Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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जाताधर्मकथाङ्गसूत्रे उपागत्य नन्दस्य शरीरं पश्यन्ति, दृष्ट्वाते तेषां रोगातङ्कानां ‘णियाण' निदानम्उत्पत्तिकारणं पृच्छन्ति, नन्दस्य मणिकारश्रेष्ठिनस्ते वैद्या बहुभिः बहुविधैः 'उचलणेहि य ' उद्वलनैश्च देहोपलेपनविशेषैश्च, 'उबट्टणेहि य ' उद्वर्त नैश्वमलापकर्षकद्रव्यसंयोगविशेषेण शरीरोपमर्द नैश्च, 'सिणेहपाणेहिय ' स्नेहपानश्च औषधपरिपकघृतादिपानैश्च, वमनैश्च, विरेचनैश्च सेचनैव-उष्णजलाभिषेकैः अब पहुँचे । ( उवागच्छित्ता नंदस्स सरीरं पासंति, तेसिं रोयायकाण णिया ण पुच्छंति णदस्स मणियारसेहिस्स बहूहि उव्वलणेहिं य उव्वणेहिं य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य, विरेयणेहि य सेयणेहि य अवदसणेहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणेहिय वत्थिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरा. वेहेहि य तच्छणाहि य, पच्छणाहि य, सिरावेदेहि य तप्पणाहि य, पुढपागेहि य, छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य, कंदेहि य पत्तहि य पुप्फेहि य, फलेहि य, वीएहि य, सिलियाहि य, गुलियाहि य, ओसहेहि य, भेसज्जेहि य, इच्छेति तेसिं सोलसण्हं रोगायकाणं एगमवि रोगायक उवसामित्तए नो चेव णं संचाएंति उवसामेत्तए ) वहां पहुँच कर उन्हों ने नंद सेठ के शरीर को देखा देख कर उन रोगातंकों के निदान को-मूल कारण को-पूछा । बाद में उस मगिकोर श्रेष्ठी नंद का उन वैद्यो ने अनेकविध उबलनों से देहोपलेपन विशेष से, स्नेहपानों से-औषधियों में पकाये गये घृतादिके पिलाने से, वमन कराने से, सरीर वासंति तेसिं रोयायंकाण णियाणं पुच्छंति, गंदस्स मणियारसेद्विस्स बहूहि उज्वलणेहि य, वमणेहि य, विरेयणेहि य, सेयणेहि य, अवदसणेहि य,अवण्हाणेहि य, अणुवासणेहि य वत्थिकम्मेहि य निरूहेहि य,निरावेहेहि य,तच्छणाहि य,पच्छणाहि य, सिरावेढेहि य, तप्पणाहि य, पुढपागेहि य, छल्लीहि य, वल्लीहि च, मूलेहि य,कदेहि य, पत्तेहि य,पुप्फेहि य, फलेहिय, बीएहि य, सिलिमाहि य, गुलियाहि य, ओसहेहि य, भेसज्जेहि य, इच्छति तेसिं सोरसह रोगायकाणं एगमवि रोगायक उवसा. मित्तए, नो चेव ण संचाएंति उवसामेत्तए ) त्या ४७२ तेमामे न श्रेष्ठिना શરીરને તપાસ્યું, તપાસીને તે રેગ અને આતકોના નિદાન (રેગનું મૂળ કારણ ) વિશે પૂછપરછ કરી. ત્યારબાદ વૈદ્યોએ મણિકાર શ્રેષ્ઠિની ઘણી જાતના ઉદુબલથી શરીરના લેપ વિશેષેથી, ઉદ્વર્તનથી-મલાપકર્ષક દ્રવ્ય સંગ વિશેષને શરીર ઉપર ચળવાથી, સ્નેહપાનેથી-ઔષધીઓમાં પરિપકવ થયેલા घा वगैरे ते पापाथी, मन (टी) ४२११४थी विरेयन ४२११पाथी,
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