Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 44
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा - 35 जीव व पुद्गल की गति के सहायक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। जो जीव और पुद्गल की गति के माध्यम का कार्य करता है, उसे धर्म द्रव्य कहा जाता है। जिस प्रकार मछली की गति जल के माध्यम से ही सम्भव होती है अथवा जैसे विधुत-धारा उसके चालक द्रव्य तार आदि के माध्यम से ही प्रभावित होती है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल विश्व में प्रसारित धर्म द्रव्य के माध्यम से ही गति करते हैं। इसका प्रसार क्षेत्र लोक तक सीमित है। अलोक में धर्म द्रव्य का अभाव है। इसीलिए उसमें जीव और पुद्गल की गति सम्भव नहीं होती और यही कारण है कि उसे अलोक कहा जाता है। अलोक का तात्पर्य है कि जिसमें जीव और पुद्गल का अभाव हो / धर्म द्रव्य और अखण्ड द्रव्य है। जहाँ जीवात्माएँ अनेक मानी गई हैं वहाँ धर्म द्रव्य एक ही है। लोक तक सीमित होने के कारण इसे अनन्त न मानकर सीमित ही माना गया है। लोक चाहे कितना ही विस्तृत क्यों न हो वह असीम न होकर ससीम है और ससीम लोक में व्याप्त होने के कारण धर्म द्रव्य को आकाश के समान अनन्त प्रदेशी न मानकर असंख्य प्रदेशी मानना ही उपयुक्त है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि धर्म द्रव्य की यह व्याख्या कुछ विचारकों की दृष्टि में परवर्ती कालीन है। अधर्म द्रव्य : अधर्म द्रव्य भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत आता है। इसका भी विस्तारक्षेत्र या प्रदेशप्रचयत्व लोकव्यापी है। अलोक में इसका अस्तित्व नहीं है। अधर्म द्रव्य का लक्षण या कार्य जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक होना माना गया है। परम्परागत उदाहरण के रूप में यह कहा जाता है कि जिस प्रकार वृक्ष की छाया पथिक के विश्राम में सहायक होती उसी प्रकार अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की अवस्थिति में सहायक होता है। जहाँ धर्म द्रव्य गति का माध्यम (चालक) है, वहाँ अधर्म द्रव्य गति का कुचालक है अतः उसे स्थिति का माध्यम कहा गया है। यदि अधर्म द्रव्य नहीं होता, तो जीव व पुद्गल की गति का नियमन असम्भव हो जाता और वे अनन्त आकाश में बिखर जाते / जिस प्रकार वैज्ञानिकदृष्टि से गुरुत्वाकर्षण आकाश में स्थित पुद्गल पिण्डों को नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी जीव व पुद्गल की गति का नियमन कर उसे विराम देता है। संख्या की दृष्टि से अधर्म द्रव्य को एक और अखण्ड द्रव्य माना गया है। प्रदेश-प्रचयत्व की दृष्टि से इसका विस्तारक्षेत्र लोक तक सीमित होने के कारण इसे असंख्य प्रदेशी माना जाता है, फिर भी वह एक अखण्ड द्रव्य है, क्योंकि उसका विखण्डन सम्भव नहीं है। धर्म और अधर्म द्रव्यों में देश-प्रदेश आदि की कल्पना मात्र वैचारिक स्तर पर ही होती है।

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