Book Title: Jain Shiloka Sangraha Pustika
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund

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Page 46
________________ ली साथें ॥ ३२ ॥ ए नहीं एहवा गकम गे ला, चाहे चित्तथी नूल मनोला ॥ हाक मारूं तो पर्वत फाटे,लाज राखुं बुं बंधव माटे॥३३॥ टंची अांगलीयें मेरुने तोलुं, ताहरो कटक लेइ समुद्रमा बोलुं ॥ पण राखं बुंलाज पितानी, वा त वली कहुं बालपणानी ॥ ३४ ॥ गगने जग ल्यो गिंदुक रीते, पागे पडतो तुं धरयो में प्री तें॥ चरणे झालीने फेरव्यो तुजने, पवने जिम फेरे देउलध्वजने ॥ ३५ ॥ वली फेरव्यो पाव क वनमें, जिम नलराजाने जूवट जग ॥ बा लपणांने रूड़ां संजारी, गर्व ते करजो पी वि चारी ॥ ३६॥ नरत सांनलजे साचुं हुं नांखं, हिवे केहनी लाज न राखुं ॥ बालपणानी रमत नाठी, हिवे बांधी ने बकरी काठी ॥ ३७॥एम कहीने रणवट रसीयो, धनुष्य लेइने साहमो ते धसीयो ॥ उमटयो धूमाडो प्रगटी जाल, बाहु बलें तिहां काली करवाल ॥ ३८ ॥ बांधी हथी यार साहमो ते आव्यो, प्रथम तुंकारें नरत बो लाव्यो ॥ कांइ हणावे सुनटनी घाटा, आपणे कीजें युद्ध बे काटा ॥ ३९॥ कोइ, बीजानु इहां

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