Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 28
________________ जन्मनि जन्मनि विविध-परिग्रह-मुपचिनुषे च कुटुम्बम् । तेषु भवन्तं परभवगमने, नानुसरति कृशमपि सुम्बम् ॥ विनय० ॥ ६५ ॥ अर्थ :- जन्म-जन्म में तूने विविध परिग्रह और कुटुम्ब का संग्रह किया है। पर-भवगमन के समय उसमें से छोटे से छोटा रूई का टुकड़ा भी तेरे साथ गमन नहीं करता है ॥६५॥ त्यज ममता-परिताप-निदानं, पर-परिचय-परिणामम् । भज निःसङ्गतया विशदीकृत मनुभवसुख-रसमभिरामम् ॥ विनय० ॥ ६६ ॥ अर्थ :- ममता और सन्ताप के कारणभूत पर-परिचय के परिणाम (अध्यवसाय) का तू त्याग कर दे और निस्संग होकर अत्यन्त निर्मल अनुभव सुख का आस्वादन कर ॥६६॥ पथि-पथि विविधपथैः पथिकैः सह, कुरुते कः प्रतिबन्धम् ? निज-निजकर्मवशैः स्वजनैः सह, किं कुरुषे ममताबन्धम् ? ॥ विनय० ॥ ६७ ॥ अर्थ :- अलग-अलग विभिन्न मार्गों में अनेक पथिक मिलते हैं, परन्तु उनके साथ मैत्री कौन करता है ? सभी स्वजन अपने-अपने कर्म के पराधीन हैं, अतः उनके साथ तू व्यर्थ ही ममता क्यों करता है ? ॥६७।। शांत-सुधारस २८

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