकचरितनिरूपणम् मेवमवादिष्टाम् - एतत्खलु हे देवानुप्रिय ! कस्याघातनं वधस्थानम् ? त्वं च खलु कोऽपि कुतो वा कस्मात्स्थानात् इह हव्यमागतः समागतः ? केन वा इमामेतपामापत्ति प्रापितः ? । ततः खलु स शूलाचित्तकः शूलारोपितः पुरुषो माकन्दिक दारकावेवमवदत्-एवं खलु हे देवानुप्रियो रत्नद्वीपदेवताया आघातनं-रत्नद्वीप देवतया स्थापितं वधस्थानम्-अहं खलु हे देवानुप्रियौ ! जम्बूद्वीपात्-जम्बूद्वीपा: भिधानाद् द्वीपाद भारताद् वर्षा=भरतक्षेत्रात् काकन्दीनगर्या ' पासवाणियए' अश्ववाणिजका अश्वव्यापारी विपुलं 'पणियभांडं' पणितभाण्डविक्रेय वस्तुजातम् , आदाय गृहीत्वा पोतबहनेन लवणसमुद्रम् ‘ओवाए ' अवयातः भवगाप्रकार कहा-(एस णं देवाणुप्पिया! कस्साघयणे तुमं च णं केकओवा इहं हन्चमागए केण वा इमेयारूबंआवत्तिपाविए ? तएणं से सूलाइयए पुरिसे मागंदियदारए एवंवयासी-एसणं देवाणुप्पिया! रयणदीव देवयाए आघयणे अहण्णं देवाणुप्पिया ! जंबूद्दीवाओ दीवाओ भारहाओवासाओ कागंदीए आसवाणियाए विपुलं पणिय भंडमायाए पोहवहणेणं लवणसमुई
ओवाए) हे देवानुप्रिय ! 'कस्साधयणे' यह शली स्थान किसका हैं। तुम कौन हो? यहां कहांसे आये हो ? और किसने तुम्हें इस आपत्तिमें डाला है। उन की इस बात को सुनकर उस शलारोपित पुरुष ने उन दोनों माकंदी-दारकों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियों ! यह शूली स्थान रयणादेवीका है,में हे देवानुप्रियो ! जंबुद्वीप नाम के द्वीपमें वर्तमान भरत क्षेत्रस्थ काकंदी नाम की नगरी का निवासी अश्ववणिक-घोडों का व्यापारी हूँ। मैं वहां से क्रियवस्तु समूह को लेकर नौकाद्वारा इस ___ (तएणं देवाणुप्पिया ! कस्साघयणे तुमं च णं के कओवा इहं हन्नमागए केणवा इमेयारूवं आवत्तिं पाविए ? तएणं से मूलाइयए पुरिसे मागंदियदारए एवं वयासी- एसणं देवाणुप्पिया ! रयणदीवदेवयाए आघयणे अहणं देवाणु. पिया ! जंबू दीवाओ दीवा-ओ भारदाओ वासाओ कारदीए आसवाणि पाए विपुलं पाणिय भंडमायाए पोमवह गेणं लवण समुदं ओयाए ) ।
હે દેવાનુપ્રિય! આ શૂળ સ્થાન કોનું છે ? તમે કેણ છે? અહીં તમે . ક્યાંથી આવ્યા છે ? અને કેણે તમારી આવી હાલત કરી છે? તેઓની વાત સાંભળીને થળી ઉપર લટકતા માણસે માકંદીદારને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે देवानुप्रियो ! ! २जी-२था। २य! छे. वानुप्रियो ! हु दीप નામના દ્વીપમાં વિદ્યમાન ભરતક્ષેત્રને કાકંદા નામની નગરીને રહીશ છું. હું અશ્વ વણિક-ઘેડાને વેપારી-છું. ત્યાંથી હું વેચાણની વસ્તુઓ સાથે લઈને ना१५3 An any समुद्रमा यात्रा ४२ते. मा० .. ( तणं भई पोष
For Private And Personal Use Only
Page #668
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
होताधर्मकदासत्रे हितवान् । ततः खलु अहं ' पोत्ताहणवित्र तोए' पोतवहनविपत्तौ, नौकायर्या भग्नामं सत्यां निबुड भंडसारे' निब्रुडितभाण्डसारः जलनिमग्नवस्तु पारः, एकं फलकखण्डमासादयामि । ततः खल्वहं 'उब्बुज्झमाणे २ उखुध्यमानः २ उतरन् २ रत्नद्वीपान्ते-रत्नद्वीपसमीपे खलु 'संबूढे ' संव्यूढः तीरं माप्तः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता माम् ' ओहिणा' अधिना=अधिज्ञानेन पश्यति, दृष्ट्वा मां गृति, गृहीत्वा मया साई विपुलान् भोगमोगान् शब्दादिविषयान् ‘भुनमाणी' भुनाना ' विहरइ ' विहरति आस्तेस्म । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता, अन्यदा कदाचिन 'अहालहुसगंसि' यथालघुस्वके यथाप्रकारके लघुस्वरूपे स्तोकमानेऽपराधे परिकुपि. लखणसमुद्र में उत्तरा (तएणं अहं पोयवहणविवत्तीए) भाग्यवशात् मेरी नौका इस समुद्र में टकरा जाने से दूधगई । (निबुहुभंडसारे एगे फलगखंडं आसाएमि) इस तरह जिसका समस्त वस्तुसार जलनिमग्न हो चुका है ऐसे मुझे वहीं पर एक काष्ठफलक प्राप्त हो गया । (तएणं अहं उबुज्झमाणे२ रयणदीवं तेणं संवुडे) उसकी महायतासे तैरताहुआमैं इस रत्नद्वीपके पास आपहुंचा। (तएणं सारयणदीवदेवया ममंओहिणा पोसह) इतने में उस रत्नद्वीपदेवी ने मुझे अपने अवधिज्ञान से देख लिया(पासित्ता ममं गेहह, गेण्हित्ता मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाई भुंज माणी विहरइ तएणंसारयणदीवदेवया अपगया कयाइं अहालहुसगंसि अपराहंसि परिकुविया समाणी ममं एयारूवं आवत्ति पावेइ तं न
ज्जहणं देवाणुप्पिया ! तुम्हंपि इमेसि सरीर गाणं का मण्णे आवत्ती भविस्सह ?) देखकर उसने मुझे अपने पास रख लिया। रखकर मेरे साथ उसने मन चाहे खूब कारभोगोंको भोगा। किसी एक बहणं विवत्तोए ) दुर्भाग्यथी भारी नाव २मा समुद्रमा मथ ने भी इ. (निब्बुइभंडसारे एगं फलग-खंडं आसाएमि ) मा रीते वयानी मधी॥ વસ્તુઓ જ્યારે પાણીમાં ડૂબી ગઈ ત્યારે પાણીમાં જ એક લાકડું મને મળી गयु. ( तएणं अहं उबुज्झमाणे २ रयणदीवं तेणं संवूडे ) तेना 6५२ तरत मा २लदीपनी पासे मानी पडाव्या. ( तएणं सा रयणदोवदेवया ममं ओहिणा पासइ) मेटम ते २९नदी५ वीमे भने पोताना विज्ञानयी ने सीधी.
(पासित्ता ममं गेण्हइ, गेण्हित्ता मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरइ तएणं सा रयणदीवदेवया अण्णया कयाई अहालहुपगंसि अवराहसि परिकुविया समाणी ममं एयारूवं आवत्तिं पावेइ तं न णज्जति णं देवाणुप्पिया ! तुम्हंपि इमेसि सरोरगाणं कामण्णे आवत्ती भविस्सइ ? )
જઈને તેણે મને પિતાની પાસે રાખી લીધું અને રાખીને મારી સાથે
For Private And Personal Use Only
Page #669
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
narrataff
अ० ८ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम्
वा सती मामेद्र गमापतिं प्रापयति तन ज्ञायते खडु हे देवानुमियो । युवयोरप्यनयोः शरीरयोः का= कीदृशी आपत्तिर्भाविष्यति । इति 'मन्ने' मन्ये चिन्तयामि ।
ततः खउस शूलाचित पुरुषस्तौ माकन्दिकदारकौ एवम गीत्-पप खल हे देवानुप्रियो ! पौरस्त्ये वनपण्डे शैलकस्य यक्षस्य यज्ञायतने शैलको नाम अश्वसमय मेरे द्वारा उसका थोड़ा सा अपराध बन गया सो उस थोड़े से अपराध के बन जाने पर वह बहुत अधिक कुपित हो गई । कुपित होकर उसने झे फिर इस विपत्ति में डाल दिया है । अतः है देवानुप्रियों । तुम दोनों के शरीर की भी कैसी दशा होगी यह कौन जान सकता है - मैं इसीका विचार कररहा हूँ । (तएणं ते मार्गीियदारया तस्स सुलाइयास अंति एयम सोच्या गिसम्म बलिय रं भीया जाव संजायभया सूलाइसयं पुरिसं एवं वयासी) इस तरह उस शूलारोपित पुरुष के मुख से इस बात को सुनकर और उसका अच्छी तरह हृदय से विचार कर वे दोनों माकंदी-दारक चिततर- अत्यंतभयभीत हो गये यावत् भयत्रस्त होकर उन्हों ने फिर उस शूलारोपित पुरूष से इस प्रकार कहा ( कहणं देवाणुपिया ! अम्हे रयणदीव देवयाए हत्थाओ साहस्थि त्थिरिज्जामो ? ) हे देवानुप्रिय ! हम लोग कैसे इस रयणा देवी के हाथ से शीघ्र साक्षात् छूट सकते हैं- ( तरणं से सुलाइए पुरिसे ते मागंदिय० एवं वयासी एसणं देवाणु लिया ! पुर
તેણે ઈચ્છા મુજબ કામ લાગે! ભગવ્યા. કાઈ એક વખતે મારાથી સહેજ ભૂલ થઈ ગઈ. તે મારી સહેજ ભૂલથી પણ અત્યધિક ગુસ્સે થઈ ગઈ અને તેણે ત્યાર પછી મારી આવી હાલત કરી છે. એથી હે દેવાનુપ્રિયે ! તમારા શરીરની પણ શી દશા થશે ? તે કાણુ જાણી શકે તેમ છે. હુ અત્યારે એજ વિચાર કરી રહ્યો છું.
( तरणं ते मार्गदियदारया तस्स मूलाश्यगरूप अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म बलियतरं भीया जाव संजायभया सूलाइस पुरिसं एवं वयासी ) આ શૂળી ઉપર લટકતા માણસના માંથી આ બધી વિગત જાણીને તેના ઉપર ખૂબ જ ગંભીરતાથી વિચાર કરીને તેએ અને માર્કદી દારા ખૂત્ર જ-ભયભીત થઈ ગયા. યાવતુ ભયંત્રસ્ત થઇને તેએ બંનેએ શુળી ઉપર લટકતા માણસને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
( देवाणुपिया ! अम्हे रणदीप देवया हत्थाओ साहस्थि पित्थरिज्जामो) હે દેવાનુપ્રિય! રયણા દેવીના હાથમાંથી અમે જલ્દી કેવી રીતે મુક્ત
થઈ શકીએ ?
For Private And Personal Use Only
Page #670
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताकथाजसत्रै रूपधारी यक्षः परिवसति वर्तते । ततः खलु स शैलको यक्षः 'चोइसट्टमुदिट्टपुण्ममासिणीसु' चतुर्दश्यष्टम्युदिष्टपौर्णमासीषु-चतुर्दश्यामष्टम्याम् ‘उद्दिष्ट' त्ति अमावास्यायां पूर्णिमायां च तिथौ ' आगयसमए ' आगतसमये-आसन्नीभूता. वसरे पत्तसमए ' प्राप्तसमये उपलब्धावसरे साक्षादेवावसरे, यथोचितसमयं सम्पाप्येत्यर्थः महता महता शब्देन-उच्चैः स्वरेण एवं वदति- के तारयामि ? कं पालयामि-रक्षयामि?, इति, ' तं' तत् तस्मात् गच्छतं खलु युवां हे देवानुपियौं ! पौरस्त्यं वनषण्डं, शैलकस्य यक्षस्य 'महरिहं ' महाही महायोग्यां 'पुप्फचणिय' च्छिमिरले वणसंडे सेलगस्स जखस्त जक्खाययणे सेलए नामं आ. सरुवधारी जवखे परिवसइ) उन की इस प्रकार की बात सुनकर उस शुलारोपित पुरूष ने उन माकंदी दारकों से इस प्रकार कहा । हे देवानु मियों ! पूर्व दिशा की वनषंड में एक शैलकयक्ष का यक्षायतन है। उस में अश्वरूप धारी शैलक नामका यक्ष रहता है। (तएणं से सेलए जक्खे चोद्दसट्टमुहिठ्ठपुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमए महयार सद्देणं एवं वयइ, कं तारयामि, कंगलयामि ? तं गच्छह गं तुम्भे देवाणु पिया ! पुरच्छिमिल्ल वर्णसंडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुष्फच्चणिय करेह, करिता जाणुपायवडिया पंजलि उडा विण एणं पज्जुवासमाणा चिट्ठह, जाहेण से लए जरखे आगतसमए पतप्तमए एवं वदेज्जा के तारयामि क पालयामि ? ताहे तुम्भे व्यह अम्हे तारयाहि अम्हे पाल याहि ) वह शैलक यक्ष चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या एवं पूर्णमासी
(तएणं से मूलाइयए पुरिसे ते मागंदिय० एवं वगसी एस गंदेवाणुप्पिया! पुराच्छिमिल्ले वणसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नाम आसरून धारी जक्खे परिवसइ)
તેઓની આ પ્રમાણેની વાત સાંભળીને તે શૂળી ઉપર લટકતા પુરુષે માર્કદી દારકોને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે ! પૂર્વ દિશાના વનખંડમાં એક શેલક યક્ષનું યક્ષાયતન છે. ત્યાં અવરૂપધારી શૈલક નામે યક્ષ રહે છે.
(तएणं से सेलए जक्खे चोदयपुद्दिदगुण्ण नासिगीसु आगयसमए पत्त समए मध्या २ सण एवं व इ. कं तारयामि कं पालपानि ? तं गच्छह ण तब देवाणुपिया ! पुरच्छिमिल्लं वग संडे से लगस जखम्स महरिहं पुप्फ
शियं करेह, करिता जाणुगायवडिया पंजलिउडा विणएणं पन्जुसमाणा चिट्टा, जाहेणं सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एवं वदेज्ना के तारयामि के पाळयामि ? वाहे तुम्भे वयह अम्हे तारयाहि अम्हे पालयादि)
For Private And Personal Use Only
Page #671
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० ९ माकन्दिदार कचरितनिरूपणम ११५ पुष्याचनिकां कुरुतं, कृत्वा जानुपादपतिती-जानुनीपादौच भूमौ निधाय विनम्री. भूतौ पंजलिउडा' प्राञ्जलिपुटौ संयोजितकर पुटौ, हस्तौ संयोज्येत्यर्थः ‘विणएणं' विनयेन-नम्रभावेन 'पज्जुवासभाणा' पर्युपासीनौ-त से वमानौ तिष्ठतम् , यदा खलु स शैलको यक्ष आगतसमये अवसरे समागते प्राप्तममये उपलब्धासवरे एवं वदेत्-'के तारयामि कं पालयामि ? ' इति. तदा युवां वदतम्-हे शैलक यक्ष ! आवां तारय, आवां पालय । शैलको ‘भे' युवाभ्यामाराधितो यक्षः 'परं' समर्थः, स युग रत्नद्वीपदेवताया हस्तात् ' साहत्यि ' साक्षात् णित्यारेजा' निस्तारयिष्यति पारं नेष्यति, सङ्कटान्मोचयिष्यतीत्यर्थः, अन्यथा एवमकरणे में युयोः न जानामि अनयोः शरीरयोः का-कीटशो आपत्तिर्भविष्यति , इति 'मन्ने' मन्ये अहं चिन्तयामि ।। सू. ५ ॥ के दिन उचित समय प्राप्त होने पर बडे जोर २ से ऐसा कहता है कि मैं किसको तारूं किसकी रक्षा करूँ ? इस लिये हे देवानुप्रियो! तुम दोनों पूर्व दिशा मंबन्धी वनषंड में जाओ और वहां उस शलक यक्ष की आराधना करो। आराधन करके फिर उस के समक्ष दोनो घुटनों को और पैरों को टेककर- भूमिपर रखकर- अत्यन्ननमे हुए घडे विनय के साथ दोनों हाथों को जोड़ कर उसकी उपासना करने में लग जाओं । जय वह शैलक यक्ष अवसर आने पर वैसा कहे कि मैं किसे तारूं किसे रक्षित करू ? तो तुम दोनों कहना हे शैलक यक्ष ! हम दोनों को यहां से तारों हमारी रक्षा करो। (सेलए भे जक्खे पर रयण दीव देवयाए हत्थाओ साहत्यि णित्यारेज्जा अण्णहा भे न याणामि इमेमि सरोरगाणं का मण्णे आवई भविस्सह) इस तरह तुम
તે શેલક યક્ષ ચશ, આઠમ, અમાવસ્યા અને પૂનમના દિવસે ઉચિત સમય પ્રાપ્ત થતાં બહુ મોટેથી આ પ્રમાણે કહે છે કે કોને હું પાર પહોંચાડું ? કેની હું રક્ષા કરૂં ? એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયો ! તમે બને પૂર્વ દિશાના વનખંડમાં જાઓ અને ત્યાં તે ફલક યક્ષની આરાધના કરો. આગધના કરીને તેની સામે અને ઘૂંટણ અને પગે ટેકાને ઘણું જ નમ્ર શબ્દમાં વિનયની સાથે બંને હાથ જોડીને તેની ઉપાસના કરવા લાગે, જ્યારે તે શૈલક-યક્ષ સમય આવતાં આ પ્રમાણે કહેવા લાગે કે કોને હું પાર ઉતારું અને કેની રક્ષા કરૂં? ત્યારે તમે બંને વિનંતી કરતાં કહેજે કે-હે લક યક્ષ ! અમે બંનેને અહીંથી પાર ઉતારો અમારી રક્ષા કરો.
सेलए भे जक्खे पर रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहस्थि णित्थारेज्जा अण्णहा भे न याणामि इमेसि सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ).
For Private And Personal Use Only
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथा ___ मूलम्-तएणं ते मागंदिय० तस्स सूलाइयस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म सिग्धं चंडं चवलं तुरियं बेइयं जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जेणेव पोक्खरिणि तेणेव उवा० पोक्खरिणि ओगाहतिर जलमज्जणं करोतिर जाई तत्थ उप्पलाइं जाव गेण्हंति२ जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्खा. ययणे नेणेव उ०२ आलोए पणामं करोतिर महरिहं पुप्फच्चणियं करेंति२ जाणुपायवडिया सुस्सूसमाणा णमंसमाणा पज्जुवासंति, तएणं से सेलए जक्खे आगतसमये पत्तसमए एवं वयासी-कं तारयामि कं पालयामि ?, तएणं ते मागंदियदारया उट्टाए उटुंति उहित्ता करयल० एवं वयासी -एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुभं मए सद्धि लवणसमुई मझ२ वीइवयमणाणं सा रयणदीवदेवया पावा चंडा रुदा खुदा साहसिया बहुहिं खरएहि य मउएहि य अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उपसर्ग करेहिह, तं जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! रयणदीवदेवयाए एयमटुं आढाह वा परियाणह वा अवयक्खह वा
दोनों के द्वाग आराधिन हुओ वह शैला यक्ष तुम दोनों के रयणादेवी के हाथ से साक्षात् निस्तारित करवा देगा-अर्थात् उस के संकट से तुम्हे छुडवा देगा-नही तो कौन कह सकता है कि तुम्हारे शरीर की क्या दशा हो। में हमी धान का विचार कर रहा हूँ। मूत्र “५"
આ પ્રમાણે તમારા વડે આરાધાયેલા તે શૈલક યક્ષ રણ દેવીના લપેટ. માંથી સાક્ષાત્ તને બંનેને મુક્ત કરશે. એટલે કે તેને સંકટમાંથી તમને તે છોડાવશે. નહિતર તમારા શરીરની શી દશા થશે ? તે કોણ જાણી શકે तम छ. पियार ४२ रह्यो छुः ॥ सूत्र "५"॥
For Private And Personal Use Only
Page #673
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० भ० ९ माकन्दिदारक परितनिरूपणम्
तो भे अहं पिट्ठातो विहुणामि, अहणं तुब्भे रयणदीवदेवया एयमहं णो आढाह णो परियाणह णो अवयक्खहतो भे रणदीवेदेवया हत्थाओ साहत्थि णित्थारेमि, तएणं ते मार्गदियदारया सेलगं जक्खं एवं वयासी जपणं देवाणुप्पिया ! वइस्सइ तस्सणं उववायवयणिद्दे से चिट्ठिस्सामो, तएणं से सेलए जक्खे उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ२ वेडव्वियस मुग्धाएणं समोहणइ समोहणित्ता संखेजाइं जोयणाई दंड निस्सरेइ निस्सरिता दोच्चं पिवेउब्विय समु० २एगं महं आसरूवं विउव्वइ२ ते मार्गदियदारए एवं वयासी-हं भो मार्गदिया ! आरुह णं देवाप्पिया ! मम पिट्ठेसि, तपणं ते मागंदिय० ह० सेलगस्स जक्खस्स पणामं करेंतिर सेलगस्त पिट्ठि दुरुढा, तरणं से सेलए ते मार्गदिय० दुरूढे जाणित्ता सत्ततालप्यमाणमेत्ताई उड्डुं वेहासं उप्पयति, उप्पइन्ता य are उक्किहाए तुरियाए देवगईए लवणसमुदं मज्झमज्झेणं जेणेव जंबूदीव दीवे जेणेव भारहेवासे जेणेव चंपानयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ६ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
टीका- ' तरणं ते ' इत्यादि । 'तपणं' ततः खलु तौ माकन्दिकदारकौ तस्य शूलाचितकस्थान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य शीघ्रं चण्ड = प्रवलं, चपलं, ' तरणं ते मागंदिय० ' इत्यादि ।
6
तणं ते मागंदिय ' इत्यादि ।
टीकार्थ - ( नए) इसके बाद (ते मागंदिय दारया) वे दोनों माकंदी के दारक (तस्म खुलाइयस्स अंतिए एयमहं सोच्वा ) उस शूलारोपित
( तस्स राइ
था ७८
६१७
टीअर्थ (तणं) त्यारपछी (ते मार्ग दियदारया) तेथेो मने भाउही हार अमे अतिए एयमट्ठे सोच्चा ) शूणी उपर बटता यु३षनी वात
For Private And Personal Use Only
Page #674
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६१८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
3
त्वरितं, ' वेइयं ' वेगितं = सवेगं यथास्यात्तथा शीघ्रातिशीघ्रमित्यर्थः यचैव पौररस्यं वनपण्ड यत्रैव पुष्करिणी=वापी तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्य पुष्करिणीमवगादेते = अन्तः प्रविशतः, अवगाह्य जलमज्जनं = जलस्नानं कुरुतः, कृत्वा यानि तत्र उत्पलानि वा पद्मानि वा यावर गृह्णीतः, गृहीला यंत्र शैलकस्य यक्षस्य यक्षाय - तनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य ' आलोए' आलोके यक्षदर्शने सति प्रणामं कुरुतः कृत्वा महाई - महायोग्यां पुष्पार्चनिकां कुरुतः, कृखा जानुपादपतितौ = विनम्रका 'सुस्समाणा' शुश्रूषमाणौ यक्षसेवां कुर्त्राणौ ' णमंसमाणा ' नमस्यन्तौ = नमस्कारं कुर्वाणौ ' पज्जुवासंति' पर्युपासातेस्म, सेवां कृतवन्तौ । ततः खलुः स शैलको यक्ष आगतसमये प्राप्तसमये एवमवादीत् -' कं तारयामि कंपालापुरुष के मुख सें इस बात को सुनकर (निसम्म ) और उसे अपने चिप्स में निश्चित कर (सिग्धं चंडं चवलं तुरिय वेइय जेणेव पुरच्छि मिल्ले वणस डे जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छह, उवागच्छिता पोक्खरिणी ओगाहंति, ओगाहिता जलमज्जण करेंति, करिता जाई तत्थ - उप्पलाई जात्र गेव्ह ति, गेव्हिन्ता जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्वाययणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता आलोए पणाम करेंति ) शीघ्र ही वहां से बहुत जल्दी स्वरायुक्त बन जल्दी २ दौड़ते हुए से होकर जहां वह पूर्व दिशा संबन्धी वनषंड - तथा पुष्करिणी थी वहां आये । वहाँ आकर उन्होंने पुष्करिणी में अवगाहन किया फिर स्नान किया । फिर उस से कमल थे वहां से लिया और लेकर जहां शैलक यक्ष का यक्षायतन था उस ओर चल दिये। वहां पहुँचते ही उन्होंने यक्ष के दिखलाई पड़ते नमस्कार किया । ( करिता महरिहं सांलजीने (निसम्म ) अने तेने पोताना मनमां उसावीने
( सिग्घं चंड चवलं तुरियं वेइयं जेणेत्र पुरच्छिमिल्लो वणसंडे जेणेव पोक्ख रिणी तेणेव उवागच्छर उनागच्छित्ता पोक्खरिणी ओगाहंति, ओगाहित्ता जल मज्जणं करेंति, करिता जाई तत्थ उप्पलाई जाव गेण्हंति, गेण्डित्ता जेणेव सेलगस्स जक्खस्सं जक्वाययणे तेणेव उत्रागच्छंति, उवागच्छित्ता आलोए पणामं करेंति ) સત્વરે ત્યાંથી શીઘ્ર ચાલથી દોડતા દોડતા જ્યાં તે પૂર્વ દિશા સબંધી વનખંડ તેમજ પુષ્કરણી હતી ત્યાં પહેાંચ્યા. ત્યાં પહેાંચીને તેઓ પુષ્કરણીમાં ઉતર્યાં અને સ્નાન કર્યું. પુષ્કરણીમાં જેટલાં કમળા ખીલેલાં હતાં તેઓને લઈ લીધાં અને ત્યાર પછી શૈલક યક્ષના યક્ષાયતન તરફ રવાના થયા. ત્યાં પહાંચીને તેઓએ ચક્ષની સામે જતાં જ નમન કર્યું
For Private And Personal Use Only
Page #675
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० ९ माकम्दिदारक परितनिरूपणम् ॥ यामि ? ' इति । ततः खलु तौ माकन्दिकदारको ' उढाए ' उत्थया स्वकीयोस्थानशक्त्या — उति ' उत्तिष्ठतः, उत्थाय करतलपरिगृहीतं शिरआवत दशनखं मस्तकेऽअलि कृत्वा एवमवादिष्टाम्-'आवां तारय, आवां पालय ' इति । ततः खलु स शैलको यक्षस्तौ माकन्दिकदारको एवमवादीत्-एवं खलु हे देवानुप्रियो ! युवयो मया साई लवणसमुद्र मध्यमध्येन अन्तरामार्गेण 'वीइवयमाणाणं ' व्यतिपुष्कचणियं करेंति-करिता जाणु पायवडिया सुस्सूसमाणा णमंसमाणा पज्जुवासंति, तएणं से सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एवं वयासी-कं तारयामि कं पालयामि तएणं ते मागंदियदारया उदाए उठेति उहित्ता करयल० एवं वयासी-अम्हे तारयाहिं अम्हें पालयाहि ) नमस्कार कर फिर उन्हों ने उस की आराधना-की। आराधन कर के फिर वे दोनों अपने घुटने और पैर टेक कर उस के चरणों पर पड़ गये। इस प्रकार घार २ उस की सेवा करते हुए वे वहां रहने लगे-जय उचित अवसर प्राप्त हुआ और उस शैलकयक्ष ने ऐसा कहा-किमैं किस को तारू, किस को पार उतारूँ-तो उसी समय उठ कर इन दोनों माकंदी दारकों ने उस से दोनों हाथ जोड़ कर ऐसा कहा-आप हमें तारिये हमें पार उतारिये-(तएणं से सेलए जक्खे ते मागंदिय० एवं वयासी ) उस दोनों माकंदी-दारकों को इस बात को सुनकर उस शैलक यक्ष ने उन से ऐसा कहो- ( एवं खलु देवाणुपिया! तुम्भं मएसद्धि लवणसमुदं मज्झं २ वीइवयमणाणं सा रयगदीवदेवया
(करिता महरिहं पुष्चगियं करेंति-करिता जाणुपायवडिया सुस्वममाणा णमंसमाणा पज्जुवासंति, तएणं से सेलए जक्खे आगत समए पत्तसमए एवं वयासी कं तारयामि कं पालयामि तएणं ते मागंदिय दारया उठाए उठेति उहिता करयल० एवं वयासी- अम्हे तारयाहिं अम्हें पालयाहि )
નમન કરીને તેઓએ તેની આરાધના કરી. આરાધના કરીને તેઓ બંને જમીન ઉપર ઘૂંટણ ટેકીને તેને ચરણમાં આળેટી ગયા. આ રીતે વારંવાર તેની ઉપાસના કરતાં તેઓ બંને ત્યાં જ રહેવા લાગ્યા. જ્યારે ઉચિત સમય આવ્યો ત્યારે શૈલક યક્ષે એમ કહ્યું–કે કેને હું તારું અને કેને પાર ઉતારે તરત જ માર્કદી દારકો ઊભા થયા અને બંને હાથ જોડીને યક્ષને વિનંતી ४२१॥ वाया तमे सभने ॥२॥ मने पार उतारे. (तरण से सेलए जक्से ते म दिय० एव वयासी) ने
भ नी विनती समजान शैक्ष યક્ષે એને કહ્યું કે –
(एवं खलु देवाणुप्पिया तुम्भं मए सदि लवणसमुई मज्नं २ बीइयवयमाणा
For Private And Personal Use Only
Page #676
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ફર૦
शानधर्मकथासूत्रे
'
व्रजतो : = गच्छतो सतोः सा रत्नद्वीपदेवता पापा = पापिष्टा चण्डा= कोपशीला, रुद्रा= क्रूरा क्षुद्रा= तुच्छस्वभावा साहसिका अविचारितकारिणी बहुभिः 'खरए हिय' खरकैः = कठोरैः, 'महिय ' मृकैः सुकोमलैः, 'अणुकोमेदिय ' अतुलोमै := खरकैः=कठोरैः, मनोनुकूले:, ' पडिलो मेडिव ' प्रतिलोमैः = मनः प्रतिकूलभूतैश्व ' सिंगारेहिय शृङ्गारैः कामरागजनकेः 'कलुणेहिय' करुणैः करणाजनकैश्व 'उवसग्गेहिय ' उपसगै:- उपसर्गजनकवचनैः 'उवसग्गं ' उपर्गम् = उत्पातं 'करेहिइ ' करिष्यति, तद् यदि खलु युवां हे देवानुप्रियो । रत्नद्वोपदेवताया एतमर्थम् ' आढावा' आदिपावा चंडा रुद्दा खुद्दा साहसिया, बहूहिं खरएहिं य मउएहिं य अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य सिंगारेहि य कलुणेहिं य उवसग्गेहिं य उवसग्गं करेहिइ ) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरे साथ लवण समुद्र में बीचों बीच के मार्ग से होकर चलो उस समय वह पापिष्ठ, कोपशील, क्रूर, क्षुद्र एवं अविचारित कारिणी रयगा देवी तुम्हारे ऊपर अनेक कठोर, सुकोमल, मनोनुकूल, मनः प्रतिकूल कामराग जनक एवं करुणोत्पादक ऐसे उपसर्ग बचनों द्वारा उवसर्ग-उत्पात करेगी। (तं जहणं तुम्भे देवाणुपिया ! रयणादीव देवयाए एयमहं आढाह वा परियाणह वा अवयक्खह वा तो भे अहं पिद्वातो विहृणामि अहणं तुभे रगग दीव देवयाए एयमहं णो आढाह णो परियाणह णो अवयवह तो मे रयण दीव देवया हत्थाओ - साहस्थि णित्थरेमि ) सो यदि हे देवानुप्रियो ! तुम लोग रयणा देवी के इस उपसर्ग रूप अर्थ को आदर की दृष्टि से णं सा रयणदीवदेवया पात्रा चंडा रुदा खुद्दा साहसिया, बहूहिं खरएहिं य महिं य अणुलोहि य पडिलोमे हि य सिगारेहि य कलुहिंय उवसग्गे हिं य उवसग्गं करेहिs )
હે દેવાનુપ્રિયે ! મારી સાથે લવણુ સમુદ્રની વચ્ચેના માર્ગોમાં થઈને તમે ચાલશેા તે વખતે તે પાપિષ્ટ, કાપશીલ, ક્રૂર, ક્ષુદ્ર અને અત્રિચારિતકારિણી શ્યણાદેવી ઘણા કઠોર, સુકેામળ, મનગમતા, મનને પ્રતિકૂલ, કામરાગને ઉત્પન્ન કરનારા અને કરુણેાત્પાદક ઉપસ વચને વડે ઉપસ-ઉત્પાત કરશે.
( तं जइणं तुब्भे देवाणुपिया ! रयणदीवदेवयाए एयम आढावा परियाणवा अवयक्खहवा तो भे अहं पिद्वातो विहणामि अहणं तुब्भे रयणदीत्र देवयाए एयम णो आदाह णो परियाणाह णो अत्रयक्खह तो भे रयणदीवदेवया इत्थाओ साहत्थि णित्थरेमि )
જો હું દેવાતુપ્રિયા ! તમે લેાકેા રયા દેવીના આ ઉપસગ રૂપ અને સન્માનની દૃષ્ટિએ જેથી એટલે કે તેના વચનને તમે સત્કારશે, સ્વીકારશે
For Private And Personal Use Only
Page #677
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारेगामृतवषिणी टी० मे० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् १९ येथे तदादरं करिष्यथः, वा अथवा 'परियाणहवा' परिजनीथा स्वीकरिष्यथः वा, अथवा 'अवयक्खह वा' पश्यथः= अबलोकयिष्यथः 'तो' तदा 'भे' युवामहं 'पिट्ठात्रो' पृष्ठात्-मम पृष्ठभागात् 'विहुणामि' विधुनामि पातयिष्यामि । अथ खलु यदि युवां रत्नद्वीपदेवताया एतमर्थ नो आद्रियेथे, नो परिजानीयः, 'नो अवयक्खह' तां प्रति नो पश्यतः, तदुपसर्ग सहियेथे इत्यर्थः 'तो' तदा 'भे' युवां रत्नद्वीपदेवताहस्तात् ' साहत्थि' स्वहस्तेन ‘णित्यारेमि' निस्तारयामि-पारं नेष्यामि । ततः खलु तौ माकन्किदारको शैलकं यक्षमेवमवादिधाम्यं कञ्चन खलु हे देवानुपिय ! त्वमाराध्यत्वेन वदिष्यति, यरवलु 'युश्योरयमाराध्यः' इति तस्य खलु-तस्यैव उपपातनिर्देशे से वावचनाज्ञायां 'चिहिस्सामो' स्थास्यावः किंपुनर्भवतः ! भवदाज्ञानुसारेणैव पतिष्यावहे इत्यर्थः । ततः खलु स शैलको यक्षः 'उत्तरपुरस्थिमं' उत्तरपौरस्त्यम् ईशानकोणसम्बन्धिनं 'दिसीभार्ग' दिग्भागम् ' अवक्कमइ ' अपक्रामति गच्छति अपक्रम्य वैक्रियसमुदघातेन समवहन्ति, समवहत्य क्रियसमुद्घातं कृत्वा सङ्ख्येयानि योजनानि यावत् सङ्ख्येयदेखोगे-अर्थात् उन वचनों का आदर करोगे-उन्हें स्वीकार करोगे, उन पर ध्यान दोगे, तो मैं अपने पृष्ठ भागसे तुम लोगको उतार दूगा-नीचे पटक दूंगा-और यदि तुम लोग उस रयणादेवी के इस उपसर्ग रूप अर्थ का आदर नहीं करोगे,उन्हें स्वीकृत नही करोगे,उसकी तरफ नहीं देखोगे -उसके द्वारा कृत उपसर्गको सहन कर लोगे मैं तुम लोगोंको रयणादेवी के हाथ से देखते २ छुडा दंगा। (तएणं ते मागंदियदारया सेलगं जक्खं एवंवयासी-जण्णं देवाणुप्पिया! बहस्सह तस्सणं उववायवयणणिइसे चिहिस्सोमो, तएणं से सेलए जक्खे उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकमह, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्धारण समोहणइ २ संखेजाई जोय. અને તેના ઉપર વિચાર કરશે તે હું પિતાની પીઠ ઉપરથી તમને ઉતારી પાડીશ અને નીચે ફેંકી દઈશ. અને જો તમે બંને રયણ દેવીના ઉપસર્ગ રૂપ તે વચનેને આદર કરશે નહિ, સ્વીકારશે નહિ, તેની તરફ જોશો નહિ, તે જે કંઈ પણ ઉપસર્ગ-ઉત્પાત-કરે તે તમે ખમી લેશે તે હું તમને પણ દેવીના હાથમાંથી જોતજોતામાં મુક્ત કરાવી દઈશ.
(दएणं ते मागंदियदारया सेलगं जक्खं एवं वयासी जण देवाणुप्पिया! पइस्सइ तत्सणं उपवायवयणणिदेसे चिद्विस्सामो, तएणं से सेलए जक्खे उत्तरपुरस्थिमं दिसीमागं अवक्कमह अवकमित्ता वेब्बियसमुग्याएवं समोहणतिर
For Private And Personal Use Only
Page #678
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथा योजनपरिमितमित्यर्थः दण्ड ‘निस्सरेइ ' निस्सारयति, निस्मार्य द्वितीयमपिवार वैक्रियसमुद्घातेन सनवान्ति, समत्रहत्य-द्विनीयवारं वैक्रियसमुद्घातं कृत्वा एक महत्-अश्वरूपं विकुर्वति-अश्वरूपस्य विकुगां करोतीत्यर्थः, विकुर्वित्वा अश्वरूपं कृत्वा तौ माकन्दिकदारको एवमवदन्-'हंभो' हे देवानुप्रियो माकन्दिकदारको! णाई दंड निस्सरेइ, निस्सरित्ता दोच्चपि वेउव्वियसमु ० २ एगं महं आसरूवं विउव्वइ, २ ते मागंदियदारए एवं वयासी ) शलक यक्ष की इस प्रकार की बात सुनकर उन माकंदी दारकों ने उस शैलक यक्ष से फिर इस प्रकार से कहा-हे देवानुप्रिय ! आप जिसके लिये हमें आराध्यत्वेम कहेगें-हम लोग उसी की सेवा करने में उसी के वचन मान ने में और उसी की आज्ञानुसार वर्तमान करने में लग जायेंगे तो फिर आपकी तो बात ही क्या है । आप तो हम से जैसे कहेंगे हम लोग सर्व थो उसी के अनुसार चलेंगे । इस के बाद वह शैलक यक्ष ईशान कोण संबन्धी दिग्भाग की ओर गया। वहां जाकर उस ने वैक्रिय समुद्धात से उत्तर वैक्रिय की विकुर्वणा की-विकुर्वणा कर के फिर उस ने अपने आत्मप्रदेशों की संख्यात योजन पर्यंत दण्डाकोर रूप में बाहिर निकला-निकाल कर के फिर दुवारा भी वैक्रिय समुद्धात किया और फिर एक बड़े भारी अश्वरूप की उस ने विकुर्वणों की। अश्वरूप बनाकर फिर वह उन माकंही दारकों से बोलासंखेनाई जोयणाई दंडं निस्सरेइ, निस्सरिता दोच्चपि वेउन्धि समु० २ एगं महं आसवं विउबइ २ ते मागंदिय दारए एवं वयासी)
શૈલક યક્ષની આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને માર્કશી દારકેએ તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! તમે અમને જે કંઈને આરાધવાને હુકમ કરશે, અમે લોકે તેની સેવા કરવામાં, તેની જ આશા સ્વીકારવામાં અને તેની આજ્ઞા પ્રમાણે જ આચરણ કરવામાં તત્પર થઈ જઈશું ત્યારે તમારી તે વાત જ શી કહેવી ? તમે અમને જેમ કહેશે તેમ અમે સંપૂર્ણ પણે અનુસરીશું. ત્યારબાદ શૈલેકે યક્ષ ઈશાન કોણના દિગૂ ભાગ તરફ ગયે. ત્યાં જઈને તેણે વૈકિય સમુદ્રવાતથી ઉત્તર વૈક્રિયાની વિગુણ કરી અને વિકર્ણવા કર્યા બાદ તેણે પિતાને આત્મપ્રદેશને સંખ્યાત જન સુધી દંડાકાર રૂપે બહાર કાઢયા. બહાર કાઢીને તેણે બીજી વાર પણ વિદિય સમુદ્દઘાત કર્યો અને ત્યાર પછી તેણે એક બહુ મેટા અશ્વરૂપ (ઘેડાના રૂપ) ની વિકુણા કરી અશ્વનું રૂપ બનાવીને તેણે માંદકી
For Private And Personal Use Only
Page #679
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
मनारधर्मामषिणी टी० म० ९ मान्दिदारफचरितनिरूपणम् ॥ आरोहतं खलु युवां मम पृष्टे । ततः खलु तौ माकन्दिादारको हृष्ट तुष्टौ शैलकस्य यक्षस्य प्रणामं कुरुतः, कृत्वा शैलकस्य पृष्टं दुरूदौ पृष्ट प्रदेशे समारूढौ । ततः खलु स शैलकस्तौ मान्दिकदारको दूरूढौ-स्वपृष्टारूढौ ज्ञात्वा 'सत्तट्टतालप्पमा. एमेचाई' सप्ताष्टतालपमाणमात्रान् सप्ताष्टतालक्षपरिमितान् गगनभागान यावत् 'उड़ वेहासं' ऊधविहायसि-उच्चैराकाशे 'उप्पथइ' उत्पतति, उम्पइत्ता, उत्पत्य च तया प्रसिद्धया उत्कृष्टया त्वरितया देवगत्या लवणसमुद्रं मध्यमध्येन यजैव जम्बूद्वीपो द्वीपः, यौव भारतो वर्षः भरतक्षेत्र, यौव चम्पानगरी तौव प्रधारअति-गन्तुं प्रवृत्तः ।। सू०६॥ ( इं भो मागंदियो । आरुह णं देवाणुप्पिया ! मम पिटुसि-तएणं से मागंदिया हट्ट सेलगस्स जक्खस्स पणामं करेंति कस्त्तिा सेलगस्स पिडिं दुरूढा, तएणं से सेलए ते मागंदियः दुरुढे जाणित्ता संत्ततालप्पमाणमेत्ताई उड्डूं वेहासं उप्पयइ, उप्पइत्ता य ताएउकिटाए तुरियाए देवगईए लवणसमुहं मजझं मझेणं जेणेव जंबूरीवे दीवे जेणेव भारहेवासे जेणेव चंपा नयरी तेणेव पहारेत्य गमणाए ) अरे
ओ देवानुप्रिय माकंदी दारको ! तुम दोनों मेरी पीठ पर चढ जाओ। इस के बाद वे दोनों माकंदी दारक हर्षित एवं संतुष्ट होते हुए प्रणाम कर उस शैलक यक्ष की पीठ पर आरूढ हो गये । जब दौलक यक्ष ने उन्हें अपनी पीठ पर चढा जाना तो जानकर वह सात आठ ताल वृक्ष प्रमाण बराबर क्षेत्रमें ऊपर आकाश में उछला। उछलकर फिर वह अपनी प्रसिद्ध उत्कृष्ट त्वरायुक्त देवगति से लबणसमुद्र के ठीक बीचों
(हं भो मागंदिया ! आरुहणं देवाणुप्पिया ! मम पिट्ठसि-तएर्ण ते मानदिय० हद्व० सेलगस्स जवखस्स पणामं करेंति करित्ता सेलगस्स पिढ़ि दुरूदा, तएणं से सेलए ते मागंदिय दुरूढे जाणित्ता सत्ततालप्पमाणत्ताई उड वेहासं उप्पयइ, उप्पइत्ता य ताए उक्किटाए तुरियाए देवगईए लवणसमुई मज्झमज्झे गंजेणेव जंबूदीवे दीवे जेणेव भारहेवासे जेणेव चंपानयरी तेणेत्र पहारेत्थगमणार)
અરે ઓ દેવાનુપ્રિય માર્કદી દારકે ! તમે મારી પીઠ ઉપર બેસી જાઓ. ત્યાર પછી માર્કદી દારકે હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થતાં પ્રણામ કરીને શૈલક યક્ષની પીઠ ઉપર બેસી ગયા. શૈલક યક્ષે તેઓને પિતાની પીઠ ઉપર સવાર થઈ ગયેલા જાણીને તે સાત આઠ તાલવૃક્ષ પ્રમાણ જેટલા ક્ષેત્રમાં આકાશમાં ઉછળ્યો અને ઉછળીને તે પિતાની પ્રસિદ્ધ ઉત્કૃષ્ટ વરાયુક્ત દેવગતિથી લવણસમુદ્રની બરોબર
For Private And Personal Use Only
Page #680
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पाताकपाल मूलम्-तएणं सा रयणदीवदेवया लवणसमुहं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टइ जं तत्थ तणं वा जाव एडेइ, एडित्ता जेणेव पासायव.सए तेणेव उवागाच्छइ उवागच्छिता ते मार्ग दियदारया पासायवर्डिसए अपासमाणी जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जाव सव्वतो समंता मग्गणगवेसणं करेति२ तेर्सि मागंदियदारगाणं कत्थइ सुई खुई वा पति वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले एवं चेव पच्चस्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी
ओहिं पउंजइ पउंजित्ता ते मागंदियदारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुदं मझमझेणं वीइवयमाणे पासइ पासित्ता आसुरूत्ता असिखेडगं गेण्हइ गेण्हित्ता सत्तह जाव उप्पयइ उप्पयित्ता ताए उनिहाए जेणेव मार्गदिय० तेणेव उवा० एवं वयासी-हं भो मागंदिया० अप्पत्थियपत्थया किणं तुम्भे जाणह ममं विप्पजहाय सेलएणं जक्खेणं सद्धिं लत्रणसमुदं मन्झं मझेणं वीइवयमाणा तं एवमवि गए । जइणं तुन्भे ममं अवयक्खह तो भे अस्थि जीवियं, अहणं णावयक्खह तो भे इमेणं नीलु. प्पल्लगवल जाव एडेमि, तएणं ते मागंदियदारया रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमदं सो० णिस० अभीया अतत्था अणुविग्गा अक्खुभिया असंभंता रयणदीवदेवयाए एयम, नो पीच के मार्ग से चलता हुआ जहां जंबूदीप नाम का बीप और उसमें जहां भरत क्षेत्र और उसमें भी जहां चंपानगरी थी उस ओर चल दिया ॥ सूत्र ६॥ વચ્ચેના ભાગમાંથી પસાર થતે જ્યાં જંબૂદ્વીપ નામે દ્વીપ તેમજ જ્યાં ભારત ક્ષેત્ર અને તેમાં પણ જ્યાં ચંપા નગરી હતી તે તરફ રવાના થયે. સુત્ર “
For Private And Personal Use Only
Page #681
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ६३५ आढति नो परि० णो अवयक्खंति, आणाढायमाणा अपरि० अणवयक्खमाणा सेलएण जक्खेणं सद्धिं लवणसमुदं मझमउझेणं वाइवयंति, ततेणं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिया जाहे नो संचाएइ बहूहिं पडिलोमेहिं य उवसग्गेहि य चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा लोभित्तएवाताहे महुरेहि सिंगारेहि य कलणेहि य उवसग्गोहि य उवसग्गेउं पवत्ता यावि होत्था, हं भो मागंदियदारगा ! जइणं तुम्भेहिं देवाणुप्पिया! मए सद्धिं हसियाणि य रमियाणि य ललियाणि य कीलि. याणि य हिंडियाणि य मोहियाणि य ताहे णं तुम्भे सव्वाति अमणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएणं सद्धिं लवणसमुई मज्झं. मम्झेणं वीइवयह, तएणं सा रयणदोवदेवया जिणरक्खियस्स ममं ओहिणा आभोएइ आभोएत्ता एवं क्यासी-णिच्चपि यणं अहं जिणपालियस्त अणिहा५ निश्चं मम जिणपालिए अणिद्वे ५ निच्चंपिय णं अहं जिणरक्खियस्स इहा५ निचंपिय णं मम जिणरक्खिए इहे५, जइणं ममंजिणपालिए रोयमाणी कंदमाणी सोयमाणी तिप्पमाणी विलवमार्णी णावयक्खइ किण्णं तुम जिणरक्खिया ! ममं रोयमाणिं जाव णावयक्खसि ?, तएणं
सा पवररयणदीवस्त देवयाओहिणा उ जिणरक्खियस्स मणं। नाऊण वधनिमित्तं उवरि मागंदियदारगाणं दोण्हपि ॥१॥ दोसकलिया सलीलयं णाणाविहचुण्णवासमीसं दिव्यं । घाणमण निव्वुइकरं सव्वोउयसुरभिकुसुमवुट्टि पमुंचमाणी ॥२॥ णाणामणिकणगरयणघंटियखिखिणिणेऊरमेहलभूसणरवेणं।दि.
शा ७२
For Private And Personal Use Only
Page #682
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भाताधर्मकथासूचे साओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं बेति सा साकलुसा ॥३॥ होल-वसुल-गोल-णाह-दइत रमण-कंत-सामिय--णिग्घिण णिच्छक्क । थिण्ण णिक्किव अकयण्णुय सिढिल भाव निल्लज्ज प्लुक्ख अकलुण जिणरक्खियं मज्झं हिययरक्खगा! ॥ ४ ॥णह जुज्जसि एक्कियं अणाहं अबंधवं तुज्झचलणओवायकारियं उज्झिउ महणणं । गुणसंकर ! अहं तुमं बिहूणा ण समस्थावि जीविडं खणंपि ॥ ५॥ इमस्त उ अणेगझसमगरविविह सावयसयाउलघरस्स। रयणागरस्स मज्झे अप्पाणं वहेमि तुझं पुरओ एहि णियत्ताहि जइसिकुविओ खमाहि एक्कावराहं मे ॥ ६॥ तुज्झ य विगयघणविमलससिमंडलागारं सस्सिरीयं सारयनवकमलकुमुयकुवलयविमलदलनिकरसरिसनिभनयणं वयणं पिवासागयाए सद्धो मे पेच्छिउं जे अवलोएहि ताइओ ममं णाह जो ते पच्छामि वयणकमलं ॥७॥ एवं सप्पणय. सरलमहुराई पुणोर कलुणाई वयणाई जंपमाणी सा पावा मग्गओ समण्णेइ पावहियया ॥८॥ तएणं से जिणरक्खिए चलमाणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुहमणोहरेणं तेहि य सप्पणयसरलमहुरभणिएहिं संजायविणराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुंदरथणजहणवयणकरचरणनयणलावन्नरूवजोवणसिरिं च दिव्वं सरभसउवगृहियाइं विव्वोयविलसियाणि य विहसिय सकडक्खदिटिनिस्ससियमलियउवललियठियगमणपणयखिज्जियपासाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमई अवसे
For Private And Personal Use Only
Page #683
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० ९ माकम्दिदारकरितनिरूपणम् ६२७ कम्मवसगए अवयक्खति मग्गतो सविलियं, तएणं जिणरक्खियं समुप्पन्नकलुणभावमच्चुगलथल्लणोल्लियमई अबयक्खंतं तहेवजक्खे य सेलए जाणिऊण सणियं२ उव्विहति नियगपिट्ठाहि विगयसद्धं, तएणं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिणरक्खियं सकलसा सेलगपिट्टाहि ओवयंतदास ! मओसित्ति जंपमाणी अप्पत्तं सागरसलिलं गेण्हिय वाहाहिं आरसंतं उड़ उव्विहति अंबरतले, ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पलगवलअयसिप्पभासेण असिवरेणं खंडाखंडिं करेति तत्थ विलवमाणं तस्स य सरसवाहियस्स घेत्तूण अंगमंगाई सरु हिराइं उक्खित्तबलि चउदिसि करेंति सा पंजली पहिला॥सू०७॥
टीका-'तएणं सा' इत्यादि-ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता लवणसमुद्र त्रिसप्तकत्व एकविंशतिवारम् अनुपर्यटति, अनुपर्यट्य यत्तत्र तृणं वा यावत् सर्व पत्र काष्ठादिकमपनीय-एकान्ते ' एडेइ' एडति-पक्षिपति, पक्षिप्य यौव प्रासादावतंसकस्तौवोपागच्छति, उपागत्य तौ माकन्दिकदारको प्रासादावतंसके-अपश्यन्ती _ 'तएणं सा रयणदीवदेवया' इत्यादि ।
टीकार्थ -(नएणं) इसके बाद (सा रयणदीवदेवया) उस रयणादेवी ने (लवण समुई तिसत्तखुत्तो अणुपरियति ) लवण ममुद्र की २१ पार प्रदक्षिणा को-(जं तत्थं तणं वा जाव एडेह एडित्ता जेणेव पासायव. सए तेणेव उवागच्छति ) इस समय में उसे वहां पर जो तृणकाष्ठ पत्र आदि मिला उस-सषको वहां से हटाके दूर जाकर एकान्त स्थान में डाल दिया। डालकर फिर वह जहां अपना श्रेष्ट प्रासाद था वहां आई.
'तएणं सा रणदीव देवया ' इत्यादि ।
टी-(तएणं ) त्या२मा ( सा रयणदीव देवया) ते २यावीमे(लवण समुई ति सत्तखुतो अणुपरियति ) सप समुद्रनी मेवी पार प्रक्षिा ४२१. (जं तत्त णं वा जाव एडेइ एडित्ता जेणेव पासायव.सए तेणेव उवागच्छद)
પ્રદક્ષિણા કરતી વખતે શ્યણ દેવીને ત્યાં તૃણ, કાષ્ઠ પત્ર વગેરે જે કંઈ પણ લેવામાં આવ્યું તેને ત્યાંથી દૂર એકાંતમાં ફેંકી દીધું. ફેંકીને તે પોતાના ઉત્તમ મહેલમાં આવતી રહી.
For Private And Personal Use Only
Page #684
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
६२८
शाताधर्म कथाङ्गसूत्रे
,
यत्र पौरस्त्यं वनपण्ड' यावत्सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणां करोति सामान्य विशेषतयाऽन्वेषति, कृत्वा तयोर्मांकन्दिकदारयोः कुत्रापि 'सुईवा ' श्रुतिं वा= वात, 'खुई बा' क्षुर्ति तत्सम्बन्धिनीं छिक्कम्, अव्यक्तभाषणं तचिह्न वा, ' पउत्ति वा प्रवृत्ति = वृत्तान्तं वा ' अलभमाणी ' अलभमाना=अमाप्नुवन्ती सती यत्रैवोत्तरीये - उत्तरदिग्भवे वनपण्डे एवमेव = पूर्ववदेव पाश्चात्येऽपि यावद् अपश्यन्ती 'ओहिं' अवधिम् - अवधिज्ञानं पउजड़ प्रयुनक्ति= व्यापारयति प्रयुज्य तौ ( उबागच्छित्ता ते मागंदियदारया, पासायवर्डिसए अपासमाणी, जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जाव सव्वओ समंतामग्गणगवेसणं करेइ करिता तेसिं मार्यादियदार गाणं कत्थइ सुई खुई वा पउत्ति वा अलभमाणी जेभव उत्तरिल्ले वणसंडे एवमेव पच्चत्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहिं परंजइ) वहां आकर उसने उसमें माकंदी दारकों को नहीं देखा-सो इस कारण वह जहां पूर्वदिशा संबन्धी वनषंड था वहां आई वहाँ आ कर उसने उनकी सबतरफ चारों ओर तपास की मार्गणा गवेषणा कीपरन्तु वहां कही पर भी माकंदी दारकों की उसे न कोई बात सुनने में आई और न उनकी चिह्नरूप छींक या अव्यक्त भाषण या कोई विशेष चिह्न ही देखने में आया। और न उनकी वहां उसे कोई खबर ही मिली - इस तरह इन सब बातोंको नही प्राप्त करती हुई वह जहां उत्तर दिशा सम्बन्धी वनपंड था वहाँ इसी तरह जहां पश्चिम दिशा सिम्बन्धी बनषंड था वहां आई वहां कहीं पर भी उसे उनकी कोइ बात वगैरह सुनने में देखने में जब नहीं आई तब उसने अपने अवधिज्ञान को
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( उवागच्छित्ता ते मार्गदियदारया पासायवर्डिसए अपासमाणी जेणेत्र पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जाव सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ करित्ता तेर्सि मायंदियदारगाणं कत्थेइ सुई खुरं वा पउर्त्ति वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे एवमेव पच्चत्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहिं पउंजइ )
ત્યાં આવીને તેણે માર્કદી દ્વારકાને જોયા નહિ ત્યારે તે પૂર્વ દિશા તરફ વનખ‘ડમાં પહોંચી. ત્યાં તેણે તેઓની ચેમેર તપાસ કરી, માણુ ગવેષણા કરી. પણ માકદી દારકાના પત્તો મળ્યા નહિ રયાદેવીને માર્ક'દી દ્વારકાની વાતચીત પણ સાંભળવામાં આવી નહિ તેમજ તેએની હયાતીના પણ કાઈ ચિહ્નો જેમકે છીંક અથવા તેા ધીમેથી વાતચીત વગેરે દેખાયા નહિ. આ રીતે તે ત્યાંથી ઉત્તર દિશા તરફના વનખંડમાં ગઈ. ત્યારપછી પશ્ચિમ દિશાના વન ખંડમાં તે ગઈ ત્યાં પણ રચણા દેવીને તેઓની કોઈ પણ વાતચીત વગેરે સભળાય નહિ ત્યારે તેણે પોતાના અવધિજ્ઞાનને ઉપયાગ કર્યાં.
For Private And Personal Use Only
Page #685
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतषिणो टी० अ० ९ माकन्दिारचरितनिरूपणम् ॥ माकन्दिकदारको शैलकेन साई लत्रणसमुद्र मध्यमध्येन 'वीइवयमाणे' व्यतिवः जन्तौगन्छन्तौ पश्यति, दृष्ट्वा ' आसुरुत्ता' अशुम्ता-शीघ्रकुपिता 'असिखेडगं' असिखेटकम् , असिश्चखगः खेटकश्च फलकः 'ढाल ' इतिभसिद्धः एतयो समाहारेअसिखेटकम् गृह्णाति, गृहीत्वा ' सत्तटुनाव ' सप्ताष्ट यावत् , सप्ताष्टतालप्रमाणान् गगनभागान् यावद् ऊर्ध्व विहायसि उत्पतति, उत्पत्य तया उत्कृष्टया देवगत्या यौव माकन्दिकदारको तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यैवमवादीत्-'हंभो' हे माकन्दिक दारको ! 'अप्पत्थियपत्थया' अप्रार्थितमार्थको मरणाभिलाषिणौ कि खलु युवा उपयुक्त किया। (पजित्ता ते मागंदियदारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुई मझ मज्झेणं वीइवयमाणे पासइ, पासित्ता आसुरत्तो असिखेडगं गेपहइ, गेण्हित्ता सत्त अह जाव उप्पयइ उप्पहत्ता ताए उकिट्ठोए जेणेव मागंदिय० तेणेव उवा० २ एवं वयासी-हंभो माकंदिय० अप्पत्थियप. स्थिया किण्णं तुम्भे जाणह ममं विप्पजहाय सेलएणं........एवमविगए) उपयुक्त करके उसने उन माकंदीदारकों को शैलक के साथ लवणसमुद्र में होकर ठीक बीचों बीच के मार्ग से जाते हुए देखा। देखकर वहक्रोध से क्रोधित हो गई। उसने उसी समय अपनी तलवार और ढाल उठा ई। उठाकर वह सात आठा ताल वृक्ष प्रमाण ऊपर की ओर आकाश में उछली । उछलकर फिर वह उत्कृष्टदेव सम्बन्धी गति से चल कर जहां वे माकंदी-दारक थे वहां आई। वहां आकर उसने उनसे इस प्रकार कहा। अरे ओ माकंदि-दारक! मालूम पड़ता है तुमलोग अप्रा. र्थित प्रार्थक बन रहे हो-जिसे कोई भी नहीं चाहे वह अमर्थित-मृत्यु
(पउंजित्ता ते मागंदियदारए सेलएणं सद्धि लवणसमुई मज्झं मज्झेणं वीइवयमाणो पासइ, पासित्ता, आसुरत्ता आसिखेडगं गेण्हइ, गेण्डित्ता, सत्तअट्ट जाव उप्पयइ उप्पयित्ता ताए उक्किट्ठाए जेणेव मागंदिय तेणेव उवा० २ एवं बयासी हं भो मादिय अप्पस्थिय पत्थया किणं तुम्भे जाणह ममं विप्पनहाय सेलएणं एवमविगए)
ઉપયોગ કરીને તેણે માર્કદી દારકેને શૈલક યક્ષની સાથે લવણ સમુદ્રની ઠીક વચ્ચેના માર્ગથી પસાર થતાં જોયા. જોતાની સાથે જ તે ગુસ્સે થઈ ગઈ. તેણે તરતજ પિતાની ઢાલ અને તરવાર હાથમાં લીધી. લઈને તે સાત આઠ તાલવૃક્ષ જેટલું આકાશમાં ઊંચે ઉછળી, ઉછળીને તે ઉત્કૃષ્ટ દેવસંબંધી ગતિથી સત્વરે જ્યાં માર્કદી દારકો હતા ત્યાં પહોંચી ગઈ ત્યાં પહોંચીને તેણે તેઓને એમ કહ્યું કે અરે ઓ ! માર્કદી દાર! મને લાગે છે કે તમે અપાથિત પ્રાર્થક બની રહ્યા છે. એટલે કે મૃત્યુ જ એવી વસ્તુ છે કે તેને કઈ
For Private And Personal Use Only
Page #686
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६३०
होताधर्मकथास जानीथः-यत् 'मम' मां — विप्पजहाय ' विप्रहाय-परित्यज्य शैलकेन यक्षेण साई लवणसमुद्र मध्यमध्येन ' वीईवयमाणा' व्यतिवनन्तौ स्वः तद् एवमपि अनेन. प्रकारेण यक्षपृष्ठावलम्बनेन ' गए' आवां गतौ-गृहं प्राप्तौ, इति, युवां जानीथः तद् भ्रान्तौस्थः । यदि खलु युवां 'मम' माम् ' अवयक्खह' पश्यतं 'तो' तदा 'भे' युवयोरस्ति जीवितम् , अथ खलु मां न पश्यतं 'तो' तदा 'भे' युवयोः अनेन ' नीलुप्पलगवल जाव' नीलोत्पलगवल यावत् अतिश्याम सुतीक्ष्ण खड्नेन शिरछित्त्वा एकाने एडेमि-पक्षिपामि-द्वयोरपि शिरश्छेत्स्यामीत्यर्थः । ततः खलु तो माकन्दिकदारको रत्नद्रीपदेवताया अन्ति के एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य अभीतौ अत्रातौ अनुद्विग्नौ, अक्षुब्धौ असम्भ्रान्तौ सन्तौ रत्नद्वीपदेवताया एतमर्थ है । उस के भी तुन चाहने वाले हो रहे हो। जो तुमलोग मुझे छोड़कर यक्ष शैलक के साथ लवण समुद्र के बीच से होकर जा रहे हो। तो क्या इस तरह के जाने से तुमलोग हम घर पहुँच गये? यह मान रहे हो सो यह तुम्हारा भ्रम है। (जहणं तुम्भे ममं अवयक्खह तो भे अ. थिजीवियं अहणं णावखह तो भे हमेग नीलुप्पलगवलजावएडेमि) यदि तुम मेरी ओर देखो-मुझे चाहो-तोही तुम्हरा जीवन बच सकता है-यदि तुम मुझे नहीं चाहते हो-मेरी तरफ नहीं देखते हो-तो-देखो इस नीलकमल तथा महिष के शृंगके जैसे वर्णवाली-अतिश्याम सुतीक्ष्ण तलवार से मैं अभी तुम दोनों के मस्तक को छेदकर उसे ऐसे स्थान में डाल दंगी कि जहां उसका पता भी नहीं लगेगा। (तएणते मागंदियदारयो रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमढे सो. णीस० अभीया ઈચ્છતું નથી તેથી મૃત્યુ “અપ્રાર્થિત થયું અને તે માર્કદી દારકે તેને ઈચ્છબાર થયા. કેમકે તમે મને છેડીને યક્ષ શૈલકની સાથે લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને જઈ રહ્યા છો. તમે અત્યારે એમ સમજી રહ્યા હશે કે અમે હેમખેમ (કુરાળ) પિતાને ઘેર પહેચી ગયા છીએ તે તમે બમમાં છે.
(जइणं तुम्भे ममं अवयववह तो भे आत्थि जीवियं अहणं णायक्वह हो भे इमेणं नोलुप्पलगवल जार एडेमि) - જો તમે મને જ ચાહ-મને જ જુઓ-તે તમારા જીવનની સલામતી છે. જો તમે મને ઇચ્છતા નથી, મારી તરફ જતા નથી તે જુઓ આ નિલકમળ તેમજ ભેંસના શિંગડા જેવા રંગની ખૂબ જ શ્યામ રંગવાળી તેજ તરવારથી હું તમારા બંનેનાં માથાં કાપીને એવી જગ્યાએ ફેંકી દઈશ કે તેની કેઈને ખબર પણ પડી શકે નહિ.
(सरणं ते मागेदिय दारया रयणदीरदेण्याए अतिए एयम सो-णिस.
For Private And Personal Use Only
Page #687
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
---
-
--
जमगारधामृतषिणी टीका ० ९ माकनिवारकचरितनिरूपणम् । मो आद्रियेते नो परिजानीतः 'नो अध्यक्खंति ' नो पश्यतः, 'अणाढायमाणा' भनाद्रियमानौ तमर्थं प्रति-भादरं न कुर्वाणौ ' अपरियमाणा' अपरिजानानौं समर्थमस्त्री कुर्वाणौ ' अगवयक्खमाणा' तत्संमुखमप्यपश्यन्तौ शैलकेन यक्षेग साई सवगसमुद्रं मध्यमध्येन 'वीइवयंति' व्यतिबनतः सुखपूर्वकं गच्छतः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता तौ माकन्दिकदारको यदा नो शक्नोति बहुभिः पडिलोमेहिय' प्रतिलोमैश्व-प्रतिकूलै हासगैंचालयितुं वा-क्षोभयितुवा विपरिणामित्तए वा' विपरिणामयितु-मनोवृत्तिं परावर्तयितुं 'लोमित्तए वा ' लोभयितुं लुब्धौ कत्तुं वा अतस्था अणुधिग्गा अक्खुमिया असंभता रयणदीवदेवयाए एयमद्वं नो आदति, णो परिणो अवयवति अणाढायमाणा अपरि० अणवय. क्खमाणा सेल एण जखेण सद्धिं लवणसमुई मज्झं मझेणं वीइवयति) इस प्रकार वे माकंदी-दारक रयणा देवी के मुख से इस बात को सुन कर और उसे हृदय में अवधृत कर भयभीत नही हुए त्रस्त नहीं हुए उद्विग्न नहीं हुए क्षुभित नहीं हुए, संभ्रान्त नहीं हुए घबड़ाये नहीं
और न उन्हों ने रयणा देवी के इस अर्थ को आदर की दृष्टि से देखा म उसे स्वीकार किया, और न उस तरफ लक्ष्य ही दिया। इस तरह उस के बचनों का अनादर करते हुए उन्हें स्वीकार नहीं करते हुए तथा उनकी ओर लक्ष्य नहीं देते हुए वे दोनों उस शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के बीच में चलते ही गये।
(तएणं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय० जाहे पो संचाएंति, बहहिं पडि लोमेहिं य उवसग्गेहिं य चालित्तए वा खोभित्तए वो विप. अभीया अतस्था अणुन्निगा अक्खुभिया असंभंता स्यणदीव देवयाए एयमg नो आरति णो परि० णो अश्यखति अणाढायमागा अपरि० अगव यक्खमाणा सेलए जक्खेण सद्धिं लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीइवयंति)
માર્કદી દારએ રયણ દેવીને મુખેથી આ પ્રમાણે સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને ભય પામ્યા નહિ. ત્રસ્ત થયા નહિ, ઉદ્વિગ્ન થયા નહિ ક્ષભિત થયા નહીં સંબ્રાત થયા નહિ, ગભરાયા નહિ અને તેઓએ રણદેવીના અર્થને ન તે સન્માનપૂર્વક જે અને ન તેને સ્વીકાર કર્યો. તે તરફ તેઓએ સહજ પણ લક્ષ્ય આપ્યું નહિ. લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને તેઓ બંને શૈલક યક્ષની સાથે પોતાને પંથ કાપતા જ ગયા. (तएणं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय० जाहे णो संचाएंति, बहूहि पडिलोमेहि य उपसग्गेहि य चालिचए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा लोभित्तएवा
For Private And Personal Use Only
Page #688
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथासूत्र तदा मधुरैः । सिंगारेहिय ' शृङ्गारैः कामरागोत्पादकैः ‘कलुणेहिय ' करुणैः करुणरसजनकैश्वीपसगैंः ' उपसग्गेउं ' उपसर्गयितुम् = उत्पातयितुं प्रवृत्ता वास्यासीत् - हंभो देवानुप्रियौ माकन्दिकदारकौ ! यदि खलु युवाभ्यां मया साई · हसियाणिय' हसितानी च ' रमियाणिय ' रतानि रमणानि अक्षादिभिजूतादिखेलनानि, 'ललियाणिय' ललितानि च-ईप्सितानि लीलया भोजनादिरूपाणि 'कीलियाणिय' क्रीडितानि-जलावगाहनादिरूपक्रीडनानि 'हिंडियाणिय' रिणामित्तए वा लोभित्तए वा ताहे महुरेहिं सिंगारेहि, कलुणेहि य उवसग्गेहिं य उवसग्गे पवत्ता यावि होत्था) इस तरह जब वह रयणा देवी उन मादी दारकों को प्रतिकूल अनेक उपसर्गों द्वारा चला. यमान करने के लिये क्षुभित करने के लिये समर्थ नहीं हो सकी तष उसने काम रागोत्पादक, तथा करुणारस जनक उत्पातों द्वारा उपद्रव करना प्रारंभ कर दिया । (हं भो मागंदियदारगा ! जइणं तुम्भे हिं देवाणुप्पिया! मए सद्धि हसियाणि य रमियाणि य ललियाणि य कीलियाणि य, हिंडियाणि य, मोहयाणि य तोहे गं तुम्भे सव्वाति अगणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएणं सद्धिं लवणसमुई मज्झं मझे णं वीइवयह तएणं सा रयणदीवदेवया जिणरक्खियस्स मनं ओहिणा आभोएइ, आभोएसा एवं वयासी) वह कहने लगी अरे ओ देवानुपिय! माकंनी दारकों। यदि तुम दोनों ने मेरे साथ हँसी मजाक किया है, काम सुखों को भोगा है, अथवा अक्षादिकों द्वारा द्यूतादि क्रीडायेंकी है, साथ २ बैठकर इच्छानुसार विविध प्रकार की भोजनादि करने रूप ताहे महुरेहिं सिंगारेहिं कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गेउं पवता यावि होत्था)
રયણ દેવી માર્કદી દારકોને આ જાતના ઘણા પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોથી વિચલિત કરવામાં કે સુભિત કરવામાં સમર્થ થઈ શકી નહી ત્યારે તેણે કામરગે
ત્પાદક તેમજ કરુણાસ જનક ઉત્પાત વડે ઉપદ્ર શરૂ કર્યા. (हं भो मागंदियदारगा! जइणं तुम्भे हिं देवाणुप्पिया! मए सद्धि हसियाणिय रमियाणिय ललियाणी यकीलियाणि य हिंडियाणि य मोहयाणि य ताहे णं तुम्भे सवाति अगणेमाणा ममं विप्पनहाय सेलएणं सद्धिं लवणसम्मुई मझमझेणं वीइवयह तएणं सा रयणदीवदेवया जिणराक्खेयस्स ममं ओहिणा अभोएइ. आभोइत्ता एवं वयासी)
તે કહેવા લાગી કે હે દેવાનુપ્રિયે ! માર્કદી દારકે ! જો તમે બંને મારી સાથે હસી મજાક કરી છે, કામ સુખ ભોગવ્યા છે, અક્ષાદિકે વડે જુગાર વગેરે કીડાએ કરી છે, સાથે સાથે બેસીને મનગમતી અનેક જાતના આહારે
For Private And Personal Use Only
Page #689
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारक चरितनिरूपणम्
६३३.
