Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 39
________________ 30 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आत्मा अमूर्त होने के कारण नित्य है। भगवतीसूत्र में भी जीव को अनादि, अनिधन, अविनाशी, अक्षय ध्रुव और नित्य कहा गया है। लेकिन इन सब स्थानों पर नित्यता का अर्थ परिणामी नित्यता ही समझना चाहिए। भगवतीसूत्र एवं विशेषावश्यकभाष्य में इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है। भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए आत्मा को शाश्वत और अशाश्वत दोनों कहा है'भगवान् ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत ?' 'गौतम ! जीव शाश्वत (नित्य) भी है और अशाश्वत (अनित्य) भी!' 'भगवन् ! यह कैसे कहा गया कि जीव नित्य भी है और अनित्य भी?!' 'गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, भाव (पर्याय) की अपेक्षा से अनित्य !'3 ___ आत्मा-द्रव्य (सत्ता) की अपेक्षा से नित्य है अर्थात् आत्मा न तो कभी अनात्म (जड़) से उत्पन्न होती है न किसी भी अवस्था में अपने चेतना लक्षण को छोड़कर जड़ बनती है। इसी दृष्टि से उसे नित्य कहा जाता है लेकिन आत्मा की मानसिक अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, अतः इस अपेक्षा से उसे अनित्य कहा गया है। आधुनिक दर्शन की भाषा में जैनदर्शन के अनुसार तात्त्विक आत्मा नित्य है और अनुभवाधारित आत्मा अनित्य है। जिस प्रकार स्वर्णाभूषण स्वर्ण की दृष्टि से नित्य और आभूषण की दृष्टि से अनित्य हैं, उसी प्रकार आत्मा तत्त्व की दृष्टि से नित्य एवं विचारों और भावों की दृष्टि से अनित्य है। जमाली के साथ हुए प्रश्नोत्तर में भगवान् महावीर ने अपने इस दृष्टिकोण को स्पष्ट कर दिया है कि वे किस अपेक्षा से जीव को नित्य मानते हैं और किस अपेक्षा से अनित्य / भगवान् महावीर कहते हैं- "हे जमाली. जीव शाश्वत है तीनों कालों में ऐसा कोई समय नहीं है जब यह जीव (आत्मा) नहीं था, नहीं है, अथवा नहीं होगा। इसी अपेक्षा से यह जीवात्मा, नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अक्षय और अव्यय है। हे जमाली, जीव अशाश्वत है, क्योंकि नारक मरकर तिर्यंच होता है, तिर्यंच मरकर मनुष्य होता है, मनुष्य मर कर देव होता है। इस प्रकार इन नाना रूपों या पर्यायों को प्राप्त करने के कारण उसे अनित्य कहा जाता है।"४ नैतिक विचारणा की दृष्टि से आत्मा को नित्यानित्य (परिणामी-नित्य) मानना ही समुचित है / नैतिकता की धारणा में जो विरोधाभास है, उसका निराकरण केवल परिणामी नित्य आत्मावाद में ही सम्भव है। नैतिकता का विरोधाभान यह है कि 1. उत्तराध्ययनसूत्र, 14/19 2. भगवतीसूत्र, 9/6/3/87 3. वही, 7/2/273 4. वही, 9/6/387; 1/4/42

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