Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ जिसके देखने पर, रोष सहित बड़े अभिमान पूर्वक संचित कर्मसमूह शीघ्र अदृश्य हो जाते हैं ॥१९७।। अदधुः केचन शीलमुदारं, गृहिणोऽपि हि परिहृतपरदारम् । यश इह संप्रत्यपि शुचि तेषां, विलसति फलिताफलसहकारम् । विनय० ॥१९८ ॥ अर्थ :- ऐसे अनेक सदृहस्थ हैं, जिन्होंने परस्त्री का सर्वथा त्यागकर उदार शीलव्रत धारण किया है, उनका निर्मल यश आज भी इस जगत् में फले-फूले आम्रवृक्ष की तरह विलसित हो रहा है ॥१९८।। या वनिता अपि यशसा साकं, कुलयुगलं विदधति सुपताकम् । तासां सुचरितसञ्चितराकं, दर्शनमपि कृतसुकृतविपाकम् । विनय० ॥१९९ ॥ अर्थ :- वे स्त्रियाँ भी निर्मल यश सहित अपने उभय कुल को सुशोभित करती हैं, सुचरित्र से सम्पूर्ण चन्द्रकला के समान उनका निर्मल दर्शन भी पूर्वकृत सुकृत के योग से ही होता है ॥१९९॥ तात्त्विक-सात्त्विक-सुजनवतंसाः, केचन युक्तिविवेचनहंसाः। अलमकृषत किल भुवनाभोगं, स्मरणममीषां कृतशुभयोगम् । विनयः ॥ २०० ॥ शांत-सुधारस ७८

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96