Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 32
________________ यदीयसंसर्गमवाप्य सद्यो, भवेच्छुचीनाम शुचित्वमुच्चैः । अमेध्ययोनेर्वपुषोऽस्य शौच संकल्पमोहोऽयमहो महीयान् ॥७४ ॥ उपजाति अर्थ :- जिसके संसर्ग को प्राप्त करके पवित्र वस्तु भी शीघ्र ही अत्यन्त अपवित्र हो जाती है तथा जो शरीर अपवित्र वस्तुओं की उत्पत्ति का केन्द्र है, ऐसे शरीर की पवित्रता की कल्पना करना महा अज्ञान ही है ॥७४॥ इत्यवेत्य शुचिवादमतथ्यं, पथ्यमेव जगदेकपवित्रं । शोधनं सकलदोषमलानां, धर्ममेव हृदये निदधीथाः ।७५। स्वागता अर्थ :- इस प्रकार 'शुचिवाद' को अतथ्य समझकर सकल दोषों की शुद्धि करने वाले जगत् के एकमात्र पवित्र धर्म को हृदय में धारण करो ॥७॥ ॥षष्ठ भावनाष्टकम् ॥ भावय रे वपुरिदमतिमलिनं, विनय विबोधय मानसनलिनम् । पावनमनुचिन्तय विभुमेकं, ___ परम महोमयमुदितविवेकम् ॥ भावय रे ॥७६ ॥ अर्थ :- हे विनय ! तू इस प्रकार की भावना कर कि यह शरीर अत्यन्त मलिन है। अपने मानस कमल को विकसित कर जहा एक प्रकाशवान, विवेकवान और महापवित्र आत्मा है, उसका बारम्बार चिन्तन कर ॥७६।। शांत-सुधारस

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