________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा अपेक्षा से शाश्वत और पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत (अनित्य) कहा गया है। इस तथ्य को अधिक स्पष्टता पूर्वक चित्रित करते हुए सन्मतितर्क के आचार्य सिद्धसेन दिवाकर लिखते हैं उपजंति चयंति वा भावा नियमेण पज्जवनयस्स / दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्न अविणटुं // सन्मतितर्क 5/11 अर्थात् पर्याय की अपेक्षा से अस्तित्व या वस्तु उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से वस्तु न तो उत्पन्न होती है और न विनष्ट होती है। उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में 'सत् द्रव्यलक्षणं' (4/21) कहकर सत् को द्रव्य का लक्षण बताया है। इस परिभाषा से यह फलित होता है कि द्रव्य का मुख्य लक्षण अस्तित्व है। जो अस्तित्ववान है, वही द्रव्य है। किन्तु यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना होता है कि द्रव्य शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ तो 'द्रूयते इति द्रव्य' के आधार पर उत्पाद-व्यय रूप अस्तित्व को ही सिद्ध करता है। इसी आधार पर यह कहा गया है, कि जो त्रिकाल में परिणमन करते हुए भी अपने स्व स्वभाव का पूर्णतः परित्याग न करे उसे ही सत् या द्रव्य कहा है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र (5/29) में उमास्वाति ने एक ओर द्रव्य का लक्षण सत् बताया तो दूसरी ओर सत् को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कहा है। साथ ही उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र (5/38) में द्रव्य को परिभाषित करते हुए उसे गुण, पर्याय से युक्त भी कहा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकायसार और प्रवचनसार में इन्हीं दोनों लक्षणों को मिलाकर द्रव्य को पारिभाषित किया है। पंचास्तिकायसार (10) में वे कहते हैं द्रव्य सत् लक्षण वाला है। इसी परिभाषा को और स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार (15-96) में वे कहते हैं, जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त तथा गुण-पर्याय सहित है, उसे द्रव्य कहा जाता है। इस प्रकार कुन्दकुन्दने द्रव्य की परिभाषा के सन्दर्भ में उमास्वाति के सभी लक्षणों को स्वीकार कर लिया है और द्रव्य तथा पर्याय के सहसम्बन्ध और उनकी सापेक्षता को स्पष्ट कर दिया है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति की विशेषता यह है कि उन्होंने गुणपर्यायवत् द्रव्य कहकर जैनदर्शन के भेद-अभेदवाद को पुष्ट किया है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य की यह परिभाषा भी वैशेषिकसूत्र के 'द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं सत्ता' (1/2/8) नामक सूत्र केनिकट ही सिद्ध होती है। उमास्वाति ने इस सूत्र में कर्म के स्थान पर पर्याय को रख दिया है। जैनदर्शन के सत् सम्बन्धी सिद्धान्त की चर्चा में हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य या सत्ता परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। इसी तथ्य को मीमांसा दर्शन में भी इस रूप में स्वीकार किया गया है : वर्द्धमानकभंगे च, रुचकः क्रियते यदा / तदापूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाय्युत्तरार्थिनः // 21 //