Book Title: Jain Shiloka Sangraha Pustika
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund

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Page 38
________________ म ते लग्यो सूर, तिणमांहे विची ते उठे नर पर ॥ कीधे स्नान वाधे घणु नूर, कर्म थाय के सवि चक चूर ॥ ३६॥ सहस्रकूट ते नयणे निर खी, थै थै कार करे देव हरखी ॥ सारे प्रनुनी श्रहनिश सेव, पूजा नक्ति करे नित्य मेव ॥३७॥ प्रथम गणधर श्री पुंमरीक, पत्रिम श्री गौतम नही अलीक॥पगला तहना दीठे धन्य धन्य, गाधर नेटया चवदेश बावन्न ॥३८॥प्रनाते उठी जो नाम जलीजे, वंबित कारज तो सवि सीजे॥तिन देवें जिहाँ कीधा निवास, एहवा गौतमजी पूरजो श्रा स ॥३९॥रायण तरुतलें अादि जिणंद, पग ला पूजो देखी नवि रुंद ॥ जेहना पूजनथी स वि सिद्धि थाय, कर्म खपावीने मोद सिधाय । ॥४०॥ पासे रमणिक अष्टापद देहरो, बावन जिनालय शोने शिर सेहरो॥रावण समकित ति हां को पाम्यो. गंठी नेदीने मिथ्यात्व वाम्यो। ॥४१॥प्राची वायव्यदिशि पश्चिम उत्तर, दोय चार पाठ दश तीरथंकर ॥ प्रनुने पूरीने देह रा कराव्या, नरत चक्रीसरे बिंब नराव्या ॥ ॥ ४२ ॥ अदनुत देखीने अचरज आवे, दरि

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