Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 62
________________ १२. बोधिदुर्लभ भावना यस्माद् विस्मापयितसुमनः-स्वर्गसंपद्विलासाः, प्राप्तोल्लासाः पुनरपि जनिः सत्कुले भूरिभोगे। ब्रह्माद्वैत-प्रगुणपदवीप्रापकं निःसपत्नं, तद्दुष्प्रापं भृशमुरुधियः सेव्यतां बोधिरत्नम् ॥१५६॥ मंदाक्रांता अर्थ :- हे सुक्ष्मबुद्धिमान् पुरुषो ! जिस सम्यक्त्व के प्रभाव से देवताओं को भी आश्चर्य हो, ऐसी स्वर्ग सम्पदा का विलास प्राप्त होता है और उस स्वर्ग सम्पत्ति की प्राप्ति से उल्लसित बने प्राणी पुनः विशाल भोगकुल में जन्म पाते हैं, ऐसे असाधारण और परमपद को देने वाले बोधिरत्न की सेवा करो ॥१५६॥ अनादौ निगोदान्धकपे स्थितानामजस्रं जनुर्मृत्युदुःखार्दितानाम् । परीणामशुद्धिः कुतस्तादृशी स्याद्, यया हन्त तस्माद् विनिर्यान्ति जीवाः ॥ १५७ ॥ भुजंगप्रयातम् अर्थ :- अनादिकाल से निगोद रूपी अन्धकूप में रहने वाले और जन्म-मरण के दुःख से सतत सन्तप्त जीवों को उस परिणाम की शुद्धि कहाँ से हो, जिससे वे निगोद के अन्धकूप से बाहर निकल सकें ॥१५७॥ शांत-सुधारस

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