Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 37
________________ मिथ्यात्वाविरति-कषाययोग-संज्ञाश्चत्वारः सुकृतिभिरास्रवाः प्रदिष्टाः । कर्माणि प्रतिसमयं स्फुटरमीभिबंधनन्तो भ्रमवशतो भ्रमन्ति जीवाः ॥ ८६ ॥ प्रहर्षिणी अर्थ :- महापुरुषों ने मिथ्यात्त्व, अविरति कषाय और योग दो चार आस्त्रव कहा है। इन आस्त्रवों के द्वारा प्रति समय कर्मों को बाँधते हुए जीव भ्रमवश संसार में भटकते हैं ॥८६॥ इन्द्रियाव्रत-कषाय-योगजाः, पञ्च-पञ्च-चतुरन्वितास्त्रयः । पञ्चविंशतिरसत्क्रिया इति, नेत्र-वेद-परिसंख्ययाप्यमी ॥ ८७ ॥ रथोद्धता अर्थ :- इन्द्रिय, अव्रत, कषाय और योग में से इनकी उत्पत्ति होती है और इनकी संख्या क्रमशः पाँच, पाँच, चार और तीन हैं तथा पच्चीस असत् क्रियाओं के साथ इनकी (आस्त्रवों की) संख्या बयालीस होती है ॥८७॥ इत्यास्त्रवाणामधिगम्य तत्त्वं, निश्चित्य सत्त्वं श्रुतिसन्निधानात् । एषां निरोधे विगलविरोधे, सर्वात्मना द्राग् यतितव्यमात्मन् ॥८८ ॥ इन्द्रवज्रा अर्थ :- इस प्रकार आस्त्रवों के तत्त्व को जानकर तथा आगम अभ्यास से तत्त्व का निर्णय कर, हे आत्मन् ! इनके विरोध रहित निरोध के लिए तुझे शीघ्र ही प्रयत्न करना चाहिए ॥८८॥ शांत-सुधारस

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