Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 29
________________ 20 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा यदि चेतना प्रत्येक भौतिक तत्त्व में नहीं है तो उन तत्त्वों केसंयोग से भी वह उत्पन्न नहीं हो सकती। रेणु के प्रत्येक कण में न रहने वाला तेल, रेणुकणों के संयोग से उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः यह कहना युक्ति-संगत नहीं कि चैतन्य चार महाभूतों के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होता है। गीता भी कहती है कि असत् का प्रादुर्भव नहीं होता और सत् का विनाश नहीं होता है। यदि चैतन्य भूतों में नहीं है तो वह उनके संयोग से निर्मित शरीर में भी नहीं हो सकता / शरीर में चैतन्य की उपलब्धि होती है; अतः उसका कारण शरीर नहीं, आत्मा है। आत्मा की जड़ से भिन्नता सिद्ध करने के लिए शीलांकाचार्य एक दूसरी युक्ति प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि “पाँचों इन्द्रियों के विषय अलगअलग हैं, प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय का ही ज्ञान करती है। जब पाँचों इन्द्रियों के विषय अलगअलग हैं, प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय का ही ज्ञान करती है, तब पाँचों इन्द्रियों के विषयों का एकत्रीभूत रूप में ज्ञान करनेवाला अन्य कोई अवश्य है और वह आत्मा है।"३ इसी सम्बन्ध में शंकर की भी एक युक्ति है, जिसके सम्बन्ध में प्रो. ए. सी. मुखर्जी ने अपनी पुस्तक 'नेचर ऑफ सेल्फ' में पर्याप्त प्रकाश डाला है। शंकर पूछते हैं कि भौतिकवादियों केअनुसार भूतों से उत्पन्न होनेवाली वह चेतना उन भौतिक तत्त्वों की प्रत्यक्षकर्ता होगी या उनका ही एक गुण होगी। प्रथम स्थिति में यदि चेतना भौतिक तत्त्वों के गुणों की प्रत्यक्षकर्ता होगी, तो वह उनसे प्रत्युत्पन्न नहीं होगी। दूसरे यह कहना भी हास्यास्पद होगा कि भौतिक गुण अपने ही गुणों को ज्ञान की विषय-वस्तु बनाते हैं। यह मानना कि चेतना भौतिक पदार्थों का ही एक गुण है, उनसे ही प्रत्युत्पन्न है और उन भौतिक पदार्थों को ही अपने ज्ञान का विषय बनाती है, उतना ही हास्यास्पद है, जितना यह मानना कि आग अपने को ही जलाती है अथवा नट अपने ही कन्धों पर चढ़ सकता है। इस प्रकार शंकर का निष्कर्ष भी यही है कि चेतना (आत्मा) भौतिक तत्त्वों से व्यतिरिक्त और ज्ञानस्वरूप है। आक्षेप एवं निराकरण : ___ सामान्य रूप से जैन विचारणा में आत्मा या जीव को अपौद्गलिक, विशुद्ध चैतन्य एवं जड़ से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य माना जाता है। लेकिन अन्य दार्शनिकों का आक्षेप है कि जैनदर्शन के विचार में जीव का स्वरूप बहुत कुछ पौद्गलिक बन गया है। यह आक्षेप अजैन दार्शनिकों का ही नहीं, अनेक जैन चिन्तकों का भी है और उसके लिए आगमिक आधारों पर कुछ 1. जैनदर्शन, पृ. 157 2. गीता, 2/16 3. सूत्रकृताङ्ग टीका 1/1/8 4. दी नेचर ऑफ सेल्फ, पृ. 141-143

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