Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 16
________________ ३. संसार भावना इतो लोभः क्षोभं जनयति दुरन्तो दव इवोल्लसंल्लाभाम्भोभिः कथमपि न शक्यः शमयितुम् । इतस्तृष्णाऽक्षाणां तुदति मृगतृष्णेव विफला, कथं स्वस्थैः स्थेयं विविधभयभीमे भववने ॥३२॥ शिखरिणी अर्थ :- एक ओर लोभ का भयंकर दावानल सुलग रहा है, जिसे बढ़ते हुए जलरुपी लाभ से किसी भी तरह से शान्त नहीं किया जा सकता है तथा दूसरी ओर इन्द्रियों की तृष्णा मृगतृष्णा की भाति परेशान कर रही है। इस प्रकार विविध प्रकार के भयों से भयंकर इस संसार रुपी वन में स्वस्थ कैसे रहा जा सकता है ? ॥३२॥ गलत्येका चिन्ता भवति पुनरन्या तदधिका, मनोवाक्कायेहाविकृतिरतिरोषात्तरजसः । विपद्गर्तावर्ते झटिति पतयालोः प्रतिपदं, न जन्तोः संसारे भवति कथमप्यर्त्तिविरतिः ॥३३॥ शिखरिणी अर्थ :- मन, वचन और काया की इच्छाओं के विकार से जीवात्मा राग-द्वेष कर कर्म रुपी रज को ग्रहण करती है, शांत-सुधारस

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