Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 34
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा 3. आत्मा के एक मानने पर नैतिक उत्तरदायित्व तथा तज्जनित पुरस्कार और दण्ड की समाप्त हो जाती है और वैयक्तिकता के अभाव में नैतिक विकास, नैतिक उत्तरदायित्व और पुरुषार्थ आदि नैतिक प्रत्ययों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसलिये विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि सुख-दुःख, जन्म-मरण, बन्धन-मुक्ति आदि के संतोषप्रद समाधान के लिए अनेक आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता मानना आवश्यक है। सांख्यकारिका में भी जन्म-मरण, इन्द्रियों की विभिन्नताओं, प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग प्रवृत्ति और स्वभाव तथा नैतिक विकास की विभिन्नता केआधारों पर आत्मा की अनेकता सिद्ध की गयी है। अनेकात्मवाद की नैतिक कठिनाई : अनेकात्मवाद नैतिक जीवन के लिए वैयक्तिकता का प्रत्यय तो प्रस्तुत कर देता है, तथापि अनेक आत्माएँ मानने पर भी कुछ नैतिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन नैतिक कठिनाइयों में प्रमुखतम यह है कि नैतिकता का समग्र प्रयास जिस 'अहं' के विसर्जन के लिए है उसी 'अहं' (वैयक्तिकता) को ही यह आधारभूत बना देता है। अनेकात्मवाद में 'अहं' कभी भी पूर्णतया विसर्जित नहीं हो सकता। इसी 'अहं' से राग और आसक्ति का जन्म होता है। पुनः 'अहं' भी तृष्णा का ही एक रूप है, 'मैं' का भाव भी बन्धन ही है। जैनदर्शन का निष्कर्ष : जैनदर्शन में इस समस्या का भी अनेकान्त दृष्टि से सुन्दर हल प्रस्तुत किया गया है। उसके अनुसार आत्मा एक भी है और अनेक भी। समवायांग और स्थानांगसूत्र में उसे एक भी कहा गया है। द्रव्यापेक्षा से एक है और पर्यायापेक्षा से अनेक, जैसे सिन्धु का जल न एक है और न अनेका वह जलराशि की दृष्टि से एक है और जल-बिन्दुओं की दृष्टि से अनेक भी। समस्त जल-बिन्दु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए उस जल-राशि से अभिन्न ही है। उसी प्रकार अनन्त चेतन आत्माएँ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए भी अपने चेतना स्वभाव के कारण एक चेतन आत्मद्रव्य ही हैं। भगवान् महावीर ने इस प्रश्न का समाधान बड़े सुन्दर ढंग से टीकाकारों के पहले ही कर 1. विशेषावश्यक भाष्य, 1582 3. समवायांग, 1/1; स्थानांगसूत्र, 1/1 4. भगवतीसूत्र, 2/1; समवायांग टीका, 1/1

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