Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 70
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा पर्यायों के प्रकारों की आगमिक आधारों पर चर्चा करते हुए द्रव्यानुयोग (पृ. 38) में उपाध्याय श्री कन्हैयालाल जी म. सा. 'कमल' लिखते हैं कि प्रज्ञापनासूत्र में पर्याय के दो भेद प्रतिपादित हैं- 1. जीव पर्याय और 2. अजीव पर्याय / ये दोनों प्रकार की पर्यायें अनन्त होती हैं। जीव पर्याय किस प्रकार अनन्त होती है, इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि नैरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, द्वीन्द्रिय, वेन्द्रिय, चतुरेन्द्रय, तिर्यंचयोनिक और मनुष्य से सभी जीव असंख्यात् हैं, किन्तु वनस्पतिकायिक और सिद्ध जीव तो अनन्त हैं, इसलिए जीव पर्यायें अनन्त हैं। इसी प्रकार अजीव पुद्गल आदि रूप हैं, पुनः पुद्गल स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु रूप होता है, साथ ही उसमें वर्ण, गन्ध, रूप और स्पर्श गुण होते हैं, फिर इनके भी अनेक अवान्तर भेद होते हैं, साथ ही प्रत्येक गुण के भी अनेक अंश (Degrees) होते हैं, अतः इन विभिन्न अंशों और उनके विभिन्न संयोगों की अपेक्षा से पुद्गल आदि अजीव द्रव्यों की भी अनन्त पर्यायें होती हैं। जिनका विस्तृत विवेचन प्रज्ञानपासूत्र के पर्याय पद में किया गया है। (ख) अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय : पुनः पर्याय दो प्रकार की होती हैं- 1. अर्थपर्याय और 2. व्यंजनपर्याय / एक ही पदार्थ की प्रतिक्षण परिवर्तित होनेवाली क्रमभावी पर्यायों को अर्थपर्याय कहते हैं तथा पदार्थ की, उसके विभिन्न प्रकारों एवं भेदों में जो पर्याय होती है उसे व्यंजनपर्याय कहते हैं। अर्थपर्याय सूक्ष्म एवं व्यंजनपर्याय गया है और गुणपर्याय को ही अर्थपर्याय भी कहा गया है। द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि व्यंजनपर्याय ही द्रव्यपर्याय और अर्थपर्याय ही गुणपर्याय है, तो फिर इन्हें पृथक्-पृथक् क्यों बताया गया है; इसका उत्तर यह है कि प्रवाह की अपेक्षा से व्यंजनपर्याय चिरकालिक होती है, जैसे जीव की चेतनपर्याय सदैव बनी रहती है चाहे चेतन अवस्थाएँ बदलती रहें, इसके विपरीत अर्थपर्याय गुणों और उनके अनेक अंशों की अपेक्षा से प्रति समय बदलती रहती है। व्यंजनपर्याय सामान्य है, जैसे जीवों की चेतना पर्यायें, जो सभी जीवों में और सभी कालों में पाई जाती हैं। वे द्रव्य की सहभावी पर्यायें हैं और अर्थपर्याय विशेष हैं जैसे किसी व्यक्ति विशेष की काल विशेष में होने वाली क्रोध आदि की क्रमिक अवस्थाएँ, अतः अर्थपर्याय क्रमभावी हैं, वे क्रमिक रूप से काल-क्रम में घटित होती रहती हैं अतः कालकृत भेद के आधार पर उन्हें द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय से पृथक् कहा गया है। (ग) ऊर्ध्वपर्याय और तिर्यकपर्याय : पर्याय को ऊर्ध्व पर्याय एवं तिर्यक् पर्याय के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे भूत, भविष्य और वर्तमान केअनेक मनुष्यों की अपेक्षा से मनुष्यों की जो अनन्त पर्यायें होती हैं वे

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