,
हिण्डितानिच = उद्यानादिषु भ्रमणानि 'मोहियाणिय' मोहितानि च = मोहनानि कामरागजनक हावभावादीनि कृतानि ' ताहे ' तदा तादृशे समये एतादृश सुखाभवास्थायां खलु युवां सर्वाणि मया सार्द्धं हसितादीनि 'अणेगमाणा अगणयन्तौ=अनाद्रियमाणौ ' ममं 'मां निराधारां 'विप्पजहाय' विप्रहाय = परित्यज्य शैलकेन सार्द्धं लवणसमुद्रं मध्यमध्येन व्यतिव्रजथः = गच्छथः । ततः खलु पुनः सा रत्नद्वीपदेवता जिनरक्षितस्य लघुभ्रातुः 'मणं ' मनः = अन्तः करणम् ' ओहिणा' अवधिना अवधिज्ञानेन ' आभोएह ' आभोगपति = पश्यति आभोगयित्वा = दृष्ट्वा - एवमवदत् - नित्यमपि च- पूर्वमपि सदैव च अहं जिनपालितस्य-तबज्येष्ठ भ्रातुः अनिष्टा, अक्रान्ता, अमिया अमनोज्ञा, अमनोमा=मनः प्रतिकूलाऽभवम् नित्यं च मम जिनपालित:- अनिष्टः, अक्क्रान्तः, अप्रियः, अमनोज्ञः, अमनोऽमः -मनःखेदजनक आसीत् । नित्यमपि च खलु अहं जिनरक्षितस्य तव इष्टा यावद् मनोSमा, नित्यमपि च खलु मम जिनरक्षितस्त्वम् इष्टो यावद् मनोऽमः, यदि खलु यथा मां निपालितो रुदतीं, क्रन्दन्तीं शोकं कुर्वाणां 'तिप्पमाणी' तेपमानाम् = लीलाएँ को हैं, जलावगाहनादि रूप नाना प्रकार की चेष्टाएं की हैं, उधान आदिकों में साथ २ भ्रमण किया है, तथा काम रागे जनक हाव भाव आदि क्रियाएँ की हैं तो फिर क्यों अब उन सब हसितादि चेष्टाओं की उपेक्षा करके तुम दोनों मुझे निराधार छोड़कर शैलक के साथ लवण समुद्र के बीच से होकर चले जा रहे हो। इस प्रकार कह कर उस स्थणा देवी ने जिन रक्षित के अन्तः करण को अपने अवधि ज्ञान के द्वारा देखा - देख कर वह फिर इस तरह कहने लगी- ( णिच्चपि य णं अहं जिस अणिट्ठा ५, णिच्चं मन जिणपालिए अणिट्ठे-निच्चपि यणं अहं जिगर क्वियस्स इट्ठा, निच्चपि णं अह जिणरखिए इट्ठे ५, जहणं ममं जिणपालिए रोयमाणी, कंदहाणी, सोयमाणी तिप्पमाणी विलवाणी taras, कण्ण तुम जिणरक्खिया ! ममं रोयमाणि जाव
વગેરે રૂપ લીલાએ કરી છે, જલાવગાહન વગેરેની ધણી જાતની ચેષ્ટાએ કરી છે, સાથે સાથે ઉદ્યાન વગેરેમાં ફર્યાં છે. તેમજ કામરાગજનક હાવભાવ વગેરેની ક્રિયાએ કરી છે ત્યારે હવે શું કામ તે બધી હસિતા ચેષ્ટાએ ની ઉપેક્ષા કરીને મને એકલી નિરાધાર બનાવીને શૈલક યક્ષની સાથે લવણુસમુદ્રની વચ્ચે થઇને જઈ રહ્યા છે. આ પ્રમાણે કહીને તે ચણા દેવીએ છતરક્ષિતના મનને પોતાના અવિધજ્ઞાન વડે જોયું અને જોઇને તે ફરી કહેવા લાગી કે–
( णिच्चपि य णं अहं जिणपालियम्स अणिट्ठा ५ णिच्च मम जिणपालिए अणिडे निच्चपि य णं अहं जिगर क्वियस्स इद्वा निच्चपि य णं मम जिणरक्खिए
हा ८०
For Private And Personal Use Only
Page #690
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विरहजनितार्तध्यानं कुर्वाणां, विलपन्तीं विलापं कुर्वाणां 'णावयक्खइ' न पश्यति तथा कि खलु त्वमपि हे जिनरक्षित ! मां रुदती यावद विलपन्तीं 'णावयक्खसि' न पश्यति ? एवं सा रत्नद्वीपदेवता सोपालम्भं वदति स्मेति ।
ततः खलु तदनन्तरम्-अथ प्रचलितमानसं जिनरक्षितं विज्ञाय सा यद्वदति तद् गाथाष्टकेनाहगावयक्खसि ) यह तो निश्चित है कि मैं पहिले से जिनपालित के लिये अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमनोम-मनः प्रतिकूलवइ रही हूं और जिनपालित भी मेरे लिये सदा अनिष्ट' अकान्त आदि रूप बना रहा है, मैं तो जिन रक्षित के लिये ही सदा इष्ट आदि रूप रही हूँ और जिनरक्षित मेरे लिये इष्ट आदि रूप सदा रहा है तो हे जिन रक्षित ! यदि मुझ रोती हुई आक्रन्दन करती हुई, शोक करती हुई विरह जनित आर्तध्यान करती हुई और विलाप करती हुई की और जिन पालित नहीं देखता है तो क्या तुम भी मुझ रोती हुई यावत् विलाप करती हुई की ओर नहीं देखते हो (तएणं सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणो जिणरक्खियस्स मणं नाऊणं वनिमितं उवरिंमागंदिय दारगाणं दोण्हपि ॥१॥) इस तरह उस रयणादेवी ने ताने मारते हुए जब कहा तब जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया। इस स्थिति में जो कुछ उस ने कहा वह सूत्रकार आठ गाथाओं इढे ५, जइणं ममं जिणपालिए रोयमाणी, कंदमाणी, सोयमाणी तिप्पमाणी, विलवमाणी,णावयक्रवइ,किण्णं तुम जिणराक्खिया! मम रोयमणि जाव णावयवसि)
એ વાત તે ચોક્કસ પણે કહી શકાય કે હું શરૂઆતથી જ જીનપાલિતને भाट मेशा मनिष्ट, २isiत, प्रिय, सभास, मने ममनोम-मनने प्रति. કળ જ બની રહું છું અને જીનપાલિત પણ મારા માટે હમેશાં અનિષ્ટ, અકાંત વગેરે જ રહ્યા છે. હું તે જનરક્ષિતને માટે હમેશાં ઈન્ટ વગેરે રૂપમાં રહી છે અને જનરક્ષિત મારે માટે ઈષ્ટ વગેરે રૂપમાં સદા રહી છે ત્યારે હે જીનરક્ષિત ! મને જે રડતી, આકંદ કરતી, શોક કરતી, વિરહમાં આર્તધ્યાન કરતી અને આ રીતે વિલાપ કરતી કે જીનપાલિત મારી સામું જોતા નથી તે શું તમે પણ મને રડતી યાવત્ વિલાપ કરતી જોતા નથી.
( तएणं सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा ३ जिणरक्खियमणं ना ऊण वधनिमित्तं उवरिं मागंदिय दारगाणं दोण्हंपि "१" ॥)
રયણ દેવીએ એ પ્રમાણે કટાક્ષ યુક્ત વચને કહ્યાં ત્યારે જનરક્ષિતનું મન ડગમગવા લાગ્યું. આવી પરિસ્થિતિમાં જે કંઈ તેણે કહ્યું તે સૂત્રકાર આઠ
For Private And Personal Use Only
Page #691
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकम्दिदारकचरितनिरूपणम् ६५
सा प्रवर रत्नद्वीपस्य देवताऽवधिना तु जिनरक्खितस्य मनः । ज्ञात्वा वधनिमित्तम्-मारणार्थम् उपरि माकन्दिकदारकयो ई थोरपि ॥ १॥ · दोसकलिया' द्वेषकलिता-द्वेषयुक्ता 'सलीलयं ' सलील सक्रोड ' नानाविहचुण्णवासमीसं' नानाविधचूर्णवासमिश्रं नानाविधाः चूर्णवासाः चूर्णगन्धाः-पिष्टगन्धद्रव्याणि, तैमिश्रां-युक्तां दिव्याम् । ध्राणमनोनितिकरां= ध्राणमनमोस्तृप्तिकरां ताशी सर्व कसुरभिकुसुमदृष्टिं सर्वऋतुसमुत्पन्नसुगन्धितपुष्यदृष्टिं पमुंचमाणी' प्रमुञ्चन्ती ॥ २ ॥ नानामणिकनकरत्नघण्टिकाकिङ्किणीनपुरमेखलाभूषणरवेण, तत्रनानाविधमणिकनकरत्नानां घण्टिकाः, किङ्किण्यः क्षुद्रघण्टिका । नूपुरं-चरणभूषणम् , मेखलाभूषणं-कटिभूषणम् , तेषां रवेण=शब्देन मञ्जुलध्वनिना दिशो विदिशश्च पूरयन्ती=सशब्दं कुर्वन्ती वचनमिदं वक्ष्यमाणं ब्रवीति सा सकलुषा= द्वारा कहते हैं-वह प्रवर रत्न द्वीप की देवता अवधिज्ञान से जिन रक्षित के मन को जान कर मारने के लिये उन दोनों माकंदी दारकों के ऊपर (दोस कलिया) विशेषवती पन गई (सलीलयं णाणाविहचुण्णवास मीसं दिव्वं ! घाणमणनिव्वुहकरं सब्बोउयसुरभिकुसुमबुष्टिंपमुंच. माणी २) फिर उस ने उन के ऊपर बड़ी भारी लीला के साथ नाना विधचुर्णवास मिश्रित एवं प्राण और मन को तृप्ति कारक ऐसी दिव्य सर्वऋतु संबन्धी सुरभित कुसुमों की वृष्टि की। (णाणा मणि कणगरयण घटियखिखिणिगेऊर मेहलमूसणरवेणं' दिसाओ विदिमाओ पूरयंती वयणमिणं वेति सा साकलुसाई) इस के बाद नाना प्रकार के मणियोंकी, सुवर्गकी एवं रत्नोंकी घटिकाओंके क्षुद्र घटिकाओंके नूपुरों के कटिभूषण के शब्द से-मंजुल आवाज से दिशाओं एवं विदिशाओं ગાથાઓ વડે કહે છે-તે પ્રવર રત્નદ્વીપની દેવતા અવધિજ્ઞાનથી જનરક્ષિતના મનની વાત સમજીને મારી નાખવાના વિચારથી તેઓ બંને માર્કદી દારક S५२ ( दोसकलिया) द्वेष रावती 4 . ( सलील यं णाणाविहचुण्गवासदिव्वं ! घाणमण निव्वुइकरं सबोउय सुरभिकुसुमवुठ्ठि पमुंचमाणी २) ॥२ ५७। તેણે તેના ઉપર ભારે લીલાઓની સાથે ઘણું જાતના સુગંધિત ચોંબને નાક તેમજ મનને તૃપ્ત કરે તેવા દ્રવ્ય અને બધી ઋતુઓના સુગંધિત પુની વર્ષા કરી.
(णाणामगिकणगरयणघंटियखिखिणिणेऊरमेहलमूसणरवेणं । दिसाभो विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं वेति सा साकलुसाई)
ત્યાર બાદ ઘણું જાતના મણિઓની, સેનાની અને રત્નની ઘંટડીઓના, વઘરીઓના, સાંઝરના, કદરાના શદથી મંજલ અવાજથી દિશાએ તેમજ
For Private And Personal Use Only
Page #692
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्म कथाङ्गसूत्रे सपापा ॥३॥ तथादि-होल ! हे मुन्ध !, वसुल हे सुकुमार! गोल-हे कठोर! हे नाथ ! दयित हे दयालो ! हे पिय ! हे रमण ! हे कान्त ! हे स्वामिन् ! हे निघृण ! हे स्नेहरहिन !, निछक्क ! हे अवसरज्ञानशून्य ! 'थिण !' हे स्त्यान= हे निर्दयहृदय ! ' णिकिय ' निका! हे निष्करुग ! ' अकयण्णुय ' अकृतज्ञ ! हे कृतोपकारानभिज्ञ ! हे कृतन ! इत्यर्थः 'सिढिळभाव ' शिथिलभाव ! हे मन्दभाव ! 'निल्लज्ज ' हे निर्लज्ज ! ' लुक्ख' रूक्ष ! हे प्रेमशून्य ! ' अकलुण' अरुण ! हे निर्दय ! जिनरक्षिा ! मम ‘हिययरक्खगा' हृदयरक्षक ! हे प्राणरक्षक ! ॥४॥'न हु जुज्जसिः' नैव युज्यसे नवार्हसि न योग्योऽसि त्वम् एकिकाम्-अनाथां-निराधाराम् , अवान्धवाम् असहायां तव ' चलण ओवायकारियं' चरणावपातकारिकांचरणसेविका-माम् 'उज्झिउं त्यक्तुम् , कथम्भूताम् ? 'अहण्णं' को वाचालित करती हुई उस पापिनी ने इस प्रकार कहा-(होलवसुलगोलणाह, दइत, पिय, रमण, कंत सामिय, णिग्यण णिच्छक्क, थिण्ण णिकिव अकयण्णुयसिढिलभाव निल्लज्ज-लुक्ख, अकलुण जिणक्खिय मज्झहिययरक्खगा ४) होल हे मुग्ध ! वसुल-हे सुकुमार । गोल-हे कठोर! हे नाथ ! दयित-हे दयालों! हे प्रिय ! हे रमण, हे कान्त ! हे स्वामिन् ! हे निघृण-स्नेहरहित ! हे निछक्क-अवसरज्ञान शुन्य ! थिण्ण हे निर्दयहृदय ! हे निष्कृप! हे अकृतज्ञ कृनोपकारानभिज्ञ कृतघ्न-हे शिथिल भाव ! हे निर्लज्ज ! हे रूक्ष-प्रेमशन्य, हे अकरूण-निर्दय ! जिनरक्षित ! तुम ही मेरे प्राण रक्षक हो अत:-(णहुज्जसि एक्कियं अणाहं अबंधवं तुज्झ चलण ओवाय कारियं उज्झिउ अहण्णं गुणसंकर ! अहं तुमे विहूणा ण समत्था वि जीविउ खणं पि ५) तुम्हें मुझ चरण सेविका વિદિશાઓને મુખરિત કરતી તે પાપીણીએ આ પ્રમાણે કહ્યું – (होलवसुलगोलणाहदइतपिय, रयत, कंत,सामिय,णिग्धणणिच्छक्क ! थिण्णणिविकव अकयण्णुय सिढिलभाव निलज्ज लुक्ख अकलुण जिणरक्खिय मज्झ हिययरक्खगा४)
स-3 भु!, सुख-3 सुमार!, गोस-3 8२ !, नाथ !, हयित- या! प्रिय ! ३ २भए ! ! स्वाभान् ! 8 नि !
નેહરહિત ! હે નિછકક-અવસર જ્ઞાન શુન્ય ! થિણ-હે નિર્દય હદય ! હે નિષ્કપ ! હે અકૃતજ્ઞ, કરેલા ઉપકારને નહિ માનનારા, કૃતખ–હે શિથિલभाव ! नि ! २क्ष ! प्रेमशून्य, उप -निहाय ! नरक्षित ! મારા પ્રાણ રક્ષક તમે જ છો. એટલા માટે–
(ण हुज्जसि एक्कियं अणाहं अबंधवं तुज्झ चलणओवायकारियं उज्झिउ अहणं गुणसंकर ! अहं तुभे विहणाण समस्या वि जीविडं खगंपिय ) ,
For Private And Personal Use Only
Page #693
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दियदारकचरितनिरूपणम् १७ अधन्याम्-अपूर्णमनोरथाम् । 'गुणसंकर ' गुणसङ्कर-हे गुणसागर ! अहं 'तुमे विहणा' त्वयाविहीना-वद्वियुक्ता न समर्थाऽपि जीवितुं क्षणमपि- त्वां विना क्षणमपि न जीविष्यामीत्यर्थः ॥ ५॥ पश्य, अधुनैव अहम् ' इमस्स उ' अस्य तु ' अणेगझसमगरविविहसावयसयाकुलगिहस्स' अनेकझपमकरविविधश्वापदशवा कुलगृहस्य अनेके झपाः मत्स्याः , मकरा: ग्राहाः, विविधश्वापदाः नानाविधहिंसकजलचरजन्तवः, तेषां शतानि, तैः आकुलं व्याप्त गृहम् अन्तर्भागो यस्य स तस्य रत्नाकरस्य लवणसमुद्रस्य मध्ये आत्मानं 'वहेमि' इन्मिन्नाशयामि तव पुरतः, अतः हे जिनरक्षित ! त्वम् एहि आगच्छ णियत्ताहि ' निवर्तस्व पुरतोगमनात् , यद्यसि त्वं केनापिकारणेन कुपितः, तर्हि 'खमाहि' क्षमस्व 'एक्का घराहं ' एकापराधम्-अज्ञानवशात्सञ्जातमेकमपरधं मे मम ॥ ६ ! ' तुज्झय ' तव को असहाय निराधार अकेली छोड़ना योग्य नहीं है। मेरे अभीतक कोई भी मनोरथ पूर्ण नहीं हुए हैं। हे गुणसागर ! मैं तुम्हारे विना १ एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती हूँ। (इमस्स ३ अणेगझसमगर विविह सोवय सयाउलघरस्स । रयणागरस्स मज्झे अप्पाणं वहेमि तुज्झ पुरओएहिं नियत्ताहि जइसि कुविओ खमाहि एक्कावराहमे ६ ) देखो मैं इसी समय अनेक प्रकार की-सैकड़ों मछलियों से मगरों से विविध हिंसक जलचर जन्तुओं से व्याप्त हुए अन्तर्भाग वाले इस समुद्र के बीच में तुम्हारे देखते २ अपने आपको डाल देती हूँ-अतः हे जिनरक्षिततुम आओ-आगे मत बढो, तुम यदि किसी कारण वश मेरे ऊपर कुपित हो गये हो-तो मेरे अज्ञानवश हुए उस अपराधको क्षमा करो। (तुज्झ
મારા જેવી ચરણોની દાબીને અસહાય, નિરાધાર અને એકલી મૂકીને જતા રહેવું તમારા જેવાને માટે યોગ્ય કહી શકાય નહિ હજી મારી એક પણ ઈચ્છા પૂરી થઈ નથી. હે ગુણ સાગર! તમારા વગર એક ક્ષણ પણ હું જીવી શકું તેમ નથી ( इमस्स उ अणेगझस मगरविविहमावयसयाउलधरस्स ! रयणागरस्स मज्झे अप्पाण बहेमि तुझं पुरओएहि नियत्ताहि जइसि कुविओ खमाहि एक्कावराहमे६)
જુઓ, હું અત્યારે જ ઘણી જાતની સેંકડો માછલીઓ, મગ, ઘણી જાતના હિંસક જળચર પ્રાણીઓથી યુક્ત આ સમુદ્રની વચ્ચે તમારી સામે જ ડૂબી મરું છું. માટે હે જીનરક્ષિત તમે આવે, આગળ જશે નહિ. ગમે તે કારણથી જે તમે મારા ઉપર નારાજ થઈ ગયા છે તે મારા અજ્ઞાનથી થયેલી ભલેને તમે માફ કરે,
For Private And Personal Use Only
Page #694
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथा च 'विगयघगविमलसमिमंडलागारं ' विगघनविमलशशिमण्डलाकारम्-विगत. घन-मेघाहितम् एव विमल=निर्मलं शशिमण्डलं चन्द्रमण्डलं, तस्येवाकार:= आकृतियत्य तत्तयोक्तम् , सस्सिरीयं ' सश्रीकं-शोभासम्पन्नम् , ' सारयनवकमलकुमुय कुवलयविमलदलनिगरसरिसनिभनयणं' शारदनवकमलकुमुदकुवलय विमलदल निकरसदृशनिभनमनम् तत्र शारद-शरत्कालसमुत्पन्न यन्नवं नूतनं कमलं-सूर्यविकाशिप- कुवलय-चन्द्रविकाशिप, तेषां विमलदलनिकरः = निर्मलदलसमूहः, तत्सदृशे-तत्तुल्ये निभे-नितरां दीप्तियुक्ते च नयनेन्नेो यस्मिन् तत् तथोक्तम् , एतादृशशोभासम्पन्न 'चयणं' वदनं-मुवम् , 'पिचासागयाए' पिपासागतायाः= दर्शनौत्सुक्येन समागतायाः श्रद्धावान्छा मे-मम 'पेच्छिउँ ' प्रेक्षितुं-विलो. फितुं वर्तते 'जे' यस्मात् 'अलोहि ' आलोकय पश्य 'ता' तावत् ' हो मम' इतो ममराभिमुख ‘णाह' हे नाथ ! 'जा' यावत्-यावत्कालं ते तर 'पेच्छामि' प्रेक्षेपश्यामि ‘वयणकमलं' वदनकमल-मुख कमला , ॥ ७ ॥ य विगय घण-विमल-ससिमंडलागारं सस्सिरीयं सारय नवकमल कुमु. यकुवलय-विमलदल-निकरसरिस-निभनयणं वयणं पिवामागयाए सद्धा में पेच्छिउं जे अवलोएहि ताइओ ममं णाह जा ते पेच्छामि वयण कमलं ७) दर्शन की उत्सुकता से आई हुई मेरीइच्छा तुम्हारे मुख को देग्वने के लिये हो रही है । तुम्हारा वह मुख मेघ रहित निर्मल चन्द्रमडल के समान आकृति वाला एवं विशिष्ट शोभा संपन्न है। इसके दोनों नेत्र शरदकालीन नवीन कमल, कुमुद,एवं कुवलय के दलनिकर के समान अत्यन्त दीप्ति शाली हैं । सूर्यविकाशीपद्म का नाम कमल, चन्द्र विकाशी पद्म का नाम कुवलय है। इसलिये हे नाय! इस तरफ तुम मेरी ओर देखो जबतक तुम मेरी ओर देखते रहोगे-तबतक मैं तुम्हारे
(तुझ य विगय घगविमलससिमंडलागार सस्सिगेयं सारय नत्र कमल कुमय-कुवलय-विमलदल-निकर-सरिस-निभनयणं वयणं पिवासा गयाए सद्धामे पेच्छिउं जे अवलोएहि ताइभो ममं णाह ते पेच्छामि वयण कमलं ७)
દર્શનના ઉમળકાથી પ્રેરાઈને આવેલી મારી ઈચ્છા તમારા મુખને જોવાની થઈ રહી છે તમારું મુખ મેઘ રહિત નિર્મળ ચંદ્રમંડળની જેમ આકારવાળું અને સવિશેષ સૌંદર્ય યુક્ત છે. બંને ને શરદ-ઋતુના નવીન કમળ, કુમુદ અને કુવલયન દલનિકરની જેમ ઘણું શુતિમાન છે. સૂર્ય વિકાશી પદ્મનું નામ કમળ, ચન્દ્ર વિકાશી પદ્મનું નામ કુવલય છે. એટલા માટે હે નાથ ! તમે મારી તરફ જુ છે. જ્યાં સુધી તમે મારી તરફ જોતા રહેશે ત્યાં સુધી હું પણ તમારું મુખકમળ લઈ લઈશ.
For Private And Personal Use Only
Page #695
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतषिणी ० ० ९ माफम्बिदारफचरितनिरूपणम् ६३९ एवम् अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण 'सप्पणयसरलमहुराई' सपणयसरलमधुराणि-स्नेहसहित सुखार्थबोधकानि मधुराणि च पुनः पुनः ' कलुगाई' करुगानिकरुणरसजनकानि ' वयणाई ' वचनानि 'जंपमाणी' जल्पन्ती सा पापा 'मागओ' मार्गतः मार्गे इत्यर्थः । समण्णेइ ' समन्वेतिवागच्छति पावहियया' पापहृदया=कुटिलान्तःकरणा का रत्नद्वीपदेवता ।। ७ ॥
ततः खलु स निनरक्षितश्चलमनास्तनव भूपणरवेण कर्म मुखदेन मनोहरेण, तथा तैश्चैव सपणयसरसमधुरभणितैः सञ्जाताद्विगुणरागा कामरागाकृष्टः सन् रत्नद्वोपस्या देवतायारतस्याः सुन्दरस्तनजघनवदनकरचरणनयनलावण्यरूपयौवनप्रियं च दिव्याम् , तया ' सरभसउपगृहियाई' सरमसोपहितानि-ससम्भ्रताडि नानि, यानि च ' विब्बोयविलसियाणिय' विब्बोक लिसितानियोकाःमुखकमल को देखलूगी ( एवं सप्पणयसरलमहुराई पुणो २ कलुणाई घयणाई जंपमाणी सा पावमग्गओ समण्णेइ, पावहियया ८ ) इस प्रकार -कुटिलान्तकरणवाली वह रत्नदीपदेवता वार २ स्नेह सहित, सुग्वार्थ बोधक, मधुर एवं करुणारसजनक वचनों को योलती हुई मार्ग में उसके पीछे २ चलने लगी । (तएणं से जिणरक्खिए चलमणे तेणेव भूम परवेणं कण्णसुहमणोहरेण तेहि य सप्पणयसरलमहुर भणिएहिं संजाय विणराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुन्दरथण जहणवयण कर घरणनयणलावनारजोन्वणसिरिं च दिव्वं सरभसउवगूड़ियाइं विन्यो य विलसियाणि य विहसिय सकडवखदिहि निस्ससिय मलिन उवललिय ठियगमण पणयखिज्जिय पासाइयाणि य, सरमाणे रागमोहियमई अबसे कम्मवसगए अवयवखति मग्गतो सविलियं) इसके बाद कर्णेन्द्रिय को
( एवं सप्पणयसरलमहुगई पुणो २ कलुगाई वयणाई.जपमाणो सो पाव. मग्गओ समण्णेइ पावहियया ८)
આ રીતે કુટિલ હૃદયવાળી તે રત્નદ્વીપ દેવતા, વારંવાર નેડસરિત. સુખાર્થ બેધક મધુર અને કરૂણા-રસજનક વચને કહેતી માર્ગમાં તેને અનુસરતી ચાલવા લાગી.
(तएणं से निणराक्खिए चलमणे तेणेव भूमणरवेगं कामुहमणोहरेग तेहि य सप्पणयसरलमहुरमणिएहिं संजायविणरार रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुंदरथण नहण वयणकर-चरण-नयण-लावन्नरूब जाब्व णसिरि च दिव्वं सरभसउवाहियाई विन्योय विलसियाणि य विहसिय सकडक्ख दिहि निस्ससिय मलिय उवललिय ठियगमण पणयखिज्जिय पासाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमई अबसे कम्मरसगए अवयक्खत्ति मग्गतो सविलियं )
-
For Private And Personal Use Only
Page #696
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६४०
uttrधर्मकथासूत्रे
,
"
स्त्रीचेष्टा विशेषाः, विलसितानि=नेत्रविकारादि लक्षणानि च ' विहसिय सकडक्व दिट्टिनिस्ससियम लिय उबल लियठियगमणवण यरिवज्जियपासाइयाणि य' विहसित सकटाक्षदृष्टिनिः श्वसितमचितं पललितस्थितग मनप्रणयर्खिमित प्रसादितानि चविहसितानि - हास्यानि सकटाक्षदृष्टयः =सविकारविलोकनानि निःश्वसितं= निः श्वासमोचनम्, मलितं पुरुषाभिलपितमर्दनम् उपललितानि = क्रीडाविशेषरूपाणि, स्थितम् = भवन निवसनादिकमू, गमनं - हंस गत्यासञ्चरणम्, प्रणयः = स्नेह, वचनम्, खिंसनं= कामकलहः, प्रसादितं = प्रसन्नतारूपम्, एतानि सर्वाणि च 'सरमाणे ' स्मरन = पुनः पुनः स्मृतिपथमानयन् ' रायमोहियमई ' राममोहितमतिः = कामरागमूच्छित्तमतिः, 'अब से ' अवशः = विवशः कामपराधीनः 'कम्मर गए कर्मवशगतः = कर्मगतिपरवशः सन् असौ जिनरक्षितस्तां ' अवयक्त्वइ ' पश्यति ' माओ ' मार्गतः पृष्टतः ' सविलियं ' सत्रीडं = सलज्जं दृष्टवानित्यर्थः । सुख देने वाले और मन को हरण करने वाले उन्हीं भूषणो के शब्दों से तथा उन्हीं सप्रणय सरल मधुर भाषणों से जिसका रागभाव द्वीगुणित हो गया है ऐसा वह जिनरक्षित चंचल मनवाला बन गया। सो उस रयणादेवी के दोनों सुन्दरस्तनों की दोनों जघनों की, बदन की दोनों करों की दोनों चरणों की, लावण्य की, रूप एवं गौवन की दिव्य श्री का तथा उसके ससंभ्रमकृत आलिङ्गनों का, विब्बोक तथा विलासों का, हास्य का, कटाक्षयुक्तदृष्टि विक्षेप का श्वासमोचन का, पुरुषाभिलषितमर्दन का, क्रीडा विशेषरूप उपललितों का भवनादिकेों में निवास करने आदि का उसकी हंसकी चालके समान गति का, उसके प्रणयवचनों का, काम कलह का, उसकी प्रसन्नता का बार २ स्मरण करता हुआ वह काम राग से मोहित मतिवाला बन गया। इस तरह काम से पराधीन
ત્યાર પછી કાનાને ગમતા અને મનને આકષનારા ઘરેણાંઓના શબ્દથી તેમજ પ્રણયના સરળ મધુર વચનેાથી જેને રાગભાવ ખમણેા વધી ગયા છે એવા તે જનરક્ષિત ચંચળ મનવાળા થઈ ગયેા. તે રસણા દેવીનાં બંને સુંદર સ્તનેનું, જઘનેનું, વદનનું, બંને હાથેાનું, તે ચોાનું, લાણ્યનું રૂપ તેમજ यौवननुं, दिव्यश्रीतुं तेन ससंभ्रमद्भुत मासिंगनेानुं, विज्झाउनु, विस सोनुं, હાસ્યનું, કટાક્ષયુક્ત દૃષ્ટિ વિક્ષેપનું, શ્વાસ મેચનનું, પુરૂષાભિલષિત મનનું, ક્રીડા વિશેષ રૂપ ઉપલપિતાનું ભવના વગેરેમાં રહેવા કરવાનું, તેની હંસ જેવી ગતિનું, તેના પ્રણયપૂણ વચનાનું કામકલહનું, તેની પ્રસન્નતાનું વારંવાર સ્મરણુ કરતે કામરાગથી માહિત મતીવાળે થઈ ગયા. આ રીતે કામવશ થયેલા
For Private And Personal Use Only
Page #697
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ६१
ततः खलु जिनरक्षितं समुत्पन्नकरुणभावं तां प्रति संजातदयाहृदयम् , अत एव ' मच्चुगलस्थल्लणोल्लियमई' मृत्युगलस्थल्लानोदितमतिः, मृत्युना=मृत्युराक्षसेन 'गलस्थल्ला 'कण्ठग्रहणरूपा, तया नोदिता स्वदेशगमनवैमुख्यतया मृत्यु. मुखप्रवेशसंमुखीकृता मतिर्यस्य स तथा तम् ' अवयक्वंतं ' तां रत्नद्वीपदेवतां पश्यन्तं तथैव-तथारूपेणैव यक्षश्च शैलकः 'जाणिऊण ' ज्ञात्वा ' सणियं२ ' शनैः शनैः 'उबिहइ' उद्विजहाति उच्छालयति-नियगपिट्ठाहि' निजकपृष्ठाद् 'विगयसद्धं ' विगतश्रद्धं विगता-नष्टा श्रद्धा विश्वासो यक्षवचने यस्य स तम् , स यक्षस्तं स्वपृष्टात्पातयामासेत्यर्थः ।
ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता — निस्संसा' नृशंसा-निर्दया ' कलुणं' करुणं दयनीयं जिनरक्षितं ' सकुलसा ' सकलुषा-कलुषितहदया शैलकपृष्ठात् धना वह विचारा जिनरक्षित अशुभकर्म के चक्कर में पड़कर मार्ग में चलते २ उसकी ओर वार २ लज्जा सहित देखने लग गया। (तएण जिणरक्खियं समुप्पन्नकलुणभाव मच्चुगलस्थल्लणोल्लियमई अवयक्खत' तहेव जक्खे य सेलए जाणिऊण सणिय २ उन्विहति नियग पिट्टाहि विगय सद्धं ) उत्पन्न हुआ है रयणा देवी के प्रति दया भाव जिसको ऐसे उस जिनरक्षित को कि जिस की मति कंठ पकड कर मृत्यु रूपी राक्षस ने अपने मुख में प्रवेश के सन्मुग्न कर ली है रयणा देवी की ओर बार २ निहारता हुआ देखकर-जानकर धोरे २ अपनी पीठ पर से अपने वचनों में श्रद्धा विहीन जान उछाल दिया । पटक दिया ( तएणं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिणरविवयं सकलुसा सेलगपिट्ठाहि બિચારે જનરક્ષિત અશુભ કર્મની લપેટમાં આવીને માર્ગમાં ચ લતે ચાલતે તેની સામે વારંવાર લજજાયુક્ત થઈને જેવા લાગે. ( तएणं जिणरविवयं समुपन्नकलुगभावं मच्चुगलथल्लणोल्लियमई अध्यक्खंतं तहेव जक्खे य सेलए जाणिऊ ण सणिय२ उबिहति नियग पिट्टाहि विगयसद्ध)
રયણ દેવીને માટે જેના મનમાં દયા ભાવ જન્મે છે એવા તે જીનરક્ષિતને-કે જેની મતિનું ગળું દબાવીને મૃત્યરૂપી રાક્ષસે ગળી જવા માટે પિતાના મેંની સામે કરી લીધી છે-યણદેવીની તરફ વારંવાર જોતા જાણીને, તેને (યક્ષના) વચનેમાં અશ્રદ્ધાળુ થઈ ગયેલે સમજીને ધીમે ધીમે જીનરક્ષિતને યક્ષે પિતાની પીઠ ઉપરથી ફેંકી દીધો. પટકી દીધે.
(तएणं सा रयणादीवदेवया निस्संसा कलुणं जिगरविवयं सकलुसा सेलगपिट्टाहि ओवयंत दास ! मोसिति जपमाणी अप्पत्तं सागरसलिलं गेण्हिय बाहादि
शा८१
For Private And Personal Use Only
Page #698
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
=
ફય
शाताधर्मकथासूत्रे
,
' ओदयं तं ' अवपतन्तम् = समुद्रे पतन्तम्, 'दास' हे दास ! हे नीच ! 'मओसि' मनोऽसि त्वम् इति जल्पन्ती सती ' अप्पत्तं सागरसलिलं ' अवाप्तं सागरसलिलं समुद्रनीरममाप्तमेव मध्य एव 'गेण्डिय बाहाहिं ' गृहीत्वा वाहुभ्याम् | आरसन्तं = सकरुणं रुदन्तं = चीत्कुर्वन्तमित्यर्थः ऊर्ध्वम् उच्चिइ उदिजहाति = उच्छालयति अम्बरतले = गगनतले, ' ओवयमाणं च ' अवपतन्तं च पश्चादधः पतन्तं च 'मंडलरगेण 'मण्डलाग्रेण = खड्रेन 'पडिच्छित्ता ' प्रतिच्छिद्य= छिवा नीलोत्पल गवलासीप्रकाशेन = अतिशयामेन असिवरेण सुतीक्ष्णखङ्गेन खण्डाखण्डिखण्ड-खण्डं करोति
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ओवयंत दास ! मओसिति जपमाणी अप्पत्तं सागरसलिलं गेव्हिय बहाहि आरसंत उडू उव्विहति अपरतले, ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छितो नीलुप्पलगवलअयसिप्पगासेण असिवरेण खंडाख' डिं करेइ तत्थ विलवाणं तस्स य सरस वहियरस घेत्तूणअंग मंगातिं सरूहिराइ उक्त्ति बलिं चउद्दिसिं करे सा पंजली पहिट्टा ) इसके बाद नृशंस हत्यारी - तथो कलुषित हृदयवाली उस रयणादेवीने शैलक यक्ष की पीठ से समुद्र में गिरते हुए जिनरक्षित को जब तक वह समुद्र में नहीं गिर पाया तब तक बीचमें ही अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया और कहने लगी हे नीच अब तु मर गयो । इस प्रकार सुनकर सक रूण विलाप - चित्कार करते हुए उस जिनरक्षित को उसने ऊपर उछाल दिया पश्चात् निचे गिरते समय उसने अपनी तलवार से दो टुकडे कर दिये । दो टुकड़े करके फिर उसने नीलोत्पल, गवल एवं अतसी के पुष्प के जैसी वर्ण वाली तीक्ष्ण तलवार से उसके खंड २ कर दिये। इस तरह
आरसंतं उडूं उच्चिहति अंबरतले, ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पल गवल अयसिपगासेण असिवरेण खंडाखंडिं करेइ हत्थ विलनमाणं तस्सय सरसव हियरस बेतण अंगभंगातिं सरूहिराई उक्ति बलिं चउद्दिर्सि करेइ पंजली पहिट्टा )
ત્યારપછી નૃશંસ-હત્યારી-તેમજ કલુષિત હૃદયવાળી રયણા દેવીએ વેલક યક્ષની પીઠ ઉપરથી ખસીને સમુદ્રમાં પડતાં જોયા ત્યારે તે સમુદ્રમાં પડે નહિ તે પહેલાં તેણે પેાતાના બંને હાથેથી તેને પકડી લીધેા, અને તે કહેવા લાગી કે હું નીચે ! હવે તુ મરાચે જ સમજ. રયણા દેવીની વાત સાંભળીને જીનરક્ષિત કરૂણ વિલાપ કરવા લાગ્યા. તે દેવીએ તે સ્થિતિમાં જ તેને ઉપર ઉછાળ્યેા. અને ત્યારપછી નીચે પડતા જીનરક્ષિતના તેણે પેાતાની તલવારથી એ કકડા કરી નાખ્યા. એ કકડા કર્યાં બાદ પણ તેને નીલેત્પલ, ગવલ અને અતસીના પુણ્ય જેવી રંગવાળી તીક્ષ્ણ તલવારથી તેના શરીરના કકડે કકડા
For Private And Personal Use Only
Page #699
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदार कचरितनिरूपणम्
કરે
"
तत्र 'क्लिवमाणं' विलपन्तं = विलापं कुर्वन्तमित्यर्थः । तस्य च 'सरसवहियस्स' सरसवधितस्य साभिमानं वधं मापितस्य ' घेतूण ' गृहीत्वा ' अंगमंगाई' अङ्गाङ्गानि अङ्गोपाङ्गानि=करचरणमस्तकादीनि सरुधिराणि= रुधिरलिप्तानि उक्खित्तवलि ' उत्क्षिप्त बलिम्=आकाशमक्षे वणरूपं वायसवाल - मित्रबलिं ' चउद्दिसिं चतुर्दिक्षु करोति सा ' पंजली' प्राञ्जलि: = संयोजित करपुटा 'पहिठ्ठा' प्रहृष्टा = दर्पितमनस्का सतीघातरूपं स्वाभिलपित कार्यं कृतवतीत्यर्थः ॥ ०७ ॥
3
मूलम् - एवामेव समणाउसो ! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सर कामभोगे आसायइ पत्थयइ पीहेइ अभिलस से णं इह भवे चेत्र बहूणं समणाणं४ जाव संसार० अणुपरियहिस्सति, जहा वा से जिणरक्खि ए- 'छलिओ ramrat निरावयक्खो गओ अविग्घेणं । तम्हा पवय
सारे निरावयक्खेण भवियव्वं ॥ १ ॥ भोगे अवयक्खता पडति संसारसायरे घोरे । भोगेहि निरवयक्खा तरंति संसारकंतारं ॥ २ ॥ सू० ८ ॥
टीका -' एवमेव ' एवमेव = पूर्वोक्तान्तेनैव 'समणाउसो !' हे श्रमणा अपने घातरूप अभिलषित कार्य को संपन्न करती हुई वह बहुत अधिक हर्षित हुई । उस रयणादेवी ने साभिमान वध को प्राप्त हुए उस जिन रक्षित के रुरल अंग उपांगों की चारों दिशाओ में वायस बलि के जैसी बलकी और दोनों हाथों को जोड़कर फिर बडी आनन्द मग्न हुई | | ०७॥
' एवामेव समणाउसो' इत्यादि ।
टीकार्थ - ( एवमेव ) इसी तरह (समगाउसो ) हे आयुष्मन्त श्रमणा ! કરી નાખ્યા. આ રીતે પોતાની ઘાતકી ઇચ્છા પૂરી કરતાં તે અત્યધિક પ્રસન્ન થઇ. તે રયણા દેવીએ લેહીથી ખરડાએલા કકડે કકડા થયેલા જીનરક્ષિતનાં અંગે, ઉપાગાંને સગા ચાર દિશાઓમાં કાગડા વગેરેને માટે લિ રૂપમાં ફેકી દીધા, અને પછી બંને હાથેાને જોડીને તે આન મગ્ન થઇ ગઈ. । સૂત્ર ‘‘છા’’
( एवा मेव समणाउसो " इत्यादि ||
टीडार्थ - ( एवमेत्र) मा प्रमाणे ( समणाउसो ) हे मायुष्भन्त श्रभो !
For Private And Personal Use Only
Page #700
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
ફાર
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा आचार्योपाध्यायानामन्तिके प्रव्रजितः सन् पुनरपि मानुष्यकान् कामभोगान् = पूर्वव्यक्तान् ' आसायइ ' आसादयति = स्वीकरोति, 'पत्थयह प्रार्थयते = अप्राप्तान् याचते, ' पीहेड' स्पृहयति' अयाचितं - एवायं मह्यं भोगान् ददाति तदा समीचीनं स्यात् ' इत्यादि रूपां स्पृहां करोति 'अभिलस' अभिलषति = दृष्टादृष्टशब्दादि - विषयेषु वाञ्छां करोति, स खलु इह भव एव बहूनां श्रमणानां बद्दीनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बीनां श्राविकाणां मध्ये ' जाव' यावत् - यावच्छब्देनेदं दृश्यम् - हीलनीयः, निन्दनीयः, खिसनीयः = भर्त्सनीयः, गर्हणीयः, परिभवनीयः = तिरस्करणीयो भवति, परलोकेsपि च खलु आगमिष्यति काले बहूनि दण्डानि कर्णनासाच्छेदनरूपाणि प्राप्नोति यावत् - अनादिकम् - अनवद्यम् अनन्तं दीर्घाध्वानं दीर्घमार्ग, दीर्घाद्धं वा दीर्घकालिकं चातुरन्त संसारकान्तारं = चातुर्गतिक संसाराटवीम् ' अणुपरियहिस्सइ ' अनुपर्यटिष्यति पुनः पुनभ्रमिष्यति, यथा वा स जिनरक्षितः । अत्रार्थे दृष्टान्तयोजनागाथाद्वयेनाह
०
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( जो अहं निग्गंथो वा निरगंधी वा आयरियउवज्झायाणं अतिए पव्वइए ) जो हमारा निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी जन आचार्य तथा उपा ध्याय के पास प्रवजिन होता हुआ (पुणरवि माणुस कामभोगे आसायह पत्थर, पीहेर, अभिलसइ ) पुनः मनुष्य भव संबन्धी काम भोगों - पूर्वत्यक्त वैषयिक सुखों को स्वीकार कर लेता है उनकी चाहना करता है " विना याचना किये ही यह मेरे लिये भोगों को देदेवे तो अच्छा है " इस प्रकार की जो स्पृहा इच्छा करता है, या दृष्टादृष्ट शब्दादि विषयों में वाञ्छा करता है ( से णं इह भवे चेव बहूणं समणा४ जाव संसार अणु परिस्सिइ जहाब से जिगरक्खिए छलिओ
,
For Private And Personal Use Only
( जो अहं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय उब्वज्झायाणं अंतिए पन्नइए ) જે અમારા નિગ્રંથ કે નિગ્ર'થી જન આચાય તેમજ ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રત્રજીત થઇને ( पुणरवि माणुस कामभोगे आसायइ पत्थयइ, पीहेइ, अभिलसइ )
ક્રી તે મનુષ્યભવના કામભોગા-પ્રત્રજીત થતી વખતે છેડેલા મનુષ્યભવના विषम सुमो ने स्वीमरे छे, ते सुमोनी इच्छा उरे छे." હુ' વિષય સુખની એની પ.સેથી માંગણી કરૂં નહિ ને એની મેળે તે મને વિષમ સુખે આપે તા કેટલું સારું થાય આ રીતે જે સ્પૃહા કરે છે, અથવા તે। દૃષ્ટાદેષ્ટ શબ્દ
વગેરે વિષયેાની ઈચ્છા કરે છે.
( से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं ४ जाव संसार० अणुपरियद्विस्स
Page #701
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम्
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
"
" छलिओ अवयक्खतो, निरावयक्खो गओ अविग्वेणं । तम्हा पत्रयणसारे, निरावयक्खेण भवियन्वं ॥ १ ॥ भोगे अवयववंता, पडति संसारसायरे घोरे । भोगेहिं निरवयक्खा, तरंति संसारकंतार || २ || " इति ॥
"
अस्य व्याख्या - छलितः = वञ्चितः कः ? अवयवखंतो ' पश्यन् रत्नद्वीपदेवताम् - अवलोकयन् जिनरक्षितो विमतारितः । यः 'निरावयक्खी ' अवश्यकःतस्या देवताया अदर्शकः तां न दृष्ट्वन्नित्यर्थः, स जिनपालितः गतः गृहं प्राप्तः ' अविग्वेणं' अविघ्नेन = निर्विघ्नतया सुखसुखेन स्वस्थानं प्राप्त वानित्यर्थः । अथोपदेशमाह - तस्मात् कारणात् प्रवचनसारे=चारित्रे लब्धे सती 'निरवयक्खेण' carraतो निरावयवो गओ अविग्घे णं ! तम्हा पत्रयणसारे निरा वयक्खेण भविषi ) वह इस भव में ही अनेक श्रमणो अनेक श्रमणि यों अनेक श्रावकों एवं अनेक श्राविकाओं के बीच में होलनीय होता है, निंदनीय होता है, विसनीय होता है, तथा परभव में भी अनेक कर्णनासिकाच्छेदन आदि रूप दंडों को भोगता है ऐसा जीव अनादि अनन्त रूप इस दीर्घ मार्ग या काल वाले चतुर्गतिक संसार कान्तार में पुनः पुनः भ्रमण करेगा। जिन रक्षित का जो इस विषय में दष्टान्त दिया गया है उसकी योजना इस प्रकार है-जैसे रयणा देवी की तरफ देखता हुआ जिनरक्षित ठगा गया और उसकी तरफ नहीं देखता जिनपालित शीघ्र अपने घर पहुँच गया-इसी तरह चारित्र के प्राप्त कर लेने पर जो व्यक्ति शब्दादि विषयों की वाञ्छा से रहित होता है
ફેળ
जहा से जिणरक्खि छलिओ अवयक्खंतो निरावयक्खो गओ अविग्वेणं ! तम्हा पत्रयणसारे निराक्यक्खेण भवियन्वं )
For Private And Personal Use Only
તે આ ભવમાં જ ઘન્નુા શ્રમણા અને શ્રમણીએ તેમજ ઘણા શ્રાવક અને શ્રાવિકાઓની સામે હીન્નનીય હાય છે, નિ ંદનીય હાય છે, ખિસનીય હાય છે. ( ભનીય હાય છે. ) તિરસ્કાર કરવા ચેોગ્ય હાય છે, તથા બીજા જન્મમાં પણ ઘણા કાન, નાક કપાવવા વગેરે રૂપ સજાને ભાગવતા રહે છે. આ જાતના જીવ અનાદિ અન’તરૂપ આ દી માર્ગ અથવા કાળવાળા ચતુતિક સ ́સાર કાંતારમાં વારંવાર ભ્રમણ કરશે. અહી' જીનરક્ષિત વિશે જે દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યું છે તેને આ પ્રમાણે સમજવું જોઇએ. જેમ રયણા દેવીની તરફ જોતાં જીનરક્ષિત ઢગાયા અને તેની તરફ ન જોતાં જીનપાલિત એકદમ પેાતાને ઘેર પહાંચી ગયા તેમજ ચારિત્ર મેળવવા માદ જે માણસ શબ્દાદિ ભેગાની ઈચ્છા
Page #702
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
દ્
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
अपश्य के न = माताप्राप्त - दृष्टादृष्टशब्दादि विषयाणामदर्शकेण शब्दादिविषयवाञ्छारहितेनेत्यर्थः भवितव्यम्, चारित्रं गृहीत्वा विषयवासना लेशतोऽपि मुनिना मूर्छा न विधातव्येति भावः ॥ १ ॥ अतएव भोगे' भोगान् = शब्दादिकान् ' अत्रयवंता ' पश्यन्तः = त्राञ्छन्तो जीवाः सन्ति संसारसागरे घोरे । ये भोगेषु निरवयवखाः' अपश्यकाः चारहिताः सविते तरन्ति पारयन्ति संसारकान्तारं =माटवीम् || २ || मु० ८ ॥
मूलम् - तणं सा रयणद्दविदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेत्र उवा० बहूहिं अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरनहुरसिंगारेहिं कल्लुणेहि य उवसग्गेहि य जाहे नो संचाएइ चालित्तए वा खोभि० विष्प० ताहे संता तंता परितंता निव्विण्णा समाणा जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया, तएण से सेलए जक्खे जिणपालिएण साद्ध लवणसमुदं मज्झंमज्झेणं वीयवयइ२ जेणेव चंपानयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता चपाए नयरीए अग्गुजाणंसि जिणपालियं पिद्वातो ओयारेइ ओयारिता एवं वयासी - एसणं देवानुपिया ! चंपानयरी दीसइ त्तिकद्दु जिणपालियं आपुच्छर आपुच्छित्ता जामेव दिसिं पाउब्भुए तामेव दिसिं पडिगए ॥ सू० ९ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वह इस संसार रूप अटवी से पार हो जाता है और जो उस अवस्था में शब्दादि विषय भोगोंकी वाञ्छा करता है वह संसार रूप अटवी में डूबता रहता है - पडता रहता है। सूत्र
46
ܐ ،
રાખતા નથી તે આ સૉંસાર રૂપી અટવીની પાર પહોંચી જાય છે અને જે શબ્દ વગેરે વિષય--ભાગાની દચ્છા કરે છે તે સસાર રૂપી અટવીમાં ફસાઇને તેમાં જ ડૂબતા રહે છે. ॥ સૂત્ર
“ ८” ॥
For Private And Personal Use Only
Page #703
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधामृतवर्षिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकरितनिरूपणम् ६४७
टीका-'तएणं सा' इत्यादि । ततः खलु तदनन्तरं जिनरक्षित्तवधानन्तरं सा रत्नद्वीपदेवता यत्रैव जिनपालितस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य बहुभिः-अनुलोमैः अनुकूलैश्च, प्रतिलोमैः प्रतिकूलैश्च ‘खरमहरसिंगारेहि' खरमधुरशृङ्गारैः खरैः कर्कशैः, मधुरैः मिष्टैः कर्णसुखदैरित्यर्थः, शृङ्गारैः श्रृङ्गाररसोत्पादकैः, करुणैश्च करुणाजनकैः उपसगैरनुकूलरूपैश्च यदा तं नो शक्नोति 'चालित्तए वा' चालयितुम् अधीरतामुत्पादयितुम् , ' खोभित्तए वा ' क्षोभयितुं क्षुब्धं कर्तुम् , विपरिणामित्तए ' विपरिणमयितुम् मनः परिणामं परावर्तयितुं न समर्थाऽभूत् तदा सा • संता' शान्ता=शिथिला हतोत्साहा, श्रान्ता वा परिश्रमिता तान्ता-खिन्ना, परितान्ता=सर्वथा खेदमापन्ना ' नविण्णा' निर्पिण्णा-विमनस्का सती यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता समागता तामेव दिशं प्रतिगता=प्रतिनिवृत्ता। तएणंसा रयणदीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उवा वच्छइ इत्यादि । ____टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (सारयणदीवदेवया ) वह रयणा देवी (जेणेव जिणपालिए ) जहां जिन पालित था ( तेणेव उवागच्छइ ) वहां आई (यहूहि अणुलोमेहिं पडिलोमेहिं खरमहरसिंगारेहिं कलुणेहिं य उवमग्गेहि य जाहेनो संचाएहिं चालित्तए वा खोभि ० विप्प ० ताहे संतातंत्ता परितंता निविणा समाणा जामेव दिसि पाउ . तामेव दिस पडिगया ) वहां आकर उन से अनेक अनुकूल प्रतिकूल, कर्कश, मधुर-कर्ण सुखद-श्रृंगार रसोत्पादक, एवं करुणारस जनक उपसर्ग वचनों द्वारा उसे चलायमान करने का क्षुभित करने का और उमकी मोनवृत्ति को बदल ने का बहुत प्रयत्न किया परन्तु जब वह उसे चलायमान करने के लिये, क्षुभित करने के लिये एवं उस की मनोवृत्ति बदलने के लिये समर्थ नहीं हो सकी तय हतोत्साह परिश्रमित तएणं सा रयणदीवदेवया जेणेव निणपालिए तेणेव उवागच्छइ इत्यादि ।
-(तएणं ) त्या२५छी (सा रयणहीवदेवया) ते २५९! हेवा (जेणेव जिणपलिए ) ज्यां न पासित ते( तेणेव उवागच्छइ ) त्या मावी.
(बहहिं अणुलोमेहिं कलुणेहिं य उवसग्गे हि य जाहे नो संचाएहिं चालितए वा खोभि• विप्प ताहे संतातंत्ता परितंता निविष्णा समाणा जामेव दिसि पाउ० तामेव दिसं पडिगया ) ।
ત્યાં આવીને ઘણા અનુકૂળ, પ્રતિકૂળ, કર્કશ, મધુર, કર્ણસુખદ અંગાર રસોત્પાદક, અને કરૂણ રસજનક ઉપસર્ગ વચને વડે તેને પિતાના નિશ્ચયથી ચલિત કરવાના શુભિત કરવાના અને તેની મને વૃત્તિને ફેરવી નાખવાના ખૂબજ
For Private And Personal Use Only
Page #704
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ફ્રૂટ
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
,
•
ततः खलु स शैलको यक्षो जिनपालितेन सार्द्धं लवणसमुद्र मध्यमध्येन 'वीवय व्यतिव्रजतिगच्छति व्यतिव्रज्य यचैव चम्पानगगरी तत्रैवोपागच्छति, उरागत्य चम्पाया नगर्या ' अग्गुज्जाणंसि' अग्रोद्याने मुख्योद्याने जिनपालितं पृष्ठात् अवतारयति, अवतार्थ एवमवदत् - एषा पुरोवर्त्तिनी खलु हे देवानुप्रिय ! चम्पानगरी दृश्यते इति कृत्वा = इत्युक्त्वा जिनपालितम् 'आपुच्छछ' आपृच्छति = तदनुज्ञां गृह्णाति आपृच्छय यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । सू०९ ॥ खिन्न, परितान्त एवं विमनस्क होता हुई वह जिस दिशा से आई थी उसी दिशा की तरफ चली गई । (तएणं से सेलए जक्खे जिणपालिएण सद्धिं लवणसमुदं मज्क्षं मज्झेणं वीइवग्रह २ जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चपाए नयरीए अग्गुज्जाणंसि जिगपालियं पिट्ठाओ ओयारे, ओयरित्ता एवं वयासी-एसणं देवाणुपिया ! दीसह तिकड जिनपालियं आपुच्छर आपुच्छित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए) इस के बाद वह शैलक यक्ष लवण समुद्र के बीच में चलने लगा और चल कर जहां चंपा नगरी थी वहां आ पहुँचा आकर के उसने चंपा नगरी के प्रधान बगीचे में जिन पालिन को अपनी पीठ पर से उतार दिया । उतार करके फिर उसने उस से इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रिय ! यह चंश नगरी दिखलाई देती है। ऐसा कह कर फिर उसने जिनपालित से पूछा और पूछ कर वह जिस दिशा से प्रकट हुआ था उसी दिशा की ओर वहां से चला गया | सूत्र ॥ ९ ॥
प्रयत्नार्या ते त्यां शवी नहि छेवटे ते हताश, थाडेसी, जिन्न, परिતાંત અને વિમનસ્ક થઇને તે જે દિશા તરફથી આવી હતી તે જ દિશા તરફ પાછી જતી રહી.
( तरणं से सेलए जक्खे जिणपालिएण सद्धिं लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं बीवयइ२ जेणेत्र चंपानगरी तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता चंपाए नयरीए अग्गुज्जाणंसि जिणपालिये पिट्ठाओ ओयारे, ओयरिता एवं व्यासी एसणं देवाणुपिया ! चंपानयरी दीस चिकट्टु जिनपालियं आपुच्छ आपुच्छित्ता जामेव दिसिं पाउ भूए तामेव दिसि पडिगए)
ત્યાર બાદ તે શૈલક યક્ષ લત્રણ સમુદ્રની વચ્ચે થઇને આગળ વધતા જ રહ્યો. અને અ ંતે જ્યાં ચપા નગરી હતી ત્યાં પહોંચ્યા. ત્યાં પહેાંચીને ચંપા નગરીના પ્રધાન ઉદ્યાનમાં જીનપાલિતને પોતાની પીઠ ઉપરથી નીચે ઉતારી દીધા, ઉતારીને તેણે જીનપાલિતને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! આ સામે ચંપા નગરી દેખાય છે. ત્યારબાદ યક્ષે જીનપાલિતને જવા માટે પૂછ્યું અને પૂછીને તે જે દિશા તરફથી આવ્યેા હતેા તે જ દિશા તરફ પાછા જતા રહ્યો.ાસૂલા
For Private And Personal Use Only
Page #705
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारक चरितनिरूपणम्
- १४९
मूलम् -तएण से जिणपालिए चंपं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं रोयमाणे जाव विलवमाणे जिणरक्खियवावत्तिं निवेदेइ, तरणं जिणपालिए अम्मापियरो मित्तणाई जाव परियणेणं सद्धिं रोयमाणा बहूइं लोइयाइं मयकिच्चाई करेंति करिता कालेणं विगयसोया जाया, तणं जिणपालियं अन्नया कयाइं सुहासणवरगतं अम्मापियरो एवं वयासी - कहणं पुत्ता ! जिणरक्खिए कालगए ?, तरणं से जिणपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवायसमुत्थणं पोतवहणविवत्तिं च फलहखंड आसायणं च रयणदीवृत्तारं च रयणदीवदेवया गिण्हणं च भोगविभूइं च रयणदीवदेवयाए आघायणं सूलाइयपुरिसद रिसणं च सेलगजक्खआरुहणं च रयणदीवदेवया उवसग्गं च जिणरक्खियत्रिवत्तिं च लवणसमुद्दउ - तरणं च चंपागमणं च सेलगजक्खआपुच्छणं च जहाभूयमवितहमसंदिद्धं परिकहेइ, तपणं से जिणपालिए जाव अप्पसोगे जाव विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । तेणें कालेणं तेणं समएणं समणे० समोसढे, धम्मं सोच्चा पवईए एक्कारसंगवी मासिकयाएणं सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे, महाविदेहे सिज्झिहि । एवामेव समणाउसो ! जाव माणुस्सर कामभोए णो पुणरवि आसायइ से णं जाव disaster जहा दा से जिणपालिए । एवं खलु जंबू !
८२
For Private And Personal Use Only
Page #706
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
।
हाताधर्मकथासूत्र समणेणं भगवया महावीरेणं नवमस्स नायज्झयणस्त अय. मट्रे पण्णत्ते तिबेमि ॥ सू० ९॥
॥ नवमं अज्झयणं समत्तं ॥ . टीका--'तएणं जिणपालिए ' इत्यादि । ततः खलु जिनपालितश्चम्पामनु: प्रविशति, अनुपविश्य यत्रैव स्वकं गृहं यत्रैव अम्बापितरौ तत्रोपागच्छति, उपागत्य अम्बापित्रोः समीपे रुदन यावद् विलपन-विलापं कुर्वन् निणरक्षितव्यापत्ति-जिणरक्षितमरणं निवेदयति-कथयति, ततः खलु स जिनपालिताऽम्बा पितरौ च मित्रज्ञातियावत्परिजनेन सार्द्ध रुदन्तः सर्वे बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि
'तएणं से जिन पलिए' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से जिनपालिए चंपं अणुपविसह, वह जिन पालित चंश नगरी में अनुप्रविष्ट हुआ। ( अणुपविसित्ता जेणेव सए गेहे जेणेव अम्मा पियगे तेणेव उवागच्छह प्रविष्ट होकर वह जहां अपना घर और उस में भी जहां अपने माता पिता थे वहाँ गया। ( उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं रोयमाणे जाव विलबमाणे जिणरक्खिय चावत्तिं निवेदेह, तएणं जिणपालिए अम्मापिउगे मित्तणाइ जाव परियणेणं सद्धिं रोयमाणा बहहिं लोइयाइं मयकिच्चाई करेंति ) वह जाकर उस ने रोते हुए यावत् विलाप करते हुए माता पिता से जिनरक्षित की मृत्यु हो जाने के समाचार कहे । इस के बाद रोते हुए उस जिनपा'तएणं से जिनपालिए' इत्यादि
A -(तएणं ) त्या२५६ ( से जिनपालिए चंपं अणुपविसह ) न. પાલિત ચંપા નગરીમાં ગયે. ( अणुपविसित्ता जेणेव सए गेहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव आगच्छइ )
ત્યાં જઈને જ્યાં તેનું ઘર અને તેમાં પણ જ્યાં તેના માતાપિતા હતા त्यां पडयो.
(उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं रोयमाणे जाव विलवमाणे जिणरक्खियवावर्ति निवेदेइ, तएणं जिणपालिए अम्मापिउरो मित्तणाइ जाव परियणेणं सदि रोयमाणा बहहिं लोइयाइं मम किच्चाई करें ति)
ત્યાં તેણે રડતાં યાવત્ વિલાપ કરતાં પિતાના માતાપિતાને જનરક્ષિતના મૃત્યુના સમાચાર કહ્યા. ત્યારપછી જીનપાલિત અને માતાપિતાઓએ રડતાં મિત્રજ્ઞાતિ યાવત્ પરિજનેને ભેગા કરીને મરણ પછીની બધી વિધિઓ પૂરી
For Private And Personal Use Only
Page #707
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम्
कुर्वन्ति कृत्वा कालेन = कतियय दिवसानन्तरेण विगतशोकाः =शोकरहिता जाताः । ततः खल जिनपालितम् अन्यदा कदाचित् सुखासनवरगतं = सुखोपविष्टम् अम्बापितरौ एवमवादिष्टाम् - कथं केन प्रकारेण खलु हे पुत्र | जिनरक्षितः कालगतः मृतः ?, ततः खलु स जिनपालिताऽम्बापित्रोः - लवणसमुद्रोत्तारं च, कालिकवातसमुत्थानं, पोतवहनव्यापर्त्ति - नौकाभङ्गं च, फलकखण्डासादनं फलकखण्डावलम्बनं च, रत्नद्वीपोत्तारं च, रत्नद्वीप देवताग्रहणं च भोगविभूर्ति भोगसम्पत्तिं च रत्नद्वीपदेवतायाः ' आघायणं ' आघातनं बधस्थानं च शूलाचित पुरुषदर्शनं च शैलक पक्षारोहणं च रत्नद्वीपदेवतोपसर्ग च जिनरक्षित विपत्ति = जिनरक्षितमरणं लित, और उनके माता पिता ने मित्र ज्ञाति यावत् परिजनों के साथ समस्त अनेक लौकिक मृतक कृत्य किये । (करित्ता कालेणं विगय सोया जाया) बाद में जैसे २ समय व्यतीत होता गया वैसे २ ये सब शोक रहित बन गये और फिर बिलकुल शोक शून्य भी हो गये । (तएणं जिन पालियं अन्नया कयाई सुहासणवरगथं अम्मा वियरो एवं वयासी कहणं पुत्ता जिगर क्खिए कालगए ) एक दिन की बात है कि जब जिनपालित आनन्द से बैठा हुआ था तब माता पिता ने उस से पूछा पुत्र ! जिनरक्षित किस प्रकार से काल कवलित हुआ ? (तएण से जिन पालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवायसमुस्थणं पोतयहणविवक्तिं च फलहखंडआसायणं च रयणदीनुसारं च रणदीवदेवया गिव्हणं च भोगविभूइं च रयण दीवदेवयाआधायण च सूलाइ पुरिसदरिसणं सेलगजक्ख आरुहणं च रयण
. (करिता काले विगय मोया-जाया ) त्यारमाह प्रेम प्रेम समय पसार થતા ગયા તેમ તેમ તેએ પાતાનું દુઃખ પણ ભૂલતા ગયા અને છેવટે જીન રક્ષિત વિશેનું દુ:ખ તેએના હૃદય પટલ ઉપરથી સાવ ભુસાઈ ગયું.
( तरणं जिनपालियं अन्नया कयाई सुहासणवरगयं अम्मापियरो एवं वयासी कहणं पुत्ता जिगर क्खिर कालगए )
જ્યારે એક દિવસે નપાલિત આન ંદપૂર્વક બેઠા હતા ત્યારે માતા પિતાઓએ તેને પૂછ્યું કે હું પુત્ર! જીતરક્ષિત કઇ રીતે મરણ પામ્યા છે ?
(तएण से जिनपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवायसमु स्थणं पोतवहणविवर्त्तिच फलहखंड आसायगं च रयणदीबुत्तारं च रयणदीव देवयाणि च भोगविभूई च रयणदीवदेवयाए आधायणं च सूलाइय पुरिसद रिसण सेलगजकख आरुगं च रयणदीवदेवया उवसग्गं च जिणरक्खिय
For Private And Personal Use Only
Page #708
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
દૂર
शाताधर्मकथासूत्रे
"
च, स्वस्य लवणसमुद्रोत्तरणं च चम्पागमनं परावृत्यचम्पानगरी समागानं चं, शैलकयक्षापृच्छनं = शैलकयक्षस्य जिनपालितं प्रति स्वस्थानगमननिवेदनं च, एतत्सत्र हृत्तान्तं 'जहाभूयं यथाभूतं = पथाजातम् ' अविनद्धं ' अवितथं सत्यम् ' असं दिद' ' असंदिग्धं-संदेहरहितं परिकथयति । ततः खलु स जिनपालिती यावद् ' अप्पसोए ' अल्पशोकः = विगतशोकः यावद् विपुलान् भोगभोगान् शब्दादि विषयान् भुञ्जानो विहरति० ।
"
दीवदेवाउवसग्गं च जिणरक्खियविवन्ति च लवणसमुद्द उत्तरण च चंपागमण च सेलगजक्ख आपुच्छगं च जहाभूयमवितहमसंदिद्धं परिकहे ) तब जिन पालित ने माता पिता से लवणसमुद्र में उतरने से लेकर अचानक कालिक वायुका उठना नौका का नष्ट होना काष्ट फलक का मिलना उसकी सहायता से रत्न द्वीप में उतरना वहां रयणा देवी के द्वारा अपना ग्रहण होना उस के साथ भोग रूप विभूति का भोगना, बाद में रयणा देवी के वधस्थान का देखना वहां शूलारोपित पुरुष को देखना, शैलक यक्ष की पीठ पर चढना रयणा देवी का उपसर्ग करना, जिन रक्षित का मरण होना अपना लवणसमुद्र का पार करना चंपा नगरी में पीछे आना और शैलकयक्ष का पुछ कर अपने स्थान वापिस चले जाना यहां तक का सब वृत्तान्त जैसा हुआ था ठीक २ विना किसी संदेह के उस ने सुना दिया । ( तणं से जिणपालिए जाव अपसोगे जाव विउलाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरइ ) इस के बाद शोक रहित बना हुआ वह जिनपालित विपुल शब्दादि विषयों विवर्त्तिच लवणसमुहं उत्तरणं च चंपागमणं च सेलगजकखआपुच्छणं च जहा भूयमहिमसंदिद्धं परिकहेइ )
ત્યારે જીનપાલિતે માતાપિતાને લવણ સમુદ્રમાં યાત્રા કરતી વખતે એચિતા પવનની અથડામણથી નાવ ડૂબી જવાના અસ્માતથી માડીને લાક ડાની સહાયતાથી રત્નદ્વીપના કિનારા સુધી પહાંચવું, રયણા દેરીની લપેટમાં સાવવું, તેના સાથે કામ લાગેા ભાગવવા, રયણા દેવીના વધસ્થાનને જોવું, શૂળી ઉપર લટકતા માણસને જોવું, શૈલક યક્ષની પીઠ ઉપર બેસવું, રયણા દેવીના ઉત્પાત કરવા, જીનરક્ષિતનું મરણ થવું, સકુશળ પેાતાની લવણ સમુદ્ર યાત્રા પૂરી કરવી, ચપા નગરીમાં આવવું અને શૈલક યક્ષનું તેને પૂછીને ક્રી રત્નદ્વીપ તરફ રવાના થવું અહીં સુધીની એકે એક વાત તેણે કહી સંભળાવી. (aणं से जिणपालिए जाव अप्पसोगे जाव बिउलाई भोग भोगाई भुंनमाणे विहरह) ત્યારખાનૢ નિશ્ચિત થયેલા જીનપાલિત શબ્દ વગેરે વિષયાને પુષ્કળ પ્રમા
For Private And Personal Use Only
Page #709
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नगारधर्मामृतषिणी टी० अ०९ माकन्दिदारकरितनिरूपणम् ६५६
तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः चम्पायां समागतः । जिनपालितो धर्म श्रुत्वा पत्रजितः एकादशाङ्गवित्-आचाराङ्गादि शस्त्रा ज्ञाननिपुणो जातः । मासिक्या संलेखनया कालं कृत्वा सौधर्म कल्पे-प्रथमदेव. लोके दो सागरोवमे' द्विसागरोपमकः-द्विसागरोपमस्थितिकः देवो जातः । महाविदेहे सेत्स्यति-सिद्धो भविष्यति। एवमेव अनेनैव प्रकारेण हे श्रमणा आयुमन्तः ! योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा यावत् प्रबजितः सन् मानुष्यकान् कामभोगान् परित्यक्तान् नो पुनरपि · आसायइ ' आसादयति-माप्नोति नो सेवत इत्यर्थः, स खलु यावद् ‘बीईवइस्सइ' व्यतित्रजिष्यति व्यतिक्रमिष्यति संसारस्य पारं गमिष्यतीत्यर्थः यथा वा स जिनपालितः । इत्थमत्र दृष्टान्तयोजनाको-काम सुखों को भोगता हुआ अपने समय को व्यतीत करने लगा। ( तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे० समोसढे, धम्मं सोच्चा पव्वाइए, एक्कारसंगवी मासिकयाएणं सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे, महाविदेहे सिमिहिइ-एवामेव समणाउसो ! जाव माणुस्सए कामभोए णो पुणरवि आसायइ, सेणं जाव वीइवइस्सइ, जहा वा से जिणपालिए । एवं खलु जंबू ! समणे णं भगवयो महावीरेण नवमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिबेमि) उसी काल और उसी समय में श्रमण भगवान महावीर चम्पा नगरी में आये। जिन पालित धर्म का उपदेश सुन कर दीक्षित हो गया। ग्यारह अंग का धीरे २ वह ज्ञाता भी बन गया। अन्त में एक मास की संलेखना की संलेखना से ६० साठ भक्तों का छेदन कर जय काल किया-तो प्रथम देवलोक में दो सागरोपम की स्थिति वालो देव में उत्पन्न हुआ। यह महा विदेह में सिद्धी गति को માં ભગવતે સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરવા લાગે.
(तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे० समोस ढे, धम्म सोच्चा पचाइए एक्कारसंगवी मासिकयाएणं सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे महाविदेहे सिज्झिहिहएवामेव समणाउसो ! जाव माणुस्सए कामभोए णो पुणरवि आसायइ, से गं जाव वीइवइस्सइ, जहावा से जिणपालिए ! एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेण नवमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिबेमि ) ।
તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ચંપાનગરીમાં આવ્યા. જીન પાલિત તેમને ઉપદેશ સાંભળીને દીક્ષિત થઈ ગયે. ધીમે ધીમે તેણે અગિયારે અંગેનું જ્ઞાન મેળવી લીધું. છેવટે એક માસની તેણે સંલેખના કરી. સંલેખનાથી ૬૦ સાઠ ભક્તોનું છેદન કરીને કાળ કર્યો ત્યારે પ્રથમ દેવલોકમાં બે સાગરોપમની સ્થિતિવાળા દેવ તરીકે તે ઉત્પન્ન થયે. ભવિષ્યમાં તે મહા
For Private And Personal Use Only
Page #710
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाजसो __ यथा लाभार्थिनौ वणिजौ तथा शिवसुखार्थिनौ जीवौं । यथा समुद्रयात्रा तथा संसारयात्रा यथा रत्नद्वीपदेवता महापापा तथा अविरति रापातमुखा परिणामदुःखा। यथा - आघातस्थानभयं तथा जन्ममरणभयम् । यथा रत्नादेवी चरितानुभवी शूलारोपितपुरुषस्तथा अविरति परिणामबोधकं भयम् । पथा देवीहस्तानिस्तारकः शैलकयक्षस्तथा धर्मोपदेशकोऽत्राविरतिपरिणामजनित को प्राप्त करेगा। इस तहर हे आयुष्मंत श्रमणो ! जो हमारा निग्रंन्य श्रमण अथवा निग्रन्थ अमणी जन यावत् प्रवजित होता हुआ परित्यक्त मनुष्य भव संयन्धी कामभोगों का पुनः सेवन नहीं करता है वह जिन पालित की तरह इस संसार के पार पहुंचेगा। दृष्टान्त की योजना यहां इस प्रकार से कर लेनी चाहिये जिस प्रकार लाभ के अर्थी वणिक जन होते हैं उसी प्रकार शिव सुख के अर्थी जीव होते हैं । जिस प्रकार समुद्र यात्रा है उसी प्रकार संसार यात्रा है । समुद्र यात्रा में जैसे पापिनी रयणा देवी का मिलाप हुओ-उसी प्रकार इस संसार यात्रा में आपात सुख दायक और परिणाम में दुःखदायक अविरति का जीवों को समागम हो रहा है। वहाँ जैसे वध्यस्थान का भय जिन पालित एवं जिन रक्षित को हुआ, उसी तरह इस संसार यात्रा में भी प्रत्येक जीव को जन्म मरण का भय लगा हुआ है । जिस प्रकार रयणा देवी के चरित का अनुभवी वह शूलारोपित पुरुष हमें वहां दिखाई देता है इसी प्रकार यहां भी अविरति के परिणाम का बोधक भय हमें सतत सचेत करता - વિદેહમાં સિદ્ધિ ગતિ મેળવશે. આ રીતે હે આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ શ્રમણ અથવા નિગ્રંથ શ્રમજને પ્રવ્રજીત થઇને દીક્ષા વખતે ત્યજેલા મનષ્ય ભવ સંબંધી કામોનું ફરી સેવન કરતા નથી તે જીનપાલિતની જેમ આ સંસારને પાર થશે. આ દષ્ટાંતને અહીં આ રીતે બેસાડવું જોઈએ કે જેમ વણિકજને (વેપારીઓ) લાભને ઈચ્છનારા હોય છે તેમ શિવસુખને ઈચ્છનારા જ હોય છે. સમુદ્ર યાત્રાની જેમ જ આ સંસાર યાત્રા પણ છે. સમુદ્ર યાત્રામાં જેમ પાપણી રાણા દેવી મળી તેમ આ સંસાર યાત્રામાં શરૂઆતમાં સુખદાયક અને પરિણામમાં દુઃખદાયક અવિરતિનો સમાગમ જીવને થતો રહે છે. વધસ્થાનમાં જેમ જીનપાલિત અને જનરક્ષિત ભયગ્રસ્ત થયા તેમ આ સંસાર યાત્રામાં પણ દરેકે દરેક જીવને જન્મ-મરણની બીક રહે છે. જેમ રયણા દેવીને ફૂર વ્યવહારને અનુભવના શળી ઉપર લટકતે માણસ તેમણે જે તેમ આ સંસારમાં પણ અવિરતિના પરિણામને બેધક ભય આપણને સતત સાવધ કરતો રહે છે. જેમ દેવીની લપેટમાંથી મુક્ત કરનાર શિક્ષક યક્ષને
For Private And Personal Use Only
Page #711
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० ९ मान्दिदारकचरितनिरूपणम् १५५ .. दाख निस्तारको गुरुः । यथा देवीमोहितर्जिनरक्षितस्तथा-अविरतिमोहितमतिमुनिः। यथा शैलकरूपाश्वपृष्टच्युतो जिनरक्षितस्तथा गुरूपदिष्टज्ञानादिपश्चाचार भ्रष्टो मुनिः । यथा रत्नादेव्या तीक्ष्णकरवालेन गगने खण्डशः कृतं तदङ्गं परितः प्रक्षिप्तं नानाविधमकरादि श्वापदसंकुले समुद्रे पतति तथा-अविरत्या विषमपरिणामेन नरकावासे खण्डशः कृतं शरीरमनुभवन्नसौ जन्मजरामरणाधनन्तदुःखसमाकुले संसारे निपतति । यथा देवी कृतोपसगैरक्षुब्धो जिनपालितः स्वस्थान जीवितरहता है । जिस प्रकार देवी के हाथ से छुडाने वाला वहां शैलक यक्ष कहा गया है इसी प्रकार यहां भी धर्म के उपदेशक एवं अविरति परिणाम जनित दुःखसे निस्तारक ये गुरुजन प्रकट किये गये हैं । जिस प्रकार जिन रक्षित देवी के द्वारा मोहित किया गया हमें कहो गया है उसी प्रकार यहां भी अविरति के द्वारा मोहित मुनिजन समझाये गये हैं । जिस प्रकार शैलक रूप अश्व की पीठ पर से जिन रक्षित च्युत हुआ प्रकट किया गया है उसी प्रकार गुरूपदिष्ट ज्ञानादिक पांच आचार से भ्रष्ट बना हुआ मुनि यहां हमे समझाया गया है । जिस प्रकार रत्ना देवी की तलवार से खंड २ किये गये जिन रक्षित के अंग उपांग इधर उधर प्रक्षिप्त होकर नाना विध मक गदिश्वापद से संकुल हुए समुद्र में गिरे हैं उसी प्रकार अविरति के विषम परिणाम से नरकावास में खंड २ किये गये शरीरका अनुभव करतो हुआ भी यह जीव जन्म, जरा, और मरण, आदि अनन्त दुःखों से व्याप्त हुए संसार में पतित होता है। जिस प्रकार रयणा देवी कृत उपसगों से अक्षुब्ध આપણે જે તેમ અહીં પણ ધર્મના ઉપદેશક અને અવિરતિ પરિણામ જનિત દુઃખમાંથી મુક્ત કરનારા ગુરૂજને પ્રગટ કરવામાં આવ્યા છે. જેમ દેવીના મેહવાશની લપેટમાં પડેલે નરક્ષિત છે તેમજ અહીં પણ અવિરતિ વડે મોહિત થયેલા મુનિઓ જોવામાં આવે છે. જેમ રૌલક યક્ષ રૂપી ઘેડાની પીઠ ઉપરથી ખસી પડેલા છેતરક્ષિતનું વર્ણન ઉપર પ્રગટ કરવામાં આવ્યું છે તેમજ આ સંસારમાં પણ ગુરૂપદિષ્ટ જ્ઞાન વગેરે પાંચ આચારોથી ભ્રષ્ટ થયેલે મુનિ સમજે જોઈએ જેમ રત્નાદેવીની તલવારથી કકડા થયેલા જનરક્ષિતનાં અંગે ઉપાંગે ઘણી જાતના મગર વગેરે જીવથી વ્યાપ્ત સમુદ્રમાં આમતેમ ફેંકવામાં આવ્યા છે તેમ જ અવિરતિના વિષમ પરિણામથી નરકવાસમાં શરીરના કકડાઓ કરવામાં આવે છે છતાં તે દુઃખને અનુભવતે આ જીવ જન્મ, જરા (ધડપણ) મરણ વગેરે અનંત દુઃખથી વ્યાપ્ત થયેલા આ સંસારમાં ફરી આવી પડે છે. જેમ રયણા દેવીના ઉપસર્ગોથી અક્ષુબ્ધ થઈને જીનપાલિત પિતાને ઘેર સકુશળ
For Private And Personal Use Only
Page #712
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
झाताधर्मकथा सुखं च प्राप्तः सन् पश्चान्मोक्षपदनाम्यमात् , तथा-अविरति कृतोपसगैरक्षुब्धः मुसंयमी मुनिर्मोक्षस्थानं शिवसुखं च प्राप्स्यतीति ।
एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण नवमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयं-पूर्वोक्तः अर्थः-भावः प्रज्ञप्तः नरूपितः। त्तिवेमि' इतिब्रवीमि पूर्ववत् ।मू०१९॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितक
लापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छ त्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त- जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराज- गुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितायां — ज्ञाताधर्मकथाङ्ग' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
पिण्याख्यायां व्याख्यायां नवममध्ययनं संपूर्णम् ॥ ९ ॥ पना जिन पालित अपने स्थान पर सकुशल लौट आया और वहां उस ने अपने जीवन का सुख भोगा-पश्चात् वही मोक्षपद गाभी भी हुआ उसी तरह अविरति कृत उपप्सों से अक्षुब्ध बना हुआ सुसंयमी मुनि मोक्षस्थान को प्राप्त कर शिव सुख को भोक्ता बनेगा। इस प्रकार हे जंबू! श्रमण भगवान महावीर ने इस नवम ज्ञाताध्ययन का यहपूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रतिपादित किया है । उसी के अनुसार यह मैंने तुम्हें समझाया है । सूत्र ॥ १० ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथासूत्र" की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का नवां
अध्ययन समाप्त ॥ ९॥
પાછા આવ્યું, ત્યાં તેણે સુખેથી પિતાના દિવસે પસાર કર્યો અને છેવટે મણ મેળવ્યું તેમજ અવિરતિકૃતિ ઉપસર્ગોથી નિર્ભીક થયેલ સુસંધમી મુનિ મોક્ષ સ્થાનને મેળવીને શિવસુખને ઉપભેગ કરશે. આ રીતે હે જંબૂ! શ્રમણભગવાન મહાવીરે નવમ જ્ઞાતાધ્યયનને આ પૂર્વોક્ત અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે. ते भुराम में तने वित समापी है. ॥ १० ॥ શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી
व्यायानुनभुमध्ययन समास ॥ ८॥
For Private And Personal Use Only
Page #713
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अथ दशममध्ययनम् प्रारभ्यते । गत नवममध्ययनम् , साम्प्रतं दशममारभ्यते, तस्य पूर्वेण सहायं सम्बन्धःपूर्वमविरति-विरतिमतोहा॑निलाभौ पोक्ती, अत्रतु. प्रमादाममादबतोर्गुणहानि-तद वृद्धिरूपावनीवर्णयति, तत्र जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिन पृच्छति-'जणं भंते' इत्यादि।
मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं० णवमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते दसमस्स के अट्टे ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे सामी समोसढे गोयमसामी एवं वयासी-कहाणं भंते ! जीवा वखंति वा हायति वा ?, गो० ! से जहा नामए बहुलपक्खस्स पाडिवयाचंदे पुण्णिमाचंदं पणिहाय हीणो वण्णेणं हीणे सोम्मयए हीणे निद्धयाए
दशम अध्ययन प्रारंभ। नौवां अध्ययन समाप्त हो चुका-अब दशमां अध्ययन प्रारंभ होता है । इस का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार संबन्ध है-पहिले अविरति वाले को हानि एवं विरति वाले को लाभ की प्राप्ति होना कहा गया है अब इस अध्ययन में यह कहते हैं कि जो प्रमादि होता है उसके गुणों के हानि होती है, और जो अप्रमादी होता है उस के गुणों की वृद्धि होती है। इस तरह गुण हानि और तद् वृद्धि रूप अर्थ अनर्थ का वर्णन सूत्रकार इस अध्ययन में कर रहे हैं । जंबू स्वामी इसी यात को श्री सुधर्मा स्वामी से पूछ रहे हैं।
દશમું અધ્યયન પ્રારંભ નવમું અધ્યયન પુરું થયું છે અને હવે દશમું અધ્યયન પ્રારંભ કરીએ છીએ. દશમા અધ્યયનનો એના પહેલાંના અધ્યયન સાથે આ પ્રમાણેને સંબંધ છે–પહેલાંના અધ્યયનમાં અવિરતિવાળાને હાનિ (નુકસાન) અને વિરતિવાળાને લાભની પ્રાપ્તિ થાય છે તેમ દર્શાવવામાં આવ્યું છે. હવે આ અધ્યયનમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે કે જે પ્રમાદી હોય છે તેના ગુણોને હાનિ પહોંચે છે અને જે અપ્રમાદિ હોય છે તેના ગુણો વૃદ્ધિ પામે છે. આ રીતે સૂત્રકાર આ અદ થનમાં ગુણોની હાની અને ગુણોની વૃદ્ધિરૂપ અર્થ અનર્થનું વર્ણન કરી રહ્યા છે. જંબૂ હવામી સુધર્માસ્વામીને એ જ વાત પૂછી રહ્યા છે–
For Private And Personal Use Only
Page #714
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६५८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
ही कंतीए एवं दित्तीए जुईए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए मंडलेणं तयाणंतरं च णं बीयाचंदे पाडिवयं चंदं पणिहाय हीणतराय वपणेणं जाव मंडलेणं तयाणंतरं च णं तइआचंदे बिइयाचंदं पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव मंडलेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे२जाव अमावस्साचंदे चाउद्दसंचंदं पणिहाय नद्रे वण्णेणं जाव नट्टे मंडलेणं, एवामेव समनाउसो ! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंधी वा जाव पव्वइए समाणे ही खंतीए एवं मुत्तीए गुत्तीए अजवेणं मदवेणं लाघवेणं सच्चेणं तवेणं चियाए अकिंचयणयाए वंभचेरवासेणं तयाणंतरं च णं हीणतराए खंतीए जाव हीणतराए बंभचेर वासेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे पट्टे खंतीए जाव णट्ठे बंभचेरवासेणं, जहा वा सुकपक्खस्स पाडिवयाचंदे अमावासाए चंदं पणिहाय अहिए वण्णेणं जाव अहिए मंडलेणं तयाणंतरं च णं बिइयाचंदे पडिवयाचंदं पणिहाय अहिययराए वण्णेणं जाव अहियतराए मंडलेणं एवं खलु एएणं कमेणं परिवृड्डेमाणे २ जाव पुष्णिमाचंदे चाउद्दांसि चंदं पणिहाय पडिपुणे वण्णेणं जाव पडिपुण्णे मंडलेणं एवामेव समनाउसो ! जाव पव्वइए समाणे अहिए खंतीए जाव बंभघेर वासेणं, तयाणंतरं च णं अहिययराए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिवड्डेमाणे२ जाव पडिपुन्ने बंभचेर वासेणं, एवं खलु जीवा वर्द्धति वा हायंति वा, एवं खलु जंबू ! समणं भगवया महावीरेणं दसमस्त णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते तिबेमि ॥ सू० १ ॥
॥ दसमं णायज्झयणं समत्तं ॥
For Private And Personal Use Only
Page #715
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १० जीवानां वृद्धिहानिनिरूपणम्
टीका-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण नवमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायम्=पूर्वोक्तपकारः अर्थ:=भावः प्रज्ञप्तः कथितः, स मया श्रुतः, किन्तु दंशमस्य ज्ञाताध्ययनस्य कोऽर्थः को भावः ? प्रज्ञप्तः ? । सुधर्मास्वामी पाह-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे ' सामी ' स्वामी श्रीमहावीरस्वामी 'समोसढे' समवसृतः समागतः, तदा गौतमस्वामी एवमवादीतकथं खलु-केन प्रकारेण हे भदन्त ! जोवाः 'वइंति वा' बर्द्धन्ते वृद्धिमाप्नुवन्ति वा, ' हायति वा' हीयन्ते-हानि प्रप्नुवन्ति वा ? जीवा द्रव्यतोऽनन्तत्वेन, प्रदेशतश्चापि प्रत्येकमसख्यात प्रदेशत्वेनावस्थितपरिमाणत्वाद् वृद्धिहानी प्राप्तुं नाईन्ति, किन्तु क्षान्त्यादिगुणानां वृद्धया वर्द्धन्ते, हान्या तु हीयन्त इति ।
____ 'जइणं भंते ! समणेणं' इत्यादि । टीकार्थ-(जइणं भंते) यदि हे भदंत ! (समणेणं० णवमस्स णायज्झयणस्स अयम?) श्रमण भगवान महावीर ने नवम ज्ञाताध्ययन का पूर्वोक्त रूप से यह अर्थ प्ररूपित किया है तो ( दसमस्स के अटे). ? दश ज्ञाताध्ययन का उन्हों ने क्या भाव अर्थ कहा है ? इस प्रकार जंबू स्वामी के प्रश्न को सुनकर श्री सुधर्मास्वानी उन्हें समझाने के अभिप्राय से कहते हैं कि ( एवं खलु जबू! ) हे जंबू सुनों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है- ( तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे सामी समोसढे-गोयमसामी एवं वयासी) उस काल में और उस समय में राजगृह नाम के नगर में श्री भगवान महावीर स्वामी पधारे उस समय गौतम स्वामी ने उन से ऐसा पूछा ( कहाण भंते ! जीवा वइंति, वा हायति वा ? गो० से जहा नामए बहुलपक्खस्स पाडिवया
" जइणं भंते ! समणेणं " इत्यादि । ____12-(जइणं भंते !) ने 3 महन्त ! (समणेणं० वमस्स णायज्झयणस्स अयमढे) श्रम लगवान मडावीरे माताध्ययननी पूरित ३३ मथ नि३पित यो छ त। ( दसमस्स के अॅ१) ४शमा ज्ञाताध्ययनन तमामे । ભાવ અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે. આ પ્રમાણે જંબૂ સ્વામીને પ્રશ્નને સાંભળીને શ્રી સુધર્માસ્વામી તેમને બધી વાતની સ્પષ્ટતા કરવાના હેતુથી કહે છે કે (एवं खलु जंबू ! ) भू सानो तमा२। प्रश्न | 241 प्रमाणे छ । (तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे सामी समोसढे गोयमसामी एवं क्यासी) તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગરમાં શ્રી ભગવાન મહાવીર સ્વામીની પધરામણી થઈ. તે સમયે ગૌતમ સ્વામીએ તેમને પ્રશ્ન કર્યો કે
(कहाणं भंते ! जीवा बति, वा हायंतिवा ? गो० से जहानामए बहुल
For Private And Personal Use Only
Page #716
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६६०
शाताधर्मकथाजस्त्रे __ अत्रार्थे भगवान् पूर्वहानिदृष्टान्तमाह - हे गौतम ! 'रे जहानामए' तद्यथा-नामकम्-यथा च बहुलपक्षस्य = कृष्णपक्षस्य ‘पाडिवयाचंदे ' प्रतिपपचन्द्रः पूर्णिमाचन्द्र प्रणिधाय-अपेक्ष्य, 'प्रणिधाये' ति 'अपेक्ष्ये' त्यर्थकमव्ययम् ' पूर्णिमाचन्द्रापेक्ष्येत्यर्थः हीनः = न्यूनः, वर्णेन-शुक्रतारूपेण, हीनः चंदे पुण्णिमा चंदं पणिहाय हीणो वण्णेण हीणे सोम्मयाए हीणे निद्धयाए हीणे कंतीए एवं दित्तीए जुईए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए मंडलेणं ) हे भदंत ! जीव किस प्रकार से बढते हैं और किस प्रकार से घटते हैं ? जीव द्रव्य की अपेक्षा अनंत होने से और प्रदेश की अपेक्षा प्रत्येक जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेश वाला होने से सदो अवस्थित परिणाम वाला कहा गया है-अतः इस स्थिति में न तो उस की वृद्धि हो सकती है और न उस की हानी ही । किन्तु यहां जो इस प्रकार का प्रश्न किया गया है उस का मत इस प्रकार है, कि जब आत्मा में क्षात्यादि गुणों की वृद्धि हो जाती है तो उन की वृद्धि से " जीव बढ़ता है" ऐसा मान लिया जाता है और जब इन्हीं आत्मिक गुणों की वृद्धि आत्मा में नहीं होती है-किन्तु हानि रहती है तो इस से जीव में हानि हो रही है ऐसा मान लिया जाता है । इसी अपेक्षा को लेकर यह प्रश्न किया गया है । अब भगवान् हानि को स्पष्ट करने के लिये पहिले उसे ही दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं -वे कहते हैं-हे गौतम ! जैसे पक्खस्स पाडिवया चंदे पुणिमाचंद पाणिहाय हीणो वण्णेणं हीणे सोम्मयाए हीणे निद्धयाए हीणे कंतीए एवं दित्तीए जुईए छायाए पाए ओयाए लेस्साए मंडलेणं)
હે ભદંત ! જી કેવી રીતે વૃદ્ધિ પામે છે અને કેવી રીતે એ છા થાય છે? જીવ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અનંત હોવાથી અને પ્રદેશની અપેક્ષાએ દરેક જીવ દ્રવ્ય પ્રમદાવાળે હોવાથી હંમેશા અવસ્થિત પરિણામવાળે કહેવામાં આવ્યું છે. એથી આવી સ્થિતિમાં તેની વૃદ્ધિ થઈ શકે નહિ અને હાનિ પણ થઈ શકે નહિ, પણ અહીં જે પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યું છે તેનો મતલબ આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે આત્મામાં ક્ષાંતિ વગેરે ગુણે વૃદ્ધિ પામે છે ત્યારે તેમની વૃદ્ધિથી
જીવ વૃદ્ધિ પામે છે” આમ માનવામાં આવે છે અને જ્યારે એ જ આત્મિક ગુણોની વૃદ્ધિ આત્મામાં થતી નથી પણ વૃદ્ધિના સ્થાને હાનિ થવા માંડે છે ત્યારે
જીવમાં હાનિ થઈ રહી છે” એવું માનવામાં આવે છે. આ અપેક્ષાથી આ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે. ભગવાન હવે હાનિને સ્પષ્ટ કરવા માટે સૌ પહેલાં દિષ્ટાંત વડે સમજાવતાં કહે છે કે હે ગૌતમ ! જેમ કૃષ્ણપક્ષની એકમને ચંદ્ર
For Private And Personal Use Only
Page #717
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामुतवर्षिणी ही अ० १० जीवानां वृद्धिहानिनिरूपणम
૬
' सोम्मयाए ' सौम्यतया = नेत्राहाद हतया, हीनः निद्धयाए ' स्निग्वतया= स्नेहोत्पादकतया, डीनः = न्यूनः 'कंतीए ' कान्त्या = कमनीयतया । एवम् अनेन मूकारेण हीनशब्दः सर्वत्र बोध्यः, यथा - हीनो दीप्त्या = प्रकाशेन, हीनः ' जुईए '
F
त्या = चाकचिक्येन हीनः छायया = शोभया, हीनः प्रभया = ज्योतिषा, हीनः ' ओयाए ' ओजसा = दाहशमनरूपेण, हीनः लेश्यया = किरणरूपया हीनो = न्यूनो मण्डलेन = [त्ताऽऽकातया, पूर्णिमाचन्द्राऽपेक्षया प्रतिपच्चन्द्रः सर्वथा न्यूनो भवतीत्यर्थः । तदनन्तर' च खलु द्वितीयाचन्द्रः प्रतिपद - प्रतिपत्सम्बन्धिनं चन्द्र 'पणिहाय' प्रणिधाय = अपेक्ष्य हीनतरो = न्यूनतरी वर्णेन यावद् मण्डलेन भवति । तदनन्तरं च खलु तृतीया चन्द्रो द्वितीयाचन्द्र पणिधाय हीनतरो वर्णेन यावद् कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चंद्रना पूर्णिमा के चन्द्रमाकी अपेक्षा शुक्लता रूप वर्ण से हीन होता है, सौम्यता - नेत्रा ह्लादकता से हीन होता है, स्निग्धता - स्नेहोत्पादकता से हीन - न्यून होता है, कांतिकमनीयता से हीन होता है, इसी तरह दीप्ति से, श्रुति से - ( चमक से ) - छाया - शोभा से) प्रभा से - ( ज्योति से) दाहशमन रूप ओजस से, किरण रूप लेइया से, एवं वृत्ताकाररूप अपने परिमंडलसे हीन रहता है- (तयाणंतरं च णं बीयाचंदे पाडवयं चंदं पणिहाय हीणतराय वण्णेणं जाव मंडलेणं-तयाणंतरं चणं तइआचंदे बिइया चंदं पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव मंडले णं एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे २ जाव अमावस्सा चंदे चाउदसं पणिहाय नट्टे वण्णेणं जाव नङ्के मंडलेणं) इसके बाद कृष्ण पक्ष के प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा द्वितीया चन्द्रमा वर्ण से लेकर यावत् परिमंडल तक और अधिक न्यून बन जाता है - इसके बाद द्वितीया के चन्द्रमा की अपेक्षा तृतीया का चन्द्रमा वर्ण से लेकर परि
પૂનમના ચંદ્રની અપેક્ષા શુકલતા રૂપ વર્ષોંથી હીન હેાય છે, સૌમ્યતા- એટલે કે નેત્ર-હાદકતાના ગુણથી હીન હૈય છે, સ્નિગ્ધતા-સ્નેહાત્પાદકતા-થી હીનन्यून - होय छे, अंतिभनीयता थी हीत होय छे, भा रीते ही तिथी - धुतिधी(प्राशथी), छाया (शोला ) प्रमाथी (ज्योतिथी) हाइशमन३५ मन्थी, ि રૂપ લેફ્સાથી અને વૃત્તાકાર ( ગેળાકાર ) રૂપ પાતાના પિમંડળથી હીન રહે છે.
( तयानंतरंच णं बीयाचंदे पाडिवयं चंदं पणिहाय होणतराय वण्णे णं जाव मंडले णं तयानंतरं च णं तड़आचंदे विश्याचंद पणिहाय हीगतराए वण्णणं जाव मंडलेणं एवं खलु एएणं कमेणं परिहाय माणे२ जाव अमावस्सा चंदे चाउदसं पणिहाय नट्ठे वण्णेणं जाव नट्ठे मंड लेणं )
ત્યાર પછી કૃષ્ણપક્ષની એકમના ચન્દ્ર કરતાં બીજને ચન્દ્ર વર્ણ પરિમ’ડળ વગેરે બધી વિશેષતાઓમાં વધારે ન્યૂન થઈ પડે છે. એ પછી ખીજના ચન્દ્ર
For Private And Personal Use Only
Page #718
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
জানাঘমথাই मण्डलेन । एवं खलु एतेन क्रमेण परिहीयमानः २ यावद् अमागस्याचन्द्रः 'चाउ इसि' चातुर्दश-चतुर्दशीसम्बन्धिन चन्द्रमाणिधाय अपेक्ष्य 'नटे' नष्टः-विलुप्त वर्णेन यावत् नष्टो मण्डलेन=वृत्ताकाररूपेण ।
'एवामेव '-एवमेव अनेनैव प्रकारेण हे श्रमगा आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं निग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा यावत् प्रनितः सन् हीनः 'खतीए' क्षान्त्या क्षमया, एवं होनः ' मुत्तीए' मुक्त्या निर्लोभतया 'मुत्तीए' मुक्त्या मनोयोगादीनां कुशलप्रवृत्तिलक्षणया, योगनिरोधलक्षणया वा, ' अज्जवेणं' आजवेनस्फटिकवद् बाह्याभ्यन्तरसरलभावरूपेण, 'मद्दवेणं ' मार्दवेन=निरभिमानतालक्षणेन, 'लाघ वेणं' लाघवेन-द्रव्यभावलघुतासंपन्नेन-तत्र-द्रव्यतोऽल्पोपधिकत्वेन भावतो रागद्वेषरहितत्वेन, ' सच्चेणं' सत्येन=अमृषाभाषणरूपेण, 'तवेणं ' तपसा-अशनादि मंडल तक और अधिकन्यून हो जाता है । इस तरह क्रमशः हीन ही होता हुआ अमावस्या का चन्द्रमा चतुर्दशी के चन्द्रमा की अपेक्षा बिलकुल वर्ण आदि से लगाकर अपने परिमंडल तक विलुप्त बन जाता है। ( एवामेव समणाउसो। जो अम्हं निमांथो वा निग्गंथी वा जाव पन्वइए समाणे हीणे खंतिए एवं मुत्तीए अज्जवेणं, मद्दवे गं, लाघवेण सच्चेणं, तवेण, चियाए, अकिंचणयाए, बंभचेरवालेण) इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी जन यावत् प्रवजित होता हुआ यदि क्षमा से होन है, मुक्ति-निलोभता अथवा मनोयोगदिकों की कुशल प्रवृत्ति रूप अथवा योगनिरोध रूप गुप्ति से स्फटित की तरह बाह्य एवं आभ्यन्तर में सरल परिणाम रूप आर्जव से, निरभिमानता रूप मार्दव से, अल्प उपधि रूप द्रव्यलधुना से राग द्वेषरहित रूप भाव लधुता से, अमृषाभाषण रूप सत्य से, अनકરતાં ત્રીજનો ચન્દ્ર વર્ણ પરિમંડળ બધી બાબતમાં વધારે ન્યૂન થઈ જાય છે. આ રીતે ધીમે ધીમે અનુક્રમે હીન થતાં અમાસનો ચન્દ્ર ચૌદશના ચન્દ્ર કરતાં વર્ણ પરિમંડળ વગેરેની દષ્ટિએ તદ્દન વિલુપ્ત (અદશ્ય ) થઈ જાય છે.
( एबामेत्र समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंयो वा जाव पवइए समाणे होणे खतोए एवं मुतीए गुत्तीए अन्नवेणं, महवेग, लाघवेणं, सच्चेणं तवेणं, चियाए, अकिंचणयाए, बंभवेवासेज)
આ રીતે જ હે આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ અથવા નિચંધી. જન યાવત્ પ્રવછત થઈને જે ક્ષમારહિત છે, મુક્તિ-નિર્લોભતા અથવા મ ગ વગેરેની કુશળ પ્રવૃત્તિ રૂપ અથવા યુગ નિરોધ રૂપ ગુપ્તિથી, ફિટિકની જેમ બાહ તેમજ આત્યંતરમાં સરલ પરિણામ રૂપ આજીવથી નિરભિમાનતા રૂપ
For Private And Personal Use Only
Page #719
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
"
- अवगारधर्मामृतवर्षिण टी० अ० १० जीवानां वृद्धिहानिनिरूपाम्
६६३
द्वादशविधेन 'चियाए त्यागेन = मुनिवैयावृत्यकरणलक्षणेन 'अकिंचणयाए ' अकिञ्चनतया निष्परिग्रहतया बंभचेरवासेणं' ब्रह्मचार्य वासेन ब्रह्मणि= काम सेवन. परित्यागरूपे चरणं = विचरण चर्य ब्रह्मचयं, तत्र वासस्तेन नववाटिका विशुद्धमैथुन विरमणरूपे ' हीनः' इति सर्वत्र सम्बन्धः क्षान्त्यादिदेशविवश्रमणधर्मरहितो भवतीत्यर्थः ।
९
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
तदनन्तरं च खलु स निर्ग्रन्थो वा० हीनतरः क्षान्त्या यावत् हीनतो ब्रह्मचर्यवासेन । एवं खलु एतेन क्रमेण = क्रमशः परिहीयमानः २ सन् नष्टः = सर्वथा रहितः क्षान्त्या यावत् नष्टो ब्रह्मचर्यवासेनापि भवति । क्षान्त्यादि सर्वगुणरहितो भवतीत्यर्थः यथा चन्द्रो नित्य राहुसंसर्गेण कृष्णमतिपदमारभ्य प्रतिदिवस कलाभिः क्षीयमाणः सन् कृष्णचतुर्दश्यपेक्षयामावास्यायां वर्गादिना यावन्मण्डलेन नष्टो शनादि रूप १२ प्रकार के तप से, मुनिजनों की वैयावृत्ति करने रूप त्याग से निष्परिग्रह रूप अकिञ्चन्य धर्म से काम सेवन परित्याग रूप ब्रह्मचर्य में वास कर ने से-नव कोटिसे विशुद्ध बने हुए ब्रह्मचर्य के पालन से हीन हैं - अर्थात् क्षान्ति आदि रूप दश प्रकार के यति धर्म से रहित हैं - ( तयाणतरं च णं हीणतराए खंतीए जाव हीणतराए बंभचेरवासेण एवं खलु एएण कमेण परिहायमाणे २ णट्टे खंनीए जाव णट्ठे
-
For Private And Personal Use Only
भरवासेण) अथवा जो साधु या साध्वी क्षान्ति से लेकर ब्रह्मचर्य वे इस तरह क्रमशः होन २ होते हुए क्षान्ति आदि वामसे हीनतर हैं । से लेकर ब्रह्मचर्यवास पर्यंत के समस्त गुणोंसे रहित हो जाते हैं। जिस प्रकार नित्य राहु के संसर्ग से कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से लेकर प्रतिदिन कलाओं से परिक्षीण होता हुआ चन्द्र कृष्णचतुर्दशी की अपेक्षा अमा ભાવથી, અલ્પ ઉપાધિ રૂપ દ્રવ્ય લઘુતાથી, રાગદ્વેષરહિત રૂપ ભાવલઘુતાથી અમૃષા ભાષણ રૂપ સત્યથી, અનશન વગેરે રૂપ ૧૨ પ્રકારના તપથી, મુનિજને ની વૈયાવૃત્તિ કરવા રૂપ પગથી નિપુરીગ્રહ રૂપ અકિંચન ધથી, કામસેવન પરિત્યાગ રૂપ બ્રહ્મચનું રક્ષણ કરવા, નવ કૅાટિથી વિશુદ્ધ અનેલા બ્રહ્મચર્યના પાલનથી હીન છે, એટલે કે ક્ષાંતિ વગેરે રૂપ દેશ ાતના યતિધર્મથી હીન છે.
(तयाणंतरं चणं हीणतराए खेतीए जाव हीणतराए बंभचेवासेणं एवं खलु पण कमेण परिहायमाणे २ णट्ठे खंत्तीए जाव णट्टे बंभचेरवासेणं )
અથવા જે સાધુ કે સાધ્વીએ કે ક્ષાંતિથી માંડીને બ્રહ્મચર્યવાસ સુધીના ગુણાથી હીન છે. તેઓ આ ચંદ્રની પેઠે જ અનુક્રમે હીન થતાં ક્ષાંતિ વગેરેથી માંડીને બ્રહ્મચવાસ સુધીના સર્વે ગુણાથી રહિત થઈ જાય છે જેમ 'મેશા રાહુના સંસર્ગ'થી કૃષ્ણપક્ષની એકમથી માંડીને દરરોજ કળાએની દૃષ્ટિએ ક્ષીણ થતા ચંદ્ર કૃષ્ણપક્ષની ચૌદશની અપેક્ષા અમાસના દિવસે ત્રણ પરિમ`ડળ વગેરે
Page #720
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथागपत्र भवति, तथैव मुनिः कुगुरूसंसर्गात् अवसन्नपार्श्वस्थादि सङ्गात् , वान्तसम्यक्त्वसम्बन्धात् , प्रमादस्थानसेवनात् , चारित्रावरणकर्मोदयाच्च क्रमशः क्षान्त्यादि. गुणहानि प्राप्तः सन् नष्टो भवतीति भावः ।
अथ द्धिदृष्टान्तमाह
यथा वा शुक्लपक्षस्य प्रतिपच्चन्द्रोऽमावास्यायाश्चन्द्र पणिधाय अपेक्ष्यअमावास्या चन्द्रापेक्षयेत्यर्थः 'अहिए ' अधिको वर्णेन यावद् अधिको-बर्द्ध मानो वस्या के दिन वर्णादि से लेकर परिमंडल तक के अपने समस्त गुणों से नष्ट हो जाता है। उसी तरह मुनि कुगुरुके संसर्ग से अथवा अवसन्न पार्श्वस्थादिकी संगति से सम्यक्त्व के छूट जाने के कारण और प्रमादस्थानों के सेवन करने के कारण उदित हुए चारित्र मोहनीय कर्म के प्रभाव से क्रमशः क्षान्त्यादिगुणों की हानि को प्राप्त करता हुआ नष्ट हो जाता है । अब सूत्रकार वृद्धि को स्पष्ट करने के लिये उसे दृष्टान्त से समझाते हैं-(जहावा सुक्कपक्खस्स पडिययाचंदे अमावासाए चंदं पणिहाय अहिए वपणेणं जाव अहिए मंडलेग तयाण तरं च ण विइया चंदे पडिवयाचंदं :पणिहाय अहिययराए वष्णेणं जाव अहिययराए मंडलेणं-एवं खलु एएणं कमेण पडिवुड़ेमाणे२ जाव पुणिमा चंदे चाउ. इंसिं चंदं पणिहाय पडिपुण्णे वण्णेणं जोव पडिपुण्णे मंडलेणं, एवामेव समाणाउसो । जाव पव्वइए समाणे अहिए खंतीए जाव यंभचेरवासेणं तयाणंतरं च णं अहियरयराए खतिए जाव बंभचेरवासेणं एवं खलु एएण कमेणं परिवड़े माणे २............बंभचेरवासेण ) जैसे शुक्ल पक्ष પિતાના બધા ગુણોથી રહિત બની જાય છે તેમજ મુનિ પણ કુગુરૂના સંસર્ગથી અથવા અવસન્ન પાર્શ્વસ્થ વગેરેની સંગતિથી સમ્યક્ત્વ રહિત થઈને પ્રમાદ સ્થાનના સેવનથી ઉદય પામેલા ચારિત્ર મોહનીય કર્મના પ્રભાવથી અનુક્રમે ક્ષાંતિ વગેરે ગુણોથી રહિત થઈને નાશ પામે છે. હવે સૂત્રકાર વૃદ્ધિને સ્પષ્ટ કરવાની ઈચ્છાથી દૃષ્ટાંત પૂર્વક સમજાવતાં કહે છે
(जाहावा सुक्पक्वस्त पडिवयाचंदे अमावासाए चंदं पणिहाय अहिए वण्णेणं जाव अहिए मंडलेणं तयाणंतरं च णं विइयाचंदे पडिवया चंद पणिहाय अहियय राए वण्णेणं जाव अहिययराए मडलेणं एवं खलु एएणं कमेणं पडिबुड़े माणे २ जाव पुण्णिमाचंदे चाउमि चंद पणिहाय पडिपुण्गेणं वण्णेणं जाव पडिपुणे मंडलेणं, एवामेव समणाउसो ! जाव पातिए समाणे अहिए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं तयाणंतरं च णं अहिययराए खेतोए जाव बंभचेरवासे णं एवं खलु एएणं कमेणं परिवडेमाणे २ .... बंभरवासेणं )
For Private And Personal Use Only
Page #721
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवषिणा टीका अ० १० जीवानां वृद्धिहानिनिरूपणनम् ६६५ . मण्ड लेन-वृत्ताकारतया भवति । तदनन्तरं च खलु द्वितीयाचन्द्रः पतिपच्चन्द्र मणिधाय अधिकतरः पूर्वदिनापेक्षया वर्णनात्यधिको भवति यावद् अधिकतरो मण्डलेन भवति । क्रमशो वृद्धि प्राप्नोति एवं खलु एतेन क्रमेण परिखुट्टेमाणे २' परिवर्धमानः २ प्रतिदिनं वृद्धिं लभमानो २ यावत् पूर्णिमाचन्द्रः 'चाउद्दसिं' चातुर्दशं चतुर्दशी सम्बन्धिनं चन्द्र प्रणिधाय 'पडिपुण्णे' प्रतिपूर्णः सम्पूर्णों वर्णेन यांवत् प्रतिपूर्णी मण्डलेन-वृत्ताकाररूपेण भवति , पूर्णिमाचन्द्रः सकलकला. कलापकलिततया परिपूर्ण मण्डलवान् भवतीत्यर्थः।
'एकामेव ' एवमेव अनेनैव प्रकारेण हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! 'जाव' यावत्-योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा २ आचार्योपाध्यायानामन्ति के प्रवजितः सन् अधिक वृद्धि सम्पन्नः क्षान्त्या यावद् अधिको ब्रह्मचार्यवासेन । तदनन्तरं च खलु की प्रतिपदा का चन्द्रमा अमावास्या के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से लेकर मंडल तक वर्द्धमान होता हुआ अधिक होता है, और उसके बाद द्वितीया का चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से लेकर मंडल तक अधिकतर हो जाता है-इस तरह के क्रम से जैसे प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त करता हुआ वह चन्द्रमा जब पूर्णिमा तिथि तक पहुंच जाता है तो चतुर्दशी तिथि के चन्द्रमा की अपेक्षा उस दिन वर्ण से लेकर अपने मंडल से परिपूर्ण बन जाता है। उसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणों! जो हमारा निर्ग्रन्थ साधु अथवा निर्ग्रन्थी साध्वी आचार्य उपाध्याय से दीक्षित बनकर क्षान्ति गुण से लेकर ब्रह्मचर्यवास तक के गुणों से वृद्धिसंपन्न होता है।
और इस तरह इन सप से धीरे धीरे वह पहिले की अपेक्षा और अधिकतर सम्पन्न बन जाता है। इस प्रकार क्रमशः सम्पन्न बनता हुआ
જેમ શુકલ પક્ષની એકમને ચંદ્ર અમાસના ચંદ્ર કરતાં વર્ણ મંડળ વગેરેની અપેક્ષાએ વૃદ્ધિ પામે છે. અને બીજને ચંદ્ર જેમ એકમના ચંદ્ર કરતાં વર્ણ પરિમંડલ વિગેરેની અપેક્ષાએ વૃદ્ધિ પામે છેઆ રીતે જ અનુકમથી દરરોજ વૃદ્ધિ પામતો ચંદ્ર જ્યારે પૂનમની તિથિ સુધી પહોંચી જાય છે ત્યારે ચૌદશના ચંદ્રની અપેક્ષાએ તે દિવસ વર્ણ પરિમંડળ વગેરેથી પરિપૂર્ણતા મેળવે છે. આમ જ હે આયુષ્યન્ત શ્રમણ ! જે અમારા નિથ સાધુ કે નિ થી સાધ્વી આચાર્ય ઉપાધ્યાયની પાસેથી દિક્ષા મેળવીને ક્ષતિ ગુણથી માંડીને બ્રહ્મચર્યવાસ સુધીના બધા ગુણેથી વૃદ્ધિસંપન્ન થઈ જાય છે.
છે અને આ રીતે આ બધા ગુણોથી ધીમે ધીમે તે પહેલાં કરતાં વધુ સંપન્ન થઈ જાય છે આ પ્રમાણે અનુક્રમે ગુણ સંપન્ન થતે તે ક્ષાંતિ બ્રહ્મ
For Private And Personal Use Only
Page #722
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
BER
ज्ञाताधर्मकथाक
1
अधिकतरः =अत्यधिकः क्षान्त्या यावद् अधिकतरो ब्रह्मवर्यवान । एवं खलु एतेन क्रमेण 'परिमाणे २ ' परिवर्धमानः २ क्रमशो वृद्धिसम्पन्नो भूत्वा यावत् ' पडिएन्ने' प्रतिपूर्ण : = सम्मको ब्रह्मचर्यवासेन, क्षान्त्यादिसर्वगुणसम्पन्नो भवतीत्यर्थः ।
यथा चन्द्रो नित्यसंसर्गापगमेन शुक्लप्रतिपदमारभ्य प्रतिदिवसे कलाभिवर्धमानः सन् क्रमेण शुक्लचतुर्दश्यपेक्षया पूर्णिमायां वर्णादिना यावन्मण्डलेन परि पूर्णो भवति तथैव मुनिः कुगुरुसंसर्गादिपरित्यागेन चरित्रावरणव र्मक्षयोपशमादिना क्रमशः क्षान्त्यादि गुणवृद्धिं माप्नुवन् केवलज्ञान केवलदर्शनादिगुणैः परिपूर्णो भवतीति ।
एवं खलु जीवा अनेन प्रकारेण क्षान्त्यादि गुणवृद्धया वर्द्धन्ते वा तेषां हान्या वह क्षान्ति गुण से लेकर ब्रह्मचर्यवास तक के समस्त गुणों से परिपूर्ण हो जाता है । जिस प्रकार राहु के संसर्ग के अपनयन से शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर प्रतिदिन अपनी कलाओं से अभिवर्धमान होता हुआ चन्द्रमा क्रमशः शुक्लचतुर्दशो कि अपेक्षा पूर्णिमासी के दिन वर्गादि से लगाकर मण्डल तक की अपनी समस्त कलाओं से परिपूर्ण हो जाती है
इसी तरह मुनि भी कुगुरु आदि के संसर्ग आदि के परित्यागसे तथा चारित्रावरण कर्म के क्षयोपशम आदि से क्रमशः क्षान्त्यादि गुणों की वृद्धि करता हुआ केवलज्ञान, केवल दर्शन आदि गुणों से परिपूर्ण हो जाता है । ( एवं खलु जीवा वज्रंति, वा हायंति वा, एवं खलु जंबू समणेण भगवता महावीरेण दसमस्स णायज्झयणस्स अगमट्ठे पण्णत्ते
ચવાસ વગેરે ખધા ગુણૈાથી પરિપૂર્ણ થઇ જાય છે. જેમ રાહુના સ‘સંરહિત થઇને શુકલ પક્ષની એકમથી માંડીને દરરાજ પેાતાની કળાએની વૃદ્ધિ કરતા ચંદ્ર અનુક્રમે શુકલ પક્ષની ચૌદશ કરતાં પૂનમના દિવસે વધુ પરિમ`ડળ વગે. રેની પેાતાની સ`પૂર્ણ કળાએથી પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે.
તેમજ મુનિ પણ કુગુરુ વગેરેની સેાખત વગેરેને ત્યજીને તેમજ ચારિત્રવરણુ કમના ક્ષયૈાપશમ વગેરેથી અનુક્રમે પેાતાના ક્ષાંતિ વગેરે ગુણેાની વૃદ્ધિ કરતા કેવળજ્ઞાન, કેવળ દન વગેરે ગુણેાથી પરિપૂર્ણ થઇ જાય છે.
( एवं खलु जीवा बहुति, वा हायंति वा एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवता महावीरेण दसमस्स णायज्झयणस्स अयम पण्णत्ते तिबेमि )
For Private And Personal Use Only
Page #723
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणो टीका अ० १० जीवानांवृद्धिहानिनिरूपणम् ६६७ हीयन्ते वा। एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण दशमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयं=पूर्वोक्तः अर्थः=भावः प्रज्ञप्तः। 'त्तिवेमि' इति ब्रवीमि पूर्ववत् ॥सू०१॥
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक - प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक
श्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचितायां श्री ज्ञाताधर्मकथासूत्रस्यानगारधर्मामृ
तवर्षिण्याख्यायां व्याख्यायां दशममध्ययनं समाप्तं ॥१०॥
त्तिवेमि) इस प्रकार क्षान्त्यादि गुणों की वृद्धि से जीव वढ़ते हैं और उ. नकी हानि से जीव घटते हैं यह कथन बन जाता है इस तरह हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीरने दशवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रज्ञप्त किया है। मैंने उन्हों के मुख से जैसा सुना है उसी के अनुसार यह कहा है ॥ सू०१॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराजकृत " ज्ञाता. धर्मकथाङ्गसूत्र "की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका दशवां
अध्ययन समाप्त ॥१०॥
ક્ષાંતિ વગેરે ગુણોની વૃદ્ધિથી જ વૃદ્ધિ પામે છે અને શાંતિ વગેરે ગુણેની હાનિથી જીવો ઘટે છે. આમ આ કથનની સાર્થકતા સિદ્ધ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે તે જ બૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે દશમ જ્ઞાતાધ્યયન આ પૂર્વોક્ત અર્થ નિરુપિત કર્યો છે. આ અર્થ મેં તેમના મુખેથી જે પ્રમાણે સાંભળે છે તે જ પ્રમાણે તમારી સામે રજૂ કર્યો છે. સૂત્ર “૧” .
જૈનાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાધ્યયન સૂત્રની અનગારધર્મામૃતવષિણી વ્યાખ્યાનું દશમું અધ્યયન સમાસ ૧૧
For Private And Personal Use Only
Page #724
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अथ एकादशमध्ययनं प्रारभ्यतेगतं दशममध्ययनं, साम्पतमेकादशमारभ्यते । पूर्वस्मिन्नध्ययने कृष्णशुक्लपक्षचन्द्रदृष्टान्तेन प्रमादाममादवतोः क्षान्त्यादिगुणहानिवृद्धिभ्यामनर्थानौँ पतिपादितौ, इह तु मार्गाराधनविराधनाभ्यामर्थायी प्रदश्यते, अथ जम्बूस्वामी पृच्छति-' जइणं भंते ' इत्यादि ।
मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दसमस्स नाय. ज्झणस्स अयमढे पण्णत्ते एकारसमस णं भंते णायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तणं कालेणंर रायगिहे गोयमे एवं वयासी-कहणं भंते ! जीवा आराहगावा विराहगा वा भवंति ?, गो० ! से जहा णामए एगंसि समुद्दकुलंसि दावइवा नामं रुक्खा पण्णत्ता किण्हा जाव निउरुंबभूया पत्तिया
दाय द्रव (घृक्ष ) नामक ग्यारहवां अध्ययन प्रारंभ दशवां अध्ययन समाप्त हो चुका-अब ग्यारहवां अध्ययन प्रारंभ होता है । इस अध्ययनका पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकारसे संबन्ध है कि पूर्व अध्ययन में कृष्ण और शुक्ल पक्षके चन्द्रमा के दृष्टान्त से प्रमादी और अप्रमादी संयमी के क्षान्त्यादि गुणों की हानि एवं वृद्धि रूप अनर्थ एवं अर्थ की प्राप्ति होनी प्रतिपादित की गई है। अब इस अध्ययन द्वारा यह कहा जा रहा है कि जो संयम मार्ग की आराधना तथा विराधना करते हैं वे अर्थ और अनर्थ की प्राप्ति के पात्र होते हैं। जंबू स्वामी श्री सुधर्मासे पूछते हैं कि 'जइणं भंते ! समणेणं' इत्यादि।
पद्रव (वृक्ष) नामे मानियाभुं अध्ययन प्रारम. દશમું અધ્યયન પુરૂં થઈ ચૂકયું છે અને હવે અગિયારમું અધ્યયન આરંભ થાય છે. આ અધ્યયનને પહેલાંના અધ્યયનની સાથે આ પ્રમાણેને સંબંધ છે. પહેલાંના અધ્યયનમાં કૃષ્ણ અને શુકલ પક્ષના ચન્દ્રમાના દૃષ્ટાંતથી પ્રમાદી અને અપ્રમાદી સંયમીને ક્ષાંતિ વગેરે ગુણોની પ્રાપ્તિ થવી, આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે આ અધ્યયનમાં જે સંયમ માર્ગની આરાધના તેમજ વિરાધના કરે છે તેઓ અર્થ તેમજ અનર્થના પાત્ર ગણાય છે. આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે. જે બૂસ્વામી શ્રી સુધર્મા સ્વામીને પ્રશ્ન કરે છે કે
(जइणं भंते ! समणेणं " इत्यादि ।
For Private And Personal Use Only
Page #725
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नंगारघमृतवर्षिणी टीकाप्र०११ जीवानामाराधविराधकत्वनिरूपणम् ६६९ पुष्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अतीव २ उवसोभेमाणा चिट्ठति, जयाणं दीविच्चगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति तयाणं वहवे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति अप्पेगइया दावदवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडियपंडुपत्त पुप्फफला सुक्करुक्खओ विव मिलायमाणा २ चिति, एवामेव समणोउसो ! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंधी वा जाव पत्रइये समाणे वहूणं समणाणं ४ सम्मं सहति जाव अहिया से बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहइ नो खमइ नो तितिक्खइ नो अहियासेइ एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते । समणाउसो ! जया णं सामुद्दगाईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाता वायंति तदा णं बहवे दावदवा रुक्खा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा२ चिद्वंति, अप्पेगइया दावदवा रुक्खा पत्तिया पुष्फिया जाव उवसोभे. माणार चिति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हे निग्गंथो वा निग्गंधी वा पव्वइए समाणे बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्मं सहइ बहूणं समणाणं ४ नो सम्मं सहइ एस मए पुरिसे देसाराहए पन्नते । समणाउसो ! जयाणं नो दीविच्चगाणो सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया जाव महावाया वायंति तयाणं सव्वे दावदवा रुक्खा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा चिट्ठति, अप्पेगइया जाव उवसोभेमाणा२ चिट्ठति, एवामेव समणाउसो ! जाव पव्त्रइए समाणे बहूणं समणाणं ४ बहूणं अन्न उत्थियगिहत्थाणं नो सम्मं सहइ एसर्ण मए
For Private And Personal Use Only
Page #726
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१७०
हाताधर्मकथा सव्वबिराहए पण्णत्ते । समगाउसो! जयाणं दीविच्चगाविसामुदगावि ईसिं पुरेवाया पच्छावाया जाव वायंति तया णं सब्बे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिटुंति, एवामेव समणाउसो
जो अम्हं जाव पवइए समाणे बहूणं समणाणं४ बहूणं अन्नउस्थियगिहत्थाणं सम्मं सहइ एसणं मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते! एवं खलु गोयमा ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति, एवं खल जंबू ! समणेणं भगवया० एकारसस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते त्तिवेमि ॥ सू० १ ॥
॥ एकारसमं नायज्झयणं समत्तं ॥ ११ ॥ टीका-यदि खलु भदन्त ! श्रपणेन भगवता महावीरेण यावत् सिद्धिगति सम्प्राप्तेन दशमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयम्=पूर्वोक्त प्रकारो गुगहानिद्धिरूपः अर्थः भावः प्रज्ञप्तः कथितः, अथ एकादशस्याध्ययमस्य श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेन कोऽर्थः को भावः प्रज्ञप्तः ? । सुधर्मास्वामी कथयति-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले
टीकार्थ-जहणं भंते !) मदि हे भदंत ! (समणेणं जाव संपत्तेणं दस मस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते एक्कारसमस णं भत्ते । णायज्झयणस्सके अद्वे पण्णत्ते) श्रमण भगवान महावीर प्रभुने कि जो मुक्तिको प्राप्त हो चुके हैं, दशवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ प्रतिपादित किया है- उन्हों श्रमण भगवान महावीर प्रभु ने ग्यारहवें ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? इस प्रकार जंबू स्वामी के पूछने पर श्री सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि ( एवं खलु जंबू ! ) सुनो जो उन्हों ने ग्यारहवे
साथ--(जइणं भंते ! ) 3 मत ! (समणेणं जाव संपत्तेण दसमस्त नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते एक्कारसमस्स मं भंते ! णायज्झयणस्स के अटे पणत्ते) | મુક્તિ મેળવેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે દશમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ પક્ત રૂપ અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે તે તેઓશ્રીએ અગિયારમો જ્ઞાતાધ્યયનને છે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે? આ રીતે જંબુ સ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને સુધન્ન
For Private And Personal Use Only
Page #727
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपाम् ६७१ वस्मिन् समये राजगृहे नगरे गौतम एवमवादी-एवमपृच्छत्-कथं खलु भदन्त । हे भगवान् ! जीवा आराधकाः ज्ञानादि रत्नत्रयरूपमोक्षमार्गसाधकाः, विराधका: तद्विपरीता भवन्ति ? । एतमर्थ भगवान् दृष्टान्तेन वर्णयति-हे गौतम ! तद्यथा नामकं-यथा दृष्टान्तम्-एकस्मिन् समुद्रकूले सागरतटे ' दावद्दवा ' दावद्रवाः, नाम-एतानामधेया वृक्षाः प्रज्ञप्ताः । कीदृशाः ? इत्याह-' किण्हा' कृष्णा कृष्ण वर्णा यावत् महामेघनिकुरम्बभूताः जलसम्भृतमेघान्दमदृशा 'पत्तिया' ज्ञाताध्ययन का अर्थ निरूपित किया है वह इस प्रकार है-(तेणं कालेणं तेण समएण रायगिहे गोयमे एवं वयासी ) उस काल और उस समय में राजगृहनगर में श्रमण भगवान महावीर प्रभु पधारे-उनसे गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा- (कहण्णं भंते ! जीवा आराहगा वा विराह गा वा भवंति ? ) हे भदंत ! जीव ज्ञानादि रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग के आराधक साधक-और विराधक कैसे-किस कारण से-होते है ? ( गोयमा! से जहानामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावदवा नोमं रुक्खा पण्णत्ता) प्रभु ने उनकी इस बात का उत्तर इस तरह के दृष्टान्त से दिया-हे गौतम ! समुद्र के तटपर “दाबद्रव" इस नामके बहुत से वृक्ष खड़े हुए थे (किण्हा जाव निरंबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा, सिरीए अतीव २ उवसोभेमीणा निद्वंति ) ये सब जल से भरे हुए मेघों के समूह जैसे कृष्ण वर्ण के थे स्वामी तन ४ छ । ( एवं खलु जंबू ! ) ! सामना, प्रभु मशिયારમા જ્ઞાતાધ્યયનને અર્થ આ પ્રમાણે નિરૂપિત કર્યો છે.
( तेणं कालेणं तेणं समएण रायगिहे. गोयमे एवं वयासी) - તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ५धार्या. गौतम स्वामी तेमने या प्रमाणे प्रश्न -(कहण्णं भंते ! जीवा भाराहगावा विराहगावा भवंति ? 3 महत ! ७१ ज्ञान पगेरे रत्नत्रय ३५ મોક્ષ માર્ગના આરાધક-સાધક અને વિરાધક કેવી રીતે-શા કારણથી થાય છે? (गो० ! से जहानामए एगसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नाम रुक्खा पण्णत्ता)
પ્રભુએ તેમના તે પ્રશ્નને જવાબ દૃષ્ટાન્તના આધારે આપતાં કહ્યું–હે ગૌતમ ! સમુદ્રને દાવદ્રવ જાતિનાં ઘણાં વૃક્ષે હતાં.
(किण्हा जाव निऊरंव भूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरे रिज्नमाणा, सिरीए अतीव २ उपसोभेमाणा चिट्ठति )
એ બધાં વૃક્ષે જળપૂર્ણ મેઘ સમૂહોની જેમ કાળા રંગનાં હતાં. બધાં વૃક્ષ, પ, પુષ્પો અને ફળથી સમૃદ્ધ હતાં. લીલા રંગથી એ વૃક્ષ શેતાં
For Private And Personal Use Only
Page #728
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
6
ज्ञाताधर्म दाङ्गसूत्रे
६७२
पत्रिता = पत्रयुक्ता पुष्फिया' पुष्यिताः = पुष्पयुक्ताः, 'फलिया ' फलिता:= फल समृद्राः, हरियगरेरिज्जमाना' हरितकराराज्यमानाः = हरितकेन हरितवर्णेनातिशयशोभमानाः ' सिरीए' श्रिया = पत्रपुष्पादि शोभया अतीवातीव = अत्यन्तम् उपशोभमानाः शोभासंमन्नः तिष्ठन्ति । यदा खलु = यस्मिन् काले 'दीविच्चा ' द्वेष्याः द्वीपसम्भवाः । ईसिपुरेवाया 'ईपरपुरोवाताः स्वल्पाः पूर्वदिग्वायवः, ' पच्छावाया' पञ्चाद्वाताः = पश्चिम दिग्वायवः ' मंदावाया ' मन्द वाताः शनैः शनैः सञ्चारिणो वायवः, ' महावाया ' महावाताः = प्रचण्डवायवः ' वायंति ' वान्ति = चलन्ति तदा खलु बहवो दावद्रवा वृक्षा पत्रिता यावत् श्रियाsataraीवोपशोभमानास्तिष्ठन्ति । 'अप्पेगइया ' अप्येककाः कतिपयाः- स्तोका
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
=
पत्र युक्त थे, पुष्प युक्त थे फलों से समृद्ध थे । हरित वर्ण से ये सब अतिशय शोभायमान हो रहे थे । इस तरह पत्र पुष्पादि की शोभा से इनकी शोभा अत्यंत निराली बनी हुई थी। इस कारण ये विशिष्ट शोभा संपन्न बने हुए थे। (जयाण दीविच्चगा ईसि पुरेवया पच्छा वाया मंदावाया महावाया वार्यति, तया णं बहवे दात्रद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, अपेगइया दावद्दवा स्वखा जुन्ना झोडा परिसडियपंडुक्त पुष्कफलाक्वस्वखाओ विव मिलायमाणा २ चिति ) जिस समय द्वीप से उत्पन्न हुई पूर्व दिशा संबन्धी स्वल्प हवाएँ, पश्चिम दिशा संबन्धी स्वल्प हवाएं, घीरे २ चलने वाली वायुएँ तथा प्रचण्ड वाएँ चलने लगती तो उस समय अनेक दोवद्रव वृक्ष पत्र पुष्पादि की शोभा से निगले, बने हुए ज्यों के त्यों खड़े रहते थे उनमें कुछ भी विकार नही होता था | तात्पर्य इसका यह है कि जब टापू से पूर्व दिशा હતાં. પત્ર અને પુષ્પોથી એમની શાભા અનેરી થઈ પડી હતી. એથી એએ વિશેષ શેાભા–સન્ન લાગતાં હતાં.
( जयाणं दी विच्चगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति तया णं बहवे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाब चिट्ठति, अप्पेगझ्या दावदवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडिय पंडुषत्तपुष्पफला सुक्क्रुत्रखाओ वित्र मिलायमाणा २ चिट्ठति) જ્યારે દ્વીપ ઉપર વહેતા પૂર્વ દિશાના આછા પર્વને, પશ્ચિમ દિશાના આછા વા, ધીમે ધીમે વહેનારા પવને તેમજ પ્રચંડ પવનો ફૂંકાવા લાગતા ત્યારે પત્ર-પુષ્પ વગેરેની શેભાથી અનેરાં લાગતાં દાદ્રવ વૃો। જે સ્થિતિમાં ઊભાં હતાં તે જ સ્થિતિમાં વિકાર વગરના થઇને સ્થિર થઈને ઊમાં જ રહેતા હતાં. કહેવાની મતલબ એ છે કે જ્યારે દ્વીપના પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશાના મંદ, સુગંધ અને શીતળ પવન વહેતા હતા ત્યારે પત્રા-પુષ્પા વગેરેથી સંપન્ન
Page #729
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपणम् १७३ इत्यर्थः दावद्रवा वृक्षा — जुन्ना' जीर्णाः चिरकालीनाः ‘झोडा' झोड:-शटनं, तद् योगाद् वृक्षा अपि झोडाः शटितमूलस्कन्धा इत्यर्थः, 'परिसडियपंडपत्तपुप्फफला' परिशटितपाण्डु पत्रपुष्यफलाः-परिशटितानि-शीर्णानि-अतएव पाण्डूनि= ईषत्पीतानि पत्राणि पुष्पाणि फलानि च येषां ते तथोक्ताः, ' सुकारुक्खओविव निलायमाणा' शुष्कक्षा इव म्लायन्तः २-शोभारहितास्तिष्ठन्ति । भगवानाह'एवामेव ' एवमेव अनेनैव प्रकारेण ' समणाउसो' हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं निग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा यावत्पद्रजितः सन् बहूनां श्रमणानां बहीनां श्रमणीनां बहूनांश्रकाणां बहीनां श्राविकानां कर्कशकठोर वचनाद्युपसर्गान् ‘सम्म' सम्यक पश्चिम दिशा संपन्धी मंद सुगंध शीतल समीर चलने लगता तो उस समय जो पत्र पुष्प आदि से युक्त हुए दावद्रव वृक्ष थे वे ज्यों के त्यों अधिक शोभा संपन्न, बने रहकर हरे भरे ही दिखलाई देते रहते। परन्तु उनमें जो दाव द्रव वृक्ष जीर्ण थे पुराने थे, शीण-सडे हुए थे जिनका मूल और स्कंध दोंनो खोखले हो गये थे और जिनके पीला सफेद होकर पत्र पुष्प एवं फल परिशटित हो झड़-चुके थे वे शुष्क वृक्षो के समान म्लान-शोभा रहित ही बने रहते ( एषामेव समणा उसो ! जो अम्मं निग्गंथो वा निग्गंधी वा पत्र्याइए समाणे यहग अण्णउत्थियाणं बडूण गिहत्थाणं सम्मं सहइ बहूण-समणाण ४ नो सम्म सहइ एसण मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्त) इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणों ! जो हमारा निर्गन्ध साधु जन अथवा साध्वी जन दीक्षित होता हुआ अनेक श्रमग जनों के अनेक श्रमणियों के, श्रावको के और श्रा विकाओं के कर्कश, कठोर वचनादि रूप उपसर्गों को मध्यस्थ भाव થયેલાં દાવદ્રવ વૃક્ષે જે સ્થિતિમાં જ સવિશેષ શોભા યુક્ત થઈને લીલાંછમ દેખાતાં હતાં. પણ તેમાં જે દાવદ્રવ વૃક્ષો જીર્ણ હતાં-જૂનાં હતાં-શીર્ણસડી ગયેલાં હતા, જેના મૂળ અને થડને ભાગ ખોખલે થઈ ગયું હતું અને જેઓના પીળા અને સફેદ થઈને પાંદડાઓ, પુષ્પ અને ફળ પરિશટિત થઈને ખરી પડયાં હતાં. તે તે સુકાઈ ગયેલા વૃક્ષોની જેમ પ્લાન-શોભા રહિત થઈને ઊભાં હતાં.
( एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंथी वा पन्नाइए समाणे बहूगं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म सहइ बहूणं समणाणं ४ नो सम्म सहइ एसणे मए पुरिसे देमाराहए पन्नत्ते) ।
આ પ્રમાણે જ હું આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ સાધુજન અથવા સાધ્વીજન દીક્ષિત થઈને ઘણા શ્રમણ અને ઘણી શ્રમણીએ, ઘણા શ્રાવકો અને ઘણી શ્રાવિક.-ગાના કર્કશ, કઠેર વચને વગેરે ઉપસર્ગોને મધ્યસ્થ
For Private And Personal Use Only
Page #730
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
-
-
এলাকায় मध्यस्थभावेन 'सहइ ' 'सहते-मुखाद्यविकारकरणेन मर्पति, 'खमइ ' क्षमते क्रोधाभावेन, तितिक्खइ, तितिक्षते-अदीनाभावेन, · अहियासेइ ' अध्यास्ते निर्जराभावनयाऽन्तःकरणेन सहते । अथ व बहूनाम् अन्यतीथिकानां बहूनां गृहस्थानाम् प्रतिकूलवचनानि नो सम्पक्सम्यग्भावेन सहते यावत् नो अध्यास्ते, एष खलु एवम्भूतः पुरुषः 'मए ' मया ' देशपिराहर' देशविराधकः प्रज्ञप्तः ।
पुनश्च हे श्रमणा:-आयुष्मन्तः ! यदा खलु 'सामुद्दगा' सामुदकाः समुद्रसम्बन्धिनः ईपत्पुरोवाताः स्वल्पपूर्वदिग्वायत्रः ‘पच्छावाया' पश्चाद्वाताः पश्चिमसे सहन करता है उन वचनों को सुनकर जिनके मुख आदि में कोई विकार नही झलकता है क्रोध नहीं उत्पन्न होता है, अदीन भावसे जो उन्हें सहन करता है, निर्जरा की भावना से जो उन्हें अपने अन्तः करण से सहलेता है-तथा कुतीथिकों के गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को जो सहन नहीं करता है-यावत् उन्हें अध्यासित नहीं करता है ऐसा व्यक्ति मैंने देश विराधक प्रज्ञप्त किया है। (समणाउमो ! जयाण सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदाबाया महावायाःवायंति तयाणं बहवे दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा जाव मिलापमाणा २ चिट्ठति, अप्में गइया दावदवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणा २ चिटुंति एवामेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा पव्वइए समाणे यहणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्मं सहइ बहूणं समणाणं ४ नो सम्मं सहइ एसणं मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते ) पुनश्च-हे आयु. ભાવથી સહન કરે છે, તે વચનોને સાંભળીને જેના માં વગેરે અંગે ઉપર કોઈ પણ વિકાર સરખાએ થતું નથી, કે ઉત્પન્ન થતું નથી, અદીન ભાવથી જે તેને ખમતો રહે છે–સહન કરતું રહે છે, નિર્જરાની ભાવનાથી જે તેઓને પિતાના અંતરથી સહન કરી લે છે, તેમજ કુતીથિ કેના ગૃહસ્થને પ્રતિકૂળ વચનને જે સહન કરી શકતો નથી યાવતુ તેઓને અધ્યાસિત કરતે નથી એવા માણસને મેં દેશ-વિરાધક તરીકે પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે
(समणाउसो ! जयाणं सामुद्दगा ईसिं पुरे वाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति तयाणं वहवे दावदका रूकवा जुग्गा झोडा जाब मिलायमाणा २ चिट्ठति, अप्पेगइया दावदवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उबसोभेमाणार चिटुंति एवामेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पचहए समाणे बहूगं अण्णउत्थियाणं बहूगं गिहत्थाणं सम्म सहइ बहूगं समणाणं ४ नो सम्म सहइ एसणं मए पुरिसे देसाराहए पजते )
For Private And Personal Use Only
Page #731
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
मंमगारधर्मामृतषिणी टी० अ० ११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपणम् १७५ दिक् संभवा वायवः मन्दधाता महावाता वान्ति-प्रचन्ति तदा खलु बहवे दाबद्रया वृक्षा जीर्णा झोडा शटिमूलस्कन्धाः यावत् म्लायन्त स्तिष्ठन्ति । तत्र 'अप्पेगइया' अप्येकका कतिपयाः दावत्रा वृक्षाः पत्रिता यावत् उपशोभमानाः २ स्तिष्ठन्ति । एवमेव हे श्रमणा आयुष्मन्तः योऽस्माकं निम्रन्यो वा निर्ग्रन्थी वा प्रव्रजितः सन् बहूनाम् अन्यतोथिकानां बहूनां गृहस्थानां प्रतिकूलवचनानि सम्यक् सहते, बहूनां श्रमणानां ४-श्रमणादीनां चतुर्विधसङ्घस्येत्यर्थः वचनानि नो सम्यक सहते एष खलु पुरुषो 'मए' मया देशाराधकः प्रज्ञप्तः । हे आयुष्मन्तः श्रमणाः ! यदा खलु नो 'दीविचगा' द्वैप्याः-द्वीपसम्बन्धिनः नो 'सामुद्दगा' सामुद्रकाः समुद्रसम्बन्धिन ईषत्पुरोवाताः पश्चाद्वाता यावत् महावाता वान्ति तदा खलु सर्वे द्रोपद्रवक्षा जीर्णाः मंत श्रमणों ! जिस समय समुद्र से उत्थित पूर्व दिशा संबन्धी वायु स्वल्प पश्चिम दिशा संबंधी वायु, मन्द वायु एवं महा वायु चलती है उस समय कितनेक जीर्ण -पुराने-शीर्णदाव द्रव वृक्ष झोडा-पत्र पुष्पादि वर्जित वृक्ष तो म्लान के म्लान ही-शोभा रहित ही खड़े रहते हैं और कितनेक दाव द्रव वृक्ष जो पत्र पुष्पों से युक्त होते हैं वे हरेभरे सुन्दर ही प्रतीत होते रहते हैं । इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जो हमारा निर्ग्रन्थ साधु एवं साध्वी जन प्रव्रजित होता हुआ अनेक अन्यतीर्थिको के अनेक गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को तो अच्छी तरह से सहन कर लेता है परन्तु अनेक श्रमण आदिकों के चतुर्विध संघ के-वचनों को सहन नही करता है-वह मेरे द्वारा देशाराधक प्रज्ञप्त हुआ है । (समणा उसो ! जया णं नो दीविच्चगा णो साउद्दगा ईसिं पुरे वाया पच्छा
અને તે આધુમંત શ્રમણ ! જ્યારે સમુદ્ર ઉપર થઈને વહે આછો પૂર્વ દિશાને પવન, મંદ પવન અને પ્રચંડ પવન ફૂંકાય છે ત્યારે કેટલાક જીર્ણ-જૂના, શીણું પાંદડાં અને પુ રહિત થયેલાં દાવદ્રવ વૃક્ષે રૂાન થઈને શોભાહીન થઈને જ ઊભાં રહે છે અને કેટલાક દાવંદ્રવ વૃક્ષે જે પાંદડાંએ પુષ્પોવાળાં છે-લીલાંછમ અને સુંદર જ લાગે છે. આ પ્રમાણે તે આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ સાધુ અને સાઠવીજન પ્રવજીત થઈને ઘણુ અન્યતીથિંના ઘણું ગૃહના પ્રતિકૂળ વચનેને સારી રીતે સમજી લઈને સહન કરી લે છે પણ તેઓમાંથી શ્રમણ વગેરેના ચતુર્વિધ સંઘના વચનને જે સહન કરતું નથી તે મારા વડે દેશારાધક તરીકે પ્રજ્ઞપ્ત થયેલ છે.
(समणाउसो ! जायाणं नो दीविचगा णो सामुद्दगा ईसिं पुरे वाया पच्छावाया जाव महावाया वायंति तयाणं सम्वे दादा रुकवा जुण्णा झोडा जाव
For Private And Personal Use Only
Page #732
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भाताधर्मकथाजस्त्र ज्ञोडा यावद् म्लान्तस्तिष्ठन्ति, अप्येककाः कतिपयाः यावद् उपसोभमानास्तिष्ठन्ति । एवमेव हे श्रमणा आयुष्मन्तः! यावत् प्रबजितः सन् वहूनां श्रमणानां ४ चतुर्विधसङ्कस्य, बहूनाम् अन्यतीथिकास्थानां वचनानि नो सम्यक् सहते, एष खलु पुरुषः 'मए' मया सर्व विराधकः प्रज्ञप्त । श्रमणा आयुष्मन्तः । यदा खलु 'दीविच्चगावि ' द्वैष्या अपि 'सामुद्दगावि ' सामुद्रका अपि ईषत्पुरोवाताः पश्चाद्वाता यावद् वान्ति तदा खलु सर्वे द्रावदना वृक्षा पत्रिता यावत् श्रिया उपशोभमानाः २ तिष्ठति । एवमेव हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं यावत् प्रत्रजितः सन् बहूनां श्रमणानां ४-चतुर्विधसङ्घस्य बहूनाम् अन्यतीधिकगृहस्थानां प्रतिकूल वचनानि वाया जाव महावाया वायंति-तयाणं सब्वे दावदवा रुक्खा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा चिट्ठति, अप्पेगइया जाव उवसोभे माणा चिट्ठति, एवामेव समणाउसो! जाव पव्वइए समाणे बहणं सभणाणं ४ बहणं अन्न उत्थियनिहत्थाणं नो सम्मं सहइ एसणं मए पुरिसे सव्व विराहिए पण्णत्ते ) हे आयुष्मंत श्रमणो जिस समय न तो द्रोपोत्थ पूर्व दिशा संबंधी स्वल्प वायुएँ, पश्चिम दिशा संबन्धी स्वल्प वायुएँ, धीरे २ चलने वाली वायुएँ एवं प्रचण्ड वेग शाली वायुएँ चलते हैं और न समुद्रोत्थ पूर्व दिशा संयन्धी स्वल्प वायुएँ, पश्चिम दिशा संबन्धी स्वल्प वायुएँ धीरे २ चलने वाली वायुएँ एवं प्रचंड वेग शाली वायुएँ चलते हैं उस समय भी जीर्ण शीर्ण दावद्रव वृक्ष म्लान ही रहते हैं-और जो पत्र पुष्पादिको से युक्त होते हैं वे भी जैसे होते हैं वैसे ही बने रहते हैं इसी तरह हे आयुष्मन्त श्रमणों! जो हमारा निर्ग्रन्थ साधुजन एवं निर्ग्रन्थ साध्वी जन दीक्षित होता हुआ भी चतुर्विध संघ के और मिलायमाणा चिट्ठति, अप्पेगइया जाव उसोभेमाणा चिट्ठति, एवामेव समणाउसो ! जाव पब्बइए समाणे बहूणं समाणाणं ४ बहूणं अन्नउत्थियगिहत्थाणं नो सम्मं सहइ एस णं मए पुरिसे सब विराहिए पण्णत्ते)
હે આયુષ્મત શ્રમણે! જ્યારે દ્વીપના પૂર્વ દિશાના આછા પવને, પશ્ચિમ દિશાના પવને ધીમે ધીમે વહેતા પવને, અને પ્રચંડ વેગથી ફૂંકાતા પવને વહેતા નથી અને સમુદ્ર પર થઈને વહેતા પૂર્વદિશાના આછા પવને, ધીમે ધીમે વહે. નારા પવને, અને પ્રચંડ વેગે ફૂંકાતા પવને વહેતા નથી ત્યારે પણ છે, શીર્ણ દાવદ્રવ વૃક્ષે તે પ્લાન (કરમાયેલાં) રહે છે અને પત્રપુષ્પ વગેરેથી સંપન્ન દાવદ્રવ વૃક્ષે પણ જેવાં છે તેવાં જ રહે છે, આ પ્રમાણે હે આયુષ્મત શ્રમણ ! જે અમારા નિગ્રંથ સાધુઓ અને નિગ્રંથ સાધ્વીએ દીક્ષિત થઈને
For Private And Personal Use Only
Page #733
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नंगारधर्मामृतवर्षिणा टीका २०११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपणम् ६७७
सम्यक् सहते एष खलु = एवम्भूतः पुरुष ' मए' मया सर्वाधिकः प्रज्ञप्तः, एवं खलु =अनेन प्रकारेण हे गौतम! जीवा आराधका वा विराधका भवन्ति । सुधर्मा
अन्यतीर्थिक गृहस्थों के वचनों को अच्छी तरह सहन आदि नहीं करता है ऐसा यह साध्वादिजन मेरे द्वारा सर्व विराधक प्रज्ञप्त किया गया है । (समणा उसो जयाणं दीविच्चगावि सामुद्दगावि ईसि पुरे वाया पंच्छा वाया जाव वायंति, तया णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, एवामेव समणा उसो ! जो अम्हं जाव पव्वतिए समाणे बहूणं समणाणं ४ बहूणं अन्नउत्थिय गिरथाणं सम्म सहइ एसणं मए पुरिसे सव्वाराह पणन्ते । एवं खलु गोयमा ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति एवं खलु जंबू ! समणेगं भगवया महाघीरे णं एक्कारसम्स्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्तिमि ) हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जिस समय द्वीपोत्थ भी तथा समुद्रोत्थ भी ईषत्पुरोवात पश्चादात यावत् वहते हैं उस समय पुष्पित पत्रित आदि समस्त दाब द्रव वृक्ष शोभा संपन्न ही बने रहते हैं। इसी तरह हे आयुष्मंत श्रमणो ! जो हमारा साधु साध्वीजन दीक्षित होता हुआ अनेक श्रमणादिकों के चतुर्विध संघ के - तथा अन्यतीर्थिक गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को अच्छी तरह सहन कर लेता है ऐसा साधु आदि जन मेरे द्वारा सर्वाराधक
પશુ ચતુર્વિધ સંઘના અને બીજા તીથિંક ગૃહસ્થેના વચનેને સારી પેઠે સહન કરી લે છે. એવા સાધુ વગેરે જના મારા વડેસ-વિરાધક તરીકે પ્રજ્ઞમ કરવામાં આવ્યા છે.
