Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 64
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा है / बुद्ध के इस कथन का कि 'क्रिया है, कर्ता नहीं' का आशय यह नहीं है कि वे किसी क्रियाशीलतत्त्व का निषेध करते हैं। उनके इस कथन का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि क्रिया से भिन्न कर्ता नहीं है। सत्ता और परिवर्तन में पूर्ण तादात्म्य है। सत्ता से भिन्न परिवर्तन और परिवर्तन से भिन्न सत्ता की स्थिति नहीं है। परिवर्तन और परिवर्तनशील अन्योन्याश्रित हैं, दूसरे शब्दों में वे सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं / वस्तुतः बौद्धदर्शन का सत् सम्बन्धी यह दृष्टिकोण जैनदर्शन की पर्याय की अवधारणा से उतना दूर नहीं है, जितना माना गया है। बौद्धदर्शन में सत्ता को अनुच्छेद और अशाश्वत् कहा गया है अर्थात् वे भी न उसे एकान्त अनित्य मानते हैं और न एकान्त नित्य। वह न अनित्य है और न नित्य हैं जब कि जैन दार्शनिकों ने उसे नित्यानित्य कहा है, किन्तु दोनों परम्पराओं का यह अन्तर निषेधात्मक अथवा स्वीकारात्मक भाषा-शैली का अन्तर है। बुद्ध और महावीर के कथन का मूल उत्स एक-दूसरे से उतना भिन्न नहीं है जितना कि हम उसे मान लेते हैं / सत् को अव्यय या अपरिवर्तनशील मानने का एकान्त पक्ष और सत् को परिवर्तनशील या क्षणिक मानने का एकान्त पक्ष जैन और बौद्ध विचारकों को स्वीकार्य नहीं रहा है। दोनों में मात्र अन्तर यह है कि भगवान महावीर ने जहाँ अस्तित्व के उत्पाद-व्यय पक्ष अर्थात् पर्याय पक्ष के साथ-साथ ध्रौव्यपक्ष को भी स्वीकृति प्रदान की है; वहाँ भगवान् बुद्ध ने अस्तित्व के परिवर्तनशील पक्ष पर ही अधिक बल दिया / बौद्धदर्शन की अस्तित्त्व की व्याख्या जैनदर्शन की पर्याय की अवधारणा केअति निकट है। बौद्धों ने पर्याय अर्थात् अर्थक्रियाकारित्व की शक्ति को ही अस्तित्व मान लिया / बौद्धदर्शन ने परिवर्तनशीलता और अस्तित्त्व में तादात्म्य माना और कहा कि परिवर्तनशीलता ही अस्तित्व है (Becoming is real) / जैन-दर्शन ने भी द्रव्य (Being) और पर्याय (Becoming) अर्थात् 'अस्तित्व' और 'होने' में तादात्म्य तो माना किन्तु, तादात्म्य के साथ-साथ दोनों के स्वतन्त्र अस्तित्व को भी स्वीकार किया अर्थात् उनमें भेदाभेद माना / सत् के सम्बन्ध में एकान्त परिवर्तनशीलता का दृष्टिकोण और एकान्त अपरिवर्तनशीलता का दृष्टिकोण इन दोनों में से किसी एक को अपनाने पर न तो व्यवहार जगत् की व्याख्या सम्भव है न धर्म और नैतिकता का कोई स्थान संभव है। यही कारण था कि आचारमार्गीय परम्परा के प्रतिनिधि भगवान् महावीर एवं भगवान् बुद्ध ने उनका परित्याग आवश्यक समझा / भगवान महावीर की विशेषता यह रही कि उन्होंने न केवल एकान्त शाश्वतवाद का और एकान्त उच्छेदवाद का परित्याग किया, अपितु अपनी अनेकान्तवादी और समन्वयवादी परम्परा के अनुसार उन दोनों विचारधाराओं में सामंजस्य स्थापित किया / परम्परागत दृष्टि से यह माना जाता है कि भगवान् महावीर ने केवल 'उपनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' इस त्रिपदी का उपदेश दिया था। समस्त जैन दार्शनिक वाङ्मय का विकास उसी त्रिपदी के आधार पर हुआ है। परमार्थ या सत् के स्वरूप के

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