Book Title: Jain Shiloka Sangraha Pustika
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund

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Page 62
________________ યુટ नी गल नविचाले, गंभीर इर्ष्याने केदमां घाले ॥ ७९ ॥ संतोष आगल नहीं उपाय, लो न बापडो नाशीने जाय || अभिमाननुं चाले नहीं किशुं, उदास च्यागल जाणवो पशु ॥ ८० ॥ विरक्त गल रक्तना वांक, वैराग याग ल दंनकजी रांक ॥ वाणी सारतां नर्मणा क हेनो, शमदम आागल परपंच शानो ॥ ८१ ॥ न्याय प्रागल नहीं पाखंम जारे, शुद्ध प्रागल अशुद्ध हारे ॥ साच झूठने सदाय वैर, झूठ हा रे तो मंगलिक घर ॥ ८२ ॥ कुंवरी अशा जोरावर नारी, ते गलशा रहीबे हारी ॥ केटलो कहूं पारनयावे, जुद्ध संग्राम नलो मचा वे ॥ ८३ ॥ श्रखर जीत तो निवृत्ति केरी, जे हनी परजाति जलेरी ॥ प्रवृत्ति सुतने जे पेंज जीप्या, जव सागरमाहें कदी नहीं बीप्या ॥ ८४ ॥ जे जन मानिती सुतने जइ मिलिया, ते तो दावानल दुःखमां जइ निलिया ॥ एवं जा पीने अभिमान खोवुं, प्रत्यक्ष वातें ए कायामां जोबुं ॥ ८५ ॥ देवता मांगे मनुष्य अवतार, ते नगरी आपण पाम्या निरधार ॥ माटे निवृत्ति

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