Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 13
________________ आदि मद के भ्रम में घूमता रहता है और गुण के गौरव में खुश रहता है ॥२२॥ प्रतापैापन्नं गलितमथ तेजोभिरुदितैर्गतं धैर्योद्योगैः श्लथितमथ पुष्टेन वपुषा । प्रवृत्तं तद्व्यग्रहणविषये बान्धवजनैर्जने कीनाशेन प्रसभमुपनीते निजवशम् ॥२३॥ शिखरिणी अर्थ :- यमराज जब किसी प्राणी को अपने फन्दे में फंसा देता है, तब उसका सारा अभिमान नष्ट हो जाता है, उसका तेज गलने लगता है, धैर्य और पुरुषार्थ समाप्त हो जाते हैं, उसका पुष्ट शरीर भी शीर्ण हो जाता है और बन्धुजन भी उसके धन को अपने कब्जे में करने लग जाते हैं ॥२३॥ ॥ द्वितीय भावनाष्टकम् ॥ स्वजनजनो बहुधा हितकामं, प्रीतिरसैरभिरामम् । मरणदशावशमुपगतवन्तम्, रक्षति कोऽपि न सन्तम् । विनय विधीयतां रे, श्रीजिनधर्मशरणम् । अनुसंधीयतां रे, शुचितरचरण-स्मरणम् ॥ विनयः॥ २४ ॥ ध्रुवपदम् अर्थ :- स्वजन वर्ग अनेक प्रकार से हित की इच्छा करने वाला हो और प्रेम के रस में डुबो देने वाला हो, फिर भी जब व्यक्ति मरणदशा के अधीन होता है, तब कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर पाता है। अतः हे विनय ! तू जिनधर्म की शरण शांत-सुधारस

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