Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 67
________________ 58 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा हेमार्थिनस्तुमाध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् / नोत्पादस्थितिभंगानामभावेसन्मति त्रयम् // 22 // न नाशेन विना शोको, नोत्पादेन विनासुखम् / स्थित्याविना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्य नित्यता // 23 // मीमांसाश्लोकवार्तिक पृ-६१ अर्थात् वर्द्धमानक (बाजूबन्द) को तोड़कर रुचक (हार) बनाने में वर्द्धमानक को चाहनेवाले को शोक, रुचक चाहने वाले को हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को न हर्ष और न शोक होता है। उसका तो माध्यस्थ भाव रहता है। इससे सिद्ध होता है कि वस्तु या सत्ता उत्पाद भंग और स्थिति रूप होती है क्योंकि नाश के अभाव में शोक, उत्पाद के अभाव में सुख (हर्ष) और स्थिति के अभाव में माध्यस्थ भाव नहीं हो सकता है। इससे यही सिद्ध होता है कि मीमांसा दर्शन भी जैनदर्शन के समान ही, वस्तु को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक मानता है। परिणमन या परिवर्तन (पर्याय) यह द्रव्य का आधारभूत लक्षण है किन्तु इस प्रक्रिया में द्रव्य अपने मूल स्वरूप का पूर्णतः परित्याग नहीं करता है। स्व स्वरूप का परित्याग किये बिना विभिन्न अवस्थाओं को धारण करने से ही द्रव्य को नित्य कहा जाता है। किन्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली पर्यायों की अपेक्षा से उसे अनित्य भी कहा जाता है। उसे इस प्रकार भी समझाया जाता है कि मृत्तिका अपने स्व-जातीय धर्म का परित्याग किये बिना घट आदि को उत्पन्न करती है। घट की उत्पत्ति में पिण्ड पर्याय का विनाश होता है। जब तक पिण्ड पर्याय नष्ट नहीं होती, तब तक घट उत्पन्न नहीं होता; किन्तु इस उत्पाद और व्यय में भी मृत्तिका लक्षण द्रव्य यथावत् बना रहता है। वस्तुतः कोई भी द्रव्य अपने स्व-लक्षण, लक्षण की अपेक्षा से नित्य होता है, क्योंकि स्व-लक्षण का त्याग सम्भव नहीं है। अतः यह स्वलक्षण ही वस्तु का नित्य पक्ष होता है, उसे ही द्रव्य कहते हैं। स्व-लक्षण का त्याग किये बिना वस्तु जिन विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होती है, वे पर्याय कहलाती हैं। ये परिवर्तनशील पर्यायें ही द्रव्य का अनित्य पक्ष है; अतः द्रव्य और पर्याय अन्योन्याश्रित हैं। और अपनी पर्याय की अपेक्षा से अनित्य कहा जाता है। उदाहरण के रूप में जीव द्रव्य अपने चैतन्य गुण का कभी परित्याग नहीं करता, किन्तु अपने चेतना लक्षण का परित्याग किये बिना वह देव, मनुष्य, पशु इन विभिन्न योनियों को अथवा बालक, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओं को प्राप्त होता है इसे हम पूर्व में भी कह चुके हैं। जिन गुणों का परित्याग नहीं किया जा सकता है, वे ही गुण

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