Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 47
________________ यस्मात् प्रादुर्भवेयुः प्रकटितविभवा लब्धयः सिद्धयश्च, वन्दे स्वर्गापवर्गार्पण पटु सततं तत्तपो विश्ववन्द्यम् ॥११६ ॥ स्त्रग्धरा अर्थ :- बाह्य और अभ्यन्तर दृष्टि से यह तप बहुत भेदों वाला है, जिससे भरत महाराजा की तरह भावना से प्राप्त दृढ़ता से बाह्य और अभ्यन्तर शत्रुओं की श्रेणी जीत ली जाती है, जिसमें से प्रगट वैभवशाली लब्धियाँ और सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं, स्वर्ग और आपवर्ग को देने में चतुर ऐसे विश्ववन्द्य तप को मैं वन्दन करता हूँ ॥११६।। विभावय विनय तपो-महिमानं, बहुभव-सञ्चितदुष्कृतममुना, लभते लघु लघिमानम्, विभावय विनय तपो महिमानम् ॥ विभा० ॥११७ ॥ अर्थ :- हे विनय ! तप की महिमा का तू चिन्तन कर । इस तप से अनेक भवों में संचित किए गए पाप शीघ्र ही अत्यन्त कम हो जाते हैं । हे विनय ! तप की महिमा का तू विचार कर ॥११७॥ याति घनाऽपि घनाघनपटली, खरपवनेन विरामम् । भजति तथा तपसा दुरिताली,क्षणभङ्गुर-परिणामम्।विभा० ॥११८। अर्थ :- जिस प्रकार तीव्र पवन के द्वारा भयंकर मेघ का आडम्बर भी नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तप से पापों की श्रेणी भी क्षणभंगुर बन जाती है ॥११८॥ शांत-सुधारस ४७

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