________________ 56 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा सम्बन्ध में भगवान महावीर का यह उपर्युक्त कथन ही जैनदर्शन का केन्द्रीय तत्त्व है और यही उसकी पर्याय की अवधारणा का आधार भी है। इसे हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं। __ इस सिद्धान्त के अनुसार उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य ये तीनों ही सत् के लक्षण हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने सत् को परिभाषित करते हुए कहा है कि सत् उत्पाद्-व्यय और ध्रौव्यात्मक है (तत्त्वार्थ, 5/21), उत्पाद और व्यय सत् के परिवर्तनशील पक्ष या पर्याय को बताते हैं, तो ध्रौव्य उसकेअविनाशी पक्ष या द्रव्य को। सत् का ध्रौव्य गुण उसके उत्पत्ति एवं विनाश का या पर्याय परिवर्तन का आधार है, विभिन्न पर्यायों के मध्य योजक कडी है। यह सत्य है कि विनाश के लिए उत्पत्ति और उत्पत्ति केलिए विनाश आवश्यक है, किन्तु उत्पत्ति और विनाश दोनों के लिए किसी ऐसे आधारभूत तत्त्व की आवश्यकता होती है, जिसमें उत्पत्ति और विनाश की प्रक्रियायें घटित होती हैं। यदि हम द्रव्यरूपी ध्रौव्य पक्ष को अस्वीकार करेंगे तो उत्पत्ति और विनाश रूप पर्यायें परस्पर असम्बन्धित हो जायेंगी और सत्ता अनेक क्षणिक एवं असम्बन्धित क्षणजीवी तत्त्वों में विभक्त हो जायेगी / इन परस्पर असम्बन्धित क्षणिक सत्ताओं की अवधारणा से व्यक्तित्व की एकात्मकता का ही विच्छेद हो जायेगा, जिसके अभाव में नैतिक उत्तरदायित्व और कर्मफल व्यवस्था ही अर्थहीन हो जायेगी। इसी प्रकार एकान्त ध्रौव्यता या कूटस्थ नित्य द्रव्य को स्वीकार करने पर भी इस जगत् में चल रहे उत्पत्ति और विनाश रूप पर्याय परिवर्तन के क्रम को समझाया नहीं जा सकता। जैनदर्शन में सत् के अपरिवर्तनशील पक्ष को द्रव्य और गुण तथा परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय कहा जाता है। अग्रिम पृष्ठों में हम द्रव्य, गुण और पर्याय के सह सम्बन्ध के बारे में चर्चा करेंगे। द्रव्य और पर्याय का सहसम्बन्ध : ___ हम यह पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि जैन-परम्परा में सत् और द्रव्य को पर्यायवाची माना गया है। मात्र यही नहीं, उसमें सत् के स्थान पर द्रव्य ही प्रमुख रहा है। आगमों में सत् के स्थान पर द्रव्य हैं। इन दोनों शब्दों में भी द्रव्य शब्द मुख्यतः अन्य परम्पराओं के प्रभाव से जैनदर्शन में आया है, उसका अपना मूल शब्द तो अस्तिकाय ही है। इसमें 'अस्ति' शब्द सत्ता के शाश्वत पक्ष का और काय शब्द अशाश्वत पक्ष का सूचक माना जा सकता है। वैसे सत्ता को काय शब्द से सूचित करने की परम्परा श्रमण-धारा के प्रक्रुधकात्यायन आदि अन्य दार्शनिकों में भी रही है। भगवतीसूत्र में है कि “दव्वट्ठाए सिय सासया पज्जवट्ठाए सिय असासया" अर्थात् अस्तित्व को द्रव्य की