Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 18
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा फिर फल कहाँ से? इस प्रकार इसमें बन्धन-मुक्ति, पुनर्जन्म को कोई स्थान नहीं है। "युक्त्यानुशासान" में कहा गया है कि क्षणिकवाद संवृत्ति सत्य के रूप में भी बन्धन-मुक्ति आदि की स्थापना नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी दृष्टि में परमार्थ या सत् निःस्वभाव है। यदि परमार्थ नि:स्वभाव है तो फिर व्यवहार का विधान कैसे होगा? आचार्य हेमचन्द्र ने 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' में क्षणिकवाद पर पाँच आक्षेप लगाये हैं- 1. कृत-प्रणाश, 2. अकृत-भोग, 3. भव-भंग, 4. प्रमोक्ष-भंग और 5. स्मृति-भंग। यदि कोई नित्य सत्ता ही नहीं है और प्रत्येक सत्ता क्षणजीवी है तो फिर व्यक्ति द्वारा किये गये कर्मों का फलभोग कैसे सम्भव होगा, क्योंकि फलभोग के लिए कर्तृत्वकाल और भोक्तृत्वकाल में उसी व्यक्ति का होना आवश्यक है, अन्यथा कार्य कौन करेगा और फल कौन भोगेगा? वस्तुतः एकान्त क्षणिकवाद में अध्ययन कोई और करेगा, परीक्षा कोई और देगा, उसका प्रमाण-पत्र किसी और को मिलेगा, उस प्रमाण-पत्र के आधार पर नौकरी कोई अन्य व्यक्ति प्राप्त करेगा और जो वेतन मिलेगा वह किसी अन्य को। इसी प्रकार ऋण कोई अन्य व्यक्ति लेगा और उसका भुगतान किसी अन्य व्यक्ति को करना होगा। यह सत्य है कि बौद्धदर्शन में सत्ता के अनित्य एवं क्षणिक स्वरूप पर अधिक बल दिया गया है। यह भी सत्य है कि भगवान् बुद्ध सत् को एक प्रक्रिया (Process) के रूप में देखते हैं। उनकी दृष्टि में विश्व मात्र एक प्रक्रिया (परिवर्तनशीलता) है, उस प्रक्रिया से पृथक् कोई कर्ता नहीं है। इसी प्रकार प्रक्रिया से अलग कोई सत्ता नहीं है, किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिये कि बौद्धदर्शन के इन मन्तव्यों का आशय एकान्त क्षणिकवाद या उच्छेदवाद नहीं है। आलोचकों ने उसे उच्छेदवाद समझकर, जो आलोचना प्रस्तुत की है, चाहे वह उच्छेदवाद के सन्दर्भ में संगत हो, किन्तु बौद्धदर्शन के सम्बन्ध में नितान्त असंगत है। बुद्ध सत् के परिवर्तनशील पक्ष पर बल देते हैं, किन्तु इस आधार पर उन्हें उच्छेदवाद का समर्थक नहीं कहा जा सकता। बुद्ध के इस कथन का कि "क्रिया है, कर्ता नहीं" का आशय यह नहीं है, कि वे कर्ता या क्रियाशील तत्त्व का निषेध करते हैं। उनके इस कथन का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि क्रिया से भिन्न कर्ता नहीं है। सत्ता और परिवर्तन में पूर्ण तादात्म्य है। सत्ता से भिन्न परिवर्तन और परिवर्तन से भिन्न सत्ता की स्थिति नहीं है। परिवर्तन और परिवर्तनशील सत्ता अन्योन्याश्रित हैं, दूसरे शब्दों में वे सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं / वस्तुतः बौद्धदर्शन का सत्ता सम्बन्धी यह दृष्टिकोण जैन-दर्शन से उतना दूर नहीं है जितना माना गया है। बौद्धदर्शन में परम तत्त्व सत्ता को अनुच्छेद और अशाश्वत कहा गया है अर्थात् वे न उसे एकान्त अनित्य मानते हैं और न एकान्त नित्य / वह न अनित्य है और न नित्य है, जब कि जैन दार्शनिकों ने उसे नित्यानित्य 1. आप्तमीमांसा 41 2. युक्त्यानुशासन, क्षणिकवादसमीक्षा प्रकरण 3. स्याद्वादमंजरी कारिका 18 की टीका

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