Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 8
________________ कुशशिरसि नीरमिव गलदनिलकम्पितम्, विनय जानीहि जीवितमसारम् ॥ मूढ..... ॥ १२ ॥ अर्थ :- हे मूढ आत्मन् ! अपने परिवार और वैभव का हृदय में बार-बार विचार कर । तू व्यर्थ ही क्यों मोहित हो रहा है ? हे विनय ! तृण के अग्र भाग पर पवन से कम्पायमान जल-बिंदु के समान इस असार जीवन को तू जान ले ॥१२॥ पश्य भङ्गुरमिदं विषयसुखसौहृदम्, पश्यतामेव नश्यति सहासम् । एतदनुहरति संसाररूपं रयाज्वलज्जलदबालिका रुचिविलासम् ॥ मूढ..... ॥१३॥ अर्थ :- जरा देख ! विषयजन्य सुख के साथ तेरी मित्रता है, वह तो नाशवन्त है और वह तो देखते-देखते ही मजाक में ही नष्ट हो जाती है और इस संसार का स्वरूप तो बिजली की चमक का अनुसरण करने वाला है ॥१३॥ हन्त हतयौवनं पुच्छमिव शौवनम्, कुटिलमति तदपि लघुदृष्टनष्टम् । तेन बत परवशाः परवशाहतधियः, कटुकमिह किं न कलयन्ति कष्टम् ॥ मूढ.... ॥ १४ ॥ अर्थ :- अरे ! यह यौवन तो कुत्ते की पूंछ के समान अत्यन्त टेढ़ा होते हुए भी शीघ्र नष्ट हो जाने वाला है और जो शांत-सुधारस

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