Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 770
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१४ বাগমকথা इत्यर्थः एतम्=पुद्गलानां शुभाशुभरूपेण परिवर्तनलक्षणम् अर्थम् भावं नो श्रद्धत्थस्म-मद्वाक्योपरिश्रद्धां नो कृतवन्तः, ततः तदा खलु मम अयमेतद्रूपःवक्ष्यमाणः-आध्यात्मिकः, चिन्तितः, कल्पितः, पार्थितः, मनोगतः संकल्पः नानाविधो मानसिको विकल्पः इत्यर्थः समुदपद्यत-अहो ! खलु जितशत्रू राजा सतो यावद् भावान् नो श्रद्धाति नो प्रत्येति नो रोचयति तत् श्रेयः खलु मम जितशत्रोः राज्ञः सतां यावत् सद्भूतानां जिनपज्ञप्तानां भावानाम् अभिगमनार्थाय-अवबोधाय एतमर्थम् ' उवाइणावेत्तए '-उपादाययितुं ग्राहयितुं श्रेयइति पूर्वेण सम्बन्धः, एवं संपेक्षे-अहं पालोचितवान् , संप्रेक्ष्य तदेव यावत् पानीयकि पुद्गलों का शुभा शुभ रूपसे परिणमन होता रहता है- नाना रूप से उनका परिवर्तन होता रहता है यह परिवर्तन होना उनका स्वाभाविक लक्षण है परन्तु जब आपने उस भाव को श्रद्धा में परिणत नहीं किया-मेरे वचनों पर आपको विश्वास नहीं जमा तब मुझे इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, कल्पित, प्रार्थित, मनोगत नाना प्रकार को विचार उत्पन्न हुआ (अहोणं जियसत्तू संते जाव भावे नो सहहह, न. पत्तियाइ, रोएइ, तं से यं खलु मम जियसत्तुस्स रण्णो संताण जोव सन्भूयाण जिणपन्नत्ताण भावाण अभिगमणट्टयाए एयमढे उवाइ णावेत्तए ) देखो यह कितने आश्चर्य की बात है कि जो जितशत्रु राजा सद्भूत विद्यमान यावत् जिन प्रज्ञप्त भावों को अपनी श्रद्धा का विषय भूत नही बना रहे हैं उन पर प्रतीति नहीं कर रहे हैं, उन पर अपनी रूचि नही जमा रहे हैं । इसलिये मुझे यह उचित है कि मैं जितशत्रु કર્યું હતું કે શુભાશુભ રૂપમાં પુદ્ગલેનું પરિણમન થતું જ રહે છે. અનેક રૂપમાં તેઓમાં પરિવર્તન થતું જ રહે છે. આવું પરિવર્તન તેઓનું એક સ્વાભાવિક લક્ષણ છે. પણ જ્યારે તમે મારી આ વાત શ્રદ્ધાપૂર્વક સાંભળી નહિ, મારા કથન ઉપર વિશ્વાસ કર્યો નહિ, ત્યારે મારા મનમાં આ જાતના આધ્યાત્મિક, ચિંતિત, કલ્પિત, પ્રાર્થિત મને ગત ઘણું વિચારો ઉત્પન્ન થયા કે– (अहोणं जियसत्तू संते जाव भावे नो सहइ, नो पत्तियाइ, नो रोएइ, तं सेयं खलु ममं जियसत्तूरस रण्णो संताणं जाव सम्भूयाणं जिणपन्नत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एपमढे उवाइणावेत्तए) જુઓ આ કેવી આશ્ચર્યની વાત છે કે જીતશત્રુ રાજા સદ્દભૂત વિદ્યમાન યાવતુ જીન પ્રજ્ઞસના ભાવ ઉપર શ્રદ્ધા ધરાવતા નથી, તેમના ઉપર વિશ્વાસ મૂકતા નથી અને પિતાની રૂચિ પણ તેમના પ્રત્યે જમાવતા નથી. એટલે મારે હવે જીતશત્રુ રાજાને સદૂભૂત વિદ્યમાન થાવત જનપ્રતિભાને બેધ આપવા For Private And Personal Use Only

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