Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 72
________________ सकृदपि यदि समतालवं, हृदयेन लिहन्ति । विदितरसास्तत इह रति, स्वत एव वहन्ति ॥विनयः॥ १८४ ॥ अर्थ :- एक बार भी प्राणी यदि समता के सुख का आस्वादन कर लेता है, तो फिर उस सुख को जानने के बाद स्वतः समत्वरस की प्रीति पैदा होती है ॥१८४॥ किमुत कुमतमदमूछिताः, दुरितेषु पतन्ति । जिनवचनानि कथं हहा, न रसादुपयन्ति ॥ विनय० ॥१८५ ॥ अर्थ :- कुमत रूपी मद से मूच्छित बनकर (प्राणी) दुर्गति के गर्त में क्यों पड़ते हैं ? वे जिनवचन रूप अमृत रस का प्रेम से पान क्यों नहीं करते हैं ? ॥१८५॥ परमात्मनि विमलात्मना, परिणम्य वसन्तु । विनय समामृतपानतो, जनता विलसन्तु ॥ विनय० ॥ १८६ ॥ अर्थ :- हे विनय ! (तू यह चिन्तन कर) निर्मल आशय वाले जीवों के मन परमात्म-स्वरूप में मग्न बनें तथा जगत् के प्राणी समता रूपी अमृतरस का पानकर सदा सुखी बनें ॥१८६॥ शांत-सुधारस ७२

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