________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को नाव और आत्मा को नाविक कहकर जीव पर भौतिक कर्मों के कर्तृत्व का उत्तरदायित्व डाला गया है। आत्मा भोक्ता है: यदि आत्मा को कर्ता मानना आवश्यक है तो उसे भोक्ता भी मानना पड़ेगा। क्योंकि जो कर्मों का कर्ता है, उसे ही उनके फलों का भोग भी करना चाहिए / जैसे आत्मा का कर्तृत्व कर्म पुद्गलों के निमित्त से सम्भव है, वैसे ही आत्मा का भोक्तृत्व भी कर्म पुद्गलों के निमित्त से ही सम्भव है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में पाये जाते हैं, मुक्तात्मा में नहीं। भोक्तृत्व वेदनीय कर्म के कारण ही सम्भव है। जैन-दर्शन आत्मा का भोक्तृत्वगुण भी सापेक्ष दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है। 1. व्यावहारिक दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा भोक्ता है। 2. अशुद्धनिश्चयनय या पर्याय दृष्टि से आत्मा अपनी मानसिक अनुभूतियों या मनोभावों का वेदक है। 3. परमार्थ दृष्टि से आत्मा भोक्ता और वेदक नहीं, मात्र साक्षीस्वरूप है।२ ___आत्मा का भोक्तृत्व कर्म और उनके प्रतिफल के संयोग के लिए आवश्यक है। जो कर्ता है, वह अनिवार्य रूप से उनके फलों को भोक्ता भी है अन्यथा कर्म और उसके फलभोग में अनिवार्य सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकेगा। ऐसी स्थिति में नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। अत: यह मानना होगा कि आत्मा भोक्ता है, लेकिन आत्मा का भोक्ता होना बद्धात्मा या सशरीरी के लिए ही समुचित है। मुक्तात्मा भोक्ता नहीं है, वह तो मात्र साक्षीस्वरूप या द्रष्टा होता है। आत्मा स्वदेह परिमाण है : यद्यपि जैन विचारणा में आत्मा को रूप, रस, गन्ध, वर्ण, स्पर्श आदि से विवर्जित कहा गया है, तथापि आत्मा को शरीराकार स्वीकार किया गया है। आत्मा के आकार के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो दृष्टियाँ हैं- एक के अनुसार आत्मा विभु (सर्वव्यापी) है, दूसरी के अनुसार अणु है। सांख्य, न्याय एवं अद्वैत वेदान्त आत्मा को विभु मानते हैं और रामानुज अणु मानते हैं। जैनदर्शन इस सम्बन्ध में मध्यस्थ दृष्टि अपनाता है। उसके अनुसार आत्मा अणु भी है और विभु भी है। वह सूक्ष्म है तो इतना है कि एक आकाश प्रदेश केअनन्तवें भाग में समा सकता है और विभु है तो इतना है कि समग्र लोक को भी व्याप्त कर सकता है। जैन-दर्शन आत्मा में संकोच विस्तार को स्वीकार 1. उत्तराध्ययन सूत्र, 23/73, तुलना कीजिए-कठोपनिषद, 1/3/3 2. समयसार, 81-92 3. क्रमशः निगोद एवं केवली समुद्घात की अवस्था में।