Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 25
________________ ५. अन्यत्व भावना परः प्रविष्टः कुरुते विनाशं, लोकोक्तिरेषा न मृषेति मन्ये । निर्विश्य कर्माणुभिरस्य किं किं, ज्ञानात्मनो नो समपादि कष्टम् ॥ ५८ ॥ उपजाति अर्थ :- 'अपने घर में अन्य का प्रवेश विनाश करता है', मैं मानता हूँ कि यह लोकोक्ति गलत नहीं है । ज्ञानस्वरूप आत्मा में कर्म के परमाणुओं का प्रवेश हो जाने से आत्मा ने किन-किन कष्टों को प्राप्त नहीं किया है ? ॥५८॥ खिद्यसे ननु किमन्यकथार्त्तः, सर्वदैव ममता-परतंत्रः । चिन्तयस्यनुपमान्कथमात्मन् नात्मनो गुणमणीन्न कदापि ॥ ५९ ॥ स्वागता अर्थ :- ममताधीन होकर अन्य की उपाधिजन्य कथाओं से तुम व्यर्थ खेद क्यों पाते हो ? और स्वयं के अनुपम गुणरत्नों का कभी विचार भी नहीं करते हो ॥५९॥ यस्मै त्वं यतसे बिभेषि च यतो, यत्रानिशं मोदसे, यद्यच्छोचसि यद्यदिच्छसि हृदा, यत्प्राप्य पेप्रीयसे । शांत-सुधारस २५

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