Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 22
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा हैं, किन्तु प्रत्येक कालाणु (Time grains) अपने आप में एक स्वतन्त्र द्रव्य है, वे परस्पर निरपेक्ष हैं, अर्थात् उनके स्कन्ध नहीं बनते हैं। स्कन्ध के अभाव में उनमें प्रदेश प्रचयत्व की कल्पना सम्भव नहीं है, अत: वे अस्तिकाय द्रव्य नहीं हैं। काल-द्रव्य को अस्तिकाय इसलिए नहीं कहा गया उसमें स्वरूपतः और उपचारतः-दोनों ही प्रकार के प्रदेश प्रचयत्व की कल्पना का अभाव है। ___ यद्यपि पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त ने पुद्गल (Matter) का गुण विस्तार (Extension) माना है, किन्तु जैनदर्शन की विशेषता तो यह है कि वह आत्मा, धर्म, अधर्म और आकाश जैसे अमूर्त-द्रव्यों में भी विस्तार की अवधारणा को स्वीकार करता है। इनके विस्तारवान् (कायत्व से युक्त) होने का अर्थ है, वे दिक् (Space) में प्रसारित या व्याप्त हैं। धर्म एवं अधर्म तो एक महास्कन्ध के रूप में संपर्ण लोकाकाश केसीमित असंख्य प्रदेशी क्षेत्र में प्रसारित या व्याप्त है। आकाश तो स्वतः ही अनन्त प्रदेश होकर लोक एवं अलोक में विस्तारित है, अतः इसमें भी कायत्व की अवधारणा सम्भव है। जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, देकार्त उसमें 'विस्तार' को स्वीकार नहीं करता है, किन्तु जैनदर्शन उसे विस्तारयुक्त मानता है। क्योंकि आत्मा जिस शरीर को अपना आवास बनाता है, उसमें वह समग्रतः व्याप्त हो जाता है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि शरीर के अमुक भाग में आत्मा है और अमुक भाग में नहीं है, वह अपने चेतना लक्षण से संपूर्ण शरीर को व्याप्त करता है। अतः उसमें विस्तार है, वह अस्तिकाय है। हमें इस भ्रान्ति को निकाल देना चाहिये कि केवल मूर्त-द्रव्य का ही विस्तार होता है, अमूर्त का नहीं। आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अमूर्त-द्रव्य का विस्तार होता है। वस्तुतः अमूर्त-द्रव्य के विस्तार की कल्पना उसके लक्षणों या कार्यों (Functions) के आधार पर की जा सकती है, जैसे धर्म-द्रव्य का कार्य गति को सम्भव बनाना है, वह गति का माध्यम माना गया है। अतः जहाँ-जहाँ गति है या गति सम्भव है, वहाँ-वहाँ धर्म-द्रव्य की उपस्थिति एवं विस्तार है यह माना जा सकता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि किसी द्रव्य को अस्तिकाय कहने का तात्पर्य यह है कि वह द्रव्य दिक् में प्रसारित है या प्रसारण की क्षमता से युक्त है। विस्तार की उपस्थिति में ही प्रदेश प्रचयत्व तथा सावयवता की सिद्धि होती है। अतः जिन द्रव्यों में विस्तार या प्रसार का लक्षण है, वे अस्तिकाय हैं। अब एक प्रश्न यह शेष रहता है कि काल को अस्तिकाय क्यों नहीं माना जा सकता? यद्यपि अनादि भूत से लेकर अनन्त भविष्य तक काल के विस्तार का अनुभव किया जा सकता है, किन्तु फिर भी उसमें कायत्व का आरोपण सम्भव नहीं है। क्योंकि काल का प्रत्येक घटक अपनी स्वतन्त्र और पृथक् सत्ता रखता है। जैनदर्शन की पारम्परिक परिभाषा में कालाणुओं में स्निग्ध एवं रुक्ष गुण का अभाव होने केकारण उनका कोई स्कन्ध या संघात नहीं बन सकता है। यदि उनके स्कन्ध की परिकल्पना भी कर ली जाये तो पर्याय-समय की सिद्धि नहीं होती है। पुनः काल के

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