( समणाउसो ! जयागं दीविचगात्रि सामुदाईिसि पुरे वाया पच्छावाया जाव वायंति, तया णं सव्वे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिह्नति, एवामैत्र समणासो ! जो अहं जान पव्त्रत्तिए समाणे बहूणं समगा ४ बहूणं अन्नउत्थिय गहत्था सम्म सह एसणं मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते ! एवं खलु गोमा ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवति, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेण एक्कारसमस्स अञ्झयणस्स अयम पण्णत्ते तिमि ) હું આયુષ્મંત શ્રમણા ! જ્યારે દ્વીપ અને સમુદ્ર ઉપરના પૂર્વ પશ્ચિમના ધીમા અને પ્રચંડ પવના ફૂંકાય છે ત્યારે પાંદડાં અને પુષ્પાવાળાં બધા દાવદ્રવ વૃક્ષો શે'ભા સ ́પન્ન થઈ ને જ ઊભા રહે છે. આ પ્રમાણે હું આયુષ્મંત શ્રમણે ! જે અમારા સાધુ અને સાધ્વીજન દીક્ષિત થઇને ઘણા શ્રમણા વગેરૈના, ચતુર્વિધ સંઘના તેમજ બીજા તીથિંક ગૃહસ્થાના પ્રતિકૂળ વચના સાંભળીને
For Private And Personal Use Only
Page #734
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हाताधर्मकथागसूत्र स्वामी पाह-एवं खलुभूतिप्रकारेण हे जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यापिद्धिगति संप्राप्तेन एकादशस्य अयंपूर्वोक्तप्रकारः अर्थः-भावः प्रज्ञप्तः । 'त्तिबेमि' इति ब्रवीमि, इति पूर्ववत् ।। सू० १॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धबाघ करश्च दशभाषालितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक -श्रीशाहूच्छ. त्रपतिकोल्हापुरराजपदत्त-'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितायां ' ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव.
पिण्याख्यायां व्याख्यायां एकादशमध्ययनं समाप्त ॥११॥ रूप से प्रज्ञप्त हुआ है। इस प्रकार हे गौतम ! जीव आराधक और विराधक होते हैं । सुधर्मा स्वामी जंबू स्वामी से कहते है कि हे जंबू! इस पूर्वोक्त रूप से श्रमण भगवान महावीर ने जो कि सिद्धि गति को प्राप्त कर चुके हैं ग्यारहवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ऐसा मैंने तुम से जैसा सुना है वैसा यह कहा है । इस में निज की कुछ भी कल्पना नही है। सूत्र ॥ १ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलालजी महाराज कृत "ज्ञाता. धर्मकथाङ्गमत्र" की अनगार धर्मामृतवर्षिणी व्याख्या का ग्यारहवां
अध्ययन समाप्त ॥ ११ ॥
સારી પેઠે સહન કરી લે છે એવા સાધુ જન વગેરે મારા વડે સર્વાધિક રૂપે પ્રજ્ઞપ્ત થાય છે. આ પ્રમાણે હે ગૌતમ! છ આરાધકો અને વિરાધકે હોય છે. સુધર્મા પામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે હે જંબૂ! સિદ્ધિતિ પામેલા ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ અગિયારમા જ્ઞાતાધ્યયનને આ ઉપર મજબનો અર્થ પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે. મેં જે રીતે સાં મળ્યો છે તે જ રીતે આ અર્થ તમારી सा स्पष्ट ४य छे. सभा में भारी त२३५ ४४० मे नथी. ॥ सूत्र ""
જૈનાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાધ્યયન સૂત્રની અનગાર ધર્મા મૃતવર્ષિણી વ્યાખ્યાનું અગિયારમું અધ્યયન સમાપ્ત.
For Private And Personal Use Only
Page #735
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अथ द्वादशमध्ययनं प्रारभ्यतेगत मेकादशमध्ययनं, साप द्वादशनारभ्यते, पूर्वस्मिन्नध्ययने चारित्रस्याराधकत्वं तद् विराधकत्वं च प्रोक्तम् इह तु उदकदृष्टान्तेन मलोमसपरिणामपरिणमितान्तः करणानामपि भव्यानां सुगुरुपरिकर्म तत्राविराधकत्वं भवतीति प्रदश्यते. अत्रेदमादिसूत्रम्-'जइणं भंते' इत्यादि । __मूलम् -जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं एकारसमस्स नायज्झयणस्स अयम० बारसमस णं नायज्झयणस्स के अहे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं२ चंपा नाम नयरी पुण्णभद्दे चेइए जितसत्त राया धारिणीदेवी, अदीण
धारहवां अध्ययन प्रारंभ"
जितशत्रु राजा सुबुद्धि प्रधान का वर्णन ग्यारहवां अध्ययन समाप्त हो चुका अब बारहवां अध्ययन प्रारंभ होता है। इसका पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से संबन्ध है-पूर्व अध्ययन में जो जीव चारित्र का पालन करता है वह आराधक और जो इससे विपरीत भाव वाला होता है वह विराधक है यह प्रकट किया गया है। अब इस अध्ययन में उदक के दृष्टान्त से यह प्रकट किया जायगा कि जिन भव्य जीवों का अन्तः करण मलीन परिणामों से परिणत हो रहा है-परन्तु उनमें यदि सुगुरु परिकर्मता-गुण विशेष का ग्रहण करना है तो उससे वहाँ चारित्राराधकता आ जाती है 'जहणं भंते !' इत्यादि ।
જીતશત્રુ રાજા અને સુબુદ્ધિ પ્રધાનનું બારમું અધ્યયન. અગિયારમું અધ્યયન સમાપ્ત થઈ ચૂક્યું છે અને હવે બારમું અધ્યયન પ્રારંભ થાય છે. આને પહેલાં અધ્યયનની સાથે આ પ્રમાણે સબંધ છે કે પહેલાંના અધ્યયનમાં જે જીવ ચારિત્રનું પાલન કરે છે તે આરાધક અને જે એના વિપરીત ભાવવાળે હોય છે તે વિરાધક છે એ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. આ અધ્યયનમાં ઉદકના દૃષ્ટાંતથી આ વાતનું સ્પષ્ટીક ણ થશે કે જે ભવ્ય જીવોનું અન્તઃકરણ (અંતર) ખરાબ પરિણામેથી પરિણત થઈ રહ્યું છે, પણ તેમનામાં જે સુગુરુ પરિકમેતા ગુણ વિશેષનું ગ્રહણ કરવું છે તે ત્યાં ચારિત્રાराहता मावी जय छे. ज इणं भंडे इत्यादि
For Private And Personal Use Only
Page #736
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૩૦
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
सत्तू नामं कुमारं जुबराया यावि होत्था, सुबुद्धो अमच्चे जाव रज्जधुराचितए समणोवासए, तीसेणं चंपाए जयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमेणं एगे परिहोदर यावि होत्था, मेयवसामंसरुहिरपूयपडलपोच्चडे मयगकलेवरसंछण्णे अमणुण्णे वर्णणं जाव फासेणं, से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव मयकुहियविव किमिणवावण्णदुरभिगंधे किमिजालाउले संसत्ते असुइविगयबीभत्थदरिसणिज्जे, भवेयारूवे सिया ?, इसम एतो अणिट्टतराए चेव फासेणं पण्णत्ते ॥ सू० १ ॥
टीका - जम्बूस्वामीप्राह- यदि खलु भदन्त ! हे भगवन् ! श्रमणेन यावत्सप्राप्तेन एकादशस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थः पूर्वोक्को भात्रः प्रज्ञप्तः द्वादमस्य खलु ज्ञाताध्ययनस्य कोऽर्थः प्रतप्तः ? श्रो सुत्रर्मास्वामी कथयति - एवं खलु हे जम्बू। ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी, पूर्ण मद्रं चैत्यं, जितशत्रू राजा,
जंबू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते है कि ( जड़ णं भंते! समणेणं जाव संपत्ते णं एक्कारसमस्स नापज्झयणस्स अयम० बारस मस्स णं णायज्झणस्त्र के अड्डे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ? ) हे भदंन ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने कि जो सिद्धि गति नानक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं ग्यारहवें ज्ञानाध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से भाव अर्थ निरूपित किया है तो कहिये उन्हों ने बारहवें ज्ञाताध्ययनका क्या अर्थ
-
टीडार्थ —જમ્મૂ સ્વામી શ્રીસુધર્મા સ્વામીને પ્રશ્ન કર છે કે
( जइणं भंते ! समणेण जाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स नायज्झयणस्स अयम० बारसमस्त णं णायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! )
હું ભટ્ટ'ત ! સિદ્ધગતિ પામેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે અગિયારમાં જ્ઞાતાધ્યયનના આ પૂર્વોક્ત રૂપે ભાવ-અથ નિરુપિત કર્યાં છે તે તેએશ્રીએ બારમા અધ્યયનને શે। ભાવ અ નિરુપિત કર્યાં છે હે જમ્મૂ સાંભળે તે શ્રીએ બારમા અધ્યયનના જે રીતે અ સ્પષ્ટ કર્યાં છે તે આ પ્રમાણે છે
For Private And Personal Use Only
Page #737
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मलमारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१२ खातोदकविषयेसुबुद्धिद्रष्टान्तः ६८५ धारिणीदेवी, अदीनशत्रुर्नाम कुमारः जितशत्रुराजपुत्रः 'जुवराया' युवराजः= युवराजत्वेऽभिषिक्तश्चाप्यासीत् । सुबुद्धिर्नामाऽमात्यः औत्पातिक्यादिबुद्धि चतुष्टययुक्तः यावद् ‘रज्जधुराचिंतए' राज्यधुराचिन्तकाराज्यभारचिन्तकः 'समणोवासए ' श्रमणोपासकः श्रावकोऽभिगतजीवाजोवासोत् । तस्याश्चम्पाया नगर्या बहिरुत्तरपौरस्त्ये एक परिहोदए ' परिखोदकं परिखा-दुर्गस्य चतुर्दिक्षु रिपुप्र. भृतीनां प्रवेष्टुमशक्या गर्तरूपावेष्टनाकारभूमिः, तन्न सम्भृतमुदकं परिखोदकं ' खाईजल ' इतिभाषापसिद्धं चाप्यासीत् । तत्कीदृशम् ? इत्याह-' मेयवसा' प्ररूपित किया है ? । हे जंबू ! सुनो-जो उन्होने १२वें अध्ययनका अर्थ निरूपित किया है वह इस प्रकार है- ( तेणं कालेणं तेणं संमएणं चंपा नाम नयरी पुण्णभद्दे चेहए जियसत्तू राया धारिणी देवी, अदीणसत्तू नाम कुमारे जुवराया यावि होत्था ) उस काल और उस समय में चंपा नाम की नगरी थी। उसमें पूर्णभद्र नाम का उद्यान था। उस नगरी के राजा का नाम जितशत्रु था। इस की धारिणी देवी नाम की रानी थी। अदीन शत्रु नाम का इस का पुत्र था। यह युवराज था। (सुबुद्धी अमच्चे जाव रज्जधुराचितए समणोवासए ) सुबुद्धि नाम का इस का अमात्य था। यह औत्पत्तिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि से संपन्न था । यावत् यही राज्य भार का चिन्तक था । जीव अजीव आदि तत्वों का यह ज्ञाता था और श्रमणोपासक था। (तीसे गं चपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमेणं एगे परिहोदए यावि होत्था) उस चंपा नगरी के बाहर उत्तरपौरस्त्यदिग्भाग में-ईशानकोण में-परि. खोदक-खाईमें जल भरा था । दुर्ग (किल्ला)के चारों और बाहरकी तरफ
(तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी पुण्णभद्दे चेहए जियसत्तू राया धारिणी देवी अदीणसत्तू नाम कुमारे जुवराया यावि होत्था )
તે કાળે અને તે સમયે ચંપા નામે નગરી હતી તેમાં પૂર્ણભદ્ર નામે - ઉદ્યાન હતું. તે નગરીના રાજાનું નામ જીતશત્રુ હતું. ધારિણીદેવી નામે તેની
पत्नी ती. तेना पुत्रनुं नाम महीनशत्रु तु. मने ते युवरा तो. (सुबुद्धि अमच्चे जाव रज्जधुग चिंतए समणोवासए ) सुमुद्धि नाभे तेनी अमात्य (મંત્રી) હતું તે ઔપિત્તિકી વગેરે ચારે પ્રકારની બુદ્ધિ સંપન્ન હતું અને રાજ્યનું શાસન તેના હાથમાં જ હતું. જીવ અજીવ વગેરે તનું તેને જ્ઞાન હતું અને તે શ્રમણોપાસક હતો (तीसेणं चंगाए णयरीए बहिया उत्तरपुरछिमेणं एगे परिहोदए यावि होत्या)
ચંપા ગરીની બહાર ઉત્તર પરિત્ય દિશામાં-ઇશાન કોણમાં-પરિખેદક ખાઈમાં પાણી ભર્યું હતું. દુર્ગની ચોમેર બહારની બાજુએ કેટની પાસે
For Private And Personal Use Only
Page #738
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૮૨
,
,
4
"
इत्यादि, 'मेयसामंरुरिपूपडल पोच्चडं' मेदोवसामांसरुधिरप्रयपटलपो चढं ' मेदः शरीरस्थधातुविशेषः, वसा=अस्थिगतस्निग्वधातुविशेषः, 'चर्बी ' इति प्रसिद्धः मांस-मसिद्ध रुधिरं = शोणितं, पूयं =विकृतरूधिरम् तेषां पटलेन = समू हेन पोच्चड मिश्रितं सबुदबुदमित्यर्थः । ' मयगकलेवरसंछण्णे' मृतककलेबर संभ= श्वमार्जारादिमृत कलेवरसंभृतम्' अणुष्णं' अमनोज्ञम् अरुचिकरं वर्णेन जाव' यावत्- गन्धेन रसेन स्पर्शेन च मनोविकृतिजनकमित्यर्थः । तदेव सदृष्टान्तं प्रश्नोत्तरेण वर्णयति' से जहानामए' तद् यथा नामकम् - यथा दृष्टान्तम्-यथा' अहिमडेवा ' अहिमृतकमिति वा सर्पमृतकम् 'गोमडेड़ वा ' गोमृतकमिति वा ' जाव' यावत् एवं यावच्छब्देन श्वमृतकं, मारिमृतकं, मनुष्यमृतकं, महिषउस से लगा हुआ एक गोलाकार बड़ी भारी खाई थी। इस की वजह से शत्रु उस दुर्ग - किल्ले में सहसा एका एक प्रविष्ट नहीं हो सकते । इस में पानी भरा रहता है। इस का नाम खातिकोदक भी है। ( मेयवसामंसहिर पूरा पडल-पोच्चडे मयगकलेवर मंछन्ने अमणुन्ने वण्णेणं जाव फासेण से जहा नामए अहिमडेइ वा गोमडेइ वा जाव मयकुहियविणटुकमिणवावण्ण दुरभिगंधे, क्रिमिजालाउले संसत्ते असुहविगय बीभत्सद रिसणिज्जे भवेयारूवे सिया ? णोहण समट्ठे एतो अणिट्ठत्तराए चेव जाव फासेणं पण्णत्ते यह परिखा का पानी, मेदावसा - चर्बी मांस, रुधिर, पूय-पीप, के समूहसे मिश्रित था । कुत्ते, माजर आदि के मृत शरीरों से युक्त था ! अरुचिकारक था गन्ध, रस एव स्पर्श से यह मनो विकृति जनक बना ) हुआ था। इसी बात को दृष्टान्त द्वारा प्रकट किया जाता है-जिस प्रकार मर जाने के बाद श्वमृतक मरे हुए कुसे का कलेवर बिल्ली का
हाताधर्मकथासू
ગાળાકારે એક માટી ખાઈ હતી. તેથી શત્રુ એકાએક સરળતાથી દુગ માં પ્રવે શવાની હિંમત કરી શકતા નહેાતા, તેમાં પાણી ભરેલું હતું આનું બીજું નામ 'जाति' पशु छे.
,
(मेयवसा मंसरुहिरपूय पडलपोच्चडे भयगकलेवर संछन्ने अमणुन्ने वण्णेणं जाव फासे से जहानामए अहिमडेइ वा गोमडेर वा जाव मय कुहिय विगह किमिणवावष्णदुरभिगंधे, किमिजालाउले संसते अमुविगयबीभत्सद रिसणिज्जे भवेयारूये सिया ? णो इणट्ठे समट्ठे, एतो अणिदूत्तराए चेत्र जाव फासेणं पण्णत्ते )
For Private And Personal Use Only
मा परिमा-मानु पाणी पुष् प्रभाशुभ भेहा, वसा, यरणी, मांस, રુધિર, લેાહી, પૂય,-પરુથી મિશ્રીત હતું. કૂતરા, બિલાડા વગેરેના મરી ગયેલા શખાથી તે યુક્ત હતું. તે અરુચિકારક હતું અને ગ ંધ, રસ તથા સ્પર્શથી મનોવિકૃતિજનક હતું. એ જ વાત દૃષ્ટાંત વડે અહીં રજુ કરવામાં આવે છે. જેમ મરી ગયા પછી ચમૃતક મરી ગયેલા કૂતરાનું ક્લેવર (શરીર) બિલાડીનુ કલેવર,
Page #739
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतषिणी १० अ० १२ खातोदकविषये सुधुद्धिरशान्तः ८३ मृतकं, मूषकमृतकम् , अश्वमृतकं, हस्तिमृतकं, सिंहमृतकं, व्याघ्रमृतकं, वृकमृतकंवृकः 'भेडिया ' इति प्रसिद्धः-श्वापदविशेषस्तस्य मृतकलेवरम् , द्वीपिकमृतकदीपिका-चित्रकः 'चीता' इतिप्रसिद्धः श्वापदविशेषस्तस्य मृतशरीरम्, इति संग्रामम् , कीटशावस्थापन्न तदहिमृतादिकम् ? इत्याह--'मयकुहियविणट्ठ किमिणवावण्णदुरभिगंधे ' मृतकुथितविनिष्टकृमिमद् ब्यापनदुरभिगन्धम् पतं= जीवविषमुक्तमात्रमेव कथितं शटितं, विनष्टं स्वाकारतो नष्टं वायुजलभरणेन इतिवत्स्थूलतामुपगतमित्यर्थः, कृमिवत्-विरकालिकत्वात्कृमिसकुलम् , अतएव व्यापन सर्वदिक प्रस्तं दुरभिगन्धम् अतिशयदुर्गन्धयुक्तम् । 'किमिजालाउले' कमिजालाकलेवर, मनुष्य का कलेवर महिष भैसे का कलेवर, चुहा का कलेवर, घोड़े का कलेवर, हाथी का कलेवर, सिंह का कलेवर, व्याघ्र का कलेवर, वृक का कलेवर, दीपिक को कलेवर कुधित, विनष्ट, कृमिमत, व्यापन एवं दुरभिगंध युक्त कृमिजालाकुल-कीड़ों से व्याप्त तन्मय, अशुचि, विकृत एवं बीभत्स, दृश्य रूप हो जाते हैं-सो इन सब से भी अधिक अनिष्टतर-अत्यंत घृणा जनक-वह खाई का जल था। मरने के बाद शरीर जो सड़ने लग जाता है इस का नाम कुथित है । वायु और जल के भर जाने से जिम प्रकार मशक फूल जाती है उसी प्रकार जीव रहित होने के बाद जो शरीर फूल जोता है इस का नाम निष्ट है। इस स्थिति में वह पदार्थ अपने पूर्वाकार से भिन्न कार वाला हो जाता है । जो शरीर बहुत दिनों तक जीव रहित पड़ा रहता है इस में सड़ जाने की वजह से कीड़े पड़ जाते हैं-इस का नाम कृनिमत् है । जिस में से માણસનું કલેવર, પાડાનું કલેવર, ઉંદરનું કલેવર, ઘેડાનું કલેવર, હાથીનું કલેવર, સિંહનું કલેવર, વાઘનું કલેવર, વરુનું કલેવર અને દીપડાનું કલેવર, કુથિત, વિનષ્ટ, કીડાઓવાળું, વ્યાપન્ન અને દુરભિ-ગંધયુક્ત કૃમિએથી આક્રાંત કીડાઓથી વ્યાપ્ત-તન્મય, અશુચિ વિકૃત અને બીભત્સ દૃશ્યવાળું થઈ જાય છે તેમ એના કરતાં પણ વધુ અનિષ્ટતર અત્યંત ઘણાજનક તે ખાઇનું પાણી હતું. મરણ પછી શરીર સડવા માંડે છે તેને “કુથિત” કહે છે. જેમ પવન અને પાણીથી ભરાએલી મશક ફૂલીને મટી થઈ જાય છે તેમજ નિર્જીવ થયેલું શરીર પણ કુલાઈને મેટું થઈ જાય છે તેનું નામ “વિનટ” છે. પદાર્થની જ્યારે આવી સ્થિતિ થાય છે ત્યારે તે પહેલાંના આકાર પ્રકારથી સાવ ભિન્ન આકાર વાળ થઈ જાય છે. શરીર બહુ દિવસે નિર્જીવ થઈને મડદાનાં રૂપમાં પડી રહે છે ત્યારે તે સડી જવાથી તેમાં કીડાઓ પડી જાય છે, અને કૃમિહત્ કહે છે.
For Private And Personal Use Only
Page #740
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
शाताधर्मकथाङ्गी कुलं = कृमिपुञ्जयुक्तं यत्र तत्रावयवे पुञीभूतकृमिव्याप्तम् , आएव 'संसत्तं' संसक्त तन्मयमित्यर्थः, 'अमुइ विगयवीभत्थदरिसणिज्ज' अशुचिविकृतबीभत्सदर्शनीयम् अशुचि-अस्पृश्यत्वादपवित्र, विकृतं-विकारयुक्त, बीभत्सं-धृणित दर्शनीयं दृश्यं यस्य तत्तथोक्तम् ‘एयारूवेसिया' एतद्रूपं स्यात्-किम् अहिमृतादि. सदृशं स्यात्-अस्ति ?, इति प्रश्नो भवेत् भगवानाह-'नो इणटे सम? ' नायमर्थः समर्थः-नैतादृशं किन्तु-' एत्तो' एतस्मादपि अणिट्ठतराए चेव ' अनिष्टतरमेव अत्यन्तघृणाजनकं यावत् स्पर्शेन प्रज्ञप्तम् ॥ सू० १॥
___ मूलम्-तएणं से जियसत्त राया अण्णया कयाई पहाए कायबलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं राईसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए विपुलं असणं ४ जाव विहरति, जिमियभुत्तुत्तरागए आयंते चोक्खे परमसुइभूये तंसि विपुलंसि असण ४ जाव जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव पभिइए एवं वयासीअहो णं देवाणुप्पिया! इमे मणुण्णे असणं४ वण्णणं उववेए जाव फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीयणिजे दीवणिजे दप्पणिज्जे मयणिजे बिहणिजे सबिदियगायपल्हायणिज्जे, तएणं ते बहवे ईसर जाव पभिइओ जियसत्तू एवं वयासी-तहेव णं सामी ! जणं तुब्भे वयइ अहो णं इमे मणुण्णे असणं४ वण्णेणं उववेए जाव पल्हाणिजे, तएणं चारों ओर दुर्गंध फैल रही हो उस का नाम दुरभिगंध है । सड जाने के घाद जिस के अंग उपांग सब तरफ विखरे हुए पड़े हों उस का नाम व्यापन्न हैं । यहांमृतक शब्द से जीव रहित शरीर लिया गया है। सूत्र ॥१॥ જેમાંથી મેર દુર્ગધ પ્રસરી રહે છે તેને “દુરભિગધ” કહે છે. મડદું સડી જાય છે અને તેનાં બધાં અંગ ઉપાંગે ચોમેર વિખેરાઈ જાય તેને ધ્યાપન્ન
छ. मी भृत: ४थी नि शरी२ समja. ॥ सूत्र “१”।
For Private And Personal Use Only
Page #741
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ११ स्नातोक्कविषये सुषुछिद्रष्टान्नः ३५ जितसत्त सुबुद्धिअमचं एवं वयासी-जहा णं सुबुद्धी ! इमे मणुण्णे असणं४ जाव पल्हायणिज्जे, तएणं सुबुद्धी जितसत स्सेयमद्रं नो आढाइ जाव तुसिणीए संचिटइ, तएणं जियसत्त सुबुद्धि दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी-अहो णं सुबुद्धी! इमे मणुन्ने तं चैवजाव पल्हायणिज्जे, तएणं से सुबुद्धी अमच्चे जितसत्तणा दोच्चंपि तच्चपि एवंवुत्ते समाणे जितसत्तुं रायं एवं वयासी-नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि मणुण्णंसि असणं ४ केइ विम्हए, एवं खलु सामी ! सुन्भिसदावि पुग्गला दुन्भि सदत्ताए परिणमंति दुन्भिसद्दावि पोग्गला सुब्भिसदत्ताए परिणमंति, सुरूवावि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति दुरूवावि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति सुब्भिगंधावि पोग्गला दुब्भिगंधत्ताए परिणमंति दुन्भिगंधावि पोग्गला सुब्भिगंधत्ताए परिणमंति सुरसावि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमंति दुरसावि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति सुहफासावि पोग्गला दुहफासत्ताए परिणमंति दुहफासावि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमंति पओगवीससापरिणयावि य णं सामी ! पोग्गला पण्णत्ता, तएणं से जितसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स४ एयमढें नो अढाइ नो परियाणई तुसिणीए संचिट्टइ, तएणं से जियसत्तू अण्णया कयाई हाए आसखंधवरगए महया भडचरगर आसवाहणियाए निजायमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदूरसामतेणं वीइवयइ । तएणं जितसत्तू तस्स फरिहोदगस्स असुभेणं
For Private And Personal Use Only
Page #742
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६८६
ताधर्मकथासू
गंधेणं अभिभूप समाणे सएणं उत्तरिजगेणं आसगं पिछेह एगंसं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता ते वहवे ईसर जाव पभिइओ एवं वयासी- अहो णं देवाणुप्पिया इमे फरिहोदय ! अमणुष्णे बणेण ४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए: व तणं ते बहवे राईसरपभिइओ जाव एवं वयासी - तहेव णं तं सामी ! जं णं तुब्भे एवं वयह, अहो णं इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं ४ से जहा णामए अहिमडेइवा जाव अमणामतराए चेव, तरणं ते बहवे राईसर पभिइओ जाव एवं वयासी - तहेव णं तं सामी ! जं णं तुब्भे एवं वयह, अहो णं इमे फरिहोद अमणुपणे बण्णेणं४ से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चेव, तएणं से जियसत्तू सुबुद्धिं अमचं एवं वयासी - अहो णं सुबुद्धि ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वणेणं, से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए, चे, तणं सुबुद्धी अमच्चे जाव तुसिणीए संचिवइ, तरणं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी -- अहो णं तं चेव, तणं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तूणा रन्ना दोपि तच्चपि एवं वृत्ते समाणे एवं वयासी - नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केइ विम्हए, एवं खलु सामी ! सुब्भिसदावि पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, तं व जाव पओगवीससापरिणयावि य णं सामी ! पोग्गला पण्णत्ता, तरणं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी मा णं तुमं
For Private And Personal Use Only
Page #743
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नगरीका २०१२ बातकविषये
६८७
दिशः देवाणुप्पिया ! अप्पाणं च परं च तदुभयं वा बहूहिं य असभावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेण य वुग्गाहेमाणे तुप्पाएमाणे विहराहि, तरणं सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए- अहो णं जियसत्तू संते तच्चे ताहिए अवितहे सब्भूए जिणपण्णत्ते भावे णो उवलभति, तं सेयं खलु मम जियसत्तस्स रण्णो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सन्भूताणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्टयाए एयमहं उवाइणावेत्तए, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता पच्चतिएहिं पुरिसेहिं सद्धिं अंतरावणाओ नवए घडएय गेues, गेण्हित्ता संझाकालसमयंसि पविरलमणुस्संसि णिसंतपडिनिसंतंसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं फरिहोदगं गेण्हावेइ गेण्हावित्ता नवएसु घडएसु गालावेइ गालावित्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ पक्खिवा - वित्ता लंछियमुद्दिते करावेइ करावित्ता सत्तरतं परिवसावेइ दोपि नवसु घडएसु, गालवेइ गालवित्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ पक्खिवावित्ता सज्जक्खारं पक्खिवावेइ लंछियमुद्दिते करावे करावित्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ तच्चंपि
वसु घडएसु जाव संवसावेई एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गलामाणे अंतरा पक्खिवावमाणे अंतराय विपरिवसावेमाणे २ सत्तर राईदिया विपरिवसावेइ, तपणं से फरिहोदए सत्तमसत्तयंसि परिणममाणंसि उद्गरयणे जाए यावि होत्था अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे वण्णेणं उववेष
For Private And Personal Use Only
Page #744
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मालामाल ४ आसायणिज्जे जाव सबिंदियगायपल्हायणिज्जे, सणं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवा०२ करयलसि आसादेइ आसादित्ता तं उदगरयणं वण्णेणं उववेयं४ आसायणिज्जे जाव सबिदियगायपल्हायणिइजं जाणित्ता हतुटे बहहिं उदगसंभारणिजेहि संभारेइ संभारित्ता जितसत्तूस्स रणो पाणियपरियं सदावेइ महावित्ता एवं वयासी तुमं च णं देवाणुप्पिया ! इमं उदगरयणं गेण्हाहि२ जियसत्तस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेज्जासि, तएणं से पाणियरिय सुबुद्धियस्स एयमटुं पडिसुणेइ पडिसुणित्तातं उदगरयणं गिण्हाइ गिण्हित्ता जियसत्तूस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवेइ, तएणं से जियसत्तू. राया तं विपुलं असण४ आसाएमाणे जाव विहरइ, जिमियभुत्तत्तरागए यावि य णं जाव परमसुइभूए तंसि उदगरयणे जायविम्हए ते बहवे राईसर जाव एवं वयापी-अहो णं देवा. णुप्पिया ! इमे उदगरयणे अच्छे जाव सबिंदियगायपल्हायणिजे तएणं बहवे राईसर जाव एवं वयासो-तहेव णं सामी ! जण्णं तुब्भे वदह जाव एवं चेव पल्हाणिज्जे, तएणं जिय. सत्त राया पाणियपरियं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-एस णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! उदगरयणे कओ आसादिते ?, तएणं से पाणियघरिए जियसत्तं एवं वयासी-एस णं सामी ! मए उदगरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसाइए तएणं जियसत्तू सुबुद्धिं अमच्चं सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी-अहोणं सुबुद्धी केणं कारणेणं अहं तव अणिट्रे५ जेणं तुमं मम कल्लाकल्लि
For Private And Personal Use Only
Page #745
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृप्रान्तः
६८९
भोयणवेलाए इमं उद्गरयणं न उबटूवेसि ? तं एसणं तुमे देवाप्पिया ! उदगरयणं कओ उवलद्धे ?, तएणं सुबुद्धी जियसत्तं एवं वयासी -- एसणं सामी ! से फरिहोदए, तरणं से जियसत्तू सुबुद्धि एवं वयासी--कणं कारणेणं सुबुद्धी ! एस से फरिहादए?, तरणं सुबुद्धी जियसत्तू एवं वयासी एवं खलु सामी ! तुम्हे तया मम एवमाइक्खमाणस्स४ एयमटुं नो सद्दहह तरणं मम इमेयावं अज्झत्थिए समुप्पजित्था, अहोणं जियसत्त संते जाव भावे नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ तं सेयं खलु ममं जियसत्तस्स रन्नो संताणं जाव सब्भूयाणं जिणपन्नत्ताणं भावाणं अभिगमणट्टयाए एयमहं उवाइणावेत्तए, एवं संपे हेमि तं चैव जाव पाणियघरियं सहावेमि सद्दावित्ता एवं वयासी- तुमं णं देवाणुप्पिया ! उदगरयणं जियसत्तस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेहि, तं एएणं कारणेणं सामी ! एस से फरिहोदए । रुएणं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स४ एयमटुं नो सदहइ ३ असद्दहमाणे३ अभितरइणिज्जे पुरिसे सहावेइ २ एवं वयासी- गच्छणं तुब्भे देवाणपिया ! अंतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हह जाव उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेह तेऽवि तहेव संभारेंति संभारित्ता जियसत्तस्स उवर्णेति, उवणित्ता तरणं जियसत्तू राया तं उद्गरयणं करयलंसि आसाएइ आसायणिज्जं जाव सव्विंदियगायपल्हाणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं
था ८७
For Private And Personal Use Only
Page #746
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६९०
ज्ञाताधर्मकथासूत्र
वयासी सुबुद्धी ! एएणं तुमं संता जाव सब्भूया भावा कओ उवलद्धा?, तणं सुबुद्धी जियसत्तू एवं वयासी- एएणं सामी ! मए संता जाव सम्भूया भावा जिणवयणाओ उवलद्धा, तरणं जियसत्तू सुबुद्धि एवं वयासी- तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तव अंतिए जिणवयणं निसांमेत्तए, तरणं सुबुद्धी जियसत्तूस्स विचित्तं केवलिपन्नत्तं चाउामं धम्मं परिकहेइ, तमाइक्खइ जहा जीवा बज्झति जाव पंच अणुव्वयाई, तएणं जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ठ० सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी - सदहामि णं देवाशुप्पिया ! निग्गंथं पाववणं३ जाव से जहेव जं तुब्भे वयह, तं इच्छामिं णं तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं जाव उव संपज्जित्ताणं विहरितए, अहासुहं देवाशुप्पिया ! मा पडिबंधं० तरणं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव दुवालसंविहं सावयधम्मं पडिवज्जइ, तरणं जियसत्तू समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिला भेमाणे विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं जियसत्तू राया सुबुद्धीय निग्गच्छइ, सुबुद्धी धम्मं सोच्चा जं नवरं जियसत्तू आपुच्छामि जाव पव्वयामि, अहासुहं देवाणुप्पिया! तएण सुबुद्धी जेणेव जियसनू तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी - एवं खलु सामी ! मए थेराणं अंतिए धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तएणं अहं सामी संसारभउविग्गे भीए जाव इच्छामिणं तुब्भेहि अन्भणुन्नाए स० जाव पव्वइत्तए, तपणं जियस सुबुद्धिं एवं वयासी- अच्छासु ताव देवाणु
1
For Private And Personal Use Only
Page #747
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६९१
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१२ खातोदकविषये सुबुद्धिद्रष्टान्तः प्पिया ! कइवयाइति वासाई उरालाई जात्र भुंजमाणा तओ पच्छा एगयओ अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वइस्सामो, तरणं सुबुद्धी जियस स एयमठ्ठे पडिसुणेइ, तएणं तस्स जियसत्तूस्स सुबुद्धीणा सद्धिं विपुलाई माणुस्स० पच्चणुब्भवमाणस्स दुवालसवासाई वीइकंताई. तेणं कालेणं२ थेरागमणं तरणं जियसत्तू धम्मं सोच्चा एवं जं नवरं देवाणुप्पिया ! सुबुद्धि आमंतेमि, अहासुहं, तरणं जियसत्तू जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुबुद्धिं सहावे सद्दावित्ता एवं व्यासीएवं खलु देवाणुपिया ! मए थेराणं जाव पव्वज्जामि, तुमं णं किं करेसि ?, तरणं सुबुद्धी जियसतं एवं वयासी - जाव के अन्ने आहारे वा जाव पव्वयामि तं जइणं देवाणुपिया जाव पव्वयहि तं गच्छ णं देवाणुप्पिया ! जेहपुत्तं च कुडुंबे ठावेहि ठावित्ता सीयं दुरुहित्ताणं ममं अंतिए पाउब्भवइ, तएणं जियसच कोटुंबियपुरिसे सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! अदीणससुरस कुमारस्स रायाभिसेयं उव
वेह जाव अभिसिंचंांत जाव पव्वइए । तएणं जियसत्तू एक्कारस अंगाई अहिजइ बहूणि वासाणि परियाओ मासियाए सिद्धे तणं सुबुद्धी एक्कारसअंगाई अहिजइ बहूणि वासाणि जाव सिद्धे । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं वारस - मस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते तिमि ॥ सू० ५ ॥ ॥ बारसमं नाअज्झयणं समत्तं ॥
टीका- 'तणं से' इत्यादि । ततः खलु स जितशत्रू राजा - चम्पाधिपतिः अन्यदा
For Private And Personal Use Only
Page #748
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१९२
शाताधर्मकथाङ्गसूत्र कदाचित्-एकदा स्नातः ' कयवलिकम्मे ' कृतबलिकर्मा-कृत वाय साद्यर्थमन्नादि विभागः यावद् अल्पमहाभिरणाकृतशरीरः बहुभिः राजेश्वर यावत् सार्यवाह प्रभृतिभिः सार्द्ध भोजनवेलायां भोजनमण्डपे सुखासनवरगतो विपुलम् अशनम् अन्नादिकं, पान-पानीयमपाणकादिकं, खाद्य द्राक्षावादामादिकं स्वाद्य =लवंग पूगीफलादिकं चतुर्विधमप्याहारमास्वादयन् 'जाव विहरइ ' यावत् विस्वादयन् , परिभोगयन् , परिभाज्यमानः, परिभुञ्जानो विहरति । ' निमियभुसुत्तरागए'
'तएणं से जियसत्तू राया ' इत्यादि । टीकार्थ-तएणं) इसके बाद (से जियसत्त पया) वे जितशत्रु राजा ( अन्नया कयाई ) किसी एक समय (हाए यबलिकम्मे जाय अप्प. महग्घा भरणालंकियसरीरे बहहिं राइसर जाव सत्यवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणवेलाए भोयण मंडसि सुहासणवरगए विउलं असणं४ जाव विहरइ) स्नान करके तथा बलिकर्म-वायस आदि के लिये अन्नादि का विभाग-देन करके अल्प भारवाले बहुमूल्य अलंकरोंको पहिने हुए भोजन करने के समय में भोजन शाला में सुन्दर आसन पर आकर बैठ गये। उस समय उनके साथ में और भी अनेक राजेश्वर आदि सार्थवाह पर्यन्त समस्त जन थे। वहां इन सबके साथ वे वहां आशनपान आदि चारों प्रकार का आहार करने लगे। अन्नादिक अशन पीने योग्य पदार्थ पान, द्राक्षा बादाम आदि खाद्य एवं लवंग सुपारी आदि स्वाद्य है।
'तएणं से जियसत्त राया' इत्यादि टी -(तएणं) त्या२५छ। (से जियसत्तू राया) ते शत्रु २० (अन्नया कयांई ) । मते
( हाए कयबलिकम्मे जाव अप्पमहग्धामरणालंकियसरीरे वहूहिं राइसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए विउलं असणं ४ जाब विहरह)
નાન કરીને તેમજ બલિકર્મ એટલે કે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને માટે અન્ન વગેરેને ભાગ અપીને વજનમાં હલકા પણ કિંમતમાં બહુ ભારે એવા અલંકાર ધારણ કરીને જમવાના સમયે રસોઈ ઘરમાં આવીને સુંદર આસન ઉપર બેસી ગયા. તે વખતે તેમની સાથે બીજા કેટલાક રાજેશ્વર અને સાથેવાહો વગેરે હતા. રાજા તેઓ બધાની સાથે બેસીને અશન પાન વગેરે ચાર જાતના આહાર જમવા લાગ્યા. અન્ન વગેરે અશન, પીવા યોગ્ય પદાર્થ પાન, દ્વાખ, બદામ વગેરે ખાદ્ય અને લવિંગ-સોપારી વગેરે સ્વાદ્ય છે.
For Private And Personal Use Only
Page #749
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
"
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१२ खातोदकविषये सुबुद्धि द्रष्टान्तः
६९३
1
"
जिमितभुक्तोत्तरागतः - जिमितः =भुक्तवान् भुक्तोत्तरं = भोजनानन्तरम् आगतः= उपवेशनस्थानं प्राप्तः किम्भूतः सन् ? इत्याह-' आयंते ' आचान्तः शुद्धोदकेन कृतचुलुकः, चोक्खे ' चोक्षः = सिक्थादिलेपरहितः, अतएव ' परमसुडभूए परमशुचिभूतः = परमशुद्धः तस्मिन् विपुलेशनपानखाद्यस्वाये यावद ' जायविम्हए ' जातविस्मयः = समुत्पन्नपरमाश्रर्यो जितशत्रू राजा तान् वहून् ईश्वर यावत् - प्रभृतीन् - ईश्वर - तलवर - माडम्बिक-कौटुम्बिक - श्रेष्ठि सेनापति सार्थवाह प्रभृतीन् एवमवदत् - अहो ! खलु हे देवानुप्रिया ! इदं ' मणुष्णे ' मनोज्ञं सर्वथा (जिमियभुतुन्तरागए आयंते चोक्खे परमसुहभूए तंसि विलंस असण ४ जाव जयविम्हए ते बहवे ईसर जाव पभिइए एवं वयासी ) जब अच्छी तरह भोजन हो चुका - वे सबके सब बैठक में आये। बैठक में आने के पहिले ये हाथ मुँह धोकर बिलकुल साफ हो चुके थे । अन्नादिकके सीत जो इनके हाथ पैरों में कहीं २ पड़ गये थे- उन्हें जल से इन्होंने साफ कर दिया था - धो दिया था। इस तरह परम शुचीभूत होकर राजाने उस विपुल आशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार में विस्मित आश्चर्ययुक्त बन कर उन ईश्वर, तलवर, माटुंबिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सेनापति एवं सार्थवाह आदिकों से इस प्रकार कहा(अहोणं देवाणुपिया ! इमे मणुण्णे असणं४वणेणं उबवेए जाव फासे ण उबवे अस्सायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीयणिज्जे, दीवणिज्जे, दप्पणिज्जे मणिज्जे, विहणिज्जे, सन्विदियगाय पल्हायणिज्जे) देवानु
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
"
( जिमियत गए आयंते चोक्खे परमगृहभूए तंसि विउलंसि असण४ जाव जायते बहवे ईसरजाव पभिइए एवं क्यासि )
For Private And Personal Use Only
જ્યાંરે તેએ સરસ રીતે તૃપ્ત થઈને જમી રહ્યા ત્યારે તેએ સર્વ એડકમાં આવ્યા એઠકમાં આવતાં પહેલાં તેએ હાથ માં ધાઈને સ્વચ્છ થઈ ચૂકયા હતા. અન્ન વગેરેના દાણા તેમના શરીર ઉપર જમતી વખતે પડી ગયા હતા તેઓને પાણીથી ધોઈને સાફ કર્યા. આ રીતે એકદમ પવિત્ર થઈને પુષ્કળ પ્રમાણમાં તૈયાર કરવામાં આવેલા અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્યરૂપ ચાર જાતના આહારોથી નવાઈ પામેલા રાજાએ ખીજા સાથે રહેલા ઈશ્વર, તલવર, માંડ લિક, કૌટુ બિક, શ્રેષ્ઠ, સેનાપતિ અને સાવાહ વગેરેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
( अहो णं देवाणुपिया ! इमे मणुष्णे असणं ४ वण्णेणं उववेए जाव फासेणं उबवे अस्सायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीय णिज्जे, दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे विहणिज्जे सर्विवदियगाय पल्हायणिज्जे)
Page #750
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे मनस्तृप्तिकरम् अशनं पानं खाद्यं स्वाधं वर्णेन-शुभवर्णेन उपपेतं यावत् स्पर्शेनोपपेतम् , ' आसायणिज्जे ' आस्वादनीयम् आस्वादनयोग्यम् , 'विस्सायणिज्जे' विस्वादनीयं-विशेषत आस्वादनयोग्यम् , ' पीणणिज्जे' प्रीणनीयं समस्तेन्द्रिय पीतिजनकम् , ' दीवणिजे ' दीपनीयं = जठराग्निदीपनकं शरीरसौन्दर्यजनकं वा, 'दप्पणिज्जे ' दर्पनीयं बलजनकम् , मयणिज्जे ' मदनीयं-कामोद्दीपकम् - बिहणिज्जे 'बृहणीयं-सकलधातूपचयजनकम् , सर्वेन्द्रियगात्रमहादनीयं-सकलेन्द्रियशरीरसुखजनकं वर्त्तते । ततः खलु ते बहवः ईश्वर यावत् सार्थवाहप्रभृतयो जितशत्रु प्रत्येवमवदन् 'तहेवं' तथैव तादृशमेव खलु हे स्वामिन् ! यत्खलु यूयं वदथ, अहो ! खलु इदं मनोज्ञमशन पानं खाद्यं स्वाद्यं चतुर्विधमप्याहारं वर्णेन उपपेतं प्रियो ! मनको तृप्ति करने वाला यह अशनादि रूप चतुर्विध आहार कितने अच्छे शुभवर्ण से युक्त था, कितने अच्छे शुभ स्पर्श से युक्त था कितना अच्छा आस्वादनीय एवं विशेषरूप से स्वादनीय था इसे खाकर समस्त इन्द्रियां तृप्त हो गई हैं। यह जठराग्नि का दीपक है, अ. थवा शारीरिक सौन्दर्य का जनक है। बलवर्धक है। कामोद्दीपक है। इसे खाने वाले की समस्त धातुएं उपचित हो जाती हैं। समस्त इन्द्रि. यों एवं शरीर को इसके खाने से आनन्द पहुँच रहा है । तात्पर्य यह चतुर्विध आहार बड़ा ही आश्चर्यकारक है (तएणं ते बहवे इसर जाव पभिइओ जियसत्तू एवं वयासी) और अधिक क्या कहूँ यह तो बहुत ही अधिक उत्तम था। राजा की इस प्रकार बात सुनकर उन ईश्वर आदि अनेक सार्थवाहोंने उन जितशत्रु राजा से इस प्रकार कहा (तहे व णं सामी ! जण्णं तुम्भे वदह-अहो णं इमे मणुण्णे असणं ४ वण्णेणं
હે દેવાનપ્રિયે ! મનને તૃપ્ત કરનારે આ અશન વગેરેને ચાર જાતને આહાર કેટલે શુભ વર્ણવાળે હતા, કેટલો બધો શુભસ્પર્શવાળ હતા, કેટલે સરસ આસ્વાદનીય અને સવિશેષરૂપથી સ્વાદનીય હતે. આ આહારને જમીને ઇન્દ્રિયે બધી તૃપ્ત થઈ ગઈ છે. આ જઠરાગ્નિનો ઉદ્દીપક છે તેમજ શારીરિક સૌદર્યમાં વૃદ્ધિ કરનાર છે. બળવર્ધક અને કામોદ્દીપક છે. એને જમવાથી બધી ધાતુઓ ઉપચિત ( વૃદ્ધિ પામવું ) થઈ જાય છે. આ આહારથી બધી ઈન્દ્રિયે તેમજ શરીરને આનંદની પ્રાપ્તિ થાય છે. મતલબ એ છે કે આ यार तना माहा। महु नवाई पाउ तवा छे. ( तएणं ते ईसर जाव पभिइओ जियसत्तू एवं वयोसी ) मने पधारे शुंडी शहीये. ते मई ઉત્તમ હતું એમાં તે જરાએ શંકા નથી. રાજાની આ વાત સાંભળીને તે ઈશ્વર વગેરે ઘણું સાર્થવાહએ તે જિતશત્રુ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
(तहेव णं सामी ! जणं तुब्भे वदह-अहोणं इमे मणुण्णे असणं ४ वण्णेणं
For Private And Personal Use Only
Page #751
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणी टो० अ० १२ स्वातोदकविषये सुबुद्धिद्रष्टान्तः ६९५ यावत् सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीयमस्ति । ततः खलु सुबुद्धिरमात्यो जितशत्रोरेतमर्थ नो आद्रियते यावत् तूष्णीकः सन्मौनः संतिष्ठते । ततः खलु जितशत्रुः सुबुदिममात्यं द्वितीयमपि तृतीयमपिवारमेवमवादीत्-अहो ! खलु हे सुबुद्धे ! इदं मनोशं तदेव यावत्सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीयम् , ततः खलु स सुबुद्धिरमात्यः जितशत्रुणा द्वितीयमपि तृतीयमपि वास्मेवमुक्तः सन् जिनशत्रु राजानमेवमवादीत्-नो उववेए जाव पल्हायणिज्जे ) हां स्वामिन् ! जैसा आप कहते हैं आहार वैसा ही था। वह बड़ो ही मनोज्ञ एवं शुभवर्ण से युक्त था। यावत् समस्त शरीर एवं इन्द्रियों को आनन्द पहुँचाने वाला था ! (तएणं जितसत्तू सुबुद्धिं अमचं एवं वयासी) अपनी बात का इश्वर आदि समस्त जनों द्वारा समर्थन प्राप्त कर राजा ने अपने अमात्य सुबुद्धि से भी यही बात कही कि ( अहो णं सुबुद्धी-इमे मणुण्णे असणं ४ जाव पल्हायणिज्जे) हे सुबुद्धे कहो, मनोज्ञ चतुर्विध अशनादि रूप यह आहार कितना अच्छा शुभ वर्णोपेत थावत् प्रह्लादनीय था ! (तएणं सुबुद्धी जियसत्तूस्सेयमढे णो आढाइ, जाव तुसिणीए संचिट्टई ) इस प्रकार राजा द्वारा आहार की प्रशंसा सुनकर उस सुबुद्धि अमात्य ने राजा की इस बातकी अनुमोदना नहीं की-प्रत्युत वह सुनकर चुपचाप ही बैठा रहा-(तएणं जियसत्तू सुबुद्धिं दोच्च पि तच्च पि एवं वयासी उववेए जाव पल्हायाणिज्जे)
હા સ્વામિન ! ખરેખર જેમ તમે કહો છે તેમ આહાર પણ એવો જ હતે તે ખૂબ જ મનોજ્ઞ અને શુભવર્ણ વાળો હતો. યાવત્ સંપૂર્ણ શરીર અને छन्द्रियाने भान पाउना२ ते. ( तएण जितमत्तू सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी ) पोताना ४थन विशेश्व२ बोरे मामाथी समर्थन प्रा शन રાજાએ પિતાના અમાત્ય (મંત્રી) સુબુદ્ધિને પણ એજ વાત કહી કે (अहोणं सुबुद्धी इमे मणुण्णे असणं ४ जाव पल्हायणिज्जे)
હે સુબુદ્ધિ ! બતાવે, મને જ્ઞ ચાર જાતને અશન વગેરે રૂપ આ આહાર કેટલે બધે શુભવણે યુક્ત યાવત્ આનંદ આપનાર હતે. (तएणं सुबुद्धी जियसत्तूस्सेयमट्टणो आढाइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ )
આ રીતે રાજાના મુખેથી આહાર વિશેનાં વખાણ સાંભળીને સુબુદ્ધિ અમાત્યે તે તેમની વાત ને ટેકો આપે નહિ પણ તે માત્ર મૂગો થઈને બેસી જ રહ્યો
तएणं जियसत्तू मुबुद्धि दोच पि तचं पि एवं वयासी-अहो णं सुबुद्धी । इमे
For Private And Personal Use Only
Page #752
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६९६
ज्ञाताधमकथासूत्रे खलु हे स्वामिन् ! अस्माकमेतस्मिन् मनोज्ञे-अशनपानखाद्यस्वाद्ये कोऽपि विस्मय; एवं खलु हे स्वामिन् ! मुभिसदा सुरभिशब्दाः-प्रशस्तशब्दा अपि पुद्गलाः शुभाः शब्दपुद्गला अपीत्यर्थः 'दुभिसहत्ताए' दुरभिशब्दतया परिणमन्ति, दुरभिशब्दा अपि पुद्गलाः-अशुभाः शब्दपुद्गला अपि सुरभिशब्दतया-शुभशब्दतया परिणमन्ति । -अहो णं सुबुद्धी ! इमे मणुण्णे तं चेव जाव पल्हायणिज्जे तएण से सुबुद्धीअमच्चे जितसत्तूणा दोच्चपि तच्चपि एवं युत्ते समाणे जितसत्तू रायं एवं वयासी) अमात्य सुबुद्धि को चुप चाप बैठा देखकर जितशत्रु राजाने दुवारा एवं तिबारा भी इसी तरह से कहा-हे सुघुद्धे ! यह मनोज्ञ चतुर्विध आहार कितना अच्छो शुभवर्णोपेत यावत् समस्त शरीर एवं इन्द्रियों को आनन्द पहुँचा ने वाला था। इस प्रकार दुबारा तियारा जितशत्रु रोजा द्वारा कहे गये सुबुद्धि अमात्य ने उन जितशत्रु राजा से इस प्रकार कहा-(नो खलु मामी अम्हं एयंसि मणुण्णंसि असणं ४ केइं विम्हए-एवं-खलु सामी सुभिसद्दावि पुग्गला दुन्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुन्भिसद्दावि पोग्गला सुन्भिसदत्ताए परिणमंति ) स्वामिन् ! मुझे इस मनोज्ञ अशनादिरूप चतुर्विध आहार में कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है। कोरण कि जो जो शुभ शब्द रूप पुद्गल होते हैं वे अशुभ शब्द पुद्गल रूप से परिणम जाते हैं और जो अशुभ शब्द रूप पुद्गल होते हैं वे शुभ शब्द पुद्गल रूप से परिणम जाते हैं। मणुग्णे तं चेव जाव पल्हायणिज्जे-तएणं से सुबुद्धी अमच्चे जित्तसत्तणा दोच्चपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे जितसत्तूं रायं एवं वयासी)
અમાત્ય સુબુદ્ધિને ચૂપચાપ બેઠેલે જોઈને જિતશત્રુ રાજાએ બીજી ત્રીજી વાર પણ આ પ્રમાણે જ કહ્યું કે હે સુબુદ્ધે! આ મનેજ્ઞ ચાર જાતને આહાર કેટલે બધા સરસ શુભવોં પેત યાવત આખા શરીર અને ઈન્દ્રિયને આનંદ આપનાર છે. આ રીતે બે ત્રણ વાર જિતશત્રુ ૨ જા વડે પૂછાયેલા સુબુદ્ધિ અમાત્યે રાજાને કહ્યું કે
( नो खलु सामी अम्हं एयंसि मणुण्णं सि असणे ४ केइं बिम्हए एवं खलु सामी सुब्भि सदा वि पुग्गला दुब्भि सदत्ताए परिणमंति दुभि सदावि पोग्गला मुभि सहत्ताए परिणमंति)।
હે સ્વામિન! આ મનેઝ અશન વગેરે ચાર જાતના આહાર વિશે મને કંઈ નવાઈ જેવી વાત જણાતી નથી કેમ કે જે શુભ શબ્દ રૂપ પુદ્ગલો હોય છે તે અશુભ શબ્દ પુદ્ગલ રૂપમાં પરિમિત થઈ જાય છે. અને જે અશુભ શબ્દ રૂપ પુદ્ગલે હોય છે તે શુભ શબ્દ પુદ્ગલ રૂપમાં પરિણમિત થઈ
For Private And Personal Use Only
Page #753
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः ६७ मुरूपा अपि पुद्गलाः दुरूपतया-कुत्सितरूपतया परिणमन्ति दुरूपा अपि पुद्गलाः सुरूपतया परिणमन्ति । सुरभिगंधा अपि पुद्गलाः शुभगन्धवन्तः पुद्गला अपि दुरभिगन्धतया परिणमन्ति, दुरभिगन्धा अपि पुद्गलाः सुरभिगन्धतया सुगन्धरूपेण परिणमन्ति। सुरसा अपि-शुभरसवन्तोऽपि पुद्गलाः दूरसतया अशुभरसतया परिणमन्ति, दूरसाअपि पुद्गला मुरसतया शुभरसरूपेण परिणमन्ति। शुभस्पर्शा अपि पुद्गलाः दुस्पर्शतया परिणमन्ति, दुस्स्पर्शा अपि पुद्गला शुभस्पर्शतया परिणमन्ति। 'पोगइसी तरह (सुरुवा वि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति.......परिणमंति) जो अशुभ रूप वाले पुद्गल होते हैं वे शुभरूप से परिणम जाते हैं और जो शुभरूप से परिणमे हुए पुद्गल होते है वेअशुभ रूप से परिणम जाते हैं। (सुबिभगंधावि पोग्गला दुन्भिगंधत्ताए परिणमंति, सुरसावि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमंति, दुरमावि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति, दुहफासावि पोरगला सुहफासत्ताए परिणमंति, पओगवीससा परिणया वि य णं सामी पोग्गला पण्णत्ता ) जो पुद्गल सुरभि गंध रूप से परिणमे हुए होते हैं वे ही पद्दल दुरभि गंध रूप से परिणम जाते हैं । इसी तरह जो पुल शुभरसरूप से परिणमे हुए होते हैं वे ही पुद्गल कुत्सितरुप से परिणम जाते हैं और जो कुत्सित रूप वाले पुद्गल होते हैं वे हो शुभरस रूपवाले पुद्गल बन जाते हैं। जो पुद्गल शुभ स्पर्श रूप से परिणमे हुए होते हैं वे ही पुद्गल अशुभ स्पर्श रूप में परिणम
तय छ । प्रभा (सुरूवा वि पोग्गला दुरुवत्ताप परिणमंति....... परिणमति ) જે અશુભ રૂપ વાળા પુદ્ગલે હોય છે તેઓ શુભ રૂપમાં પરિણનિત થઈ જાય છે અને જે શુભ રૂપમાં પરિણત થયેલા પુદ્ગલે હેય છે તેઓ અશુભ રૂપમાં પરિણુત થઈ જાય છે.
(सुभिगंधा वि पोग्गला दुब्भिगंधत्ताए परिणमंति. सुरसावि पोग्गला दुरसत्ताए परिणभंति, दुरमावि पोगला सुरसत्ताए परिणमति दुहफासा वि पोग्गला मुहफासत्ताए परिणमंति, पओगवीससा परिणया वि य णं सामी पोग्गला पण्णत्ता)
જે પુદ્ગલે સુરભિધ રૂપમાં પરિણત થયેલા હોય છે તે પુગલે જ દુરભિગંધ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. આ રીતે જે પુદ્ગલે સરસ રૂપમાં પરિણત થયેલા છે તે પુદ્ગલે જ કુત્સિત ( ખરાબ ) રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. અને જે કુકત રૂપ વાળા પુદ્ગલે હોય છે તે પુદ્ગલે જ સરસ રૂપ વાળા પુરા થઈ જાય છે. જે પુદ્ગલ શુભ સ્પર્શરૂપમાં પરિણત થયેલા હોય છે તે પુદ્ગલે જ અશુભ સ્પર્શ રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. અને જે
हा ८८
For Private And Personal Use Only
Page #754
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शांताधर्मकदाङ्गसूत्रे वीससापरिणयावि' प्रयोगविस्रसा परिणता अपि, प्रयोगेण प्रयोगपरिणामेन जीवकृतव्यापारेण विस्रसया-विस्रसापरिणामेन स्वभावेनैव च परिणताः एकावस्थाया अवस्थान्तरं प्राप्ताः सुशब्दादयः पुद्गलाः दुःशब्दादित्वेन दुःशब्दादयश्च सुशब्दादिरूपेण परिणता इत्यर्थः पुद्गलाः खलु भवन्तीति हे स्वामिन् ! प्रज्ञप्ताः भगवता कथिताः । ततः खलु स जितशत्रुः सुबुद्धेरमात्यस्य एवम्-उक्तरूपेण 'आइक्खमाणस्स ' आचक्षाणस्य-कथयतः, एतम् पूर्वोक्तम् अर्थम् शब्दादिपुद्गलानां शुभाशुभपरिणामरूपं भावं नो आद्रियते तद्वाक्यस्याऽऽदरं न करोति, नो परिजा जाते हैं और जो पुद्गल अशुभ स्पर्श रूप में परिणमे हुए होते हैं वे ही पुद्गल शुभस्पर्शरूप में परिणम जाते है। इस प्रकार का परिणमन पुद्गलों में जीवकृत व्यापाररूप परिणाम से और स्वाभाविक रूप से होता रहता है । एक अवस्था से अवस्थान्तर की प्राप्ति प्रत्येक समय प्रत्येक द्रव्य में होती रहती है । इस परिणमन से कोई भी द्रव्य अछूता नहीं है। इसी परिणाम का नाम स्वाभाविक परिणमन है । यह बात प्रभुने स्वयं प्रतिपादित की है । ( तएणं से जितसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमटुं नो अढाइ, नो परियाणई, तुसिणीए संचिट्ठइ, तएणं से जियसत्तू अण्ण या कयाई पहाए आसखंघवरगए महया भडचडगर आसवाहिणीयाए निज्जायमाणे तस्स फलिहोदगस्स अदरसामंते णं वीइवयइ ) अमात्य सुषुद्धि की इस बाद को सुनकर जिनशत्रु राजा ने उसकी इस बात का आदर नही किया-उसकी बातको स्वीकार नही किया। केवल. પુદગલે અશુભ સ્પર્શ રૂપમાં પરિણત થયેલા હોય છે તે પુદ્ગલે જ શુભ સ્પર્શરૂપમાં પરિણત થઈ જાય છેઆ જાતનું પુગમાં પરિણમન જીવકૃત વ્યાપાર રૂપ પરિણામથી અને સ્વાભાવિક રૂપમાં થતું રહે છે એક અવસ્થામાંથી અવસ્થાન્તરની પ્રાપ્તિ દરેક સમયે દરેક દ્રવ્યમાં થતી રહે છે. આ પરિણમન એકે એક દ્રવ્ય માટે ચોક્કસ પણે સમજવું જોઈએ. દરેકે દરેક દ્રવ્યમાં આ જાતનું પરિણમન થતું જ રહે છે. પ્રભુએ સ્વયં આ વાત સ્પષ્ટ કરી છે.
(तएणं से जितसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस ४ एयमहें नो आढाइ नो परियाणई, तुसिणीए संचिट्ठइ, तएण से नियसत्त अण्णया कयाई हाए आसखंधवरगए महया भडचडगरआसवाहिणीयाए निज्जोयमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदरसामंतेणं वीइवयइ )
અમાત્ય સુબુદ્ધિની આ વાત સાંભળીને જીતશત્રુ રાજા છે તેના કથનને આદર કર્યો નહિ, ફક્ત સાંભળીને તે ચૂપચાપ બેસી જ રહ્યો. એક દિવસે
For Private And Personal Use Only
Page #755
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१२ चातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः
६९९
6
'नाति = नाङ्गीकरोति तूष्णीकः संतिष्ठते= मौनमालम्ब्य स्थित इत्यर्थः । ततः खलु सजितशत्रुरन्यदा कदाचित = एकस्मिन् प्रस्तावे स्नातः = कृतस्नातः अश्वस्कन्धवरगतः =जात्याश्वष्टपृष्ठारूढः , .महया भडचडगर० ' महाभटचड करपडकरवृन्दपरिक्षिप्तः ' आसवाहणियाए ' अश्ववाहनिकायाम् = अश्ववाहनक्रीडायां निज्जायमाणे ' निर्यान्= निर्गच्छन् तस्य = पूर्वोक्तस्य परिखोदकस्य = परिखाजलस्य अदर सामन्तेन= पार्श्वभागेन व्यतिव्रजति । ततः तदा खलु जितशत्रु राजा परिखोदकस्य = पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टस्य अशुभेन गन्धेन ' अभिभूए समाणे ' अभिभूतः व्याकुलितचित्तः सन् स्वकेन = स्वकीयेन उत्तरीयकेण = उत्तरीयवस्त्रेण ' दुपट्टा' इतिप्रसिद्धेन आस्यं - सामीप्यसंयोगान्नासिकां पिदधाति, एकान्तमपक्रामति = दूरतो भूत्वा ग च्छति अपक्राम्य तान् बहून् राजेश्वर यावत् प्रभृतीन् = राजेश्वर - तलवर - माडम्बिक सुनकर चुपचाप ही बैठा रहा । एकदिन जितशत्रु राजा स्नान से निश्चित होकर घोड़े पर बैठकर अश्वक्रीडा करने के निमित्त घर से बाहर निकला। उनके साथर महाभटों का समुदाय भी चल रहा था । चलते २ वे उसी परिखोदक (खाई) के पाससे होकर निकले। (तएणं जियसत्तू तस्स फरिहोदगरस असुभेणं गंधेणं अभिभूए समाणे सरणं उत्तरिज्जेण आसग पिहई, एगंत अवकमह, अवक्कमित्ता, ते बहवे ईसर जाव पभिइओ एवं वयासी - अहोणं देवाणुप्पिया ! इमे फरिहोदर अमणुणे वण्णेण ४ से जहानामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चेव तरणं ते बहवे राईसर पभिइओ एवं वयासी ) इतने में उन जितशत्रु राजाने उस पनिखोदक की अशुभ गंध से अभिभूत होकर अपने दुपट्टे से अपनी नासिका को ढक लिया । और फिर वे ढककर वहां से दूर होकर
4
જીતશત્રુ રાજા સ્નાન કરીને ઘેાડા ઉપર સવાર થયા અને અશ્વક્રીડા કરવા માટે ઘેરથી બહાર નીકળ્યા. તેમની સાથે સાથે મહાન ભટને સમુદાય પણુ ચાલતા હતા. ચાલતાં ચાલતાં તેઆ તે જ પરિખેાદક-ખાઈ-ની પાસે થઇને નીકળ્યા
( तरणं जितसत्तू तस्स फरिहोगस्स असुभेण गंधेणं अभिभूए समाणे सरणं उत्तरिज्जे आग पहई एगंत अवक्कमइ अवक्कमित्ता ते बहवे ईसर जाव भिओ एवं वयासी- अहोण देवाप्पिया ! इमे फरिहोदर अमणुण्णे वण्णेण ४ से जहा नामए अपडेइ वा जाव अमणामतराए वेब तएणं ते बहवे राई सर भिओ एवं वयासी)
જીતશત્રુ રાજાએ પરિખાદક-ખાઇની ખરાબ ગધથી વ્યાકુળ થઈને પેાતાના ખેસથી નાકને ઢાંકી લીધું, અને ત્યાર ખાદ તે ખાઇની પાસેથી
For Private And Personal Use Only
Page #756
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
-
Goo
शाताधर्मकथासू
कौटुम्बिक - श्रेष्ठि-सेनापति सार्थवाहादीन एवमादीत् अहो ! हे देवानुप्रियाः ! कter इदं परिखोदकममनोज्ञं वर्णेन गन्धेन रसेन स्पर्शेन, तद् यथानामकम् । तथाहि अद्दिमृतकमिति वा यावद् एतस्मादपि अनिष्टतर अमनोज्ञतरमनआमतरकमेवास्ति । ततः खलु ते बहवो राजेश्वरप्रभृतयो यावदेवमवादिपुः - तथैव खलु तत् हे स्वामिन् ! यत्खलु यूयमेवं वदथ - अहो | खलु इदं परिखोदकममनोज्ञं वर्णेन रसेन गन्धेन स्पर्शेन तद् यथा नामकम् तथाहि अहिमृतकमिति वा यावद्
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चलने लगे | चलते २ उन्होंने अपने साथ रहे हुए राजेश्वर २, तलवर, माम्बिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सेनापति, एवं सार्थवाह आदिसे कहा है देवानुप्रियो ! देखो - यह परिखोदक (खाईका जल ) वर्ण से गंधसे, रससे एवं स्पर्शसे कितना अधिक अमनोज्ञ बन रहा है । जैसे मरे हुए सर्प आदिके सड़े विनष्ट आदि अवस्थापन्न कलेवर की दुर्गंध आती है-उस से भी अधिक तर अनिष्ट दुर्गंध इस जल की आ रही है । राजा की इस प्रकोर बात सुनकर उन राजेश्वर आदि समस्त जनों ने इस प्रकोर कहा - ( तहेव णं सामी ! जं णं तुभे एवं वयह, अहो णं इमे फरिहोदर, अमणुण्णे वण्णेणं ४ से जहा नामए अहिमडे वा जाव अमणाम तराए चेव, तएण से जियसत्त सुबुद्धि अमच्चे एवं वयासी- तरणं सुबुद्री अमच्चे जाव तुसिणीए संचिट्ठह ) हे स्वामिन्! आप जैसा कहते हैं यह परिखोदक वैसा ही वर्ण, रस, गंध, और स्पर्श से अम
દૂર ખસીને ચાલવા લાગ્યા ચાલતાં ચાલતાં તેમણે પેાતાની સાથેના રાજેશ્વર, તલવર, માડંબિક, કૌટુંબિક, શ્રેષ્ઠી સેનાપતિ અને સાવાહ વગેરેને કહ્યું કે हे देवानुप्रियो ! यो मा परिमोहर - माघ - त्राणु थी, गधधी, रसथी, मने સ્પર્શથી કેટલી બધી અમને જ્ઞ-ખરા-લાગે છે. મરેલા સાપ વગેરેના સડી ગયેલા વિનષ્ટ વગેરે અવસ્થાપન્ન કલેવર ( શરીર ) ની જેવી દુર્ગંધ હોય છે તેના કરતાં પણ વધારે ખરાબ ગંધ આ પાણીમાંથી આવી રહી છે. રાજાની આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને રાજેશ્વર વગેરે બધાએએ આ પ્રમાણે કહ્યું —–
( तदेव, णं सामी ! जं णं तुब्भे एवं वयह अहोणं इमे फरिहोदर अमण्णुण्णे Todण ४ से जहानामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चैत्र, तरणं से जियसत्तू सुबुद्धिं अमच्चं एवं बयासी - तएवं सुबुद्धी अमच्चे नाव तुसिणीए संचिवइ ) તેવી જ વષ્ણુ, રસ, ગંધ અને સ્પથી ગયેલા સાપ વગેરેના લેવરાના જેવી
હે સ્વામિન્! તમે કહેા છે અમનેાજ્ઞ આ ખાઇ છે. મરીને સડી
For Private And Personal Use Only
Page #757
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः Go
अमन आमतरकमेवास्ति । ततः खलु स जितशत्रुः सुबुद्धिममात्यमेवमवादीत् - अहो ! खलु हे सुबुद्धे ! इदं परिखोदकममनोज्ञं वर्णेन ४, कीदृशम् ? इत्याह-' से जहा नामए ' तद् यथा नामकं=यथादृष्टान्तं निरूप्यते-अहिमृतकमिति वा यावद् एतस्मादपि=अहिमृतकादिभ्योऽपि अनिष्टतरम् अमनोज्ञतरम् अमन आमतरमेव वर्त्तते । ततः खलु सुबुद्धिरमात्यो यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु स जितशत्रू राजा सुबुद्धिरमात्यं द्वितीयमपि तृतीयमपि वारमेवमवादीत् - अहो ! खलु 'तं चेत्र ' तदेव पूर्ववदेव राजा वदति । ततः तदनन्तरं खलु स सुबुद्धिरमात्यो जितशत्रुणा नोज्ञ है | जैसे मरे हुए सर्पादिक के सड़े आदि अवस्थापन कलेवर से दुर्गंध आती है उसी तरह की इस से भी अधिक अनिष्टतर असह्य दुगंध इस से आ रही है ! इस प्रकार अपनी बात का समर्थन प्राप्तकर जितशत्रु रोजा ने अपने सुबुद्धि अमात्य प्रधान से कहा- हे सुबुद्धे ! यह परिखोदक वर्ण, रस, गंध, और स्पर्श से बिलकुल अमनोज्ञ बन रहा है । जिस प्रकार मरे हुए सर्प आदि के मडे गले आदि अवस्था पन्न कलेवर से अधिक अनिष्ट तर दुर्गंध निकलती है उससे भी अधिक अनिष्टतर दुर्गंध इससे निकल रही है। इस प्रकार अपने राजाकी बात सुनकर सुबुद्धि अमात्य ने उसका आदर नहीं किया उसे स्वीकार नहीं किया केवल चुपचाप ही रहा । (तएण से जियसत्तू राया सुबुद्धि अमचं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी अहोणं तंचेव, तएण से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तू रण्णा दोच्चपि तच्चपि एवंबुत्ते समाणे एवं वयासी नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केइ विम्हए, एवं
અનિષ્ટતર, અસહ્ય દુર્ગંધ આવે છે તેના કરતાં પશુ વધારે ખરાબ આ દુર્ગંધ છે. આ રીતે પેતાની વાતનું સમર્થન પ્રાપ્ત કરીને જીતશત્રુ રાજાએ પેાતાના સુબુદ્ધિ અમાત્ય પ્રધાનને કહ્યું કે હે સુષુદ્રે ! આ પરિખાઇક-ખાઈवर्षा, रस, गंध अने स्पर्शमां म्हम अमनोज्ञ-राम-थई गई छे, भरीने સડી ગયેલા સાપ વગેરેના અવસ્થાપન્ન કલેવા-શરીર-થી જેવી અનિષ્ટતર દુગંધ આવે છે તેના કરતાં પણ વધુ અનિષ્ટતર-ખરાખ–દુધ આ ભાઇમાંથી આવી રહી છે. આ રીતે રાજાની વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ અમાત્યે તેના આદર કર્યાં નહિ, તેના સ્વીકાર કર્યાં નહિ પણ ચૂપચાપ થઇને જ ચાલતા રહ્યો.
(तरण से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं दोच्चंपि तच्चपि एवं क्यासी अहोणं तं चेत्र तरणं से सुबुद्धी अमचे जियसत्तूणा रण्णा दोच्चपि तच्चपि एवं बुत्ते समाणे एवं क्यासी नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केइ बिम्दए,
For Private And Personal Use Only
Page #758
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७०३
ज्ञाता कथाक
1
राज्ञा द्वितीयमपि तृतीयमपि वारम् एवमुक्तः = सन् एवमवदत् - नो खलु हे स्वामिन् ! मम एतस्मिन् परिखोदके कोऽपि विस्मयः, कथम् ? इत्याह- एवं खलु हे स्वामिन् ! सुरभिशब्दाः-शुभशब्दाः अपि पुद्गलाः शुभा अपि शब्दपुद्गला इत्यर्थः दुब्भिसदत्ताए ' दुरभिशब्दतया - अशुभशब्दतया परिणमन्ति एवं ' तं चैव ' तदेव सर्वं रूपरसगन्धस्पर्शसम्बन्धिनः शुभाः अपि पुद्गला अशुभरूपादितया परि णमन्तीत्यर्थः यावत् प्रयोगविस्रसा परिणता जीवकृतप्रयोगेण स्वभावत एव वा परिवर्तनशीलाः अपि च खलु हे स्वामिन् ! पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः भगवद्भिः कथिताः । खलु सामी ! सुभि सद्दावि पोग्गला दुब्भि सहस्ताए परिणमंति तंचेव जाव पओगवीससा परिणयावि य णं सामी । पोग्गला पण्णत्ता ) अमात्य को चुपचाप बैठा हुता देखकर जितशत्रु राजा ने उस अमात्य सुबुद्धि से दुबारा और तिबारा भी पहिले ही जैसा कहा इस तरह दुबारा तिबारा जितशत्रु राजा द्वारा कहे गये उस सुबुद्धि अमात्य ने ऐसा कहा कि स्वामिन् | हमे इस परिखा के उदक में कोई आश्चर्य नही हो रहा है कारण कि जो पुद्गल पहिले शुभ शब्द रूप से परिणमे हुए होते हैं वे ही कालान्तर में प्रयोग और विस्रसा परिणाम से अशुभ शब्द रूप परिणम जाते हैं। इस तरह जैसा उसने मनोज्ञ चतुर्विध आहार के विषय में पहिले प्रतिपादन किया है वैसा ही यहाँ पर भी उसने प्रतिपादित किया । पुलों का यह इस तरह को परिणमन मैं अपनी निज कल्पना से नहीं कह रहा हूँ प्रत्युत इस वीतराग प्रभु की आज्ञा हैं । उन्हों ने इसी तरह का पौगलिक परिण एवं खलु सामी । सुभ सदावि पोम्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति तं चैव जात्र ranate परिणयत्र य णं सामी ! पोग्गला पण्णत्ता )
For Private And Personal Use Only
में
અમાત્ય સુબુદ્ધિને ચુપચાપ જોઇને રાજા જીતશત્રુએ ત્રીજી અને ત્રીજી વાર પહેલાંની જેમ જ કહ્યું. પૂછાયેલા સુબુદ્ધિ અમાત્યે રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામિન્ ! આ ખાઇના પાણીમાં મને કંઇ નવાઈ જેવું લાગતું નથી કેમકે જે પુદ્ગલા પહેલાં શુભ શબ્દ રૂપમાં પરિણત થયેલાં હાય છે તે પુર્ ગàા જ કાલાન્તરમાં પ્રયાગ અને વિસસા ( સ્વાભાવિક રીતના ) પરિણામથી અશુદ્ધ શબ્દ રૂપમાં પરિણત થઇ જાય છે. આ રીતે અમાત્યે મનેાન્ન ચાર જાતના આહાર વિશે જે જાતના વિચારે રજૂ કર્યાં હતા તે જ જાતના વિચાર આ અશુભ રૂપ ખાઇ જોઈને પણ પ્રકટ કર્યા. અમાત્યે રાજાને આ! પ્રમાણે કહ્યું કે પુગલાના આ રીતે પિરણમનની વાત મારી પોતાની કલ્પનાથી પણ વીત. રાગ પ્રભુની જ એ આજ્ઞા છે. તેઓશ્રાએ પૌદ્ગલિક પરિણમન આ રીતે જ પોતાની દેશના વડે નિરૂપિત કર્યાં છે.
