________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा पर्याय की अवधारणा पर आधारित है, अपितु जैन कर्म-सिद्धान्त और छह लेश्या की अवधारणा भी पर्याय की अवधारणा पर अवलम्बित है। इसी प्रकार गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान, षट्जीव निकाय, शरीर, इन्द्रिया और मन भी जीवद्रव्य और पुद्गल द्रव्य के संयोग-वियोग पर ही आधारित हैं। अतः इन सभी के द्रव्य एवं भाव ऐसे दो पक्ष होते हैं। वस्तुतः ये सभी आत्म-द्रव्य की पुद्गल के साथ संयोग या वियोग जन्य पर्यायें ही हैं। अधिक क्या कहें बन्धन और मुक्ति भी आत्म पर्यायें ही हैं / द्रव्यगुण और पर्याय की इस चर्चा में इन सभी पक्षों की चर्चा को विस्तारभय के कारण समाहित कर पाना सम्भव नहीं है। अतः इसे यहीं विराम देना उचित होगा। ___ आगे इन सभी अवधारणाओं का जैनदर्शन में किस क्रम से विकास हुआ इसकी चर्चा कर इस आलेख को विराम देगें। जैन तत्त्वमीमांसा की ऐतिहासिक विकासयात्रा : द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा एक तत्त्वमीमांसीय अवधारणा हैं; अतः यहाँ जैन तत्त्वमीमांसा के ऐतिहासिक विकासक्रम को समझ लेना भी आवश्यक है। जैनधर्म मूलतः आचार प्रधान है, उसमें तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं का विकास भी आचारमीमांसा के परिप्रेक्ष्य में ही हुआ है। उसकी तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं में मुख्यतः पंचास्तिकाय, षद्रव्य और सप्त तत्त्वों की अवधारणा प्रमुख हैं / परम्परा की दृष्टि से तो ये सभी अवधारणायें अपने मूल रूप में सर्वज्ञ प्रणीत और सार्वकालिक मानी गई हैं, किन्तु साहित्यिक साक्ष्यों की दृष्टि से विद्वानों ने इनका विकास भी कालक्रम में माना है। अस्तिकाय की अवधारणा : विश्व के मूलभूत घटकों के रूप में पंचास्तिकायों की अवधारणा जैनदर्शन की अपनी मौलिक विचारणा है, पंचास्तिकायों का उल्लेख आचारांग में तो अनुपलब्ध है, किन्तु ऋषिभाषित ई. पू. आठवीं सदी के पार्श्व के अध्ययन में पार्श्व की मान्यताओं के रूप में पंचास्तिकाय का वर्णन है। इससे फलित होता है कि यह अवधारणा कम से कम पार्श्वकालीन (ई.पू. आठवीं शती) तो है ही। भगवान महावीर की परम्परा में भगवतीसूत्र में सर्वप्रथम हमें इसका उल्लेख मिलता है। जैनदर्शन में अस्तिकाय का तात्पर्य विस्तारयुक्त-अस्तिवान द्रव्य से है। जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल को अस्तिकाय माना गया है। ई. सन् की तीसरी शती से दसवीं शती के मध्य इस अवधारणा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं देखा जाता है, मात्र षड्द्रव्यों की अवधारणा के विकास के साथ-साथ काल को अनास्तिकाय द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। इतना स्पष्ट है कि ई. सन् की तीसरी-चौथी