Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ 14 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा वर्तना लक्षण की सिद्धि केवल वर्तमान में ही होती है और वर्तमान अत्यन्त सूक्ष्म है। अतः काल में विस्तार (प्रदेश प्रचयत्व) नहीं माना जा सकता और इसलिए वह अस्तिकाय भी नहीं है। अस्तिकायों के प्रदेश प्रचयत्व का अल्पबहुत्व : ___ ज्ञातव्य है कि सभी अस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार-क्षेत्र समान नहीं है, उसमें भिन्नताएँ हैं। जहाँ आकाश का विस्तार-क्षेत्र लोक और अलोक दोनों हैं वहाँ धर्म-द्रव्य और अधर्म-द्रव्य केवल लोक तक ही सीमित हैं। पुद्गल पिण्डों एवं जीव का विस्तार-क्षेत्र उसकेद्वारा गृहीत शरीर के आकार पर निर्भर करता है। इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय होते हुए भी उनका विस्तार-क्षेत्र या कायात्व समान नहीं है। जैन दार्शनिकों ने उनमें प्रदेश दृष्टि से भिन्नता स्पष्ट की है। भगवतीसूत्र' में बताया गया है कि धर्म-द्रव्य और अधर्म-द्रव्य के प्रदेश अन्य द्रव्यों की अपेक्षा सबसे कम है / वे लोक आकाश तक (Within the limits of universe) सीमित हैं और असंख्य प्रदेशी हैं। आकाश की प्रदेश संख्या इन दोनों की अपेक्षा अनन्त गुणा अधिक मानी गयी है। आकाश अनन्त प्रदेशी है, क्योंकि वह ससीम लोक (Finite universe) तक सीमित नहीं है। उसका विस्तार आलोक में भी है। पुनः आकाश की अपेक्षा समग्रतः जीव द्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक है, क्योंकि प्रथम तो यह कि जहाँ धर्म, अधर्म और आकाश एकल-द्रव्य हैं वहाँ जीव अनन्त-द्रव्य हैं क्योंकि जीव अनन्त हैं। पुनः प्रत्येक जीव के असंख्य प्रदेश हैं। प्रत्येक जीव में अपने आत्मप्रदेशों से संपूर्ण लोक को व्याप्त करने की क्षमता है। जीव-द्रव्य के प्रदेशों की अपेक्षा भी पुद्गल-द्रव्य केप्रदेश अनन्त गुणा अधिक हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव के साथ अनन्त कर्म-पुद्गल संयोजित हैं। यद्यपि काल की प्रदेश-संख्या पुद्गल की अपेक्षा भी अनन्त गुणी मानी गयी, क्योंकि प्रत्येक जीव और पुद्गल-द्रव्य की वर्तमान, अनादि भूत और अनन्त भविष्य की दृष्टि से अनन्त पर्यायें होती हैं, अतः काल की प्रदेश-संख्या सर्वाधिक होनी चाहिये, फिर भी कालाणुओं का समावेश पुद्गल-द्रव्य के प्रदेशों में होने की वजह से अस्तिकाय में पुद्गल-द्रव्य के प्रदेशों की संख्या ही सर्वाधिक मानी गई है। इस समग्र विवेचन से यह ज्ञात होता है कि अस्तिकाय की अवधारणा और द्रव्य की अवधारणा के वर्ण्य-विषय समान है। मात्र काल को ही अनास्तिकाय कहा गया है। शेष पाँच अस्तिकायों में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश को द्रव्य भी माना गया है। वास्तविकता तो यह है कि पञ्च अस्तिकायों की अवधारणा में 'काल' को जोड़कर जैन दार्शनिकों ने षद्रव्यों की अवधारणा निश्चित की है। षद्रव्य : यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि प्रारम्भ में जैन-दर्शन में पञ्च अस्तिकाय की अवधारणा ही थी। अपने इतिहास की दृष्टि से यह अवधारणा पार्श्वयुगीन थी। 'इसिभासियाई' केपार्श्व नामक इकतीसवें अध्याय में पार्श्व केजगत् सम्बन्धी दृष्टिकोण का प्रस्तुतीकरण करते हुए विश्व के मूल घटकों केरूप में 1. भगवतीसूत्र 11/10/100-103

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86