Page #759
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः ७०, ततः खलु जितशत्रु सुबुद्धिम् एवमवादीत्-मा खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! आत्मानस्वकं च परम् अन्यं च तदुभयं-स्वपररूपं समकमेव वा बहीभिश्च 'असम्भावुभावणाहिं ' असद्भावोद्भावनाभिः असताम् अविद्यमानानां भावानां वस्तुधर्माणां या उद्भावना प्रतिपादनास्ताभिः वस्तुस्वरूपान्यथा प्रतिपादनरूपाभिः 'मिच्छताभिणिवेसेण य' मिथ्यात्वाभिनिवेशेन विपर्यासावशेन च अज्ञानावेशेनेत्यर्थः 'बुग्गाहेमाणे ' व्युद्ग्राहयन् विविधप्रकारेणोत्कृष्टतया चान्यं ग्राहयन् 'वुप्पाएमाणे' व्युत्पादयन् व्युत्पत्तिं जनयन् विहर अशुद्धप्ररूपणां कुर्वन् मा तिष्ठेत्यर्थः । मन अपनी देशना द्वारा प्ररूपित किया है । (तएणं जियसत्तू सुबुद्धि एवं वयासी-माणं तुमं देवाणुप्पिया! अप्पाणं च परं च तदुभयं वा बहू हि य असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गाहेमाणे बुप्पाहेमाणे विहराहि, तएणं सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए-अहो णं जियसत्तू संते तच्चे तहिए अवितहे सम्भूए जिणपण्णत्ते भावे णो उवलभंति) इस प्रकार सुनकर जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि प्रधान से इस तरह कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम इस तरह की असद्भावनोद्भावक वचनों से-अविद्यमान वस्तु धर्मों की प्रतिपादनाओं से-वस्तु का जो स्वरूप विद्यमान नही है-उस स्वरूप को उस वस्तु में विद्यमानता का प्रतिपादन करने वाली वाणियों से एवं मिथ्यात्वाभिनिवेश आग्रह से इस तरह की प्ररूपणा मत करो, न स्वयं को इस प्रकार को प्ररूपणा से वासित करो और न दूसरों को इस तरह की झूठी २ प्ररूपगाओं से अपने फंदे में फसाओ और न अपने को और न दूसरों को एक ही
(तएणजियसत्तू सुबुद्धि एवं वयासी-मा ण तुमं देवाणुप्पिया ! अप्पाण च परं च तदुभयं वा बहूहि य असब्भावुब्भावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसण य बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे विहराहि तएण सुवुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झथिए अहो ण जियसत्तू संते तच्चे तहिए अवितहे सब्भूण जिणपण्णत्ते भावे णो उक्लमंति)
જીતશત્રુ રાજાએ આ પ્રમાણે સાંભળીને અમાત્ય સુબુદ્ધિને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય તમે આ રીતે અસદુભાવના ભાવક વચનથી–અવિઘમાન વસ્તુધર્મોથી પ્રતિપાદનાઓથી વસ્તુનું જ સ્વરૂપ વસ્તુમાં હાજર નથી તે સ્વરૂપને વસ્તુમાં બતાવનારી વાણુઓથી અને મિથ્યાત્વાભિનિવેશના આગ્રહથી આ જાતનું નિરૂપણ કરે નહિ. આવી પ્રરૂપણાથી પિતાની જાતને બચાવતા રહે અને બીજાઓને પણ આવી જૂઠી પ્રરૂપણામાં ફસાવવાની ચેષ્ટા કરે નહિ, તમે એકી સાથે પોતાની જાતને કે બીજા માણસને આવી પ્રરૂપણાની લપેટમાં લેવાની કોશિશ કરે નહિ રાજાની આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ પ્રધા
For Private And Personal Use Only
Page #760
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७०४
जाताधर्मकथासूत्र ततः तदनन्तरं राज्ञा सहवार्तालापानन्तरं खलु सुबुद्धेः सुवुद्धिनामामात्यस्य अयमेतद्रूपा वक्ष्यमाणप्रकारः आध्यात्मिकः, चिन्तितः, प्रार्थितः, कल्पितः, मनोग. तसंकल्पश्च नानारूपो विचारः समुदपद्यत अहो ! आश्चर्यमेतद् यत्खलु जितशत्रु राजा 'संते' सतः = विद्यमानात् ‘तच्चे' तत्त्वानि = तत्वरूपान् तत्त्ववतो वा स्वत्वपरत्वयुक्तान् ' तष्टिए ' तथ्यान् = सत्यान् यद्वा--'तहिए' तथा च-इतिच्छाया, तथेति चिनोतीति, अव्ययमिदम्-मात्रयाऽप्यन्यूनाधिकान् ' अवितहे ' अवितथान् = अविद्यमानासत्यान् ' सब्भूए ' सद्भूतान् सत्तायुक्तान् ' जिणपण्णत्ते 'जिनप्रज्ञप्तान = जिनभाषितान् भावान् ' नो उबलभइ' नोपलभते, तत्=तस्मात् कारणात् श्रेयः = समीचीतं खलु मम यत्-जितशत्रोः राज्ञ सतां तत्त्वानां तथ्यानाम् अस्तिथानां सद्भूतानां जिनप्रज्ञप्तानां भावनाम् 'अभिगमणट्ठयाए ' अभिगमनार्थतायै–सम्यगवयोधाय एतमर्थम् पुद्गलानामपरासाथ इस प्रकार को प्ररूपणा के जाल में न डालो। रोजा की इस प्रकार वाणी सुनकर सुबुद्धि प्रधान के मन में ऐसा विविध प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ -यहाँ विचार के इन और विशेषणों का ग्रहण कर लेना चाहिये-“चिन्तितः प्रार्थितः कल्पितः"। यह बडे आश्चर्य की बात है जो जितशत्रु राजा विद्यमान, तत्त्वरूप-अथवा विविध प्रकार की विवक्षा से स्वत्व परत्व रूप से युक्त, तथ्य-सत्य, न न्यून और न अधिक, अवितथ, सत्ता युक्त ऐसे जिन प्रज्ञप्त, भावों को नहीं समझ रहा है-अर्थात् जितशत्रु राजा के ध्यान में यह बात नहीं आ रही है कि जिन प्रज्ञप्त (प्ररूपित ) भाव सत्य होते है, अवितथ होते हैं अन्यून अनतिरिक्त होते हैं, अनेक विवक्षाओं को लेकर उन में नानो धर्म विशिष्टता होती है-(तं) इस लिये (सेयं खलु मम, जियसत्तुस्त रणो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सम्भूताणं जिणपण्णत्ताणं भावाનના મનમાં અનેક વિચાર ઉદૂભવ્યા. અહીં વિચાર સંબંધી આ વિશેષણનું अड] ५५ रीमे “चिन्तितः प्रार्थितः कल्पितः" मा ४४म नवाई જેવું લાગે છે કે જીતશત્રુ રાજા વિદ્યમાન તત્વ રૂપ-અથવા તે વિવિધ પ્રકારની વિવક્ષાથી સ્વત્વ પરત્વ રૂપથી યુક્ત, તથ્ય-સત્ય, ઘણું ઓછું પણ નહિ અને ઘણું વધારે પણ નહિ, અવિતથ સત્તા યુક્ત એવા જીનપ્રજ્ઞપ્તના ભાવને સમજી રહ્યા નથી. એટલે કે જીતશત્રુ રાજા આ વાતને સમજી શક્યા નથી કે જીન પ્રજ્ઞસ વડે નિરૂપિત થયેલા ભાવે સત્ય હોય છે, અવિતથ હોય છે, અન્યૂન અનતિરિક્ત હોય છે, અનેક વિવક્ષાઓને લઈને તેમનામાં નાના ધર્મવિશિષ્ટતા હોય છે.(7)માટે
( सेयं खलु मम जियसत्तस्स रण्गो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं
For Private And Personal Use Only
Page #761
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः ७०५ परपरिणमनरूपं भावम् ' उवाइणावित्तए' उपादापयितुं ग्राहयितुं मम श्रेयः, इति पूर्वेण सम्बन्धः । स सुबुद्धिरमात्यः एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते-विचारयति, संप्रेक्ष्य ‘पञ्चतिएहिं' प्रत्यन्तिकैः समीपस्थैः प्रतिक्षणनिदेशवर्तिभिः पुरुषैः साद्धम् ' अंतरावणाओ' अन्तरापणात् हट्टमार्गात् 'बाजार' इति भाषा प्रसिद्धात्, यद्वा-ग्रामान्तरालवर्तिकुम्भकारहट्टात् नवका=नूतनान् घटांश्च गृह्णाति, गृहीला सन्ध्याकालसमये सूर्यास्तकाले 'पविरलमणुस्संसि' प्रविरलमनुष्ये प्रविरला:= स्तोकाः मनुष्या यस्मिन् समये स प्रविरलमनुष्यस्तस्मिन् सन्ध्याकाले हि मनुष्याणां गमनागमनं स्वल्पं भवति तादृशे समय इत्यर्थः, पुनः ‘णिसंतपडिणिसंतसि' निशान्त प्रतिनिशान्ते-मनुष्यसंचागभावसमये यत्रैव परिखोदकं तत्रैवोपागच्छति, उपामत्य तत् परिखोदकं ग्राहयति, ग्राहयित्वा नवकेषु-नूतनेषु घटेषु — गालावेइ' गालयति, वस्त्रादिपूतं कारयति, गालयित्वा पुनरपरेषु नवकेषु घटेषु प्रक्षेपयति, प्रक्षेप्य तान् 'लंछियमुदिए ' लाग्छितमुद्रितान्-लाञ्छितान् लाक्षादिलेपयुक्तान णं अभिगमणट्टयाए एयमढें उवाइणावित्तए एवं संपेहेह) मुझे यह उचित है कि मैं जितशत्रु राजा को सत्स्वरूप, भाव युक्त तथ्यरूप, अवितथ, और सद्भूतरूप ऐसे जिन प्रज्ञप्त भावों का अच्छी तरह बोध कराने के लिये और इस पुद्गलों के-अपरापर परिणमन रूप भाव को ये ऐसे ही हैं, इस तरह मनवाने के लिये उन्हें समझाऊँ । इस प्रकार उस ने विचार किया- (संपेहित्ता पच्चंतिएहिं पुरिसेहिं सद्धिं अंतरावणाओ नवए, घडए य गेण्हइ, गेण्हित्ता संझाकालसमयसि पविरलमणुस्ससि निसंतपडिनिसंतसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं फरिहोदगं गेण्हावेइ गेण्हावित्ता नवएस्सु घडएस्सु गालासन्भूताणं जिणपण्णताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एयगळं उवाइणावित्तए एवं संपेहेइ)
હવે મારે જીતશત્રુ રાજાને સત સ્વરૂ૫, ભાવયુક્ત તથ્ય રૂપ, અવિતથ અને સદૂભૂત રૂપ એવા જનપ્રજ્ઞસના ભાવને સારી પેઠે સમજાવવા જોઈએ તેમજ પુદ્ગલેના અપરા પર પરિણમન રૂપ ભાવ વિશે પણ “તેઓ તે એવા જ છે” આ રીતે સમજાવવાની કેશિશ કરવી જોઈએ. અમાત્યે આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો.
( संपेहित्ता पच्चंतिए हिं पुरिसेहिं सद्धि अंतरावणाओ नवए घडए य गेण्डइ, गेण्हित्ता संझाकालसमयंसि पविरल मणुस्संसि निसंत पडिनिसंतसि जेणेव फरिहोदए उबागच्छइ, उवागच्छित्ता तं फरिहोदगं गेण्हावेइ गेहावित्ता नवएसु घडएसु गालावेइ, गलावित्ता नवएसु घडएस पक्खिवावेइ, पक्खिवावित्ता
For Private And Personal Use Only
Page #762
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७०६
जाताधर्मकथासूत्र मुद्रितान-मुद्राद्यङ्कितान् कारयति, कारयित्वा ‘सत्तरत्तं ' सप्तरात्र सप्तरात्रिन्दिव पर्यन्तं परिवसावेइ' परिवासयति स्थापर्यात, तदनु 'दोच्च पि ' द्वितीयमपि वारंपुनरपरेषु नवकेषु घटेषु गालयति, गालयित्वा पुनरपरेषु नवकेषु घटेषु प्रक्षेपयति, प्रक्षेप्य तेषु घटेषु ' सज्जखारं ' सर्जक्षारं=' सज्जीखार ' इति प्रसिद्धम् ; सद्यो भस्म वा प्रक्षेपयति, प्रक्षेप्य लाञ्छितमुद्रितान् कारयति, कारयित्वा सप्तरात्रं यावत् परिवासयति, स्थापयति । एवं 'तच पि' तृतीयमपि वारं पुनरपरेषु नवकेषु घटेषु यावत् संवासयनि-सम्यस्थापयति । एवं खलु एतेन उपायेन अनेनैवं क्रमेण अन्तरामध्येमध्ये गालयन् , अलरामध्येमध्ये प्रक्षेपयन् अन्तरा च विपरिवसावेमाणे' विपरिवासयन् २ स्थापयन २ सप्त सप्त रात्रिन्दिवानि= अहोरात्रिणि विपरिवासयति । ततः खलु तत्परिखोदकं ' सत्तमसत्तयंसि ' सप्तमवेइ, गलावित्ता, लंछियमुद्दिते करावेइ, करावित्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ, दोच्चपि नवएसु घडएसु गालावेइ गालावित्ता नवएसु घडएप्सु पक्खि. वावेइ, पक्खिवावित्ता लंछियमुहिते करावेइ, करावित्ता सत्तरतं परिवसावेह दोच्चपि नवएप्लु घडएसु गालावेइ, गालावित्ता नवएप्सु घडएप्सु पक्खिवावेइ ) विचार करके फिर उसने अपने समीपस्थ रहे हुए पुरुषो से-सेवकों से बाजार से अथवा ग्रामान्तरवर्ती कुंभकार के हाट से नवीन घडों को मंगवाया। उन्हें लेकर वह सूर्यास्त काल के समय जब कि मनुष्यों का आना जाना स्वल्प हो गया और धीरे २ वह जब बिलकुल बंद हो गया जहां परिखोदक था वहां पहुंचा। वहां पहुँच कर उसने उन घडों में पानी छान कर भरवाया। भरवा कर फिर उसे और दूसरे घडों में भरवाया। भरवा कर फिर उन पर उसने लाक्षादिक की मुहर लगवाई । लगवा कर उन्हें सात दिनरात तक एक लंछियमुदिते, करावेइ करावित्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ, दोच्चंपि नवएसु घटएमु पक्खिवावेइ, पविखवाबित्ता लंछियमुदिते करावेइ, करावित्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ, दोच्चपि नवएसु घडएमु गालावेइ, गालावित्ता नवएसु घडएमु पक्खिवावेइ )
| વિચાર કરીને તેણે પિતાના સેવક પાસેથી બજાર અથવા ગામના નજીક કુંભારની દુકાનમાંથી નવા માટલાએ મંગાવડાવ્યા. માટલાઓને લઈને તે જ્યારે સૂર્ય અસ્ત પામે અને માણસેની અવરજવર એકદમ બંધ થઈ ગઈ ત્યારે તે ખાઈની પાસે પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચીને તેણે માટલાઓમાં પાણી ગાળીને ભરાવ્યું. ભરાવીને તેણે બીજા ઘડાઓમાં પણ પાણી ગાળીને ભરાવ્યું. પાણી ભરાવ્યા પછી તેણે માટલાને બરાબર બંધ કરાવડાવીને સાત દિવસ સુધી
For Private And Personal Use Only
Page #763
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः ७०७ सप्तके परिणम्यमानेसति एकोनपश्चाशदहोरात्रेषु व्यतीतेषु सत्सु तत्परिखोदकम्-उदकरत्नं जातं चाप्यभवत् । कीदृशं जातम् ? इत्याह-'अच्छे' अच्छं-स्वच्छं जगह रखवा दिया। फिर दुबारा भी उसने और दूसरे नवीन घडों में पानी छान कर भरवाया। भरवा कर फिर उस जल को उसने और दूसरे घडों में भरवाया। ( पक्खिवावित्ता) भरवा कर ( सज्जखारं पक्खिवावेइ लंछिय मुदिते कारवेइ ) उन में उसने सज्जीखार डलवा दिया। डलवा कर उन पर लाक्षादिक के लेप की मुहर लगवा दी। (कारवित्ता सत्तरत्तं परिवसावेइ) लगवा कर उन्हें एक ओर रखवा दिया (तच्चपि नवएप्लु घडएप्सु जाव संवसोवेइ एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गलावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे अंतराय विपरिवसावेमाणे २ सत्त २ राई दिया विरिवसावेह) तीसरी बार भी उसने उपर नवीन घड़ों में छानकर पानी भरवाया-भरवाकर पहिले की तरह ही उसने सब काम करवाया-फिर उन्हे अच्छी तरह एक ओर रखवा दिया। इस तरह के उपाय से उसने बीच २ में उस जल को पुनः २ छानकर उनमें भरवाया और भरवा २ कर सात २ दिन तक उन घड़ों को एक २ ओर रखवा दिया। (तरण से फरिहोदए सत्तमसत्तयंसि परिणम माणसि उदगरयणे जाये) इस प्रकार करते २ जब ४९ दिन समाप्त हो
એક જગ્યાએ માટલાઓને મૂકાવડાવ્યાં. બીજી વખત તેણે બીજા નવા ઘડાઓમાં પાણી ગાળીને ભરાવડાવ્યું. ભરાવડાવીને તે પાણીને ગાળીને બીજા માટલાઓમાં १२।१।०यु. (पक्खिवावित्ता ) १२॥५॥वीन
( सज्जवार पक्खिवावेइ लंछियमुद्दिते कारवेइ )
તેણે માટલાઓમાં સાજીખાર નખાવડાવ્યું. સાજી ખાર નંખાવડાવીને तो भासायाने १२१५२ ५५ ४२११४ावी ( कारबित्ता सत्तरत्त परिवसावेइ ) સીલ કરાવડાવીને માટલાંઓને એકબાજુ મૂકી દીધાં.
(तच्चपि नवएसु घडएसु जाव संवसावेइ, एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा पक्खिवावेमाणे अंतराय विपरिवसावेमाणे २ सत्तर राई दिया विपरिवसावेइ) - ત્રીજી વખત પણ તેણે બીજા નવા માટલાએ માં પાણી ભરાવડાવ્યું. ભરાવીને પહેલાની જેમજ બધી વિધિ કરી અને માટલાંઓને એક તરફ મૂકાવી દીધાં. આ પ્રમાણે કરતાં તેણે વચ્ચે વચ્ચે કેટલી વખત વારંવાર ગાળીને માટલાઓમાં પાણી ભરાવ્યું અને ત્યારપછી સાત દિવસ માટે માટલાઓને એક બાજુ મૂકાવી દીધાં. ..... (तएणं से फरिहोदए सत्तमसत्तयसि परिणममाणसि उदगरयणे जाये)
For Private And Personal Use Only
Page #764
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७०८
शाताधर्मकथासूत्र निर्मलत्वात् , ' पत्थे' पथ्यम्=आरोग्यजनकत्वात् , ' जच्चे' जात्यम्-उत्तमगुणबत्त्वात् , ' तणुए ' तनुकं-भारणलघुकं पाचकत्वात् , 'फलिहवण्णाभे' स्फटिकवर्णाभं स्फटिकमणिवर्णतुल्यं वर्णेन-उपपेतम् ४ = प्रशस्तवर्ण गन्धरसस्पशैर्युक्तम् 'आसायणिज्जे ' आस्वादनीयम् आस्वादयोग्यं यावत् सर्वेन्द्रिय गात्रप्रह्लादनीयं जातम् । ततः खलु सुबुद्धिरमात्यो यचैव तद् उदकरत्नं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतले हस्ततले गृहीत्वा तद् ‘आसाएइ' आस्वादयति आस्वाद्य वद् उदकरत्नं वर्णेनोपपेतम् ४ वर्णादुपपेतम् - आस्वादनीयं यावत् सर्वेन्द्रियगात्र चुके लय वह परिखोदक उदकरत्न श्रेष्ठजल रूप परिणमित हो गया। ( अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे वण्णेणं उधवेयं४आसायणिज्जे जाव सविदियगायपल्हायणिज्जे ) वह उदकरत्न निर्मल होने से विलकुल स्वच्छ हो गया आरोग्य जनक होने से पथ्य रूप बन गया उत्तम गुणवाला होने से श्रेष्ठ दिखनेलगा शीघ्र पचने के योग्य हो जाने के कारण भार में वह बहुत हलका हो गया, और स्फटिकमणि के वर्ण समान वर्ण से युक्त हो गया। इसके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श सब प्रशस्त-श्रेष्ठ बन गये । यह आस्वादनीय हो गया यावत् समस्त इन्द्रियों को एवं शरीर को तृप्ति करने वाला बन गया । (तएणं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करय. लंसि आसादेह, आसादित्तातं उदगरयणं वण्णे णं उववेयं ४ आसाय. णिज्जे जाव सविदियगाय पल्हायणिज्जं जाणित्ता हट्ट तुढे बहूहि
આ રીતે જ્યારે ૪૯ દિવસ પૂરા થયા ત્યારે તે ખાઈનું ઉદકરત્ન (પાણી) ઉત્તમ પાણીના રૂપમાં પરિણત થઈ ગયું. __(अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे वण्णेणं उववेयं४ आसायणिज्जे जाव सबिदियगायपल्हायणिज्जे)
તે ઉદકરત્ન (પાણી) નિર્મળ હવા બદલ એકદમ સ્વરછ થઈ ગયું હતું, આરોગ્યજનક હોવાથી પથ્ય રૂપ થઈ ગયું હતું, ઉત્તમ ગુણ-સંપન્ન હોવાથી શ્રેષ્ઠ દેખાતું હતું, શીધ્ર પાચન થાય તેવું હોવાથી વજનમાં તે ખૂબ જ હલકું થઈ ગયું હતું પાણીના વર્ણ ગંધ, રસ અને સ્પર્શ આ બધા ગુણે પ્રશસ્ત શ્રેષ્ઠ રૂપમાં પરિણુત થઈ ગયા હતા. તે આસ્વાદની ય થઈ ગયું હતું યાવત બધી ઇન્દ્રિયને તેમજ શરીર તૃપ્ત કરનાર બની ગયું હતું
(तएणं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता करयलंसि आसादेइ, आसादित्ता तं उदगरयणं वण्णेणं उबवेयं ४ आसायणिज्जे जाव सव्विदियगाय पल्हायणिज्जं जाणित्ता हतुढे बहूहिं उदगसंभारणिज्जेहिं
For Private And Personal Use Only
Page #765
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १२ स्वातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः महादनीयं ज्ञात्वा हृष्ट-तुष्टः बहुभिः । उदगसंभारणिज्जेहिं ' उदकसंभारणीयैःजलसुगन्धकरणयोग्यैः केतकीपाटलादिद्रव्यैः ' संभारेइ ' संभारयति = संस्कार पति संभारयित्वा जितशत्रोः राज्ञः 'पाणियघरयं' पानीयहारकं यस्य हस्ताद्वारा पानीयं पिबति तं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-त्वं च खलु हे देवानुप्रिय ! इदमुदकरत्नं गृहाण, गृहीत्वा जितशत्रोः राज्ञो भोजनवेलायाम् उपनय । ततः खलु पानीयहारकः सुबुद्धिकस्य = सुबुद्धिनामकामात्यस्य एतमर्थ-राज्ञः पानीयउदगसंभारणिज्जेहिं संभारेइ संभारित्ता जियसत्तूम्स रणगो पाणिय. घरियं सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-तुमंच णं देवाणुप्पिया इमं उदगयणं गेण्हाहि २ जियसत्तूस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेज्जासि) इसके बाद वह सुबुद्धि अमात्य जहाँ वह उदक रत्न था वहां गया । वहां जाकर उसने उस उदकरत्न को हाथ में लेकर चखा । चख कर जब उसे यह ज्ञात हो चुका कि यह उदक रत्न वर्णादि से युक्त यावत् सर्वेन्द्रिय गात्र प्रल्हादनीय बन गया है तो वह बहुत ही आनन्दित एवं संतुष्ट हुआ बाद में उसने उस जल को सुगंधित करने वाले केतकी पाटल (गुलाब) आदि द्रव्य से संस्कारित किया-संस्कारित करके फिर उसने जितशत्रु राजा को जो पानी पिलाने वाला भृत्य था उसे बुलाया घुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवाणुप्रिय ! तुम इस उदक रत्न को लो-और लेकर जब जितशत्रु राजा के भोजन करने का समय होवे तब इसे उनके पास ले जाना । (तएणं से पणियपरिय सुबुद्धियसंभारेइ संभारित्ता जियसत्तस्स रण्णो पाणियघरियं सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-तुमं च णं देवाणुप्पिया इमं उदगरयणं गेहाहिर जियसत्तस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेज्जासि)
ત્યારપછી અમાત્ય સુબુદ્ધિ જ્યાં દિકરત્ન (પાણી) હતું ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને તેણે ઉદકરત્ન (પાણી)ને હથેળી ઉપર લઈને ચાખ્યું. ચાખ્યા બાદ તેને એમ લાગ્યું કે ખરેખર આ ઉદકરત્ન (પાણી) વર્ણ વગેરે ગુણોથી યુક્ત યાવતુ બધી ઇન્દ્રિયે અને શરીરને આનંદ પમાડે તેવું થઈ ગયું છે ત્યારે તે ખૂબ જ પ્રસન્ન અને સંતુષ્ટ થયું ત્યાર પછી તેણે પાણીને સુવાસિત કરનારા કેતકી પાટલ (ગુલાબ) વગેરે દ્રવ્યોથી પાણીને સંસ્કારિત કર્યું. પાણીને સંસ્ક રિત કર્યા બાદ અમાત્યે જીતશત્રુ રાજાને પાણી પીવડાવનાર નેકરને બોલાવ્યો અને બોલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! રાજાને જમવાને વખત થાય ત્યારે તુ આ ઉદકરત્ન (પાણી) તેમની પાસે લઈ જજો.
(तएणं से पणियधरिय सुबुद्धियस्स एयमट्ठ पडिमुणेइ, पडिमुणित्ता त
For Private And Personal Use Only
Page #766
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
पानरूपं भावं प्रतिशृणोति = स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य तदुदकरत्नं गृह, गृहीत्वा जितशत्रोः राज्ञो भोजनवेलायाम् उपस्थापयति । सतः खलु स जितश राजा तद् विपुलम् अशनपान - खाद्यं - स्वद्याम् - आस्वादयन् यावद् विहरति । ' जिमियत्तु - तरागए वि' जिमितभुक्तोत्तरागतोऽपि च खलु - जिमितम् = आस्वादितं भुक्तम् उदरपूरणपूर्वकम्, तदुत्तरम् आगतः = स्वोपवेशनस्थाने प्राप्तः कीदृशः सन् ? इत्याह-यावत्-आचान्तः = कृतचुलुकः, अतएव चोक्षः = निर्लेपः स्वच्छः परमशुचिस्स एयमहं पडिसुणेड़, पडिणित्ता तं उद्गरयणं गिन्हाइ, गिव्हित्ता जिनसन्तस्स रण्णो भोयणवेलाए उबडवे तरणं से जियसत्तू राया तं विपुलं असणं ४ आसाएमाणे जाव विहरइ ) इस प्रकार उस पानीय हारक ने सुबुद्धि अमात्य की इस बातको मान लिया और मानकर उस उदकरत्न को श्रेष्ठ निर्मलजल को ले लिया-लेकर उसने उसे जितशत्रु राजा के भोजन करने के समय उपस्थापित कर दिया ताकि वे इस जल को पीवें । इसके बाद जितशत्रु राजो का जय भोजन करने का समय आया तब उसने अशनादि रूप ४ चारों प्रकार का आहार खूब इच्छानुसार किया और उस उदकरत्न को पिया । (जिमिय भुत्तत्तरागए यावियणं जान परमसुइभूए तंसि उदगरयणे जाब विम्हए ते बहवे राईसर जाव एवं वयासी) जब जितशत्रु राजा अच्छी तरह खा पी चुके तब वे अपने उपवेशन के स्थान में बैठक में आये। बैठक में आने के पहिले उन्होंने कुल्ला आदि करके अपने मुख को अच्छी तरह धो लिया था और हाथ वगैरह भी अच्छी तरह प्रक्षालित कर ( धोकर ) उदगरयणं गिन्हाइ गिव्हित्ता, जियसत्तूस्स रण्गो भोयणवेलाए उबवे, तणं से जियसत्तू राया तं विपुलं असणं ४ आसाएमाणे जाव विहरइ )
આ રીતે પાણીવાળા નાકરે સુબુદ્ધિ અમાત્યની વાત સ્વીકારી લીધી અને સ્વીકારીને તે ઉદકરનને-શ્રેષ્ઠ નિળ પાણીને ત્યાંથી લઈને જમવાની વખતે જીતશત્રુ રાજાની સામે તેમને પીવા માટે પદ્માંચાડી દીધું. ત્યાર પછી જ્યારે જીતશત્રુ રાજાના જમવાને વખત થયા ત્યારે રાજા અશન વગેરે રૂપ ચાર જાતના આહા૨ે ખૂબ તૃપ્ત થઈને ઇચ્છા મુજખ જમ્યા અને તે ઉદકરત્ન ( પાણી ) ને પીધું. ( जिमियत्तत्तरागए यावि य णं जाब परमसुइभूए तंसि उदगरयणे जाव farer ते बहवे राईसर जान एवं वयासी )
રાજા જીતશત્રુએ આમ સારી રીતે જમવાનું પતાવી દીધું ત્યારે તે ત્યાંથી પેાતાના ઉપવેશનના સ્થાનમાં એટલે કે બેઠકમાં આત્મ. બેઠકમાં આવતા પહેલાં તેઓએ કાગળા વગેરે કરીને માં અને હાથેાને બે!ઇને સ્વચ્છ બનાવી
For Private And Personal Use Only
Page #767
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणी टी० भ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिष्टान्तः ७११ भूतः परमपवित्रः स राजा तस्मिन् उदकरत्नजातविस्मयः संजातजलस्वादको तुकः तान् बहून् राजेश्वर यावत्-राजेश्वर-तलवर -- माडम्बिककौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठि सेनापतिसार्थवाहप्रभृतीन् एवमवदत्-अहो ! आश्चर्यमेतत् खलु हे देवानुप्रियाः ! इदमुदकरत्नम् अच्छं यावत्-सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयमस्ति । तत, खलु बहवो राजेश्वर यावत्सार्थवह-प्रभृतय एवमवादिषुः-तथैव खलु हे स्वामिन् ! यत् खलु यूयं वदथ यावद् एवमेव सर्वेन्द्रिगात्रप्रहादनीयं वर्त्तते । ततः खलु जितशत्रु लिये थे। इस परम शुचिभूत बनकर अपनी बैठक पर बैठे हुए उन जितशत्रु राजा को उम उदकरत्न के आस्वादन में बड़ा ही आश्चर्य हो रहा था। उसी आश्चर्य में डूबे हुए उन राजा ने अपने पास बैठे हुए राजेश्वर तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाहक आदि जनों से इस प्रकार का (अहोणं देवाणुप्पिया ! इमे उदगरयणे अच्छे जाव सञ्चिदियगाय पल्हायणिज्जे तएणं यहवे राईसर जाव एवं वयासी-तहेव णं सामी ! जण्णं तुम्भे वदह जाव एवं चेव पल्हायणिज्जे तएणं जियसत्तूराया पाणियपरियं सद्दावेइ, सहावित्ता एवं बयासी-एसणं तुब्भे देवाणुप्पिया! उदगरयणे कओ आसाइए?) देवानुप्रियो ! देखो यह उदकरत्न (श्रेष्ठ जल) कितना अच्छा निर्मल यावत् समस्त इन्द्रियों एवं शरीर को आनन्द देनेवाला है। इस प्रकार राजा का कथन सुनकर उन राजेश्वर आदि समस्त जनों ने उस राजा से ऐसा कहा-स्वामिन् आप जैसा कहते है, यह जल દીધાં હતાં. આ પ્રમાણે એકદમ પવિત્ર થઈને પિતાની બેઠકમાં બેઠેલા રાજા જીતશત્રુને જમતી વખતે પીધેલા ઉદકરત્નના આસ્વાદન વિશે ખૂબ જ નવાઈ જેવું લાગતું હતું. ઉદકરત્ન (પાણી) વિશેના નવાઈને વિચારો કરતાં રાજાએ पातानी पासे मेहेन। २२श्वर, तस१२, मांडलि, मि, न्य, श्रेष्ठी, सेनाપતિ અને સાર્થવાહ વગેરે જોને આ પ્રમાણે કહ્યું.
(अहोणं देवाणुप्पिया ! इमे उदगरयणं अच्छे जाव सबिदियगाय पल्हाणिज्जे तएणं वहवे राईसर जाव एवं वयासी तहेव णं सामी ! जणं तुम्मे वदह जाव एवं चेव पल्हायणिज्जे तएणं जियसत्तू राया पाणियधरियं सदावेइ,सदावित्ता एवं वयासी एसणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! उदगरयणे को आसाइए)
वानुप्रियो ! मती मते पीतुं ६४२ (पाणी) तुं मधु નિર્મળ અને બધી ઇન્દ્રિય તેમજ શરીરને આનંદ પમાડનાર છે. આ રીતે રાજાની વાત સાંભળીને રાજેશ્વર વગેરે બધા ઉપસ્થિત લોકોએ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-હે સ્વામિન્ ! તમારી વાત એકદમ યથાર્થ છે. પાણી ખરેખર
For Private And Personal Use Only
Page #768
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७१२ -
शाताधर्मकचासो राजा पानीहारकं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-एतत् खलु त्वं हे देवानुप्रिय! उश्करत्नं प्रधानमुदकं कुतः कस्मात्स्थानात् ' आसाइए' आसादितंभाप्तम् ? । ततः खलु स पानीयहारको जितशत्रुमेवमवादीत्-एतत् ख हे स्वामिन् ! मया उदकरत्नं सुबुद्धरन्तिकादासादितम् । ततः खलु जितशत्रू सुबुद्धिरमात्यं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-अहो ! खलु हे सुबुद्धे । केन कारणेनाहं तवानिष्टः, वैसा ही है-बहुत अधिक स्वच्छ एवं समस्त इन्द्रियों को, शरीर को आनंद दायक है इसके बाद जितशत्रु राजाने पानीयहारक को बुलाया और बुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानु प्रिय ! यह उदक रत्न ( श्रेष्ठ जल )- तुमने कहां से प्राप्त किया है । (तएणं से पाणियघरए जियसत्तू एवं वयासी-एसणं सामी! मए उदगरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसाइए तएणं जियमत्तू सुबुद्धि अमच्च सदावेद सहावित्ता एवं वयासी, अहोणं सुबुद्धी ! केणं कारणेणं अहं तव अणिढे पजेणं तुमं मम कल्ला कल्लि भोयणवेलाए इमं उदगरयणं न उवट्ठवेसि ? तं एसणं तुमे देवाणुप्पिया ! उदगरयणे कओ उवलद्धे ? ) राजाकी इस बात को सुनकर उस पानीयहारक ने उनसे कहा-हे स्वामिन् ! मैंने यह उदक रत्न सुबुद्धि प्रधान के पास से पोया है । इसके बाद जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि प्रधान को बुलाया-बुलाकर उससे इस प्रकार कहा-हे सुबुद्धे ! मैं किस कारण से तुम्हारे लिये अनिष्ट, अकान्त, તેવું જ હતું. તે બહુ જ નિર્મળ અને બધી ઈન્દ્રિયોને તથા શરીરને આનંદ આપનાર હતું. ત્યારપછી જીતશત્રુ રાજાએ પાણીવાળાને બોલાવ્યું અને બેલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! આ ઉદકરત્ન ( શ્રેષ્ઠ પાણી) તમે કયાંથી મેળવ્યું છે ?
(तएणं से पाणियधरए जियसत्तू एवं सुबुद्धिस्स अंतियाओ असाइए तएणं जियसत्तू सुबुद्धि अमच्चं सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी, अहोणं सुबुद्धी ! केणं कारणेणं अहं तव अणिटे पजेणं तुमं मम कल्लाकल्लि भोयणवेलाए इमं उदगरणं न उवट्ठवेसि ! तं एसणं तुमे देवाणुप्पिया! उदगरयणे कओ उवलद्धइ ?)
રાજાની આ વાત સાંભળીને પાણીવાળાએ જવાબમાં રાજાને કહ્યું કે હે સ્વામિન! આ ઉદક રત્ન ( પાણી ) હું સુબુદ્ધિ અમાત્યની પાસેથી લા છું. રાજાએ ત્યાર બાદ સુબુદ્ધિ અમાત્યને બોલાવ્યું અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સુબુદ્ધિ! શા કારણથી હું તમારા માટે અનિષ્ટ, અકાંત,
For Private And Personal Use Only
Page #769
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः ७१३ अकान्तः, अप्रियः, अमनोज्ञः, अमनआमोऽस्मि येन त्वं मम ‘कल्लाकल्लिं' कल्या. कल्यि-प्रतिदिनं भोजनवेलायामिदमुदकरत्नं नोपस्थापयसि, तदेतत् खलु त्वया हे देवानुप्रिय ! उदकरत्नं कुत उपलब्धम् ? । ततः खलु सुबुद्धि जितशत्रुमेवमवादीत-एतत्खलु हे स्वामिन् ! तत् यद् भवद्भिः पूर्वदृष्ट' मेदोवसादिदुर्गन्धयुक्त तदेव परिखोदकं परिखाजलं वर्तते । ततः खलु स जितशत्रुः सुबुद्धिमेवमवदत्केन कारणेन हे सुबुद्धे ! एतत्तत् परिखोदकम् ? । ततः खलु हे स्वामिन् ! यूयं तदा मम एवमाचक्षाणस्य प्रज्ञापयतः, संज्ञापयतः विज्ञापयतः वारंवारं प्रतिपादयत अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमन आम बन रहा हूँ कि जिससे तुम प्रति दिन मेरे लिये भोजन वेला में इस उदक रत्न को उपस्थापित नही करते हो? तो कहो हे देवानुप्रिय ! यह उदक रत्न तुमने कहां से पाया है ? (तएग सुवृद्धी जियसत्तू एवं वयासी एसणं सामी ! से फरि होदए, तएण से जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी-केण कारणेणं सुबुद्धी! एससे फरिहोदए? नएणं सुबुद्धीजियसत्तूं एवं वसासीएवं-खलु सामी ! तुम्हे तया मम एवमाइक्खमाणम्स ४ एयमढे नो सद्दहह, तएण मम इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था ) तब सुषुद्धि प्रधानने जितशत्रु रजा से कहा-हे स्वामिन् ! यह उदक रत्न वही परिखोदक है । जितशत्रु ने कहा यह परिखोदक किप्त कारण से ऐसा उदक रत्न बन गया है। सुबुद्धि अमात्य ने तब ऐसा कहा- हे स्वामिन् ! जब मैंने आपसे इस प्रकार कहा था इस प्रकार प्ररूपित किया था, इस प्रकार संज्ञापित किया था, विज्ञापित किया था- बार बार आपसे प्रतिपादित किया था
અપ્રિય, અમનેજ્ઞ અને અમને આમ થઈ પડયો છું. કેમ કે હંમેશા જમવાના વખતે મારા માટે આજના જેવું ઉદક રત્ન ( સારું પાણી ) તમે ઉપસ્થાપિત કરતા નથી–મૂકાવડાવતા નથી. ? હે દેવાનુપ્રિય ! બેલે, આવું ઉદક રત્ન તમેએ ક્યાંથી મેળવ્યું છે?
(तएणं सुबुद्धी जियसत्तं एवं क्यासी एसणं सामी ! से फरिहोदए, तरणं से जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी-केणं कारणेणं सुबुद्धी एस से फरिहोदए ? तएणं सुबुद्धी जियसत्तू एवं वयासी-एवं खलु सामी ! तुम्हे तया मम एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमद्वं नो सहहह, तएणं मम इमेयारूवे अज्झस्थिए समुपज्जित्था)
ત્યારે સુબુદ્ધિ પ્રધાને જીતશત્રુ રાજાને કહ્યું કે હે સ્વામી ! આ ઉદકરત્ન (સારું પાણી) તે જ ખાઈનું પાણી છે. રાજાએ અમાત્યને ફરી પૂછયું કે ખાઈનું પાણી આવું સરસ કેવી રીતે થઈ ગયું ? જવાબમાં સુબુદ્ધિ અમાત્ય કહ્યું કે હે સ્વામિન! પહેલાં મેં તમારી સામે આ પ્રમાણે પ્રરૂપિત કર્યું હતું, આ પ્રમાણે સંજ્ઞાપિત કર્યું હતું, વિજ્ઞાપિત કર્યું હતું, વારંવાર પ્રતિપાદિત
शा ९०
For Private And Personal Use Only
Page #770
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७१४
বাগমকথা इत्यर्थः एतम्=पुद्गलानां शुभाशुभरूपेण परिवर्तनलक्षणम् अर्थम् भावं नो श्रद्धत्थस्म-मद्वाक्योपरिश्रद्धां नो कृतवन्तः, ततः तदा खलु मम अयमेतद्रूपःवक्ष्यमाणः-आध्यात्मिकः, चिन्तितः, कल्पितः, पार्थितः, मनोगतः संकल्पः नानाविधो मानसिको विकल्पः इत्यर्थः समुदपद्यत-अहो ! खलु जितशत्रू राजा सतो यावद् भावान् नो श्रद्धाति नो प्रत्येति नो रोचयति तत् श्रेयः खलु मम जितशत्रोः राज्ञः सतां यावत् सद्भूतानां जिनपज्ञप्तानां भावानाम् अभिगमनार्थाय-अवबोधाय एतमर्थम् ' उवाइणावेत्तए '-उपादाययितुं ग्राहयितुं श्रेयइति पूर्वेण सम्बन्धः, एवं संपेक्षे-अहं पालोचितवान् , संप्रेक्ष्य तदेव यावत् पानीयकि पुद्गलों का शुभा शुभ रूपसे परिणमन होता रहता है- नाना रूप से उनका परिवर्तन होता रहता है यह परिवर्तन होना उनका स्वाभाविक लक्षण है परन्तु जब आपने उस भाव को श्रद्धा में परिणत नहीं किया-मेरे वचनों पर आपको विश्वास नहीं जमा तब मुझे इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, कल्पित, प्रार्थित, मनोगत नाना प्रकार को विचार उत्पन्न हुआ (अहोणं जियसत्तू संते जाव भावे नो सहहह, न. पत्तियाइ, रोएइ, तं से यं खलु मम जियसत्तुस्स रण्णो संताण जोव सन्भूयाण जिणपन्नत्ताण भावाण अभिगमणट्टयाए एयमढे उवाइ णावेत्तए ) देखो यह कितने आश्चर्य की बात है कि जो जितशत्रु राजा सद्भूत विद्यमान यावत् जिन प्रज्ञप्त भावों को अपनी श्रद्धा का विषय भूत नही बना रहे हैं उन पर प्रतीति नहीं कर रहे हैं, उन पर अपनी रूचि नही जमा रहे हैं । इसलिये मुझे यह उचित है कि मैं जितशत्रु કર્યું હતું કે શુભાશુભ રૂપમાં પુદ્ગલેનું પરિણમન થતું જ રહે છે. અનેક રૂપમાં તેઓમાં પરિવર્તન થતું જ રહે છે. આવું પરિવર્તન તેઓનું એક સ્વાભાવિક લક્ષણ છે. પણ જ્યારે તમે મારી આ વાત શ્રદ્ધાપૂર્વક સાંભળી નહિ, મારા કથન ઉપર વિશ્વાસ કર્યો નહિ, ત્યારે મારા મનમાં આ જાતના આધ્યાત્મિક, ચિંતિત, કલ્પિત, પ્રાર્થિત મને ગત ઘણું વિચારો ઉત્પન્ન થયા કે–
(अहोणं जियसत्तू संते जाव भावे नो सहइ, नो पत्तियाइ, नो रोएइ, तं सेयं खलु ममं जियसत्तूरस रण्णो संताणं जाव सम्भूयाणं जिणपन्नत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एपमढे उवाइणावेत्तए)
જુઓ આ કેવી આશ્ચર્યની વાત છે કે જીતશત્રુ રાજા સદ્દભૂત વિદ્યમાન યાવતુ જીન પ્રજ્ઞસના ભાવ ઉપર શ્રદ્ધા ધરાવતા નથી, તેમના ઉપર વિશ્વાસ મૂકતા નથી અને પિતાની રૂચિ પણ તેમના પ્રત્યે જમાવતા નથી. એટલે મારે હવે જીતશત્રુ રાજાને સદૂભૂત વિદ્યમાન થાવત જનપ્રતિભાને બેધ આપવા
For Private And Personal Use Only
Page #771
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टोका अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः ७१५ हारकं शब्दयति, शब्दयित्वा एवं वदामि-त्वं खलु हे देवानुपिय ! उदकरत्नं जित. शत्रो राज्ञो भोजनवेलायामुपनय तदेतेन कारणेन हे स्वामिन् । एतत्तत्तदेव यद्भ वद्भिः दृष्टपूर्व परिखोदकम् । ततः खलु जितशत्रू राजा सुबुद्धेरमात्यस्य एवमाच. क्षाणस्य ४ एतमर्थम्-' इदमेतदेव परिखोदकम् ' इत्येवं रूपं भावं नो श्रद्दधाति. राजा को सद्भूत विद्यमान- यावत् जिन प्रज्ञप्त भावों का बोध कराने के लिये और उनसे इन्हें ये ऐसे ही हैं, इस रूप से मनवाने के लिये ऐसा प्रयत्न करूँ कि जिससे उनकी श्रद्धा आदि उन पर जम जावे और वे इस बात को मानने लग जावे । ( एवं संपेहेमि २ नंचेव जाव पाणिय घरियं सद्दावेमि सदावित्ता एवं वयासी तुमणं देवाणुप्पिया ! उदगरयण जियसत्तुस्स रण्णा भोयणवेलाए उवणेहि, तं एएणं कारणेणं सामी ! एस से फरिहोदए ! तरणं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्म ४ एयमटुं नो सद्दहइ ३) ऐसा मैंने विचार किया विचार करके फिर मैंने पानीयहारक को बुलाया- बुलाकर उस से ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम इस उदक रत्न को जितशत्रु राजा के भोजन के समय पर ले जाना। इस कारण से हे स्वामिन् । जो आपने पहिले परिखोदक देखा था-वही यह परिखोदक है-और इस रूप में परिणत हो गया है। जितशत्रु राजा ने इस प्रकार कहने वाले ४ सुषुद्धि अमात्य के इस अर्थ को कि यह वही परिखोदक है अपनी श्रद्धा का विषय नहीं बनाया प्रतीति का विषय नही बनाया, अपनी માટે અને એ ભાવે ખરેખર એવા છે, એવું ઠસાવવા માટે પ્રયત્ન કરવા જોઈએ જેથી તેઓને આ ભાવો ઉપર સંપૂર્ણપણે વિશ્વાસ બેસી જાય અને તેઓ આ વાતને સરકાર પણ કરે.
(एवं संपेहेमि २ तं चेय जाव पाणियपरियं सदावेमि सदावित्ता एवं वयासी तुमंणं देवाणुप्पिया! उदगरयणं जियसत्तूम्स रगो भोयणवेलाए उवणेहि तं एएणं कारणेणं सामी ! एस से फरिहोदए । तएणं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अ. मच्चस्स एवमाइक्खमाणस ४ एवमटुं नो सद्दहइ ३)
આ પ્રમાણે મેં વિચાર કર્યો. વિચાર કરીને મેં પાછું લાવનારને બેલા અને બોલાવીને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે આ ઉદયરત્ન (સારા પાણી ને જીતશત્રુ રાજા જયારે જમવા માટે બેસે ત્યારે લઈ જજે. એટલા માટે છે સ્વામી! તમે પહેલાં ખાઈનું જે પાણું જોયું છે તે જ આ પાણી છે અને આ તે તે પાણીનું જ રૂપાંતર છે. સુબુદ્ધિ અમાત્યની આ વાત પર–કે આ પાણી તે જ ખાઈનું છે. રાજા જીતશત્રુને વિશ્વાસ થયો નહિ. રાજાએ અમાત્યની વાત
For Private And Personal Use Only
Page #772
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शीताधर्मकथाजस्त्र नो प्रत्येति, नो रोचयति, अश्रदधानः, अप्रतियन् , आरोचमानः, 'अब्भंतरठाणिज्जे ' अभ्यन्तर स्थानीयान् स्वसमीपस्थितान् पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रिय ! — अंतरावणाओ' अन्तरापणात्ग्राममध्यस्थित कुम्भकारहट्टात् नवघटकान् — पडए य' पटकांश्च जलगालनवस्त्रखण्डान् गृह्णीत यावद् उदकसंभारणीयैः उदकसंस्कारयोग्यैः द्रव्यैः संभारयतरूचिका विषय नहीं बनाया (असद्दहमाणे ३ ) इस प्रकार श्रद्धा रहित रुचि रहित, प्रतीति रहित बने हुए राजा जितशत्रुने (अभितरठाणिज्जे पुरिसे सहावेइ ) अपने पास में सदा रहने वाले पुरुषों को बुलाया (स. हावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा- ( गच्छहण तुब्भे देवाणुप्पिया । अंतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हह, जाव उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेह ते वि तहेव संभारेंति, संभारित्ता जियसत्तूस्स उवणेति, उवणित्ता तएणं जियसत्तू राया तं उदकरयणं करयलंसि आसाएइ, आसायणिज्जं जाव सबिदियगाय पल्हायणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी ) हे देवानुप्रियों ! तुम जाओ और पाजोर से नवीन घडों को एवं जल छान ने के लिये वस्त्रों के खंडों को छन्नों को-ले आओ। यहां अन्तरापण का अर्थ "ग्राम के मध्य में स्थित कुम्हारों का हाट या सामान्य बाजार है। ऐसा ही अर्थ इस शब्द का पहिले किया गया है । यावत् उदक संस्कार योग्य द्रव्यों से ઉપર ન તો પ્રતીતિ પણ થઈ અને ન તે પ્રત્યે પિતાની અભિરુચિ બતાવી. ( असद्दहमाणे ३) सादी श्रद्धा, सथि मने प्रतीति २डित थये। रात
तशत्रुमे (अभितरठाणिज्जे पुरिसे सदा वेइ) हमेशा यावीसे साचातानी पासे २डना। माणसाने माता-या (सद्दावित्ता एवं वयासी) मालावीन તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું.
(गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! अंतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हइ जाव उदग संभारणिज्जेहिं दव्वेहि संभारेह ते वि तहेव संभारेंति, संभारित्ता जियसत्तस्स उवणे ति, उवाणित्ता तएणं जियसत्तराया तं उदकरयणं करयलंसी आसाएइ आसायणिज्जं जाव सबिदियगायपल्हायणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धि अमच्चं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी)
હે દેવાનપ્રિયે ! તમે બજારમાં જાઓ અને ત્યાંથી નવાં માટલાઓ તેમજ પાણી ગાળવા માટે વસ્ત્રોના કકડા ખરીદી લાવે. “અન્તરાયણને અર્થ ગામની વચ્ચેનું કુંભારોનું બજાર કે સમાન્ય બજાર છે. પહેલાં પણ આ શબ્દને અર્થ આ પ્રમાણે જ કરવામાં આવ્યા છે. ત્યારબાદ પાણીને સ્વચ્છ બનાવવા
For Private And Personal Use Only
Page #773
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः
संस्कुरुत । तेऽपि तथैव संभारयंति, संभार्य जितशत्रोः ' उवर्णेति ' उपनयन्ति = समीपमानयन्ति । ततः खलु शितशत्रू राजा तदुदकरत्नं करतले आस्वादयति, आस्वादनीयं यावत् सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीयं तदुदकं ज्ञात्वा सुबुद्धिममात्यं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत् - हे सुद्धे ! एते खलु स्वया सन्तः = विद्यमानाः 'जाव' यावत् सद्भूताः भावाः कुत उपलब्धाः ? । ततः खलु सुबुद्धिजितश मेत्रमवदत् - एते खलु हे स्वामिन् ! मया सन्तः यावत् सद्भूता भावा: जिनवचनत उपलब्धाः फिर उसे संस्कारित करो। इस पाठ को समुचित रूप से समन्वित करने के लिये जैसा पीछे लिखा गया है वैसा ही संबन्ध यहां जान लेना चाहिये । राजा की आज्ञानुसार उन लोगों ने वैसा ही किया । संस्कारित करके फिर वे लोग उसे जितशत्रु राजा के पास ले गये । जितशत्रु राजा ने उस संस्कारित उदक को अपनी हथेली पर रक्खा - और उसे चखा- जब चख कर उसे यह विश्वास हो गया कि यह जल आस्वादनीय एवं सर्वेन्द्रिय- गात्र प्रह्लादनीय वन गया है तब उस ने सुबुद्धि अमात्य को बुलवाया। बुलवा कर उस से ऐसा कहा - ( सुबुद्धी ! एएणं तु संता जाव सन्भूया भावा कओ उवलद्धा तणं सुबुद्धी जियसत्तू एवं वयासी- एएणं सामी मए संता जाव सम्भूया भावा जिणवयणाओ उवलद्धा, एएणं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी- तं इच्छामिणं देवाणुपिया ! तव अंतिए जिणवयणं निसामेत्तए) सुबुद्धे ! ये विद्यमान यावत् सद्भूत भाव तुमने कहां से उपलब्ध किये है ? तब सुबुद्धि ने માટેના બધા ઉપાયો તેમજ દ્રવ્યેાથી પાણીને નિળ ખાવા. પહેલાંની જેમજ અહીં પણ આગળની બધી વિગત જાણી લેવી જોઇએ. તે લોકોએ રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે જ બધું કામ પૂરૂં કર્યું. પાણી જ્યારે નિર્મળ થઈ ગયું. ત્યારે તે લેાકેા પાણીનાં માટલાંઓને રાજાની સામે લઈ આવ્યા. રાજાએ અનેક સંસ્કાર વડે નિળ અનાવેલા પાણીને હથેળી ઉપર લીધું અને તેને ચાખ્યુ. ચાખ્યા બાદ રાજાને આ પ્રમાણે વિશ્વાસ થઇ ગયા કે ખરેખર આ પાણી આસ્વાદનીય અને સવેન્દ્રિય- ગાત્ર-પ્રહાદનીય થઈ ગયું છે ત્યારે તેણે સુબુદ્ધિ અમાત્યને લાવ્યે. અને ખેલાવીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું.
ففف
For Private And Personal Use Only
सुबुद्धी ! एवं तुमे संता जाव सन्भूया भावा कओ उवलद्धा तरणं सुबुद्धी जियसत्तं एवं वयासी एएणं सामी मए संता जाव सन्भूया भावा जिणवयणाओ उवलद्धा एएणं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी तं इच्छामि देवाणुपिया ! तब अंतिर जिणवयणं निसामेत्तए )
હું સુબુધ્ધે ! એ વિદ્યમાન યાવત્ અદ્દભૂત ભાવા તમે કયાંથી મેળવ્યા
Page #774
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ટ
शाताधर्मकथासूत्रे
=
" यथा=
ततः खलु जितशत्रुः सुबुद्धिमेवमवदत् - तद् इच्छामि खलु हे देवानुप्रिय ! तत्रान्तिके जिनवचनं ' निसामेत्तए ' निशामयितुं श्रोतुम् । ततः खलु सुबुद्धिजितशत्रोर्विचित्र = अद्भुतं पूर्वमश्रुतं केवलिप्रज्ञप्तं = जिनभाषितं धर्मे = श्रुतचारित्रलक्षणं परिकथयति, ' तमाइक्खड़ ' तमाख्याति तदेव प्रतिपादयति- ' जहा ग्रेन - कर्मसंयोगेन जीवा वध्यन्ते येन च मुच्यन्ते यावत् पञ्चाणुत्रतानि । ततः खल जितशत्रुः सुबुद्धेरन्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य = हृदिसमवधार्य हृष्टतुष्टचित्तानजितशत्रु राजो से इस प्रकार कहा - हे स्वामिन्! ये विद्यमान यावत् सद्भूत भाव मैंने जिन प्रवचन से उपलब्ध किये हैं । जितशत्रु ने तब सुबुद्धि अमात्य से कहा - हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे पास जिन प्रवचन को सुनना चाहता हूँ। (तएणं सुबुद्धी जियसत्तूस्स विचित्त केवलीपन्नत्तं चाज्जामं धम्मं परिकहेइ, तमाइक्खड़, जहा जीवा वज्झं ति जाव पंच अणुव्वयाई, तरणं जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठ० सुबुद्धि अमच्च एवं वयासी) सुबुद्धि प्रधान ने तब जितशत्रु राज को पूर्व में कभी नहीं सुना गया ऐसा केवल प्रज्ञप्तसर्वज्ञ जिनेन्द्रद्वारा प्रतिपादित चातुर्याम वाला श्रुतचारित्र रूप धर्म सुनाया । उसे ही विस्तार रूप से उन्हें समझाया। जीव जिस प्रकार कर्मों से बंधते हैं, और जिस प्रकार कर्मों से मुक्त होते हैं छूटते हैं यह सुनाया समझाया यावत् आवक धर्मरूप पंचम अणुव्रतों को समझाया इस तरह जितशत्रु राजा सुबुद्धि अमात्य के मुख से धर्म का व्याख्यान
છે ? જવાબમાં સુબુદ્ધિએ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામી! એ વિદ્યમાન યાવત્ અદ્દભૂત ભાવ મેં જિન પ્રવચન માંથી મેળવ્યા છે. ત્યારે જીતશત્રુએ સુબુદ્ધિ અમાત્યને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમારી પાસે હું જીનપ્રવચન સાંભળવાની ઈચ્છા રાખું છું.
(तरणं सुबुद्धी जियसत्तस्स विचित्तं केवलिपन्नत्तं चाना धम्मं परिकहे ताइक्व, जहा जीवा वज्झति जात्र पंच अणुव्वयाई, तरणं जियसत्तू सुबुद्धिस अंतिर धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ठ० सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी )
સુબુદ્ધિ પ્રધાને જીતશત્રુ રાજાને પહેલાં કોઇપણ વખતે સાંભળેલા નહિ એવા કેવળી પ્રજ્ઞા-સર્વજ્ઞ જીનેન્દ્ર વડે પ્રતિપાદિત થતુયમવાળા શ્રુત-ચારિત્ર રૂપ ધર્મ સંભળાવ્યા. અને સવિસ્તર તેને સમજાયે. જે પ્રમાણે જીવ કર્યાં વડે મધાય છે અને જે પ્રમાણે કર્મોથી મુક્ત થાય છે તે વિશેની બધી વિગત કહી સંભળાવી અને સમજાવી યાવત્ શ્રાવક ધમ રૂપ પાંચ અણુવ્રતાને સમ જાવ્યા. આ રીતે જીતશત્રુ રાજા સુબુદ્ધિ અમાત્યના મુખેથી ધર્મનું વ્યાખ્યાન
For Private And Personal Use Only
Page #775
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोक्कविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः
७१९
न्दितः हर्षवशविसर्पद्] हृदयः सुबुद्धिममात्यमेवमवादीत् श्रद्दधामि खल हे देवानुमिय ! नैर्ग्रन्थ्यं प्रवचनं 'तथ्यमेतत् ' इत्यादि यावत् तद् यथैव यद् यूयं वदथ, तत्तस्मात्कारणात् इच्छामि खलु तवान्तिके पञ्चाणुत्रतिकं सप्तशिक्षावतिकं यावद् एवं द्वादशविधं श्रावकधर्मम् ' उपसंपज्जित्ता' उपसम्पद्य = स्वीकृत्य विहर्तुम् | यथासुखं हे देवानुप्रिय ! हे राजन् ! यदि रोचते तदा एवमेव कुरु तत्र माम
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सुनकर और उसे हृदय में अवधारित कर बहुत ही अधिक प्रसन्न एवं तुष्ट हुए । हर्ष से गद्गद होकर उन्होंने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार काहा - ( सद्दहामि णं देवाणुप्पिया ! निग्गंथं पावयणं ३ जाव से जहेव जं तुन्भे वग्रह, तं इच्छामि णं तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं जाव उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, अहामुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंधं० तएण से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव दुवालसविहं सावयधम्मं पडिवज्जइ, तरणं जियसत्त समणो वासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभे माणे विहरह) हे देवानुप्रिय ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता इस पर रुचि करता हूँ यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वथा सत्य है इत्यादि यावत् जैसा तुम कहते हो वह वैसा ही है । इस लिये मैं तुम्हारे पास पञ्च अणुव्रत सात शिक्षोत्रत रूप द्वादश विध श्रावक धर्म को स्वीकार करना चाहता हूँ । इस प्रकार राजा की बात सुनकर सुबुद्धि अमात्य ने उससे कहा- हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जिस प्रकार सुख ह-वैसा करो प्रमाद न करो शुभ कर्म में
સાંભળીને એને તેને શરીરમાં અવધારિત કરીને ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ તુષ્ટ થયા. હર્ષોંથી ગળગળા થઇને તેણે સુબુદ્ધિ અમાત્યને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-
( सद्दद्दामिण देवाणुपिया ! निग्गंथं पावयणं ३ जाव से जहेवं जं तुब्भे वयह तं इच्छामि णं तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरत्तए अद्दासुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंधं तरणं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव दुवालसविहं सावयधम्मं पडिवज्जइ तरणं जियसत्त समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिला भेमाणे विहरs )
હે દેવાનુપ્રિય ! આ નિગ્રંથ પ્રવચનમાં હું શ્રદ્ધા રાખું છું, આમાં હું રુચિ રાખું છું. આ નિગ્ર'થ પ્રવચન ખરેખર સત્ય વગેરે જેવું તમે કહા છે. તેવું જ આ નિથ પ્રવચન છે. એથી હું તમારી પાસેથી પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષા વ્રત રૂપ ભાર ( ૧૨ ) પ્રકારના શ્રાવક ધમ સ્વીકારવા ચાહુ છું. આ રીતે રાજાની વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ અમાત્યે તેને કહ્યું-હૈ દેવાનુપ્રિય ! તમને જેમ ગમે તેમ કરે.. પ્રમાદ કરેા નહિ, સારા કામમાં માડુ' કરવું ચાગ્ય
*
0
For Private And Personal Use Only
Page #776
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७२०
शाताधर्मकथासूत्र तिबन्धं कुरु-शुभकार्ये विलम्बो न करणीयइत्यर्थः । ततःखलु स जितशत्रुः सुबुद्धेरमात्यस्यान्ति के पश्चाणुव्रतिकं यावद् द्वादशविधं श्रावकधर्म प्रतिपद्यते । ततः खलु नितशत्रुः श्रमणोपासकः 'अभिगयजीवाजी' अभिगतजीवाजीव परिज्ञातजीवाजीवस्वरूपः यावत् प्रामुकैपणी यैरशनादिभिः श्रमणनिर्ग्रन्थान् प्रतिलाभयन्
आहारादि ददन विहरति-तिष्ठतिस्म । तस्मिन् काले जितशत्रुराज्यशासनकाले तस्मिन् समये-श्रावकधर्मपतिपालनसमये 'थेरागमणं' स्थविरागमनं स्थविरमुविलम्ब करना योग्य नही है-इस तरह सुबुद्धि अमात्य के मुख से सुनकर जिनशत्रु राजा ने उस सुबुद्धि अमात्य से पांच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रत रुप द्वादश प्रकार का गृहस्थ धर्म स्वीकार कर लिया। इस तरह वे जितशत्रु राजा श्रमणोपासक बन गये। और जीव एवं अजीव तत्त्व के स्वरूप ज्ञातो भी हो गये। प्रसुक एषणीय आहरादि श्रमण निर्ग्रन्थ साधुओं के लिये प्रदान करने लगे। (तणं कालेण तेण समएण थेरागमणं जियसत्तू राया सुबुद्धी य निग्गच्छइ, सुबुद्धी धम्म सोच्चा जं नवरं जियसत्तू आपुच्छामि जाव पव्वयामि, आहासुहं देवाणुप्पिया! तएणं सुबुद्धी जेणेव जियसत्तू तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता, एवं वयासी-एवं खलु सामी ! मए थेराण अंतिए धम्मे निसंते, से वि य, धम्मे इच्छिए पडिच्छिए,अभिरुइए, तएणं अहं सामी ! सं. सारभउन्विग्गे भीए जाव इच्छामिण तुम्भेहिं अन्भणुनाए स० जाव पवइत्तए) उस काल जितशत्रु राजा के राज्यशासन काल में-उस सલેખાય નહિ. આ રીતે સુબુદ્ધિ અમાત્યના મુખેથી વાત સાંભળીને જીતશત્રુ રાજાએ તે સુબુદ્ધિ અમાત્ય પાસેથી પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રત ૩૫ બાર પ્રકારને ગૃહસ્થ ધર્મ સ્વીકારી લીધું. આ પ્રમાણે તે જીતશત્રુ રાજા શ્રમ પાસક થઈ ગયા અને જીવ તેમજ અજીવ તત્વનો સ્વરૂપને સમજનારા પણ થઈ ગયા પ્રાસુક એષણીય આહાર વગેરે શ્રમણ નિગ્રંથ સાધુઓને આપવા લાગ્યા
( तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं जियसत्तूराया सुबुद्धी य निगच्छइ, सुबुद्धी धम्म सोच्चा जं नवरं जियसत्तू आपुच्छामि जाव पन्चयामि अहासुहं देवा. णुप्पिया ! तएणं सुबुद्धी जेणेव जियसत्तू तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं वयासी एवं खलु, सामी मए थेराणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य धम्मे इच्छिए पडिच्छए, अभिरुइए, तएणं अहं सामी ! संसारभउबिग्गे भीए जाव इच्छामि णं अब्भणुनाए स० जाव पब्वइत्तए)
તે કાળે અને તે સમયે એટલે કે જીતશત્રુ રાજા જયારે શાસન કરતા
For Private And Personal Use Only
Page #777
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी ढोका म० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः
७२१
,
नीनां समवसरणं जातम् । जितशत्रु राजा सुबुद्धिरमात्यश्च निर्गच्छति = धमश्रवणार्थ ग्रामान्दहिर्निस्सरति सुबुद्धिः धर्मश्रुत्वा ' अन्यत्सर्वं पूर्ववत्, नवरं = विशेषस्त्वयम् यत् जितशत्रुं राजानमापृच्छामि यावत् - युष्माकं समीपे प्रव्रजामि दीक्षां ग्रहिष्यामीत्यर्थः । स्थविराजचुः - यथासुखं हे देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धं कुरु । ततः खलु सुबुद्धि यंत्र जितशत्रुस्तत्रैवो पागच्छति, उपागस्य एवमवादीत् एवं खलु हे स्वामिन् ! जितशत्रो ! मया स्थविराणामन्तिके धर्मः निशान्तः श्रुतः सोऽपिच धर्मोमे ' इच्छिए ' इटः = वाञ्छितः, 'पडिच्छिए ' प्रतीष्टः = विशेषतो वाञ्छितः, ' अभिरुइए ' अभिरुचितः= आसेवनरूपेण सर्वथा वाञ्छितः । ततः खलु तस्मात् कारणात् अहं हे स्वामिन् ! संसार भउग्विग्गे' संसारभयोद्विग्नः - संसारभयत्रस्तः मय में और उनके श्रावक धर्म के पालन करने के समय में- स्थविर मुनियों का वहां आगमन हुआ । जितशत्रु राजा और सुबुद्धि अमात्य धर्म श्रवण के लिये अपने अपने २ स्थान से निकल कर उनके समीप आये । सुबुद्धि ने धर्म का उपदेश सुनकर स्थविर मुनियों से निवेदन किया- भदंत ! मैं जितशत्रु राजा से पूछकर यावत् आपके पास ओकर मुनिदीक्षा धारण करना चाहता हूँ । स्थविरों ने सुबुद्धि अमात्य का अभिप्राय जानकर उससे कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम्हे जिससे सुख हो बैसा करो - श्रेयस्कर कार्य में विलम्ब करना हितावह नहीं है । इस तरह सुबुद्धि वहां से आकर जहां जितशत्रु राजा थे वहां आया वहां आकर कहा - स्वामिन् ! मैंने स्थविर मुनिजनों के मुख से धर्म का उपदेश सुना है । वह मुझे बहुत ही रुचा है, मेरी इच्छा का विषय भूत बन गया है, मेरी चाहना उस तरफ विशेष रूप से बढ़ गई है। में चाहता कि में
હતા તે કાળે અને તેએ જ્યારે શ્રાવક ધર્મનું પાલન કરતા હતા તે સમયે ત્યાં સ્થવિર મુનિએ આવ્યા. જીતશત્રુ રાજા અને સુબુદ્ધિ અમાત્ય ધર્મ શ્રવણુ માટે પાતપેાતાને ત્યાંથી નીકળીને તેમની પાસે પહોંચ્યા. ધર્મના ઉપદેશ સાંભ ળીને સુબુદ્ધિએ મુનિએ ને વિનંતી કરી કે હે ભદંત, જીતશત્રુ રાજાની આજ્ઞા મેળવીને તેમજ બીજી પણ ઘણી વ્યવસ્થાએ વગેરે કરીને તમારી પાસે આવીને મુનિ દીક્ષા ધારણ કરવા ચાહુ છું. સ્થવિરાએ સુબુદ્ધિ અમાત્યના વિચારો જાણીને કહ્યું કે હું દેવ તુપ્રિય ! તમને જેમાં સુખ મળતું હોય તેમ કરો. સારાં કામામાં મેડુ’ કરવું ચેાગ્ય કહેવાય નહિ. આ રીતે આજ્ઞા મેળવીને સુબુદ્ધિ ત્યાંથી આવીને જીત ત્રુ રાજાની પાસે પહેાંચ્યા અને તેણે રાજાને વિનંતી કરતાં કહ્યું કે હૈ સ્વામી ! સ્થવિર મુનિઓના માંથી મે ધર્મના ઉપદેશ સાંભળ્યેા છે તે મને ખૂબ જ ગમી ગયા છે. મારી ઈચ્છા તે તરફ આકર્ષાઈ છે. વિશેષ રૂપમાં હું તેને ચાહવા લાગ્યા છું. મારી ઇચ્છા છે કે સંયમ ધારણ કરીને પોતાનું જીવન
९९
For Private And Personal Use Only
Page #778
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७२२
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
(
भीए ' भीतः जन्ममरणादि दुःखेभ्यो भयं प्राप्तः, अतएव यावद् इच्छामि खलु युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् यावत् स्थविराणामन्तिके प्रत्रजितुम् । ततः खलु जितशत्रः सुबुद्धिमेवमवादीत् -'अच्छा' तिष्ठेन वयं तावद् गृहे हे देवानुप्रिय ! कतिपयानि वर्षाणि उदारान् यावत् - मानुष्यकान् कामभोगान् भुञ्जानाः सन्तः, ततः पश्चात् = तदनन्तरं शब्दादिविषयोयभोगानन्तरम् ' एगयओ ' एकतः सार्द्धम् स्थविराणामन्तिके मुण्डो सूला यावत् मत्रजिष्यामः । ततः खलु सुबुद्धिर्जितशत्रोरेतमर्थ = पथादीक्षाग्रहणरूपं भावं प्रतिशृणोति स्वीकरोति । ततः खलु तस्य जितः शत्रोः सुबुद्धिना सार्द्धं विपुलान् मानुष्यकान् भोगभोगान् प्रत्यनुभवतो द्वादश संयम धारण कर अपने जीवन को सफल बनाऊँ ! इस लिये हे स्वामिन् ! संसार भय से उद्विग्न बना हुआ में जन्म मरण के दुखो से भय भीत होकर चाहता हूँ कि आपसे आज्ञापित हो स्थविरो के पास दीक्षा धारण करलू । (तएर्ण जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी अच्छामु ताव देवाणुकइवयाइति वासाई उरालाई जाब भुंजमाणातओ पच्छा एगयओ थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वहस्सामो) अमात्य कि इस बात को सुनकर जितशत्रु राजाने उस सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहो । देवानुप्रिय ! हम लोग कुछ वर्षों तक मनुष्य भव संवन्धी प्रचुर काम भोगों को भोगते हुए अभी घर पर ही रहें। इस के बाद एक साथ स्थविरों के पास मुण्डित होकर यावन फिर दीक्षित हो जायेंगे । (तएण सुबुद्धी ज्यसत्तूस्स, एयमहं पडिसणेह, तरणं तस्स जियसत्तू स्स, सुबुद्धिणा सद्धिं विपुलाई, माणुस्स० पच्चणुन्भुवमाणस्स दुवाल સફળ અનાવવું, માટે હે સ્વામી ! સ`સાર ભયથી ઉદ્વિગ્ન તેમજ જન્મ મરણુના દુઃખાથી ભય પામેલા હું તમારી આજ્ઞા મેળવીને સ્થવિશ્વની પાસેથી દીક્ષા મેળવવાની ઇચ્છા રાખુ છુ.
