Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 11
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा प्रारम्भ भी इसी चिन्तन से होता है कि "मैं कौन हूँ?, कहाँ से आया हूँ?, इस शरीर का परित्याग करने पर कहाँ जाऊँगा (आचारांग 1/1/1) / " वस्तुतः ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनसे दार्शनिक चिन्तन का विकास होता है और तत्त्व-मीमांसा का आविर्भाव होता है। तत्त्व-मीमांसा वस्तुतः विश्व-व्याख्या का एक प्रयास है। इसमें जगत् के मूलभूत उपादानों तथा उनके कार्यों का विवेचन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया जाता है। विश्व के मूलभूत घटक, जो अपने अस्तित्व के लिये किसी अन्य घटक पर आश्रित नहीं हैं तथा जो कभी भी अपने स्व-स्वरूप का परित्याग नहीं करते हैं, वे सत् या द्रव्य कहलाते हैं। इस प्रकार विश्व के तात्त्विक आधार या मूलभूत उपादान ही सत् या द्रव्य कहे जाते हैं और जो इन द्रव्यों का विवेचन करता है, वही द्रव्यानुयोग है। विश्व के सन्दर्भ में जैनों का दृष्टिकोण यह है कि यह विश्व अकृत्रिम है ('लोगो अकिट्टिमो खलु' मूलाचार, गाथा 7/2) / इस लोक का कोई निर्माता या सृष्टिकर्ता नहीं है। अर्धमागधी आगम साहित्य में भी लोक को शाश्वत बताया गया है। उसमें कहा गया है कि यह लोक अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा। ऋषिभाषित के अनुसार लोक की शाश्वतता के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन भगवान् पार्श्वनाथ ने किया था। आगे चलकर भगवतीसूत्र में भगवान महावीर ने भी इसी सिद्धान्त का अनुमोदन किया / जैनदर्शन लोक को, जो अकृत्रिम और शाश्वत मानता है उसका तात्पर्य यह है कि लोक का कोई रचयिता एवं नियामक नहीं है, वह स्वाभाविक है और अनादिकाल से चला आ रहा है, किन्तु जैनागमों में लोक को शाश्वत कहने का तात्पर्य कदापि यह नहीं है कि उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। विश्व के सन्दर्भ में जैन चिन्तक जिस नित्यता को स्वीकार करते हैं, वह नित्यता कूटस्थ नित्यता नहीं, अपितु परिणामी नित्यता है, अर्थात् वे विश्व को परिवर्तनशील मानकर भी प्रवाह या प्रक्रिया की अपेक्षा से नित्य या शाश्वत कहते हैं। भगवतीसूत्र' में लोक के स्वरूप की चर्चा करते हुए लोक को पंचास्तिकाय रूप कहा गया है / जैन-दर्शन में इस विश्व के मूलभूत उपादान पाँच अस्तिकाय द्रव्य हैं-१. जीव (चेतन तत्त्व), 2. पुद्गल (भौतिक तत्त्व), 3. धर्म (गति का नियामक तत्त्व), 4. अधर्म (स्थिति का नियामक तत्त्व) और 5. आकाश (स्थान या अवकाश देनेवाला तत्त्व) / ज्ञातव्य है कि यहाँ काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना गया है। यद्यपि परवर्ती जैन विचारकों ने काल को भी विश्व के परिवर्तन के मौलिक कारण के रूप में या विश्व में होने वाले परिवर्तनों के 1. भगवतीसूत्र (लाडनूं) 5/218

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