Book Title: Jain Shiloka Sangraha Pustika
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund
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ज कहीए, परशेवो पांचे जळनां लहीए ॥७॥ हिवे पृथवीना कहु ते धारो, श्रोता सांनळी दी लमां उतारो, चाम हाम ने मांस रुंबाटा, नसो ए पांचे जुजुवा सांटा ॥८॥ उंघ आळस तर पाने नुख, कांती ए पांच माणे ने सुख, ए पांच श्राणां तेनीज धरे, नीशदीन चाकरी बरावर क रे॥९॥ बळ प्रसन्न धाय निश्चळ कहे , सं कोचण वायु हुकममां रेहे , साच जुठ मोह लो न अहंकार, ए पांचे कह्या आकासर सार॥१०॥ नगरीनो धणी सोहमजी साखी, मन राजाने ज्यारे आपी॥मनबुद्धि चीत्त अहंकार चारे, नेळा बेशीने मनसुबो धारे ॥११॥ पचरंगी बंगलो दश दरवाजा, राज्य करे ने त्यां मन राजा, बहु बलीयो जेनुं जोर ने नारी, तेथी रह्या इंद्रादिक हारी ॥ १२॥ देव दानवरों कांइ नवि चाले, मोटा मुगला हाम न घाले; एवो जोरावर जा लम कहीए, जेना प्राक्रमनो पार न लहीए । ॥१३॥ बेटा बेटीया विस्तार नारी, मन राजा ने घर दो नारी; पाट ठकुराली परवरती कहीए, जेनं चरित्र तो ऋण लोके लहीए ॥ १४॥ जे

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