(aणं जियसत्तू सुबुद्धि एवं व्यासी- अच्छा ताव, देवाणुपिया ! कवयाइंति वासाइ उरालाई जात्र भुंजमाणा तओ पच्छा एगयओ थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वसामो )
અમાત્યની એ વાત સાંભળીને જીતશત્રુ રાજાએ તે સુબુદ્ધિ અમાત્યને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! મનુષ્યભવના કામસુખાની મજા માણવા માટે અમે ઘેાડા વર્ષો હજી પણ ગૃહસ્થના જ રૂપમાં રહીએ તે સારૂં. ત્યારપછી એકી સાથે આપણે અને વિરાની પાસે મુડિત થઈને દીક્ષા ધારણ કરી લઇશું.
(तरणं सुबुद्धी जियसत्तूरस एयमहं पडिणे, तणं तस्स जियसत्तूस्स सुबुद्वीणा सद्धि विपुलाई माणुस०पञ्चभुवमाणस्स वालसवासाई बीइक्कताई,
For Private And Personal Use Only
Page #779
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः ७२३ वर्षागि व्यतिक्रान्तानि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वादश वर्षव्यतिक्रान्ते सतीत्यर्थः स्थविरागमनं संजातं, तएणं तदा खलु परिपन्निर्गत । जितशत्रुरपि स्थविरान्तिके धर्म श्रुत्वा ' एवं ' एवमेव पूर्वोक्त सुबुद्धि वदेव सर्व नवरं विशेषस्त्वयम्-यत् हे देवानुपियाः ! सुबुद्धिम् आमन्त्रयामि, ज्येष्ठपुत्र राज्ये स्थापयामि, ततः खलु-तत्पश्चात् युष्माकमन्तिके यावत्-मुण्डो भूत्वा आगारात् अगारभावात् अनगारितां साधुतां प्रवजामि । स्थविरा ऊचुः- हे देवानुप्रिय ! यथासुखं यथा सोसाइं वीइक्कताई ताई तेणं कालेणं २ थेरागमणं तएणं जियसत्तू धम्म सोच्चा एवं जं नवरं देवाणुप्पिया ! सुबुद्धि आमंतेनि, जेट्टपुत्तं रज्जे ठावेमि, तएणं तुम्भं अंतिए जाव पव्वयासि ) इस प्रकार सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु राजा की इस बात को स्वीकार कर लिया। इस तरह सुबुद्धि अमात्य के साथ विपुल मनुष्य भव संबन्धी काम भोगो का अनुभव करते हुए जितशत्रू राजाके १२ वर्ष निकल गये। उसकाल
और उस समय में-अर्थात् १२ वर्ष व्यतीत हो जाने के समय में स्थविरोंका वहां आगमन हुआ। नगर की परिषद स्थविरों का आगमन सुनकर धर्म सुनने की भावना से उन स्थविरों के पास आई। जितशत्रु राजा भी आये उनसे धर्म का उपदेश सुनकर जितशत्र राजा सचेत हो गये। उन्हों ने कहा हे देवानुप्रियो ! मैं आपसे दीक्षा लेना चाहता हूँ अतः पहिले सुवुद्धि अपने अमात्य से पूछठू-और अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य में स्थापित कर-याद में आप के पास मुंडित होकर अगार भाव से अनगार अवस्था स्वीकार करलूंगा । ( अहापुहं, तेणं कालेणं २ थेरागमणं तरणं जियसत्तू धम्म सोच्चा एवं जं नवरं देवाणुप्पिया मुबुद्धिं आमंतेमि जेट्टपुत्तं रज्जे ठावेमि तएणं तुम्भं अंतिए जाव पव्ययामि )
આ રીતે સુબુદ્ધિ અમાત્ય જીતશત્રુ રાજાની વાતને માની લીધી સુબુદ્ધિ અમાત્યની સાથે કામભેગો ભોગવતાં જીતશત્રુ રાજાને આમને આમ જ બાર વર્ષ પસાર થઈ ગયાં. તે કાળે અને તે સમયે એટલે કે કામસુખ ભેગવતા જીતશત્રુ રાજાને જ્યારે બાર વર્ષો પસાર થઈ ગયાં ત્યારે ત્યાં સ્થવિર આવ્યા. નગરની પરિષદે સ્થવિરેનું આગમન સાંભળીને ધર્મનો ઉપદેશ સાંભળવા માટે સ્થવિરેની પાસે પહોંચી. જીતશત્રુ રાજા પણ ત્યાં ગયા અને ધર્મને ઉપદેશ સાંભળીને રાજા સાવધાન થઈ ગયા. તેઓએ સ્થવિરોને વિનંતી કરી કે હે દેવાનપ્રિયો ! હું તમારી પાસેથી દીક્ષા લેવા ચાહું છું. હું પહેલાં સુબુદ્ધિ અમાત્યને પૂછી લઉ અને પછી મારા જયેષ્ઠ પુત્રને રાજ્યભાર સેંપી દઉં. ત્યારબાદ તમારી પાસે આવીને મુંડિત થઈશ ને અગારભાવથી અનગાર અવસ્થા સ્વીકારીશ.
For Private And Personal Use Only
Page #780
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७२५
हाताधर्मकथा ते मनसि मुखं स्यात्तथा कुरुष्वेत्यर्थः । ततः खलु जितशत्रुर्यत्रैव स्वकं गृहं कौवोपागच्छति, उपागत्य सुधुद्धि शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-एवं खलु हे देवानुप्रिय ! मया स्थविराणामन्तिके धर्मोनिशान्तः, सोऽपि च धर्मे इष्टः, प्रतीष्टः, अभिरुचितः, तस्मादहं मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजामि, त्वं च खलु किं करोषि-तव का वाञ्छा वर्तते इत्यर्थः । ततः खलु सुबुद्धिर्जितशत्रुमेवमवादीत्तएणं जियसत्तू जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, सुबुद्धिं सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए थेराणं जाव पवज्जामि, तुम णं किं करेसि, तएणं सुबुद्धी जियसत्तूं एवं घयासी-जाव के अन्ने आहारे वा जाव पन्धज्जामि, तं जइणं देवाणुप्पिया ! जाव पन्वयहिं तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! जेटं पुत्तं च कुडंवे ठावेहि ठावित्ता सीयं दुरूहित्ता णं ममं अंतिए पाउम्भवइ ) स्थविरों ने कहा-हे देवानुप्रिय ! यथा सुखं-तुम्हें जैसे सुख हो वैसा करो-हितावह कार्य में विलंब करना उचित नहीं है । इसके अनंतर वे जितशत्रु राजा वहां से अपने घर पर आये । वह! आकर उन्होने अपने अमात्य सुबुद्धि को बुलाया बुलाकर उससे इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय ! मैंने स्थविरों से श्रुतचारित्र रूप धर्म का उपदेश सुना है । वह धर्म मुझे बहुत ही अधिक इष्ट, प्रतीच्छित हुआ है । मेरे अन्तः करण में वह समा गया है । इस लिये मैं अब मुंडित होकर इस अगार अवस्था का परित्याग
(अहा सुई, तएणं जियसत्तू जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबुद्धिं सदावेइ सहावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए थेराणं जाव पवजामि तुम णं किं करेसि, तएणं सुबुद्धी जियस एवं वयासी, जाव के अन्ने
आहारे वा जाव वज्जामि तं जइणं देवाणुप्पिया! जाव पबयहिं तं गच्छहणं देवाणुप्पिया! जेटं पुत्तं च कुटुंबे ठावेहि ठावित्ता सीयं दुरुहित्ता णं ममं अंतिए पाउम्भवइ)
સ્થવિરેએ રાજાને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! “યથા સુખ” એટલે કે તમને જેમાં સુખ મળતું હોય તેમ કરો. સારા કામમાં મેડું કરવું એગ્ય નથી. ત્યારપછી જીતશત્રુ રાજા પિતાને ઘેર આવ્યા. ત્યાં આવીને તેઓએ પિતાના અમાત્ય સબદ્ધિને બોલાવ્યો અને બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! મેં સ્થવિરેની પાસેથી કૃતચારિત્રરૂપ ધમને ઉપદેશ સાંભળ્યો છે. તે ધર્મ મારા માટે ખૂબ જ ઈષ્ટ અને પ્રતિષ્ઠિત થઈ ગયા છે. મારા અંતરમાં તે ખૂબ જ ઉડે પહોંચી ગયા છે. એટલે કે આત્માના પ્રતિ પ્રદેશમાં તે વ્યાસ થઈ ગયા છે. માટે હું હવે મુંડિત થઈને આ અગાર અવસ્થાને ત્યજીને
For Private And Personal Use Only
Page #781
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतषिणी to 0 १२ सातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः _ ७२५ यदि भवान् भवति तदा मे कोऽन्य आधारो वा यावत्-अहमपि ज्येष्ठपुत्र कुटुम्पे स्थापयित्वा भवता सादं प्रव्रजामि । जितशत्रुः माह- तद् यदि खलु हे देवानुपिय! यावत् प्रव्रजेः तद् गच्छ खलु हे देवानुपिय ! ज्येष्ठपुत्रं च कुटुम्बे स्थापय, स्थापयित्वा शिविकां दूह्य ममान्तिके प्रादुर्भव, इति श्रुत्वा स सुघुद्धिस्मात्यः राजाज्ञानुसारेण सर्व कृत्वा यावत् प्रादुर्भवति । ततः खलु जितशत्रः कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! अदीनशत्रोः कुमारस्य राज्याभिषेकमुपस्थापयत यावत् ते राजाज्ञां प्राप्यादीनशत्रु कर जिन दीक्षा धारण करना चाहता हूँ। कहो तुम्हारी क्या राय है ? जितशत्रु राजा की इस बात को सुनकर अमात्य सुबुद्धि ने उनसे कहा-यदि आप दीक्षा धारण करना चाहते हैं, तो अब मेरे लिये आपके सिवाय और कौन दूसरा आधार हो सकता है। अतः मैं भी अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुंब में अपने स्थान पर स्थापित कर आपके माय ही दीक्षित होना चाहता हूँ। अमात्य सुबुद्धि की इस भावना को सुन कर जितशत्रु ने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! यदि तुम मेरे साथ ही दीक्षित होना चाहते हो तो जाओ-और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो-स्थापित कर फिर शिविका पर आरूढ हो मेरे पास
आ जाओ । (जाव पाउन्भवइ, तएणं जियसत्तू कोडुषियपुरिसे सदावेह, सहावित्ता एवं वयासी - गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया अदीणसत्तूस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठवेह, जाव अभिसिंचंति, जाव पवाए, तएणं जियसत्तू एक्कारसअंगाई अहिज्जइ ) सुबुद्धि अमात्य ने राजा દીક્ષા ધારણ કરવા ઈચ્છું છું. બેલે તમારો શો વિચાર છે? જીતશત્રુ રાજાની આ વાત સાંભળીને અમાત્ય સુબુધિએ તેને કહ્યું કે જો તમે દીક્ષિત થવા ઈચ્છો છે ત્યારે તમારા સિવાય બીજો મારો કેણ આધાર છે અથવા થઈ શકે છે ? એટલા માટે હું પણ મોટા પુત્રને કુટુંબના વડા તરીકે નીમીને તમારી સાથે જ દીક્ષા સ્વીકારી લઉં છું. અમાત્ય સુબુધ્ધિની આ વાત સાંભળીને છત. શત્રુએ તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! જે મારી સાથે જ દીક્ષિત થવાની તમારી ઈચ્છા હોય તે તમે મોટા પુત્રને કુટુંબના વડા તરીકે નીમે અને ત્યારપછી પાલખી ઉપર સવાર થઈને મારી પાસે આવી જાવ.
(जाव पाउन्भवइ, तएणं जीवसत्तू कोडंबियपुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छह गं तुम्भे देवाणुप्पिया अदीणसत्तूस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठदेह जाव अभिसिंचंति जाव पवइए, तएणं जियसत्तू एकारसअंगाई अहिज्जा)
For Private And Personal Use Only
Page #782
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७२६
शाताधर्मकथाजस्त्रे राज्येऽभिषिञ्चति यावत्-जितशत्रू राजा सुबुद्धिनाऽमात्येन सह प्रव्रजितः । ततः खलु जितशत्रुरेकादशाङ्गनि अधोते। बहूनि वर्षाणि पर्यायः श्रामण्यपर्यायः । मासिक्या संलेखनया सिद्धः । ततः खलु सुधुद्धि रेकादशाङ्गानि-अधीते, बहूनिवर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा यावत्सिद्धः । सुधर्मास्वामी कथयति-एवम् के कहे अनुसार सब कार्य वैसा ही किया। बाद में वह जितशत्रु राजा के पास आ गया। जितशत्रु राजा ने इस के अनंतर कौटुंबिक पुरुषो को बुलाया-बुलाकर उनसे ऐसा कहा-देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ और युवराज अदीन शत्रु कुमारका राज्याभिषेक करो । राजाकी आज्ञानुसार उन लोगोने वैसा ही किया -अदीन शत्र राजा सुबुद्धि अमात्य के साथ दीक्षित हो गये। राजर्षी जितशत्रुने११ ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया । (बहूणि वासाणि परियाओ मासियाए सिद्धे,तएणं सुबुद्धी एगारस अंगाइं अहिज्जइ,पहूणि वासाइं जाव सिद्धे ! एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावारेणं बारमस्स णायज्झयणस्स एयमढे पण्णत्ते त्तिवेमि) अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया। बादमें एक मोस की संलेखनासे ६० भक्तो का अनशन द्वाराछेदन कर वे सिद्धावस्थापन्न हो गये। सुबुद्धि मुनिराज ने ११ ग्यारह अंगों का अच्छी तरह अध्ययन किया-और बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर सिद्ध अवस्था
સુબુદ્ધિ અમાત્યે રાજાની આજ્ઞા મુજબ જ બધું કામ પતાવી દીધું. ત્યાર પછી તે રાજાની પાસે આવ્યો. જીતશત્રુ રાજાએ પિતાના કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવ્યા અને બોલાવીને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે! તમે લોકે જાઓ અને યુવરાજ અદીનશત્રુ કુમારને રાજ્યાભિષેક કરે. રાજાની આજ્ઞા સાંભળીને તે કે એ બધી વિધિ પૂરી કરી દીધી. આ પ્રમાણે અદીનશત્રુકુમારને રાજયાસને બેસાડીને જીતશત્રુ રાજા સુબુધ્ધિ અમાત્યની સાથે દિક્ષિત થઈ ગયા. રાજઋષિ જીતશત્રુએ અગિયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું.
(बहुणि वासाणि परियाओ मासियाए सिद्धे, तएणं सुबुद्धी एगारसअंगाई अहिज्जइ, बहुणि वासाइं जाव सिद्धे ! एवं खलु जंबू ! समणेगं भगवया महावीरे णं वारमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिबेमि )
તેઓએ ઘણાં વર્ષો સુધી શામણ્ય પર્યાયનું પાલન કર્યું. ત્યારપછી એક માસની સંલેખનાથી ૬૦ ભક્તોનું અનશન દ્વારા છેદન કર્યું અને ત્યારબાદ તેઓ સિદ્ધ થઈ ગયા. મુનિરાજ સુબુદ્ધિએ પણ સારી પેઠે અગિયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું અને ઘણું વર્ષો સુધી ગ્રામરય પર્યાયનું પાલન કર્યું
For Private And Personal Use Only
Page #783
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतयषिणी टी० अ० १२ खातोदयविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः ७२७ पूर्वोक्तप्रकारेण खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन भगाता श्रीमहावीरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्पाप्तेन द्वादशस्य उदकाख्यस्य बाताध्ययनस्य अयं-पूर्वोक्तपकारः अर्थः=भावः प्रज्ञप्तः 'त्तिबेमि' इति ब्रवीमि यथा भगवान्मुखाच्छुत तथैव तुभ्यं प्रतिपादयामि ॥ सू० २ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदूवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालवतिविरचितायां — ज्ञाताधर्मकथाङ्ग' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
पिण्याख्यायां व्याख्यायां द्वादशमध्ययनं संपूर्णम् ॥१२॥ को प्राप्त कर लिया। सुधर्मा स्वामी जंबू स्वामी से कहते हैं-हे जंबू ! श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं इस द्वादश उदकाख्य ज्ञाताध्ययन का इस प्रकार से यह पूर्वोक्त रूप अर्थ निरूपित किया है । सो जैसा मैंने उन भगवान् के मुख से सुना है वैसा ही यह तुम से कहा है। अपनी तरफ से इस में कुछ भी मिलावट नहीं की है । सूत्र ॥ २ ॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री घासीलाल जी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" की अनगारधर्मामृतवर्षिगी व्याख्याका बारहवां
अध्ययन समाप्त ॥ १२॥
અને છેવટે સિદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત કરી લીધી. સુધર્મા સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે હે જંબૂ! સિદ્ધગતિ મેળવેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ દ્વાદશ-ઉદકાખ્ય જ્ઞાતા–ધ્યયનને ઉપર કહ્યા પ્રમાણે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે. મેં ભગવાનના શ્રીમુખથી જે અર્થ સાંભળે છે તે જ તમારી સામે સ્પષ્ટ કર્યો છે. મેં मामां पातानी मजे ५६ पात भरी नथी. ॥ सूत्र "२"॥ શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત જ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવર્ષિણી
व्याच्यानुसार अध्ययन समाप्त ॥ १२ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #784
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अथ त्रयोदशममध्ययनम् प्रारभ्यते । गतं द्वादशमध्ययनम् , सम्पति त्रयोदशमारभ्यते-अस्याध्ययनस्य पूर्वेण सहाऽयं सम्बन्धः-पूर्वस्मिन् अध्ययने संसर्गविशेषवशाद् गुणद्विरुक्ता, इह तु त्रयोदशेऽध्ययने तद्भावात् गुणहानिरुच्यते इत्येवं पूर्वाध्ययनेन सह अयमेव संबद्धः तस्येदमादि सूत्रमाह-' जइ णं भंते ' इत्यादि । ____मूलम्-जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं बारसमस्स णायज्झयणस्स अयमहे पण्णत्ते, तेरस मस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अटे पण्णते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णाम नयरे होत्था, गुणसिलए चेइए, समोसरणं, परिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सोहम्मे कप्पे ददरवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए, दद्दरसि सीहासणंसि ददरे देवे, चउहि समाणियसाहस्तीहि घउहि अग्गमहिसीहिं सपरिसाहिं एवं जहा सूरियाभो जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणो विहरइ ।। सू० १ ॥
- गंद मणियार नाम का तेरहवां अध्ययन प्रारंभ:१२वारवां अध्ययन समाप्त हो चुका । अब तेरहवां अध्ययन प्रारंभ होता है । इस का पूर्व अध्ययन के साथ इस प्रकार से संपन्ध है कि पूर्व अध्ययन में संसर्ग ( सत्संग) विशेष के वश से० गुण वृद्धि कही गई है-यहां इस तेरहवें अध्ययन में उस के अभाव से गुण हानि कही जावेगी । 'जहणं भंते ! समणेणं' इत्यादि । सूत्र ॥१॥
- ણંદ મણિયાર નામે તેરમુ અધ્યયન પ્રારંભ. બારમું અધ્યયન પૂરૂ થઈ ચૂકયું છે. હવે તેરમું અધ્યયન પ્રારંભ થાય છે. આ અધ્યયનની સાથે આ જાતને સંબંધ છે કે પહેલાંના અધ્યયનમાં સંસર્ગ (સોબત) વિશેષથી ગુણ વૃદ્ધિ બતાવવામાં આવી છે. આ તેરમા અધ્યયનમાં સંસગ વિશેષના અભાવથી ગુણહાનિ નિરૂપવામાં આવશે.
जइणं भंते ! समणेणं इत्यादि
For Private And Personal Use Only
Page #785
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनमारधर्मामृतवषिणी टी० अ० १३ अध्ययनसम्बन्धनिरूपणम् ७२९
टीका-जम्बू स्वामी पृच्छति-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महा. वीरेण यावत् संप्राप्तेन, सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं गतेन, द्वादशस्य ज्ञाताध्ययनस्य 'अयम? ' अयमर्थः = संसर्गविशेषवशाद् गुणवृद्धिरूपोऽर्थः ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः= प्ररूपितः, तर्हि तदनन्तरम् त्रयोदशस्य खः । भदन्त ! ज्ञाताऽध्ययनस्य, श्रमणेन भगवता महावीरेण कोऽयः प्रज्ञप्तः ? । मुधर्मा स्वामी कथयति-एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमासीत् ।
टीकार्थ-(जइण भंते) हे भदंत ! यदि (समणेणं भगवया महावीरेणं) श्रमण भगवान महावीर ने (जाव सम्पत्तेणं बारमस्स णायझयणस्स अयम? पण्णत्ते तेरमस्स णं भंते ! णायज्झयणम्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अटे पण्णत्ते ) कि जो सिद्धि गति नामक स्थान के भागी पन चुके हैं बारहवें ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त रूप से अर्थ निर्दिष्ट किया है-तो हे भदंत उन्ही श्रमण भगवान महावीर ने उस तेरहवें ज्ञाताध्ययन का क्या माय-अर्थ प्रवपित किया है ? ( एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएण रायगिहे नाम नयरे होत्था, गुणसिलए चेइए, समोसरणं, परिसा निग्गया ) इस प्रकार जंबू स्वामी को प्रश्न सुनकर श्री सुधर्म स्वामी उन्हें समझाने के निमित्त कहते हैं कि जंबू ! सुनो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उस नगर के बहिर्भाग में गुणशिलक नाम का चैत्य था । उस में भगवान महावीर प्रभु आये । प्रभु के
Aथ-( जइण भ ते ! ) 3 महन्त ! ने ( समणेण भगवया महावीरेण) શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે—
(जाव सम्पत्तेणं वारमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तेरसमस णं भंते ! णायज्झयणस्स समोणं भगवया महावीरेणं के अटे पण्णत्ते)
કે જેઓ સિદધગતિ મેળવેલા છે-બારમાં જ્ઞાતાધ્યયનને આ ઉપર કહ્યા મુજબ અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે ત્યારે હે ભરત ! તેઓ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ તેરમા જ્ઞાનાધ્યયનને શે ભાવ-અર્થ નિરુપિત કર્યો છે?
( एवं खलु जंबू । तेग कालेणं तेणं समएवं रायगिहे नाम नयरे होत्था, गुणसि ए चेहए, समोसरणं परिसा निग्गया )
આ પ્રમાણે જંબૂ સ્વામીને પ્રશ્ન સાંભળીને સુધર્મા સ્વામી તેમને સમજાવવા માટે કહેવા લાગ્યા કે હે જંબૂ ! સાંભળે, તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તે નગરની
For Private And Personal Use Only
Page #786
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
'
७३०
शाताधर्मकथासूत्रे
तस्य नगरस्य वहिर्भागे गुणशिलकं नाम चैत्यमासीत् । तत्र भगवतो महावीरस्य समवसरणं संजातम् । भगवदर्शनार्थं परिपन्निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'सोमेकप्पे ' सौधर्मे कल्पे= सौधर्मनाम्नि देवलोके दर्द रावतंस के विमाने, सभायां सुधर्मायां ददु रे सिंहासने ददुरो दर्दुरनामको देवः 'चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः चतुस्सहस्रसंख्यकैः - सामानिकदेवैः, तथा 'चउहि अगम देसीहि सपरिसादि' चतसृभिरग्रमहिपीभिः सपरिषद्भिः = स्वस्व परिषत्सहितामिचतुः संख्यकाभिः पट्टदेवीभिः संपरिवृतः ' एवं जहा सूरियाभो जाव दिव्वाई भोगभोगाई ' भुंजमाणो विरह ' एवं यथा सूर्याभो राजप्रश्नीयसूत्रे - सूर्याभदेवस्य वर्णनं मोक्तं तद्वदत्रापि बोद्धयम्, यावत् दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति ॥ मृ० १ ॥ वंदना करने के लिये परिषद आयी और देशना सुनकर वापिस चली आयी ( तेणं काणं तेणं समएणं सोहम्मे कप्पे ददुरवर्डिस विमाणे सभाएं सुहम्माए, दद्दूरंति सीहाससि, दद्द्दुरे देवे व उहिं सामाणिय साहस्सीहि चउहि अग्गमहिसीहिं सपरिसाहि एवं जहा सूरिया भी जाव दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणो विहरइ ) उसी काल और उसी समय में सौधर्म नाम के देव लोक में दर्दुरश्वतंसक विमान में सुधर्मा सभा में दर्दुर सिंहासन पर दर्दुर नाम का देव चार हजार सामानिक देवो के एवं अपनी २ परिषद सहित चार पह देवियों के साथ सूर्याभदेव की तरह दिव्य काम भोगों का अनुभवन करता हुआ बैठा था । राज प्रश्नीय सूत्र में सूर्याभ देव का वर्णन यहां पर भी जानना चाहिये | सूत्र ॥ १ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
બહાર ગુણુશીલક નામે ચૈત્ય ( જૈન દેરાસર ) હતું. તેમાં ભગવાન મહાવીર આવ્યા. પ્રભુને વંદન કરવા માટે નગરની પરિષદ આવી અને દેશના સાંભળીને પછી જતી રહી.
( तेणं काळेणं तेगं समएणं सोहम्मे कप्पे ददुरवर्डिस विमाणे सभाए सुहम्मार, ददुरंसिसीदाससि, दद्दुरे देवे चउहि सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अम्गमहिसीहि परिसाहि एवं जहा सूरियाभो जाव दिव्वाई भोगभोगाई मुंजमाणो विers )
તે કાળે અને તે સમયે સૌધમ નામના દેવલેાકમાં દદુર સિંહાસન ઉપર દર નામે દેવ ચાર હુમ્બર સામાનિક દેવેાની અને પેાતાતાની પરિષદા સહિત ચાર પટ્ટ દેવીઓ ( પટરાણીએ ) ની સાથે સૂર્યંમ દેવની જેમ દિવ્ય કામ સુખાને અનુભવતા બેઠા હતે. “ રાજ પ્રશ્નીય સૂત્ર '' માં સૂર્યભ દેવનું વણુન કરવામાં આવ્યું છે. અહીં પણ તે પ્રમાણે જ વણું ન જાણી લેવું જોઇએ. ॥ સૂ. ૧”
"
For Private And Personal Use Only
Page #787
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० म० १३ दर्दुरदेववक्तव्यता
t
मूलम् - इमं च णं केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगए। जहा सूरियाभे । भंतेति भगवं गोयमे समणे भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - अहो णं भंते ! दद्दरे देवे महड्डिए महज्जुइए महाबले महाजसे महासोक्खे महाणुभावे दद्दुरस्सणं भंते! देवस्स सा दिव्वा देवढी देवज्जुई कहिंगया कहिं पविट्ठा गोयमा ! सरीरं गया सरीरं अणुप्पविट्ठा, कूडागारदिट्टंतो। दद्दुरेण भंते! देवेणंसा दिव्वा देवड्डी देवज्जुई, किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता किण्णा अभिसमन्नागया ? एवं खलु गोयमा ! इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए, सेणिए राया । तत्थ णं रायगिहे णयरे णंदे णामं मणियारसेट्टी अड्ढे दित्ते० । तेणं काले तेणं समएणं अहं गोयमा ! समोसढे, परिसा णिग्गया । सेणिए राया णिग्गए त एणं से णंदे मणियार सेंट्ठी इमोसे कहाए लद्धट्टे समाणे पहाए० पाय चारेणं जाव पज्जुवास । णंदे धम्मं सोच्चा णिसम्म समणोवासए जाए । तएणं अहं रायगिहाओ पडिनिक्खं ते बहिया जणवयविहारं विहरामि, तए
सेणंदे मणियारसेट्टी अन्नया कयाइ असाहुदंसणेण य अपज्जुवासणाए य अण्णुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं २ मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं२ मिच्छत्तं विप्पडिवन्ने जाए यावि होत्था तरणं नंदे
For Private And Personal Use Only
Page #788
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथागते मणियारसेट्टी अन्नया गिम्हकालसमयांस जेट्टामूलंसि मासंसि अट्टमभत्तं परिगेण्हइ परिगेण्हित्ता पोसहसालाए जाव विहरइ, तएणं गंदस्स अट्ठमभत्तसि परिणममाणंसि तण्हाए छुहाए प अभिभूयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए समुप्पज्जित्था-धन्नाणं ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभियओ जेसिं णं रायगिहस्स बहिया बहुओ वावीओ पोक्खरणीओ जाव सरसरपंतियाओ जत्थ णं बहुजणो पहाइ य पियइ य पाणियं च संवहइ, तं सेयं खलु मम कलं पाउ० सेणियं आपुच्छित्ता रायगिहस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए वेभारपव्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढगरोइयसि भूमिभागंसि जाव आंदं पोक्खरणिं खणावेत्तए त्तिकद्दु एवं संपेहेइ कल्लं पाउ० जाव पोसहं पारेइ पारित्ता पहाए कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव संपरिबुडे महत्थं जाव रायारिहं पाहुडं गेण्हइ गेण्हित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव पाहुडं उवटवेइ उवट्टवित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं सामी! तुब्भेहि अब्भणुनाए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया !, तएणं णंदे सेणिएणं रन्ना अब्भणुण्णाए समाणे हट्ट रायगिह मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ २ वत्थुपाढयरोइंसि भूमिभागसि गंदं पोक्खरणि खणाविउं पयत्ते यावि होत्था, तएणं सा गंदा पोक्खरणी अणुपुवेणं खणमाणा.२ पोक्खरणी जाया यावि होत्था
For Private And Personal Use Only
Page #789
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १३ नन्दमणिकारभववर्णनम् ॥ चाउकोणासमतीरा अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजला संछण्णपत्तबिसमुणाला बहुप्पलपउमकुमुयनलिणसुभगसो. गंधियपुंडरिय महापुंडरीय सयपत्तसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोव. वेया परिहत्थभमंतमत्तछप्पयअणेगसउणगणमिहणवियरियसदुन्नइयमहुरसरनाइया पासाईया ॥ सू० २॥
टीका-' इमं च णं' इत्यादि । स दर्दुरको देवः इमं च खलु 'केवलकप्पं ' केवलकल्पं = सम्पूर्ण जम्बूद्वीपं द्वीपं विपुलेन 'ओहिणा' अधिना --अवधिज्ञानेन 'आभोएमाणे २ ' आभोगयन् आभोगयन् = वारंवारमव लोकयन् 'जाव' 'नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगए ' यावन्नाटयविधिमुपदर्य प्रतिगतः 'जहा मुरियाभे' यथा सूर्याभः, सूर्याभदेववत् । तद् गमना. नन्तरं भदन्त ! इति संबोध्य भगवान गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरवन्दते नमस्थति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवदत्-अहो ! खलु भदन्त ? ददुरो
' इमं च णं केवलकप्पं ' इत्यादि ।
टीकार्थ-वह दर्दुरकदेव (इमं च णं केवलकप्पं जंबूदीव२) इस केवल कल्प-संपूर्ण-जंबूद्वीप नाम के द्वीप को ( विउलेणं ओहिणा) अपने विपुल अवधिज्ञान से ( आभोए माणे २ ) बोर २ देखता हुआ ( जाव नहविहिं उवदंसित्ता पडिगए) यावत् नाट्य विधि को दिखला कर चला गया (जहा सूरियाभे ) सूर्याभदेव की तरह ( भंतेति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता गमंसित्ता एवं वयासी ) उस के चले जाने के बाद हे भदंत ! इस प्रकार से संबोधित करके भगवति गौतम ने श्रमण भगवान महावीर प्रभु से इस प्रकार पूछा ( अहो णं भंते ! दुरे देवे महड्डिए महज्जुइए महाबले, महाजसे ' इमं चणं केवलकप्पं ' इत्यादि |
ते २४ हेव (इम च ण केवलकप्पंजबूद्दीवं २ ) म प ४६५सपूर्ण-मूद्वीप नामनदीपने ( विउलेणं ओहिणा) पोताना विज्ञानथा ( आभएमाण २) वारंवार नेते। ( जाव नटुविहिं उवदंसित्ता पडिगए) यावत नाटय विपिनुं प्रशन मतावान तो रह्यो. ( जहा सूरियाभे ) सूर्यास हेपनी सेभ (भंतेति भगव गोयमे समण भगव महावीर वदइ, णमंसइ, वदित्ता णमंसित्ता एव वयासी) तेन ११ पछी श्रमाय लगवान महावीर प्रभुन। ચરણ માં ભગવાન ગૌતમે “હે ભદંત!” એવી રીતે સંબોધીને તેઓએ પ્રભુને આ પ્રમાણે કહ્યું કે
For Private And Personal Use Only
Page #790
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे देवो महर्द्धिको महाद्युतिकः, आश्चर्यकारि महर्यादियुक्तोऽयं वर्त्तते द१रस्य खलु भदन्त ! देवस्य सा दिव्या देवर्देिवद्युतिः कुत्र गता कुत्र प्रविष्टा ? या पूर्व दृष्टेति भावः । भगवानाह-हे गौतम ! सा दिव्या देवद्धिः देवधुतिश्च तस्य शरीरं गता शरीरमनुप्रविष्टा । अत्र 'कूडागारदिटुंतो' कूटागारदृष्टान्तो बोध्यः । कूटागारदृष्टान्तसमन्वयाय गौतमस्य भगवतो महावीरस्य च उक्तिः प्रयुक्तिरधोनिर्दिष्टप्रकारेण ज्ञेया-गौतमस्वामी पृच्छति हे भदन्त ! हे भगवन् ! दर्दुरेण देवेन सा दिव्या देवर्द्धिः देवधुतिः कथं केन प्रकारेण लब्धा समुपार्जिता प्राप्ताआयत्तीभूता अभिसमन्वागता=सम्यक्स्वभोगविषयीकृता ? भगवानाहमहासोक्खे, महाणुभावे, ददुरस्स णं भंते ! देवस्स सो दिव्या देविड्रीं देवज्जुई कहिं गया, कहिं पविट्ठा) हे भदंत! अभी२यह ददुर देव आश्चर्यकारी महद्धर्यादि से युक्त था, सो इस समय उस दर्दुर देव की हे भदंत ! वह पूर्वदृष्ट दिव्य देवद्धि, देवद्युति कहां गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ? (गोयमा! सरीरं गया, सरीरं अणुप्पविट्ठा) इस प्रकार गौतम का प्रश्न सुनकर प्रभु ने उन से कहा-हे गौतम ! वह दिव्यदेवर्द्धि और दिव्य देवधुति उस दर्दुर देव के शरीर में चली गई है, शरीर में प्रविष्ट हो गई है। ( कूडागार दिटुंतो ) इस विषय में कूटागार दृष्टान्त प्रयुक्त हुआ है। इसी कूटागारदृष्टान्त के समन्वय के लिये भगवान् गौतम और महावीर प्रभु की यह उक्ति प्रयुक्ति अधोनिर्दिष्ट प्रकार से जाननी चाहिये (दर्दुरे णं भंते देवेणं सा दिव्या देविड्डी देवज्जुई किण्णा लद्धा किण्णा ___ ( अहोणं भंते ! ददुरे देषे महडिए महज्जुइए, महाबले, महाजसे, महा सौक्खे, महाणु भावे ददुरस्स णं भंते ! देवस्स सा दिव्या देविड्डी देवज्जुई कहि गया, कहिं पविठ्ठा)
હે ભદંત! હમણાં તે આ દર દેવ આશ્ચર્યકારી મહદ્ધિ વગેરેથી સંપન્ન હતે આ સમયે દરેક દેવની હે ભદંત ! તે પૂર્વ દઈ દિવ્ય દેવદ્ધિ, वधुति ४यi rda २ छ ? यो प्रविष्ट 15 छ? (गोयमा ! सरीर गया, सरीर अणुप्पविद्वा) ॥ रीते गौतमने। प्रश्न समजीन प्रमुख भने કહ્યું કે હે ગૌતમ! તે દિવ્ય દેવદ્ધિ અને દિવ્ય દેવઘુતિ તે દેવ દર્દકના शरीरमा प्रविष्ट ४ छ. शरीरमा ती २ही छे (कूडागारदिटुंतो) । વિશેક ટાગાર દષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યું છે. આ કૂટાગાર દષ્ટાન્તના સમન્વય માટે ભગવાન ગૌતમ અને મહાવીર પ્રભુની ચર્ચા નીચે લખ્યા મુજબ જાણવી. - (ददुरेणं भंते ! देवेणं सा दिवा देविडी देवज्जुई किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता
For Private And Personal Use Only
Page #791
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभववर्णनम् ७३५
एवं खलु हे गौतम ! इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे राजगृहं नगरं, गुणशिलकं चैत्य, श्रेणिको राजाऽऽसीत् । तत्र खलु राजगृहे नगरे नन्दनामा मणिकार श्रेष्ठी आढयो दीप्तोऽपरिभूतः परिवसति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये हे गौतम ! अहं तत्र राजगृहे समवसृतः परिपनिर्गता श्रेणिको राजा निर्गतः । ततः खलु स नन्दो मणिकार श्रेष्ठी अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् स्नातः पादचारेण पादाभ्यामेव न तु रथाश्चादि यानेन — जाव पज्जुवासइ ' मम वन्दनार्थमागतो वन्दित्वा नमस्यित्वा च यथास्थानमुपविश्य पर्युपास्तेस्म । नन्दः नन्दमणिकारश्रेष्ठी धर्म = श्रुतचारित्रलक्षगं श्रुत्वा श्रमणोपासकः = श्रावको जातः । ततः खलु अहं ( महावीरस्वामी ) राजगृहात् प्रतिनिष्क्रान्तो बहिर्जनपदपत्ता किण्णा अभिसमन्नागया ? एवं खलु गोयमा ! इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे गुण सिलए चेहए सेणिए राया तत्थणं रायगिहे नयरे णंदे णामं मणियारसेट्ठी अड़े दित्ते० ) गौतम स्वामी प्रभु से पूछते हैं भदंत ! दर्दुर देव ने वह दिव्य देवर्द्धि और दिव्य देव युति किस प्रकार से उपार्जितकी, किस प्रकार से अपने आधीन की
और किस प्रकार उसे अपने भोग के विषय भूत बनाई ? प्रभु ने कहा गौतम ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-इसी ज बुद्धीप नाम के द्वीप में, भरत क्षेत्र में, रोजगृह नाम के नगर में गुण शिलक नाम का चैत्य था।नगर के राजा का नाम श्रेणिक था । उस राजगृह नगर में नन्द नामका मणिकार श्रेष्ठी रहता था। यह बहुत ही आढय-धन संपन्न-एवं अपरि भूत-जनमान्य-था ( तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! समोसढे, परिसा निग्गया, सेणिए, राया णिग्गए, तएणं से गंदे मणिकिण्णा अभिसमन्त्रागया ? एवं खलु गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया तत्थणं रायगिहे नयरे गंदे णामं मणियारसेही अड़े दित्ते० )
ગૌતમ દવામી પ્રભુને પૂછે છે કે હે ભદત ! દદ્ર દેવે તે દિવ્ય દેવર્ધિ અને દિવ્યવૃતિ કેવી રીતે મેળવી. કેવી રીતે પિતાને આધીન બનાવી અને કેવી રીતે તૈને પિતાના ઉપગ એગ્ય બનાવી? પ્રભુએ કહ્યું કે હે ગૌતમ! તમારા પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે એ જ જંબુદ્વિપ નામના દ્વીપમાં ભારતક્ષેત્રમાં, રાજગૃહ નામના નગરમાં ગુણશીલક નામે ચૈત્ય હતું. તે નગરના રાજાનું નામ શ્રેણિક હતું. તે રાજગૃહ નગરમાં નન્દ નામે મણિકાર શ્રેષ્ઠિ રહેલે त म माय--धनवान-मपरिभूत-सनमान्य (नाम पूछात) तो.
तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! समोसढे, परिसा निग्गया, सेणिए
For Private And Personal Use Only
Page #792
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७३६
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
6
विहारं विहारामि । ततः खलु स नन्दो मगिकारश्रेष्ठी अन्यदा कदाचित् 'असाहुदंसणेणय' असाधुदर्शनेन = कुगुरुसंसर्गेग 'अपज्जुवासणाए ' अपर्युपासनया च गुरना सेवनेन 'अणणुसासणाए य' अननुशासनया च सुगुरोरुपदेशाभावेन अमुस्सूसण | ए य' अशुश्रूपणया च सुगुरोरन्तिके धर्मश्रवणाभावेन च, तथा ' सम्मत्तपज्जवेहिं' सम्पक्तपर्यवैः परिहायमाणेहिं ' परिहीयमानैः २ क्रमशः क्षीयमाणैः 'मिच्छत्तपज्जवेहिं मिथ्यात्वपर्ययैः ' परित्रमाणेहिं ' परिवर्द्धमानैः = पुनः पुनः क्रमशो वृद्धिमुपगतैः सः नन्दमणिकारश्रेष्ठी मिथ्यात्वं मिथ्यास्वभावं प्रतिपन्नः = प्राप्तः = मिथ्यास्त्री जातश्चाप्यभूत् । ततः खलु नन्दोमाणिकारश्रेष्ठी यारसेट्ठी इमीसे कहाए लट्ठे समाणे पहाए० पायचारेणं जाव पज्जुवासह, गंदे धम्मं सोच्चा, णिसम्म समणोवासए जाए ) उसी काल में और उसी समय में हे गौतम | मैं उस राजगृह नगर में बिहार करता हुआ पहुँचा। वहाँ का समस्त परिषदा वंदन। नमस्कार करने के लिये गुलिक चैत्य में आई । श्रेणिक राजा भी आया। जब उस मणि कार श्रेष्ठी नंद को मेरे आने का समाचार मिला तो वह भी स्नान आदि से निश्चिन्त होकर पैदल ही मेरी वंदना करने के लिये आया । वहां आकर वह वंदना, नमस्कार कर यथा स्थान पर बैठ गया । उसने श्रुन चारित्र रूप धर्म का व्याख्यान सुनकर गृहस्थ धर्म धारण कर लिया अर्थात् वह श्रमणोपासक वन गया । (तएणं अहं रायगिहाओ पडि निक्खते बहिया जगवयविहारं विहरामि ) इसके बाद मैं वहां से राजगृह से निकला और निकल कर बाहर जनपदों में विहार करने राया णिग्गए, तर से गंद मणियारसेट्ठी इमी से कहाए लट्ठे समाणे व्हाए० पायचारेण जाय पज्जुवास, गंदे धम्मं सोचा, णिसम्म समगोवासए जाए )
તે કાળે અને તે સમયે હૈ ગૌતમ ! હુ` વિહાર કરતા કરતા રાજગૃહ નગરમાં પહોંચ્યા નગરની પરિષદા ગુણુશીલક ચૈત્યમાં વંદના અને નમસ્કાર કરવા માટે આવી. શ્રેણિક રાજા પણ વંદન તેમજ નમન કરવા માટે આવ્યા હતા. મણિચાર શ્રેષ્ઠિ ન ંદને જ્યારે મારા આવવાના સમાચારશ મળ્યા ત્યારે તે સ્નાન વગેરેથી પરવારીને પગપાળા જ મને વ ંદન કરવા માટે આવ્યા ત્યાં આવીને વંદન તેમજ નમન કરીને તે ઉચિત સ્થાને બેસી ગયેા. શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મનું વ્યાખ્યાન સાંભળીને તેણે ગૃહસ્થ ધર્મ ધારણ કરી લીધા એટલે કે તે શ્રમણાपास थ5 गये. (तरण अह रायगिहाओ पडिनिक्खते बहिया जणवयविहार' विहरामि ) त्यारपछी हु त्यथी -रामगृह नगरथी नीडज्यो भने नीडजीने महार જનપદ્દમાં વિહાર કરવા લાગ્યા.
For Private And Personal Use Only
Page #793
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७३७
-
-
भनगारधर्मामृतषिणो टाका अ० १३ नन्दमणिकारभववर्णनम् अन्यदा-एकस्मिन् काले ग्रीष्मकालसमये ग्रीष्मऋतौ 'जेहामूलंसि मासंसि' ज्येष्ठामूले मासे-ज्येष्ठायामूलस्य वा चन्द्रेण सह योगो भवति पौर्णमास्यां यस्मिन् मासे स ज्येष्ठामूलस्तस्मिन ज्येष्ठानले मासे ज्येष्ठमासे इत्यर्थः, 'अद्रममत्तं' अष्टमभक्तम्-उपचासत्रयरूपं तपः परिगृह्णाति-स्वीकरोति, परिगृह्य पौषधशालायां 'जाव विहरइ ' यावत् पौषरिक समाश्रितपौषधः विहरति । ततः ख नन्दस्य नन्दाभिधमणिकारश्रेष्ठिनः अष्टमभक्ते परिणम्यमाने सम्पूर्ण पाये सति तृष्णया क्षुधया च अभिभूतस्य व्याकुलस्य सतः अयम् वक्ष्यमाणपकारः आध्यात्मिकःलगा (तएणं से गंदे मणियारसेट्ठी, अन्नया कयाइं असाहु दंसणेण य अपज्जुवासणाएय, अण्णुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहिं २ मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवड़माणेहि २ मिच्छत्तं विडिवन्ने जाए यावि होत्था) मेरे वहां से विहार करने के बाद वह मणिकार श्रेष्ठी नंद किसी एक समय असाधु के दर्शन से कुगुरू के संसर्ग से-सद्गुरूओं की अनासेवना से, सुगुरु के उपदेश की प्राप्ति नहीं होने से सुगुरु के पास धर्म के श्रवण का अभाव होने से, तथा सम्यक्त्वरूप पर्यव-परिणाम क्रमशः क्षीयमाण होने से एवं मिथ्यात्वरूप पर्यव-परिणाम क्रमशः वृद्धिंगत होते रहने से मिथ्या त्व दशापन्न बन गया= मिथ्यात्वी हो गया। (तएणं गंदे मणियारसेट्ठी अन्नया गिम्हकान्समयंसि, जेट्टा मूलंसि, मासस अट्ठमभतं परिगेण्हइ, २ पोसहसालाए जाब विहरइ, तएणं नंदस्स अट्टमभत्तंसि, परिणममाणंसि, तहाए छुहोए, य अभिभूयस्स समाणस्स इमेयारवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था ) किसी एकदिन ग्रीष्म काल के समय में
(तएणं से गंदे मणियार सेट्ठी अन्नया कयाई असाहुदसणेण य अपज्जु वासणाए य अण्णुसासणाए य असुस्मसणाए य सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं २ मिच्छत्तपज्जवेहि परिवड़माणेहिं २ मिच्छत्तं विप्पडिवन्ने जाए यावि होत्था)
ત્યાંથી મારા વિહાર કર્યા પછી કે ઈ વખતે અસાધુના દર્શનથી, કુગુરુના સંસર્ગ (સોબત) થી, સદૂગુરૂઓની અનાસેવનાથી, સગરના ઉપદેશને સાંભળવાની તક નહિ મળવાથી, સુગુરૂની પાસેથી ધર્મ નહિ સાંભળવાથી તેમજ સમ્યક રૂપ પર્યવ-પરિણામ અનુક્રમે ક્ષીયમાણ (નષ્ટ) હોવાથી અને મિથ્યાત્વરૂપ પર્યવ પરિણામ અનુક્રમે વૃદ્ધિ પામવાથી મિથ્યાત્વ દશાપન્ન થઈ ગયેमिथ्यात्वी ७ गये. ( तरण दे मणियारसेट्ठी अन्नया गिम्हकालसमय सि, जे मूलंसि, मासंसि अटुमभत्तं परिगेण्हइ २ पोसहसालाए जात विहरइ, तएणं नंदस्स अट्ठमभत्तंसि परिणम नाणंग्लि, तहाए छुहाए य अभिमूयस्स ममाणस्म इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था) से हिवसे नाजाना २४ महिनामा
For Private And Personal Use Only
Page #794
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
. ७३८
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
1
आत्मगतो विचारः समुदपद्यत । तदेवाह - ' धन्नाणंतं ' इत्यादि - धन्याः खलु ते राजेश्ववरयावत्सार्थवादप्रभृतयः येषां खलु राजगृहस्य बहिः बहथो वाप्यः= सामान्यः पुष्करिण्यः = कमलयुक्ताः यावत् सरः सरः पङ्क्तिकाः = यत्रैकस्मात्सरसोऽस्मिन् सरसि जलं प्रवहति, एवं सरसां जलाशयानां पङ्क्तयः पङ्क्तिभूता जलाशया इत्यर्थः विद्यन्ते यत्र खलु बहुजनः = जनसमुदायः स्नाति च पिवति च तथापानीयं च संवहति=ततो जलं नयति । तत् = तस्मात् श्रेयः = उचितं खलु मम कल्ये= प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां सूर्योदये सतीत्यर्थः, श्रेणिकं राजानमापृच्छ्य राजगृहस्य
"
JA
जेठ मास में मणिकार श्रेष्टी नंद ने अष्टम भक्त किया तीन उपवास किये - और पौषध शाला में रहा । जब उसकी यह तपस्या पूर्ण प्राय हो रही थी तब उसे तृष्णा पिराला और क्षुधा ने व्याकुल कर दिया । उस समय उसे इस प्रकार का विचार आया- ( धन्नाणं ते राईसर जाव सत्थवाहपभियओ जेसिणं रायगिहस्स बहिया बहुओ बाबीओ पोक्खरणीओ जाव सरसरपंतियाओ उत्थण बहुजणो पहाइ य, पियड़ य, पाणियं च संवहइ तं सेयं ममं कल्लं पाउ० सेणियं आपुच्छित्ता रायगिहस्स पहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए वैभारपव्वयस्स अदूरसामंते वस्तुपाठगरोइयंसि भूमिभागंसि जाव णंदं पोक्खरणिं खणावेत्त एतिक एवं संपेहेइ ) राजेश्वर से लेकर सार्थवाह प्रभृति वे जन धन्यवाद के पात्र हैं कि जिनकी राजगृह नगर के बाहर अनेक वावडियां है, - पंक्ति भूत जलाशय हैं कि जिन में अनेक मनुष्य स्नान करते हैं, अनेक जन पानी पीते है अनेक उन में से पानी ले जाते हैं। तो मुझे भी
મણિકાર શ્રેષ્ઠ નંદે અષ્ટમ ભક્ત કર્યાં-ત્રણ ઉપવાસ કર્યા-અને પૌષધશાળામાં રહ્યો. જ્યારે તેની આ તપસ્યા પૂરી થવાની અણી ઉપર જ હતી ત્યારે તેને તરસ અને ભૂખે બ્યાકુળ અનાવી દીધા. તે સમયે તેણે વિચાર કર્યાં કે( धन्ना ण ते राई सर जाव सत्थवोद्दाभियओ जेसिणं रायगिहास बढ़िया बहूओ वावीओ पोक्खरणोओ जाव सरसरपंतियाओ जत्थ णं बहुजणो दाइ य, पियइ य, पाणियं च संवहइ तं सेयं कल्ल पाउ० सेणियं आपूच्छित्ता रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरत्थि मे दिसीमाए वैभारपव्वयस्स अदूरसामंते वस्तुपाढगरोइयंसि भूमिभांग सि जाव णंद पोक्खरणिं खणावेत्तर तिकटु एवं सौंपेहेइ ) रानेश्वरथी માંડીને સાવાર્હ વગેરે તે લેાકેાને ધન્ય છે કે રાજગૃહ નગરની બહાર જેમની ઘણી વાવા છે, પક્તિભૂત જળાશયેા છે-કે જેમાં ઘણા માણસા સ્નાન કરે છે, ઘણા માણસા પાણી પીએ છે, ઘણા તેઆમાંથી પાણી લઇ જાય છે. તે હવે
For Private And Personal Use Only
Page #795
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधामृतवर्षिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभववर्णनम् बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे वैभारपर्वतस्य अदूरसामन्ते-नातिदरे नातिसमीपे पार्श्वभागे इत्यर्थः ‘वत्थुपाढगरोइयंसि' वस्तुपाठकरुचिते-वस्तुपाठकानां गृहादिनिर्माणशास्त्रनिपुणानां भूगर्भविद्याविशारदानां रूचितः चिविषयीभृतस्तस्मिन ताशे भूमिभागे-भूप्रदेशे यावत् नन्दां-नन्दाभिधां पुष्करिणीं-बापी खनयितुम् । इति कृत्वा इति मनसिनिधाय एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण संप्रेक्षते,-विवारयति, संप्रेक्ष्य कल्पे मादुष्प्रभातायां यावत्-रजन्यां तेजसा ज्वलतिसूर्ये-सूर्योदये सति पौषधं पारयति, पारयित्वा स्नातः कृतबलिकर्मा मित्रज्ञाति यावत्संपरितः महार्थ · जावरायारिहं ' महाधं महाहं विपुलं राजाहपाभृतं गृहाति, गृहीत्वा यत्रैव श्रेणिको अब यही उचित है कि मैं भी दूसरे दिन प्रातः काल होते ही श्रेणिक राजा से पूछकर राजगृह नगर के बाहिर ईशान कोण की ओर वैभार पर्वत की तलहटी- पार्श्वभाग- में जिस स्थान को वास्तुशास्त्र के वेत्ता पास करे उस स्थान पर एक नंदा नामको वावडी को खुदवाऊ । इस प्रकार उस ने अपने मन में विचार किया। (संपेहित्ता कल्लं पा० जाव पोसह पारेइ पारेत्ता हाए कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव संपरिघुडे महत्थं जाव रायारिहं पाटुडं गेहइ, गेण्हित्ता, जेणेव सेणिए राया तेणेत्र उवा० उवागच्छित्ता जाव पाहुडं उबटुवेइ, उवट्टवेत्ता एवं वयासीइच्छामिणं सामी ! तुम्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! ) विचार करके उसने प्रातः काल सूर्योदय होने पर पौषध को पारा (पाला)। (पार कर ) पाल कर पौषध को समाप्त कर-फिर उसने स्नान किया । स्नान से निबट कर काक आदि पक्षियों को अन्नादि का भाग रूप बलिकर्म किया। बाद में
મને એજ યોગ્ય લાગે છે કે હું પણ આવતી કાલે સવાર થતાં જ કેણિક રાજાની આજ્ઞા મેળવીને રાજગૃહ નગરની બહાર ઇશાન કેણમાં વૈભાર પર્વતની તળેટીમાં વાસ્તુશાસ્ત્રને જાણનારા જે સ્થાનને પસંદ કરે તે સ્થાન ઉપર એક नही नामे पाप माहा. २॥ शते तेणे मनमा पिया२ ४ो. (संपेहिता कल्ल पा० जाव पोसह पारेइ पारेता हाए कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव संपरिखुडे महत्थं जाव रोयरिह पाहुडं गेहइ गेण्हित्ता, जेणेव सेणिए राया तेणेव उवा० उवागच्छिचा जाव पाहुडं उबटुवेइ. उबद्ववेत्ता एवं वयासी इच्छामि णं सोमी ! तुब्भेहिं अब्भणुनाए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावे तए, अहासुहं देवाणुप्पिया !) विया२ री तेरी भी हिसे वारे सूर्योदय यता पोषध પાળે અને પૌષધ પાળીને તેણે સ્નાન કર્યું અને ત્યારપછી કાગડા વગેરે
For Private And Personal Use Only
Page #796
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७४
aratधर्मकथाpet
6
राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यावत्माभृतम् उपस्थापयति उपस्थाप्या एवमत्रादीत् इच्छामि खल हे स्वामिन् ! युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन राजगृहस्य बहिः जाव खणावेत्तए ' यावत् - उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे वैभारपर्वतस्यादूर सामन्ते वास्तु पाठकरुचिते भूमिभागे यावत् नन्दां पुष्करिणीं खनयितुम् । श्रेणिको प्राहयथासुखं हे देवानुप्रिय ! इच्छानुसारं कुरु । ततः खलु नन्दः श्रेष्ठी श्रेणिकेन राज्ञाऽभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टतुष्टः राजगृहस्य मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य वस्तुपाठकरुचिते भूमिभागे नन्दां पुष्करिणीं खनयितुं प्रवृत्तश्चाप्यभवत् । ततः खलु सा मित्रादिजनों से परिवृत होकर उसने महार्थ साधक यावत् बहुत कीमती राजा को भेंट करने योग्य पदार्थ लिया । लेकर वह जहाँ श्रेणिक राजा था वहां गया। वहां जाकर उसने राजा को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और फिर वह भेंट उनके समक्ष रखी। बाद में राजा से उसने इस प्रकार कहा हे स्वामिन् मैं आपसे आज्ञा प्राप्तकर राजगृह नगर के बाहर ईशान कोण में वैनार गिरि के पार्श्वभाग में एक पुष्करिणी बनबाना चाहता हूँ । राजा ने उस की बात सुनकर उससे कहा हे देवानुप्रिय ! यथासुखम् - तुम्हारी जैसी इच्छा हो उस के अनुसार वैसा ही करो । ( तणं णंदे सेणिएणं रन्ना अभणुन्नाए समाणे हट्ट० रायगिहं मज्झं मज्झेण निग्गच्छइ २ वत्थुपाढयरोइंसि भूमिभागंसि णंद पोखरणि खणाविडं पपत्ते यावि होत्था ) इस प्रकार श्रेणिक राजा से आज्ञा प्राप्त कर वह मणिकार श्रेष्ठी नंद बहुत ही अधिक आनंदित एवं संतुष्ट हुआ। बाद में वहां से आकर वह राजगृह नगर के बीच से પક્ષીઓને અન્નભાગ અપીને અલિકમ કર્યુ. ત્યારબાદ પેાતાની મિત્ર-મ`ડળીને સાથે લઈ ને મ્હા સાધક યાવત બહુ કિંમતી રાજાને ભેટ કરવા ચેાગ્ય પદાર્થો લીધા. લઇને તે જ્યાં શ્રેણિક રાજા હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં પહોંચીને તેણે અને હાથ જોડીને રાજાને નમસ્કાર કર્યો અને પછી ભેટ તેમની સામે અણુ કરી. ત્યારબાદ રાજાને વિનંતી કરતાં તેણે કહ્યું કે હે સ્વામી ! તમારી આજ્ઞા મેળ વીને હું. ાગૃહ નગરની બહાર ઇશાન કેણમાં વૈભાર પર્વતની તળેટીમાં એક પુષ્કરિણી ( વાવ ) ખાદાવવાની મારે ઈચ્છા છે. રાજાએ તેની વાત સાંભળીને તેને કહ્યું–કે હે દેવાનુપ્રિય ! “ યથા સુખમ્ ” તમારી જેવી ઇચ્છા હાય ખુશીથી तभे ते प्रमाणे ४।. (तएण ण दे सेणिएणं रन्ना अब्भुणुन्नाए समाणे हट्ट० रायगि मज्झं मज्झेण निगच्छइ २ वत्थुपाढयरोइंसि भूमिमागसि णंद पोक्खरणि खणाविडं पयते यावि होत्था ) मा रीते श्रेणि रान्न पासेथी आज्ञा भेजवीने તે મણિકાર શ્રેષ્ઠિ નંદ ખૂમજ આનંદિત તેમજ સંતુષ્ટ થયેા. ત્યારપછી ત્યાંથી
For Private And Personal Use Only
Page #797
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१३ नन्दमणिकारभववर्णनम् नन्दा पुष्करिणी अनुपूर्वेण=क्रमेण खन्यमाना खन्यमाना पुष्करिणो जाता चाप्यासीत् , सा कीदृशी जाता ? इत्याह-' चाउकोणा' इत्यादि-'चाउकोणा ' चतुष्कोणासमतीरा समम् = उन्नतत्वावनतत्वरहितं तीरं-तटप्रदेशो यस्याः सा तथोक्ता, ' अणुपुबसुजायवप्पगंभीरसीयलजला ' अनुपूर्वे सुजातवप्रगम्भीरशीतलजलाअनुपूर्वेण-क्रमेण नीचर्नी चैस्तरादिभावरूपेण सु-सुष्ठु अतिशयेन यो जातः वप्रःकेदाराकारं जलस्थानं तत्र गम्भीरम् अगाधं शीतलं च जलं यस्यां सा तथा, ' संछण्णपत्तविसमुणाला ' संछन्नपत्रबिसमृणाला-संछन्नानि जलेनान्तरितानि जलमग्नानोत्यर्थः पत्राणि-कमलदलानि बिसानि-कमलकन्दाः मृणालानिमल. होकर निकला। निकलकर फिर वह वास्तु शास्त्र के वेत्ताओं द्वारा निदिष्ट स्थान पर पहुँचा-वहाँ पहुँचकर उसने नंदा नाम की बावडी खुदवानी प्रारंभ कर दी। (तएणं सा नंदा पोक्खरणी अणुपुव्वेणं खणमाणा २ पोकवरणी जाया यावि होत्था चाउकोणा, समतीरा, अणुपुव्व सुजयावप्पगंभिरसीयलजला, संछण्णपत्तबिसमुणाला, बहुप्पलपउमकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तयफुल्ल केसरोववेयापरिह. स्थभमन्तमत्तछप्पयअणेगसउणगणमिणविहरियसदुन्नयमहुरसुरनाइ. या पोसाईया) क्रमशः खुदती २ वह नंदा पुष्करिणी एक दिन वास्तविक पुष्करिणी के रूप में तैयार हो गई। इसके चारकोने थे। तट प्रदेश इसका समान था। ऊँचाई नीचाई से रहित था। इस पावडी का अगाध शीतल जल से भरा हुआ नीचेका जल स्थान बहुत नीचा बहुत गहरा था और क्रम क्रम से निष्पन्न करने में आया था। इसमें
આવીને તે રાજગૃહ નગરની વચ્ચે થઈને નીકળે. નીકળીને તે વાસ્તુશાસ્ત્રના નિષ્ણાતે વડે બતાવવામાં આવેલા સ્થાન ઉપર પહોંચ્યું અને ત્યાં જઈને તેણે नहानामनी पाप महावी. २३ ४२री दीधी. (तएणं सा नंदा पोक्खरणी अणु पव्वेणं खणमाणा २ पोक्खरणी जाया यावी होत्था चाउकोणा, समतीरा, अणुपु. व्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजला सछण्णपत्तविसमुणाला, बहुप्पलपउमकुमुयनलिणसुभा गसोग धियपुडरीयमहापुडरीयसयपत्तसहस्सपत्तयफुल्लकेसरोववेया परिहत्थयम तमत्त उप्पयअणेगसउणगणमिहुणविचरियसदुन्नइयमहुरसुरनाइया पासाईया) माम. ४२२१
દતાં ખોદતાં છેવટે એક દિવસે નંદા પુષ્કરિણી વાવ) સંપૂર્ણ પણે ખેદાઈ ગઈ. તેને ચાર ખૂણા હતા. કિનારાને ભાગ તેને એક સરખો હતો એટલે કે ઊંચે નીચે નહોતે. આ વાવનું અગાધઠંડા પાણીથી ભરેલું નીચેનું જળ સ્થાન ખૂબ જ ઊંડું
