________________ 72 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा ग्रन्थों में मिलते हैं। किन्तु ऐसा लगता है कि सातवीं शताब्दी के पश्चात् यह विवाद समाप्त हो गया और श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में षद्रव्यों की मान्यता पूर्णतः स्थिर हो गई। उसके पश्चात् उसमें कहीं कोई परिवर्तन नहीं हुआ। ये षद्रव्य निम्न हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल और काल / आगे चलकर इन षद्रव्यों का वर्गीकरण अस्तिकाय-अनास्तिकाय, चेतन-अचेतन अथवा मूर्त-अमूर्त के रूप में किया जाने लगा। अस्तिकाय और अनास्तिकाय द्रव्यों की अपेक्षा से धर्म-अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल-इन पाँच को अस्तिकाय और काल को अनास्तिकाय द्रव्य माना गया। चेतन-अचेतन द्रव्यों की अपेक्षा से धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल को अचेतन द्रव्य और जीव को चेतन द्रव्य माना गया है। मूर्त और अमूर्त द्रव्यों की अपेक्षा से जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को अमूर्त द्रव्य और पुद्गल को मूर्त द्रव्य माना गया है। जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि विद्वानों ने भी यह माना है कि जैनदर्शन में द्रव्य की अवधारणा का विकास न्याय-वैशेषिक दर्शन से प्रभावित है। जैनाचार्यों ने वैशेषिक दर्शन की द्रव्य की अवधारणा को अपनी पंचास्तिकाय की अवधारणा से समन्वित किया है। अतः जहाँ वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य माने गये थे वहाँ जैनों ने पंचास्तिकाय के साथ काल को जोड़कर मात्र छ: द्रव्य ही स्वीकार किए। इनमें भी जीव (आत्मा), आकाश और काल-ये तीन द्रव्य दोनों ही परम्पराओं में स्वीकृत रहे। पंचमहाभूतों, जिन्हें वैशेषिक दर्शन में द्रव्य माना गया है, में आकाश को छोड़कर शेष पृथ्वी, अप् (जल), तेज (अग्नि) और मरुत (वायु) इन चार द्रव्यों को जैनों ने स्वीकार नहीं किया, इनके स्थान पर उन्होंने पाँच अस्तिकायों में से धर्म, अधर्म और पुद्गल ऐसे अन्य तीन द्रव्य निश्चित किए। यह भी ज्ञातव्य है कि जहाँ अन्य परम्पराओं में पृथ्वी, अप्, वायु और अग्नि इन चारों को जड़ माना गया था, वहाँ जैनों ने इन्हें चेतन माना। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैनदर्शन की षड्द्रव्य की अवधारणा अपने आप में मौलिक ही है। अन्य दर्शन परम्परा से उसका आंशिक साम्य ही देखा जाता है / इसका मूल कारण यह है कि उन्होंने इस अवधारणा का विकास अपनी मौलिक पंचास्तिकाय की अवधारणा से किया है। इसमें से जीवद्रव्य के भेदों की चर्चा में षट्जीव निकाय का विकास हुआ है। पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु को चेतन तत्त्व मानना, यह भी जैनों की विशेषता है। जीवद्रव्य का पुद्गल से किस प्रकार का सम्बन्ध है इसे भी जैनाचार्यों ने स्पष्ट किया। इसी आधार पर हम यह कह सकते हैं कि पंचास्तिकाय से षद्रव्य और षद्रव्यों में जीव और अजीव के सम्बन्ध के आधार पर नौ तत्त्वों की कल्पना स्थिर हुई है। पंचास्तिकाय, षद्रव्य और सात या नव तत्त्वों में जीवास्तिकाय, जीवद्रव्य या जीवतत्त्व समाहित ही था; अतः उसके प्रकारों की चर्चा में षट्जीव निकाय की अवधारणा बनी।