Book Title: Jain Shiloka Sangraha Pustika
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund

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Page 14
________________ पुत्रने प्रे जरायो, स्नेह पूर्वनो वध्यो न समा यो॥ मोहनो बांध्यो ने मानने मेटी, पिता प ठावी तेतीस पेटी ॥९॥ जोइये जेह जेह जो ग सजाइ. लेतो मोकले सुरते सदाइ ॥ मेवा मीठाइ माणिक मोती, एक एकथी अधिक उ द्योती ॥ १० ॥ नित्य नित्य नवला नेहें ते पूरे, हेते करीने रहे हजूरे ॥ भोपे मंदिर कुंनी पर वालें, चिखलमां कस्तुरी बहे जिहां खालें॥११॥ नूपण निर्माल्ये नरायो कवो. युगति वैनवनी नवली ए जूयो।। नोगी शालनद्र सरिखो नूपाटे, नर जोतांशं नाव को दृष्टें ॥१२ ताजी ठ कुराइ जाणीने तेहवे, रत्ने कंबलना वेपारी एहवे ॥श्रेणीक राजाने दरबार श्राव्या, फेरो पड्यो ने कांइ नफाव्या ॥ १३ ॥ सघले शहरे ते घर घर फिरिया, कंबल कोणे ते हा न धरिया ॥र त्ल कंबल शोले ते लीये, नद्रा वहुशेने वेंचीने दीए ॥ १४॥ वीश लाख सोनैया वारु, दीधी गिणने तेहने दीदारु ॥ लेइ सोनैया वेपारी व लिया, मनना मनोरथ तेहना फलिया ॥ १५॥ चेनगा राणीनी चिंता जाणीने, तेडी व्यापारी

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