For Private And Personal Use Only
Page #798
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७४২
नालानि यस्यां सा तथा । ' बहुप्पलपउमकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीय महापुंडरीयसयपत्तसहस्स महापूंडरीय सयपत्तसहस्स पत्तपप्फुलकेस रोव वेया' बहूल्पलपद्मकुसुदन लिनसुभगसोगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रम फुल्ल केशरोपपेता - बहूनि = बहूविधानी उत्पलानि पद्मानि च - सामान्यकमलानि कुमुदानि= चन्द्रविकासिकमलानि नलिनानि - विशिष्टगन्धयुक्तकमलानि सुभगानि = सुन्दराणि सौगन्धिकानि = सन्ध्याविकासिमलानि, पुण्डरीकाणि श्वेतकमलानि, महापुण्डरीकाणि - महाश्वेतकमलानि, शतपत्राणि = शतदलकमलानि सहस्रदलकमलानि, कीदृशानि एतानि ? इत्याहप्रफुल्ल केशराणि विकसित केशराणि, तैरुपपेता व्याप्ता । ' परिहत्थभमंतमतच्छपयअणेगस उण गण मिहुणवियरियसछुनइय महरसरनाइया' परिहत्थभ्रमन्मत्तपट्पदाने कशकुन गमिथुनशब्दोनतिकमधुरस्वरनादिता- ' परिहत्य ' इतिदेशीशब्दोऽयम् परिहत्था ' =प्रचुराः भ्रमन्तः इतस्ततो विचरन्तः मत्ताः = मकरन्दपानो. न्मत्ताः षड्पदाः = भ्रमरास्तेपाम्, तथा अनेकेषां =ननाविधानां शकुनगणानां = हंससारसादिपक्षिसमूहानां मिथुनानां = युगलरूपाणां शब्दोन्नतिकाः = उत्कृष्टयुक्ता ये मधुरस्वरः तैः नादिता = शब्दायमानेत्यर्थः प्रासादीया, दर्शनीया, अभिरूपाप्रतिरूपा - अत्यन्तरमणीयेत्यर्थः ।। ०२ ।।
"
vig
शांताधर्मकथासूत्रे
कमल दल कमल कंद और कमल नाल सदा जल से अन्तरित हो रहे थे । यह अनेक प्रकार के विकसित केशरों वाले उत्पलों से, कमलों से, चन्द्रविकाशी कुमुदों से, विशिष्ट गंध वाले कमलों से सन्ध्या विकाशी सुन्दर सौगंधिको से श्वेतकमलो से, महा पुण्डरीकों से, शतपत्र वाले कमलों से और सहस्र पत्र वाले कमलों से आच्छादित हो रही थी । इधर भ्रमण करते हुए अनेक भ्रमरों के कि जो मकरंद पान से उन्मप्त बन रहे थे, तथा नाना प्रकार के पक्षिगणों के हंस, सारस आदि पक्षि समूह के - युगलों के उत्कृष्ट शब्द युक्त मधुर स्वरों से वाचालित
For Private And Personal Use Only
હતું, ગભીરહેતુ અને અનુક્રમે નિષ્પન્ન કરવામાં આવ્યું હતું આમાં કમળદલ, કમળકંદ, અને કમળનાળ હંમેશા પાણીથી ઢંકાયેલાં (અંતરિત) રહેતાં હતાં. આ વાવ ઘણી જાતના વિકસિત કેશરાવાળા ઉત્પલેાથી, કમળાથી, ચંદ્રવિકાસી કુમુદ્દોથી વિશિષ્ટ સુગંધવાળા કમળાથી, સધ્યા વિકાસી સુંદર સૌધકેથી સફેદ કમगोथी, भडा पुंडरीअथी, शतपत्रवाणा उभणोथी भने सहस ( डेलर ) पत्र• વાળા કમળેાથી ઢંકાયેલી હતી. આ વાવ મકરંદ ( પુષ્પરસ ) ના સ્વાદ લઇને ઉન્મત્ત થઈ ગયેલા આમતેમ ઉડતા ઘણા ભમરાઓના તેમજ ઘણી જાતના પક્ષીઓના હુસ, સારસ વગેરે પક્ષી સમૂડાના પક્ષીયુગલાના ઉત્કૃષ્ટ અને મધુર
Page #799
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभववर्णनम् ७४३
मूलम्-तएणं से गंदे मणियारसेट्टी गंदाए पोक्खरणीए घउहिसि चत्तारि वणसंडे रोवावेइ । तएणं ते वणसंडा अणुपुटवेणं सारक्खिजमाणा संगोविजमाणा संवडिजमाणा य वणसंडा जाया किण्हा जाव निकुरंबभूया पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणार चिट्ठति । तएणं नंदे मणियासेट्टी पुरच्छिमिल्ले वणसंडे एगं महं चित्तसमं करावेइ अणेगखंभसयसंनिविटुं पासाइयं दरिसणिजं अभिरूवं पडिरूवं तत्थ णं वहणि किण्हाणि य जाव सुकिलाणि य कट्टकम्माणि य पोत्थकम्माणि चित्तकम्माणि लेप्पकम्माणि गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमाइं उवदसिजमाणाइं२ चिटुंसि, तत्थ णं बहुणि आसणाणि य सयणाणि य अत्थुयपच्चत्थुयाई चिट्ठति, तत्थणं बहवे णडा य जट्टा य जाव दिन्नभइभत्तवेयणा तालायरकम्मं करेमाणा विहरांति, रायगिहविणिग्गओ य जत्थ बहूजणो तेसु पुवन्नत्थेसु आसणसयणेसु संनिसन्नो य संतुयहो य सुणमाणो य पेच्छमाणो य साहमाणो य सुहंसुहेणं विहरइ ॥ सू० ३ ॥
टीका-'तएणं' इत्यादि । ततः खलु स नन्दो मणिकारश्रेष्ठी नन्दायाः पुष्करिण्याश्चतुर्दिक्षु चतुरो बनषण्डान् रोपयति कारयतीत्यर्थः । ततः खलु पनी हुई थी। यह बहुत प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी-तात्पर्य अत्यंत रमणीय थी। सूत्र २ ॥
'तएणं से गंदे मणियार सेट्ठी'-इत्यादि ॥ टोकार्थ-(तएण)इसके बाद(से गंदे मणियार सेट्ठी) उस मणिकार श्रेष्ठी સ્વરોથી મુખરિત (શબ્દયુક્ત) થઈ રહી હતી આ વાવ ખૂબ જ પ્રાસાદીય, દર્શનીય, અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ હતી એટલે કે તે અત્યંત રમણીય હતી. સૂવ ૨
( तएणं से गंदे मणियार सेटो-इत्यादि 14-(नएण) त्या२०५६ (से ण दे मणियारसेदो) ते भागार श्रेठी न
For Private And Personal Use Only
Page #800
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
=
Ce
शाताधर्मकथासूत्रे
ते बनवण्डाः ' अणुपुवेणं' अनुपूर्वेण अनुक्रमेण 'सारक्खिज्जमाणा संरक्ष्यमाणाः पशुपक्ष्याद्युपद्रवतः ' संगोप्यमानाः संगोबिज्जमाणा हिमवनदवादिभ्यः, 'संर्वाड्रिज्जमाणा य' संवर्ध्यमानाश्च = जलसेकादिना वृद्धि प्राप्ता सन्तः वनपण्डाः पूर्णरूपेण परिणता जाताः । कीदृशास्ते जाताः ? इत्याह -' किण्डा ' इत्यादि ' किव्हा ' कृष्णाः - हरितत्वातिशयेन कृष्णवर्णा 'जाव ' यावत्- 'निकुरूंबभूया' महामेघनिकुरम्बभूताः सजलजलधरनिकरसदृशाः पत्रिताः पुष्पिताः ' जाव उसोभेमाणा २ ' यावत् श्रिया - वनपण्डश्रिया अतीव उपशोभमानाः २ तिष्ठन्ति । ततः खलु नन्दः मणिकार श्रेष्ठी पौरस्त्ये वनपण्डे एकां महतीं चित्रसभां कारयति । कीदृशाम् ? इत्याह- ' अणेगे ' त्यादि - ' अणेगखंभ
=
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नंदने (नंदीए पोखरणीए चउद्दिसिं ) नंदा पुष्करिणी की चारों दिशाओं में (चत्तारिवणसंडे रोवावेह ) चार वनषंड आरोपित करवाये ( एणं ते वणसंडा अणुपुच्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविजमाणा संवडिजमाणाय वणसंडा जाया किण्हा जाव निकुरंबभूया पत्तिया पुष्फिया जाव उसोभेमाणा २ चिति) आरोपित किये गये वे चारों वनषंड क्रमशः संरक्षित होते हुए - पशु पक्षी आदि के उपद्रव से बचते हुए एवं हिमवर्षा - दवाग्नि आदि से रहित होते हुए खूब वृद्धिंगत हो गये। इन में चारों ओर हरियाली २ छा गई इस से ये काले काले दिखलाई देने लगे- ऐसे मालूम देते थे मानों जल से भरे हुए मेघहों । पत्र और पुष्पों से युक्त होने के कारण इन की शोभा कुछ निराली ही बन गई थी । (तएण णंदे मणियार सेट्ठी पुरच्छिमिल्ले वणसंडे एवं महं चित्त
For Private And Personal Use Only
-1)
( viąte dìzazoîte asfefè ) d'a yolkyl (919) Al que aug (aft वणस' डे रोवावेइ ) यार वनषडो शयावडाव्यां (तएणं ते वनम्रडा अणुपुव्वेण सारक्खिमाणा सगोविज्जमाणा वढिज्जमाणाय वणसंडा जाया किव्हा जाव निब-भूया पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति ) पायेला ते ચારેચાર વનડા અનુક્રમે સંરક્ષિત થતા-પશુપક્ષી વગેરેના ઉપદ્રવેાધી સંરક્ષા ચેલા અને હિમ, વનનેા અગ્નિ ( દાવાનલ) વગેરેથી સરક્ષિત થઈને ખૂબ જ વૃદ્ધિ પામ્યા. તેમાં ચેામેર હરીયાળી પ્રસરી ગઈ. તેથી તેઓ શ્યામ દેખાશ લાગ્યા હતા જાણે કે પાણીથી ભરેલા મેઘ હાય. પાંદડાં અને પુષ્પોથી યુક્ત होत्रा महा तेथोनी शोला मेडम निराणी थई गई हती. मणियार सेट्ठीं पुरच्छिमिल्ले वणस डे एवं मद्द चित्तसभ
( तएर्ण ण दे
करावेइ,
अणेगख भ
Page #801
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनगारधर्मामृतवर्षिणी टो० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम्
,
,
सयसंनिविट्टं ' अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टां=नानाविधमणिमाणिक्यादि निर्मितस्तम्भशतसंनिबद्धां प्रासादीयां दर्शनीयाम्, अभिरूणं, प्रतिरूपाम् । तत्र खलु चित्रसभायां बहूनि=बहुविधानि कृष्णानि च ' जाव' यावत् नीलानि च पीतानि च, रक्तानि च, शुकानि च ' कटुकम्माणिय' काष्टकर्माणि च काष्ठशिल्पानि 'पोत्थकमाणि पुस्तकमभिस्तेषु त्र ताडपत्रकर्गलादिषु कर्माणि लेखन कर्माणि, चित्रकर्माणिभिलादिषु चित्ररूपाणि लेप्यकर्माणि मृत्तिका सेटिकादिनां बल्ल्याद्याकाररचनाविशेषरूपाणि 'गंधिमवेढिमपूरिमसंघाइमाई' ग्रन्थिम - वेष्टिमपूरिम- संघातिमानि तत्र ग्रन्थिमानि- कौशलातिशयेन ग्रन्थिसमुदायनिष्पादितानि वेष्टिमानि=यानि लतादिवेष्टनतो निष्पादितानि तानि पूरिमाणि यानि छिद्रादिपूरणेन निष्पाद्यन्ते कनकादि पुतलिकावत् तानि संघातिमानि=यानिसभ करावेइ, अणेगखंभसयसन्निबिड पासाईयं दरिसणिज्जं अभिरुवंपडिख्वं तत्थ णं बहणि किण्हाणि य जाव सुकिलाणि य कट्टकस्माणि य पोत्थकम्माणि चिन्तकम्माणि लेप्पकस्माणि गंधिमवेदिम पूरिम संघाइमाई उवदंसिज्जमाणाई २ चिति) उस मणिकार श्रेष्ठी नंद ने पूर्व दिशा संबन्धी वनखंड में एक बड़ी भारी चित्रसभा बनवाई । यह चित्रसभा नाना प्रकार के मणिक्यादि निर्मित हुए सैकड़ों स्तंभों से युक्त थी । प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी । उस चित्र सभा में उसने अनेकविध कृष्ण, नील, पीत, श्वेत और लाल रंगों से कोष्ठ के ऊपर शिल्प कार्य करवाये, पुस्त कर्म करवाये-वस्त्र, तोड पत्र, कागज आदिकों में लेख लिखवाये, चित्र कर्म करवाये - भिति आदिकों के ऊपर नाना प्रकार के चित्र अंकित करवाये, लेप्य कर्म करवाये - सयस नित्रि पासाइय' दरिसणिज्जं अभिरुव पडिरूव तत्थण बहूणि किण्हाणि जाव सुकिलाणि य कट्ट कम्माणिय पोत्थ कम्माणि चित्तकम्माणि लेप्पकम्माणि ग' थिम - वेढिम-पूरिमसंघाइमाई उबद सिम्जमाणाइ २ चिट्ठ ेति ) भरि શ્રેષ્ઠિી નદે તે પૂર્વ દિશા તરફના વનડમાં એક બહુ ભારે ચિત્રસભા ખનાવડાવી. તે ચિત્રસભા ઘણી જાતના મણિએ માણિકા વગેરેથી બનાવવામાં આવેલા એવા સેકા થાંભલાઓવાળી હતી. તે પ્રાસાદીય દર્શનીય. અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ હતી. તે ચિત્રસભામાં તેણે ઘણી જાતના કૃષ્ણ, નીલ, પીત ( चीजा ), श्वेत ( स ) अनेसास रंगोथी ४४४ ( साईडा ) ना उपर शिय કામ કરાવડાવ્યાં, પુસ્તકમ કરાવડાવ્યા, વસ્ત્ર, તાડપત્ર, કાગળ વગેરે ઉપર લેખા લખાવડાવ્યા-ચિત્રા દેરાવાવ્યાં, ભીંતા વગેરે ઉપર અનેક જાતના ચિત્ર દોરાવડાવ્યા, લેખ્ય કર્મ કરાવડાવ્યા, માટી લાલ માટી વડે વલ્લી વગેરેની તેમાં
९४
For Private And Personal Use Only
Page #802
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथा वस्तुसमूहेन निष्पाद्यन्ते लोहकाष्ठादिभीदथादिवत् , तानि, एतानि पशुपक्ष्यादिरूपाणि ' उवदंसिज्जमाणाई २' उपदृश्यमानानि २ लोकैरन्योन्यं पुनः पुनरुपर्यमानानि तिष्ठन्ति-सन्ति । तत्र खलु बहूनि 'आसणाणिय ' आसनानिवेत्रकाष्ठादिनिर्मितानि चतुष्कोणादिरूपाणि शयनानि शयनयोग्यानि सार्द्धतृतीयहस्तपरिमितानि फलकादीनि, कीदृशानीत्याह-' अत्थुय ' इत्यादि-' अत्थुयप
चत्थुयाई' आस्तृतप्रत्यास्तृतानि, आस्तृतानि मृदुलवस्त्रादिनाऽऽच्छादितानि, प्र. स्यास्तृतानि = तदुपरि पुनःपुनकूलादिनाऽऽच्छादितानि तिष्ठन्ति वर्तन्ते । पुनश्च-तत्र खलु बहवो नटाच-गाननृत्यकर्तारः ' णट्ठा य' नृत्ताः केवलमावि क्षेपमात्रेण नर्तनशीलाश्च यावत् 'दिनभइभत्तवेयणा' दत्तभृतिभक्तवेतनाः-दत्ताः मिट्टी, खरियामिट्टी से बल्ली आदि की उसमें रचना करवाई । ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम, एवं संधातिम आदि अनेक खेल भी उस में दिखलाए (तस्थणं यहूणि आसणाणि य, सयणाणि य, अत्थु य पञ्चत्थुयाई चिट्ठति तत्थणं बहवे णडाय गट्टा य, जाव दिन्नभइभत्तवेयणा तालायकम्म करेमाणा विहरंति) अनेक आसन, शयन, जो आस्तृत प्रत्यास्तृत थे वे भी उसमें रखवाये, वेत्र अथवो काष्ठ आदि से निर्मित चतुष्किकादि रूप-कुर्सी आदिरूप जो होते हैं वे ओसन हैं एवं साढे तीन हाथ के जो काष्ठ फलक-नखता आदिरूप होते हैं कि जिन पर अच्छी तरह सोया जा सकता है वे शयन हैं। इन आसन शयनों के ऊपर मृदुल चन्नादि, विछा हुआ था इसलिये ये आस्तृत थे, और उन मृदुल वस्त्रा दिकों के ऊपर और भी दूसरा पलंग पोस बिछा हुआ था इस लिये वे प्रत्यस्तृत थे। नंद सेठ ने उस चित्र सभा में नटों को नत्तों को-नृत्यરચના કરાવડાવી. પ્રથમ, વેષ્ટિમ, પૂરિમ અને સંઘાતિમ વગેરે ઘણી જાતની २भत ५ तेमा रा१वी ( तत्थण बहूणि आसणाणि य, सयणाणि, य, अत्थुय पञ्चत्थुयाई चिति, तथण बहवे णडाय णट्ठा य, जाव दिनभइभत्तवेयणा तालायकम्मं करेमाणा विहरति ) घ! यासनी, घशी पथारीमा २ सास्तव પ્રયાસ્તુત હતા–પણ તેમાં મુકાવડાવી. વેત્ર કે લાકડા વગેરેથી બનાવવામાં આવેલી ચતુષ્કિકા વગેરે રૂપ ખુરશી રૂપ જે હોય છે તે આસન છે. અને સાડા ત્રણ હાથના જે લાકડાના તખતા વગેરે હોય છે કે જેના ઉપર સારી રીતે સૂઈ શકાય તે શયન છે. આ આસને તેમજ શયનોની ઉપર કમળ વો વગેરે પાથરેલાં હતાં. એટલા માટે જ તેઓ આસ્તૃત હતા તે કોમળ વસ્ત્રો વગેરે ઉપર એક બીજું વસ્ત્ર પાથરેલું હતું એટલા માટે એઓ પ્રત્યાસ્વત હતા, નંદ શેઠે તે ચિત્ર સભામાં નટે, નુત્તનાચનારા માણસે-તિ,
For Private And Personal Use Only
Page #803
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधामृतयषिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् मृतिः धान्यादिरूपं पारिश्रमिकम् , भक्तम् ओदनादिरूपं वेतनरूप्यकादिरूप परिश्रमिकम् , एतेषां द्वन्द्वे भृतिभक्तवेतनानि, दत्तानि भृतिमभक्तवेतनानि येभ्यस्ते तथोक्ता पुरुषाः ' तालायरकम्मं ' तालाचरकर्म=नटादि सम्बन्धिकं गीतवादिवादिकर्म कुर्वाणाः विहरन्ति-तिष्ठन्ति स्म । अथ च-राजगृहविनिर्गतः वायुसेवनार्थ राजगृहनगराद् बहिनिम्मृतश्च बहुजनो जनसमुदायः 'जस्थ ' यत्र चित्रसभायामागत्य तेषु पूर्वन्यस्तेषु-पूर्वस्थापितेषु आसनशयनेषु कश्चित् ' संनिसमाय ' संनिषण्णः उपविष्टः, कश्चित् — संतुयट्टो य ' संत्वगृत्तश्च शयितः, कश्चित् कारकों को यावत् भृति, भक्त एवं वेतन देकर तालचर कर्म करने पालों को भी नियुक्त कर रखा था। जो गान नृत्य कर्म करते हैं वे नट है। जो केवल अंग विक्षेप मात्र से ही नृत्य क्रिया प्रदर्शित करते हैं वे नृत्त हैं। धान्यादि रूप पारिश्रमिकका नाम भृति, ओदनादिरूप पारिश्र. मिक का नाम भक्त एवं नगदी पैसा रूप्प आदि रूप परिश्रमिक का नाम वेतन हैं। नटादि सम्बन्धी गीतनृत्य वादित्र आदि कर्म को जो करते हैं उनका नाम तालचर है। तबले आदि पजाने वाले व्यक्ति ता. लाचरों में हैं । (रायागिहविणिग्गओ य जत्थ बहुजणो तेसु पुन्वन्नत्थे सु आसणसयणेसु संनिसनो य सतुयहो य सुणमाणो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहं सुहेणं विहरइ) राजगृह नगर से वायु सेवनघूमने के लिये निकले हुए अनेक जन उस चित्र सभा में आते उनमें 'कितनेक जन वहां पूर्वन्यस्त उन आसन शयनों पर बैठ जाते, और कितनेक जन सो जाते, कितनेक जन गीतवादित्रों को सुनते, कितनेक ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપીને તેમજ બીજા પણ તાલચર કર્મ કર નારાઓની નીમણુંક કરી હતી. જેઓ ગાન-નૃત્ય કર્મ કરે છે તેઓ નટ છે. જેઓ ફકત અંગ વિક્ષેપ માત્રથી જ નૃત્ય કરે છે તેઓ નૃત્ત છે. મહેનતાણુના રૂપમાં ધાન્ય વગેરે આપે તે ભૂતિ, મહેનતાણાના રૂપમાં ઓદન (રાંધેલા ખા) વગેરે આપે. તે ભક્ત અને રોકડા નાણાં ચાંદી વગેરેના સિકકા મહેનતાણું બદલ આપે તેને વેતન કહે છે. નટ વગેરેની ગીત, નૃત્ય, વાત્ર વગેરે કર્મ ४२नारा 'तसयर' छ. तसा (२) पणे गाउना। भारासतय। छे. (रायगिह विणिग्गओ य जत्थ बहूजणो तेसु पुन्नित्थेसु आसणमयणेसु सनिसन्नो य सतुयट्टो य सुणमाणो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सह सुहेणं विहरद ) नगरना २३॥ ३२॥ भाटे ना घरी भासे ચિત્રસભામાં આવતા અને તેમાંથી કેટલાક માણસો તે પૂર્વે મૂકાવડાવેલા આસને શયને ઉપર બેસી જતા અને કેટલાક સૂઈ જતા, કેટલાક ગીત,
For Private And Personal Use Only
Page #804
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७४८
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे
'सुणमाणो य' शृण्वंतश्च गीतवादित्रादिकं कर्णविपयी कुर्वन् कचित् पेच्छपाणो य' प्रेक्षमाणश्च = नृत्यादिकं पश्यन् 'साहेमाणो य ' कथयंथ = परस्परं कथां कुर्वन्'लायन वा सुखसुखेन सुखपूर्वकं सानन्दं विहरति=क्रीडतिस्म ॥ सू० ३ ॥
मूलम् - तरणं णंदे दाहिणिल्लेवणसंडे एवं महं महाणससालं करावे अणेगखंभसयसंनिविट्टं जाव पडिरूवं तत्थ णं बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा विपुलं असणं४ उवक्खडेंति बहूणं समणमाह अतिहि किवणवणीमगाणं परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति, तणं णंदे मणियारसेट्ठी पच्चत्थिमिले वणसंडे एगं महं तेगिच्छियसालं करावेइ, अणेगखंभसय संनिविट्टं जाव पंडिरूवं, तत्थणं बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ताय जाणुयाय जाणुयपुत्ता य कुसलाय कुसलपुत्ता यदिन्नभइभत्तत्रेयणा वहूणं बाहियाण य गिलाणाण य रोगियाण य दुब्बलाण य तेइच्छं करेमाणा २ विहरति, अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा तेसिं बहूणं वाहियाण य रोगियाणय गिलाणाणय दुब्बलाणय ओसहभे सज्जभत्तपाणणं पडियारकम्मं करेमाणा२ विहरंति, तणं णंदे उत्तरिल्ले वणसंडे एवं महं अलंकारियसभं करावेइ अणेगखंभसयसंनिविट्टं जाव पडिरूवं, तत्थ णं बहवे अलंका- रियपुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा बहूणं समणाण य माहणाणय अणाहाण य गिलाणाण य रोगियाणय दुब्बलाणय अलंकारिकम्मं करेमाणार विहरति । तएणं तीए नंदाए पोक्खजन नृत्यादिकों को देखते और कितनेक जन परस्पर बैठकर बातचीत करते हुए बड़े आनंद के साथ अपना समय व्यतीत किया करते || सू३॥ વાજીત્રાને સાંભળતા, કેટલાક નૃત્ય વગેરે જોતા અને કેટલાક પાસે પાસે બેસીને ગપસપ કરતા સુખેથી પેાતાને વખત પસાર કરતા હતા. ॥ સૂત્ર ૩ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #805
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भामगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् रिणीए बहवे सणाहा य अणाहा य पंथिया य करोडिया य कप्पडिया य तणहारा य पत्तहारा य कट्रहाराय अप्पेगइया पहायति अप्पेगइया पाणियं पियंति, अप्पेगइया पाणियं संव. हंति अप्पेगइया विसज्जियसेय जल्लमलपरिस्लमनिदखुप्पिवासा सुहं सुहेणं विहरति । रायगिहविणिग्गओ वि जत्थ बहुजणो किं ते जलरमणविविहमजणकयलिलयाघरयकुसुमसत्थरय अणेग सउणगणस्यरिभियसंकुलेसु सुहंसुहेणं अभिरममाणो २ विहरइ ॥ सू० ४ ॥
टीका-'तएणं णंदे' इत्यादि । ततः खलु नन्दः श्रेष्ठी दाक्षिणात्ये वनपण्डे एकां महती महानसशालां-पाकशालां कारयति । कीदृशीम् ? इत्याह'अणेग' इत्यादि-अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टां यावत्पतिरूपाम् । तत्र खलु वचः पुरुषा दत्तभृतिभक्तवेतना: पारिश्रमिकदानेन नियुक्ताः पाककर्मकराः विपुलम्
'तएणं गंदे दाहिणिल्ले'-इत्यादि ॥
टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (णंदे) नंद श्रेष्ठी ने (दाहिणिल्ले) दक्षि. गदिशा संबन्धी (वणसंडे ) वनषंड में (एगं महं) एक बड़ा भोरी (महाणससालं) रसोइघर-भोजन शाला (करावेइ ) बनवाया। (अणेग खभसयसंनिविठं जाव पडिरूवं,तत्थणं बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्त वेयणा विपुलं असणं४ उवक्खडेंति बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवणवणीपगाणं परिभाएमाणा परिवेसेमागाविहरंति) यह रसोइघर सैकड़ों खंभो के ऊपर खड़ा किया गया था। बड़ा ही रमणीय था । इस में अनेक पुरुष रसोई बनाने का काम करने के लिये नियुक्त किये गये थे। उन्हें
'तएणं गंदे दाहिणिल्ले' इत्यादि
A14-(तएणं) त्या२ ५७ी (शंदे) न शेठे (दाहिणिल्ले) क्षिा शान ( वणसंडे ) वन उभा ( एग मह) से गहु विश ( महाणससाल) रसा। '५२- ना -( करावेइ) मनापावी. ( अणेगखभसयसंनिविढे जाव पडि. रूवं तत्थणं बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा विपुलं असणं ४ उवक्खडेति चहूणं ममण-माहण-अतिहि-किवण वणिपगाणं परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरति) આ ભોજનશાળા સેંકડે થાંભલાઓની હતી. તે ખૂબ જ રમણીય હતી. તેમાં રઈ તૈયાર કરવા માટે ઘણું માણસે નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા. તેઓને
For Private And Personal Use Only
Page #806
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७५०
ज्ञाताधर्मकथासूत्र अशनम् ४ चतुर्विधमाहारम् उपस्कुर्वन्ति । बहूनां श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवनीपकानां-परिभाजयन्तः २=विभागं कुर्वन्तः, परिवेषयन्तश्च विहरन्ति ।
ततः खलु नन्दो मणिकारश्रेष्ठी पच्चथिमिल्ले' पाश्चात्ये पश्चिमदिग्भागस्थे, वनपण्डे एका महतीं 'तेगिच्छि यसालं' चिकित्साशालां=रोगापनयनशाला ' करावेइ ' कारयति, किंभूताम्-अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टां यावत्-प्रतिरूपां, तत्र-तस्यां पारिश्रमिक रूप में भृति, भक्त और वेतन दिया जाता था। ये ४ चारों प्रकार का आशनादि रूप आहार उसमें बनाया करते थे। अनेक श्रमण ब्राह्मण, अतिथि एवं वनीपकोंको-याचकोंको यहांसे भोजन दिया जाता था। कोई २ वही खाते थे और कोई कोई अपने विभाग को ले जाते थे। (तएणं गंदे मणियारसेट्ठी पच्चधिमिल्ले वासंडे एगं मह तेणिच्छियसालं करावेइ, अणेगखंभसयसंनिविढे जाव पडिरूवं, तत्थ ण यहवे वेजा य वेज्जपुत्तो य जाणुया य जाणु य पुत्ता य कुमला य कुसल पुत्ता य दिनभइमत्तवेयणा बहग हियायाण य गिलागाण य रोगियाण य दुबलाण य तेइच्छं करेमागा २ विहरंति, अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा तेसि यहग चाहियोण य रोगियाण य गिला णोण य दुब्बलाण य ओसहभेसज्जभत्तगण पडियारकम्मं करेमाणा २ विहरंति ) इस के बाद उस नंद माणिकार श्रेष्ठी ने पश्चिम दिशा सम्बन्धी वनषंड में एक बड़ी भारी चिकित्साशाला-औषधालय-बन. वाई । यह भी सेंकड़ों खभों के ऊपर खड़ी की गई थी। बहुत ही सु. પિતાના મહેનતાણા બદલ ભૂતિ, ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપવામાં આવતું હતું. ચારે જાતના અશન વગેરે આહારો તેમાં બનાવતાં હતા. ઘણા શ્રમાણે બ્રાહ્મણ, અતિથિએ અને વનપકે-વાચનારાઓને ત્યાંથી ભેજન આપવામાં આવતું હતું. તેમાંથી કેટલાક તે ત્યાં જ જમી લેતા હતા અને કેટલાક पोतार्नु माral al. (ताणं गंदे मणियार सेट्ठी पञ्चयिमिल्ले वणस डे एग मह तेणिच्छियसाल करावेह, अणेगखंभसयस निवि जाव पहिरूवं, तत्थणं बहवे वेज्जा य वेज्ज पुत्ताय जाणुयाय जाणुय पुत्ताय कुसुलाय कुसलपुत्ताय दिन्न भइ. भत्तवेयणा बहूण बाहियाण य गिलाणाण य रोगियाण य दुबलाण य तेइच्छं करेमाणा २ विहर ति; अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिन्न भइभत्त३यणा तेसि बहूणं वाहियाण यरोगियाण य गिलणाणा य दुलण य ओमहमेसज्जभत्तपाणेणं पडियार कम्मं करेमाणा२ विहरति) त्या२मा ते मणि२ शेठे पश्चिम दिशाना बनमा એક બહ વિશાળ પાયા ઉપર ચિકિત્સા શાળા ( દવાખાનું) બનાવડાવી. એ પણ સેંકડે થાંભલાઓથી ઊભી કરવામાં આવી હતી તેમજ ખૂબ જ રમણીય
For Private And Personal Use Only
Page #807
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मागारधर्मामृतषिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् चिकित्साशालायां, खलु बहवो चिकित्सकाश्च वैद्याः वैद्यपुत्राश्च, 'जाणुया य' मायकाः चिकित्साशास्त्रमनधीत्यापि वैद्यप्रत्तिदर्शनेन च्याधिधारणविधिज्ञाश्च, शायकपुत्राश्व- चिकित्सावेदिनां सुताश्च, तथाकुशल:-स्वकीयतर्कतश्चिकित्सादौ प्रवीणाश्च, कुशलपुत्राः तेषां पुत्राश्च दत्तभृतिभक्तवेतनाः बहूनां ' वाहियाणं' व्याधितानां विशिष्टदुःख जनककुष्ठादिरोगवतां. 'गिलाणाग य ' ग्लानानां 'रोगियाणं य ' रोगिकाणां दुर्बलानां शक्तिहीनानां च ' तेइच्छंकरेमाणा' चिकित्सांक व्याधिपतीकारं, कुर्वन्तः, विहरन्ति । तस्यां शालायां अन्ये चात्र बहवः पुरुषाः दत्तभृतिभक्तवेतनास्तेषां बहूनां व्याधितानां च ग्लानानां च रोगिकानां च दुईन्दर थी। इस में अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र ज्ञायक ज्ञायकपुत्र, कुशल, कुशल पुत्र, भृति, भक्त और वेतन देकर नियुक्त किये हुए थे। ये वहां अनेक न्यधियुक्त मनुष्यों की ग्लान मनुष्यों की, रोगी मनुष्यों की, दुर्यल मनुः व्यों की, चिकित्सा करते थे। वहां और भी परिचारक मनुष्य भृति भक्त और वेतन देकर नियुक्त किये हुए थे-जो इन व्याधित ग्लान, रोगी और दुर्यल मनुष्यों की औषध, भैषज्य, भक्त और पान से सेवा किया करते थे। चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन किये विना ही जो वैचों की प्रवृत्ति देख २ कर व्याधि को दूर करने का अनुभव प्राप्त कर लेते हैं ऐसे व्यक्ति यहां "ज्ञायक" शब्द से गृहीत हुए हैं। जो अपनी तर्कणा के बलपर चिकित्सा आदि में निपुण होते हैं वे यहाँ "कुशल" शब्द से गृहीत हुए हैं। विशिष्ट दुःखोत्पादक कुष्ठादिरोग से जो पीडित हो रहेहैं ऐसे मनुष्य यहां व्याधित शब्द के वाच्य हुए है । एक
ता. तेमा या धो, वैध पुत्री, शाय४, ज्ञायपुत्री, शत, सुशस पुत्री, ભતિ, ભક્ત અને વેતન આપીને નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા. તે બધા ત્યાં ઘણા માંદા માણસોની, ગલાન માણસોની, રેગીઓની, કમજોર માણસની ચિકિત્સા (ઈલાજ) કરતા હતા ત્યાં બીજા પણ ઘણાં પરિચારકજને ભૂતિ, ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપીને નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા. તેઓ માંદા, ગ્લાન, રોગી અને કમર માણસની ઔષધ, ભૈષજ્ય, ભક્ત અને. પાનથી સેવા કરતા હતા. ચિકિત્સાશાસ્ત્રના અભ્યાસ કર્યા વગર જ જે વૈદ્યોની પ્રવૃત્તિ–વૈદ્ય કેવી રીતે બીમારની ચિકિત્સા કરે છે?—આ બધું જોઈને બીમારેને મટાડવાને અનુભવ મેળવે છે તે માણસ અહીં “જ્ઞાયક' ના રૂપમાં પ્રયુક્ત થયો છે. જે પિતાની તર્કણશક્તિના આધારે ઈલાજ વગેરેમાં નિપુણ હોય છે તેઓ અહીં કુશળ' શબ્દના રૂપમાં ગૃહીત થયા છે. વિશિષ્ટ છેત્પાદક કુષ વગેરે રોગથી જે પીડાતા રહે છે એવા માણસે અહીં વ્યાધિત
For Private And Personal Use Only
Page #808
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
. लाताच 'ओसहभेसरजमनपायोग' औषध भैषज्यभक्तपानेन औषधमेकमाया साध्यं, भेषज-अनेकद्र्व्यसंयोगनिष्पन्न भक्तपानम्-आहारः, पानम्=पानी तेना, पड़ियारकम्म ' प्रतिचारकर्म-सेवारूप कर्म कुर्वन्तो विहरन्ति । ___ सतस्तदनन्तर खलु बन्दः नन्दनामामणिकारश्रेष्ठी, ' उचरिल्ले ' उससे बसण्डे एकां महतीं ' अलंकारियसभं ' अलंकारिकसभा-नापितकर्मशाला कार भति, कीशीम् ? अमेकस्तम्भशतसंनिविष्टां यावत्-मतिरूपाम् , तत्र तस्या नापितकर्मशालायां वहवोऽलङ्कारिक पुरुषा:-नापिताः, दत्तभृतिभक्तवेतमाः बहूनां द्रष्य साध्य दवाका माम औषध है और जो अनेक दवाओं के संयोगसे दधाई तैयार की जाती है वह भैषज्य है (तरण गदे उत्तरिल्ले वणसं एग मह अलंकारियसभं करावेह अणेगखंभलयसनिचिढ़ जाव पडिरूप, तस्य वह अलंकारियपुरिमा दिनभइभत्तवेयणा पट्टणं समणाण ५ माहणाग य अणाहाण य गिलाणाण य रोगियाण य कुक्लाण व अलंकारिग कम्मं करेमाणार विहरंति सएणं तीए नंदाए पोखकिणीए बहवे सणाहा ये अणाहा य पंथिया च पहियाय करोडिया व कापडियाय तणहारा पसहारा य कहाराय अप्पेगइया हायति, अप्पेगइया पाणियं पियेति, अपगड्या पाणिये संवहंति, अप्पेगइया विसज्जिय से य जल्लमास परिसमनिई खुप्पिवासा सुहं सुहेणं विहरंति ) इस के बाद उस मणिकार श्रेष्ट्री नंद ने उत्तर दिशा संबन्धी धनषंड में एक बड़ी सही नापित कर्म शाला पनवाई । यह भी सैकड़ों खंभों से निर्मित की गई શબ્દથી ગૃહીત થયેલા છે. એક દ્રવ્ય-સાધ્ય દવાનું નામ ઔષધ ” છે અને જે અનેક (ઘણી) દવાઓના મિશ્રણથી તૈયાર કરવામાં આવે છે તે શ્રેષય છે. (तपणे दे उत्सरिल्ले वणसंडे एग' मह अलकारियसभ करावेइ अणेगखंभसयः समिबिटुं जाव पडिरूष', तत्थणं बहवे अलंकारियपुरिसा दिन्नभइभसवेयणा वहूण समणाण य, माहणाण य, अणाहाण य, गिलाणाण य, रोमियाण य, दुच्छलाण थ, अलंकारियकम्म करेमाणा २ विहरति तएणं तीए नदाए पोक्खरिणीए बह सणाहा य अणाहा य प'थिया य, पहिया य करोडीया च कप्पडिया य तणहारा य, पत्तहारा य कटुहारा य अपेगइया व्हायति, अप्पेगइया पाणिय पियंति अप्पेगइय। पाणिय संवहति, अप्पेगइया विसज्जिय से य जल्लमलपरिसमनि खुप्पिवासा सुह सुहेण विहरति ) त्या२पछी ते मणि२ श्रेठी उत्तर हिशाना વનખંડમાં એક વિશાળ નાપિત કમશાળા ( હજામ શાળા ) બનાવડાવી. તે પણ સેંકડે થાંભલાઓ ઉપર બાંધવામાં આવી હતી. જોવામાં તે ખૂબ જ
For Private And Personal Use Only
Page #809
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणन
श्रमणानां च ब्राह्मणानां च सनाथानां च ग्लानानां च रोगिकाणां च दुर्बलानां चालङ्गारिककर्म कुर्वन्तः २ विहरन्ति । . ततस्तदनन्तरं खलु तस्यां नन्दायां पुष्करिण्यां बहवः सनाथाश्च अनाथाश्च पान्थिकाश्च पथिकाश्च करोटिकाश्च कार्पटिकाश्च तृणहारकाश्च पत्रहाराश्च काष्ठहारकाच 'अप्पेगइया' अप्पेककाः=3.प्ये के-केचन, 'व्हायंति ' स्नान्ति स्नानं कुर्वन्ति, अप्येककाः-पानीयं पिबन्ति, अप्येककाः-पानीयं संवहन्ति, भरन्ति, अप्येकका केचन ‘विसज्जियसेयजल्लमलयरिस्समनिद्दखुप्पिवासा' विर्जितस्वेदनल्लमल्लपरिश्रमनिद्राक्षुत्पिपासाः विसर्जिता अपनीता दूरीकृताः स्वेदजल्लमलरूपाः शरीरमलास्तथापरिश्रमनिद्राबुभुक्षापिपासाश्च यैस्ते तथाविधा मनुष्याः ' मुहं सुहेणं' सुखं सुखेन अतिसुखेन विहरन्ति । ' किंते ' किमधिकं तवर्ण्य ते-राजगृहविनिथी। देखने में बड़ी सुहावनी थी। इस में अनेक नापित (नाई ) भृति भक्त एवं वेतन देकर नियुक्त किये गये थे। ये वहां अनेक श्रमणों के ब्राह्मणों के, सनाथ अनाथ जनों के, ग्लानों के, रोगियों के एवं दुषलों के बाल बनाया करते थे। उस नंदा पुष्करिणी में कितनेक सनाथ कितनेक पान्थिक, कितनेक पथिक, कितनेक करोटिक, कितनेक कार्यटिक, कितनेक तृण हारक-घास ढोने वाले कितनेक पत्र हारक कितनेक कष्ठ हारक-लकड़हारे-स्नान करते पानी पिया करते और कितनेक उस में से पानी भरा करते। कितनेक स्वेद, जल मल रूप शरीर के मैल को उस के जल से दूर करते और कितनेक परिश्रम, निद्रा बुभुक्षा एवं पिपासा को उस वापिका के सहारे से शांत किया करते । इस तरह अनेक जन उस पुष्करिणी से बहुत आनंदित रहते । (रायगिह विणि મને રમ લાગતી હતી. તેમાં ઘણુ નાપિત (હજામ) ભૂતિ, ભક્ત અને વેતન (પગાર) આપીને નિયુક્ત કરવામાં આવ્યા હતા. તેઓ ત્યાં ઘણા શ્રમના, બ્રાહ્મણના, સનાથ તેમજ અનાથજના, લાના, રોગીઓના અને દુર્બળ માણસેના વાળ કાપતા હતા. તે નંદા પુષ્કિરિણી (વાવ) માં કેટલાક સનાથ, કેટલાક પથિક, કેટલાક પથિક, કેટલાક કરેટિક, કેટલાક કાર્પેટિક, કેટલાક તૃણહારક (ચારના ભારાઓ ઉચકનારા) કેટલાક પત્રહારક, કેટલાક કાછહારક, (લાકડાં વગેરે વેચવાને બંધ કરનારા) સ્નાન કરતા હતા, પાણી પીતા હતા. અને કેટલાક તે તેમાંથી પાણી ભરતા રહેતા હતા. કેટલાક માણસે તે સ્વેદ, જળમાં ઉપર તરી આવત શરીરના મેલ ને પાણી માંથી બહાર કાઢતા હતા. અને બીજા કેટલાક માણસે પરિશ્રમ, નિદ્રા, ભૂખ અને તરસ તે પાણી પીને મટાડતા હતા. આ રીતે ઘણા માણસે તે પુષ્કરિણમાં આનંદ
For Private And Personal Use Only
Page #810
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
---
-
-
--
-
-
-
-
शाताधर्मकथा गतोऽपि यत्र बहुजनः ' जलरमणविविहमज्जणकलिलयाघरयकुसुमसत्थरयणग सउणगणरुयरिभितसंकुलेसु' जलरमणविविधमज्जन कदलीलतागृहककुसुमशस्तरनोऽनेकशकुनगणरुतरिभितसंकुलेषु-तत्र जलरमणैः- जलक्रीडादिभिः, विविधम
जनैः-बहुविधैः स्नानैः, कदलीनां लतानां च गृहकैः कुसुमशस्तरजोभिः कुसुमांना पुष्पाणां, शस्तैः सुगन्धयुक्तैः, रजोभिः परागैश्च, अनेकशकुनगणरुतैःबहुविधपक्षिगणानां रुतैः-शब्दैश्च, स्तैः कीदृशैरित्याह-रिभितै स्वरयुक्तैः-मधुरैरित्यर्थः, संकुलेषु-युक्तषु वनपण्डेषु, सुखं सुखेनाभिरममाणः २ विहरति । सू०४।। ... मूलम्-तएणं णंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो ये पियमाणो य पाणियं च संवहमाणो य अन्नमन्नं एवं क्यासी-धण्णे णं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारसेट्टी कयत्थे जावं जम्मजीवियफले जस्सणं इमेयारूवा गंदा पोक्खरणी चाउकोणा जाव पडिरूवा, जिस्सा णं पुरथिमिल्ले तं चेव सव्वं चउसु कि वणसंडेसु जाव रायगिहे विणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु गओ वि जत्थ बहुजगो किं ते जलरमण विविहमजणकलिलया घरय कुसुम सत्थरय अणेगअभिरममाणो २ विहरइ ) और अधिक क्या कहें-राजगृह नगर से बाहिर निकले हुए प्रायः सभी जन विविध प्रकार की जल क्रीडाओं से नाना प्रकार के मजनो से, कदली और लताओं के घरों से, पुष्पो की सुगंधित रज से, और अनेक विधपक्षी गणों के मधुर शब्दों से युक्त इन वनपंडों में आनंद से इठलाते हुए विचरण किया करते थे। सूत्र ॥ ४ ॥ पूर्णः पाताना १wd tndl ता. ( रायगिहविणिग्गओ वि जत्थ बहुजणो कि है जेलरमणविविहमज्जणकयलिलया घरय कुसुम सत्यरयअणेगसउणगणहयरिभिय संकुलेसु सुह सुहेणं अभिरममाणो२ विहरइ) भने माता धारे ही. રાજગૃહ નગરની બહાર આવનારા ઘણા માણસે ઘણી જાતની જળ-ક્રીડાએ
અને ઘણી જાતના મજજને ( સ્નાન) કરીને તેમજ કદલી અને લતાગૃહાથી, પુની સુગંધિત રજથી અને ઘણા પક્ષીઓના મધુર કલરવથી યુક્ત આ વર્ષમાં આનંદથી મસ્ત થઈને લહેર કરતા હતા-વિચરણ કરતા હતા. સૂ. “જ”
-
-
-
For Private And Personal Use Only
Page #811
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ०१३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् बसयणेसु य सन्निसन्नो य संतुयहो य पेच्छमाणो य साहे. माणो य सुहंसुहेणं विहरइ, तं धन्ने कयत्थे कयपुन्ने कयाणदे लोए। सुलद्धे माणुस्सए जम्म-जीवियफले नंदस्स मणियारस्स, तएणं रायगिहे सिंघाडग जाव वहुजणो अन्नमन्नस्स एव. माइक्खइ ४ धन्ने णं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारे सो चेव गमओ जाव सुहंसुहेणं विहरइ । तएणं से गंदे मणियारे बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हट्ठतुढे धाराहय कलंबगंपिब समूसियरोमकूवे परं सायासोक्खमणुभवमाणे विहरइ ॥ सू०५॥
टीका-'तएणं णंदाए' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु नन्दायां पुष्करिण्यां बहुजनः 'हायमाणो य' स्नानं कुर्वन् 'पीयमाणोय ' पिचन् पानीयं च संवा
तएणं णदाए पोक्खरिणीए' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (गंदाए पोक्खरिणीए व्हायमाणा य पियमाणो य पाणियंच संवहमाणो य बहुजणो अण्णमण्णं एवं क्यासीधणे णं देवाणुप्पिया। गंदे मणियारसेट्ठी कयत्थे जाव जम्मजीवियफ अस्सणं इमेया रूवा गंदा पोक्खरणी चाउकोणा जाव पडि रुवा, जि. स्साणं पुरथिमिल्ले तं चेव सव्वं चउसु वि वणसंडेसु जाव रायगिह चिणिग्गओ जत्थ बहु जणो आसणेप्नु य सयणेतु य सन्निसन्नो य संतुयहो य पेच्छमाणी य सोहेमाणो य सुहं सुहेणं विहरइ ) उस नंदा पुष्करिणी में स्नान करने वाला पानी पीनेवाला और उस में से पानी
।
'तएणं गंदाए पोखरिणीए' इत्यादि
साथ-(तएण) त्या२५॥ (णंदाए पोक्खरिणीए व्हायमाणो य, पियमाणो य पाणियं च सवहमाणो य बहुजणो अण्णमण्ण एवं वयासी धण्णे णं देवानुपिया! गरे मणियारसेद्री कयत्थं जाव जम्मजीवियफछे जस्सणं इमेयारूवं गंदा पोख. रणी चाउकोणा जाव पडिरूवा, जिस्साणं पुरस्थमिल्ले त चेव सव्वं चउसु वि वण. मंडेसु जाव रायगिहविणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु य सयणेसु य सन्निसनो य संतुयट्टो य पेच्छमाणो य सोहेमाणो य सुह सुहेण विहरह) तेन रिशी (१) मा स्नान ४२नार, पाणी पीनार, अने तेमांथी पाणी सरना२, १ રેક માણસ પરસ્પર આ પ્રમાણે વાત કરવા લાગ્યા કે હે ભાઈ! મણિયાર
For Private And Personal Use Only
Page #812
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथा मानः घटादिभिनयन् चान्योन्यमेवमवादीत्-धन्यः खलु हे देवानुप्रियाः नन्दो. मणिकारश्रेष्ठी कृतार्थों यावत्-सुलब्धजन्मजीवितफलं, यस्य खलु इयमेतद्रूपा नन्दा-नन्दानाम्नी; पुष्करिणी चतुष्कोणा यावत् प्रतिरूपा पर्वते 'जिस्साणं' यस्यां खलु पुष्करिण्याः पौरस्त्ये तदेव सर्वं चतुर्वपि वनषण्डेषु यावत्-राजगृहविनिर्गतो यत्र बहुजन आसनेषु च शयनेषु च संनिषण्यः सम्यक्रमकारेणोपविष्टश्च 'संतुयट्टो' संत्वग्वृत्ता-शयितः कृतपार्थपरिवर्तनश्च, ' पेच्छमाणः ' प्रेक्षमाणः वनषण्डश्रियं पश्यन् 'साहेमाणो' कथयन्-तद्विषयककथां कुर्वन् श्लाघयन् वा सुखमुखेन-अतिसुखेन विहरति । तत्-तस्माद् धन्यः कृतार्थः कृतपुण्यः कृतानन्दो नन्दमणिकारश्रेष्ठीलोके सुलब्ध मानुष्यकजन्मजीवितफलं यस्य नन्दस्य मणिकाभरने वाला प्रत्येक जन आपस में इस प्रकार से बात चीत किया करता कि हे भाई ! मणिकार श्रेष्ठी नंद को धन्यवाद है । वह कृतार्थ हो गया। उसने अपने जन्म और जीवनका फल अच्छी तहर से पा लिया कि जिसमें यह चारकोनों वाली यावत् प्रतिरूप नंदा नाम की सुन्दर वापिका बनवाई है । और उसके चारों ओर चार वनखंड बनवाये हैं। पूर्व दिशो संबन्धी वनषंड में एक विशाल चित्रसभा बनवाई है इत्यादि रूप से पहिले का कहा गया सब संबन्ध यहां समझ लेना चाहिये । इन चार वनषंडोंमें यावत् राजगृह नगरसे निर्गत प्रत्येक जन पिछे हुए आसनों पर शयनों पर बैठ कर, लेट कर, वनषंड की शोभा का निरीक्षण करता हुआ, तद्विषयक कथा-वार्ता-करता हुआ बड़े आनंद के साथ विचरण करता है । (तं धन्ने कयत्थेकयपुन्ने कयादे लोए ! सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले नंदस्स मणियारस्स तएणं શ્રેણી નંદને ધન્યવાદ છે. તે કૃતાર્થ થઈ ગયું છે. તેણે પિતાના જન્મ જીવનનું ફળ સારી રીતે મેળવી લીધું છે. કેમકે તેણે આ ચાર ખૂણાઓવાળી પ્રતિરૂપ વગેરે ગુણોથી યુકત એવી નંદા નામે રમ્ય વાવ બનાવડાવી છે. અને વાવને ચારે બાજુએ ચાર વનણંડે બનાવડાવ્યા છે. પૂર્વ દિશા તરફના વનપંડમાં એક વિશાળ ચિત્રસભા બનાવડાવી છે, વગેરે પહેલાની જેમજ અહીં સમજી લેવું જોઈએ. એ ચારે વનખંડેમાં રાજગૃહ નગરથી આવીને માણસે આસને તેમજ શયને ઉપર બેસીને, સૂઈને અને વનખંડની શોભાને જોતાં, તદવિષયક કથા-વાર્તા-(વનખંડ સંબંધી વખાણે) એટલે કે ચર્ચાઓ કરતાં सथी विय२५ ४२ता २ छे. (त धन्ने कयत्थे कयपुन्ने कयाणंदे लोए । सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले नंदस्स मणियारस तएणं रायगिहे सिपारंग जाव बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खद्द ४ धन्नेणं देवाणुप्पिया! गंदे
For Private And Personal Use Only
Page #813
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गारधामृतषिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् ७५७ रस्य श्रेष्ठिनः, अत्र सम्बन्धसामान्ये षष्ठी। एवं राजगृहविनिर्गतोबहुजनस्तत्रस्थितो वदतीत्यर्थः । ततस्तदनन्तरं खलु राजगृहे नगरे 'सिंघाडग जाव बहुजणो' शृङ्गाटकादियावन्महापथपथेषु बहुजनः, अन्योन्यस्य परस्परं, एवमाख्याति, भाषते, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति । किमाख्यातीत्याह-हे देवानुप्रिय ! धन्यः खलु नन्दो. मणिकारः 'सो चेव गमओ' स एव गमकः अत्र पूर्वोक्त एव पाठो वाच्यः, कृतार्थः कृतपुण्यः, यावत्-सुलब्ध जन्मजीवितफलं, यस्य खलु इयमेतद्रूपा नन्दा पुष्करिणी चतुष्कोणा यावत् प्रतिरूपा वर्तते, यावत्-बहुजनः-सुखसुखेन विहरति । ततः रायगिहे सिंघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४ धन्ने णं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारे सो चेव गमओ जाव सुहं सुहेणं विहरइ, तएण से गंदे मणियारे बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा णिसम्म हात धाराहयकलंबगं पिष समूसिय रोमकूवे परं साया सोक्ख मणुभबमाणे विहरह) इस लिये नंद मणिकार श्रेष्ठी विशेष रूप से धन्य वादाह है । विशिष्ट पुण्यशाली है । और विशिष्ट आनंद का भोक्ता है। इस लोक में मनुष्य जन्म और जीवन का फल इस ने प्राप्त कर लिया है। इसी तरह की राजगृह नगर के शृंगाटक आदि महा मांगों पर खड़े होकर अनेक जन परस्पर में बात चीत किया करते, परस्पर में संभाषण करते, प्रज्ञापना करते और प्ररूपणा करते रहते-वे कहते-हे भाई! नंद मणिकार श्रेष्ठी को धन्यवाद हैं, वह कृतार्थ है, कृत पुण्य है। उसी ने अपने मनुष्य भव संबंधी जन्म और जीवन को पा लिया है-जिस ने यह इतनी सुन्दर चार कोन वाली नंदा पुष्करिणी बनवाई है। जहां अनेक जन सुख पूर्वक विचरण करता है । इत्यादि पहिले का मणियारे सोचेव गमओ जाव सुहं सुहेणं विहरह, तएणं से गंदे मणियारे बहुजणस्स अंतिए एयमहूँ सोचा णिसम्म हद्वतुठे धाराहयकलंबगं पिव समूसिय रोमकूवे पर साया सोक्खमणुभवमाणे. विहरइ ) मेथी न મણિયાર ખરેખર સવિશેષ ધન્યવાદને એગ્ય છે. તે વિશિષ્ટ પુણ્યશાળી છે અને વિશિષ્ટ આનંદને ઉપભેગ કરનાર છે. આ લેકમાં મનુષ્ય જન્મ અને જીવનનું ફળ તેણે સંપૂર્ણપણે મેળવી લીધું છે. આ રીતે જ રાજગૃહ નગરના શંગાટક વગેરે રાજમાર્ગો ઉપર ઊભા રહીને ઘણું માણસ પરસ્પર વાત કરતા હતા. સંભાષણ કરતા હતા, પ્રજ્ઞાપના કરતા હતા અને પ્રરૂપણ કર્યા કરતા હતા. તેઓ કહેતા કે હે ભાઈ ! નંદ મણિકાર શેઠને ધન્ય છે, તે ખરેખર કૃતાર્થ મનુષ્યભવ સંબંધી જન્મ અને જીવનને સફળ બનાવ્યાં છે. તેણે કેટલી સરસ ના નામે ચાર ખૂણાવાળી વાવ બંધાવી છે. ત્યાં ઘણા માણસે સુખેથી
For Private And Personal Use Only
Page #814
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
1
www. kobatirth.org
فراق
श्रोताधर्म कथा
खलु स नन्दो मणिकारश्रेष्ठी बहुजनस्यान्तिके एतमश्रुत्वा हृष्टतुष्टः 'धाराहरूकलंबगंपित्र ' धाराहत कदम्बक मित्र = मेघधाराभिराहतं यत्कदम्बकुसुमं तत्समूसियरोग कूवे ' समुच्छ्रितरोमकूपः समुल्लसित रोमरन्ध्रः संजातरोमाञ्च इत्यर्थः, परम उत्कृष्टं सायासोक्खमणुभवमाणे ' शात सौख्यमनुभवन् बहुजनकृतस्वात्मप्रशंसा श्रवणजनित शातगौरवोदयेनामन्दमानानन्दोल्लसित चिचः सन् विवरति आस्तेस्म ।। सू० ५ ॥
मूलम् - तएणं तस्स नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स अन्नयाकयाई सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउन्भूया तं जहा - " सासे १, कासे २, जरे३, दाहे४, कुच्छिसूले५, भगंदरे ६ । अरिसा ७, अजीरएट, दिट्टिमुद्धसूले' ९-१० अरोअए ११” ॥ १ ॥ अच्छिवेयणा १२, कन्नवेयणा १३, कंडू १४, दउदरे१५, कोढे ? १६ । तरणं से गंदे मणियारसेट्टी सोलसहिं रोगायंकेहिं अभिभूए समाबे कोडुंबिय पुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुम्भे देवाणुपिया ! रायगिहे सिंघाडग जाब पहेसु महयार सदेणं उग्घो से माणा एवं वदह एवं खलु देवाणुप्पिया ! नंदस्स
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सब वक्तव्य यहां लगा लेना चाहिये । मणिकार श्रेष्ठी नंद अनेक जबों के मुख से इस अपनी प्रशंसा रूप अर्थ को सुनता तो सुन कर बहुत अधिक आनंदित एवं संतुष्ट बन जाता । मेव की धारा से आहत कदंब पुष्प के समान उस के शरीर भर में रोमांच हो आते। इस तरह अनेक जन कृत अपनी प्रशंसा के श्रवण से जनित शातगौरवोदय से अनन्द आनंद उल्लसित बना रहता | सूत्र ॥ ५ ॥
વિચરણ કરે છે-વગેરે અહીં પણ પૂર્વવત્ વર્ણન સમજી લેવું જોઇ એ. મણિકાર શ્રેષ્ઠિ નંદ ઘણા માણસાના મેાંથી પેાતાના વખાણ સાંભળતા ત્યારે બહુ જ નહિત અને સંતુષ્ટ થઈ જતા હતા. મેઘની ધારાએથી આહત કબ પુષ્યની જેમ તેનું શરીર ામાંચિત થઇ જતું હતું. આ રીતે ઘણુા માણસાના મુખેથી પોતાનાં વખાણ સાંભળીને તે શત ગૌરવાદયથી ખૂબ જ આનંદમાં મસ્ત तो हतो. ॥ सूत्र “” ॥
For Private And Personal Use Only
Page #815
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतषिणी टोका अ० १३ मन्दमणिकारभवनिरूपणम् ७५९ मणियारसेहिस्स सरीरगंसि सोलसरोगायंका पाउब्भूया तं जहां'सासे जाव कोढे' तं जो णं इच्छइ देवाणुप्पिया ! वेज्जो वावेजपुत्तो वा जाणओ वा२ कुसलो वा२ नंदस्स मणियारस्स तेर्सि पणं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उत्साभेत्तए तस्स क देवाणुप्पिया ! मणियारे विउलं अस्थसंपयंणं दलयइ त्तिकटु दोञ्चपि तच्चपि घोसणं घोलेह घोसित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तेहिं तहेव पञ्चप्पिणंति, तएणं रायगिहे इमेयारूवं घोसणं सोचा णिसम्म बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाव कुसलपुत्ता य सस्थकोसहस्थगया य कोसगपायहत्थगया य सिलियाहत्थगया य गुलियाहत्थगया य ओसहभेसज्जहत्थगया य सएहि २ गिहस्तिो निक्खमंति निक्खमित्ता रायगिहं नयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव गंदस्स मणियारसेटिस्स गिहे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता णंदस्स सरीरं पासंति, तेसि रोगायंकाणं णियाणं पुच्छंति णंदस्स मणियारसेटिस्स बहूहि उव्वलणेहि य उपट्टणेहि य सिणेहपाणेहि यवमणेहिय विरेयणेहि य सेयणेहिय अवदहणेहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणेहि य वत्थिकम्महि यनिरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि य सिरावेढेहि य तप्पणाहि य पुडपागेहि य छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छति तसि सोलसण्हं रोगायंकाणंएगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, नोचेवणं संचाएंति उवमामेत्तए, तएणं ते बहबे वेज्जा य ६ जाहे नो संचाएंति तेसि सोलसण्हं रोगायंकाणं एवमवि रोगायक उक.
For Private And Personal Use Only
Page #816
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७६०
माताधर्मकथा सामित्तए ताहे संता तंता जाव पडिगया। तएणं नंदे तेहिं सोलसेहिं रोगायंकेहिं अभिभूए समाणे गंदा पोक्खरणीए मुच्छीए गिद्धे गढिए अज्जोववण्णे तिरिक्खजोणिएहिं निबद्वाउए बद्धपएसिए अट्टदुहट्टवसट्टे कालमासेकालं किच्चा नंदाए पोक्खरिणीए ददरीए कुच्छिसि ददरत्ताए उववन्ने ।सू०६॥
टीका-'तएणं तस्स' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु नन्दस्य मणिकारश्रेष्ठिनः, अन्यदा कदाचित्-प्रबलतरशातगौरवनितकर्मोदयेन शरीरे षोडश रोगाताङ्काः तत्र रोगाः स्वल्पकालस्थायिनो ज्वरादयः, आतङ्काः चिरस्थायिनः कुष्टादयः, प्रादुर्भूताः, तद् यथा
सासे १ कासे २ जरे ३ दाहे ४ कुच्छिमूले ५ भगंदरे ६। अस्सिा ७ अजीरए ८ दिद्विमुद्ध ९-१० मुले अरोअए ११ ।।१। अच्छिवेयणा १२ कनवेयणा १३ कंडू १४ दउदरे १५ कोढे १६ ॥ (१) श्वासः ऊर्वश्वासः, (२ कासः= लेष्मविकारः, (३) ज्वरस्तापः, (४) 'तएणं तस्स नंदस्स' इत्यादि।
टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (तस्स नंदस्स मणियारसेहिस्स अन्नया कयाई सरीरगंसि सोलसोगायंका पाउन्भूया तंजहा- उस मणिकार श्रेष्ठी के शरीर में किसी एक समय ये प्रपलतर शात गौरव जनित कर्म के उदय से १६ रोग और आतङ्क प्रकट हुए-स्वल्प कालतक जो बिमारी शरीर में रहती है-जैसे ज्वर आदि-वे रोग, और जो बीमारी शरीर में चिरस्थायी होकर रहती है जैसे कुष्टादि-वे आतंक कहलाते है। वे सोलह ये हैं-१ श्वास -उर्वश्वास, २ कास-खांसी, ३ ज्वर-ताप, ४ दाह-दाहज्वर, ५ कुक्षि.
'तएण तरस नदस्स ' इत्यादि
2110-(तएणं)त्या२५छी(तस्स नदस्स मणियार सेद्विस्स अन्नया कयाई सरी. रंगसि सोलस रोगायंका गउम्भूया-तं जहा ते मा २ श्रेष्ठिना शरीर से વખતે પ્રબળતરા શાંત ગૌરવ જનિત કર્મના ઉદયથી ૧૬રેગો અને આંતકો પ્રગટયા. થોડા વખત સુધી શરીરમાં જે માંદગી રહે છે જેમ કે તાવ વગેરે તે રાગ અને જે માંદગી શરીરમાં કાયમ માટે રહે છે જેમકે કેદ્ર વગેરે તે આંતક કહેવાય છે. તે से न नाम मा प्रमाणे छे-(१)श्वास-qयास,(२)आस-२स.(3)२४५२
For Private And Personal Use Only
Page #817
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
: अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभयनिरूपणम
७६१
1
"
दाहः = दाहारः (५) कुक्षिशुलः, ३) भगंदर, (७) अर्श: = गुदाङ्कुररोगः, (८) अजीर्णः - आहारस्यापरिणतिः, (९) दृष्टिमूर्धशूलम् दृष्टिशूलं- नेत्रशूलम् (१०) मूर्धशूलं = मस्तकशूलम्, (११) “ अरोअए " अरोचकः =भोजनादावरुचिः, (१२) अक्षिवेदना (१३) कर्णवेदना, (१४) कण्डू. खर्ज:, (१५) दकोदरं - जलोदरं (१६) कुष्ठ ।
"
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ततः खलु स नन्दो मणिकारः षोडशभी रोगातङ्कुरभिभूतः सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा, एवमवादीत् हे देवानुप्रियः । गच्छत खलु यूयं राजगृहे शङ्गाटक यावद्- महापथपथेषु महता महता शब्देनोद्धोषयन्तः २ एवं - हे देवानुप्रिया ! एवं खलु नन्दस्य मणिकारश्रेष्ठिनः शरीरके षोडशरोगातङ्काः प्रादुर्भूताः, तद् यथा श्वासो यावत् कुष्ठः | तत् - तस्माद् यः खलु इच्छति हे देवाणुप्रियाः ! वैद्यो वा वैद्यपुत्रो वा, ज्ञायको वा, ज्ञायकपुत्रो वा कुशलो वा, कुशपुत्रो वा नन्दस्य मणिकारस्य तेषां च खलु षोडशानां रोगातङ्कानामेकमपि शूल, ६ भगंदर, ७ अर्श- बवासीर ८ अजीर्ण, ९ दृष्टिशल, १० मस्तक शूल ११ अरोचक - भोजनादि में रुचि का अभाव, १२ अक्षिवेदना १३ कर्णवेदना १४ खाज १५ जलोदर १६ कुष्ठ ( तरणं मणियार सेट्ठी गंदे सोलसहि रोयायकेहि अभिभूए समाणे काटुंबियपुरिसे सहावे, सहावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया ! रायगिहे सिंघाडग जाब पहेसु महया २ सद्देणं उरघोसेमाणो २ एवं वयह एवं खलु देवाणुपिया ! णंदस्स मणियार सेट्ठिस्स सरीरगंसि सोलसरोगायंका पाउन्भूया - तं जहा - सासे जाव कोढे " तं जो णं इच्छइ देवाणुविया ! वेज्जो वा वेजपुतो वा जाणओ वा २ कुसलो वा २ नंदस्स मणियांरस्स तेसिं चणं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगम वि रोगायकं उवसामेत्तए
ताप, (४) हाई-हाईवर, (५) मुक्षिशूस, (६) लहर, (७) अर्श- हरस, (८) अल-अपथे। (८) हृष्टिशूल (१०) मस्त शूस (११) भरेया लोक्न वगेरे तर मग थवु, (१२) अक्षिवेदना (१३) अणु वेदना, (१४) भाग- जरई, (१५) बोहर (१६) ढ ( तएण मणियारसेट्ठी से गंदे सोलसहिं रोयायंकेहि अभिभूए समाणे कोडु बियपुरिसे सदावेइ, सहावित्ता, एवं वयासी, गच्छह जं तुभे देवाणुपिया ! रायगिहे. सिंघाडग जाव पहेसु महया २ सद्देणं उग्नोसेमाणा २ एवं वह एवं खलु देवाणुपिया ! णदस्स मणियारसेट्ठिएस सरीरंगसि सोलस रोगका पाउब्भूयात जहा - सासे जाव कोढे त जोण इच्छइ देवाणुप्पिया ! वेज्जोवा वेज्जपुतो वा जाणओवा २ कुसलोवा २ नंदस्स मणियारस्स तेखि चण सोलसह रोगाय काणं एगमविरोग अक उवसामेत्तए तरस णं देवाणुप्पिया !
