Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 16
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा अपरिवर्तनशील मानता है, तो कोई उसे परिवर्तनशील, कोई उसे एक कहता है, तो कोई अनेक, कोई उसे जड़ कहता है, तो कोई उसे चेतन / वस्तुतः सत्, परमतत्त्व या परमार्थ के स्वरूप सम्बन्धी इन विभिन्न दृष्टिकोणों के मूल में प्रमुखरूप से तीन प्रश्न रहे हैं। प्रथम प्रश्न उसके एकत्व अथवा अनेकत्व का है। दूसरे प्रश्न का सम्बन्ध उसके परिवर्तनशील या अपरिवर्तशील होने से है। तीसरे प्रश्न का विवेच्य उसके चित् या अचित् होने से है। ज्ञातव्य है कि अधिकांश भारतीय दर्शनों ने चित्-अचित्, जड़-चेतन या जीव-अजीव दोनों तत्त्वों या द्रव्यों को स्वीकार किया है अतः यह प्रश्न अधिक चर्चित नहीं बना, फिर भी इन सब प्रश्नों केदिये गये उत्तरों केपरिणामस्वरूप भारतीय चिन्तन में सत् या द्रव्य के स्वरूप में विविधता आ गयी। सत् या द्रव्य के परिवर्तनशील या अपरिवर्तनशील पक्ष की समीक्षा : सत् या द्रव्य के परिवर्तनशील अथवा अपरिवर्तनशील स्वरूप के सम्बन्ध में दो अतिवादी अवधारणाएँ हैं / एक धारणा यह है कि सत् निर्विकार एवं अव्यय है। त्रिकाल में उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता / इन विचारकों का कहना है कि जो परिवर्तित होता है, वह सत् नहीं हो सकता। परिवर्तन का अर्थ ही है कि पूर्व अवस्था की समाप्ति और नवीन अवस्था का ग्रहण / इन दार्शनिकों का कहना है कि जिसमें उत्पाद एवं व्यय की प्रक्रिया हो, उसे सत् नहीं कहा जा सकता। जो अवस्थान्तर को प्राप्त हो उसे सत् कैसे कहा जाये? इस सिद्धान्त के विरोध में जो सिद्धान्त अस्तित्व में आया वह सत् या द्रव्य की परिवर्तनशीलता का सिद्धान्त है। इन विचारकों के अनुसार परिवर्तनशीलता या अर्थक्रियाकारित्व की सामर्थ्य ही द्रव्य या सत् का लक्षण है। जो गतिशील नहीं है, दूसरे शब्दों में जो अर्थक्रियाकारित्व की शक्ति से हीन है, उसे द्रव्य या सत् नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक भारतीय दार्शनिक चिन्तन का प्रश्न है, कुछ औपनिषदिक चिन्तक और शंकर का अद्वैत वेदान्त सत्ता केअपरिवर्तनशील होने के सिद्धान्त के प्रबल समर्थक हैं / आचार्य शंकर के अनुसार परम सत्ता निर्विकार और अव्यय है। वह उत्पाद और व्यय दोनों से रहित है। इसके विपरीत दूसरा सिद्धान्त बौद्ध-दार्शनिकों का है। वे सभी एकमत से स्वीकार करते हैं, कि सत् या सत्ता का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व है। उत्पत्ति और विनाश की प्रक्रिया से पृथक् कोई वस्तु या सत्ता नहीं हो सकती / जहाँ तक भारतीय चिन्तकों में सांख्य दर्शनिकों का प्रश्न है वे चित् तत्त्व या पुरुष को अपरिवर्तनशील या कूटस्थनित्य मानते हैं किन्तु उनकी दृष्टि में प्रकृति कूटस्थनित्य नहीं है, वह परिवर्तनशील तत्त्व है। इस प्रकार सांख्य दार्शनिक पुरुष को अपरिवर्तनशील मानते हैं और प्रकृति को परिवर्तनशील मानते हैं।

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