Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 19
________________ 10 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा कहा है, किन्तु दोनों परम्पराओं का यह अन्तर निषेधात्मक अथवा स्वीकारात्मक भाषा-शैली का अन्तर है। बुद्ध और महावीर के कथन का मूल एक-दूसरे से उतना भिन्न नहीं है, जितना कि हम उसे मान लेते हैं। भगवान् बुद्ध का सत्ता के स्वरूप के सम्बन्ध में यथार्थ मन्तव्य क्या था, इसकी विस्तृत चर्चा हमने "जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग-१ (पृ. 192-194) में की है, इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं / सत्ता के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रस्तुत विवेचना का मूल उद्देश्य मात्र इतना है कि सत्ता के सम्बन्ध में एकान्त अभेदवाद और एकान्त भेदवाद भी उन्हें मान्य नहीं हैं। __ जैन दार्शनिकों के अनुसार सत्ता सामान्य-विशेषात्मक या भेदाभेदात्मक है। वह एक भी है और अनेक भी / वे भेद में अभेद और अभेद में भेद को स्वीकार करते हैं। दूसरे शब्दों में वे अनेकता में एकता और एकता में अनेकता का दर्शन करते हैं। मानवता की अपेक्षा मनुष्यजाति एक है, किन्तु देश-भेद, वर्ण-भेद, वर्ग-भेद या व्यक्ति-भेद की अपेक्षा वह अनेक है। जैन दार्शनिकों के अनुसार एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है। यही कारण था कि जैन दार्शनिकों ने द्रव्यों की चर्चा करते हुए जीव-द्रव्य और पुद्गगल-द्रव्य को स्वरूपतः परिणामी-नित्य माना और धर्म, अधर्म और आकाश में स्वतः अपरिवर्तनशीलता (निष्क्रियता) और जीव और पुद्गल के निमित्त से 'परिवर्तनशीलता' को माना / किन्तु जहाँ तक सामान्यतया द्रव्य का प्रश्न है, उसे स्वरूपतः परिवर्तनशील ही माना। सम्भवतः यही मूल कारण था कि जीव, पुद्गल, और काल को सक्रिय तथा धर्म, अधर्म और आकाश को निष्क्रिय द्रव्य कहा गया। पंच अस्तिकाय और षद्रव्यों की अवधारणा : जैनदर्शन में 'द्रव्य' के वर्गीकरण का एक आधार अस्तिकाय और अनास्तिकाय की अवधारणा भी है। षद्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव ये पाँच अस्तिकाय माने गये हैं, जब कि काल को अनास्तिकाय माना गया है। अधिकांश जैन दार्शनिकों के अनुसार काल का अस्तित्व तो है, किन्तु उसका पृथक् कायत्व नहीं है, अतः उसे अस्तिकाय के वर्ग में नहीं रखा जा सकता है। कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने तो काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में भी आपत्ति उठाई है, उन्होंने काल को पर्याय रूप ही माना, किन्तु यह एक भिन्न विषय है, इसकी चर्चा हम आगे करेंगे। अस्तिकाय का तात्पर्य : सर्वप्रथम तो हमारे सामने मूल प्रश्न यह है कि अस्तिकाय की इस अवधारणा का तात्पर्य क्या है ? व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'अस्तिकाय' दो शब्दों के मेल से बना है- अस्ति+काय। 'अस्ति' का अर्थ है सत्ता या अस्तित्व और 'काय' का अर्थ है शरीर, अर्थात् जो शरीर-रूप से अस्तित्ववान् है

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