Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 70
________________ बहुत बार प्राप्त हुए हैं अतः यह सब तुम्हारा ही कुटुम्ब है, पराया या दुश्मन नहीं है ॥१७६।। एकेन्द्रियाद्या अपि हन्त जीवाः, पंचेन्द्रियत्वाद्यधिगम्य सम्यक्। बोधिं समाराध्य कदा लभन्ते, भूयो भवभ्रान्तिभियां विरामम् ॥ १७७ ॥ अर्थ :- एकेन्द्रिय आदि जीव भी पंचेन्द्रिय आदि विशिष्ट सामग्री को प्राप्त कर बोधिरत्न की आराधना कर भवभ्रमण के भय से कब विराम पाएंगे? ॥१७७॥ या रागरोषादिरुजो जनानां, शाम्यन्तु वाक्काय-मनोद्रुहस्ताः । सर्वेऽप्युदासीनरसं रसन्तु, सर्वत्र सर्वे सुखिनो भवन्तु॥१७८॥ अर्थ :- सभी प्राणियों के मन, वचन और काया को दुःख देनेवाले राग-द्वेष आदि सभी रोग शान्त हो जायें । सभी जीव समतारस का पान करें और सभी जीव सर्वत्र सुखी बनें ॥१७८॥ ॥१३ भावनाष्टकम् ॥ विनय विचिन्तय मित्रतां, त्रिजगति जनतासु । कर्मविचित्रतया गतिं, विविधां गमितासु ॥ विनय० ॥ १७९ ॥ अर्थ :- हे विनय ! कर्म की विचित्रता से विविध गतियों में जाने वाले त्रिजगत् के प्राणियों के विषय में मैत्री का चिन्तन कर ॥१७९॥ शांत-सुधारस ७०

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