Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 67
________________ अर्थ :- धर्म का श्रवण करने के बाद धर्म में अच्छी तरह से उद्यम करने वाले को भी अन्तरंग-शत्रुवर्ग तथा राग, द्वेष, आलस्य और निद्रा आदि बाधा पहुँचाते रहते हैं तथा सुकृत के प्रसंग को नष्ट कर देते हैं ॥१६८॥ चतुरशीतावहो योनिलक्षेष्वियं, क्व त्वयाकर्णिता धर्मवार्ता । प्रायशो जगति जनता मिथो विवदते, ऋद्धिरसशातगुरुगौरवार्ता ॥ बुध्य० ॥१६९ ॥ अर्थ :- अहो आत्मन् ! चौरासी लाख जीवयोनि में भ्रमण करते हुए तूने धर्म की वार्ता कहाँ सुनी है ? अधिकांशतः जगत् के प्राणी ऋद्धिगारव, रसगारव और शातगारव से पीड़ित होकर परस्पर विवाद करते रहते हैं ॥१६९।। एवमतिदुर्लभात् प्राप्य दुर्लभतमं, बोधिरत्नं सकलगुणनिधानम् । कुरु गुरुप्राज्यविनयप्रसादोदितम्, शान्तरससरसपीयूषपानम् ॥ बुध्य० ॥ १७० ॥ अर्थ :- इस प्रकार अत्यन्त दुर्लभ, सकल गुण के आधार रूप और जो श्रेष्ठ विनय गुण के प्रसाद रूप में प्राप्त हुआ है, ऐसे बोधिरत्न का उपयोग करो और शान्तरस रूप अमृतरस का पान करो ॥१७०॥ शांत-सुधारस ६७

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