Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 83
________________ 74 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा यहाँ हमारी विवेच्य षट्जीवनिकाय की अवधारणा है, जो निश्चित ही महावीरकालीन तो है ही और उसके भी पूर्व की हो सकती है, क्योंकि इसकी चर्चा आचारांग के प्रथम अध्ययन में है। इतना भी निश्चित सत्य है कि न केवल वनस्पति और अन्य जीव-जन्तु सजीव हैं अपितु पृथ्वी, अप्, तेज और वायु भी सजीव हैं। यह अवधारणा स्पष्ट रूप से जैनों की रही है सांख्य, न्याय-वैशेषिक आदि प्राचीन दर्शन-धाराओं में इन्हें पंचमहाभूतों के रूप में जड़ ही माना गया था- जब कि जैनों में इन्हें चेतन, सजीव मानने की परम्परा रही है। पंचमहाभूतों में मात्र आकाश ही ऐसा है, जिसे जैन परम्परा भी अन्य दर्शन परम्पराओं के समान अजीव (जड़) मानती है। यही कारण था कि आकाश की गणना पंचास्तिकाय में तो की गई किन्तु षट्जीवनिकाय में नहीं। जब कि पृथ्वी, अप, तेज और वायु को षट्जीवनिकाय के अन्तर्गत माना गया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में पृथ्वी, जल आदि के आश्रित जीव रहते हैं, इतना ही न मानकर यह भी माना गया है कि ये स्वयं जीव हैं, यद्यपि इनकी जीवरूपता इस अर्थ में है कि ये जब किसी भी जीवित शरीर का अंग होते हैं, सजीव होते हैं, जैसे हमारी हड्डियों में रहा हुआ चूना, खून में रहा हुआ लोहतत्त्व या शरीर में रहा हुआ अग्नि, वायु, या जल तत्त्व / अतः जैनधर्म की साधना में और विशेष रूप से जैन मुनि आचार में इनकी हिंसा से बचने के निर्देश दिये गये हैं। जैन आचार में अहिंसा के परिपालन में जो सूक्ष्मता और अतिवादिता आयी है, उसका मूल कारण यह षट्जीवनिकाय की अवधारणा है। यह स्वाभाविक था कि जब पृथ्वी, पानी, वायु आदि को सजीव मान लिया गया तो अहिंसा के परिपालन के लिये इनकी हिंसा से बचना आवश्यक हो गया। यह स्पष्ट है कि षट्जीवनिकाय की अवधारणा जैनदर्शन की प्राचीनतम अवधारणा है। प्राचीन काल से लेकर यह आज तक यथावत् रूप से मान्य है। तीसरी शताब्दी से ईसा की दसवीं शताब्दी के मध्य इस अवधारणा में वर्गीकरण सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर अन्य कोई मौलिक परिवर्तन हुआ हो, यह मानना कठिन है। इतना स्पष्ट है कि आचारांग के बाद सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की जीव सम्बन्धी अवधारणा में कुछ विकास अवश्य हुआ है। पं. दलसुखभाई मालवाणिया के अनुसार जीवों की उत्पत्ति किस-किस योनि में होती है, जब वे एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करते है, तो अपने जन्म स्थान में किस प्रकार आहार ग्रहण करते हैं, इसका विवरण सूत्रकृतांग के आहार-परिज्ञा नामक द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययन में है। यह भी ज्ञातव्य है कि उसमें जीवों के एक प्रकार को 'अनुस्यूत' कहा जाता है। सम्भवतः इसी से आगे जैनों में अनन्तकाय ओर प्रत्येक वनस्पति की अवधारणाओं का विकास हुआ हो / दो, तीन और चार इन्द्रियों वाले जीवों में किस वर्ग में कौन से जीव हैं, यह भी परवर्तीकाल में ही निश्चित हुआ। फिर भी भगवती, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना के काल तक अर्थात् ई. की तीसरी शताब्दी तक यह अवधारणा

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