Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ हुई हैं, ऐसे अन्य पुण्यवन्त प्राणियों के प्रति द्वेषभाव मत कर । मत्सर भाव का त्याग कर ॥ १९४॥ दिष्ट्याऽयं वितरति बहुदानं, वरमयमिह लभते बहुमानम् । किमिति न विमृशसि परपरभागं, यद्विभजसि तत्सुकृतविभागम् । विनय० ॥ १९५ ॥ अर्थ :- कोई पुण्यशाली व्यक्ति बहुत दान देता है, तो कोई भाग्यशाली बहुत मान पाता है । 'यह सब अच्छा है । ' तू दूसरे के उज्ज्वल भाग को क्यों नहीं देखता है ? इस प्रकार सुन्दर विचार करने से उसके सुकृत का भाग तुझे भी प्राप्त हो जाएगा ॥ १९५॥ येषां मन इह विगतविकारं, ये विदधति भुवि जगदुपकारम् । तेषां वयमुचिताचरितानां, नाम जपामो वारंवारम् । विनय० ॥ १९६ ॥ अर्थ :- जिनका मन यहाँ विकाररहित है, तथा जो सर्वत्र उपकार कर रहे हैं, ऐसे उचित आचरण करने वाले सत्पुरुषों का नामस्मरण हम बारम्बार करते हैं ॥१९६॥ अहह तितिक्षागुणमसमानं, पश्यत भगवति मुक्तिनिदानम् । येन रुषा सह लसदभिमानं, झटिति विघटते कर्मवितानम् । विनय० ॥ १९७ ॥ अर्थ :- अहो ! भगवन्त (महावीर परमात्मा) में शिवसुख के कारण रूप क्षमा गुण कितना अपूर्व कोटि का था, ७७ शांत-सुधारस

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96