Book Title: Jain Shiloka Sangraha Pustika
Author(s): Nana Dadaji Gund
Publisher: Nana Dadaji Gund

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Page 45
________________ श्रा सहस्र बत्रीश, लशकर लेईने नरत चक्री श॥ २५॥ लशकर लेइने चक्रवर्ति चढीन, साहमो अावीने बाहुबल अडिन ॥ तेना कटक नो पारन जाणं. यम रूपी ते योद्धा वखाणं॥ ॥ २६ ॥ निशाणे घाव देई परवरीयो, सैन्य लेइने साहामो जतरियो ॥ कहे बाहुबल नरत ने जइ. ताहरी तो शुद्ध शा माटे गई ॥२७॥ सगा नाइ शुं एम न कीजें, रिद्धि पामीने नेह न दीजे ॥ जाते दाहाडे जोने विमासी, पर पो तानो न होवे सहवासी ॥२८॥ अंग विना ते माग न वाजे, नाडुतें राखी नीड न नांजे॥ घर नवशे पुत्र पीयारे, सुख न लहियें नूत हि यारे ॥ २९ ॥ तें तो अवगण्या नाइ अठाणूं, यति थया के तजी ते प्राणु ॥ तांते लोनीयो तुजने विचारी, तेणे तें ली, संजम नारी॥३०॥ ताहरे पापें ते नाशीने बूटा, घणुं अघटतुं की धुं तें जूठा ॥ करतुक ताहरां केहेतां हुं लाजु, मुझ वडे तुं पट खंड गाजु ॥ ३१ ॥ तुमने जो न नजरे जो फेरी, वार न लागे नाखतां वेरी॥ फूल दमो लेई कोमल हाथे, वढवं सोहेलं चूडा

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