Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 15
________________ वपुषि चिरं निरुणद्धि समीरं, पतति जलधिपरतीरम् । शिरसि गिरेरधिरोहति तरसा, तदपि स जीर्यति जरसा ॥२८॥ अर्थ :- शरीर में लम्बे समय तक पवन को रोक दे, महासमुद्र के अन्य तट पर जाकर पड़ाव डाल दे, अथवा शीघ्र ही ऊँचे पर्वत के ऊपर भी चढ़ जाय तो भी मनुष्य जरा से अवश्य जीर्ण होता है ॥२८॥ सृजतीमसितशिरोरुहललितं, मनुजशिरः सितपलितम् । को विदधानां भूघनमरसं, प्रभवति रोद्धं जरसम् ॥ २९ ॥ अर्थ :- मनुष्य के मस्तक पर अत्यन्त सुन्दर दिखने वाले काले बालों को जरावस्था सफेद बना देती है और शरीर को रसहीन (नीरस) बना देती है, ऐसी जरावस्था को रोकने में कौन समर्थ है ? ॥२९॥ उद्यत उग्ररुजा जनकायः, कः स्यात्तत्र सहायः । एकोऽनुभवति विधुरुपरागं, विभजति कोऽपि न भागम् ॥३०॥ अर्थ :- मानव देह जब तीव्र व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है, तब उसका सहायक कौन होता है? ग्रहण की पीड़ा चन्द्रमा अकेले भोगता है, उस समय उसके साथ कोई हिस्सा नहीं बटाता है॥३०॥ शरणमेकमनुसर चतुरङ्गं, परिहर ममतासङ्गम् । विनय! रचय शिवसौख्यनिधान, शान्तसुधारसपानम् ॥३१॥ अर्थ :- हे विनय ! चार अंग स्वरुप (अरिहंतादिका) शरण स्वीकार कर । ममता के संग का त्याग कर और शिवसुख के निधानभूत शांतसुधारस का पान कर ॥३१॥ शांत-सुधारस

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