Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 9
________________ स्वाभाविक स्व से रहता था। मनुष्यों में किसी भी प्रकार जुदाई का अंकुर देखते ही मेरा अन्तःकरण रो पड़ता था। पाठवें वर्ष में मैंने कविता लिखी थी, जो पीछे से जांच करने पर छन्दशास्त्र के नियमानुकूल थी। उस समय मैंने कई काव्यग्रन्थ लिखे थे, अनेक प्रकार के और भी बहुत से ग्रन्थ देख डाले थे। मैं मनुष्य जातिका अधिक विश्वासु था। मेरे पितामह कृष्णकी भक्ति किया करते थे। उस वयमें मैंने उनके कृष्ण-कीर्तन तथा भिन्न भिन्न अवतार सम्बन्धी चमत्कार सुने थे। जिससे मुझे उन पवतारों में भक्ति के साथ प्रीति भी उत्पन्न होगई थी, और रामदासजी नामके साधु से मैंने बाल-लीला में कंठी भी बंधवाई थी। मैं नित्य ही कृष्ण के दर्शन करने जाता था, अनेक कथाए सुनता था, जिससे अवतारों के चमत्कारों पर बर बार मुग्ध हो जाया करता था, और उन्हें परमात्मा मानता था। xxx गुजराती भाषा की पाठशालाकी पुस्तकोंमें कितनी ही जगह जगत्कर्ताके सम्बन्धमें उपदेश हैं, वह मुझे दृढ़ हो गया था। इस कारण जैन लोगोंसे घृणा रहा करती थी। कोई पदार्थ बिना बनाए नहीं बन सकता, इसलिये जैन मुर्ख हैं, उन्हें कुछ भी खबर नहीं। उस समय प्रतिमा-पूजनके अश्रद्धालु लोगोंकी क्रिया मुझे वैसे ही दिखाई देती थी, इसलिये उन क्रियाओंकी मलिनताके कारण मैं उनसे बहुत डरता था, अर्थात् वे क्रियायें मुझे पसन्द नहीं थीं। - मेरी जन्म भूमिमें जितने वणिक लोग रहते थे, उन सबकी कुल-श्रद्धा यद्यपि भिन्न भिन्न थी फिर भी वह थोड़ी बहुत प्रतिमा-पूजनके अश्रद्धालुओंके समान थी। लोग मुके प्रथमसे ही शक्तिशाली प्रौर गांवका नामांकित विद्यार्थी मानते थे, इससे मैं कभी कभी जनमंडल में बैठकर अपनी चपल शक्ति बतानेका प्रयत्न किया करता था। वे लोग कंठी बांधने के कारण बार बार मेरी हास्यपूर्वक टीका करते, तो भी मैं उनसे बादविवाद करता और उन्हें समझानेका प्रयत्न करता था। धीरे-धीरे मुझे जैनोंके प्रतिक्रमण सूत्र इत्यादि ग्रंथ पढ़नेको मिले।' उनमें बहुत विनयपूर्वक जगत के समस्त जीवोंसे मैत्रीभाव प्रकट किया है। इससे मेरी उस अोर प्रीति हुई और प्रथममें रही। परिचय बढ़ता गया। स्वच्छ रहने का और दूसरे प्राचार विचार मुझे वैष्णवोंके ही प्रिय थे, जगत्कर्ता की भी श्रद्धा थी। इतने में कंठी टूट गई, और उसे दुबारा मैंने नहीं बांधी। उस समय बांधने न बांधने का कोई कारण मैंने नहीं ढूढा था । यह मेरी तेरह वर्ष की वयचर्या है। इसके बाद अपने पिताकी दुकानपर बैठने लगा था। अपने अक्षरोंकी छटाके कारण कच्छ दरबारके महलमें लिखनेके लिए जब जब बुलाया जाता था तब वहां जाता था। दुकान पर रहते हुए मैंने अनेक प्रकारका प्रानन्द किया है, अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं राम आदिके चरित्रों पर कविताए रची हैं, सांसारिक तृष्णाएं की हैं, तो भी किसीको मैंने कम-अधिक भाव नहीं कहा, अथवा किसीको कम-ज्यादा तोलकर नहीं दिया, यह मझे बराबर याद है।" इस पर से स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे एक अति संस्कारी प्रात्मा थे। बड़े बड़े विद्वान् भी जिस

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