Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 733
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नंगारधर्मामृतवर्षिणा टीका २०११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपणम् ६७७ सम्यक् सहते एष खलु = एवम्भूतः पुरुष ' मए' मया सर्वाधिकः प्रज्ञप्तः, एवं खलु =अनेन प्रकारेण हे गौतम! जीवा आराधका वा विराधका भवन्ति । सुधर्मा अन्यतीर्थिक गृहस्थों के वचनों को अच्छी तरह सहन आदि नहीं करता है ऐसा यह साध्वादिजन मेरे द्वारा सर्व विराधक प्रज्ञप्त किया गया है । (समणा उसो जयाणं दीविच्चगावि सामुद्दगावि ईसि पुरे वाया पंच्छा वाया जाव वायंति, तया णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, एवामेव समणा उसो ! जो अम्हं जाव पव्वतिए समाणे बहूणं समणाणं ४ बहूणं अन्नउत्थिय गिरथाणं सम्म सहइ एसणं मए पुरिसे सव्वाराह पणन्ते । एवं खलु गोयमा ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति एवं खलु जंबू ! समणेगं भगवया महाघीरे णं एक्कारसम्स्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्तिमि ) हे आयुष्मन्त श्रमणो ! जिस समय द्वीपोत्थ भी तथा समुद्रोत्थ भी ईषत्पुरोवात पश्चादात यावत् वहते हैं उस समय पुष्पित पत्रित आदि समस्त दाब द्रव वृक्ष शोभा संपन्न ही बने रहते हैं। इसी तरह हे आयुष्मंत श्रमणो ! जो हमारा साधु साध्वीजन दीक्षित होता हुआ अनेक श्रमणादिकों के चतुर्विध संघ के - तथा अन्यतीर्थिक गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को अच्छी तरह सहन कर लेता है ऐसा साधु आदि जन मेरे द्वारा सर्वाराधक પશુ ચતુર્વિધ સંઘના અને બીજા તીથિંક ગૃહસ્થેના વચનેને સારી પેઠે સહન કરી લે છે. એવા સાધુ વગેરે જના મારા વડેસ-વિરાધક તરીકે પ્રજ્ઞમ કરવામાં આવ્યા છે. ( समणाउसो ! जयागं दीविचगात्रि सामुदाईिसि पुरे वाया पच्छावाया जाव वायंति, तया णं सव्वे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिह्नति, एवामैत्र समणासो ! जो अहं जान पव्त्रत्तिए समाणे बहूणं समगा ४ बहूणं अन्नउत्थिय गहत्था सम्म सह एसणं मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते ! एवं खलु गोमा ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवति, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेण एक्कारसमस्स अञ्झयणस्स अयम पण्णत्ते तिमि ) હું આયુષ્મંત શ્રમણા ! જ્યારે દ્વીપ અને સમુદ્ર ઉપરના પૂર્વ પશ્ચિમના ધીમા અને પ્રચંડ પવના ફૂંકાય છે ત્યારે પાંદડાં અને પુષ્પાવાળાં બધા દાવદ્રવ વૃક્ષો શે'ભા સ ́પન્ન થઈ ને જ ઊભા રહે છે. આ પ્રમાણે હું આયુષ્મંત શ્રમણે ! જે અમારા સાધુ અને સાધ્વીજન દીક્ષિત થઇને ઘણા શ્રમણા વગેરૈના, ચતુર્વિધ સંઘના તેમજ બીજા તીથિંક ગૃહસ્થાના પ્રતિકૂળ વચના સાંભળીને For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845