ज्ञा ९६
+
For Private And Personal Use Only
Page #818
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
७६२
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
66
रोगातङ्कमुपशमयितुम् इच्छतीतिपूर्वेण सम्बन्धः, तस्य खलु हे देवानुप्रियाः ! नन्दो - मणिकारश्रेष्ठी विपुलां =बहुलाम्, अत्यसंस्यं " अर्थसंपदं खलु ददाति = दास्यति, इतिकृत्वा = एवमुक्त्वा द्वितीयवारमपि तृतीयवारमपि घोषणां घोषयत । घोषयित्वा एताममाइतिकां प्रत्यर्पयत, तथैव प्रत्यर्पयन्ति यथा नन्दमणिकारश्रेष्ठिना कौटुम्बिकपुरुपा आदिष्टास्तथैव ते कृत्वा निवेदयन्ति स्मेत्यर्थः ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तस्स पर्णे देवाणुपिया | मणियारे विउलं अत्थ संपयं दलयह त्ति कट्टु दोच्चापि तच्चपि घोसणं घोसेह) इन १६ प्रकार के रोगोतंकों से व्यथित हुए उस मणिकार श्रेष्ठी नंद ने कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर उसने उनसे ऐसा कहा हे देवानुप्रियों ! तुम जाओ और राजगृह नगर के शृंगाटक आदि बडे २ मार्गों में जोड़ जोड़ से इस प्रकार की घोषणा करते हुए कहो कि हे देवानुप्रियों ! मणिकार श्रेष्ठी नंद के शरीर में सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए हैं वे श्वास से लगा कर कुष्ठ तक हैं इस लिये हे देवानुप्रियों ! सुनो चाहे वैद्य हो या वैद्य पुत्र हो ज्ञायक हो या ज्ञायक पुत्र हों कुशल हो चाहे कुशल पुत्र हो कोई भी क्यों न हो-जो इन १६ प्रकार के रोगातंको में से एक भी रोगातंक उपशमित कर देगा - हे देवानुप्रियों उसके लिये मणिकार श्रेष्ठी नंद. विपुल मात्रा में अर्थ संपदा प्रदान करेगा। इस प्रकार की घोषणा को तुम लोग २ - ३ बार घोषित करना। ( घोसित्ता एयमोगतियं पच्चपिणह, ते वि तहेव पच्चपिणंति) घोषित कर फिर हमें इस की खबर देना । इस प्रकार नंद की आज्ञा प्राप्त कर उन मणियारे विउल अत्थसंपयं दलयइत्ति कट्टु दोच्चपि तच्चपि घोमणं घोसे ( ) સેળ જાતના રોગ અને આતંકાથી પીડાએલા મણિકાર શ્રેષ્ઠી નદે કૌટુ મિક પુરુષાને લાવ્યા અને ખેલાવીને તેણે તેમને કહ્યું કે હે દેવનુપ્રિયા ! તમે જાએ અને રાજગૃહ નગરના શ્રૃંગાટક વગેરે રાજમાર્ગો ઉપર આ પ્રમાણે મેાટેથી ઘાષણા કરીને કહા કે હે દેવાનુપ્રિયા ! મણિકાર શ્રેષ્ઠિ નંદના શરીરમાં સેાળ રાગાતકો ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ શ્વાસથી માંડીને છ સુધી સેાળ રેગ અને આતંકપન્તછે. માટે હે દેવાનુપ્રિયા ! સાંભળો, વૈદ્ય હોય કે વૈદ્યપુત્ર હાય, સાયક હાય કે જ્ઞાયકપુત્ર હાય, કુશલ હોય કે કુશલપુત્ર હાય, ગમે તે હોય, જે આ મણિકાર શ્રેષ્ઠિના સેાળ રાગ અને આતામાંથી એક ટૈગ અથવા તે એક આંતક પણ મટાડી શકશે હેદેવાનુપ્રિયા ! મણિકાર શ્રેષ્ઠિનંદ તેને પુષ્કળ પ્રમાણમાં ધન સંપત્તિ આપશે. આ પ્રમાણેની ઘેાણા તમે વારવાર એ ત્રણ वमत घोषित पुरे. ( घोसित्ता एयमाणत्तियं पञ्चणिह, ते हि तत्र पञ्चपिणंति ) ધાણા કરીને તમે અમને ખબર આપે. આ રીતે નંદની આજ્ઞા મેળવીને તે
For Private And Personal Use Only
Page #819
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० १३ नंदमणीकारभवनिरूपणम् ७६१
ततस्तदनन्तरं खलु राजगृहे नगरे इमामेतद्रूपां घोषणां श्रुत्वा निशम्य बहवो वैद्या यावत् कुशलपुत्रा — सत्यकोसहत्थगया य' शस्त्रकोशहस्तगताश्च हस्ते क्षुरादिशस्त्रभाजनधारकाः, 'कोसगपायहत्थगया य ' कोशकपात्रहस्तगताः चर्ममयोपकरणधारिणः, ‘सिलियाहत्थगया य' शिलिकाहस्तगता:-किराततिक्ताधौषधधारिणः 'गुलियाहत्थगया य' गुलिकाहस्तगताश्च हस्ते द्रव्यसंयोगनिर्मितवटिकाधारिणः, औषधभैषज्यहस्तगताश्च स्व केभ्यः स्वकेभ्यो निष्क्रामन्ति-निर्गच्छन्ति, निष्क्रम्य राजगृहं मध्यमध्येन यौव नन्दस्य मणिकारश्रष्ठिनो गृहं तत्रैवोपागच्छन्ति, कौटुम्बिक लोगों ने उसी के अनुसार वैसी ही घोषणा कर दी और बाद में आकर नंद को इसकी खबर दे दी । (तएणं रायगिहे इमेयारवं घोसणं सोच्चा णिसम्म बहवे वेज्जा य वेजपुत्ता य जाव कुसलपुत्ता य सत्थको सहत्य गया य कोसगपायहत्थ गया यि सलियाहत्थ गया य गुलिया हत्य गया य ओसह भेसज्ज हत्य गया य सएहिंगिहेहिं तो निक्ख. मंति, निक्खमित्ता रायगिहं नयरं मज्झं मज्झे णं जेणेव नंदस्स मणियारसेहिस्स गिहे तेणेव उवागच्छंति ) इस प्रकार की घोषणा सुन कर
और उसको विचार कर राजगृह नगर में अनेक वैद्य, वैद्य पुत्र यावत् कुशल कुशल पुत्र, अपने २ हाथों में क्षुरादिशस्त्र एवं भाजनों को, चर्ममय उपकरणों को किरात तिक्त औषध को गोलियों को, औषध भैषज्य को ले लेकर अपने २ घरों से निकले । और निकल कर राजगृह नगर के बीच से चल कर जहाँ मणिकार श्रेष्ठी नंद का घर था वहां કૌટુંબિક લોકેએ શેઠની આજ્ઞા પ્રમાણે જ ઘેષણ (ઢઢરે) કરી અને ત્યાર पछी नहने तेनी म२ माची. ( तएण रायगिहे इमेयारूवं घोसण सोचा णिसम्म बहवे वेज्जाय, वेज्जपुत्ता य जाव कुस रपुत्ता य सत्थकोसहत्थगया य कोसगपायहत्थगया य सिलियाहत्थगया य गुलियाहत्यगया य ओसह. भेसज्जहत्यगया य सएहिं २ गिहेहितो निक्खम ति, निक्खमित्ता गयगिह नयर मज्झ मझेण जेणेव नंदस्स मणियार सेद्विस्स गिहे तेणेव उवागच्छति ) આ રીતે ઘષણ સાંભળીને અને તેના વિશે વિચાર કરીને રાજગૃહ નગરમાંથી ઘણા વિદ્ય, વિદ્યપુત્ર, યાવત્ કુશલે અને કુશલપુત્રે પિતપોતાના હાથમાં ભુરા વગેરે શસ્ત્રો અને ભાજ, ચર્મમય ઉપકરણ એટલે કે ચામડાના साधना, ति : ( रियातुं) औषधाने, गोणीमाने, औषध लेपन्य साधने પિતાપિતાના ઘરોથી બહાર નીકળ્યા અને નીકળીને રાજગૃહ નગરની વચ્ચે ५४ने ज्यां माण।२ श्रेष्टि नहेर्नु ५२ तुं त्यां पश्या . ( उवागच्छित्ता नंदस्स
For Private And Personal Use Only
Page #820
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जाताधर्मकथाङ्गसूत्रे उपागत्य नन्दस्य शरीरं पश्यन्ति, दृष्ट्वाते तेषां रोगातङ्कानां ‘णियाण' निदानम्उत्पत्तिकारणं पृच्छन्ति, नन्दस्य मणिकारश्रेष्ठिनस्ते वैद्या बहुभिः बहुविधैः 'उचलणेहि य ' उद्वलनैश्च देहोपलेपनविशेषैश्च, 'उबट्टणेहि य ' उद्वर्त नैश्वमलापकर्षकद्रव्यसंयोगविशेषेण शरीरोपमर्द नैश्च, 'सिणेहपाणेहिय ' स्नेहपानश्च औषधपरिपकघृतादिपानैश्च, वमनैश्च, विरेचनैश्च सेचनैव-उष्णजलाभिषेकैः अब पहुँचे । ( उवागच्छित्ता नंदस्स सरीरं पासंति, तेसिं रोयायकाण णिया ण पुच्छंति णदस्स मणियारसेहिस्स बहूहि उव्वलणेहिं य उव्वणेहिं य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य, विरेयणेहि य सेयणेहि य अवदसणेहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणेहिय वत्थिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरा. वेहेहि य तच्छणाहि य, पच्छणाहि य, सिरावेदेहि य तप्पणाहि य, पुढपागेहि य, छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य, कंदेहि य पत्तहि य पुप्फेहि य, फलेहि य, वीएहि य, सिलियाहि य, गुलियाहि य, ओसहेहि य, भेसज्जेहि य, इच्छेति तेसिं सोलसण्हं रोगायकाणं एगमवि रोगायक उवसामित्तए नो चेव णं संचाएंति उवसामेत्तए ) वहां पहुँच कर उन्हों ने नंद सेठ के शरीर को देखा देख कर उन रोगातंकों के निदान को-मूल कारण को-पूछा । बाद में उस मगिकोर श्रेष्ठी नंद का उन वैद्यो ने अनेकविध उबलनों से देहोपलेपन विशेष से, स्नेहपानों से-औषधियों में पकाये गये घृतादिके पिलाने से, वमन कराने से, सरीर वासंति तेसिं रोयायंकाण णियाणं पुच्छंति, गंदस्स मणियारसेद्विस्स बहूहि उज्वलणेहि य, वमणेहि य, विरेयणेहि य, सेयणेहि य, अवदसणेहि य,अवण्हाणेहि य, अणुवासणेहि य वत्थिकम्मेहि य निरूहेहि य,निरावेहेहि य,तच्छणाहि य,पच्छणाहि य, सिरावेढेहि य, तप्पणाहि य, पुढपागेहि य, छल्लीहि य, वल्लीहि च, मूलेहि य,कदेहि य, पत्तेहि य,पुप्फेहि य, फलेहिय, बीएहि य, सिलिमाहि य, गुलियाहि य, ओसहेहि य, भेसज्जेहि य, इच्छति तेसिं सोरसह रोगायकाणं एगमवि रोगायक उवसा. मित्तए, नो चेव ण संचाएंति उवसामेत्तए ) त्या ४७२ तेमामे न श्रेष्ठिना શરીરને તપાસ્યું, તપાસીને તે રેગ અને આતકોના નિદાન (રેગનું મૂળ કારણ ) વિશે પૂછપરછ કરી. ત્યારબાદ વૈદ્યોએ મણિકાર શ્રેષ્ઠિની ઘણી જાતના ઉદુબલથી શરીરના લેપ વિશેષેથી, ઉદ્વર્તનથી-મલાપકર્ષક દ્રવ્ય સંગ વિશેષને શરીર ઉપર ચળવાથી, સ્નેહપાનેથી-ઔષધીઓમાં પરિપકવ થયેલા घा वगैरे ते पापाथी, मन (टी) ४२११४थी विरेयन ४२११पाथी,
For Private And Personal Use Only
Page #821
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् ७६५ दहणेहि य' अवदहनैः दम्भनैः-तप्तलोहकोशादिना शरीरावयवविशेषे दाहकर पैश्च 'अवण्हाणेहि य' अवस्नानैः शरीरे कण्डूयनादिवारणार्थ तदनुकूलद्रव्यमिश्रित तजलस्नानैश्च, ' अणुवासणेहि य ' अनुवासनैः विरेचनविशेषैः-यन्त्रद्वारेणापानमार्गेण तैलादीनामुदरे प्रवेशनरूपैश्च, 'वत्थिकम्मेहि य' वस्तिकर्मभिः मलनिर्गमार्थ गुदे वादिप्रक्षेपैः, 'निरूहेहि य' 'निरूहैः '-द्रव्यपक्वतैलप्रयोगेण विरेचनविशेषैश्च 'सिरावेहिहेहि य' शिरावधैः-विकृतरूधिरनिस्सारणार्थं नाडीवेधैर्य, 'तच्छणाहि य' तक्षणैः क्षुरप्रादिना त्वक् छेदनैश्च, 'पच्छणाहि य' प्रतक्षण = क्षुरादिनाहस्तलाघवेन त्वचः प्रतनूकरणैश्च, 'सिरावेडेहि य ' शिरावेष्टैः नाड़ीवेष्टनैश्व, तप्पणाहि य ' तर्पणेश्व-स्निग्धद्रव्येण शरीरसंवाहनैश्च, 'पुडपागेहि य' पुटपाकैः पाकविशेषनिष्पन्नौषधविशेषैश्व, छल्लीहि य' छल्लीभिश्च=निवादित्वग्भिः, विरेचन कराने से, उष्णजल से स्नान कराने से तकुआ आदि को अग्नि में तपाकर उसका शरीर के किसी अवयव विशेष में डाम देने से अवस्नानों से-खाज-आदि मिटाने के लिये शरीर पर तदनु कूल द्रव्य मिश्रित जल से बार २ स्नान कराने से अनुवासनों से-यंत्र बारा अपान मार्ग से उदर में तैलादिकों के पहुँचाने से, वस्ति कर्मों से-मल को निकालने के लिये गुदा में वादि के प्रवेश कराने से, निरूहों से द्रव्य पक्क तैल के प्रयोग से विरेचन करवाने से, शिरावेध से-विकृत खून को निकालने के लिये शिरा-नस के काट देने से-नाडीवेध सेतक्षण से क्षुरा आदि द्वारा चमड़ी के काट देने से, प्रतक्षण से क्षुरा आदि द्वारा हस्तलाघव पूर्वक चमड़ी के छील देने से, शिरावेष्ट-नाडी वेष्टन से, स्निग्घ द्वारा शरीर की मालिश कराने से, पुट पाक सेपाक विशेष से तैयार की गई औषधियों से, छालों से-निम्ब आदि की ગરમ પાણીએ નાન કરાવવાથી, લેખંડ વગેરેને અગ્નિમાં તપાવીને શરીરના કઈ વિશેષ અવયવને ડામવાથી અવસ્નાનથી–ખરજવું વગેરે મટાડવા માટે શરીર ઉપર તદનુકૂલ દ્રવ્ય મિશ્રિત પાણીમાં વારંવાર સ્નાન કરાવવાથી, અનુ. વાસનોથી-યંત્ર વડે ગુદા માર્ગથી પેટમાં તેલ વગેરે પહોંચાડવાથી, વસ્તિકર્મોથી-મળને બહાર કાઢવા માટે ગુદામાં વર્યાદિને પ્રવિષ્ટ કરાવવાથી નિરુહાથી-દ્રવ્યમાં પરિપકવ થયેલા તેલના પ્રયોગથી, વિરેચન કરાવવાથી, શિરોધથી ખરાબ લેહીને બહાર કાઢવા માટે શિરા-નસને કાપવાથી-નાડધથી, પ્રતિક્ષણથી છરા વગેરેથી બહુ જ કુશળતાથી ચામડીને છોલવાથી, શિરાવેષ્ટથી–નાડી વર્ણનથી, સ્નિગ્ધ પદાર્થ વડે શરીરના ઉપર માલીશ કરવાથી, પુટપાકથી-પાક વિશેષથી તૈયાર કરવામાં આવેલી ઔષધીઓથી, છાલ (છોડ) થી-નિબ
For Private And Personal Use Only
Page #822
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
७६६
शाताधर्मकथासूत्रे
वल्लीहि य' बल्ली भी गहूच्यादि-लताभिश्च तथा मूलैश्व, कन्देश्व पौश्व, पुष्पैश्व फलैश्च, बीजैथ, शिलिकाभिश्च = किराततिक्तैः चिरायता इतिप्रसिद्धै रोषधिविशेषः गुलिकाभिश्च औषधैश्च भैषज्येश्व इच्छन्ति तेषां : पोडशानां रोगातङ्कानामेकमपि रोगातङ्कमुपशमयितुं, किन्तु नो चैव शक्नुवन्त्युपशमयितुम् । ततः खलु ते बहवो वैद्या ' जाहे ' यदा नो शक्नुवन्ति तेपां पोडशानां रोगातकानामेकमपि रोगातङ्कमुपशमयितुम्, तदा श्रान्ताः = श्रमातुराः, तान्ताः=खिनाः= परितान्ताः = सर्वथाखिन्नाः रोगातङ्कमपनेतुमसमर्थो इत्यर्थः यावत् प्रतिगताः = स्वस्व स्थानं गतवन्तः ।
3
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ततः खलु नन्दस्तैः षोडशभीरोगतङ्केश्वाभिभूतः सन् नन्दा पुष्करिण्यां 'मुच्छिए' मूच्छितः मूछ प्राप्तः आसक्तः ग्रथितः बद्धात्म परिणामः, 'अज्ज्ञोवबन्ने' अध्युपपन्नः = सर्वथा निरन्तरं तद्भावतया तन्मयात्मपरिणामत्रान् तिर्यगू अन्त २ छाल से, गुडु ज्यादि - गिलोय आदि लताओं से, तथा मूल, कन्द, पत्र, पुष्प, फल, बीज, शिलिका-चिरायता, गोलियों, औषध, भैषज्य से उन सोलह रोगातंकों में से एक भी रोग को शांत करने की चिकित्सा की । परन्तु वे उसके एक भी रोगातंकको उपशमित नहीं कर सके । ( तरणं ते बहवे वेजा य ६ जाहे नो संचाऐंति ते सिं सोलसह रोगार्थका एगमवि रोगार्थक उवसामित्तए, ताहे संता तंता जांब पड़ि गया ) जब वे समस्त वैद्यादिजन ६, उन १६ सोलह रोगातंको में से एक भी रोगातंक को शमित करने में ( शक्य नहीं ) समर्थ नहीं हो सके तब श्रान्त एवं तान्त होकर अपने २ घर चले आये । ( तएणं नंदे तेहिं सोलसेहिं रोगायकेहि अभिभूए समाणे नंदा पोक्खरणिए मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे तिरिक्ख जोणिएहिं निबद्धाउए बद्ध
वर्ग रेनी छासोथी, गुड्डु न्याहि-गणेो वगेरे सतायोथी तेमन भूण, हो, पत्र, पुण्य इज जी शिक्षिअ-थिरायता, गोणीओ, औषध, लैपन्यथी ते सोज રાગ અને આતકામાંથી એક રાગ અને એક આતંકને મટાડવા માટે ચિકિત્સા ( ઇલાજ ) ક. પણ તે લેાકેા તેના એકે ય રોગ અને એક ય આતંકને પ भटाडवामां शक्तिमान थ शुक्ष्या नडि, (तएणं ते बहवे वेज्जा य ६ जाहे नो संचाएं'ति तेसि सोलसह रोगायंकाणं एवमवि रोगायकं उवसामित्तर, ताहे संता जाव पडिगया) क्यारे मधा वैद्यो ६, ते सोग रोगांत गांधी भेडेय रोग અને આંતકને પણ મટાડવામાં સમથ થઇ શકયા નહિ ત્યારે શ્રાંત અને તાંત थाने पोतपोताने घेर पाछाता रह्या. (तएण न दे तेहिं सोलसेहि रोगाय के हि अभिभू समाणे नंदा पोक्खरणिए मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्ञोवत्रपणे तिरिक्खजोणि
For Private And Personal Use Only
Page #823
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७६७
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम योनिषु निवायुकः वद्धप्रदेशिकः प्रदेशवन्धापेक्षया, ' अट्टदुहट्टवसट्टे ' आर्तदुःखर्तिवशार्त्तः = आर्तः=मनसा दुःखितः, दुःखार्त्तः- देहेन, वशात् = पुष्करिणीसमासक्तेन्द्रियवशेन तत्सुखवियोगसम्भावनया पीडितः = एतेषां कर्मधारये आर्त्तदुःखार्तवशात्तः=आर्त्तध्यानो रगतइत्यर्थः कालमासे कालं कृत्वा नन्दायां पुष्करिण्यां 'ददुरीए कुच्छिसि' दर्दुर्याः कुक्षौ = मण्डूकीगर्भे 'दद्दूरत्ताए' दर्दुरतया मण्डूकती, उपपन्नः संजातः ॥ मु० ६ ॥
मूलम् - तणं गंदे दद्दरे गन्भाओ विणिम्मुक्के समाणे उम्मुकबालभावे विन्नायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते नंदाए पोखरणीए अभिरममाणे २ विहरइ, तएणं णंदाए पोक्खरणीए बहुजणे पहायमाणो य पियइय पाणियं च संवहमाणो अन्न
एसिए अटु हट्ट सट्टे काल मासे कालं किच्चा नंदाए पोक्खरिणीए ददुरीए कुच्छिसि ददुरत्ताए उवबन्ने) उन सोलह रोगातंको से अत्यन्त व्यथित हुआ वह नंद नंदा पुष्करिणी में मूच्छितमति एवं अत्यन्त आसक्त मन होता हुआ तन्मय आत्मपरिणामवाला बन गया सो इस कारण उसने प्रदेश बंध की अपेक्षा से तिर्यञ्च आयु का बंध कर लिया । मन से दुःखित देह से, व्यथित एवं पुष्करिणी में समा सक्त अन्तः करण से उसके सुखके वियोग की संभावना करके अत्यन्त पीडित बने हुए अर्थात् आर्तध्यान के वशवर्ती हुए उसने मृत्यु के समय देह का परित्याग किया सो मर कर वह उस नंदा पुष्करिणी में एक मेंढकी के गर्भ में मेढक की पर्याय से उत्पन्न हो गया। सूत्र || ६ ||
एहिं निबद्धा बद्ध एसिए अठ्ठठु हट्टवसट्टे कालम से काल किच्चा नंदाए प्रोक्खरिणीए ददुरीए कुच्छसि दुरत्ताए उवबन्ने ) सोण रोग भने आत કાથી ખૂબ જ કંટાળેલા તે નંદ શ્રેષ્ઠિ નંદા વાવમાં :મૂતિ મતિ એટલે કે અત્યંત આસક્ત મનથી તન્મય આત્મપરિણામ યુક્ત થઈ ગયા. એથી તેણે પ્રદેશખ ધની અપેક્ષાએ તિય ́ચ આયુને બંધ કરી લીધે. મનથી દુઃખી, શરીરથી વ્યથિત અને પુષ્કરિણી ( વાવ ) માં આસક્ત અન્તઃકરણથી એટલે કે તેના સુખના વિયેાગની સંભાવના કરીને ખૂત્ર જ પીડિત થઈને આ ધ્યાન કરતાં તેણે મૃત્યુના સમયે દેહ છોડયા. દેહ છેાડીને નદ શ્રેષ્ઠિ તે નંદા પુષ્ક રિણીમાં જ એક દેડકીના ગર્ભમાં દેડકાના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઇ ગયા. સૂત્ર ૬
For Private And Personal Use Only
Page #824
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
198/
ज्ञाताधर्मकथासूत्रे
मन्नस्स एवमाइक्खइ ४ धन्नेणं देवाप्पिया ! णंदे मणियारे जस्स णंदे मणियारे जस्स णं इमेयारूवे णंदा पुक्खरणी चाउ कोणा जाव पडिरुवा | जस्स णं पुरत्थिमिले वणसंडे चित्तसभा 'अणेगखंभ० तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्प्रजीवियफले, तरणं तस्स दद्दरस्स तं अभिक्खणं अभिक्खणं बहुजणस्स अंतिए
७
एयमहं सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अज्झथिए ५ - से कहिं मन्ने मए इमेारू सहे सिंतपुत्रे तिकट्टु सुभेणं परिणामेणं जाव जाइसरणे समुपपन्ने, पुव्वजाई सम्मं समागच्छइ, तरणं तस्स दद्दरस्स इमेयावे अज्झत्थिए ५ - एवं खलु अहं इहेव रायगिहे नयरे णंदे णामं मणियारे अड्डे० जाव अपरिभूए । तेणं कालेणं तेणं समपणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, तपर्ण समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसि - क्खावइयं जाव पंडिवन्ने, तएणं अहं अन्नया कयाइं असाहुदंसणेण य जाव मिच्छत्तं विपडिवन्ने, तरणं अहं अन्नया कयाई गिम्हकालसमयंसि जाव उपसंपजित्ताणं विहरामि, एवं जहेव चिंता आपुच्छणा नंदा पुक्खरिणी वणसंडा सहाओ तं चैव सव्वं जाव नंदाए पुक्खरिणीए दद्दरत्ताए उववन्ने, तं अहो णं अहं अहन्ने अपुन्ने अकयपुन्ने निग्र्गथाओ पावयणाओ नट्टे भट्ठे परिब्भट्ठे तं सेयं खलु ममं सयमेव पुव्व पडिवन्नाई पंचाणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाई उवसंपजित्तार्ण विहरित्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता पुत्र पडिवन्नाई पंचाणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाई आरुहेइ आरुहित्ता इमेयारूवं अभिग्गहं
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #825
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नारधामृतवर्षिणी टोका अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् ७ अभिगिण्हइ-कप्पड़ मे जावजीवं छद्रंछठेणं अणिक्खित्तण तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए, छट्रस्स वि य ण पारणगंसि कप्पइ मे गंदाए पोक्खरणीए परिपेरंतेसु फासुएणं पहाणोदएणं उम्मणोल्लोलियाहि य वित्तिं कप्पेमाणस्स विहरित्तए, इमेयारूवं अंभिग्गहं अभिगेण्हइ, जावज्जीवाए छटुंछटेणं जाव विहरइ ॥ सू० ७ ॥
टीका-'तपणं नंदे' इत्यादि, ततः खलु नन्दो दर्दुरी गर्भाद-गर्भवासाद विनिर्मुक्ता निर्गतः सन् उन्मुक्तबालभावः व्यतीत बाल्यवयस्कः, 'विनाय परिणयमित्ते' विज्ञातपरिणतमात्रः द? रजातीयकूदनादिविज्ञानसमम्पनः, नन्दायांपुष्करिण्याम् अभिरममाणः २ क्रीडन् २ सुखसुखेन विहरति-कालं यापयतिस्म । ___ ततस्तदनन्तर खलु नन्दायां पुष्किरिण्यां राजगृहविनिर्गतो बहुजनः स्मान कुर्वन् , जल पियन् , पानीयं च संवहमानः, अन्योन्य-परस्परम् . आख्याति
'तएणं गंदे दद्दुरे गम्भाओ' इत्यादि । टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (गंदे दद्दुरे) वह नंद सेठका जीव दर (गम्भाओ विणिम्मुक्के समाणे उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमित्त जोत्वणगमणुपत्ते नंदाए पोक्खरणीए अभिरममाणे २ विहरइ ) गर्भावास से बाहिर निकल कर जब बालभाव से रहित हो गया और उसे दर्दुर जाति को कूदना आदि आ गया-तब वह यौवन अवस्था संपन्न होकर नंदा पुष्करिणी में बार २ क्रीडा करता हुआ सुख पूर्वक अपने समय को व्यतीत करने लगा। (तरण गंदाए पोखरणीए बहुमणे
'तएणं गंदे दद्दुरे गम्भाओ' इत्यादि
साथ-(तएणं) त्या२५छी (गंदे दुरे) न शहने। आना (गम्भाओं विणिम्मुक्के समाणे उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणय से जोधणगमणुपत्ते नक्षए पोक्खरणीए अभिरममाणे २ विहराइ) सलमाथी महार मापीन पारे મેટ થઈ ગયો એટલે કે બચપણ વટાવીને જુવાન થઈ ગયા અને બીજાં દેડકાની જેમ કૂદવાનું, વગેરે આવડી ગયું ત્યારે તે જુવાન થઈને નંદા પુes. રિણીમાં જ વારંવાર કીડા કરતાં સુખેથી પિતાને વખત પસાર કરવા લાગ્યા (तएवं दाए पोक्खरणीए बहुजणे व्हायमाणो य पियइथ पाणिय च संबह
हा ९७
For Private And Personal Use Only
Page #826
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पाताधर्मकथा भाषते प्रज्ञापयति प्ररूपयति-धन्यः खलु हे देवानुपिय ! नन्दो मणिकाररश्रेष्ठी यस्य खलु इयमेतद्रपा नन्दापुष्करिणी चतुःकोणा समतीरा यावत् प्रतिरूपा वर्तते, यस्याः खलु नन्दायाः पुष्करिण्याः पौरस्त्ये वनपण्डे चित्रसभाऽनेकस्तम्भशतसंनिविष्टा तथैव चतुर्पु वनपण्डेषु चतस्रः सभा अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टाः सन्ति, यावत् तस्य नन्दमणिकारश्रेष्टिनः सुलब्धं मानुष्यकं जन्मजीवितफलम् । पहायमाणो य पियइ य पाणियं च संवहमाणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४ ) उस नंदा पुष्करिणी में जब राजगृह नगर के लोग आकर स्नान करते, पानी पीते, उसमें से पानी भरते तो उस समय वे परस्पर में इस प्रकार से बात चीत करते, भाषण करते प्रज्ञापना एवं प्ररूपणा करते कि ( धन्नेणं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारे जस्स णं इमेयारूवा गंदा पुक्खरणी चाउकोणा जाव पडिरूवा ) हे देवानुप्रिय ! मणिकार श्रेष्ठी नंद को धन्यवाद है कि जिम की यह चतुष्कोण वाली तथा समतीर वाली नंदा पुष्करिणी बहुत ही सुरम्य बनी है। (जस्स ण पुरथिमिल्ले वणसंडे चित्तसभा अणेगखंभ० तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्मनी विय फले-तएणं तस्स दद्दरस्स तं अभिक्खणं २ बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म इमेयारूबे अन्भत्थिए ६ ) जिस के पूर्व दिशा संबन्धी वनषंड में अनेक सैकडों खंभो से विराजित चित्र सभा घनी हुई है। इसी तरह की चारों वनषंडों में चारों सभाएँ है । यावत् उस मणिकार नंद श्रेष्ठी के मनुष्य माणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४) नही मां न्यारे राम नगरना લેકે આવીને સ્નાન કરતા, પાણી પીતા, તેમાંથી પાણી ભરતા ત્યારે તેઓ પરસ્પર આ પ્રમાણે વાતચીત કરવા માંડતા, સંભાષણ કરવા માંડતા, પ્રજ્ઞાપના भने ५३५।। ४२१॥ मांडता है (धन्नेर्ण देवाणुपिया ! गदे मणियारे जस्सणं इमेयारूवा गंदी पुक्खरणी चाउकोणा जाव पडिरूवा) वानुप्रिय! मणिार શ્રેષ્ઠિ નંદને ધન્યવાદ છે. કારણ કે આ ચાર ખૂણાવાળી તેમજ સરખા કિનારાपाणी न वा महु २-५ धावी छे. (जस्सणं पुरथिमिल्ले वणसडे चित्तसभाअणेग खंभ० तहेव चित्तारि सहाओ जाव जम्मजीवियफळे-तएणं तस्स दद्दुररस त अभिक्खणं २ बहुजणस्स तिए एयम, सोचा णिसम्म इमेयारूवे अज्झस्थिए ६) पावन पू हशाना बनभां से । थामदामाथी શોભતી ચિત્રસભા બનાવી છે. આ પ્રમાણે ચારે ચાર વનષડમાં ચાર સભાઓ તૈયાર કરાવડાવી છે. ખરેખર તે મણિકાર નંદ શેઠને મનુષ્ય જન્મ અને જીવન
For Private And Personal Use Only
Page #827
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अमगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् st
ततः तलु तस्य दर्दुरस्य तदभीक्ष्ण पौनः पुन्येन, बहुजनस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य, अयमेतदूपः वक्ष्यमाणस्वरूपः आध्यात्मिकः आत्मगतोविचारः, यविन्मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत । किं स्वरूपः ? इत्याह-' से कहिंमन्ने' इत्यादि । ननूहं मन्ये-कुत्रापि मया अयमेतद्रूषः शब्दः 'णिसंतपुव्वे' निशान्तपूर्वः श्रुतपूर्वः पूर्वकाले श्रुतआसीत् , इति कृत्वा शुभेन परिणामेन=विशुद्धाध्यवसायेन यावत्-जातिस्मरणं समुत्पन्नम् , स दर्दुरः 'पूर्वजाई'-पूर्वजन्मवृत्तान्तं सम्यक समागच्छति = स्मरति । ततः खलु तस्य दर्दुरस्यायमेतद्रूपा-वक्ष्यमाणस्वरूप. 'अज्झथिए' आध्यात्मिकः यावन्मनोगतः संकल्पः = स्मरणरूपः 'समुप्प ज्जित्था' समुदपद्यत-संजातः, तद् यथा-एवं खलु अहं इहैव राजगृहे नगरे नन्दो जन्म और जीवन दोनों ही सफल हैं । उस ने अपने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह पा लिया है। इस प्रकार अनेक जनों के मुख से बार २ अपनी प्रशंसा सूचक शब्दों को सुनकर और उन्हें हृदय में अवधृत कर उस दर्दुर को यह इस प्रकार का आध्यात्मिक विचार यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-( से कहिं मन्ने मए इमेयारूवे सद्दे णिसंत पुव्वे त्ति कटु सुभेणं परिणामेणं जाव जाइसरणे समुप्पन्ने, पुरवजाइं सम्मं समागच्छइ तएणं तस्स दद्दुरस्स इमेयारवे अज्झथिए ५) मैं मानता हूँ कि मैंने इस प्रकार का यह शब्द पहिले सुना है-इस प्रकार के विचार से उसे विशुद्ध अध्यवसाय के वश से जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। इससे उसने अपने पूर्व जन्म के वृत्तान्त को अच्छी तरह जान लिया। इस के बाद उस दर्दुर को इस प्रकार-वक्ष्यमाण रूप संकल्प उत्पन्न हुआ। (एवं खलु अहं इहेव બંને સફળ થઈ ગયાં છે. તેણે પિતાના મનુષ્ય જન્મ અને જીવનનું ફળ સારી પેઠે મેળવી લીધું છે. આ રીતે ઘણા માણસના મુખેથી વારંવાર પિતાનાં વખાણ સાંભળીને અને હૃદયમાં અવધત કરીને દેકાને આ પ્રમાણેને આધ્યા
म वियार यावत् मनोगत स८५ मल्यो 8-(से कहिं मन्ने मए इमेयारूवे सद्दे णिसतपुत्वे तिकटु सुभेणं परिणामेणं जाव जाइसरणे समुप्पन्ने, पुव्वजाई सम्म समागच्छइ तएणं तस्स दद्दुरस्स इमेयारूवे अज्झथिए ) भने એમ થાય છે કે આ શબ્દો પહેલાં મેં સાંભળ્યા છે. આ જાતના વિચારોથી તેને વિશુદ્ધ અધ્યવસાયને લીધે જાતિસ્મરણ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ ગયું એથી તેણે પિતાના પૂર્વ જન્મની બધી વિગત જાણી લીધી. ત્યારબાદ તે દેડકાને આ રીતે વક્ષ્યમાણ રૂપથી આધ્યાત્મિક યાવતું મને ગત મરણરૂપ સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે (एवं खलु अहं इहेव रायगिहे नयरे दे णाम मणियारे अड्ढे जाव अपरि
For Private And Personal Use Only
Page #828
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७७२
शांताधर्मकथाङ्गसत्रे नाम मणिकारः आढयो यावदपरिभून आसम् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीरः समवस्तः, ततः खलु श्रमणस्यभगवतो महावीरस्यान्तिके पश्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाप्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्भ प्रतिपन्नः, ततः खल्बहमन्यदा कदाचिद् असाधुदर्शनेन च यावत्-मिथ्यात्वं विप्रतिपन्नः,ततः खल्वहमन्यदा कदाचिद् ग्रीष्मकालसमये यावत्-पौषधशालायां पौषधमुपापद्य खलु विहरामि, ‘एवं यथैवचिन्ता, आपृच्छना, नन्दापुष्करिणी, वनपण्डा, सभाः तदेव सर्वम् ' तथैवचिन्तादिकं दर्दुरेण पूर्वभूवे कृतं तथैव तत् सर्व स्मृतं, तद् रथा-मम तत्राष्टमभक्ते रायगिहे नयरे गंदे णामं मणियारे अड़े जाव अपरिभूए । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, तएणं समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वयं सत्तसिक्खावयं जोव पडिवन्ने) मैं इसी राजगृह नगरमें नंद नाम का मणिकार श्रेष्ठी था । विशेष रूपसे धन धान्यादि संपत्ति शाली एवं जन मान्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर वहां आये-सो मैंने उनसे पांच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रत रूप श्रावक धर्म अंगीकार कर लिया था। (तएणं अहं अन्नया कयाई असाहुदंमणेणय जाव मिच्छत्तं विपडिवन्ने ) किसी एक समय असाधु के दर्शन से तथा और भी कई निमित्तो से मैं मिथ्यात्व भाव रूप से परिणत हो गया-(तएणं अहं अन्नयाकयाई गिम्ह कालसमयंसि जाव उवसंपज्जित्ताणं विरामि, एवं जहेव चिंता आपुच्छणा नंदापुक्खरिणी वनसंडा, सहाओ तं चेव सव्वं जाव नंदाए पुक्खरिणीए ददुरत्ताए उववन्ने, तं अहोगं अहं अहन्ने, अपुन्ने, अकभए । तेणं कोलेणं तेणं समएणं समणे भगव महावीरे समोसढे, तएण समणस्स भगवओ महावीररस तिए पंचाणुव्व इयं सत्तसिक्खावइयं जाव पडिवन्ने ) પહેલાં આ રાજગૃહ નગરમાં જ નંદ નામે મણિકાર શ્રેષ્ટિ હતું. હું વિશેષ રૂપથી ધન-ધાન્ય વગેરેથી સમૃદ્ધ તેમજ જનમાન્ય (લકામાં પૂછાતો) હતે. તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ત્યાં પધાર્યા હતા. મેં તેઓશ્રી પાસેથી પાંચ અણુવ્રતો અને સાત શિક્ષાત્ર રૂપ શ્રાવક ધર્મ स्वीरी सीधे हुतl. (तएणं अह अन्नया कयाई असाह दसणेण य जाव मिच्छत्तं विपडि बन्ने ) असे मते असाधुना शनथी तमश olony avi रथी हु मिथ्यात्वमा ३५i परियत २७ गय.. (तएणं अह अन्नया कयाई गिम्हकालसमयंसि जाव उत्रसंपज्जित्ता णं विहरामि, एवं जहेव चिंता आपुच्छणं नदा पुक्खरिणा वनसडा, सहाओ त चेव सब जाव नंदाए पुक्खरिणीए ददुरत्ताए उववन्ने, त अहोणं, अह अहन्ने, अपुन्ने, अकयपुन्ने
For Private And Personal Use Only
Page #829
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ०१३ नन्दमणिकारभवनिरूपणमम् ७७३ परिणम्यमाने पिपासया क्षुधया चाभिभूतस्येत्थं चिन्ता संजाता "धन्याः खलु ते लोका येपां जलाशया विद्यन्ते, तस्मात् कल्ये श्रेणिकं राजानमापृच्छय राजगृहस्य बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिमागे नन्दानाम्नी पुष्करिणी खनयितुं श्रेय इति” । अथैवं विचिन्त्य श्रेणिकं प्रत्यापृच्छनां कृत्वा तदाऽज्ञया मया नन्दापुष्करिणी कारिता, यपुन्ने निर्गथाओ पावयणाओ नटे भट्ठे परिब्भटे तं सेयं खलु ममं सयमेव पुश्वपडिवन्नाइं पंचाणुव्वयाइं सत्तसिक्खावयाई उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए) किसी समय में ग्रीष्मकाल में यावत् पौषधशाला में पौषध धारण कर बैठा हुआ था-इस प्रकार मुझे वहां ऐसी चिन्ता हुई आपृच्छना हुई, नंदा पुष्करिणी कराने का विचार हुआ, बनषंडों, सभाओं के बनाने का विचार हुआ-यह सब विषय पूर्वभव का उसे स्मृत हो आया-अर्थात् उसे यह बात याद आई-कि जब मैं अष्टमभक्त की तपस्या का नियम धारण कर पौषध शाला में बैठा हुआ था तब मेरी वह तपस्या पूर्णप्राय हो रही थी- उस समय मुझे दिपासा और क्षुधा की बाधा ने आकुलित परिणाम वाला बना दिया। सो मुझे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-कि वे लोग धन्यवाद के पात्र हैं कि जिन्हों के बनवाये हुए जलाशय विद्यमान हैं । इसलिये में भी प्रातः काल होते ही श्रेणिक राजा से पूछकर राजगृह के बाहिर ईशान कोण में नंदा नाम की एक वावड़ी खुदवाऊँगा। इस प्रकार विचार कर फिर मैंने श्रेणिक राजा से पूछा तो उन्हों ने मुझे इस की आज्ञा देदी मैंने निग्गथाओ पावयणोओ नट्टे भटूठे परिभट्ठे त सेयं खलु ममं सयमेव पुव्व पडिबन्नाई चाणुञ्चयाई सत्तसिक्खावयाई उवस पज्जित्ताण विहरत्तिए ) असे વખતે ઉનાળામાં યાવતું પૌષધશાળામાં પૌષધ ધારણ કરીને બેઠે હતો ત્યારે મારા મનમાં એ વિચાર ઉદુભળે એવી આપૃચ્છના થઈ, નંદા પુષ્કરિણી તૈયાર કરાવવાનો વિચાર થયે, વનખંડ તેમજ સભાઓને બનાવવાનો વિચાર થ. એ રીતે પહેલાના જન્મની બધી વાત યાદ આવી એટલે કે તેને આ જાતનું સ્મરણ થયું કે જ્યારે હું અષ્ટમ ભક્તની તપસ્યાનું વ્રત લઈને પૌષધશાળામાં બેઠે હતે. મારી અષ્ટમ ભક્તની તપસ્યા પૂરી થવાની હતી તે વખતે તરસ અને ભૂખની પીડ એ મને વ્યાકુળ બનાવી દીધો. ત્યારે મને વિચાર આવ્યું કે તે લેકે ધન્યવાદને લાયક છે કે જેમના વડે બંધાયેલા જળાશયો અત્યારે પણ હયાત છે. એથી હું પણ સવાર થતાં જ શ્રેણિક રાજાની આજ્ઞા મેળવીને રાજગૃહ નગરની બહાર ઈશાન કોણમાં નંદા નામે વાવ બંધાવડાવું. આ રીતે વિચાર કરીને મેં શ્રેણિક રાજાને જ્યારે પૂછયું ત્યારે તેમણે મને તેની આજ્ઞા
For Private And Personal Use Only
Page #830
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथागर ततस्तस्याः पुष्करिण्याश्चतुर्दिक्षु वनषण्डा आरोपिताः संरक्षिताः संवर्धिताः, ततस्तेषु वनषण्डेषु पौरस्त्ये चित्रसभा, दाक्षिणात्ये महानसशाला, पाश्चात्ये चिकित्सा शाला, औदीच्ये वनषण्डेऽलंकारिकसभा मया कारिता, इति । ' यावत्-नन्दायां पुष्करिण्यां दर्दुरतयोपपन्नः' ततो राजगृहविनिर्गतो बहुजनस्तत्र पुष्करिण्यां स्नानं कुर्चन जलं पिवन पानीयं घटादिभिर्नयन परस्परमेवमवादीत्-भो देवानुप्रिया ! धन्यः कृतार्थः खलु नन्दो मणिकारश्रेष्ठी यस्य खलु इयमेतद्रूपा नन्दापुष्करिणीत्यादि, तत् प्रशंसावचनमहं बहुजनस्यान्तिके श्रुत्वा हृष्टतुष्टः सातगौरवसुखमनुभवन् आसम् । ततः खलु मम मणिकारश्रेष्ठिभवे प्रबलतरशातगौरव ननितकर्मोदयेनानंदा नाम की पुष्करिणी उन्ही की आज्ञा से बन वाई ! उस की चारों दिशाओं में चार वनषंड लगवाये वे संरक्षित होकर खूब अच्छी वृद्धिं. गत हुए उन वनपंडों में से जो पूर्व दिशो संयन्धी वनषंड था उसमें मैंने एक चित्र सभा बनवाई दक्षिण दिशा संबन्धी वनषंड में एक महा. नस शाला,पश्चिमदिशा संबन्धी वनषंड में चिकित्सा शाला और उत्तर दिशा संबन्धी वनपंड में अलंकारिक सभा बनवाई। राजगृहनगर से निर्गत अनेक जन उस पुष्करिणी में स्नान करते-पानी पीते और उस में से पानी भी भरते-तब परस्पर मिलकर वे इस प्रकार से बात चीत करते कि भो देवानुप्रिय ! मणिकार नंद श्रेष्ठी धन्यवाद का पोत्र है, कृतार्थ है-जिसने इतनी अच्छी इस नंदा पुष्करिणी को बनपाया है। इस तरह के प्रशंसात्मक वचन सुनकर मैं हर्षोत्फुल्ल गात्र हो जाता, मेरा चित्त संतुष्ट हो जाता। मैं उस समय शोत गौरव के આપી દીધી. તેમની આજ્ઞાથી જ મેં નંદા નામે પુષ્કરિણી બંધાવી છે. તેની ચારે દિશાઓમાં ચાર વનષડે રોપાવ્યા. સુરક્ષિત થયેલાં વનણંડે ખૂબ જ વૃદ્ધિ પામ્યા પૂર્વ દિશા તરફના વનખંડમાં મેં એક ચિત્રસભા બનાવડાવી હતી દક્ષિણ દિશાના વનખંડમાં એક વિશાળ મહાનસ શાળા (રઈ ઘર), પશ્ચિમ દિશાના વનખંડમાં ચિકિત્સાલય (દવાખાનું) અને ઉત્તર દિશાના વનખંડમાં અલંકારિક સભા બનાવડાવી. રાજગૃહ નગરના ઘણા માણસે પુષ્કરિણીમાં સ્નાન કરતા, પાણી પીતા અને તેમાંથી પાણી ભરતા હતા ત્યારે તેઓ પરસ્પર વાતચીત શરૂ કરવા માંડતા કે હે દેવાનુપ્રિય! મણિકાર શ્રેષ્ઠિ ધન્યવાદને લાયક છે. કતા છે, કેમકે તેણે કેવી સરસ નંદા પુષ્કરિણી બનાવડાવી છે. આ રીતે પિતાના જ વખાણ સાંભળીને હું ખુશ ખુશ (હસ્કુલ) થઈ જતે અને મારું હૈયું સંતુષ્ટ થઈ જતું હતું. હું તે વખતે શત ગૌરવના ઉદયથી ખૂબ જ
For Private And Personal Use Only
Page #831
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ममगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् ७७५ न्यदा कदाचित्-पोडशरोगातङ्काः प्रादुर्भूताः। बहवो वैद्यास्तत्रागताः परत्वेकमपि रोगातङ्कमुपशमयितुमसमर्था सन्तः प्रतिगताः । ततस्तैरोगातङ्करभिभूतः खलु नन्दापुष्करिण्यां मूच्छितोऽहं तत्सुखवियोगसंभावनयाऽऽर्तध्यानोपगतः सन् कालमासे कालं कृत्वा औव नन्दापुष्करिण्यां दर्दुरतया संजातोऽस्मि । इत्थं जाविस्मरणं प्राप्य स दर्दुरः स्वात्मनि विचारयति-तं अहोणं अहं अहन्ने' इत्यादि, तत्न तस्माद् अहो ! इति खेदे खलु अहमधन्यः, अपुण्यः, अकृतपुण्यः, नैर्ग्रन्थयात् प्रवचनाद नष्टो भ्रष्टश्चास्मि, तत्-तस्मात्-श्रेयः खलु मम स्वयमेव पूर्वप्रतिपन्नानि-पूर्व भवाङ्गीकृतानि, पश्चाणुव्रतानि सप्तशिक्षावतान्युपसंपद्य विहर्तुम् इत्येवं संप्रेक्षते उदय से अतिशय आनंद का अनुभव करने लग जाता । किसी एक समय मुझे मणिकार श्रेष्ठी के भव में उस प्रबलतर शात गौरवजनित कर्म के उदय से १६ रोगातंक शरीर में प्रकट हुए । अनेक वैद्य आये, परन्तु वे मेरे एक भी रोगातंक को शमित करने में समर्थ नहीं हो मके । सो वापिस चले गये। इस तरह उन रोगातंकों से अभिभूत हुआ मैं नंदा पुष्करिणी में मूञ्छित होकर उसके सुख के वियोग की संभावना से आर्तध्यान में पड़कर मृत्यु के अवसर में मरा सो इसी नंदा पुष्करिणी में इस दर्दुर की पर्याय से उत्पन्न हुआ हूँ। इस तरह जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त कर उस दर्दुर ने अपने मन में विचार किया देखो यह कितने खेद की बात है-मैं कितना अधन्य हूँ कितना पापी हूं कितना अकृत पुण्य हूँ जो मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन से नष्ट भृष्ट हुआ इसलिये मुझे यही कल्याणास्पद है कि मैं स्वयं अब पूर्व भव में अंगीकृत किये गये पांच अणुव्रतोंको सात शिक्षावतोंको स्वीकार-धारण-कर लूं। આનંદમાં મગ્ન થઈ જતો હતે. કે એક સમયે મણિકાર શેડના ભાવમાં મારા શરીરમાં પ્રબળતરા શાત ગૌરવ જનિત કર્મના ઉદયથી સેળ રોગ અને આંતક પ્રકટ થયા. ઘણું વૈદ્યો આવ્યા પણ તેઓ મારો એક રોગ પણ મટાડી શકયો નહિ. વૈદ્યો પણ નિરાશ થઈને પાછા જતા રહ્યા હતા. આ રીતે રોગ અને આતંકેથી પીડિત થઈને હું નંદા વાવમાં બેભાન થઈને સુખના વિયેગની સંભાવનાથી જ આર્તધ્યાન કરતે છેવટે મૃત્યુના સમયે મરણ પામ્યા. મૃત્યુ બાદ હું એ નંદા વાવમાં જ દેડકાના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થગો છું. આ રીતે જાતિસ્મરણ જ્ઞાન પ્રાપ્ત થતાં તે દેડકાએ પિતાના મનમાં વિચાર કર્યો કે–અરે ! અરે ! હું કેટલે બધે અધન્ય છું. પાપી છું અને અમૃતપુણ્ય છું. નિગ્રન્થ પ્રવચનથી ભ્રષ્ટ થઈને જ મારી આવી દશા થઈ છે, એથી હવે હું પૂર્વભવમાં स्वीरेखा पांय माशुव्रतो, भने शिक्षाक्तान स्वीरी 6. (.एवं संपेहेह संपे.
For Private And Personal Use Only
Page #832
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विवारयति, संप्रेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नानि पञ्चाणुव्रतानि सप्तशिक्षाप्रतानि आरोहतिपास्यति स्त्रीकरोतीत्यर्थः । आरुह्य द्वादशवतान्यङ्गीकृत्य, इममेतद्रूपं वक्ष्यमाणसरूपम् , अभिग्रहमभिगृह्णाति-कल्पते मे यावज्जीवं ' छटुंछठेण' षष्ठषष्ठभक्तेन, "अणिक्खित्तेणं' अनिक्षिप्तेन-अन्तररहितेन अविश्रान्तेनेत्यर्थः तपः कर्मणाऽऽ स्मानं मावयतः आत्मनः शुभपरिणामं वर्धयतः, विहाँ कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । अषिय-षष्ठस्यापि--षष्ठभक्तस्यापि च पारणके कल्पते मे नन्दायाः पुष्करिण्या: "परिपेरत्तेसु' परिपर्यन्तेषु-तटेषु-मासुकेन अचित्तेन, स्नानोदकेन ' उम्मद्रणोल्लोलियाहि य' उन्मर्दनोल्लोलिताभिः-उद्वर्तनादुर्वरिताभिः लोकैर्दोहोद्वर्तने कृते मति शेषभूता इतस्ततः पतिता या यत्रचूर्णादिनिर्मितपिष्टिकास्ताभिरित्यर्थः, त्ति कल्पयतः शरीरयात्रानिर्वाहं कुर्वतः विहर्त कल्पते इति पूर्वेणान्वयः । इममेत( एवं संपेवेइ, संपेहिता पुव्वपडिवन्नाइं पंचाणुव्वयाई सत्त सिं. क्खावयाइं आरुहेइ, आरूहित्तो इमेयास्वं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कप्प में जाध जीवं छटुं छटेणं अणिक्खित्तेगं तवो कम्मेणं अप्पाणं भावेमा
स्स विहरित्तए) इस प्रकार उसने विचार किया। विचार करके पूर्व प्रतिपन्न पंच अणुवनों को सान शिक्षाव्रतों को उसने स्वयं धोरण कर लिया।'धारण करके फिर उसने इस प्रकार का नियम ले लिया कि मैं अब जीवन पर्यंत अन्तर रहित षष्ठ षष्ठ भक्त की तपस्या से अपने आत्मपरिणामोंको बढाता रहूँगा। ( छट्ठस्स वि य णं पारणगंसि कप्पड़ में गंदाए पोक्खरणीए परिपेरंतेसु फासुएणं पहाणोदएणं उम्मदणों हालियाहि य वित्ति कप्पेमाणस्म विहरित्ता, इमेयारूवं अभिग्गहं अ. भिगेण्हइ, जावज्जीवाए छठें छठेणं जाव विहग्इ) और छट्ठ भक्त की हित्ता पुव्व पडिवन्नाई पचाणुव्वयाई सत्तसिम्खावयाइ' आरुहेइ, आरुहिता इमेयास्व अभिगह अभिगिण्हइ, कप्प मे जाव जी छ? छ्ट्रेण अणिखित्तण तत्रोकम्मेण अप्पाण भावमाणस्स विहरित्तए) मा शत ते विया२ ध्या. पियार કરીને પૂર્વ ભવમાં સ્વીકારેલાં પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાત્રતેને તેણે પોતે જ ધારણ કરી લીધા. ધારણ કરીને તેણે એ જાતને નિયમ લીધે કે હવે જીવનની છેલ્લી પળ સુધી અન્તર રહિત ષષ ષષ્ઠ ભક્તની તપસ્યા વડે भा२। मात्म परिणाभानी वृद्धि ४२ / २६ीश. ( छटुस्स वि य ण पारणगंसि कप्पा मे णदाए पोक्नवरणीए, परिपेर तेसु फासुएण हाणोदएण' उम्महणोलोलियाहिय वित्ति' कप्पेमाणस्स विहरित्तए, इमेयास्व अभिग्गहं अभिगेण्हइ, जाप जीवार ष्ट छटेण जाव विहरइ) भने ७४ भनी पारणान हिसे नही
For Private And Personal Use Only
Page #833
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् .७७७ "इपमभिगृह्णाति, अभिगृह्य यावज्जीवं षष्ठपष्ठेन-पाठपष्ठभक्तेन यावत्-स इसेsमिग्रहग्रहणपूर्वकं स्वीकृतेन तपः कर्मणाऽऽत्मानं भावयन् विहरति आस्तेस्मा मु०७॥
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! गुणसिलए चेइए समोसढे परिसा निग्गया, तएणं नंदाए पुक्खरिणीए बहजणो पहायमाणो य ३ अन्नमन्नं एवं वयासीदेवाणुप्पिया! समणे३ इहेव गुणसिलए चेइए समोसंढे, "तं मच्छामो णं. देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो जाव पज्जुवासामो एयं मे इहभवे परभवे य हियाए जाव अणुगामियत्ताए भविस्सइ, तएणं तस्स ददरस्स बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए ५ समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे इहेव गुणसि. लए चेइए समोसंढे, तं गच्छामि णं समणे३ वंदामि जाव मज्जुवासामि एवं संपेहेइ संपेहित्ता गंदाओ पुक्खरणीओ संगियं २ उत्तरइ उत्तरित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ताए उकिहाए ददरगईए वीइचयमाणे जेणेकमम अतिए तेणेव पहारेस्थ गमणाए, इमं च णं सेणिए राया पारणा के दिन में नंदा पुष्करिणी के तट पर के अचित्त स्नानोदक से तथा लोकों के द्वारा दोहोद्वर्तन करने पर शेषभूत इधर उधर पतित यव चूर्णादि निर्मित पिष्टिका से अपने शरीर की यात्रा का निर्वाह करेगा, इस प्रकर का अभिग्रह उसने ग्रहण कर लिया। इस कलह अभिग्रह ग्रहण पूर्वक वह ददुर घृत षष्ठ षष्ठ भक्त की तपस्या से आत्मशुद्धि करने में लग गया ॥ सूत्र ७॥ વાવના કિનારાની ચારે બાજુના અચિત્ત સ્નાનેદકથી તેમજ લોક વડે દેહદ વર્તન કર્યા પછી વધેલા અને અ મતેમ વેરાઈને પડેલા જવના લોટ વગેરેથી પિતાના પિંડને શરીરને નિર્વાહ કરીશ. આ રીતે તેણે અભિગ્રહ લઈ લીધો. આમ અભિગ્રહ ધારણ કરીને દેડકે ષષ્ઠ ભક્તની તપસ્યા કરને આત્મશુદ્ધિ पामा तीन 25 गया. सूर “ ७ ”
For Private And Personal Use Only
Page #834
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
खाताधर्मकथा भंभसारे पहाए कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूलिए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहिं उधुव्वमाणाहिं हयगयरहमहया भडचडगरः कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडे मम पायवंदए हव्वमागच्छइ, तएणं दद्दरे सेणियस्स रन्नो एगेणं आसकिसोरएणं वामपाएणं अक्कंते समाणे अंतनिघाइएकए यावि होत्था, तएणं से दद्दरे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधारणिज्जमित्तिकड एगतमवक्कमइ अवक्कमित्ता करयल. परिग्गहियं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी-नमोऽत्थु णं मम धम्मायरियस्स- जाव संपाविउकामस्स पुटिव पि य क माए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पथ क्खाए; जाव थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए,तं इयाणि पि तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामि जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि जावजीवं, सव्वं असणं ४ पच्चक्खामि जावजीवं जंपि य णं इमं सरीरं इठं कंतं जाव मा फुसंतु एयंपि णं चरिमेहिं ऊसासेहिं वोसिरामित्तिकद्दु, वोसिरइ तएणं ददरेकालमासे कालं किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे दद्दरवडिसए विमाणे उववायसभाए दद्दरेदेवत्ताए उववन्ने, एवं खलु गोयमा ! दद्दरेणं सो दिव्वा देविड्डी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया। दद्दरस्स णं भंते! देवस्स केवइयकालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलि ओवमाइं ठिई पण्णत्ता, से णं भंते ! दद्दुरे देवे ताओ देवलो
For Private And Personal Use Only
Page #835
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नगारधर्मामृतषिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् ७९ गाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चयं चइत्ता कहिं -गच्छिहिइ कहिं उववज्जिहिइ गोयमा ! महाविदेहेवासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिवाहिइ सव्वदुक्खाणं अंतं करोहिइ य। एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं सेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिबेमि॥ सू०८ ॥
॥ तेरसमंणायज्झयणं समत्तं॥१३॥ ... टीका-भगवान् महावीरः स्वामी कथयति-'तेणं कालेणं' इत्यादि । "तस्मिन् काले तस्मिन् समये-यदा स ददुरः षष्ठभक्त तपः कर्मणाऽऽत्मानं मावयन् विहरतिस्म, तस्मिन् काले तस्मिन् समये हे गौतम ! अहंगुणशिलके चैत्येमुणशिलकनामकोद्याने समवस्ता प्राप्तः । परिषद् राजगृहनगरनिवासिनां जनानां समूहः, निर्गता-मां द्रष्टुं वन्दितु नगराब्दहिनिःसृता । ततः खलु नन्दायां पुष्करिण्यां बहुजनः स्नानं कुर्वन् जलं पिवन् पनीयं च संवहन् अन्योन्यमेवमवादीत्-भो देवानुप्रियाः ! श्रमणो भगवान महावीरः स्वामी इहैव गुणशिलके चैत्ये समरसृतः, तत्-तस्माद् गच्छामः खलु हे देवानुपियाः ! श्रमणं भगवन्तं महावीरस्वामिनं वन्दामहे नमस्यामः वन्दित्वा नत्वा यावन्-पर्युपास्महे-सेका कुर्मः, अस्माकमेतद् इहभवे परभवे च हिताय यावत्-सुखाय, क्षेमाय, निःश्रेयसे, 'अणु
तेणं काले ण तेणं समएणं' इत्यादि। टीकार्थ-(तेणं काले णं तेणं समएणं) उस काल और उस समय में (अहं गोयमा! गुणसिलए चेइए समोसढे परिसा निग्गया, तएणं मैदाए "पुक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य ३ अनमन्नं एवं वयासी-देवाणुप्पिया! समणे ३ इहेव गुणसिलए चेइए समोसढे, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो जाव पज्जुवासामो, एयं में इहभवे परभवे य हियाए जाव अणुगामियत्ताए भविस्सइ) हे
'तेण' कालेण तेण समएणं ' इत्यादि__ थ- तेण कालेणं तेणं समएण) ते ४ाणे भने ते समये (अहं गोयमा ! गुणसिलए चेइए समोसढे परिसा निग्गया, तएण नदाए पुक्खरिणीए बडुजणी व्हायमाणो य ३ अन्नमन्न एवं वयासी-देवाणुप्पिया ! समणे ३ इहेव गुणमिलए घेहर समोसले, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समण भगवं महार्वरं वंामों जावं पज्जुवासामो, एयं मे इहभवे परभवे य हियाए जाव अणुगमियत्ताए भविस्सइ)
For Private And Personal Use Only
Page #836
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
साताधर्मकथा गामियत्ताए ' अनुमामिकतायै परमवेऽनुगमनार्थ भविष्यति, इति परस्परमदद ।
ततः खलु तस्य दर्दुरस्य बहुजनस्यान्तिकाद् एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य अय: मेतप आध्यात्मिको विचारः समुदपद्यत-एवं खलु श्रमणो . भगवान् महावीर।' गौतमा । मैं में विहार करता हुआ गुणशिलक नाम के उद्यान आया। राजगृह नगर निवासी मनुष्यों का समूह मेरी वंदना करने के लिये तथा मेरे दर्शन के लिये अपने २ स्थान से आये-उस समय नंदा पुष्करिणी में अनेक मनुष्य स्नान करते हुए जल पीते हुए और पानी भरते हुए परस्पर में इस प्रकार से बात-चीत कर रहे थे-भो देवानुप्रियो । श्रमण भगवान् महावीरः यहीं पर गुण शिलक' चैत्य में पशिश हुए हैं-इसलिये हे देवानुप्रियो ! चलो-आओ चलें श्रमण भगवान महाबीर को वंदना करें नमस्कार करें। वंदनो नमस्कार कर फिर उँन की पर्युपासना-सेवा करें । यही बात इस भव में, परभव में हमारे लिये हितकारक होगी, यावत् सुखविधायक होगी, क्षेमकारक, नियः सकारक एवं अन्यभव में साथ जाने वाली होगी। (तएणं तस्स ददुरस्से बहजणस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा, निसम्म अयमेयोरूवे अज्झथिए ५' समुष्पजिजस्था) तो इस प्रकार की बात चीत जब उस दर्दुर ने उन अनेक मनुष्यों के मुख से सुनी-तो सुनकर और उसे हृदय में धारण कर उसके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-( एवं खलु समणे હે ગૌતમ! ગુણશિલક નામના ઉદ્યાનમાં હું વિહાર કરતો કરતે આ. રાજગૃહ નગરના નાગરિકેના સમૂહે મને વંદન કરવા તેમજ દર્શન કરવા માટે પિતાપિતાને ઘેરથી મારી પાસે આવ્યા. તે સમયે નંદા વાવમાં ઘણું માણસે સ્નાન કરતાં, પાણી પીતાં અને પાણી ભરતાં આ પ્રમાણે વાત કરવા લાગ્યા કે હે દેવાનુપ્રિયે! અહીં ગુણશિલક મૈત્યમાં જ ભગવાન મહાવીર સ્વામી પધારેલા છે, એટલા માટે હે દેવાનુપ્રિયે ચાલે આપણે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેમની પ પાસના સેવા–કરીએ આ ભવ તેમજ પરભવમાં એ વાત જ અમારા માટે શ્રેયરૂપ થશે યાવત સુખ વિધાયક થશે. ખરેખર એ વાત જ ક્ષેમકારક નિશ્રેયસકર અને બીજા ભવમાં ५) साथे डे. ( तर्पण' तस्स दुरस्त बहुजणस्स अंतिए एयमंटु सोच्चा, निसम्म, अयमेथारूवे अज्झथिए ५ समुप्पजित्था) ते भायुसेना मे पात દેડકાએ પણ સાંભળી અને તેને ધારણ કરી લીધી ત્યારપછી તેના મનમાં આ
तन विसर ये है ( एवं खलु समणे भगवं महावीरे इहेव गुणसिलए चेहएं समोस, ते गच्छामिणे संमणं ३ वदामि, जाव पज्जुवासामि एवं संपेई,
For Private And Personal Use Only
Page #837
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भंगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनि पणम् k स्वामी इहैव गुणशिलके चैत्ये समवस्तोऽस्ति । तत्-तस्माद् अहमपि गच्छामि खलु श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दे नमस्यामि एवं संप्रेक्षते-विचारयति, संप्रेक्ष्य नन्दायाः पुष्करिणीतः शनैः शनैरुत्तरति-बहिनिः सरती, उत्तीर्य यौव राजमार्गस्तवोपागच्छति, उपागत्य तया (१) 'उकिटाए ' उत्कृष्टया, अोदं बोध्यम्-.. (२) "तुस्यिाए (३) चवलाए, (४) चंडाए, (४) सिग्याए, (६) उधुयाए, (७). जयणाए, (८) छेयाए, " इति । तत्र-उत्कृष्टया-दई राणां गतौ य उत्कर्षस्तेनयुक्तोगतिरुत्कृष्टा तयेत्यर्थः । त्वरितया-मनस औत्सुक्येन युक्ता त्वरिता तया, भगवं महावीरे इहेव गुणसिलए चेइए समोसढे, तं गच्छामि गं समणं ३ वंदामि जाव पज्जुवोसामि एवं संपेहेइ, संपेहित्ता गंदाओ पुक्खरणीओ सणियं २ उत्तरइ ) श्रमण भगवान महावीर प्रभु यहाँ गुण शिलक उद्यान में आये हुए हैं तो चलू श्रमण भगवान महावीर को वंदना करूँ यावत् उनकी पर्युपासना करूँ। ऐसा उसने विचार कियाविचार कर के फिर वह उस नंदा पुष्करिणी से धीरे २ बाहिर निकला(उत्तरित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए दद्दुर गइए वीइवयमाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेत्य, गमणाए ) बाहिर निकल कर फिर वह जहां राजमार्ग था, उस ओर चल दिया। वहां पहुंच कर फिर वह उस उत्कृष्ट दर्दुर गति से चलता हुआ मेरी ओर बढा। यहां " तुरियाए, चवलाए, चेडाए, सिग्याए, उधुयाए, जयणाए, छेयाए" इन पदों का भी संग्रह कर लेना चाहिये उस द१र की गति को उत्कृष्ट इसलिये कहा है कि दर्दुरो की गति में
संपेहित्ता गंदाओ पुक्खरणीओ सणियं २ उत्तरइ) श्रम ससवान महावीर प्रभु અહીં ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં પધારેલા છે. ત્યારે હું પણ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદન થાવત્ તેમની પથું પાસના-સેવા કરે. આ જાતને તેણે વિચાર કર્યો. વિચાર કર્યા પછી તે નંદા વાવમાથી ધીમે ધીમે બહાર નીકળે. (उत्तरित्ता जेणेव रायमगे तेणे उबागच्छइ, उषागच्छित्ता ताए उकिदाए ददुरः गहुए वीइवयमाणे जेणेव मम अंतिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए) महार नजान તે જે તરફ રાજમાર્ગ હતા તે તરફ ચાલવા માંડયા. ત્યારપછી તે પિતાની ઉહ (શીઘ) દેડકાની ગતિથી ચાલતા ચાલતે મારી તરફ આવ્યો. અહીં (रियाए, चवलाए, चंडीए, सिग्धाए, उध्दुयाए, जयणाए छेयाए) मा पहान પણ સંગ્રહ કરવો જોઈએ. તે દેડકાની ગતિ ઉત્કૃષ્ટ:એટલા માટે વર્ણવવામાં આવી છે કે દેડકાઓની ગતિમાં જે ઉત્કર્ષ હોય છે તે ગતિ તેનાથી યુકત
For Private And Personal Use Only
Page #838
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रोताधर्मकथासूत्रे
चपलया - शरीरचापल्येन युक्तया, चण्डया - तीव्रया, अतएव शीघ्रया, उद्धुतयाअशेष शरीरावयवकम्पवा, जयिन्या अन्यददु रगतिजेच्या, छेकया- अपायपरिहारे निपुणया, दर्दुरंगत्या - मण्डूकगत्या 'वीश्वयमाणे ' व्यतिव्रजन् २-महावेगेन गच्छन् २, यचैव ममान्तिकं तत्रैव प्राधारयद् गमनाय = गन्तुं प्रवृत्तः । अस्मिन्नेव समये उद्यानरक्षकमुखान्ममागमनं श्रुत्वा श्रेणिको राजा भंसारः
=
सारापरनामकः स्नातः कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चितः सर्वालंकारविभूषितः, जो उत्कर्ष होता है वह उस उत्कर्ष से युक्त थी । उस मेंढक के मन में बड़ी भारी उत्सुकता थी - सो उस उत्सुकता से वह गति भरी हुई थी - इस कारण वह उस की गति त्वरित थी। शरीर की चपलता से युक्त होने के कारण, तीव्र होने के कारण, शीघ्रता से युक्त होने के कारण, समस्त शारीरिक अवयवों के कंपन से युक्त होने के कारण अन्य साधारण दर्दुरों की गति की अपेक्षा विशिष्ट होने के कारण, और अपायों को बचा २ कर चलने के कारण वह गति क्रमशः चपल चण्ड, शोघ्र उद्धत, जयनी, और छेक इन विशेषणों वाली थी । इमं चणं सेणिए राया भंभसारे पहाए कयकोउयमंगलपायच्छिते सव्वालंकार विभूसिए, हत्थि खंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेण धरिज्ज माणेण सेयवरचामराहिं उद्ध्रुवमाणाहिं हयगयरहमया भडचडगरकलियाएं चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपडियुडे मम पायबंदए
मागच्छ ) इसी समय उद्यान रक्षक के मुख से मेरा आगमन सुनकर भंभसार " इस अपर नाम वाले श्रेणिक राजा मेरी वंदना
("
For Private And Personal Use Only
હતી. તે દેડકાના મનમાં ભારે ઉત્સુકતા હતી તેની ગતિમાં ઉત્સુકતાને લીધેજ દ્વરા આવી ગઈ હતી. શરીરની ચપળતાથી યુક્ત હવા બદલ, તીત્ર હાવા બદલ, શીઘ્રતા યુક્ત હાવા બદલ, શરીરના બધા અવયવેાના કપનથી યુક્ત હાવ બદલ, બીજા સાધારણ દેડકાએ ગતિ કરતાં વિશિષ્ટતા युक्त હાવા બદલ અને અપાયા ( આફ્તે ) થી સાવધ થઈને ચાલવા બદલ તે ગતિ ક્રમશઃ संपण, थंड, शीघ्र, धुत, नयनी मने छेउ मा विशेषशेोवाणी हुती. ( इम चण सेणिएराया भभसारे व्हाए कयकौउयमंगलपायच्छते सव्वालंकारविभूसिए, इत्थिखंधबरगए सकोरंटमलदा मेणं छत्तेण धरिज्जमाणेण सेयवर चामराहि उदूधुत्र्वमाणाहिं हयगयरहमहया भङ्गचडगरका लियाए चाउर गिणीए सेनाए सद्धि संपडिवुडे मम पायवंदए हव्वमागच्छा) ते वषते उद्यान रक्षा મુખથી મારા આગમનની વાત સાંભળીને ‘ ભભસાર ' એ બીજા નામવાળા
Page #839
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणि कारभवनिरूपणम ७८३ हस्तिस्कन्धवरगतः गजोपरिसमारूढः, सकोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्टकुसुममालया, छोण घ्रियमाणेन स्वभृत्यहस्तधृतेन, श्वेतवरचामरैरुद्धृयमानैः स्वभृत्यैर्वीजितः, हयगजरथमहाभटचटकरकलितया अश्वगजस्थमहाभटानां चटकरः समूहस्तेन कलितया-युक्तया, चतुरङ्गिण्या सेनया साध संपरिवृतो मम पादवन्दको हव्यं-शीधम् , आगच्छति, ततः खलु स दर्दुरः श्रेणिकस्य राज्ञ एकेन 'आसकिसोरएणं' अश्वकिशोरकेन वामपादेन ' अकं ते समाणे ' आक्रान्तः अभिभूतः देहोपरिपादनिपाताऽऽघातं प्राप्तः सन् 'अंतनिग्याइए' अन्त्रनिर्घातितः अन्त्रस्य ' आँत' करने के लिये तैयार हुआ स्नान से निबट कर और कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित विधि समाप्त कर गज पर चढे हुए जल्दी २ आ रहे थे। उस समय वे समस्त अलंकारों से विभूषित थे। उन के ऊपर कोस्ट पुष्पों की माला से शोभित छत्र छत्रधारी ने लगा रखा था। यमर टोरने वाले भृत्य जन उन पर शुभ्र उत्तम चमर ढोल रहे थे, हय, गज, रथ, एवं महा भटों के समूह से युक्त चतुरंगिणी सेना से वे घिरे हुए थे। (तएणं से दद्दुरे सेणियस्स रणो एगेणं आस किसोरएणं वाम पाएणं अक्कंते समाणे अंत निग्गाइएकए यावि होत्था तएणं से दरे अत्थामे अबले अकीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधोरणिज्ज मित्ति कड एगंतमवक्कमह, अवक्कमित्ता करयलपरिग्गहियं मत्थए अंजलि कटु एवं वयोसि ) फुदक २ अपनी चाल से चलता-हुआ वह मेहक श्रेणिक राजा के किसी एक घोड़े के बच्चे के वाम पैर से आक्रान्त हो मला-अर्थात् उस का वाम चरण उस के ऊपर पड़ गया । सो उसी શ્રેણિક રાજા મને વંદન કરવા માટે તૈયાર થયા. તેઓ સ્નાનથી પરિવારને કૌતક, મંગળ અને પ્રાયશ્ચિત્ત વિધિ પૂરી કરી અને હાથી ઉપર સવાર થઈને ઝડપથી આવી રહ્યા હતા. તે વખતે તેઓ બધી જાતના અલંકારોથી વિભૂષિત હતા. તેમના ઉપર કરંટ પુની માળાથી શોભતું છત્ર છત્રધારીઓએ તાણેલું હતું. ચમર ઢાળનાર નેકરે તેમના ઉપર શુભ્ર ઉત્તમ ચમરે ઢળી રહ્યા હતા. હય (ઘડા) ગજ, રથ અને મહાભાના સહથી યુક્ત ચતુરંગિણી એનાથી तेसा वीटायेता ता (तएण से दद्दुरे सेणियस्स रण्णो एगेण आसकिसो. रएणं वामपाएग अकते समाणे अंत निग्धाइएकए याविहोत्था तरुणं से दद्दुरे अत्यामे अबले अकीरिए अपुरिमकारपरक्कमे आधारणिजमित्ति कट्ट एगंतमवकमइ, अवकमित्ता कारणलपरिग्गहियं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयोनी) કૂદકા મારતે તે દેડકે શ્રેણિક રાજાના કોઈ એક ઘેડાના ટૂના ડાબા પગથી આક્રાંત થઈ ગયે એટલે કે તેને ડાબે પગ તેના ઉપર પડી છે. તેથી
For Private And Personal Use Only
Page #840
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माताधर्मकथा ति प्रसिद्धस्य, निर्घातः-अन्ननिर्घातः, स संजातोऽस्येति अन्त्रनिर्घातितःघटितान्त्रः कृतश्चाप्यभवत् ।
ततः खलु स दर्दुरः । अत्थामे' अस्थामा हीनपराक्रमः गमनशक्तिरहित इत्यर्थः अबल: मनोबलरहितः-खिन इत्यर्थः अवीय:-हतोत्साहः, 'अपुरिसकारपरकमे' अपुरुषकारपराक्रमः-पुरुषकारः पराक्रमच न विद्यते यस्य सोऽपुरुषकार पराक्रमः । पुरुषार्थहीनइत्यर्थः । 'अधारमिज्जमितिकटु' अधारणीयमिति कृत्वा बधारणीयमिदं शरीरमिति विचार्य, एकान्तमवक्रामति-एकान्त-जनसंचाररहितस्थानं मार्गस्य प्रान्तभागं कथंचिद् गच्छति, अवक्रम्यः करतलपरिगृहीतं मस्तकेऽ. अलिंकृत्वा, एवमवादीत्-एवं वक्ष्यमाणस्वरूपेण स्वमनस्युक्तवान् 'नमोऽत्थुणं जाव संपत्ताणं ' नमोऽस्तु खलु अर्हद्भयो भगवद्भयो यावत्-सिद्धिगतिनामधेय स्थान संप्राप्तेभ्यः, “ नमोऽत्थुणं मम धम्मायरियस्स जाव संपाविउकामस्स ' नमोऽस्तु समय उस की आंते टूट गई । आंतों के टूटते ही वह दर्दुर गमन शक्ति से रहित हो गया, मानसिक पल उस का जाता रहा-उत्साह उसका इकदम छिन्न भिन्न हो गया, पुरुषार्थ और पराक्रम मानों उस में है ही नहीं ऐसा वह हो गया। जब उसने यह देखा कि यह शरीर अपटिक नही सकना तब वह बड़ी कठिनताइसे जन संचार रहित एकान्त स्थान में चला गया। वहां जाकर उसने अपने दोनों हाथों की अंजलि बनाकर
और उसे मस्तक पर रखकर इस प्रकार मन ही मन में कहा (नमो. त्युणं जाव संपत्ताणं णमोत्थुणं मम धम्मायरियस्स जाव संपाविष्टकामस्स पुन्धि पियणंमए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं દેડકાનાં આંતરડાં તૂટી ગયાં. આંતરડાં તૂટતાં જ તે દેડકો હાલવા ચાલવામાં અસમર્થ થઈ ગયે. તેનું આત્મબળ નષ્ટ થઈ ગયું. તેને ઉત્સાહ મંદ થઈ ગયે. તે પુરૂષાર્થ તેમજ પરાક્રમ રહિત થઈ ગયે. જ્યારે તેને એમ લાગ્યું કે હવે એ શરીર ટકવું મુશ્કેલ છે, ત્યારે તે બહુ જ પ્રયત્નથી એક તરફ જ્યાં માણસોની અવર જવર હતી નહિ ત્યાં જ રહ્યો. ત્યાં જઈને તેણે પિતાના બંને હાથની અંજળિ બનાવી અને તેને મસ્તકે મૂકીને મનમાં જ તેણે આ प्रमाणे ४थु-नमोत्थुगं जाव संपत्ताणं णमोत्थुण मम धम्मायरियस्स जाव संपा. विउकामस्स पुवि पियण मए समणस्स भगवओ महावीरस्स भतिए र पाणासायं पराक्खामि जाव सव्व परिगहं पञ्चक्खामि जाव जोक, सब असणं ४
For Private And Personal Use Only
Page #841
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माणगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १३ नन्दमणिकारभवनिरूपणम् खल मम धर्माचार्याय श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थान समाप्तुकामाय, पूर्वमपि पूर्वभवेऽपि च खलु मया श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके स्थूलः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातः, यावत्-स्थूलः परिग्रहः प्रत्याख्यातः, यावत्करणात्-स्थूलः मृषावादस्थूलादत्तादान-स्थूल-मैथुन-प्रत्याख्यानं बोध्यम् , तइदानीमपि-अस्मिन् भवेऽपि तस्यैवान्तिके सर्व प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि यावत् सर्वं परिग्रहं प्रत्याख्यापि यावज्जीवम् , यदपि च खलु इदं शरीरमिष्टं कान्तं यावत् मा स्पृशन्तु रोगातङ्काः, एतदपि शरीरं खलु ' चरिमेहिं ' चरमैःअन्तिमैः 'ऊसासेहि' ऊच्छ्वासः प्राणनिर्गमैः 'चोसिरामितिकडे' व्युत्सृजामितिपाणाइगयं पच्चक्खामि जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि जाव जीवं सव्वं असणं ४ पच्चक्खामि जाव जीवं जं पि य णं इमं सरीरं इंडे कंत जाव मा फुसंतु एयं पिणं चरिमेहिं उसासेहिं वोसिरामि त्ति कटु घोसिरइ ) यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हुए अहंत भगवंतों को मेरा नमस्कार हो, यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामना वाले मेरे धर्माचार्य, श्रमण भगवान महावीर को मेरा नमस्कार हो । पूर्वभव में भी मैंने स्थूल रूप से प्राणातिपात का परित्याग श्रमण भगवान् महावीर के समीप किया था। इसी तरह स्थूल मृषावाद का स्थूल अदत्तादान का स्थूल मैथुन को, एवं स्थूल परिग्रह को भी प्रत्याख्यान किया था। ये स्थूल मृषावाद आदि यावत् शब्द से यहाँ गृहीत हुए हैं तो अब इस भव में भी उन्हीं के समीप सर्व प्राणितिपात यावत् सर्व परिग्रह का यावज्जीव प्रत्याख्यान करता हूँ। तथा अशन, पान, खाद्य एवं खाद्य रूप से चतुर्विध आहार का भी जीवन पर्यन्त परित्याग करता हूँ। तथा जो इष्ट, कान्त यह मेरा शरीर पच्चक्खामि जावजीव जं पि य ण इमंसरीरं इ8 कंत जाव मा फुसंतु एयपि णं चरिभेहि वोसिरामि त्ति कटु वोसिग्इ ) यात् सिद्धिगति नाम: स्थानने प्रास કરેલા અહંત ભગવંતને મારા નમસ્કાર છે, યાવત્ સિદ્ધિ ગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની ઈચ્છા કરનારા મારા ધર્માચાર્ય શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને મારા નમસ્કાર છે. પહેલાંના ભાવમાં પણ મેં સ્કૂલ રૂપથી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની નજીક પ્રાણાતિપાતને પરિત્યાગ કર્યો હતે. આ રીતે જ સ્થળ મૃષાવાદનું, સ્થૂલ અદત્તાદાનનું, સ્થૂલ મૈથુનનું, અને સ્થૂલ પરિગ્રહનું પણ મેં પ્રત્યાખ્યાન કર્યું હતું. સ્થૂલ મૃષાવાદ વગેરે અહીં “યાવત્ ' શબ્દ વડે સંગૃહીત થયા છે. ત્યારે હવે હું આ ભવમાં પણ તેમની નજીક સર્વ પ્રાણાતિપાત યાવત સર્વ પરિ. ગ્રહનું મૃત્યુ સુધી પ્રત્યાખ્યાન કરું છું. તેમજ જે ઈષ્ટ, કાંત આ મારું શરીર છે કે જેના માટે મારા મનમાં આ જાતના વિચારો હતા કે એને કઈ પણ
-
For Private And Personal Use Only
Page #842
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Satara serpet
कृत्वा = शरीरं व्युत्सृजति - परित्यजति, भगवानाह - हे गौतम ! ततस्तदनन्तरं खलु स दर कालमासे कालं कृत्वा यावत्-सौधमें कल्पे 'दद्दूर वर्डिसए विमाणे' दर्दुरा बसके विमाने दर्दरदेवतया ' उचबन्ने' उपपन्नः - उपपातं - जन्म प्राप्त इत्यर्थः ।
दर्दुरचरितमुक्त्वा भगवान् महावीरः स्वामी प्राह - ' एवं खलु गोयमा ! इत्यादि । हे गौतम! एवं खलु दर्दुरेण सा दिव्या देवर्द्धि लब्धा उपार्जिता प्राप्ता स्वयत्तीकृताऽभिसमन्वागता - सम्यक् सेविता । गौतमः पृच्छति - ' ददुरस्स ' इत्यादि | दर्दुरस्य खलु देवस्य हे भदन्त ! कियत्कालपर्यन्तं स्थितिः प्रज्ञप्ता १ है कि जिस के प्रति मेरी यह धारणा रहती थी, कि इसे कोई भी रोगातक स्पर्श न करें उसको भी मैं अन्तिम श्वासों तक ममत्व भावसे रहित होकर छोड़ता हूँ । इस प्रकार करके उसने सब का परित्याग कर दिया । (तएण से ददुरे कालमासे कालं किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे दरवर्डिer विमाणे उववायसभाए ददुरदेवत्ताए उवबन्ने - एवं खलु गोयमा ! ददुरेण सा दिव्वा, देविड्डी, लद्वा, पत्ता अभिसमा गया) इसके बाद वह दर्दर काल अवसर काल करके यावत् सौधर्म कल्प में दर्दुरावतंसक विमान में उपपोत सभा में दर्दुर देवता की पर्याय से उत्पन्न हो गया। इस प्रकार दर्दुर का चरित्र कहकर भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम से कहा कि हे गौतम! इस प्रकार से उस दर देव ने वह दिव्य देवद्धि उपार्जित की है, अपने आधीन की है और उसे अपने भोगके योग्य बनाई है। अब गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पुनः पूछते हैं कि - ( ददुरस्स णं भंते ! देवस्स केवइयकालं ठिईपण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओमाई ठिई રાગ અને આંતક - સ્પર્શ કરે નહિ-તેને પણ હું' મમત્વ વગર થઈને છેલ્લી પળ સુધી ત્યજું છું. આ રીતે વિચાર કરીને તેણે બધી વસ્તુઓને ત્યજી દીધી. ( तणं से ददुरे कालमासे कालं किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे ददुरवडि सए विमाणे उबवायसभाए ददुरदेवत्ताए, उजवन्ने एवं खलु गोयमा ! ददुरेण सा दिव्या, देबिडी, लढा, पत्ता अभिसमन्नागया ) त्यारमा ते हेड गणना समये आज કરીને યાવત્ સૌધ કલ્પમાં રાવત સક વિમાનમાં ઉપપાત સભામાં દર દેવતાના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થયા. આ રીતે દેડકાના ચરિત્ર વિશે વર્ણન કરીને ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ ગૌતમને કહ્યું કે હૈ ગૌતમ ! આ રીતે તે દર ધ્રુવે તે દિવ્યદેવધિ મેળવી છે, તેને સ્વાધીન બનાવી છે અને તેને પાતે ભાગવવાને લાયક બનાવી છે. હવે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ગૌતમ ફરી પૂછે छे . ( वदुररस णं भंते! देवरस फेबइयकाल ठिई पण्णत्ता १ गोयमा ! चत्तारि
For Private And Personal Use Only
Page #843
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नारामृतवर्षिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारमयनिरूपणम् .. समानाह-हे गौतम ! दर्दुरस्य खलु देवस्य चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्राप्ता । पुनगौतमःपृच्छति-' सेणं' इत्यादि स खलु हे भदन्त ! ददुरो देवरतस्माद् देव लोकाद् आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थिति क्षयेण चयं त्यक्त्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उत्पत्स्यते-उपपातं-जन्म प्राप्स्यति ? । भगवान् कथयति-' गोयमा!' इत्यादि। हे गौमत ! स खलु दर्दु रोदेवः आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण देवलोका. च्युतः सन् महाविदेहे वर्षे जन्म प्राप्य सेत्स्यति भोत्स्यति मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति च । पण्णत्ता, से गं भंते ! ददुरे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चयं चहत्ता कहिं गच्छिहिइ ?) हे भदंत ! ददुरदेव की वहां कितनी स्थिति हुई है ? प्रभु कहते हैं कि हे गौतम । चार पल्यापम की स्थिति उसकी वहां हुई है । पुनः गौतम उनसे पूछतें है कि हे भदन्त ! वह दर्दुर देव वहां से-उस देवलोक से-आयु के क्षय भवके क्षय एवं स्थिति के क्षय हो जाने पर शरीर का-देव संबन्धी श. रीर का-परित्याग कर कहां जावेगा ( कहिं उववज्जिहिई) कहां पर जन्म धारण करेगा? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने उन्हें इस प्रकार दिया-(गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, बुज्झिहिह, मुच्चिहिई, परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिंइय) गौतम! वह ददुर देव आयु के क्षय से, भव के क्षय से एवं स्थिति के क्षय से देवलोक से चवकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म प्राप्तकर वहां से सिद्ध होगा, विमल केवल लोक से सकल लोकालोक का ज्ञान होगा, समस्त कर्मों से मुक्त पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता से णं भंते ! दद्दुरे देवे ताओ देव लोगाओ आउखएण भवरखएणं ठिइक्खएण' चयं चहत्ता कहिं गच्छिहिइ ?) महन्त ! त्यांवर દેવની કેટલી સ્થિતિ થઈ છે? પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ! તેની ચારભેપમ જેટલી સ્થિતિ થઈ છે. ગૌતમ ફરી તેઓશ્રીને પૂછે છે કે હે ભદન્ત તે દૂર દેવ ત્યાંથી-તે દેવકમાંથી-આયુષ્યના ક્ષય, ભવના ક્ષય, તેમજ સ્થિતિને ક્ષય थया माई शरीरने-समधी शरीरने त्याने ४यांग ? (कहिं उजवन्जिहिह) કયાં જન્મ પ્રાપ્ત કરશે? ભગવાને આ પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે આ કે (गोयमा ! महाविदेहे वासे सिशिहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ, सव्व दुक्खाण अंतं करेहिह य) 3 गौतम! ते २ व मापने क्षय या ote, ભવને ક્ષય થયા બાદ, અને સ્થિતિને ક્ષય થયા બાદ દેવકથી ચવીને મહાદે વિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ પ્રાપ્ત કરીને ત્યાંથી જ સિદ્ધ થશે. વિમલ-કેવલ લેયી
For Private And Personal Use Only
Page #844
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
ወረረ
ज्ञाताधर्मकथा
सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीनं माह-' एवं खलु समणेणं ' इत्यादि, हे जम्बूः ! एवं खलु श्रमणेन भगवता महावीरेण त्रयोदशस्य ज्ञाताध्ययनस्य, अयम् = उक्तस्वरूपः, अर्थ प्रज्ञप्तः, ' इति ब्रवीमि ' - अस्य व्याख्या पूर्ववत् ॥ ० ॥ ८ ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलित ललितकछापालापक- प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छ प्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - जैनशास्त्राचार्य पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु- बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकरपूज्य श्री - घासीला प्रतिविरचितायां ' ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ' सूत्रस्यानगारधर्मामृतव
6
3
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पिण्याख्यायां व्याख्यायां त्रयोदशमध्ययनं संपूर्णम् ॥ १३ ॥ होगा, समस्त कर्मकृत विकार से रहित होने के कारण स्वस्थ होगा और इस प्रकार समस्त दुःखों का वह अन्त करने वाला हो जावेगा । ( एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं तेरसमस्स नायज्झयणस अयम पण्णत्ते तिबेमि ) इस प्रकार जंबू स्वामी को समझाकर अब गौतम उन से कहते हैं हे जंबू ! श्रमण भगवान् महावीरने इस तेरहवें ज्ञाताध्ययन का उक्त रूप से अर्थ प्ररूपित किया है। मैंने जैसा उनके मुख से इसे सुना वैसा ही यह तुमसे कहा है । अपनी ओरसे मिलाकर इसमे कुछ नहीं कहा है | सूत्र ८ ॥
श्री जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज कृत " ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र " की अनगारधर्मामृतवर्षिणी व्याख्याका तेरहवाँ अध्ययन समाप्त ॥ १२ ॥
ते सम्स सोखेोउने लघुनार थशे, समस्त ( अधा ) उर्भाथी भुक्त थशे, સમસ્ત કમ કૃત વિકાર વગર થયા બદલ તે સ્વસ્થ થશે અને આ રીતે બધા દુઃખાના ते अन्तपुरनार थर्ध ४शे ( एवं खलु जंबू ! समणेण भगवया महावीरेणं तेरमस्स नायज्झयणस्त्र अयमट्ठे पण्णत्ते त्ति बेभि ) या रीते यू स्वाभीने समन्लवीने ગૌતમ તેમને કહે છે કે હું જ બૂ! શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે આ તેરમા જ્ઞાતાધ્યયનના પૂર્વોક્ત રૂપે અ પ્રરૂપિત કર્યાં છે. મેં જેવા તેમના મુખથી સાંભળ્યેા છે તેવા જ તમને કહ્યો છે. મે' મામાં પેાતાની મેળે ઉમેરીને કઇજ કશું નથી | સૂત્ર "" ८ ॥
66
શ્રી જૈનાચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃતજ્ઞાતાસૂત્રની અનગારધર્મામૃતવિષણી व्याभ्यातु तेरभुं व्यध्ययन समाप्त ॥ १३ ॥
For Private And Personal Use Only
Page #845
--------------------------------------------------------------------------
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only