Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 61
________________ 52 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा होने के लिए स्थूल जगत् के 6 अरब व्यक्तियों से, असंख्यात् कीट-पतंगों से लेकर पशुओं से तथा विश्व की अनन्त जड़ वस्तुओं से भिन्न होना आवश्यक है, अर्थात् उनके विशिष्ट गुणधर्मों का अभाव होना भी आवश्यक है। कुछ सामान्य गुणों की अपेक्षा भी विशिष्ट गुणधर्म तो अनेक होते ही हैं। इसी दृष्टि से जैनधर्म में वस्तु को अनन्त-धर्मात्मक कहा गया है, दूसरे व्यक्त गुणों की अपेक्षा से भी अव्यक्त या गौण गुणधर्म कहीं अधिक होते है। एक कच्चे आम्रफल में सफेद और हरे रंग, खट्टे स्वाद रूप व्यक्त गुणों की अपेक्षा भी अव्यक्त गुणों की दृष्टि से पाँचों वर्ण, दोनों गंध, पाँचों स्वाद, आठों स्पर्श आदि भी व्यक्त रूप से रहे हुए हैं। भावात्मक और अभावात्मक तथा व्यक्त और अव्यक्त गुणधर्मों की चर्चा के अतिरिक्त भी अनेक अज्ञात गुणधर्मों की संख्या का निर्धारण तो अति कठिन है। फिर भी सामान्य और विशेष गुणधर्मों की अपेक्षा से जैन ग्रन्थों में षट् द्रव्यों के कुछ विशिष्ट गुणधर्मों की चर्चा भी मिलती है। अस्तित्व ऐसा गुण है, जो सभी द्रव्यों में पाया जाता है। विस्तार नामक गुणधर्म काल, द्रव्य और परमाणु को छोड़कर शेष सभी में पाया जाता है। चेतना नामक गुणधर्म जीवद्रव्य या जीवों में तथा जड़ता नामक गुणधर्म जीव को छोड़कर शेष पाँचों द्रव्यों में पाया जाता है / गति में सहायक होना धर्म-द्रव्य का गुण है और स्थिति में सहायक होना अधर्मद्रव्य का गुण है। काल का सामान्य गुण परिवर्तनशीलता है-परत्व और अपरत्व, अल्पवयस्कदीर्घवयस्क, (छोटा-बडा) नया-पुराना आदि काल के गुण हैं। उत्तराध्ययन में पुद्गल के विशिष्ट गुणों की चर्चा करते हुए कहा गया है- पाँच वर्ण, पाँच स्वाद, दो गंध, आठ स्पर्श, शब्द, अंधकार, प्रकाश, आतप, छाया आदि पुद्गल के गुण है। पर्याय: जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य में घटित होनेवाले विभिन्न परिवर्तन ही पर्याय कहलाते हैं। प्रत्येक द्रव्य प्रति समय एक विशिष्ट अवस्था को प्राप्त होता रहता है। अपने पूर्व क्षण की अवस्था का त्याग करता है और एक नूतन विशिष्ट अवस्था को प्राप्त होता है। इन्हें ही पर्याय कहा जाता है। जिस प्रकार जलती हुई दीपशिखा में प्रतिक्षण जलने वाला तेल बदलता रहता है, उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य सतत् रूप से परिवर्तन या परिणमन को प्राप्त होता रहता है, दीपक की लौ का तेल और बत्ती प्रतिक्षण बदलती रहती है, फिर भी दीपक यथावत् जलता रहता है। द्रव्य में होने वाला यह परिवर्तन या परिणमन ही उसकी पर्याय है। एक व्यक्ति जन्म लेता है, बालक से किशोर और किशोर से युवक, युवक से प्रौढ़ और प्रौढ़ से वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। जन्म से लेकर मृत्यु काल तक प्रत्येक व्यक्ति के देह की शारीरिक संरचना में तथा विचार और अनुभूति की चैतसिक संरचना में परिवर्तन होते रहते हैं। उसमें प्रतिक्षण होनेवाले इन परिवर्तनों के द्वारा वह जो भिन्न-भिन्न अवस्थायें

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