________________ 59 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा स्वलक्षण कहे जाते हैं। यह स्वलक्षण ही द्रव्य स्वरूप है। जिन गुणों का परित्याग किया जा सकता है, वे द्रव्य या गुण की पर्यायें भी दो प्रकार की कही गयी हैं- 1. स्वभाव पर्याय और 2. विभाव पर्याय/जो पर्याय या अवस्थायें स्व-लक्षण के निमित्त से होती है, वे स्वभाव पर्याय कहलाती हैं और जो अन्य निमित्त से होती हैं, वे विभाव पर्याय कहलाती हैं। उदाहरण के रूप में ज्ञान और दर्शन (प्रत्यक्षीकरण) सम्बन्धी विभिन्न अनुभूतिपरक अवस्थायें आत्मा की स्वभाव पर्याय हैं। क्योंकि वे आत्मा के स्व-लक्षण उपयोग से फलित होती हैं, जब कि क्रोध आदि कषाय भाव कर्म के निमित्त से या दूसरों के निमित्त से होती हैं, अतः वे विभाव पर्याय हैं। फिर भी इतना निश्चित है कि इन गुणों और पर्यायों का अधिष्ठान या उपादान तो द्रव्य स्वयं ही है। द्रव्य, गुण और पर्यायों से अभिन्न है, अतः द्रव्य, गुण और पर्याय- तीनों परस्पर सापेक्ष हैं। ___ आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतितर्कप्रकरण में स्पष्ट रूप से कहा है, द्रव्य से रहित गुण और पर्याय की सत्ता नहीं है। साथ ही गुण और पर्याय से रहित द्रव्य की भी सत्ता नहीं है। दव्वे पज्जव विउअंदव्व विउत्ता पज्जवा नत्थि / उप्पादट्ठिइ भंगा हदि दविय लक्खणं एयं // -सन्मतितर्क 12 अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्याय में तादात्म्य है, किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि द्रव्य, गुण और पर्याय की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यह सत्य है कि अस्तित्त्व की अपेक्षा से उनमें तादात्म्य है किन्तु विचार की अपेक्षा से वे पृथक्-पृथक् हैं। हम उन्हें अलग-अलग कर नहीं सकते, किन्तु उन पर अलग-अलग विचार सम्भव है। बाल्यावस्था, युवावस्था या बुढ़ापा व्यक्ति से पृथक् अपनी सत्ता नहीं रखते हैं फिर भी ये तीनों अवस्थाएँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। यही स्थिति द्रव्य, गुण और पर्याय की है। गुण और पर्याय का सहसम्बन्ध : द्रव्य को गुण और पर्यायों का आधार माना गया है / वस्तुतः गुण द्रव्य के स्वभाव या स्व-लक्षण होते हैं / तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः'(५/४०) कहकर यह बताया है कि गुण द्रव्य में रहते हैं, पर वे स्वयं निर्गुण होते हैं / गुण निर्गुण होते हैं यह परिभाषा सामान्यतया आत्म-विरोधी सी लगती किन्तु इस परिभाषा की मूलभूत दृष्टि यह है कि यदि हम गुण का भी गुण मानेंगे तो फिर अनवस्था दोष का प्रसंग आयेगा, यह बात पूर्व में भी स्पष्ट कर चुके हैं / आगमिक दृष्टि से गुण की परिभाषा इस रूप में की गयी है कि गुण द्रव्य का विधान है यानि उसका स्व-लक्षण है जब कि पर्याय द्रव्य का विकार है। गुण भी द्रव्य के समान ही अविनाशी है। जिस द्रव्य का जो गुण है वह उसमें सदैव रहता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि द्रव्य का जो अविनाशी